हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 10 ☆ लघुकथा – उसूल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “उसूल“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 10 ☆

✍ लघुकथा – उसूल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

माधव और रघु दोनों बचपन से मित्र हैं। दोनों अपने अपने काम में माहिर। दोनों साथ साथ पढे। माधव ने आईटीआई कर लिया और रघु ने प्लंबिंग का काम सीख लिया। दोनों की पारिवारिक परिस्थितियों ने उच्च शिक्षा ग्रहण न करने दी परंतु दोनों मेहनती थे और अपनी मेहनत की कमाई से खुश भी। दोनों का विवाह हो गया तो गांव से मुंबई आ गए।

माधव ने मेकेनिकल इंजीनियरिंग में आईटीआई किया था सो उसे काम मिलने में दिक्कत नहीं हुई। रघु को शुरू में काम तलाशने में थोड़ी परेशानी तो हुई लेकिन प्लम्बिंग में होशियार होने के कारण जहाँ काम करता वहाँ पसंद किया जाता और जिन-जिनके यहाँ काम करता वे लोग जरूरत पड़ने पर उसी को बुलाते और अपने मित्रो के यहाँ भी भेजते। इस प्रकार रघु की आमदनी भी ठीक ठाक थी। दोनों अपने अपने परिवार के साथ कल्याण में एक ही  बिल्डिंग में रहते थे ।

बच्चों की पढ़ाई और शादी ब्याह की जिम्मेदारी आने से आमदनी बढाने और आवास की अच्छी व्यवस्था पर विचार करने लगे। रघु को अपने एक मित्र के जरिए अंबरनाथ में कम दाम पर एक फ्लैट मिल गया और उसी के नीचे एक दूकान । दूकान किराए पर ले ली और हार्डवेयर की दूकान खोल ली। प्लंबिंग का काम तो चल ही रहा था। अब उसे बड़ी बिल्डिंग में प्लम्बिंग के ठेके भी मिलने लगे ।

माधव कल्याण में ही रह गए।  वे मुंबई में एक कंपनी में काम करते थे और कल्याण से मुंबई अप डाउन करते थे। उनकी तीन बेटी और एक बेटा था। एक बेटी का विवाह हो गया परन्तु छोटी बेटी और बेटा पढाई कर रहे थे। रघु के तीन बेटे थे और उनमें से दो हाईस्कूल करने के बाद उसके साथ ही काम करने लगे। इस तरह उसकी आमदनी अच्छी होने लगी। अंबरनाथ के बाहरी इलाके में खाली पड़ी जमीन पर प्लॉटिंग हो रही थी तो रघु को वहाँ एक प्लॉट मिल गया और फ्लैट बेचकर एक बंगला बना लिया।

रघु के बंगले के बाजू में एक प्लॉट था जो बिकाऊ था। उसने सोचा क्यों न माधव को दिलवा दिया जाए। माधव से बात की तो वह तैयार हो गया क्योंकि कल्याण वाला फ्लैट छोटा पड़ रहा था इसलिए उसने हाँ कर दिया। इधर रघु ने प्लॉटहोल्डर से बात की तो प्लॉटहोल्डर माधव को बेचने के लिए तैयार हो गया। रघु बहुत प्रसन्न हुआ और चेहरे पर अनोखे भाव लाते हुए प्लॉटहोल्डर से कहने लगा कि माधव उसके बचपन का दोस्त है और उससे वह कुछ कह नहीं सकता इसलिए मेरा भी ख्याल रखना। प्लॉटहोल्डर ने सहज भाव से उसका चेहरा देखते हुए कहा – दो पर्सेंट न! रघु ने धीरे से हाँ में सिर हिलाया।

प्लॉटहोल्डर ने हँसते हुए कहा कि अरे भाई वह तो आज का उसूल है, चिंता मत करो मिल जाएगा।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 61 – बंधन… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन।)

☆ लघुकथा # 61 – बंधन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“तुम्हें पता है तुम्हारी मां ने क्या किया, मोहल्ले की सारी औरतें नीचे आई है अब चलो जवाब दो? बच्चों की तरह हरकतें करती हैं। मैं कुछ बोलती हूं तो तुम लोगों को लगता है कि मैं तुम्हारी मां की शिकायत करती रहती हूं।”

“क्या हुआ तुम माँ पर क्यों चिल्ला रही हो?”

