मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ कण कण वेचिताना… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

 

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ कण कण वेचिताना… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

… असं म्हणतात की जो इथं जन्माला आला त्याच्या अन्नाची सोय झालेली असतेच. अर्थात चोच आहे तिथे चाराही असतो.. फक्त ज्याला त्याला तो शोधावा लागतो.. त्यासाठी त्याला जन्मताच मिळालेले हातपाय योग्य वेळ येताच हलवावे लागतात.. असेल माझा हरी देई खाटल्यावरी असे भाग्यवंत खूप विरळे असतात.. अदरवाईज जिथे जिथे दाणा पाणी असेल तिथवर यातायात हि करावीच लागते.. बरं पोटाची व्याप्ती पण एकच एक दिवसाची असते.. होय नाही तर ते एकदा ओतप्रोत.. नव्हे नव्हे तट्ट ( फुटेपर्यंत) भरले एकदा आता पुढे चिंता मिटली असं का होतं. तुमचा आमचा अनुभव असा तर अजिबात नाही ना हे सर्व मान्य अक्षय सत्य आहे. दुसरं त्यात पहाना आपलं एकटयाचंच उदरभरणाची गोष्ट असती तर एकवेळ थोडा पोटाला चिमटा घेऊन रोजची हि दगदग न करता एक दोन दिवसाच्या फरकाने चाऱ्याचा शोधात हिंडता आले असते. पण तसं नशिबात नसतं. आपल्या बरोबर आपलीच रक्तामासाची, आपुलकीच्या वीणेने बांधलेली नाती यांची जबाबदारी …घरटयातला कर्त्याला कर्तव्य चुकत नसतं.. अन मग रोज मिळालेला चारा सर्वांना पुरणारा नसेल तर स्वताच्या पोटाला चिमटा घ्यावा लागतो तो खऱ्या अर्थाने. तैल बुद्धीच्या माणसांसारखा हा अन्नाचा साठा करून ठेवण्याची क्षमता आमच्या पक्ष्यांच्या घरटयात नाही.. त्यामुळे फार काळ साठवलेले अन्नधान्य नाहक नाशवंत होण्याचा धोकाही होत नाही…उन्हाळ्या असो वा पावसाळा, वा हिवाळयाचा कडाका , दाण्याच्या शोधात गावात करावा लागतोच फेरफटका… हि आम्हाला पक्ष्यांना नैसर्गिक शिकवण दिलीयं.. गरजेपुरते आजचे घ्या आणि इतर भुकेलेल्यांना शिल्लक ठेवा निस्वार्थ बुद्धीने.. त्यामुळे कधीही कमतरता पडलीच नाही, भुकबळी झालाच नाही, ना चाऱ्यासाठी आपापसांत भांडण तंटे, चोऱ्यामाऱ्या झाल्या नाहीत.. जे आम्हाला माणसांच्या जगात नेहमी दिसत आलयं.. जे मिळालयं त्यात तृप्तता आमच्या अंगाखांद्यावर दिसून येते..निसर्गत: सामाजिक बांधिलकीची समज असते ती आपल्या सर्वप्राणीमात्रात फक्त आम्हाला उमजलीय .. नि तुम्हा मानवांना स्वार्थाचा तण जो असतो तो मात्र उमजून घेण्याची तसदी घेत नाही… ती लवकरच उमजून यावी हि त्या जगनियंत्याला प्रार्थना..

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 150 ☆ क्यों दाता बनें विधाता…? ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “क्यों दाता बनें विधाता…?। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 150 ☆

☆  क्यों दाता बनें विधाता…?

प्रचार- प्रसार के माध्यमों से लोक लुभावन सपने दिखाना तो एक हद तक सही हो सकता है, किंतु मुफ्त में सारी सुविधाओं को देने से कामचोरी की आदत पड़ जाती है। जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, अशक्त हैं उन्हें मजबूत करने के प्रयास हों। पर जाति, धर्म, अल्पसंख्यक के नाम पर समाज को विभाजित करके सुविधाओं का आरक्षण देना समाज को जड़ से कमजोर करने की दिशा में उठाया गया कदम साबित हो रहा है।

