हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 132 ☆ # संबंध… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# संबंध… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 132 ☆

☆ # संबंध… # ☆ 

जब जब भी मैंने

जोड़ना चाहा

वो जुड़ ना सके

जो मुझसे लड़ झगड़कर

दूर गये,

वो मुझसे मिलने

फिर मुड़ ना सके

 

फासला बढ़ता गया

हर पल

 हर मोड़ पर

मैंने कितना चाहा

उन्हें अपना बनाऊं

पर वे आ ना सके

अपना  हठ छोड़कर

 

समय ने तो खाई यां

बना डाली

हर कदम पर

जो भर ना सकी

मै उनपर सेतु बनाने

लड़ता रहा जीवनभर

कोई भी युति

काम कर ना सकी

 

वो कमियां अब

झिल बन गई है

समंदर में मिल गई है

मै टूटी हुई नाव से

कमजोर पतवार से

मंथर गति से चलकर

उन्हें सहेजना चाहता हूं

पर मेरी सारी शक्ति लील गई है

 

टूटने की पीड़ा

वो ही जानता है

जिसका सपना

देखते देखते टूटता है

अपनो से बिछड़ने का गम

वो ही जानता है

जिसका अपना उससे

सदा के लिए रूठता है

 

पानी के बुलबुले से

यह संबंध

कहां टिकते हैं

हम चाहे जितना

जतन करलें

यह दुनिया के बाजार में

स्वार्थ के हाथों में बिकते है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 133 ☆ अभंग – एक कृष्ण सखा ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 133 ? 

☆ अभंग – एक कृष्ण सखा ☆

श्रीकृष्ण भक्तीचे, महत्व ओळखा

स्वतःला पारखा, स्व-बुद्धीने.!!

 

स्वतःच्या मुक्तीचा, विचार करावा

सार ही जाणावा, जीवनाचा.!!

 

इथे नाही कुणी, वाली या जीवाचा

आणि कैवाराचा, योग्य-भावे.!!

 

एक कृष्ण सखा, तोचि देव खरा

जीवाचा सोयरा, नित्य-कृष्ण.!!

 

कवी राज म्हणे, देव हा स्मरावा

हृदयी धरावा, मनोभावे.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-9… ☆भावानुवाद- सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-9…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

की गोडीनेच आपुली गोडी

अनुभवावी घेऊनि तोंडी?

तैसी आपुली एकमेका आवडी

इंद्रियातीत परमात्मस्वरूप गोडी॥४१॥

 

आतुर मी घेण्या तुझी भेट

आत्मतत्त्वाचे परि साटंलोटं

केवळ उपाधी, देह देहाच्या भेटी

आत्मतत्वांच्या भेटी, हो सिद्धभेटी

भयभीत मी, न बिघडो सिद्धी

भेटीची, देहभेटीच्या उपाधी॥४२॥

 

तव भेटीचा मी विचार करिता

तुझे मन मायावी नेते द्वैता

मनास येवो अवस्था उन्मनी

तरीच होशील आत्मज्ञानी

दोन आत्म्यांची न होता भेट

तव दर्शन कैसे होई सुघट॥४३॥

 

तुझी कल्पना, वागणे, बोलणे;

चांगले असणे अथवा नसणे

न स्पर्शी ते स्वरूपा तटस्थ

कर्माकर्म केवळ इंद्रियस्थ॥४४॥

 

चांगया तुजसाठी करणे वा

न करणे, हा विकल्प नसावा

देहेंद्रियांनी व्यवहार करावा

तो आत्मस्वरूपी न घडावा

आत्मतत्वाचा मी उपदेश करावा

तो मीपण माझे जाई लयत्वा॥४५॥

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #194 ☆ व्यंग्य – साहित्यिक ‘ब्यौहार’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहित्यिक ‘ब्यौहार’’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 194 ☆

☆ व्यंग्य ☆  साहित्यिक ‘ब्यौहार’

