हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #4 ☆ कविता – “यादें…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #4 ☆

 ☆ कविता ☆ “यादें…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

यादें आपकी छुपी है

उस धड़कन की तरह

जो दूसरों को नहीं दिखती

मगर इंसान को जिंदा रखती है

 

क्या किसी पल में

है कभी धड़कन रुकी?

क्या किसी लम्हें से कभी

है आप जुदा हुई?

 

जब भी आता है

दिन वो हार का

आपकी यादें तरसाती हैं

उस खूबसूरत चांद की तरह

 

और जब भी आती है

वोह रात जीत की

आपकी यादें सुलगती हैं

उस बेदिल सूरज की तरह

 

जंग के लम्हों में

तुम खूब याद आती हो

 

और …..

 

जीत के लम्हों में

तुम ‘बेहद‘ याद आती हो…

 

©️ आशिष मुळे

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 166 ☆ गीत – पुकारती माँ भारती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 166 ☆

गीत – पुकारती माँ भारती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।

लक्ष्य लेकर चल पड़ो

पूर्णिमा निहारती।।

 

अंधकार चीर दो।

न किसी को पीर दो।

श्रम का हाथ थामकर

कुछ नई लकीर दो।।

 

धीरता को पूज कर

नित्य करो आरती।

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।।

 

इस धरा का रक्त है।

अल्प – सा ही वक्त है।

सामने आगे खड़ा

वीरता का तख्त है।।

 

जो शिखर पर बढ़ चले

मुश्किलें भी हारतीं।

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।।

 

सत्यता की जीत है

श्रेष्ठ सबसे प्रीत है।

साधना ही त्याग का

माधुरी नवनीत है।।

 

शत्रुओं को दो सबक

माँ भारती पुकारती।

जाग जाओ अब युवा

पुकारती माँ भारती।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #167 ☆ पाऊस… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 167 ☆ पाऊस☆ श्री सुजित कदम ☆

तुझ्या माझ्यातला पाऊस

आता पहिल्यासारखा

राहिला नाही..

तुझ्या सोबत जसा

पावसात भिजायचो ना

तसं पावसात भिजण होत नाही

आता फक्त मी पाऊस

नजरेत साठवतो…

आणि तो ही

तुझी आठवण आली की

आपसुकच गालावर ओघळतो..

तुझं ही काहीसं

असंच होत असेल

खात्री आहे मला

तुझ्याही गालावर नकळत

का होईना

पाऊस ओघळत असेल…!

 

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #188 – कविता – मानसून की पहली बूंदे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “मानसून की पहली बूंदे)

☆  तन्मय साहित्य  #188 ☆

☆ मानसून की पहली बूंदे☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

मानसून की पहली बूंदे 

धरती पर आई

महकी सोंधी खुशबू

खुशियाँ जन मन में छाई।

 

 बड़े दिनों के बाद

 सुखद शीतल झोंके आए

 पशु पक्षी वनचर विभोर

 मन ही मन हरसाये,

      बजी बाँसुरी ग्वाले की

      बछड़े ने हाँक लगाई।…..

 

 ताल तलैया पनघट

 सरिताओं के पेट भरे

 पावस की बौछारें

 प्रेमी जनों के ताप हरे,

      गाँव गली पगडंडी में

      बूंदों ने धूम मचाई।……

 

 उम्मीदों के बीज

 चले बोने किसान खेतों में

 पुलकित है नव युगल

 प्रीत की बातें संकेतों में,

       कुहुक उठी कोकिला

       गूँजने लगे गीत अमराई।

       मानसून की पहली बूंदें

       धरती पर आई..