जब राष्ट्रवाद की परिकल्पना साकार होती है तो व्यक्ति हर प्रश्नों से ऊपर उठकर अपना कर्तव्य निभाने की ओर चल देता है। हर वर्ग ने जाति, धर्म, अमीरी- गरीबी से ऊपर उठ केवल देश हित को सर्वोपरि माना है। कहा भी गया है – जननी जन्मभूमिश्चय स्वर्गादपि  गरियसी  अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है।

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।

हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ सबका मार्गदर्शन करती हैं। क्या अच्छा नहीं होगा कि सत्ता को पाने के लिए दाता बना भाग्य विधाता की सोच से ऊपर उठकर हम कार्य करें। जनमानस को सचेत होकर अपने दायित्वों का निर्वाहन करना होगा तभी बिड़गी चाल पर नियंत्रण रखा जा सकेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 214 ☆ आलेख – निद्रा योग… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख  –निद्रा योग

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 214 ☆  

? आलेख निद्रा योग?

अनिद्रा एक ऐसी परेशानी है जो  शरीर के अनेक रोगों का कारण होती है । जब कोई व्यक्ति अनिद्रा से पीड़ित हो तो उसे यह समझना चाहिए कि उसके शरीर में कोई समस्या है, जो बाद में किसी अन्य रूप में विकसित हो जाएगी। अनिद्रा के कारण पाचन तन्त्र प्रभावित हो जाता है ।  जो लोग ठीक से  सो नहीं पाते , उनमें से अधिकतर लोगों का यकृत खराब हो जाता है। समय के साथ अनिद्रा के चलते शरीर की सामान्य क्रियायें अव्यवस्थित हो जाती हैं। जब स्नायु तन्त्र में समस्या उत्पन्न होती है तो हम दैनिक कार्य भी कर पाने में असमर्थ हो जाते हो, जल्दी थक जाते हैं।

 धुनिक चिकित्सा में जब कोई अनिद्रा से पीड़ित होता है तो उसे प्रायः नींद की गोलियाँ दी जाती हैं। नींद की गोलियाँ आराम तो देती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं, परन्तु वे रोग के कारण को दूर नहीं कर पाती हैं। कई बार शरीर के हॉर्मोनों का ठीक से कार्य न करना अनिद्रा का कारण होता है। उदाहरण के लिए यदि एड्रीनल ग्रन्थि ठीक से कार्य न करें, तो विषाद रोग हो जाता है। कई बार जब हम जीवन के किसी पहलू को लेकर चिन्तित रहते हैं तब  अनिद्रा के शिकार हो जाते हैं,  अतः यह आवश्यक है कि लोग जानें कि स्वाभाविक रूप से अच्छी तरह कैसे सोया जाए। इस सम्बन्ध में योग की  भूमिका    महत्त्वपूर्ण है। नींद की समस्या के बढ़ते, विदेशों में स्लीप क्लीनिक तक खुल रहे हैं।

 योग के ऐसे अनेक अभ्यास हैं जिनसे अच्छी नींद आती है। मस्तिष्क में विद्युत की आवृत्तियाँ होती हैं जिन्हें मस्तिष्क तरंग कहते हैं। अलग-अलग समय पर ये तरंगें बदलती रहती हैं। ये तरंगें डेल्टा, थीटा, अल्फा और बीटा कहलाती हैं। मस्तिष्क की उच्च आवृत्ति को नीचे लाना आवश्यक है, विशेषकर रात्रि में जब मस्तिष्क में आवृत्तियाँ न्यूनतम हो जाती हैं, तो शरीर में क्रियाशीलता भी न्यूनतम हो जाती है और ऑक्सीजन की खपत भी न्यूनतम हो जाती है जब हम ठीक से सोते हैं तो  अगले दिन  अधिक शक्ति से सक्रिय हो पाते हैं।

 योग में निद्रा को बहुत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है क्योंकि योग दर्शन के अनुसार निद्रा एक निष्क्रिय अवस्था नहीं है गहन निद्रा के समय व्यक्ति अचेतन तल पर बहुत सक्रिय हो जाता है और वह अपनी अन्तरात्मा के बहुत निकट आ जाता है। यही कारण है कि निद्रा  इतनी शक्ति इतनी ताजगी और इतना आनन्द देती है।  इसी कारण से योग ने कुछ अनुशासन बनाए हैं।