“वह सुबह से गायब है बच्चों की तरह  नजर रखनी पड़ती है शांति जी ने कहा।”

रामप्रसाद जी ने गंभीरता से गहरी सांस ली और कहा “भाग्यवान नाम तो तुम्हारा शांति है पर क्यों अशांति मचा रखी हो? मां ने कहा है कि वह तुम्हारे और हमारे लिए कुछ सामान लेने जा रही हैं इसलिए आज मुझसे वह ₹10,000 लेकर गई हैं अभी आ रही होगी।”

“चलो ! देखो तुम्हारी मां ने क्या किया है?”

“क्या हुआ भाभी जी आप सब लोग आज यहां पर?”

“क्या बताएं भाई साहब, आपकी मां हमारी सभी की सास और बेटियों को लेकर कुंभ स्नान के लिए गई हैं। सब लोग बिना बताए ही घर से निकल गई है अब हमें बड़ी घबराहट हो रही है।”

“आप लोग घबराइए नहीं मैं ड्राइवर को फोन लगा कर पूछता हूं।”

उन्होंने फोन किया तब ड्राइवर ने कहा कि- “मां जी ने कहा कि आपने ही आदेश दिया है।”

माँ ने ड्राइवर से फोन ले लिया कहा –“चिंता मत करो हम लोग दो-तीन दिन में आराम से घर पहुंच जाएंगे। तुम सभी के लिए मैं प्रसाद भी ले आऊंगी और अब दोबारा फोन करके परेशान मत करना।”

“भाई साहब अगली बार से आप माताजी से कह दीजिएगा कि हम सभी की सास और बेटियों को लेकर न जाया करें अकेले उन्हें जहां जाना हो वहां जाये।”

सभी पड़ोस की औरतें चली गईं।

“श्रीमान जी कुछ कहती थी तो तुम्हें लगता था कि मैं उन पर शक करती हूं। बताओ अब किसी मुश्किल में खुद फंसेंगी और सबको फसाएंगे अब क्या होगा?”

“उनसे भी मेरा ममता का बंधन है वह भी तो मेरी मां है।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 261 ☆ तो दिवस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 261 ?

☆ तो दिवस ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

एखाद्या दिवसाकडून,

आपण केलेल्या असतात,

वेगळ्याच अपेक्षा,

खूप काही बोलायचं असतं,

ऐकायचं असतं!

*

बनवायचं असतं काही चविष्ट—

ती फोनवर उगाचच ऐकवते,

हे नको…ते नको….

आणि फसतातच सारे बेत,

तिच्या दृष्टीने !

*

आणि खरंतर तीच असते नांदी —

काही अघटित घडण्याची!

असे ओढून ताणून,

नसतातच मिळवायचे,

आनंदाचे क्षण,

ते प्रारब्धातच असावे लागतात!

 सगळेच ठोकताळे..

चुकतात, हुकतात काही क्षण,

चुकवायला नकोच–

असतात असे,

तो दिवस असाच,

असतो—

ध्यानी मनी नसताना,

सोसावा लागतो!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 91 – स्वार्थ, जो प्यार के दरमियाँ आ गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – स्वार्थ, जो प्यार के दरमियाँ आ गये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 91– स्वार्थ, जो प्यार के दरमियाँ आ गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कौन से मोड़ पर हम यहाँ आ गये 

भूलकर, अपने घर का पता आ गये

*

इक तुम्हारे लिए हमने क्या ना किया 

छोड़कर हम तो सारा जहाँ आ गये

*

मेरे गीतों में, जीवन की सच्चाई है 

दर्द शब्दों में ढलकर, यहाँ आ गये

*

मैं जो कह न सका, आँसुओं ने कहा 

दिल के जज्बात के, तर्जुमा आ गये

*

बात की थी जमाने की, तुम रो पड़े 

आपके क्या कोई बाकया आ गये

*

अब मिलाने से भी, दिल मिलेंगे नहीं 

स्वार्थ, जो प्यार के दरमियाँ आ गये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 164 – सबकी अपनी राम कहानी… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सबकी अपनी राम कहानी…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 164 – सबकी अपनी राम कहानी… ☆

