(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 162 ☆
☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “जब से ताबीज़ गले में बाँधा…”।)
☆ तन्मय साहित्य #184 ☆
☆ जब से ताबीज़ गले में बाँधा…☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “देव सभी पत्थर हैं…”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 09 ☆ देव सभी पत्थर हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी सद्य प्रकाशित पुस्तक “भज-नात” (सर्वधर्मिक) पर आपका आत्मकथ्य – “भावाभिव्यक्ति”।
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 66
पुस्तक चर्चा – “भज-नात” (सर्वधर्मिक)- आत्मकथ्य – “भावाभिव्यक्ति” डॉ. सलमा जमाल
सभी जानते हैं कि मेरी परवरिश गंगा-जमुनी तहजीब में हुयी । परिवार (मैका व ससुराल) में धर्म भी था और कर्म भी । घर में धर्म के साथ-साथ कर्मों पर विशेष बल दिया जाता था । क़दम उठाने से पहले यह सोचा जाता था कि कही गुनाह तो नहीं हो रहा ।
मेरी खुशकिस्मती थी कि ससुराल भी इन्हीं विचारों की मिली । मेरे पिता नेक दिल इन्सान
थे । हमको सुबह को नमाज के लिये उठा देते थे । रोज़े भी रखने पड़ते थे । वो कहते थे कि “मन्नते मानों तो रोजे, नमाज की मानो, ताकि जिस्म पर जोर पड़े । पैसे से तो सभी जन्नत खरीद सकते है। पास के मन्दिर में हम बच्चे भजन सुनने पहुँच जाते थे। हिन्दु, मुस्लिम का फर्क, बस दीवाली व ईद में चलता था । बाकी सब दिन बराबर । हमारे यहाँ सभी धर्मो का आदर किया जाता था। और आज भी है ।
विद्वानों ने संगीत को 3 भागों में विभाजित किया है- . शास्त्रीय संगीत 2. सुगम संगीत 3. लोक संगीत।
भजन को सुगम संगीत की श्रेणी में रखा गया है। हम इसे शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत की श्रेणी में रख सकते हैं। लेकिन भजन मूल रूप से देवी-देवताओं की प्रसंशा में गाया जाने वाला गीत है, जिसे ईश्वर की आराधना, उपासना की शैली में भी रखते हैं।
सभी भारतीय पद्धतियों में इसका उपयोग भक्ति-भाव के रूप में किया जाता है।
भजन मन्दिरों में भी गाये जाते है भजन को आमतौर पर हिन्दू अपने सर्वशक्तिमान को याद करके इबारत के रूप में गाते हैं।
हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग भजन, कीर्तन पूजा के द्वारा, अपने ईश्वर की प्राप्ति के लिये इनका रास्ता अपनाते हैं। प्रार्थना करते हैं और अज्ञात शक्ति उसे पूरा करती है। भजन व कीर्तन के द्वारा की गयी प्रार्थना बहुत जल्द पूरी होती है। व्यक्ति ज्ञान, कर्म, और भक्ति के मार्गो से ईश्वर को पाने का प्रयास करता है। भजन, ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल सर्वश्रेष्ठ मार्ग है ।
भजन व कीर्तन में थोड़ा फ़र्क होता है । भजन एक गीत है और कीर्तन किसी मंत्र विशेष का उच्चारण है। जो कुछ भी है, सब ईश्वर को पाने के लिये है ।
नात का अर्थ होता है – नाता, नातेदार, सम्बन्ध। नात उर्दू साहित्य में एक इस्लामी पद्य रूप है। जिसमें पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की तारीफ़ करते हुए लिखी जाती है। नात को बड़े अदब वे एहतिराम से गाया जाता है। अक्सर नात ए शरीफ लिखने वाले आम शायर को नात गो शायर कहते हैं, और गाने वाले को नात ख़्वां कहते हैं। नात भी एक तरह से दिल को सुकून और खुद को पैगम्बर साहब के क़रीब होने का अहसास दिलाती है। सूफ़ी सन्त इसे इबादत का जरिया मानते हैं। दूसरा जरिया कव्वाली है।
