हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #189 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 189 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मना रहे इस वर्ष में, दो -दो सावन माह।

बम भोले का नाम ले, नाचे झूमे राह।।

सावन में सखियाँ कहे, मन भावन त्योहार।

खुशियाँ साजन संग हैं, मिले पिया का प्यार।।

झड़ी प्यार की बरसती, झूमे धरती आज।

हमको तो होने लगा, धरती पर है  नाज़।।

बादल कैसे घुमड़ते, फैले श्यामल रंग।

लगता है जैसे अभी, लग जायेंगे अंग।।

घिरे मेघ अब कह रहे, सुनो गीत मल्हार।

बरसेंगे हम झूम के, नाचेगा संसार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #175 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे…”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 175 ☆

 ☆ “संतोष के दोहे…☆ श्री संतोष नेमा ☆

सुनो टमाटर  आज कहानी

आने  लगा  आँख  में पानी

कहे  विदेशी कोई   तुझको

कोई   कहता   पाकिस्तानी

घर  गरीब  का  छोड़ा  तूने

दूभर  की उनकी जिंदगानी

गुटनिरपेक्ष    कहानी   तेरी 

बैगन  आलू  गोभी    जानी

फेर  में आकर  राजनीति के

करे  खूब  तू  भी    मनमानी

महंगाई     के   आसमान   से

उतर  करो  सबकी  अगवानी

ठेस  न हो “संतोष” किसी को

छोड़ो   अब    सारी    नादानी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #182 ☆ ध्येय निष्ठा… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 182 – विजय साहित्य ?

🌼 ध्येय निष्ठा…! 🌼 ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

(स्वामी विवेकानंद स्मृती दिनानिमित्त)

स्वामी विवेकानंदांचे

दिव्य स्थान अंतरात

दत्त नरेंद्र नाथ हे

मुळ नाव दिगंतात…!

 

राम कृष्णांचा संदेश

पोचविला जगतात

रामकृष्ण मिशनाचे

कार्य जागे काळजात..!

 

पाश्चिमात्य तत्वज्ञान

घनिभूत देशभक्ती

स्वामी विवेकानंदांची

तर्कशास्त्र ध्येयासक्ती..!

 

सर्वधर्म परीषद

वेदांताचा पुरस्कार

भारतीय संस्कृतीचा

केला प्रचार प्रसार..!

 

गर्व,पैसा,कींवा भूक

नको अती उपभोग

अती हव्यासाने होई

वीषमयी नाना‌रोग..!

 

भारतीय दृष्टीकोन

विचारांचे दिले धन

सर्वांगीण विकासात

सेवाभावी तनमन..!

 

स्वामी विवेकानंदाचा

शब्द शब्द मौल्यवान

कार्य कर्तृत्वाचे यश

व्यासंगात परीधान…!

 

स्वामी विवेकानंदाची

दिव्य जीवन प्रणाली

एका एका अक्षरांत

ध्येय निष्ठा सामावली…!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २८ (सोमसूक्त) : ऋचा १ ते ९ — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २८ (सोमसूक्त) : ऋचा १ ते ९ — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २८ (सोमसूक्त) – ऋचा १ ते ९

ऋषी – शुनःशेप आजीगर्ति : देवता – १-४ इंद्र; ५-६ उलूखल; ७-८ उलूखल व मुसळ; ९ प्रजापति

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील अठ्ठाविसाव्या  सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ती  या ऋषींनी विविध  देवतांना  आवाहन केलेले  असले तरी  हे मुख्यतः  सोमवल्लीला उद्देशून आहे. या सोमवल्लीपासूनच सोमरसाची निर्मिती केली जाते. हे सूक्त सोमसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. आज मी आपल्यासाठी हे संपूर्ण सूक्त आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.