सबकी अपनी राम कहानी।

आलौकिक गंगा का पानी।।

 *

सबके अलग-अलग दुखड़े हैं,

पक्की-छत तो, उजड़ी-छानी।।

 *

भटका तन जंगल-जंगल है,

सत्ता गुमी मिली पटरानी।

 *

जीवन जिसने खरा जिया है,

उसका नहीं मिला है सानी।

 *

शांति स्वरूपा सीता खोई,

ढूंढ़ेंगे हनुमत सम-ज्ञानी।

 *

रावण का वैभव विशाल था,

पर माथे पर थी पैशानी।

 *

एक-एक कर बिछुड़े अपने,

फिर भी रण हारा अभिमानी।

 *

संघर्षों में छिपी पड़ी है,

पौरुषता की अमर जुबानी।

 *

राम राज्य का सपना सुंदर,

देख रहा हर हिंदुस्तानी।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 46 – लघुकथा – परिवर्तन, सोच और प्रयास ?

उसकी रोटियाँ थाली में पड़ी ठंडी हो गई थीं।

घर परिवार को भोजन परोसते -परोसते जब वह भोजन करने बैठी तो दाल-सब्ज़ियाँ भी ठंडी हो गई। घर के लोग भोजन करके टेबल से उठ गए। बस साथ कोई बैठा रहा तो वह थी छोटी ननद। उसका भी भोजन करना हो चुका था। वह अपनी डेलीवरी के लिए मायके आई हुई थी।

उसने पूछा – दाल सब्ज़ी गरम करके ला दूँ भाभी? आपका खाना ठंडा हो गया।

– नहीं रे ! थैंक्स, मुझे तो रोज़ ही ठंडा खाने की आदत है।

– और अकेले भी न भाभी? ननद ने पूछा।

उसने एक म्लान -सी मुस्कान दी और भोजन करने लगी।

-हमारी हालत एक – सी है भाभी। मैं समझ सकती हूँ आप अकेले भोजन करती हुई कैसा महसूस करती होंगी!

– है कोई उपाय इसका तो बोलो?

– है न भाभी! मेरी सास ने ही यह उपाय निकाला है।

– अच्छा! मुझे भी बताओ?

– टेबल पर अचार, पापड़, सलाद, चटनी, नमक, पानी का जग पहले से लाकर रख देती हैं मेरी सास। फिर दाल भात सब्ज़ियों के बर्तन और गरम रोटियों का कैसरोल भी रख देती हैं। थाली, कटोरियाँ, गिलास, चम्मच भी सुबह ही टेबल पर रखे जाते हैं। सासुमाँ ने तो घर पर ऐलान ही कर दिया है कि पाश्चात्य संस्कृति को मानकर चलना है तो सब कुछ टेबल पर रखा रहेगा। स्वयं परोसो और खाओ। बहुएँ भी तो नौकरी करती हैं। फिर वे क्यों ये ज़िम्मेदारी उठाएँ और ठंडा खाना खाएँ?

बस फिर क्या था हम दोनों देवरानी -जेठानी का काम अब हल्का हो गया। भोजन के बाद सब अपने जूठे बर्तन बेसिन में पानी डालकर रखते हैं। बाकी काम हम तीनों महिलाएँ कर लेतीं हैं।

-यह तो बहुत अच्छा है। तुम्हारी सास बहुत अच्छी हैं। पर अम्मा नहीं मानेगी।

– वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए भाभी।

दूसरे दिन सुबह रविवार की छुट्टी थी। सभी देर से उठे। कोई नहाने – शेव करने में जुटा था तो कोई दो कप चाय गुटक कर समाचार पत्र के अक्षर -अक्षर पढ़ने में मग्न था।

ननद -भाभी मिलकर आलू के पराठे बना रही थीं।

सारे पराठे बनाकर, चाय/ कॉफी बनाकर मक्खन, अचार और दही लेकर टेबल पर रख आईं।

सभी नाश्ते की प्रतीक्षा में थे। एक आवाज़ देते ही साथ सभी टेबल पर हाज़िर हुए।

माँ ने कहा- यह क्या चाय -कॉफी भी केतली में लेकर आई बहू? ठंडी हो जाएगी न?