उर्दू में हम्द व सना लिखी जाती है। हम्दो सना ख़ुदा की तारीफ में लिखी जाती है। इस्लाम धर्म को मानने वाले मुस्लिम लोग इसे तरन्नुम में गाते हैं।
क्रिश्चियन लोग कारोल के माध्यम से प्रभु की प्रशंसा करते हैं। ऐसे ही सिक्ख धर्मावलम्बी संगत के द्वारा वाहे गुरू की गाकर प्रसंशा करते है। अरदास (प्रार्थना) करते हैं ।
हम कह सकते है कि भारत एक ऐसा गुलदस्ता या चमन है, जिसमें तरह-तरह के रंग-बिरंगे, खुशबू के जाति धर्म के फूल खिले हैं। मगर सभी की जमीन एक है। फिर हम अलग-अलग कैसे हो सकते हैं। हम हिन्दुस्तान के चमन के फूल हैं। अलग-अलग भाषा, प्रान्त, जाति, संस्कृति, धर्म हैं। मगर हमारी जड़े एक ही जमीन जिसका नाम हिन्दोस्तान है, से जुड़ी हुई है। जिस दिन मुस्लिम भजन और हिन्दू, नात का आदर करते हुये स्वयं को एक-दूसरे की संस्कृति, धर्म को सम्मान सहित अपनायेंगे । उस इबादत को हम भजन + नात – भजनात कहेंगे । मेरा सपना है कि हम भारतीयों में यह गंगा-जमुनी तहजीब का ईजाद हो। हम प्यार मुहब्बत से रहे। नफ़रतों की फ़सल काटें, मुहब्बत के बीज बोयें। शायद यही एक सच्चे देशभक्त का, साहित्यकार का मजहब है। गुरुनानक देव ने कहा है।
अवल अल्लाह नूर उपाइया, क़ुदरत के सब बन्दे ।
एक नूर से सब जग उपजया, को भले को मंदे ।।
मेरा सपना है, एक दिन ऐसा आये, जब हमारा धर्म से ज्यादा कर्म पर जोर हो। तब शायद हम ना होंगे । परन्तु इसका सुख हमारी भावी नस्लें उठायेंगी ।
मैं अपने परिवार- बेटे-बहू, बेटी-दामाद, नाती-नातिनों, पोता-पोती को इस मार्ग पर चलते देखना चाहती हूं। सभी साहित्यकार को, भाई-बहिनों को, मेरे सरपरस्त वरिष्ठ जनों को, मित्रों -सहेलियों , पड़ोसियों को धन्यवाद देती हूँ । जिनके प्यार से मुझे ताकत मिली और मैं भज-नात पुस्तक की रचना करने में सफ़ल हुई ।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 68 – किस्साये तालघाट – भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
तालघाट शाखा सोमवार से शुक्रवार तक अलग मूड अलग गति से चलती थी पर शनिवार का दिन मूड और गति बदलकर रख देता था. DUD हों या WUD सब “चली गोरी पी से मिलन को चली”के मूड में उसी तरह आ जाते थे जैसे होली के ढोल बजते ही “रंग बरसे भीगे चुनरवाली” वाला रंग गुलाल मय खुमार चढ़ जाता है. जाने की खुशी पर, रविवार को नहीं आने की खुशी हावी हो जाती थी. परिवार भी अपने निजी मुख्य प्रबंधक के शनिवार को आने और रविवार को नहीं जाने के खयालों में रविवारीय प्लान बनाने में व्यस्त हो जाता था. पत्नीजी हों या संतानें, सबकी छै दिनों से सोयी अपनी अपनी डिमांड्स जागृत हो जाती थीं. पत्नियों की शपथ होती कि बंदे को “संडे याने रेस्ट डे ” नहीं मनाने देना है और ये तो मारकाट याने मार्केटिंग के लिये उपयोग में लाया जाना है. शाखा में परफॉर्मेंस कैसी भी हो पर आउटिंग में शतप्रतिशत परफारमेंस का आदेश घर पहुंचते ही हाथों के जरिए मन मष्तिष्क में जबरन घुसा दिया जाता था और तथाकथित घर के मालिकों की हालत “आसमान से गिरे तो खजूर में अटके” वाली हो जाती थी. ऐसे मौके पर उन्हें अपनी शाखा और नरम दिलवाले याने सहृदय शाखा प्रबंधक याद आते थे.
