(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “माँ…”।)
☆ आलेख ☆ ।। सफलता की कुंजी ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
ईश्वर ने हमें यह जीवन दिया है कि सफलता के साथ हम यह जीवन यापन करें। यह जीवन केवल एक बार मिलता है। इस सफलता कुंजी को जानने से पहले इस अमूल्य जीवन का मूल्य जाने। जीवन में कठिनाई अवश्य हो सकती है मगर जीवन व्यर्थ कदापि नहीं हो सकता। जीवन एक अवसर है श्रेष्ठ बनने का, श्रेष्ठ करने का, श्रेष्ठ पाने का। इस अमूल्य जीवन की दुर्लभता जिस दिन किसी की समझ में आ जाएगी उस दिन कोई भी व्यक्ति जीवन का दुरूपयोग नहीं कर सकता। जीवन एक फूल है जिसमें काँटे भी हैं, मगर सौन्दर्य की भी कोई कमी नहीं। ये और बात है कुछ लोग काँटो को ही कोसते रहते हैं और कुछ सौन्दर्य का आनन्द लेते हैं। जीवन में सब कुछ पाया जा सकता है, मगर सब कुछ देने पर भी जीवन को नहीं पाया जा सकता है। जीवन का तिरस्कार नहीं, अपितु इससे प्यार करो। जीवन को बुरा कहने कीअपेक्षा जीवन की बुराई मिटाने का प्रयास करो, यही बात समझदारी है। यह भी बहुतआवश्यक है कि हम निरंतर ही आत्म समीक्षा व आत्म चिंतन व आत्म विश्लेषण करते रहें।
ध्यान और आत्मचिंतन के लिए सब से जरूरी है समय देनाऔर तत्परता। पर यह कहना कि हमारे पास समय ही नहीं मिलता गलत है। जब नींद आती है, तो तब सारे जरूरी काम छोड़ कर भी सो जाना पड़ता है। जैसे नींद को महत्त्व देते हैं, ऎसे ही चौबीस घंटे में से कुछ समय ध्यान और आत्म चिंतन में भी बिताना चाहिए। तभी हमारा जीवन सार्थक होगा, नहीं तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। आत्म अवलोकन से ही हमारी सोच परिष्कृत होती है और यही विचार हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। हमारी पहचान हमारी सोच पर निर्भर करती है, कि हम कितना उच्चकोटि का या निम्नकोटि का सोच सकते हैं। हम लोगों के बीच में अपनी सोच के द्वारा ही पहुँचते है। इस समाज में हमारा क्या स्तर है, ये हमारी सोच पर ही निर्भर करता है। इससे यह कह सकते हैं, कि हमेअपनी सोच के स्तर को ऊपर रखना चाहिये। तभी हमारा जीवन सफल होगा। यह जीवन केवल एक बार मिला है, दुबारा नहीं मिलेगा, इसको निरंतर प्रयास कर सुधारें और इस समय से अनमोल जीवन का मूल्य जानें। एक बात जो सफलता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि सदैव आगे बढ़ने की कोशिश करना क्योंकि भूत काल में कोई भविष्य नहीं होता। गलतियों से सीखना और कोशिश भी करनी है, कि वह गलती पुनः न हो। सबसे जरुरी चीज़ है, आत्मविश्वास और आशा। जब तक यकीन जिन्दा है तब तक आप के जीतने की उम्मीद जिन्दा है। गेम की अंतिम बाल भी परिणाम बदल सकती है। अंत में परिणाम स्वरूप हम कह सकते हैं कि निरंतर अभ्यास व कर्म ही सफलता की कुंजी है। भाग्य का कुल मिलाकर प्रतिशत1%सेअधिक नहीं है। यह बात यदि गाँठ बांध ली तो कोई भी मंज़िल दूर नहीं है।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत – “बापू का सपना…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ बाल गीतिका से – “बापू का सपना…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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बापू का सपना था—भारत में होगा जब अपना राज ।
गाँव-गाँव में हर गरीब के दुख का होगा सही इलाज ॥
कोई न होगा नंगा – भूखा, कोई न तब होगा मोहताज ।
राम राज्य की सुख-सुविधाएँ देगा सबको सफल स्वराज ॥
पर यह क्या बापू गये उनके साथ गये उनके अरमान।
रहा न अब नेताओं को भी उनके उपदेशों का ध्यान ॥
गाँधी कोई भगवान नहीं थे, वे भी थे हमसे इन्सान ।
किन्तु विचारों औ’ कर्मों से वे इतने बन गये महान् ॥
किती वेळेस मी वाचलं असेल ह्याची गिनतीच नाही “नॉट विदाऊट माय डॉटर ” कुठलाही निराशेचा क्षण अलगद पुसून काढते हे पुस्तक. परक्या देशात परक्या माणसात आपल्या मुलींसाठी दिलेला एका आईचा एकाकी लढा. प्रत्येकाने आवर्जून वाचावी अशी ही सत्य कथा.