शीतल बाबू परेशान हैं। चार दिन से उनके पुराने मित्र बनवारी बाबू उनका फोन नहीं उठा रहे हैं। वे बार-बार लगाते हैं, लेकिन उधर से कोई तत्काल काट देता है। पहले रोज़ दोनों मित्रों की बातचीत होती थी। अब बात के लाले पड़ रहे हैं। बनवारी बाबू इतने पास भी नहीं रहते कि दौड़ कर पहुँच जाया जाए। चार-पाँच किलोमीटर दूर रहते हैं।

लाचार शीतल बाबू ने पत्नी के मोबाइल से फोन लगाया। उधर से बनवारी बाबू की आवाज़ सुनायी पड़ी, ‘हैलो, कौन?’

शीतल बाबू बोले, ‘मैं शीतल। कहाँ हो भैया? फोन लगा लगा कर परेशान हैं।’

उधर से रूखा जवाब आया, ‘यहीं हैं। कहाँ जाएँगे?’

शीतल बाबू बोले, ‘क्या बात है? फोन क्यों बार-बार कट रहा है?’

जवाब मिला, ‘आप हमसे ब्यौहार ही नहीं रखना चाहते हैं तो बात करके क्या करेंगे?’

शीतल बाबू घबराकर बोले, ‘कैसा ब्यौहार? कौन से ब्यौहार की बात कर रहे हो?’

बनवारी बाबू बोले, ‘ऐसा ब्यौहार कि पिछले एक साल में हमने फेसबुक पर 1730 पोस्ट मय फोटो के डाली, लेकिन आपने सिर्फ 1460 में ही लाइक या कमेंट दिया। आपने साल भर में 246 पोस्ट डाली, उसमें से हमने 223 में लाइक या कमेंट दिया। हम तो आपका नाम देखते ही लाइक का बटन दबा देते हैं, पढ़ें चाहे न पढ़ें। अब आप ऐसा ब्यौहार रखेंगे तो कैसे चलेगा? शादी-ब्याह के ब्यौहार की तरह फेसबुक में भी ब्यौहार रखना पड़ता है, तभी संबंध चल सकते हैं।’

शीतल बाबू रिरिया कर बोले, ‘गलती हो गई भैया। कई बार पोस्ट दिखायी नहीं पड़ती।’

जवाब मिला, ‘देखोगे तो सब दिखायी पड़ेगा। जिन खोजा तिन पाइयाँ। खोजोगे तो सब मिल जाएगा।’

शीतल बाबू पश्चाताप के स्वर में बोले, ‘आगे खयाल रखूँगा, भैया। अब चूक नहीं होगी।’

बनवारी बाबू का स्वर मुलायम हो गया। बोले, ‘भैया, लगता है आप लाइक और कमेंट का महत्व और असर नहीं समझते। फेसबुक में लिखने वालों के लिए लाइक और अनुकूल कमेंट के डोज़ संजीवनी से कम नहीं होते। आलोचना और उपेक्षा के मारे हुए लेखक को ये अवसाद और हार्ट अटैक से बचाते हैं। ये वैसे ही काम करते हैं जैसे हार्ट अटैक से बचने के लिए सॉर्बिट्रेट और एस्पिरिन काम करते हैं। सुना है कि मेडिकल काउंसिल लाइक और कमेंट को मैटीरिया-मेडिका यानी औषधियों की सूची में शामिल करने की सोच रही है। ये फेसबुक-लेखक के लिए वेंटिलेटर से ज़्यादा ऑक्सीजन देने वाले हैं।’