मराठी भावानुवाद ::

यत्र॒ ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्न ऊ॒र्ध्वः भव॑ति॒ सोत॑वे ।
उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः ॥ १ ॥

 उखळामध्ये सोमवल्लीवर खलूनिया शक्तीने

जड विशालश्या वरवंट्याने रगडूनी जोराने

अर्पिण्यास तव केले सिद्ध सोमरसा भक्तीने

त्या स्वीकारी देवेंद्रा मोदाने प्रसन्नतेने ||१||

यत्र॒ द्वावि॑व ज॒घना॑धिषव॒ण्या कृ॒ता ।
उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः ॥ २ ॥

जघनद्वयासम संनिध असती पाषाणाच्या तळी

सोमरसाला निर्मियले आम्ही त्यातुनी उखळी

उत्सुक होऊनिया शचिनाथा सोमरसा स्वीकारी

शिरावरी अमुच्या देवेंद्रा कृपाछत्र तू धरी ||२||

यत्र॒ नार्य॑पच्य॒वमु॑पच्य॒वं च॒ शिक्ष॑ते ।
उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः ॥ ३ ॥

 पुढे नि मागे हलवूनिया करा घुसळणे शिक्षा

नारीला मिळते या योगे कौशल्याची दीक्षा

उखळातुनिया प्राप्त होतसे पवित्र सोमरस

स्वीकारुनि त्या देवेंद्रा हे धन्य करी आम्हास ||३||

यत्र॒ मन्थां॑ विब॒ध्नते॑ र॒श्मीन्यमि॑त॒वा इ॑व ।
उ॒लूख॑लसुताना॒मवेद्वि॑न्द्र जल्गुलः ॥ ४ ॥

 कासऱ्यांनी बांधीयले रविला बंधन घालाया

सोमवल्लीला घुसळून उखळी सोमरसा काढाया

उखळातुनिया प्राप्त होतसे पवित्र सोमरस

स्वीकारुनी त्या देवेंद्रा हे धन्य करी आम्हास ||४||

यच्चि॒द्धि त्वं गृ॒हेगृ॑ह॒ उलू॑खलक यु॒ज्यसे॑ ।
इ॒ह द्यु॒मत्त॑मं वद॒ जय॑तामिव दुन्दु॒भिः ॥ ५ ॥

 सोमरसाच्या निर्मितीस्तव वापर तव उखळा

घरोघरी घुसळती सोमवल्ली तुझ्यात उखळा

करी गर्जना विजयदुंदुभीसम रे तू उखळा

सोमरसा तू देशी आम्हा गर्व तुझा उखळा ||५||

उ॒त स्म॑ ते वनस्पते॒ वातो॒ वि वा॒त्यग्र॒मित् ।
अथो॒ इंद्रा॑य॒ पात॑वे सु॒नु सोम॑मुलूखल ॥ ६ ॥