 योग में अनिद्रा से सम्बन्धित प्रथम अनुशासन यह है कि ज्यादा भरे हुए पेट के साथ नहीं सोना चाहिए।  यदि रात्रि में पेट में बिना पचा हुआ भोजन रहता है तो अति अम्लता से पेट में जलन होती है। 

पेट में एसिडिटी गैस के चलते रात्रि में बेतुके, विचित्र स्वप्न आते हैं जिससे निद्रा में व्यवधान उत्पन्न होता है अतः योग में यह सलाह दी गई है कि रात्रि के भोजन और सोने में कम-से-कम तीन घण्टों का फासला होना चाहिए। यह शाकाहारी लोगों के लिए है। मांसाहारी लोगों के लिए तीन घंटे से ज्यादा समय होना चाहिए ।

 दूसरा अनुशासन यह है की बाएँ करवट सोना चाहिए। कुछ लोग पीठ के बल सोना पसन्द करते हैं, अन्य लोग अपनी दायीं तरफ घूम कर सोना पसन्द करते हैं और अनेक लोग पेट के बल सोते हैं। ये तीनों स्थितियाँ वैज्ञानिक नहीं समझी जातीं। हाँ, जो लोग स्लिप डिस्क या सायटिका से पीड़ित हैं उन्हें पेट के बल सोना चाहिए, लेकिन एक आम व्यक्ति को बायीं तरफ सोना चाहिए, क्योंकि इससे हृदय पर बहुत कम दबाव पड़ता है।

 तीसरा यौगिक नियम है, बिस्तर पर जाने के पूर्व  दस से बीस मिनट के लिए शांत बैठ जाना चाहिए। यह केवल अनिद्रा से पीड़ित लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि हम सभी के लिए है, क्योंकि जब हम बिस्तर पर जाते हैं तो अवचेतन मन सक्रिय हो जाता है।

 निद्रा एक मानसिक अवस्था है और मन की एकाग्रता मन्त्र के रूप में होनी चाहिए। ‘ॐ ॐ ॐ का मानसिक उच्चारण करना चाहिए, क्योंकि ॐ एक सार्वभौमिक ब्रह्माण्डीय ध्वनि है । सोने के पहले मंत्र जप शान्ति और एकाग्रता उत्पन्न करती है। सत्ताईस दानों की एक छोटी माला रखना भी अच्छा है जिसमें कहीं कोई रुकावट न हो ज्यादातर मालाओं के बीच में एक विराम होता है, जिसे सुमेरु या शीर्ष कहते हैं, परन्तु रात में बिस्तर पर जाने के पहले  जिन मालाओं का उपयोग करते हैं उनमें यह व्यवधान नहीं होना चाहिए।

 चौथा महत्त्वपूर्ण अनुशासन है योगनिद्रा का अभ्यास योगनिद्रा एक बहुत शक्तिशाली विधि है।

  शरीर के अनेक अंग हैं, जैसे हाथों के अंगूठे और अंगुलियाँ, होंठ और नाक, नितम्ब और कमर, पैरों के अंगूठे और अंगुलियाँ। इस प्रकार तुम्हारे बाह्य शरीर में छिहत्तर केन्द्र हैं जिनके प्रतिरूप मस्तिष्क के एक विशेष भाग में स्थित होते हैं। जब हम एक-के-बाद-एक शरीर के इन अंगों पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो विशेष प्रकार की सम्वेदना उत्पन्न होती है। यह सम्वेदना एक भावना के रूप में मस्तिष्क के केन्द्रों में संचारित होती है। जैसे ही इस सम्वेदना का संचार मस्तिष्क में होता है, अविलम्ब विश्राम का अनुभव होता है।  यह योगनिद्रा का अभ्यास है।

 योगनिद्रा प्रारम्भ करने से पूर्व एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभ्यास है,रात को बिस्तर पर जाने से पूर्व एक प्रकाश पुंज  इस प्रकार रखें कि उसकी वह आँखों के स्तर से बहुत ऊँचा न हो और स्थिर रहे।  जितनी देर सम्भव हो उतनी देर उसे अपलक निहारते रहे, फिर  आँखें बन्द करने के बाद अपने मन को  माथे के मध्य पर एकाग्र करो और वहाँ प्रकाश के प्रतिरूप को देखने का प्रयास करो कुछ देर इसे करो और उसके बाद ओम मन्त्र का जप करो। फिर पीठ के बल लेट जाओ और थोड़ा योगनिद्रा का अभ्यास करो, तय है की गहरी नींद आ आएगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 161 ☆ बाल गीत – लंबी गर्दन लंबे पैर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 161 ☆