बनवारी बाबू आगे बोले, ‘भैया, लाइक और कमेंट की अहमियत समझो। जिस भाग्यशाली लेखक को भरपूर लाइक्स और आल्हादकारी कमेंट्स मिलते हैं वह हमेशा प्रसन्न और उत्साहित बना रहता है। उसका स्वास्थ्य उत्तम  रहता है और अनिद्रा का रोग उसे कभी नहीं सताता। ब्लड प्रेशर और नाड़ी की गति दुरुस्त रहते हैं और पाचन क्रिया बढ़िया काम करती है। उसे दुनिया हमेशा खूबसूरत नज़र आती है। जीवन और जगत में आस्था बनी रहती है। उसके परिवार में हमेशा सुख-शान्ति रहती है। प्राणिमात्र के लिए उसके मन में प्रेम का भाव उमड़ता है।

‘इसके विपरीत लाइक और  अनुकूल कमेंट से वंचित लेखक बार-बार डिप्रेशन, अनिद्रा और निराशा का शिकार होता है। जीवन और जगत से उसकी आस्था उठ जाती है। परिवार में कलह होती है। मित्रों-रिश्तेदारों से संबंधों में उसकी रुचि जाती रहती है। ऐसा लेखक राह चलते लोगों से रार लेता है। उसे सारे समय व्यर्थता-बोध घेरे रहता है।

‘इसलिए भैया, लाइक और कमेंट देने में चूक को मित्र के साथ घात समझो। आजकल संबंधों को ठंडा करने में यही चीज़ सबसे बड़ा कारण बनती है। संबंधों को पुख्ता रखना है तो मुक्तहस्त से लाइक और कमेंट देने में कभी चूक मत करना, वर्ना पचीसों साल के बनाये संबंध  एक मिनट में ध्वस्त हो जाएँगे।’

शीतल बाबू यह प्रवचन सुनकर भीगे स्वर में बोले, ‘समझ गया, भैया। आगे सब काम छोड़कर पहले आप को लाइक और कमेंट दूँगा। पीछे जो हुआ उसे मेरी नासमझी मान कर भूल जाएँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 141 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 141 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 141) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 141 ?

☆☆☆☆☆

Trend of the World

☆☆☆

जमाने का चलन है ये अब तो

फक्त लफ्जों का क्या कहना

हवा रुख के साथ लोगों के

किरदार भी बदल जाया करते हैं…!

☆☆

This is the trend of the times,

what to say of the words

Even the people’s characters

change with the wind now…!

☆☆☆☆☆

 Strangers 

☆☆☆

आख़िर में हम फ़क़त

दो अजनबी ही थे…

जो एक दूसरे के बारे में

सब कुछ जानते थे…!

☆☆

In the end, we were just

two strangers only…

who knew everything

about each other…!

☆☆☆☆☆ 

Eternal Truth 

राख की कई परतों के

नीचे तक जा कर देखा…

वो गुरूर, रुतबा, रुबाब

कहीं भी नज़र नहीं आया …!

☆☆

Checked under the several

layers of the ashes but

Couldn’t find that vanity

panache or the grandeur…!

☆☆☆☆☆

बड़ी लंबी गुफ्तगू 

करनी  है…

तुम आना एक पूरी

ज़िंदगी लेकर..!

☆☆

Need  to  have

a  long  chat…

You come with

a  whole life..!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 192 – पाणी केरा बुदबुदा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 192 ☆ पाणी केरा बुदबुदा ?

क्षणभंगुरता मनुष्य के जीवन का अनन्य आयाम है। अनेकदा क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी आशंका समझा जाता है। तथापि,  विचार करोगे, विमर्श करोगे तो क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी संभावना पाओगे।

आशंका-संभावना को तौलने के लिए कभी कल्पना करना कि जैसे खाद्य पदार्थों पर या दवाई की पट्टी पर एक्सपायरी डेट लिखी होती है, उसी तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसकी मृत्यु की तारीख़ भी यदि तय हो जाए तो मनुष्य आनंद से जी पाएगा या भय और चिंता से मर जाएगा? इसलिए क्षणभंगुरता को जीवन का सबसे बड़ा वरदान मानना चाहिए।