 मरूत शीतल मंद वाहतो येथे वनस्पते

देई आम्हाला विपूल उत्तमशा सोमरसाते

सोमपान होईल तयाने देवराज इंद्राचे

प्रसन्न होउनिया कल्याण करील तो अमुचे ||६||

आ॒य॒जी वा॑ज॒सात॑मा॒ ता ह्यु१च्चा वि॑जर्भृ॒तः ।
हरी॑ इ॒वान्धां॑सि॒ बप्स॑ता ॥ ७ ॥

 चर्वण करताना गवताचे अश्व करीती ध्वनी

रव करती ही उभय साधने सकलांच्या कानी

तया कारणे आम्हा होतो सामर्थ्याचा लाभ

यज्ञामध्ये त्यांचा आहे अतीव श्रेष्ठ आब ||७||

ता नो॑ अ॒द्य व॑नस्पती ऋ॒ष्वावृ॒ष्वेभिः॑ सो॒तृभिः॑ ।
इंद्रा॑य॒ मधु॑मत्सुतम् ॥ ८ ॥

काष्ठांच्या हे साधनद्वयी श्रेष्ठ तुम्ही हो किती

ऋत्विज कौशल्याने  करिती सोमाची निर्मिती

मधूर सोमरसाला अर्पू बलशाली  इंद्राला

प्रसन्न व्हावे त्याने आम्हा प्रसाद द्यायला ||८||

उच्छि॒ष्टं च॒म्वोर्भर॒ सोमं॑ प॒वित्र॒ आ सृ॑ज ।
नि धे॑हि॒ गोरधि॑ त्व॒चि ॥ ९ ॥

 भूमीवरती सांडियलेला भरा हो सोमरस

त्यासी भरुनीया ठेवावे सज्ज दोन चमस

पवित्र दर्भातुनिया घेई त्यासी गाळून

चर्मावरती वृषभाच्या देई त्या ठेवून ||९||

(या ऋचांचा व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.) 

https://youtu.be/p79BQ7tsfg4

Attachments area

Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 28

Rugved Mandal 1 Sukta 28

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 122 ☆ लघुकथा – सिहरन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सिहरन’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 122 ☆

☆ लघुकथा – सिहरन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘आशा! तेरा कस्टमर आया है।‘

‘बिटिया ! तू यहीं बैठ, मैं अभी आई काम करके।‘

‘जल्दी आना। ‘

थोड़ी देर बाद फिर आवाज –‘आशा! नीचे आ जल्दी।‘

‘बिटिया! तू थोड़ी देर खेल ले, मैं बस अभी आई।‘

‘हूँ —।‘

‘बिटिया! तू खाना खा ले, तब तक मैं नीचे जाकर आती हूँ।‘

‘अच्छा ‘– उसने सिर हिला दिया।

दिन भर में आशा को संबोधित करती ऐसी ही आवाज ना जाने कितनी बार आती और आशा सात – आठ साल की बिटिया को बहलाकर नीचे चली जाती।

ऐसा ही एक पल –‘बिटिया! ध्यान से पढ़ाई करती रहना, मैं बस अभी आई काम करके।‘

 “अम्माँ ! अकेले कितना काम करोगी? थक जाओगी तुम, रुको ना, मैं भी चलती हूँ तेरे साथ। तुम कहती हो ना, कि मैं बड़ी हो गई हूँ? “

आशा लड़खड़ाकर सीढ़ी पर बैठ गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 157 ☆ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 157 ☆

☆ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः

मन ही मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है। ये पंक्तियाँ जब सत्संग में सुनी तो बरबस आगे की चर्चा को मन आतुर हो उठा, सही कहा गया है कि मौसम के अनुसार रंग रूप बदलने की क्षमता केवल गिरगिट में ही नहीं महत्वाकांक्षी व्यक्तियों में भी पायी जाती है। ये आवश्यकता अनुसार परिवर्तन करते जाते हैं। अपनी गोटी किसी भी तरह जीत की ओर ले जानी है। इस समय सावन का महीना है। बारिश गर्मी की तपन को दूर करती है साथ ही साथ सूखे हुए वृक्ष व झाड़ियों में प्राण भर देती है। जीवंत हरियाली इसी की देन है। ग्रीष्म और शीत के बीच सेतु का कार्य ये बूंदे बखूबी कर रहीं हैं। जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर ये चार माह धरती की प्यास को बुझा कर पूरे वर्ष भर का पानी एकत्र कर लेते हैं। शायद यही कारण है कि चौमासे में सारे कार्य तो बंद हो जाते हैं पर तीज त्योहार बहुत मनाये जाते हैं। मन है कि मानता नहीं वो अपनी चाहत को पाने हेतु कभी भी जोड़- तोड़ करने से नहीं चूकता।

समय के साथ -साथ प्रकृति ने भी अपने स्वरूप को बदलते हुए बारिश को कहीं बहुत अधिक तो कहीं बहुत कम कर दिया है। और ये अब केवल तीन महीनों में सिमट कर रह गयी है। वर्षा का चक्र भी अपनी बूंदों को सुरक्षित रखने की कोशिश करने लगा है।