बेट्टी महमुदी यांचे पती मुडी महमुदी हे अमेरिकेत डॉक्टर होतें. मूलतः इराणी आणि कट्टर धार्मिक, त्यांची मुलगी महातोब यांच्या भोवती ही कथा फिरते. लग्नानंतर चार वर्ष अमेरिकेत वास्तव्य केल्यानंतर स्वतःच्या कुटुंबियांशी भेट घडवून आणायला मुडी दोघीना इराण मध्ये घेऊन जातो. तुम्हाला तिथलं वातावरण खूप आवडेल तुम्हाला हवं तेव्हा परतव येवू ह्या अटीवर दोघीना घेऊन इराण ला येतो.पण इथे आल्यावर तो एकदम बदलतो. आपल्या कुटुंबियांसमवेत मिळून अनेक बंधने लादतो.कट्टर धार्मिक वातावरण असलेल्या घरात तो बेट्टी आणि माहतोब ला घेऊन येतो. तिथे कट्टर धार्मिकता पाळाली जातं असतें. अस्वच्छता अज्ञान आणि सामाजिक दृष्ट्या मागासलेल्या ठिकाणी दोघी राहण्यासाठी अजिबात खूष नसतात मोकळ्याविचारांच्या बेट्टीला हे सहन करणे आणि बुरखा सॉक्स चादोर सह वावरणे असहाय्य होतें. ती अमेरिकन एम्बसीतून मदत मिळवण्याचा प्रयत्न करते पण पकडली जाते आणि तिच्या शारीरिक व मानसिक अत्याचारांना सुरुवात होते सुटकेचे सगळमार्ग संपलेले असताना बेटीने पुन्हा तसे करू नये म्हणून महातोब ला ठेवुन घेऊन तिला अमेरिकेत जायचे असल्यास जावे असेही तिला सांगण्यात आले. पण बेट्टी अजिबात तयार नव्हती योग्य संधी मिळे परियंत ती परिस्थितीशी समझोता करते आणि मुलीला जराही डोळ्याआड न करता जगत असतें अशातच अमेरिकेसोबत इराण चे युद्ध सुरूहोते आणि बेट्टीच्या हलामध्ये जास्त वाढ होतें. एका खासगी एजंटच्यामदतीने डोंगराळ भागातून बर्फाने आच्छादलेल्या डोंगरांमधून कधी चालत कधी घोड्यावर कधी टेम्पोने असा प्रवास करत ती तुर्कस्तानात दाखल होतें तिथे अमेरिकन एंबसी ची मदत घेऊन अमेरिकेत आपल्या आई वडिलांना जवळ पोहचते.
मुली साठी वाट्टेल ती हाल अपेष्टा सहन करत बेट्टी अमेरिकेत पोहचते पण मुलीशिवाय परतणे तिला नामंजूर असते.
एका आईच्या सहसची आणि चिकाटीची सत्य कथा प्रत्येकाने जरूर वाचावी.
कथेत खूप काही असे प्रसंग आहेत जिथे बेट्टीची जिद्द आपल्याला अतिशयोक्ती वाटते पण एक आई म्हणून विचार केला की एक आईसाठी हे अशक्य नाही असेही वाटते..