एक परिचित वन्य अधिकारी थे। उन्होंने एक बार एक किस्सा सुनाया। अपने वरिष्ठ के साथ वे दौरे पर थे। वन्य आरक्षित क्षेत्र के आसपास  स्वाभाविक है कि गाँव भी बसे होते हैं। किसी गाँव से गुज़रते हुए उन्होंने देखा कि  पीपल के एक विशाल पेड़ के नीचे औघड़ बाबा बैठे हैं। गाँव के कुछ निवासी अपनी समस्याओं के निवारण के लिए उनके पास बैठे थे। वरिष्ठ अधिकारी ने औघड़ को उपेक्षा से देखा। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि पद के मद में वह अपने अस्तित्व की क्षणभंगुरता को भूल जाता है। जीप में बैठे-बैठे अपनी हथेली औघड़ की ओर करके कहा, ‘सचमुच कुछ जानता है तो मेरा भविष्य बता।’ औघड़ बाबा ने जो़रदार अट्टहास किया और कहा, ‘तेरा भविष्य क्या बताऊँ? तेरे पास तो केवल तीन दिन का ही समय बचा है।’ अधिकारी आग बबूला हो उठा। औघड़ को कुछ अपशब्द कहे, निर्देश दिया कि ऐसे धृष्ट को दोबारा उनके क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाए।

पीछे वन्य अधिकारी को तीसरे दिन किसी काम से वरिष्ठ अधिकारी के कार्यालय में जाना पड़ा। वरिष्ठ अधिकारी ने चाय मंगवाई। दोनों ने चाय का कप उठाया। वरिष्ठ अधिकारी का चाय का कप हाथ से लुढ़क गया। हृदयाघात से जगह पर ही उनका देहांत हो गया। वन्य अधिकारी को औघड़ बाबा याद आए। लौटकर घर पर पत्नी से सारी बात कही। पत्नी ने औघड़ बाबा के दर्शन करने चाहे। वन अधिकारी ने कहा, “दर्शन तो दूर, मैं उस ओर जाना भी नहीं चाहूँगा। जीवन में जो घटना है, वह पहले से पता चल जाए तो जीवन जिया कैसे जाएगा?” वन अधिकारी ने उस क्षेत्र से अपना तबादला करवा लिया।

औघड़ बाबा द्वारा भविष्य देख लेने पर  मतभिन्नता हो सकती है। तीसरे दिन मृत्यु होना संयोग भी हो सकता है। तथापि मत-मतांतर से परे यहाँ अधिक महत्वपूर्ण है घटनाक्रम से उपजा निष्कर्ष।

भविष्य ज्ञात हो जाए तो मनुष्य का वर्तमान जड़ हो जाएगा। विसर्जन है, अतः सृजन है। चूँकि यह विसर्जन किसी भी क्षण हो सकता है, अत: हर क्षण सृजन होना चाहिए।

अखंड सृजन और अविराम विसर्जन का मूल है क्षणभंगुरता। क्षणभंगुरता का अपना दर्शन है, क्षणभंगुरता है तो जीवन है। श्वास की अनिश्चितता, विश्वास को निश्चय प्रदान करती है। बाबा कबीर ने लिखा है,

पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति

मानव जाति पानी के बुलबुले के समान है। क्षण में बनना और अकस्मात मिटना बुलबुले की नियति है।

बुलबुले की क्षणभंगुरता स्मरण रहे तो जीवन की निरंतरता का विश्वास भी बना रहेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 140 ☆ गीत: कोई अपना यहाँ… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  गीत: कोई अपना यहाँ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 139 ☆ 

गीत: कोई अपना यहाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

मन विहग उड़ रहा,

खोजता फिर रहा.

काश! पाये कभी-

कोई अपना यहाँ??

*

साँस राधा हुई, आस मीरां हुई,

श्याम चाहा मगर, किसने पाया कहाँ?