चौमासे का अस्तित्व संकट में दिखना कहीं न कहीं संकेत है कि अगर वर्षा का मान नहीं रखा तो जल्दी ही बूंदों की संख्या कम होगी जिससे जीवन की गति अनछुई नहीं रह सकती।

मेरा तेरा के चक्कर में व्यक्ति इस तरह उलझा हुआ है कि क्या- क्या न बटोर ले, ये समझ ही नहीं पा रहा और लगा हुआ है लालच की जद्दोजहद में।

क्या आपने कभी गौर किया कि जिस चीज पर आपकी आसक्ति सबसे ज्यादा होती है वही चली जाती है, बात साफ है कि लगाव ही दुःख का कारण होता है इसलिए ईश्वर अपने भक्तों को वो नहीं देना चाहते जो उनके मोक्ष में बाधक बनें।

अतः हर स्थितियों में समभाव रखते हुए प्रसन्नता पूर्वक जिएँ और जीने दें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 144 – “मौन” – लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी द्वारा रचित पुस्तक  मौनपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 144 ☆

“मौन” – लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक – मौन

लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

प्रकाशक – पाथेय प्रकाशन जबलपुर

संस्करण – २०२३

अजिल्द, पृष्ठ – ९६, मूल्य – १५०रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

किताब के बहाने थोडी चर्चा पाथेय प्रकाशन की भी हो जाये. पाथेय प्रकाशन, जबलपुर अर्थात नान प्राफिट संस्थान. डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी और कर्ता धर्ता भाई राजेश पाठक का समर्पण भाव. बहुतों की डायरियों में बन्द स्वान्तः सुखाय रचित रचनाओ को साग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित कर, समारोह पूर्वक किताब का विमोचन करवाकर हिन्दी सेवा का अमूल्य कार्य विगत अनेक वर्षों से चल रहा है. मुझे स्मरण है कि मैंने ही राजेश भाई को सलाह दी थी कि आई एस बी एन नम्बर के साथ किताबें छापी जायें जिससे उनका मूल्यांकन किताब के रूप में सर्वमान्य हो, तो प्रारंभिक कुछ किताबों के बाद से वह भी हो रहा है. तेरा तुझ को अर्पण वाले सेवा भाव से जाने कितनी महिलाओ, बुजुर्गों जिनकी दिल्ली के प्रकाशको तक व्यक्तिगत पहुंच नही होती, पाथेय ने बड़े सम्मान के साथ छापा है. विमोचन पर भव्य सम्मान समारोह किये हैं. आज पाथेय का कैटलाग विविध किताबों से परिपूर्ण है. अस्तु पाथेय को और उसके समर्पित संचालक मण्डल को वरिष्ट पत्रकार एवं समर्पित साहित्य साधक श्री प्रतुल श्रीवास्तव जो स्वयं एक सुपरिचित साहित्यिक परिवार के वारिस हैं उनकी असाधारण कृति “मौन” के प्रकाशन हेतु आभार और बधाई.

किताब बढ़िया गेटअप में चिकने कागज पर प्रकाशित है.

अब थोड़ी चर्चा किताब के कंटेंट की. डा हरिशंकर दुबे जी की भूमिका आचरण की भाषा मौन पठनीय है. वे लिखते हैं छपे हुये और जो अप्रकाशित छिपा हुआ सत्य है उसे पकड़ पानासरल नहीं होता.

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

बिटवीन द लाइन्स के मौन का अन्वेषण वही पत्रकार कर सकता है जो साहित्यकार भी हो. प्रतुल जी ऐसे ही कलम और विचारों के धनी व्यक्तित्व हैं. श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ ने अपनी पूर्व पीठिका में लिखा है कि बोलना एक कला है और मौन उससे भी बड़ी योग्यता है. मौन एक औषधि है. समाधि की विलक्षण अवस्था है. वे लिकते हें कि प्रतुल जी की यह कृति आत्म शक्ति, आत्म विस्वास और अंतर्मन की दिव्य ढ़्वनि को जगाने का काम करती है.