और शाखा प्रबंधक के खामोश सुरों से यह गाना निकलता “तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्या निभाओगे, जैसे ही मिलेगा मौका, घर को भाग जाओगे” यहाँ साथ का बैंकिंग भाषा में वीकली और पी फार्म बनाने से है. अंततः जो जाने वालों के तूफान के बाद शाखा में बच जाते, वो होते परिवार सहित रहने वाले शाखा प्रबंधक और अभय कुमार. अभय कुमार कौमार्य अवस्था में थे, सबसे जूनियर पर सबसे ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और प्रतिभा शाली स्टाफ थे. “कुमार ” न सिर्फ उनका अविवाहित होने का साइनबोर्ड था बल्कि उन्हें नितीश कुमार और आनंद कुमार और हमारे आंचलिक कार्यालय वाले “राजकुमार” वाले बिहार प्रांत का वासी होने की भी पहचान देता था. चूंकि एक बिहारी ही सबपर भारी माना जाता है तो पिता सदृश्य शाखाप्रबंधक के सानिध्य और मार्गदर्शन में अभय कुमार वीकली और पी फार्म बनाने में निपुण हो रहे थे और कम से कम इस क्षेत्र में नियंत्रक महोदय की अपेक्षाओं पर खरे उतर रहे थे. उनका याने अभय कुमार का दीर्घकालिक लक्ष्य तो द्रुतगति से कैरियर की पायदानों पर चढ़ना था पर अल्पकालिक लक्ष्य शाखाप्रबंधक का स्नेह प्राप्त करना और अपने गृहनगर के क्वार्टरली प्रवास पर कुछ दिनों की फ्रांसीसी याने फ्रेंच लीव का उपहार पाना भी होता था. चूंकि ऐसे लोग हर इस तरह की शाखा में नहीं होते थे तो शाखाप्रबंधक भी उन्हें अपने युवराज सदृश्य स्नेह और व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया करते थे और प्यार से अभिभावक की तरह डांटने का भी अधिकार पा चुके थे. रविवार का लंच बिना स्टाफ की संगत के हो नहीं सकता तो रविवार के विशेष पक्के भोजन (पूड़ी, पुलाव और छोले) के साथ खीर की मृदुलता युवराज याने अभय कुमार की आंखों को तरल कर देती थीं और इस परिवार का साथ और संरक्षण और साप्ताहिक फीस्ट पाकर न केवल वे तृप्त थे बल्कि “होम सिकनेस” नामक सिंड्रोम से भी दूर हो जाते थे.
नोट : ये हमारी बैंक की दुनियां थी जहाँ रिश्तों के हिसाब किताब का कोई लेजर नहीं होता. हम बैंक में जिनके साथ होते हैं, वही हमारी दुनियां में रंग भरते हैं और रंग कैसे हों ये हम पर ही निर्भर करता. कुछ खोकर भी बहुत कुछ पा लेने वाले ही बैंकिंग के जादूगर कहलाते हैं और अगर आप चाहें तो बाजीगर भी कह सकते हैं. अगर आप चाहेंगे तो यह श्रंखला आगे भी जारी रह सकती है. खामोशी और निष्क्रियता में ज्यादा फासले नहीं होते.