☆ बाल गीत – लंबी गर्दन लंबे पैर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

लंबी गर्दन लंबे पैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

थल पशुओं में सबसे लंबा

धरती का है बड़ा अचम्भा

अट्ठारह फुट ऊँचा होता

शाकाहारी जैसे तोता।।

 

जो भी इस पर हमला करता

मार दुलत्ती लेता खैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

अफ्रीका का जंतु अनोखा

नहीं आक्रमण का दे मौका

घास – पात है इसका चारा

चितकबरा है अद्भुत प्यारा।।

 

सदा शांत रहने वाला यह

नहीं किसी से रखता बैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

जू की सैर कर रहे सोनू

साथ में उनके भैया मोनू

थी जिराफ की उसमें प्रतिमा

हमें बिठाओ इस पर अम्मा।।

 

बैठे दोनों उड़े गगन में

खूब मजे में कर ली सैर।।

सदा वनों में करता सैर।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #139 – बाल साहित्य – “आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – आत्मकथा – हवाई जहाज का जन्म)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 139 ☆

 ☆ बाल साहित्य – “आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मेरा जन्म 1900 की शुरुआत में ओहियो के डेटन में एक छोटे से वर्कशॉप में हुआ था। मेरे निर्माता ऑरविल और विल्बर राइट नाम के दो भाई थे। वे पक्षी की उड़ान से प्रेरित थे। वे कई वर्षों से मेरे डिजाइन पर काम कर रहे थे।

मैं एक बहुत ही साधारण मशीन था। मेरे पास दो पंख थे, एक प्रोपेलर और एक छोटा इंजन। लेकिन मैं भी बहुत नवीन था। मैं पहला हवाई जहाज था जो कुछ सेकंड से अधिक समय तक उड़ान भरने में सक्षम था।

17 दिसंबर, 1903 को मैंने अपनी पहली उड़ान भरी। मैं ऑरविल के नियंत्रण में था। विल्बर मेरे साथ दौड़ रहा था। वह एक रस्सी पकड़े था। मैंने 12 सेकंड के लिए उड़ान भरी। 120 फीट की यात्रा की। यह एक छोटी उड़ान थी, लेकिन यह एक ऐतिहासिक थी।

मेरी उड़ान ने साबित कर दिया कि इंसान उड़ सकता है। इसने अन्य अन्वेषकों को नए और बेहतर हवाई जहाज बनाने के लिए प्रेरित किया। और इसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।

मैं अब 100 से अधिक वर्षों से उड़ रहा हूं। मैंने उस समय में काफी बदलाव देखे हैं। हवाई जहाज बड़े और तेज हो गए हैं। वे ऊंची और दूर तक उड़ सकते हैं। वे अधिक लोगों को ले जा सकते हैं।

लेकिन एक चीज नहीं बदली है: मैं अभी भी दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक मशीन हूं। मैं लोगों को नई जगहों और नए अनुभवों के साथ ले जा सकता हूं। मैं लोगों को एक-दूसरे से और उनके आसपास की दुनिया से जुड़ने में मदद कर सकता हूं। मैं दुनिया को एक छोटी जगह बना दिया है।

मुझे मेरे हवाई जहाज होने पर गर्व है। लोगों को यात्रा करने और अन्वेषण करने में मदद करने पर मुझे प्रसन्न्ता होती है। मुझे मेरी प्यारी दुनिया के भ्रमण करने पर गर्व है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

24-05-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #162 ☆ संत कनक दास… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 162 ☆ संत कनक दास☆ श्री सुजित कदम ☆

कर्नाटक राज्यामध्ये

धनगर कुटुंबात

जन्म कनकदासांचा

संतकवी साहित्यात….! १

 

नवे घर बांधताना

सापडले गुप्त धन

सोने चांदी जवाहिर

हिरे रत्न मण मण…! २

 