स्वयं प्रतुल श्रीवास्तव बताते हैं कि जो क्षण मुखर होने से अहित कर सकते थे उन्हें मौन सार्थक अभिव्यक्ति देता है. मौन अनावश्यक आवेगों पर नियंत्रण और संकल्प शक्ति में वृद्धि करता है. मौन के उनके अपने स्वयं के अनुभव तथा साधकों के कथन किताब में शामिल हैं. मौन के रहस्य को समझकर जीवन को तनाव मुक्त और ऊर्जावान बनाना हो तो यह किताब जरूर पढ़िये. पुस्तक में छोटे छोटे विषय केंद्रित रोचक पठनीय तथा मनन करने योग्य २८ आलेख है.

मौन, चुप्पी मौन नहीं, स्वाभाविक मौन छिना, मौन से ऊर्जा संग्रहण, मौन एक साधना, मौन और सृजन, चार तरह के मौन, मौन से जिव्हा परिमार्जन, मौन पर विविध अभिमत, मन के कोलाहल पर नियंत्रण, मौन से शांति-ध्यान और ईश्वर, क्या है अनहद नाद ?, हिन्दू धर्म में मौन का महत्व, मुस्लिम धर्म में मौन, मौन एक महाशक्ति, शब्द संभारे बोलिये, मौन की मुखरता, मौन जीवन का मूल है, मौन से प्रगट हुई गीता, मौन स्वयं से जुड़ने का तरीका, मौन का संबंध मर्यादा से

बातों से प्राप्त क्रोध बर्बाद करता है समय, मौन है मन की मृत्यु, चित्त की निर्विकार अवस्था है मौन, मौनं सर्वार्थ साधनम्, मौन की वीणा से झंकृत अंतस के तार, मौन साधना तथा उसका परिणाम, तथा मौन ध्यान की ओर पहला कदम

शीर्षकों से मौन पर अत्यंत्य सहजता से सरल बोधगम्य भाषा में मौन के लगभग सभी पहलुओ पर विषद विवेचन पुस्तक में पढ़ने को मिलता है.

मौन व्रत अनेक धार्मिक क्रिया कलापों का हिस्सा होता है. हमारी संस्कृति में मौनी एकादशी हम मनाते हैं. राजनेता अनेक तरह के आंदोलनों में मौन को भी अपना अस्त्र बना चुके हैं. गृहस्थी में भी मौन को हथियार बनाकर जाने कितने पति पत्नी रूठते मनाते देखे जाते हैं. पुस्तक को पढ़कर मनन करने के बाद मैं कह सकता हूं कि मौन पर इतनी सटीक सामग्री एक ही जगह इस किताब के सिवाय अंयत्र मेरे पढ़ने में नहीं आई है. प्रतुल श्रीवास्तव जी के व्यंग्य अलसेट, आखिरी कोना, तिरछी नजर तथा यादों का मायाजाल, और व्यक्तित्व दर्शन किताबों के बाद वैचारिक चिंतन की यह पुस्तक मौन उनके दार्शनिक स्वरूप का परिचय करवाती है . वे जन्मना अन्वेषक संवेदना से भरे, भावनात्मक साहित्यकार हैं. यह पुस्तक खरीद कर पढ़िये आपको शाश्वत मूल्यों के अनुनाद का मौन मुखर मिलेगा जो आपके रोजमर्रा के व्यवहार में परिवर्तनकारी शक्ति प्रदान करने में सक्षम होगा.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #5 ☆ कविता – “उसूल…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #5 ☆

 ☆ कविता ☆ “उसूल…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

अगर जलना है

तो जलना ही सही

दुनिया का उसूल है

तो वह भी सही

 