☆ भारताच्या आयटी उद्योगाचा ध्रुवतारा “नारायण मूर्ती” – लेखक – अतुल कहाते ☆ परिचय – सुश्री प्रिया कोल्हापुरे ☆
पुस्तकाचे नाव – भारताच्या आयटी उद्योगाचा ध्रुवतारा “नारायण मूर्ती”
लेखक – अतुल कहाते
प्रकाशक – मनोविकास प्रकाशन
पृष्ठ संख्या – ५०
पहिल्या भागात पॅरिस शहरातील आपले काम संपवून मैसूरला परतण्याआधी साम्यवादी देशांचा फेरफटका मारण्याच्या हेतूने ‘निस’ गावात पोहोचलेल्या तरुणास हादरवून सोडणारा अनुभव सांगितला आहे. रेल्वेच्या डब्यात स्थानिक तरुणीने सहज तिथल सरकारी वातावरण किती कडक आहे यावर काही संभाषण केलं. त्यावरून त्या दोघांनी बल्गेरियाच्या कम्युनिस्ट पक्षाच्या सरकार विषयी टीकात्मक चर्चा केली या आरोपावरून त्या युवकाला व तरुणीला पोलिसांनी अटक केली. 72 तास अन्न पाण्याविना त्या युवकाचे झालेले हाल, तिथून त्याची झालेली सुटका, व त्याची विचारसरणीच पालटवून टाकणारा हा अनुभव यात वर्णन केला आहे.
हा युवक म्हणजे इन्फोसिस कंपनीचे सर्वेसर्वा नागवार रामाराव नारायण मूर्ती.
मूर्ती यांचा जन्म म्हैसूर मधल्या ब्राह्मण कुटुंबातला. वडील शिक्षक,आई पाचवी शिक्षण झालेली,ही पाच मुली आणि तीन मुलं अशी भावंड,समाधानी कुटुंब. मुलांनी शिकावं अशी इच्छा असणारे आई-वडील. वडिलांना पुस्तक वाचन व शास्त्रीय संगीताची आवड तीच आवड मूर्तीनाही जडली.कमी पगार असल्यामुळे काटकसरीने, जबाबदारीने, विना तक्रार जगण्याचे कौशल्य आईकडून त्यांनी लहानपणी अंगीकृत केले. मूर्ती शाळेत हुशार होते.विज्ञान, गणित त्यांचे आवडते विषय.
घरच्या परिस्थितीची जाणीव असल्यामुळे त्यांनी महाविद्यालयाची निवड करताना केलेली तडजोड, महाविद्यालयात त्यांना मिळालेले यश, शिक्षणाबाबतची त्यांची वाटचाल इथे सांगितले आहे. वडिलांनी मूर्तींच्या शिक्षणासाठी लागणारा खर्च करण्यास आपण सक्षम नसल्याचे सांगूनही त्यांच्या वरती राग न धरता स्वतःच्या जिद्दीने शिक्षण पूर्ण करण्याची त्यांची वाटचाल प्रेरणादायी आहे.
उच्च पदवीचे शिक्षण घेऊनही नोकरी न करता कृष्णय्या या प्राध्यापकांच्या मार्गदर्शनानुसार संगणक शास्त्राचा अभ्यास करण्याचे मूर्तीनी ठरवले. त्याबद्दलचे शोध निबंध वाचन त्यांनी सुरू केले संगणक शास्त्राचे ज्ञान संपादन करण्यासाठी केलेली वाटचाल इथे सांगितली आहे. त्यांची कम्युनिस्ट विचारसरणी विषयीची आपुलकी ही इथं नमूद केली आहे.मूर्तींचे संगणक शास्त्राचे ज्ञान बघून’सेसा’ या फ्रेंच कंपनीने त्यांना सॉफ्टवेअर लिहिण्यासाठी पॅरिसला बोलवले.
पॅरिसमधील त्यांचे अनुभव, उद्योजकांबद्दल त्यांचा बदललेला दृष्टिकोण येथे सांगण्यात आला आहे. डाव्या विचारसरणीचे वारे डोक्यात असल्यामुळे मिळालेले पैसे गरजे पुरते ठेवून बाकीचे ते दान करत. तिथलं काम पूर्ण करून ते भारतात परतले. इथलं वातावरण त्यावेळी खूप तणावपूर्ण होतं. इथं आल्यावर मूर्तींनी एम.आर.आय नावाची कंपनी सुरू केली ज्यात त्यांना अपयश आलं.