हंडा सुवर्ण धनाचा

जनलोकी केला दान

झाला कनक नायक

समाजाचे कृपादान…! ३

 

झाला ईश्वरी आदेश

माझा दास व्हावे आता

मान्य केले थिमाप्पाने

झाला दास केशवाचा…! ४

 

परमेश नाही असे

जगामध्ये नाही स्थान

कनकाच्या उत्तराने

गुरू कृपा वरदान…! ५

 

बांधियले देवालय

कृपादृष्टी ईश्वराची

केशवाच्या मंदिरात

पुजार्चना नायकाची…! ६

 

व्यासराया केलें गुरू

तलावांचे खोदकाम

यमराज अवतार

रेडा  रेडा जपनाम…! ७

 

दूर केला अडसर

हलविले पाषाणास

व्यास समुद्र तलाव

रेडा आला सहाय्यास….! ८

 

सामाजिक एकात्मता

हरिभक्ती कथासार

दंड नायक थिमाप्पा

दास कनक साकार…! ९

 

मोक्षप्राप्ती मिळविण्या

करा त्याग स्वार्थ सोडा

अहंकार मीपणाचा

नाते ईश्वराशी जोडा..! १०

 

गीत रचना धार्मिक

सामाजिक एकात्मता

विष्णु भक्ती कृष्ण स्तुती

हरिभक्ती तादात्म्यता…! ११

 

देई ईश्वर दर्शन

काल भैरव रूपात

ओळखले नाही कुणी

नाही दर्शन कुणास….! १२

 

नाना लिला चमत्कार

व्यंकटेश आशीर्वाद

दिला पितांबर शेला

तिरूपती सुसंवाद…! १३

 

देण्या‌ दर्शंन भक्तांस

कृष्ण मुर्ती फिरे पाठी

झालीं पश्चिमा भिमुख

क‌ष्णमुर्ती दासासाठी…! १४

 

कनकाच्य खिडकीची

आहे प्रासादिक स्मृती

कींडी कनक भिंतीत

प्रासंगिक आहे श्रृती….! १५

 

छंदोबद्ध रचनांचा

ग्रंथ हरिभक्त सार

दास दासांचा कनक

अनुभवी ग्रंथकार…! १६

 

नल चरीत्र लेखक

रमे कथा कीर्तनात

कण कण मंदिराची

आठवण अंतरात…! १७

 

पद नृसिंह स्तवन

रामधान्य चरीत्रात

अध्यात्मिक उंची होती

कनकांच्या साहित्यात….! १८

 

कार्य कनक दासांचे

जन कल्याणाचा वसा

दासकूटा संप्रदाय

वैचारिक शब्द पसा…! १९

 

घाव टाकीचे सोसले

अंगी आले देवपण

संत कनक दासांचे 

दिर्घायुषी सेवार्पण..! २०

 ©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #183 – कविता – चलो हम पेड़ बन जाएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  “चलो हम पेड़ बन जाएँ…”)

☆  तन्मय साहित्य  #183 ☆

☆ चलो हम पेड़ बन जाएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

 किसी के काम आ जाएँ

 चलो हम पेड़ बन जाएँ

 हवाओं को करें निर्मल,

 पथिक को छाँव मिल जाए।

 

हमारे फूल-फल-पत्ते

मिले बिन मूल्य ही सबको

न बंदिश है यहाँ कोई,

जिसे जो चाहिए पाएँ।

 

करो पहचान तो हमसे

अंग प्रत्यंग में औषध

हकीम आयुष वैद्यों में,

हमारी नित्य चर्चाएँ।

 

करो तुम प्यार या दुत्कार

या पत्थर हमें मारो

रखें ना भेद समता भाव से

सबको ही अपनाएँ।

 

मेल हर एक मौसम से

सभी से मित्रता गहरी

सहज पर्यावरण के दूत,

सम्मुख है विषमताएँ।

 

ये धरती जीव जल जंगल

उगी है खेत में फसलें

सुरक्षा गर हमें दोगे,

न होगी अशुभ विपदाएँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 08 ☆ लिखो स्वागतम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लिखो स्वागतम।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 08 ☆ लिखो स्वागतम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

खोल खिड़कियाँ

दरवाज़ों पर लिखो स्वागतम

ख़ुशियों से भर दो आँगन को।

 