चैन के पल चुके, नैन थककर झुके-

भोगता दिल रहा

सिर्फ तपना यहाँ…

*

जब उजाला मिला, साथ परछाईं थी.

जब अँधेरा घिरा, सँग तनहाई थी.

जो थे अपने जलाया, भुलाया तुरत-

बच न पाया कभी

कोई सपना यहाँ…

*

जिंदगी का सफर, ख़त्म-आरंभ हो.

दैव! करना दया, शेष ना दंभ हो.

बिंदु आगे बढ़े, सिंधु में जा मिले-

कैद कर ना सके,

कोई नपना यहाँ…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२-५-२०१२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #191 – 77 – “दूर बहुत मत जाना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दूर बहुत मत जाना…”)

? ग़ज़ल # 76 – “दूर बहुत मत जाना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मरघट जैसी आग लगी गलियों ओ चौबारों में,

बारूदो अस्लाह मिल रहे मस्जिद गुरुद्वारों में।

जाकर बैठें किस दर थोड़ी सांस भर मिलती जाये,

नफरत के  छींटे  ना आएँ घृणा की बौछारों में।

फ़ेसबुक पर सब लेते दिखते हैं माँ सेवा का व्रत,

जीवित माँ झाँके वृद्ध आश्रम के बंद किवारों में। 

हाथ पर रखा सब कुछ मिल जाए हरेक की चाह यही,

ये ही  आशा ले  जाती  चोरों  के  बाज़ारों में।

आओ दूर तलक साथ दिखलाएँ खेल ज़माने का,

हर  कोई  दौड़  रहा जैसे  जाना  हो तारों में।

गोकुल कृष्ण का यही है और यही कंस की मथुरा,

क़ाबिज़ भूमाफिया जमुना के हर कोर कछारों में।

आतिश तुम जाते हो जाओ दूर बहुत मत जाना,

इंतज़ार  बढ़ता  जाता  आते  तीज त्योहारों में।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 69 ☆ ।। लोक परलोक इसी धरती इसी जन्म में सुधरता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। लोक परलोक इसी धरती इसी जन्म में सुधरता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

सौ बरस सामान क्यों रखा  बेहिसाब है।

सब कुछ छोड़कर जाना यही  साहब है।।

धरती पर रहके स्वर्ग सी जियो जिंदगी तुम।

मत सोचते रहो स्वयं स्वर्ग जाने का ख्वाब है।।

[2]

मानव बनकर जीना प्रभु इच्छा जनाब है।

बसअच्छे कर्म करो यही इसका जवाब है।।

नित प्रतिदिन करोंअपना स्व मूल्यांकन भी।

तजते रहो हर  आदत जो लगती खराब है।।

[3]

उम्र तकाजा शरीर भी एक दिन गल जाता है।

यह पद रुतबा सब कुछ जैसे ढल जाता है।।

रिश्तेनाते सब छूट जाते इस दुनिया लोक में।

बनकर राख अपना शरीर भी  जल जाता है।।

[4]

मधुरभाषा सुंदर सभ्य  जीवन जीना चाहिए।

उत्तम भाव,लगन, दिव्य जीवन जीना चाहिए।।

आंख की नमी दिल की संवेदना मत मरने देना।

इन सद्गुणों साथ भव्य जीवन जीना चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 133 ☆ बाल गीतिका से – “हिल मिल रहें…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “हिल मिल रहें…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #133 ☆ बाल गीतिका से – “हिल मिल रहें…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हम छोटे बच्चे, भगवान ।

हमें दीजिये यह वरदान ॥

 

रखकर भारत माँ का ध्यान । 

करे सदा कुछ जन-कल्याण॥ 

 

करे देश ऐसा उत्थान ।

बढ़े जगत् में इसका मान ॥

 

हो सबका बहुमुखी विकास । 

कोई कभी न दिखे उदास ॥

 

कठिन रास्ते हो आसान ।

हिलमिल रहें सभी इन्सान

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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