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहंकार व संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 187 ☆
☆ अहंकार व संस्कार☆
अहंकार दूसरों को झुका कर खुश होता है और संस्कार स्वयं झुक कर खुश होता है। वैसे यह दोनोंं विपरीत दिशाओं में चलने वाले हैं, विरोधाभासी हैं। प्रथम मानव को एकांगी व स्वार्थी बनाता है; मन में आत्मकेंद्रितता का भाव जाग्रत कर, अपने से अलग कुछ भी सोचने नहीं देता। उसकी दुनिया खुद से प्रारंभ होकर, खुद पर ही समाप्त हो जाती है। परंतु संस्कार सबको सुसंस्कृत करने में विश्वास रखता है और जितना अधिक उसका विस्तार होता है; उसकी प्रसन्नता का दायरा भी बढ़ता चला जाता है। संस्कार हमें पहचान प्रदान करते हैं; दूसरों से अलग करते हैं, परंतु अहंनिष्ठ प्राणी अपने दायरे में ही रहना पसंद करता है। वह दूसरों को हेय दृष्टि से देखता है और धीरे-धीरे वह भाव घृणा का रूप धारण कर लेता है। वह दूसरों को अपने सम्मुख झुकाने में विश्वास करता है, क्योंकि वह सब करने में उसे केवल सुक़ून ही प्राप्त नहीं होता; उसका दबदबा भी कायम होता है। दूसरी ओर संस्कार झुकने में विश्वास रखता है और विनम्रता उसका आभूषण होता है। इसलिए स्नेह, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग व उसके अंतर्मन में निहित गुण…उसे दूसरों के निकट लाते है; सबका सहारा बनते हैं। वास्तव में संस्कार सबका साहचर्य पाकर फूला नहीं समाता। यह सत्य है कि संस्कार की आभा दूर तक फैली दिखाई पड़ती है और सुक़ून देती है। सो! संस्कार हृदय की वह प्रवृत्ति है; जो अपना परिचय स्वयं देती है, क्योंकि वह किसी परिचय की मोहताज नहीं होती।
भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में सबसे महान् है; श्रद्धेय है, पूजनीय है, वंदनीय है और हमारी पहचान है। हम अपनी संस्कृति से जाने-पहचाने जाते हैं और सम्पूर्ण विश्व के लोग हमें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं; हमारा गुणगान करते हैं। प्रेम, करुणा, त्याग व अहिंसा भारतीय संस्कृति का मूल हैं, जो समस्त मानव जाति के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाते हैं। इसी का परिणाम हैं…हमारे होली व दीवाली जैसे पर्व व त्यौहार, जिन्हें हम मिल-जुल कर मनाते हैं और उस स्थिति में हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन हो जाता है; शत्रुता का भाव तिरोहित व लुप्त-प्रायः हो जाता है। लोग इन्हें अपने मित्र व परिवारजनों के संग मना कर सुक़ून पाते हैं। धर्म, वेशभूषा, रीति-रिवाज़ आदि भारतीय संस्कृति के परिचायक हैं, परंतु इससे भी प्रधान है– जीवन के प्रति सकारात्मक सोच, आस्था, आस्तिकता, जीओ और जीने का भाव…यदि हम दूसरों के सुख व खुशी के लिए निजी स्वार्थ को तिलांजलि दे देते हैं, तो उस स्थिति में हमारे अंतर्मन में परोपकार का भाव आमादा रहता है।
परंतु आधुनिक युग में पारस्परिक सौहार्द न रहने के कारण मानव आत्मकेंद्रित हो गया है। वह अपने व अपने परिवार के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही नहीं और प्रतिस्पर्द्धा के कारण कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संपत्ति अर्जित करना चाहता है। इतना ही नहीं, वह अपनी राह में आने वाले हर व्यक्ति व बाधा को समूल नष्ट कर देता है; यहां तक कि वह अपने परिवारजनों की अस्मिता को भी दाँव पर लगा देता है और उनके हित के बारे में लेशमात्र भी सोचता नहीं। उसकी दृष्टि में संबंधों की अहमियत नहीं रहती और वह अपने परिवार की खुशियों को तिलांजलि देकर उनसे दूर… बहुत दूर चला जाता है। संबंध-सरोकारों से उसका नाता टूट जाता है, क्योंकि वह अपने अहं को सर्वोपरि स्वीकारता है। अहंनिष्ठता का यह भाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है और वे सब नदी के द्वीप की भांति अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह जाते हैं। पति-पत्नी में स्नेह-सौहार्द की कल्पना करना बेमानी हो जाता है और एक-दूसरे को नीचा दिखाना उनके जीवन का मूल लक्ष्य बन जाता है। मानव हर पल अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है। इन विषम परिस्थितियों में संयुक्त परिवार में सबके हितों को महत्व देना–उसे कपोल-कल्पना -सम भासता है, जिसका परिणाम एकल परिवार-व्यवस्था के रूप में परिलक्षित है। पहले एक कमाता था, दस खाते थे, परंतु आजकल सभी कमाते हैं; फिर भी वे अभाव-ग्रस्त रहते हैं और संतोष उनके जीवन से नदारद रहता है। वे एक-दूसरे को कोंचने, कचोटने व नीचा दिखाने में विश्वास रखते हैं। पति-पत्नी के मध्य बढ़ते अवसाद के परिणाम-स्वरूप तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा हो रहा है।