अभी बादलों का फेरा है

अंधकार ने भी घेरा है

घोर निशा में पथ न सूझे

अंतस में दुख का डेरा है

 

तोड़ संधियाँ

दुविधाओं को जीतो हरदम

इतना छोटा करो न मन को।

 

ऊबड़-खाबड़ वाले बंजर

उगते हैं आक्रोश निरंतर

पर बैठे हैं बीज भरोसे

देख रहे सपनीला मंजर

 

ओढ़ बिजलियाँ

संकल्पों की,जीतो हर तम

भरो उजालों से जीवन को।

 

बरस दर बरस आते रहते

दिन चरखे पर गाते रहते

समय किसी की बाट न जोहे

मौसम आते-जाते रहते।

 

बनें सुर्ख़ियाँ

ऐसा कुछ तो कर जाओ तुम

तिलक लगा माटी चंदन को।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 67 – किस्साये तालघाट… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 67 – किस्साये तालघाट – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा तालघाट के लेखापाल महोदय अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी थे. उनका परिवार जिला मुख्यालय जो उनका गृहनगर भी था, में निवास कर रहा था और ऐसा माना जाता था कि सप्ताहांत में वे भी पारिवारिक सुख का आनंद लेते थे. पर सोमवार से शनिवार तक उनका तालघाट में एफ. बी. (फेसबुक नहीं) याने फोर्स्ड बैचलर का रूप होता था. ऐसी स्थिति में कामचलाऊ पाककला उन्हें आती थी तो सोमवार के डिनर से लेकर शनिवार के लंच तक की व्यवस्था के मामले में वे आत्मनिर्भर थे. तालघाट शाखा के शाखाप्रबंधक की भार्या अन्नपूर्णा स्वरूपा थीं और उनके सुझाव और सहमति पर ही लेखापाल जी का हर सोमवार का लंच शाखाप्रबंधक निवास में हुआ करता था.

परदेश में जब भी परिवार के बिना रहने की नौबत आती है तो सभी घर का खाना मिस करते हैं. दाल चांवल सब्जी और तवा रोटी की महत्ता ऐसे समय ही महसूस होती है. ये कांबिनेशन सरल, सुपच और स्वादिष्ट होता है जो कभी बोर नहीं करता. यह सादगी पर अपनेपन से भरी डिश, सप्ताहांत के बाद अगले छै दिनों के लिए रिचार्ज कर देता है. तो इस सोमवारीय गर्मागर्म और सामान्य पर स्वादिष्ट लंच मिल जाने का श्रेय लेखापाल जी भगवती कृपा, स्वयं का भाग्यवान होना और शाखाप्रबंधक जी का उनके प्रति संवेदनशील होने को देते थे. इस कारण ही वे उनका सपत्नीक सम्मान भी किया करते थे पर इसका यह मतलब कतई नहीं था कि वे उन्हें कार्यभार और उत्तरदायित्व में अतिरिक्त सहयोग करें. कम ही बोलते थे, अपनी कलम का हमेशा कंजूसी से ही प्रयोग करते थे, शाखा की राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं होता था. चाय पीने की आदत नहीं थी पर कॉफी के पाऊच उनकी ड्रायर में पर्याप्त होते थे. शाखा परिसर में चायवाले से मीठा दूध दिन में दो बार बुलाकर  उससे स्वयं ही कॉफी बनाकर तरोताजा होने की सफल कोशिश वे नियमित रूप से किया करते थे. शाम को तालघाट के अपने अस्थायी आवास में पहूँच कर उनकी भोजन पकाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती थी और साथ ही ऑन हो जाता था उनका छोटा पर जबरदस्त पोर्टेबल टीवी जो केबल के दम पर मनोरंजन सेवा का सतत प्रसारण करता रहता था. रात्रिभोजन के समय भी और बाद में भी टीवी चलता रहता और उनके निद्रामग्न होने पर भी चलता रहता क्योंकि सोने के पहले टीवी या लाइट्स बंद करने की उनकी आदत नहीं थी. उनके सुबह नींद से उठने पर भी बेचारे टेलीविजन को आराम नहीं मिल पाता था और वो तब ही बंद होता जब ये घर में ताला लगाकर बैंक जाने के लिए निकलते. एक बार तो ऐसा भी हुआ कि शनिवार से चलता हुआ टीवी सोमवार रात को ही विश्राम पा सका. फिर भी उसने याने उनके टीवी ने शिकायत नहीं की, अपनी सेवा निर्बाध देता रहा. यह निश्चित करना मुश्किल था वो ज्यादा काम करते थे या उनका टीवी. पर यह पक्का था कि टीवी अपने मालिक की आदतों से वाकिफ था और बहुत मजबूती से उनके मनोरंजन का ख्याल रखता था.