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 13 ☆खींच कर लकीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खींच कर लकीर।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 13 ☆  खींच कर लकीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पानी पर

खींचकर लकीर

भरते हैं सागर का दम।

 

अंगद का पाँव जमा

चाट लोकतंत्र

आँखों में धूल झोंक

भोग राजतंत्र

 

फिर बैठे

बन गए अमीर

लौलुपता नहीं हुई कम।

 

भावों के ऊसर में

शब्दों की फसल

छंद के लिफ़ाफ़े में

रख कोई ग़ज़ल

 

और कहें

स्वयं को कबीर

पाल रहे मीर का भरम।

 

तिनकों पर इतराएँ

डकराएँ खूब

अघा गए चर-चरकर

निर्धन की दूब

 

फैलाएँ

झूठ,बन फकीर

बेचें ईमान और धरम ।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 68 ☆ नज़्म – उसे भूल जा ना याद कर… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण नज़्म “उसे भूल जा ना याद कर…

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 68 ✒️

?  नज़्म – उसे भूल जा ना याद कर… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

(सन्दर्भ : कोविड)

जो जुदा हुए वो अजीज़ थे,

तेरे अपने तेरे क़रीब थे ।

उन्हें भूल जा ना याद कर ,

जो तूने सहा ना फ़रियाद कर ।।

 

यह कैसी ग़म की हवा चली ,

सुनसान हो गई है गली – गली ,

सुबहा से पहले शाम ढली ,

चमन को सिर्फ़ ही ख़िज़ां मिली ,

जो गया ख़ुदा का हबीब था ,

तू फ़िर से गुलशन आबाद कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

वो करोना से जुदा हुए ,

सारी उम्र तुझ पर फ़िदा हुए ,

ना वबा का कोई कुसूर था ,

ये सब इंसान का ही फ़ितूर था ,

ये क़हर हमारा नसीब था ,

बची उम्र को ना बर्बाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

किसी के जाने से कमी नहीं ,

ये दुनियां आज तक थमीं नहीं ,

जो मिल रहा वो ग़नीमत है ,

अभी कुछ दिनों की अज़ीयत है ,

वो दीन – दुनिया का रक़ीब था ,

उसे रिश्तों से आज़ाद कर ।

जो तूने ———————— ।।

 

दवा अस्पताल का बहाना था ,

क़ज़ा को उन्हें ले जाना था ,

जो बचा है उसका बन रहनुमा ,

कहीं सब हो जाए ना धुंआं ,

बहारों का वो अक़ीब था ,

उसकी यादों को पुरताब कर ।

जो तूने ————————- ।।

 

इक बार मिलती है ज़िन्दगी ,

कर शुक्र अल्लाह की बन्दगी ,

जो बचा है उसको सहेज ले ,

तू गिले-शिकवे सारे समेट ले ,

फ़लसफ़ा ये तेरा अजीब था ,

‘ सलमा ‘ तू अपना दिल शाद कर ।

जो तूने ————————– ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ न हमदम न साथी न… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “न हमदम न साथी न“)

✍  न हमदम न साथी न… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

गरीबों की ख़ातिर घरौदा बनाना

न मस्जिद शिवाला कलीसा बनाना

न मांगी दुआ में कभी कोठी गाड़ी

मुझे सिर्फ़ इंसान अच्छा बनाना

नहीं एक के वश की है बात समझो

हमें स्वच्छ भारत है अपना बनाना

समुंदर से खारे हुए नाम पाकर

अगर बन सको खुद को झरना बनाना

न हमदम न साथी न हमराज़ जायज़

मुझे सिर्फ तुम अपना साया बनाना

अलग तेरी पहचान तब ही बनेगी

नया अपनी मंजिल का रस्ता बनाना

डुबाने में सारी ही दुनिया लगी है

अरुण सबको तुम पर किनारा बनाना

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 72 – पानीपत… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 72 – पानीपत… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जिस राजसिंहासन पर हमारे नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक विराजमान हो रहे थे, उसकी महिमा राजा विक्रमादित्य के बत्तीस पुतलियों वाले सिंहासन से कम नहीं थी, अंतर सिर्फ यह था कि पुतलियों ने अपनी काया की सर्जरी करवा ली थी और पुतलों में बदल गये थे. इनका काम पदस्थ राजा के दमखम का आकलन करना और उसकी रपट दैनिक आधार पर अपने बहुत बहुत बड़े बॉस को करना था. साथ ही ये नवपदस्थ राजा से बड़ी उद्दंडता पूर्वक सवाल करने की भी हिमाकत करते रहते थे. कोई न कोई पुतला, कभी न कभी, कोई न कोई सवाल दाग ही देता था. जैसे पहले दिन ही :