या भागात सुधा मूर्ती यांची कौटुंबिक-शैक्षणिक माहिती, शैक्षणिक प्रवास, त्यांची जिद्द याची सविस्तर माहिती दिली आहे. मूर्तींची सुधा यांच्याशी झालेली भेट त्यातून त्यांचा प्रेममय प्रवास, सुधा यांच्या वडिलांचा विरोध, त्यांचा विवाह या भागात सविस्तर सांगितला आहे.
पुढील भागात नरेंद्र पटणी यांनी स्वतःच्या कर्तुत्वावर संगणकाच्या टेप्स आणि डिस्कमध्ये डेटा एन्ट्री करण्याचा उद्योग सुरू केला. त्याचे सविस्तर वर्णन येथे आहे. तिथेच मूर्ती कामाला लागले. तिथला त्यांचा प्रवास, सहकाऱ्यांची माहिती, त्यांच्या कामाचा आढावा इथे सांगितला आहे. इन्फोसिसच्या निर्मितीची पाळमुळं ही इथेच रोवली गेली. सुधा यांचा त्यासाठीचा दृष्टिकोन आणि सहकार्य देखील आपल्याला समजते.
पुढे इन्फोसिसच्या जन्माची माहिती, ती निर्माण करण्यामागचा हेतू, त्यासाठी केलेली धडपड, अनेक तडजोडी, कंपनीतले कामाचे आराखडे, सहकाऱ्यांची आणि मूर्तींची विचारसरणी, पटणी यांची नाराजी, इन्फोसिसच्या यशाचा प्रवास इथे वाचायला मिळतो.
कंपनीला भांडवल मिळवण्यासाठी बँकेकडून कर्ज न घेता शेअर बाजारातून पैसे उभा करण्याचा निर्णय इथे सांगितला आहे. त्याची सविस्तर माहिती इथे वाचायला मिळते.
पुढील भागात भारतामध्ये संगणक क्षेत्रासाठी बदललेलं चित्र, भारतात आयटी क्षेत्रात झालेला बदल, शैक्षणिक- औद्योगिक प्रगती इथे वाचायला मिळते.कंपन्यांच्या नफ्या-तोट्याचा,कर्मचाऱ्यांची काही माहिती इथे वाचायला मिळते.
सुधा मूर्ती यांचं मूर्तींच्या आयुष्यातले योगदान इथे सांगितलं आहे. त्यांनी कुटुंबाची उचललेली जबाबदारी,केलेल्या तडजोडीत,वाद न होऊ देता काढलेला मार्ग खूपच विचार करायला लावतो. इन्फोसिस फाऊंडेशनची धुरा त्यांनी कशी सांभाळली हेही यात समजतं.
इन्फोसिस मधून निवृत्त होऊन मूर्तींनी घरच्या वडीलधाऱ्याने वागाव तसं त्यांचं इन्फोसिसशी नातं ठेवलं पण त्यानंतर इन्फोसिस मध्ये झालेले चढ-उतार, इन्फोसिस वर-मूर्तींवर झालेल्या टीका इथे वाचायला मिळतात.
नुकसानीकडे चालणाऱ्या इन्फोसिसला तारण्यासाठी मूर्तींनी पुनरागमन करायचं ठरवलं. त्यानंतर त्यांनी घेतलेले निर्णय,इन्फोसिस मधलं वातावरण,त्यांचं झालेलं कौतुक, काही टीका इथे सांगितल्या आहेत.
साधेपणातही सुंदर,समाधानी आयुष्य जगता येतं स्वतःच्या प्रगती सोबत इतरांचीही प्रगती व्हावी हा उदात्त हेतू असणाऱ्या या मूर्तींबद्दल वाचताना अभिमान वाटतो. हे एक प्रेरणादायी पुस्तक आहे.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आँखों ने ओढ़ी बेशर्मी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 05 – आँखों ने ओढ़ी बेशर्मी… ☆ आचार्य भगवत दुबे