आसक्तिहीनता लेखापाल जी की पहचान बन गई थी और निर्विकार होना उनका स्वभाव. उनके दुश्मन नहीं थे पर उनके दोस्त भी नहीं थे. दोस्ती हो या दुश्मनी, दोनों के लिये भावनाओं का ज्वार भाटा आवश्यक होता है. ये उनके पास नहीं था तो लोग भी तटस्थ ही रहते. ऐसे व्यक्तित्व के साथ आप कितना भी रहें पर ऐसे लोग न तो आपको याद करते हैं न ही खुद याद आते हैं. बैंक की वार्षिक लेखाबंदी हो या ऑडिट इंस्पेक्शन, इन सभी मौके पर भी वे उत्साहहीनता और निर्विकार होने का ही एहसास कराया करते. स्टाफ सोच में पड़ जाता पर वे इन सब मायावी चीजों से संत वैराग्य का भाव रखते थे.

बैंकिंग में डेबिट और क्रेडिट की एंट्रियों का समायोजित होना बैंकिंग प्रणाली है पर हम बैंकर्स सपाट सतह के नहीं होते, हम में इंसानियत के गुण और दोष दोनों पाये जाते हैं. हममें से अधिकतम में हमेशा कुछ डेबिट और कुछ क्रेडिट प्रविष्टियां आउटस्टैंडिंग रह ही जाती हैं. यही हमारी पहचान होती है. प्रायः कहीं हमारा या किसी और का नुकीलापन हमें चुभ जाता है तो कहीं दो क्रेडिट प्रविष्टियों वाले छोर मिल जाते हैं और दोस्ती की शुरुआत हो जाती है.  दिल से दिल का मिलना डेबिट प्रविष्टियों का भी होता है जिसे हमप्याला, हमकश और हमचौंसर कहा जाता है.

नोट :लेखापाल जी का इतना चरित्र चित्रण पर्याप्त है. हम सभी को पढ़ने पर लगता है कि ये कहानी तो हमने कहीं सुनी है और यही लेखन की सफलता है क्योंकि ये भी हमारी बैंकसेवा की यात्रा ही है जिसमें रास्ते और पड़ाव जाने पहचाने लगते हैं. कोशिश यही है कि ये किस्साये तालघाट जारी रहे पर इस कथानक का कोई क्लाइमेक्स संभव नहीं है. रिटायरमेंट के बाद भी तो ये वायरस पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाता. आज भी हमेशा की तरह “your account has been credited with Rs. so and so “हमारा सबसे प्यारा और दुलारा मैसेज है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 183 ☆ मोसम… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 183 ?

🌸 मोसम… 🌸 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

नित्य प्राजक्ताचा सडा

मोसमात पडायचा

जाता येता पांथस्थाचा

पाय दारी अडायचा!

माझ्या अंगणात होता

एक सुंदर प्राजक्त

त्याच्या सान्निध्यात वाटे

व्हावे त्याच्यापाशी व्यक्त

त्याच्या सुगंधाचे असे

वेड लागले गं जीवा

फूल फूल वेचताना

वाटे स्वतःचाच हेवा

पारिजात फक्त माझा

असे उगाच भासले

पहाटेस झाड माझे

कुणी लुटूनिया नेले

असे असतच नाही

शाश्वतीचे सर्वकाळ

जीव  उगाचच होतो

आत्मलुब्ध की वाचाळ?

माझ्या दारीचा प्राजक्त

आता माझा न राहिला

कधी काळी जीव जरी

होता त्याच्याशी जडला

🌸

गेला सरून मोसम

स्वप्नवृक्ष हा विरक्त

आजकाल दिसतसे

योगी,महर्षी प्राजक्त

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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