“रुक जाओ राजन! क्या तुम वाकई खुद को इस सिंहासन में बैठने की योग्यता रखते हो”. अक्सर चतुर राजन यही जवाब देते कि “अगर बैंक ने समझ लिया है और मान भी लिया है तो फिर किसको दिक्कत है. भोले भाले राजन ये भूल जाते थे कि बैंक के इतर भी बहुत विभूतियां होती हैं जो इस तरह के फॉस्ट ट्रेक कैडरलैस धावकों पर सवाल उठाती रहती हैं. आसमां को छूता उनका अहंकार ये बर्दाश्त नहीं कर पाता कि जब इनको ही राजा बनाना था तो हमारे लोगों को क्यों बुलाया. फिर शक्तिशाली कुर्सी से शंका का समाधान किया जाता कि बैंक रूपी समंदर में कुछ “बरमूडा ट्रायंगल्स” भी होते हैं जहाँ हम अपने टाइटेनिक नहीं डुबाना चाहते.

Scapegoats are always required and allowed to play in high profile brain games or you can say  blame games, without hockey sticks, shoes and body protecting pads.

खैर, कहानी आगे बढ़ती है नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक जी के सिंहासन ग्रहण प्रक्रिया के बाद परिचय और आकलन की. नवागत तो परिचय और नाम याद करने की कसरत में उलझ जाता है पर परिचय के उस छोर पर विराजित जन अपने अपने हिसाब से, मानदंडों और मापदंडों से नापतौल करने में लग जाते हैं. ये सब “मुन्नाभाई एमबीबीएस के बोमन ईरानी बन जाते हैं जिनका दृढ़तापूर्वक यह मानना होता है कि “सर जी, ये शाखा तो गरम गुलाबजामुन है, न निगल पाओगे न उगल पाओगे, जब तक हमसे सेटिंग नहीं होगी.

वैसे तो ये स्थान रेल से वेल कनेक्टेड था पर अनिभिज्ञ प्रबंधक बाद में समझ पाते थे कि रेल कभी कभी उनके कैरियर या नौकरी की सलामती के ऊपर से भी गुजर सकती है. वर्कलोड और रिस्क फैक्टर में प्रतिस्पर्धा थी कि कौन ज्यादा घातक है. पर इन सबके बावजूद इस शाखा की कुछ खासियत भी थी कि यहाँ कुछ बहुत अच्छे और समर्पित कारसेवक भी थे जो राहत और सुकून के मामले में ईश्वर के उपहार थे. ऐसे लोग आमतौर पर दुर्लभ ही होते हैं जो हर आपदा में हर चुनौती में आपके साथ खड़े होते हैं. आपकी मन:स्थिति, उदासी, बेचैनी, निराशा, गुस्सा, फ्रस्ट्रेशन, नाउम्मीदी को दूर करने की कोशिश करते रहते हैं. जब आप दस बजे से चार बजे तक लगातार डिमांडिंग और आक्रामक कस्टमर्स से उलझते हुये, सर को दोनों हाथों के बीच टिकाकर परेशान और थकित बैठे रहते हैं तो ये एक हवा के ठंडे झोंके की तरह आते हैं और अपनी राहतभरी आवाज से कहते हैं “चलिए सर, काम तो चलता रहेगा, अभी तो बाहर ठंडी हवाओं के बीच अदरक वाली कड़क चाय पीने का मौसम है”और आपको लगभग खींचकर अपने साथ ले जाते हैं. इन लम्हों को और इस अन ऑफीशियल अंतरंगता को कभी भूला नहीं जाता बल्कि अपनी सुनहरी यादों के लॉकर में संभाल कर रख लिया जाता है.