बेटी ने तुरंत उत्तर देते हुए कहा – माँ पाश्चात्य देशों की संस्कृति अपना कर अगर मेज़ कुर्सी पर भोजन करना है तो सब साथ मिलकर एक टेबल पर भोजन करें न! भाभी भी साथ बैठ सकेगी। कैसरोल क्रॉकरी शेल्फ की शोभा बनी हुई है। उसका उपयोग भी तो हो! है न भाभी? अब सब कुछ टेबल पर है जिसे जो चाहिए ले लो और नाश्ते का आनंद लो।

बहुत दिनों के बाद घर के सभी सदस्यों ने मोबाइल, समाचार पत्र सब अलग रखकर मिलकर एक साथ नाश्ता किया। खूब देर तक हँसी -मज़ाक की बातें हुईं।

दोपहर के भोजन के समय पर भी सब कुछ मेज़ पर रख दिया गया। रात को भी यही उपाय अपनाया गया।

अब क्या था ननद की योजना काम आई। घर का अब यही नियम बन गया। कल तक ठंडी रोटी खानेवाली बहू ने भी सबके साथ गरम भोजन खाने का आनंद लेना प्रारंभ किया।

परिवर्तन तो एक अनिर्मित दृश्य मात्र है उसके पूर्व उसमें केवल एक सोच और एक प्रयास ही तो चाहिए होता है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 337 ☆ कविता – “छतनारा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 337 ☆

?  कविता – छतनारा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

साथ यहां हैं कलम तूलिका

कोमल कोंपल जड़ें विशाल

छांव बड़ी रचनाकारों की, है छतनारा

 

शब्द चित्र में हैं स्पंदन

धरती है कैनवास हमारा

आसमान पर इंद्रधनुष, है छतनारा

 

कलाकार के हृदय बड़े हैं

है समेटना दुनियां भर को

बांहों के हम सब के घेरे, हैं छतनारा

 

शुष्क हृदय वाली दुनियां में

बम बारूद धुंध का उत्तर

शीतल मंद मधुर झोंका है, ये छतनारा

 

उमस भरे मौसम में  दिखते,

घुप रातों के आसमान में बिखरे तारे

घुसती आये चांदनी जिससे, वो खिड़की छतनारा

 

एक सूत्र से कला उपासक

मिल बैठें एक वृक्ष के नीचे

जुड़ते हम जिस एक भाव से, वह छतनारा

 

हर मन में थोड़ा रावण है

ज्यादा राम भरा होता है

जो आलोकित करे राम को वो छतनारा

 

अभिव्यक्ति की हैं कई विधाएं

कई माध्यम हैं कहने के, कहकर

सुनकर मिलने वाला सच्चा सुख ही छतनारा

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 – पुष्पांजलि ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री  विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पुष्पांजलि ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 218 ☆

🌻लघु कथा🌻 🪷पुष्पांजलि 🪷

मंदिर में अल पहरी भोर से ही पूजा की तैयारी  होने लगी। पूजा में लगने वाले सारे सामानों का एक-एक कर एकत्रित करके, जाने कब वह मंदिर में रख आती, किसी को पता नहीं चलता। सभी मोहल्ले वालों को लगता कि सार्वजनिक रूप से तैयारी की गई है ।नामी गिनामी लोग यह सोचकर भी खुश होते कि चलो काम कोई भी करें, नाम तो अपना हो रहा है।

विधि विधान से गौरीशंकर का विवाह। महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है,  पुरुष वर्ग भी भक्ति भाव से भगवा वस्त्र में अपने को धर्म साधक बना देख प्रसन्न हो रहे हैं।

बढ़-चढ़कर आरती वंदन और पुष्पांजलि। सभी के हाथ आगे ही आगे। कोई चूक न हो जाए।

पीछे साधारण साड़ी, सिर पर पल्लू और मुखड़े पर तेज, हाथों में पुष्प लिए, साधना- भाव में लीन– बस कुछ कहती। इसके पहले पुष्पांजलि एकत्रित करते पंडित जी पर उसकी नजर पड़ी।