पाश्चात्य सभ्यता की क्षणवादी प्रवृत्ति ने ‘लिव- इन’ व ‘तू नहीं और सही’ के पनपने में अहम् भूमिका अदा की है…शेष रही-सही कसर ‘मी टू व विवाहेतर संबंधों’ की मान्यता ने पूरी कर दी है। मदिरापान, ड्रग्स व रेव पार्टियों के प्रचलन के कारण विवाह-संस्था पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। परिवार टूट रहे हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। ‘हेलो- हाय’ की संस्कृति ने उन्हें उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां वे अपना खुद का जनाज़ा देख रहे हैं। बच्चों में बढ़ती अपराध- वृत्ति, यौन-संबंध, ड्रग्स व शराब का प्रचलन उन्हें उस दलदल में धकेल देता है; जहां से लौटना असंभव होता है। परिणामत: बड़े-बड़े परिवारों के बच्चों का चोरी-डकैती, लूटपाट, फ़िरौती, हत्या आदि में संलग्न होने के रूप में हमारे समक्ष है। वे समाज के लिए नासूर बन आजीवन सालते रहते हैं और उनके कारण परिवारजनों को बहुत नीचा देखना पड़ता है
आइए! इस लाइलाज समस्या के समाधान पर दृष्टिपात करें। इसके कारणों से तो हम अवगत हो गए हैं कि हम बच्चों को सुसंस्कारित नहीं कर पा रहे, क्योंकि हम स्वयं अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। हम हैलो-हाय व जीन्स कल्चर की संस्कृति से प्रेम करते हैं और अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षित करना चाहते हैं। जन्म से उन्हें नैनी व आया के संरक्षण में छोड़, अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं और एक अंतराल के पश्चात् बच्चे माता-पिता से घृणा करने लग जाते हैं। रिश्तों की गरिमा को वे समझते ही नहीं, क्योंकि पति-पत्नी के अतिरिक्त घर में केवल कामवाली बाईयों का आना-जाना होता है। बच्चों का टी•वी• व मीडिया से जुड़ाव, ड्रग्स व मदिरा-सेवन, बात-बात पर खीझना, अपनी बात मनवाने के लिए गलत हथकंडों का प्रयोग करना… उनकी दिनचर्या व आदत में शुमार हो जाता है। माता-पिता उन्हें खिलौने व सुख-सुविधाएं प्रदान कर बहुत प्रसन्न व संतुष्ट रहते हैं। परंतु वे भूल जाते हैं कि बच्चों को प्यार-दुलार व उनके स्नेह-सान्निध्य की दरक़ार होती है; खिलौनों व सुख-सुविधाओं की नहीं।
सो! इन असामान्य परिस्थितियों में बच्चों में अहंनिष्ठता का भाव इस क़दर पल्लवित-पोषित हो जाता है कि वे बड़े होकर उनसे केवल प्रतिशोध लेने पर आमादा ही नहीं हो जाते, बल्कि वे माता-पिता व दादा-दादी आदि की हत्या तक करने में भी गुरेज़ नहीं करते। उस समय उनके माता-पिता के पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रह जाता। वे सोचते हैं– काश! हमने अपने आत्मजों को सुसंस्कृत किया होता; जीवन-मूल्यों का महत्व समझाया होता; रिश्तों की गरिमा का पाठ पढ़ाया होता और संबंध-सरोकारों की महत्ता से अवगत कराया होता, तो उनके जीवन का यह हश्र न होता। वे सहज जीवन जीते, उनके हृदय में करुणा भाव व्याप्त होता तथा वे त्याग करने में प्रसन्नता व हर्षोल्लास का अनुभव करते; एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकार विश्वास जताते; विनम्रता का भाव उनकी नस-नस में व्याप्त होता और सहयोग, सेवा, समर्पण उनके जीवन का मक़सद होता।
सो! यह हमारा दायित्व हो जाता है कि हम आगामी पीढ़ी को समता व समरसता का पाठ पढ़ाएं; संस्कृति का अर्थ समझाएं; स्नेह, सिमरन, त्याग का महत्व बताएं ताकि हमारा जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय बन सके। यही होगी हमारे जीवन की मुख्य उपादेयता… जिससे न केवल हम अपने परिवार में खुशियां लाने में समर्थ हो सकेंगे; देश व समाज को समृद्ध करने में भी भरपूर योगदान दे पाएंगे। परिणामत: स्वर्णिम युग का सूत्रपात अवश्य होगा और जीवन उत्सव बन जायेगा।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे…”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)