यद्यपि शाखा की “विश्वस्तरीय कस्टमर सर्विस को अंगूठा दिखाती सेवा”, तो विख्यात थी ही, फिर भी आने वाले “दिल है कि मानता नहीं” की भावना के साथ बड़ी उम्मीद लेकर आते थे और काम न होने पर भी खुद को ईशकृपा पाने के अयोग्य समझ कर वापस चले जाते थे. यही आत्मसंतोष उन्हें उस रात की नींद और फिर दूसरे दिन आने का हौसला और उम्मीद प्रदान करता था. जिनका काम उस दिन हो जाता, वे इसे अपने पूर्व जन्म के सुकर्मों का प्रतिफल मानकर खुश होते. इस स्थिति के लिए शाखा का प्राचीन दोमंजिला भवन, उसकी लोकेशन, शहर की बारहमासी गर्मी, भवन के मालिक का व्यवसायिक स्थल के मुताबिक किराया नहीं मिलने से उपजा असंतोष, संकरी सड़क भी जिम्मेदार थे. शहर व्यवसाय की असीम संभावनाओं से ओवरफ्लो हो रहा था और प्रतिस्पर्धा के नाम पर चुनौती देने वाले बैंक दूर दूर तक कहीं नहीं थे. इस कारण बैंक की स्थिति 1952 की कांग्रेस या 2023 की भाजपा सी अजेय थी. (राजनैतिक तुलनात्मक संदर्भ के लिए क्षमा). शाखा में एक दो केजरीवाल जैसे ज्ञानी भी थे (फिर से क्षमा) जो बैंक से और उसके उच्चाधिकारियों से लीगल टक्कर लेने की योग्यता रखते थे और ये नहीं सोचा करते थे कि यही प्रतिभा अगर बैंक के काम आती तो स्थिति कितनी अलग और बेहतर होती. बैंक में उन्हें क्या करना चाहिए इससे परे, प्रबंधन की क्या ड्यूटी है और कस्टमर की क्या, इसका उन्हें जबरदस्त ज्ञान था. बैंक में निर्देशानुसार कौन सी संकेतक पट्टी नहीं लगी है इसका ज्ञान वे समय समय पर प्रबंधन को देते रहते थे जबकि कस्टमर्स इस पट्टिका के मायाजाल से परे सिर्फ और सिर्फ अपनी बैंकिंग की जरूरतों का समाधान चाहते थे. चूंकि यह शहर  एक बहुत बड़े और उच्च राजनैतिक प्रभुत्व पाये महापुरुष की विशाल इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट से भी संपन्न था तो ये इनके आधुनिक, तकनीकी रूप से उच्च प्रशिक्षित और डिमांडिंग कर्मचारियों को भी बैंकिंग की आधुनिकतम सेवाएं मिलने की उम्मीद से, शाखा के मुख्य द्वार तक ले आता था. व्यवसाय के रास्ते हर तरफ से हर तरह के कस्टमर्स को, बैंक की ओर भेजते थे, सिर्फ कृषि और शासकीय व्यवसाय और शासकीय कर्मचारियों को छोड़कर. पर फिर भी असंतोष ही ऐसी खुशबू थी जो शाखा के परिसर में हमेशा बहती रहती थी, कस्टमर्स, स्टाफ, अधिकारी, भवन स्वामी सभी सब कुछ ए-वन संतुष्टि चाहते थे और इस सब को डिलीवर करने का दायित्व बस दो लोगों का ही माना जाता था. शाखा के बड़े नायक अपर फ्लोर पर और छोटे वाले भूतल पर पाये जाते थे. 

पानीपत युद्ध जारी रहेगा.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 188 ☆ सांजवेळी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 188 ?