मुरझाए हैं फिर भी

फूल तो फूल ही कहलाते हैं 

टूटे हैं  फिर भी

काटें तो काटें ही कहलाते हैं 

 

कायनात के हम बाशिंदे हैं 

मन से उसे निभाते हैं 

गर कट भी जाएं

फ़िर भी काटें ही हैं 

 

क्या तुम कायनात के

उसूलों पर चल रही हो

मुरझाने पर भी

क्या फूल ही रहती हो

 

हम गर काटें हैं 

तो यूं ही कटते जाएंगे

तुम अगर खिल जाती हो

तो उसूल निभाते जाएंगे

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #143 – “आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आलेख – “सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 143 ☆

 ☆ “आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

यह प्रश्न जटिल है कि क्या सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है, इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। इस मुद्दे के दोनों पक्षों में मजबूत तर्क दिए जाने हैं।

जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर गिरता है, उनका तर्क है कि इससे लेखक न्यायाधीशों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपनी कलात्मक अखंडता का त्याग कर सकते हैं। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव रचनात्मकता को दबा सकता है और फॉर्मूलाबद्ध लेखन की ओर ले जा सकता है।

दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार हो सकता है, उनका तर्क है कि यह लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए आवश्यक प्रेरणा और फोकस प्रदान कर सकता है। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव लेखकों को अपने काम के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने और उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए मजबूर कर सकता है।

मेरे विचार में, सच्चाई इन दोनों चरम सीमाओं के बीच में कहीं है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कुछ लेखकों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, लेकिन यह दूसरों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक भी हो सकता है। अंततः, सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार होता है या नहीं, यह व्यक्तिगत लेखक और शिल्प के प्रति उनके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, मैं खेल और साहित्य दोनों से दो उदाहरण प्रदान करूंगा। खेल की दुनिया में, हम अक्सर देखते हैं कि जब एथलीट प्रमुख प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं तो वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रतिस्पर्धा का दबाव उन्हें खुद को अपनी सीमा तक धकेलने और अपना सब कुछ देने के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए, माइकल जॉर्डन एनबीए फ़ाइनल में अपने अविश्वसनीय प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ बास्केटबॉल तब खेला जब दांव सबसे ऊंचे थे।

साहित्य की दुनिया में, हम ऐसे लेखकों के उदाहरण भी देख सकते हैं जिन्होंने दबाव में होने पर भी अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है। उदाहरण के लिए, चार्ल्स डिकेंस धारावाहिक उपन्यास के उस्ताद थे। वह अक्सर समय सीमा के दबाव में लिखते थे और इस दबाव ने उन्हें नियमित आधार पर उच्च गुणवत्ता वाले काम करने के लिए मजबूर किया। उनके उपन्यास, जैसे “ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़” और “ग्रेट एक्सपेक्टेशंस”, अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक्स माने जाते हैं।

निःसंदेह, सम्मान के लिए लिखने वाले सभी लेखक महान कार्य नहीं करते। हालाँकि, मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

जिन उदाहरणों का मैंने पहले ही उल्लेख किया है, उनके अलावा, कई अन्य लेखक भी हैं जिन्होंने दबाव में महान कार्य किया है। उदाहरण के लिए, विलियम शेक्सपियर ने सार्वजनिक मंच के लिए नाटक लिखे, और वह जानते थे कि उनके काम का मूल्यांकन दर्शकों द्वारा किया जाएगा। इस दबाव ने उन्हें ऐसे नाटक लिखने के लिए मजबूर किया जो मनोरंजक और विचारोत्तेजक दोनों थे। उनके नाटक, जैसे “हैमलेट” और “किंग लियर”, आज भी साहित्य के अब तक लिखे गए सबसे महान कार्यों में से एक माने जाते हैं।