साधना का पूरा  शरीर  सफेद हो चला। सिर पर पल्ला खींचकर अपनी पुष्पांजलि उनके चरणों में समर्पित करते पीछे मुड़कर जाने लगी।

सभी कहने लगी हद कर दी इसने  पुष्पांजलि भगवान की जगह पं जी महाराज के चरणों पर चढ़ा दी। यह भगवान का अपमान कर रही।

पं बने साधु कहने लगे—

जाकी रही भावना जैसी।

प्रसाद का दोना लिए पंडित जी आवाज देते रहे। अब कौन समझ पा सकता था। पति परमेश्वर के बरसों का इंतजार और साधना की – – – पुष्पांजलि इस रूप में समाप्त होगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 120 – देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 120 ☆ देश-परदेश – जब जागो तब सबेरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

महाकुंभ का अंतिम सप्ताह हो चला है, हम दो मित्रों ने भी निश्चय किया कि सपत्नीक प्रयागराज जाते हैं। हमारे जो परिचित यात्रा कर वापिस आ गए थे, उनसे पूरी जानकारी प्राप्त कर, ट्रैवल एजेंट्स से संपर्क भी करा है। सभी लुभावने सपने दिखा रहे हैं।

 एक ट्रैवल एजेंट से जब हमने पूछा के स्लीपर कोच की क्षमता से अधिक यात्री तो नहीं बैठाते हो ? उसने कहा आप के शयन में कोई खलल नहीं होगी। हमारे एक परिचित ने बताया था, कि ये एजेंट बस की सीटों के मध्य गली में भी रात को यात्रियों को लिटा देता है, और शयन करते हुए यात्रियों को बहुत कठिनाई होती हैं।

 हमने भी उस एजेंट से जब ये बात बताई, तो बोला कुछ लोग हाइवे पर प्रयागराज के लिए बसों का इंतजार करते है, उनको पुण्य से वंचित ना रहना पड़े, तभी बैठाते हैं।

विषय को लेकर वाद विवाद हुआ, तब वो बोला यदि आपको सस्ते में जाना है, तो बस की छत पर लेट कर चले, आधे पैसे लूंगा। हमने कहा यदि छत से गिर गए तो क्या होगा ? उसने बताया आप को रस्सी से बांध देंगे, जब भी मार्ग में चाय आदि के लिए बस रुकेगी, तो आपकी रस्सी खोलकर ऊपर ही चाय की व्यवस्था कर देंगे।

हमने कहा गलत काम क्यों करते हो, वो लपक कर बोला साहब अभी तक सैकड़ों लोगों को अमेरिका भिजवा चुके हैं, वो तो आजकल थोड़ी सख्ती है। हम ये चिंदी के काम नहीं करते, आपकी जैसी मर्जी। हम समझ गए, ये अवश्य पहले “डंकी रूट” में कार्य करता होगा।

हम ने भी अब ट्रेन से जाने का मानस बना लिया है। बिना टिकट कहीं भी प्रवेश ले लेंगे यदि कहीं पकड़े गए तो पेनल्टी भर देंगें। जाने से पहले कुछ पाप (बिना टिकट) तो कर लेवें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #273 ☆ जिद्द हारते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 273 ?

☆ जिद्द हारते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

जीवनात या असतातच ना सोशिक काही वर्षे

आयुष्याला गिळतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

भट्टीमधला माठ भाजुनी होतो जेव्हा पक्का

माठासाठी जळतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

सावध असलो जरी कितीही नसते हाती काही

सापळ्यातही फसतातच ना सोशिक काही वर्षे

*

विश्व विजेता असतानाही खात्री नसते काही

हार पाहुनी रडतातच ना सोशिक काही वर्षे

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संकटकाळी पाय गाळुनी संयम कोठे बसतो

जोर लावुनी भिडतातच ना सोशिक काही वर्षे

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आजाराची टोळी येते अंगावरती जेव्हा

जिद्द हारते हरतातच ना सोशिक काही वर्षे

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प्रेम लावुनी वाढवलेली लेक सासरी जाता

काळजासही पिळतातच ना सोशिक काही वर्षे

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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