सांजवेळी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आयुष्याच्या सांजवेळी,

आठवत राहतात….

काही फुलपंखी क्षण…

मनःपूत जगलेले!

 

आयुष्याला पडलेली,

सुंदर स्वप्नंच असतात ती,

कधीकाळी पाहिलेली…

काळजात खोलवर जपून ठेवलेली !

 

ती नाकारता येत नाहीत,

आणि इतर कोणाशी,

शेअर ही करता येत नाही,

आपला शाश्वत इतिहास..

 

म्हणूनच स्वतःशीच,

करतो उजळणी आपण,

कारण अगदी “हमराज”

असणारेही असतात अनभिज्ञ,

आपल्या मानसिकते पासून!

 

ते स्वतःच्या इतिहासापासूनही,

नामानिराळे!

नाकारतात स्वतःचा भूतकाळ,

अगदी निकराने !

कदाचित तेच अधिक सोयीस्कर,

वाटत असावे त्यांना !

 

पण एखाद्याचा स्वभाव असतो,

अधिकाधिक गुंतण्याचा,

गुंतून पडण्याचा !

 

केवढा मोठा कालखंड,

तेवीस चोवीस वर्षाचा….

निरंतर मनात रूंजी घालत असलेला !

 

पण नाही देता येत,

“ओ ” त्या हाकेला….

किंवा या हळव्या निमंत्रणाचा,

नाहीच करता येत स्वीकार!

 

म्हणून घालूनच घ्यावं,

एक कुंपण स्वतःभोवती !

आणि लागूही देऊ नये “भनक”

कुणालाच त्या कासाविशीची !!

– २६ जून २०२३

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “साद अंतर्मनाची“ – लेखक अरुण पुराणिक ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “साद अंतर्मनाची“ – लेखक अरुण पुराणिक ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर  

पुस्तकाचे नाव : साद अंतर्मनाची (काव्य संग्रह)

लेखक : श्री अरुण पुराणिक

प्रकाशन : आर्य  प्रकाशन आणि डिस्ट्रीब्युटर्स.

आवृत्ती : ०३ डिसेंबर २०२२

 पृष्ठे : ५२

 किंमत : रु. १००/—

श्री अरुण पुराणिक यांचा साद अंतर्मनाची हा कवितासंग्रह नुकताच वाचला आणि त्यावर मत, अभिप्राय वगैरे देण्याची माझी योग्यता नसली तरीही मित्रत्वाच्या नात्याने काही लिहावसं वाटलं म्हणून हा लेखनप्रपंच.

तसं पाहिलं तर श्री.अरुण पुराणिक यांचा आणि माझा परिचय तीन-चार वर्षांपूर्वींचा.  पण साहित्य, कला, काव्याच्या माध्यमातून एक मैत्रीचं नातं सहज जुळत गेलं.  त्या मैत्रीच्या धाग्याचा मान ठेवूनच ‘ साद अंतर्मनाची ‘ या कवितासंग्रहावर भाष्य करावसं वाटलं. 

या काव्यसंग्रहात एकूण ३२ कविता आहेत, आणि प्रत्येक कवितेच्या वाचनानंतर ओंजळीत अलगद जणू दवबिंदूच ओघळतात.  जीवनशिडीच्या ८० व्या पायरीवर उभे असलेल्या  या कवीने अत्यंत संवेदनशीलतेने आणि जाणतेपणाने जीवन जगले आहे.  सुखदुःखाची अनेक प्रकारची वादळं  झेलत असताना त्यांनी जे जे अनुभवातून टिपलं, अंतर्मनात डोकावून पाहिलं, तपासलं ते ते शब्दांतून साकारलं.  अगदी सहजपणे.  त्यामुळेच या सर्व कविता सामान्यपणे अथवा निराळेपणानेही जगणाऱ्या सर्वांच्याच मनाला भिडतात.  …. भिडतील. 

कवितांतले सहज स्फुरलेले शब्द जणू वाचकांच्या अंतर्मनाशीही नातं जुळवतात, त्यामुळेच साद अंतर्मनाची हे कवितासंग्रहाचे शीर्षकही अगदी चपखल वाटते.

आता त्यांच्या कवितांविषयी मला काय वाटले ते सांगते.  सर्वप्रथम श्री. पुराणिक ही अत्यंत धार्मिक भावनेने जगणारी, एक श्रद्धाळू आणि निर्मळ व्यक्ती आहे.  त्यांच्या या पुस्तकाची सुरुवात ते आद्य देवता गणेश पूजनाने  करतात आणि समारोप श्री स्वामी समर्थांविषयी समर्पित भाव व्यक्त करून करतात. अक्षरशः ३२  कवितांमधून त्यांनी विविध विषयांना स्पर्श केला आहे.  विविध काव्यप्रकार त्यांनी हाताळले आहेत.  सर्वच कवितांतून रचलेली स्वरयमके सहजपणे कवितेला लय प्राप्त करून देतात आणि वाचकाच्या मनाचा  ठेका धरतात. 

या नुसत्याच काव्यरचना नाहीत तर अनुभवांतून मांडलेले विचार आहेत, दिलेले संदेश आहेत, 

होळीनिमित्त केलेल्या ‘ रंग उत्सवाचे ‘ या कवितेत  ते जाता जाता म्हणतात .. 

 रंग नवे भरताना ।

 जीवनाला घडवावे।

 रंग संपता द्वेषाचा।

 आयुष्याला सजवावे ।।

रंगांची ही दुसरी कविता बघा… शीर्षक आहे ‘ रंगांचे रंग.’

 सर्व रंगांची जननी होते ।

 प्रकाशदायी नारायणाने।

 जीवनात रंग आणता।

 जगणे आहे अभिमानाने।।

मैत्रीविषयी लिहिताना ते म्हणतात 

भाव माझ्या मनातले ।

मुक्तपणे प्रसवले।

मैत्री त्याचेशी जडता।

सुख माझे गवसले।।……  वा! क्या बात है !!

‘जीवन धडे‘, *तरी अश्रु ओघळले.*. या मनात जपलेल्या व्यथांना वाट करून देणाऱ्या कविता केवळ अप्रतिम आहेत. ‘ पाऊलखुणा आता दिसणार कशा। ‘ , किंवा व्यथा वृद्धिंगत होता ना *अवघड झाले जगताना।*। हे शब्द जिव्हारी लागतात.  चटकन डोळे पाणावतात.

बळीराजाच्या दुःखाविषयी ते सहअनुभूतीने व्यक्त होतात. अवकाळी पावसामुळे शेतकऱ्यांच्या अश्रुंनीच आधी माती भिजते जणू.

 होते नष्टच सगळे 

ओले चिंबच ते शेत 

स्वप्न बळीराजाचे या

 होते उद्ध्वस्त राखेत।।

बालकवींच्या सुप्रसिद्ध ‘ फुलराणी ‘ या कवितेच्या पहिल्या चार ओळी घेऊन त्यांनी रचलेली कविता ही खरोखरच आल्हाददायक आहे.

त्या सुंदर मखमालीवरती

सूर्यकिरणेही अलगद पडती।

भास त्यांचा मोती जणू

नयनरम्यता अद्भुत घडली।।

‘ मृगजळ ‘ या कवितेत सुखाच्यापाठी पळपळ पळणार्‍या मनुजाला ते सावध करतात… 

दिसले जरी दूर ते पाणी

 जाशील शोध घेण्या त्याचा 

थकशील जाता जाता तरी

हव्यास राहतो फुकाचा।।

‘प्रवास साहित्याचा‘, ‘विद्याधन‘ या कवितांतून त्यांनी स्वतःजवळ असलेल्या कलेविषयीही कृतज्ञता बाळगली आहे.  विद्यारूपी धनाला शाश्वत ठरवताना 

 विद्याधन ही प्रतिष्ठा

 लाभो सदा समृद्धीला।।….  असे ते म्हणून जातात.

या कवितासंग्रहातील विशेष उल्लेखनीय कविता मला वाटली ती म्हणजे ‘आई ‘.  हा एक वेगळाच काव्यप्रकार त्यांनी हाताळलेला आहे. द्विपंचदशम या प्रकारातील ही काव्यरचना आहे.  पहिल्या दोन ओळीत पाच अक्षरे आणि तिसऱ्या ओळीत दहा अक्षरे असा तीन ओळींचा द्विपंचदशम (१५अक्षरांचा) चरण. या माध्यमातून त्यांनी आई विषयीच्या नेमक्या हळुवार भावना उलगडल्या आहेत.  ही पहा एक झलक.

 तिचे दर्शन 

ते आकर्षण 

जीवनी अर्थ आणते  छान ..

आयुष्यात जशी दुःख झेलली, प्रियजनांचे वियोग सोसले, तसे आनंदाचेही मुलायम क्षण वेचले.  हिरवळीवरून चालण्याचे सुखद अनुभव घेतले.  याची जाणीव त्यांच्या ‘साथ’, ‘मनाची हिरवळ’ या कवितांमधून वाचताना होते. त्याचबरोबर ‘माझ्या श्वासात तू’ , *छाया.. माहेर माझ्या लेकीचे.*. या कविता वाचताना मन भरून, हेलकावून जाते.

खरं म्हणजे प्रत्येक कवितेविषयी लिहावं  तितकं थोडं आहे पण वाचकांसाठी काही रस राखून ठेवावा या भावनेने लेखणीस आवर घालते.  एक मात्र नक्की की यातली कुठलीही कविता ही ‘केवळ उगीच’ ‘बोजड” “ओढून ताणून” या सदरातली नाही.  प्रत्येक कवितेत विचार आहे, संदेश आहे आणि ती दिशादर्शकही आहे. म्हणून केवळ वाचनीय.  सोसण्यातून प्राप्त झालेली सकारात्मकता आहे म्हणून पुन्हा पुन्हा वाचावी अशीच प्रत्येक कविता आहे.

या कवितासंग्रहाचे आर्या ग्राफिक्सने केलेले मुखपृष्ठ ही अर्थपूर्ण आहे.  निष्पर्ण झाडावरचा एक पक्षी जणू जीवनाचे गाणे गातोय आणि अस्वस्थ झालेल्या वादळात अडकलेल्या माणसाला काहीतरी शिकवण देतो आहे, आणि त्याच्या राखाडी जीवनाला हिरव्या छटा प्राप्त होत आहेत, असे या चित्रातून अर्थ झिरपतात.

 ‘साद अंतर्मनाची‘ ही शीर्षक कविता या चित्राशी जणू नाते सांगते. 

 मना असता अती अशांत

 नसते दिशा विचारांना 

समृद्ध जीवनाचे विचार 

उजळणी काव्य किरणांना।।

परतावा, पाऊलवाट, अर्थमाला अशी आणि यासारखी सर्वच कवितांची  शीर्षके आकर्षक आहेत. 

या काव्यसंग्रहाला मीरा श्री भागवत– मितेश्री या रसिक, जाणकार आणि गुणी व्यक्तीने अप्रतिम प्रस्तावना दिलेली आहे. आर्या प्रकाशन आणि डिस्ट्रीब्यूटर्सने श्री.अरुण पुराणिक यांचा हा सुंदर काव्यसंग्रह प्रकाशित करून काव्यप्रेमींना उपकृत  केले आहे. त्यांना मनापासून धन्यवाद !

श्री अरुण पुराणिक  यांचे मनापासून अभिनंदन आणि त्यांच्या पुढील लेखन प्रवासास खूप खूप शुभेच्छा ! 

हीच अंतर्मनाची साद मीही त्यांना देते.

 धन्यवाद !

 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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