मेरा मानना ​​है कि लेखकों की अगली पीढ़ी को सम्मान के लिए लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे उन्हें बेहतर काम करने में मदद मिलेगी और लेखक के रूप में सफल करियर बनाने में भी मदद मिलेगी।

अंत में मेरा मानना ​​है कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधर सकता है। प्रतिस्पर्धा के दबाव से बेहतर लेखन हो सकता है, और मान्यता की इच्छा लेखकों को लिखते रहने की प्रेरणा प्रदान कर सकती है। साहित्य और खेल से ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस तर्क का समर्थन करते हैं।

हालाँकि, मेरा यह भी मानना ​​है कि लेखकों के लिए अपनी कलात्मक अखंडता बनाए रखना महत्वपूर्ण है। उन्हें जजों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपने दृष्टिकोण का बलिदान नहीं देना चाहिए। अंततः, सबसे अच्छा काम तब होता है जब लेखक प्रतिस्पर्धा के दबाव और अपनी आवाज के प्रति सच्चे बने रहने की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाने में सक्षम होते हैं।

यहां उन लेखकों के कुछ अतिरिक्त उदाहरण दिए गए हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है:

जेन ऑस्टेन: ऑस्टिन ने अपने उपन्यास वित्तीय ज़रूरत के दबाव में लिखे। वह जानती थी कि पैसा कमाने के लिए उसका काम अच्छा होना चाहिए और इस दबाव ने उसे अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए मजबूर किया।

लियो टॉल्स्टॉय: टॉल्स्टॉय ने अपने उपन्यास अपनी पूर्णतावाद के दबाव में लिखे। वह अपने काम से कभी संतुष्ट नहीं थे और इस दबाव ने उन्हें अपने लेखन को लगातार संशोधित और सुधारने के लिए मजबूर किया।

फ्रांज काफ्का: काफ्का ने अपने उपन्यास अपनी मानसिक बीमारी के दबाव में लिखे। वह गंभीर चिंता और अवसाद से पीड़ित थे और इस दबाव ने उन्हें अपने काम में मानव स्वभाव के अंधेरे पक्ष का पता लगाने के लिए मजबूर किया।

ये उन लेखकों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है। हालाँकि लेखकों के लिए अपनी कलात्मक अखंडता बनाए रखना महत्वपूर्ण है, मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

मुझे आशा है कि इस लेख से इस बहस पर कुछ प्रकाश डालने में मदद मिली होगी कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है या नहीं। मेरा मानना ​​है कि उत्तर हां में है, और मैं सभी लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करता हूं, भले ही वे पुरस्कार के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हों या नहीं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

04-07-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 167 ☆ बाल कविता – कैसे होते दिन और रात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 167 ☆

बाल कविता – कैसे होते दिन और रात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

टीचर जी समझाती हमको

कैसे होते दिन और रात।

आज समझ में सब कुछ आया

बहुत सरल – सी यह है बात।

 

मुन्ना बोले आओ समझें

रवि , धरा की सत्य कहानी।

ईश्वर की सृष्टि है न्यारी

सबने यही बातें मानी।।

 

पृथ्वी घूमे एक धुरी पर

सदा यह घूमा करती है।

चौबीस घंटे में ये नित ही

चक्कर पूरा करती है।।

 

सूर्यदेव हैं अंतरिक्ष में

सदैव उजाला करते हैं।

स्थिर रहते एक जगह पर

पर लगे कि जैसे चलते हैं।।

 

घूम रही धरती का हिस्सा

जब रवि के सम्मुख आता।

उसी अंश में खूब उजाला

रवि किरण से जगमगाता।।

 

जहाँ न पहुँचे रवि उजाला

वह भाग तम से भर जाता।

वहाँ हो जाती रात घनेरी

सूर्य धरा को रोज नचाता।।

 

नित्य घूमती धरा इस तरह

छोटी – सी विज्ञान की बात।

समझ में सभी आज आ गया

कैसे होते दिन और रात।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares