हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 04 – बिटिया सोन चिरैया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बिटिया सोन चिरैया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 04 – बिटिया सोन चिरैया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कितनी खुशियाँ बिखराती थी

      कुछ दाने चुगकर गौरइया

 

चूजों को उड़ना सिखलाती

सखियों के संग झुण्ड बनाकर

फुदक-फुदक आँगन में आती

पीछे-पीछे दौड़-दौड़कर

किलकारी भरते थे बच्चे

      गाकर ता-ता थैया

 

आस-पास तब थी हरियाली

अगर बजा दे कोई ताली

चिड़िया फुर्र-फुर्र उड़ जाती

इन्हें पकड़ने दौड़ें बच्चे

दीदी रोके किन्तु न माने

      नटखट छोटा भैया

 

बुने मनुज ने ताने-बाने

घर आँगन खलिहान खेत में

बिखराये जहरीले दाने

पर्यावरण बिगाड़ा हमने

चिड़ियों के बिन अब उदास है

      बिटिया सोन चिरैया

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 80 – मनोज के दोहे … ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 79 – सजल – चलो अब मौन हो जायें…

1 पथिक

जीवन के हम हैं पथिक, चलें नेक ही राह।

चलते-चलते रुक गए, तन-मन दारुण दाह।।

2 मझधार

जीवन के मझधार में, प्रियजन जाते छोड़।

सबके जीवन काल में, आता है यह मोड़।।

3 आभार

जो जितना सँग में चला, उनके प्रति आभार।

कृतघ्न कभी मन न रहे, यह जीवन का सार।।

4 उत्सव

जीवन उत्सव की तरह, हों खुशियाँ भरपूर।

दुख, पीड़ा, संकट घड़ी, खरे उतरते शूर।।

5 छाँव

धूप-छाँव-जीवन-मरण, हैं जीवन के अंग।

मानव मन-संवेदना, दिखलाते बहु रंग।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ५ – आनंदपुर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग पाँच – आनंदपुर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग पाँच – आनंदपुर ?

(वर्ष 1994)

चंडीगढ़ में रहते हुए एक बात समझ में आई कि बड़े – बड़े बंगलों में रहनेवाले लोग आसानी से किसी नए पड़ोसी से मित्रता नहीं करते। पर नए पड़ोसी के बारे में जानने की उत्कंठा अवश्य ही बहुत ज्यादा होती है उनमें। हम फ्लैटों में रहनेवालों की प्रकृति इससे अलग होती है।हम लोग तुरंत नए पड़ोसी की सहायता में जुट जाते हैं। हमें चंडीगढ़  जाने के बाद शुरू-शुरू में दिक्कत तो हुई पर समय के साथ कुछ लोगों से परिचय हो ही गया।

हमारे मोहल्ले में एक क्लब था जहाँ स्त्री , पुरुष सभी रमी खेलने आते थे। हम वहाँ जाने लगे तो कुछ मित्र बने। एक बैडमिंटन कोर्ट था तो दोस्त बनाने के लिए हमने सुबह बैडमिंटन खेलना प्रारंभ किया। अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कई हमउम्र महिलाएँ बैडमिंटन खेलने आती थीं। सच में उत्कंठित पड़ोसन अब खेल के बहाने हमारे मित्र बनने लगीं।

एक रविवार उन्होंने मुझे अपने साथ गुरुद्वारे जाने के लिए आमंत्रित किया,  मैंने भी सहर्ष उस आमंत्रण को स्वीकार किया।पंजाब का हर शहर गुरुद्वारों का विशाल गढ़ है। गुरुद्वारों के प्रति जितनी लोगों में आस्था है उतना ही करसेवा का जुनून भी है। इसे वे एक अनुष्ठान के रूप में करते हैं।

चंडीगढ़ शहर ,पंजाब और हरियाणा के बीच स्थित है। दोनों राज्यों की यह  राजधानी भी है इसलिए महत्वपूर्ण शहर बन गया है और यूनियन टेरीटरी भी है।बहुत ही सिस्टमैटिक रूप से शहर का निर्माण किया गया है। हर एक क्रॉस रोड पर गोल चक्कर है जो मौसमी फूलों ,पौधों से सजा रहता है।यहाँ ट्रैफिक लाइट की व्यवस्था नहीं थी। (अब भीड़ बढ़ने के कारण ट्रैफिक लाइट है।)

चंडीगढ़ से बीस किलोमीटर की दूरी पर पंचकुला नामक शहर पड़ता है। यह शहर हरियाणा का हिस्सा है।यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसे नाडासाहेब कहा जाता है।

इसका प्रांगण विशाल है। गुरु गोविंद सिंह जी भंगनी में मुगल सेना को हराकर आगे बढ़ते हुए इस स्थान पर आ पहुँचे थे। नाडा शाह  नामक एक सज्जन ने उनका स्वागत किया था। इसीलिए इस स्थान का नाम नाडासाहेब पड़ गया। यहाँ कुछ समय रुकने के बाद वे अपनी सेना के साथ आनंदपुर  के लिए रवाना हो गए थे।

इस विशाल गुरुद्वारे में हर महीने पूर्णिमा के दिन भारी भीड़ होती है। उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में लोग दर्शन हेतु आते हैं।

इसके बगल में ही बड़ी इमारत है जहाँ हज़ारों की संख्या में लोग लंगर में भोजन ग्रहण करते हैं। पूर्णिमा का दिन विशाल उत्सव का दिन होता है।

उस दिन मुझे आनंद के सागर में हिलोरें लेने का अद्भुत आनंद मिला।करसेवा का वह आनंदमय सामुहिक कृति की स्मृतियाँ मुझे आज भी रोमांचित करती है।

पंजाबी भाषा तो ससुराल में रहते ही मैंने बोलना सीख लिया था पर लहजा तो चंडीगढ़ जाकर ही सीखने का अवसर मिला। बलबीर पंजाबी भाषा से कोसों दूर रहे हैं। नाम के आगे सिंह लिखा होने के कारण हर कोई उनसे पंजाबी में बातें करता  और वे मुस्कराकर रह जाते क्योंकि समझ न पाते तो उत्तर क्या देते भला!

बलबीर अपनी कंपनी के चीफ इन्टरनल  ऑडिटर थे। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल तीनों राज्य के दौरे पर जाया करते थे। एकबार उन्हें  रोपड़  जाना था, यह पंजाब का एक महत्वपूर्ण शहर है। मुझे साथ ले जाना चाहते थे क्योंकि ग्रामीण पंजाबी समझना उनके बस की बात न थी। मैं तुरंत साथ चलने को तैयार हो गई। नेकी और पूछ -पूछ! चंडीगढ़ की पड़ोसियों से आनंदपुर गुरुद्वारे का बखान सुना था।बस मुझे तो गुरुद्वारे का दर्शन करना था।साथ चलने का निवेदन मानो नानकसाहब का बुलावा था।

आनंदपुर साहिब का निर्माण सन 1665 में सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर जी ने किया था। वे कीरतपुर से आए थे। इस गाँव का नाम मखोवल था। गुरु तेगबहादुर ने इसे चक्की नानकी नाम दिया जो उनकी माता का नाम था।

सन 1675 में गुरु तेगबहादुर पर औरंगज़ेब ने भीषण अत्याचार किए ।वे चाहते थे कि गुरु तेगबहादुर मुसलमान धर्म स्वीकार  कर लें।उनके बार – बार इन्कार करने पर उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। इस शहीद गुरु के बेटे गोविंद दास को दसवें गुरु के रूप में नियुक्त किया गया। आज हम उन्हें गुरु गोविंद सिंह  के नाम से संबोधित करते हैं, स्मरण करते हैं। गुरुगोविंद सिंह जी ने ही इस गाँव का नाम चक्की नानकी  से बदलकर आनंदपुर रखा।

वह छोटा – सा गाँव अब शहर बनने लगा। सिक्ख समुदाय के लोग गुरुगोविंद सिंह जी की ओर बढ़ने लगे। बड़ी संख्या में लोग दसवें गुरु की ओर आकर्षित होते रहे। आनंदपुर सिक्ख समुदाय का महत्त्वपूर्ण गढ़ बनने लगा। पास पड़ोस के पहाड़ी रियासतों और मुगलों की चिंता बढ़ने लगी। गुरुगोविंद सिंह जी के साहस, शौर्य की बात प्रसिद्धी पाने लगी। मुगल शासक औरंगज़ेब ने बैसाखी के दौरान होनेवाली भीड़ पर पाबंदी लगा दी। सन 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की और विशाल सैन्य बल एकत्रित कर ली। बड़ी मात्रा में हथियार भी एकत्रित कर लिए  गए। औरंगज़ेब और उसके मातहत जितने हिंदू राजा थे वे व्यग्र हो उठे। वे आनंदपुर को घेरना चाहते थे। इस कारण कई  युद्ध हुए।

सन 1700 से 1704 तक मुगलों के साथ कई बार भारी युद्ध हुए। मुगल सेना को मुँह की खानी पड़ी, कभी धूल चाटने की नौबत भी आई।1704 में आनंदपुर को जानेवाली सभी प्रकार की सुविधाओं पर मुगलों ने अंकुश लगा दिए। मई माह से दिसंबर तक भोजन आदि का मार्ग बंद कर दिए गए।कई सिक्ख सैनिक प्राण बचाकर अपने घर भाग गए। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय नारी युद्ध मैदान से भागे हुए सैनिक की पत्नी बनकर जीने से विधवा होकर जीने को  अधिक श्रेष्ठ  मानती थीं।आवश्यकता पड़ने पर वे भी विरांगनाएँ तलवार लेकर निकल पड़ती थीं। जो सैनिक भागकर लौट आए थे उन्हें उनकी पत्नियों ने प्रताड़ित किया, धिक्कारा और वे सब लौटकर आए और युद्ध मैदान पर शहीद हो गए।

 युद्ध के अंत में आखिर औरंगजेब ने गुरुगोविंद सिंह को सपरिवार अपने अनुयायियों के साथ वहाँ से निकलने का मार्ग दिया। दो समूहों में बँटकर वे आनंदपुर से निकले। धोखा देने के स्वभाव से मजबूर मुगलों ने एक समूह पर आक्रमण किया और गुरु गोविंद सिंह के दोनों छोटे बच्चे और  माता गुजारी को घेर लिया। उनका बड़ा बेटा जोरावर सिंह जो आठ वर्षीय था  और फतेह सिंह  जो पाँच वर्ष का था उन्हें बंदी बना लिया गया। उन दोनों को बदले की भावना से जलनेवाले औरंगज़ेब ने ज़िंदा चुनवा दिया। माता गुजारी सदमें को न सह सकीं और उनका देहांत हो गया।

आज आनंदपुर एक विशाल और महत्वपूर्ण गुरुद्वारा है। देश के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है। विशाल ,भव्य इमारत है। संग्रहालय है। लंगर के लिए विशेष स्थान है। पास में ही छोटा सरोवर है। आज भी विभिन्न पर्वों के अवसर पर देश -विदेश से सिक्ख संप्रदाय के लोग यहाँ उपस्थित होते हैं। खासकर खालसा समुदाय के लोग बड़ी आस्था के साथ यहाँ आते हैं।

हमारा अहो भाग्य ही है कि चंडीगढ़ में रहते हुए हमें ऐसे विशेष स्थानों पर दर्शन का लाभ मिला।

इन सभी गुरुद्वारों की एक विशेषता है कि यहाँ स्वच्छता को बहुत महत्त्व दिया जाता है।यहाँ शोर नहीं होता। दिनरात पाठ की धुन जारी रहती है।अलग – अलग स्थान पर लोग इच्छानुसार कर सेवा करते रहते हैं। सभी शांति से दर्शन करते हैं। ठेलमठेल कभी दिखाई नहीं देती। लोग कतारों में खड़े होकर नामस्मरण करते दिखते हैं।

सभी लंगर में श्रद्धा से प्रसाद ग्रहण करते हैं। गुरुद्वारे में फूल,माला, नारियल आदि नहीं चढ़ाए जाते। गरम काढ़ा परसाद दिन भर सभी को बाँटा जाता है। हमें यहीं आकर ज्ञात हुआ कि काढ़ा परसाद का अर्थ है कढ़ाही में बनाया गया प्रसाद। हर घर में आटा, घी, गुड़ और पानी ये चारों वस्तुएँ उपलब्ध होती ही थीं। बाद में गुड़ की जगह खंड (शक्कर) का प्रयोग होने लगा। इस तरह भोग चढ़ाकर प्रसाद बाँटने की प्रथा बनी।

आज भी बड़ी मात्रा में काढ़ा प्रसाद ही बाँटते हैं। एक बार आप इस शांतिमय परिसर, आनंदमय वातावरण और स्वादिष्ट प्रसाद, सामूहिक लंगर का आनंद लेने गुरुद्वारे  में दर्शन हेतु अवश्य अवश्य जाएँ।

वाहे गुरु दा खालसा

वाहे गुरु दी फतेह।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 138 – “नासै रोग हरे सब पीरा. . .” – पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है पं अनिल कुमार पाण्डेय जी की पुस्तक  “नासै रोग हरे सब पीरा” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 138 ☆

☆ “नासै रोग हरे सब पीरा. . .” – पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

नासै रोग हरे सब पीरा. . .

श्री हनुमान चालीसा की विस्तृत विवेचना

लेखक – पं अनिल कुमार पाण्डेय

आसरा ज्योतिष केंद्र, साकेत धाम कालोनी, मकरोनिया, सागर

मूल्य २५० रुपये, पृष्ठ १८४, प्रकाशन वर्ष २०२३

☆ श्री हनुमान चालीसा की यह विस्तृत विवेचना अपूर्व है. पठनीय है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

गोस्वामी तुलसीदास सोलहवीं शती के एक हिंदू कवि-संत और दार्शनिक थे. उन्होंने भगवान राम के प्रति अपनी अगाध भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं. तत्कालीन आक्रांताओ से पीड़ित भारतीय सामाजिक स्थितियों में उन्होंनें समकालीन भक्ति धारा में रामचरित मानस जैसे वैश्विक ग्रंथ की रचना कर लोक भाषा में की. उनकी लेखनी के प्रभाव से हिन्दू धर्मावलंबी राम नाम का आसरा लेकर तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जीवंत बने रहे. यही नही जब गिरमिटिया देशो में भारतीयो को मजदूरों को रूप में ले जाया गया तो मानस जैसे ग्रंथों के कारण ही परदेश में भी भारतीय संस्कृति और राम कथा का विस्तार हुआ. आज भी यह इन सूत्र भारत को इन राष्ट्रों से जोड़े हुये है.

इस कृति में पंडित अनिल पांडेय जी तर्क सम्मत तथ्य रखते हैं की हनुमान चालीसा की रचना तुलसीदास जी ने गुरु सानिध्य में की थी यद्यपि किवदंति है कि एक बार अकबर ने गोस्वामी जी का प्रताप सुनकर उन्हें अपनी राज सभा में बुलाया और उनसे कहा कि मुझे भगवान श्रीराम से मिलवाओ. तुलसीदास जी ने उत्तर दिया कि भगवान श्री राम केवल अपने भक्तों को ही दर्शन देते हैं. यह सुनते ही अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास जी को कारागार में बंद करवा दिया.

कारावास में ही गोस्वामी जी ने अवधी भाषा में हनुमान चालीसा की रचना की. जैसे ही हनुमान चालीसा लिखने का कार्य पूर्ण हुआ वैसे ही पूरी फतेहपुर सीकरी को बन्दरों ने घेरकर धावा बोल दिया. अकबर की सेना बन्दरों का आतंक रोकने में असफल रही. तब अकबर ने किसी मन्त्री के परामर्श को मानकर तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त कर दिया. जैसे ही तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त किया गया, बन्दर सारा क्षेत्र छोड़कर वापस जंगलो में चले गये. इस अद्भुत घटना के बाद, गोस्वामी तुलसीदास जी की महिमा दूर-दूर तक फैल गई और वे एक महान संत और कवि के रूप में जाने जाने लगे.

श्री हनुमान चालीसा अवधी में लिखी एक लघुतम काव्यात्मक कृति है. इसमें प्रभु श्री राम के महान भक्त एवं सदा हमारे साथ जीवंत स्वरूप में विद्यमान श्री हनुमान जी के गुणों एवं कार्यों का मात्र चालीस चौपाइयों में विशद वर्णन है. इस लघु रचना में पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर विनय स्तुति व भावपूर्ण वन्दना की गई है. हनुमान चालीसा में प्रभु श्रीराम का व्यक्तित्व भी सरल शब्दों में वर्णित है. अजर-अमर भगवान हनुमान जी वीरता, भक्ति और साहस की प्रतिमूर्ति हैं. शिव जी के रुद्रावतार माने जाने वाले हनुमान जी को बजरंगबली, पवनपुत्र, मारुतीनन्दन, केसरी नन्दन, महावीर आदि नामों से भी जाना जाता है. हनुमान जी का प्रतिदिन ध्यान करने और उनके मन्त्र जाप करने से मनुष्य के सभी भय दूर होते हैं. श्री हनुमान चालीसा अवधी भाषा में लिखे गये सिद्ध मंत्र ही हैं. जिनका पाठ समझ कर, या श्रद्धापूर्वक बिना गूढ़ार्थ समझे भी जो भक्त करते हैं उन्हें निश्चित ही मनोवांछित फल प्राप्त होते देखा जाता है.

ऐसी सर्वसुलभ सहज सूक्ष्म चालीसा की बहुत टीकायें नही हुई हैं. गीत संगीत नृत्य चित्र आदि विविध विधाओ में श्री हनुमान चालीसा को भक्ति भाव से समय समय पर विविध तरह से अवश्य प्रस्तुत किया गया है. विद्वान कथा वाचकों ने जीवन मंत्रों के रूप में अपने प्रवचनो में हनुमान चालीसा के पदों की व्याख्यायें अपनी अपनी समझ के अनुरूप की हैं. श्री बागेश्वर धाम के पं धीरेंद्र शास्त्री जी तो श्री बालाजी हनुमान जी की ही महिमा प्रचारित कर रहे हैं. मैंने कुछ विद्वानो को मैनेजमेंट की शिक्षा के सूत्रों के साथ श्री हनुमान चालीसा के पदों से तादात्म्य बनाकर व्याख्या करते भी सुना है. सच है जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी. स्वयं मैंने विश्व में जहां भी मैं गया श्री हनुमान चालीसा के जाप मात्र से सकारात्मक प्रभाव अनुभव किया है.

पं अनिल कुमार पाण्डेय सचमुच हनुमत चरण सेवक हैं. वे आजीवन मानस, वाल्मीकी रामायण, यथार्थ गीता, भगवत गीता, पुराणो, ज्योतिष के ग्रंथो, गुरु ग्रंथ साहब आदि आदि महान ग्रंथो के अध्येता रहे हैं. “नासै रोग हरे सब पीरा. . . ” नाम से उन्होंने श्री हनुमान चालीसा के प्रत्येक पद, प्रत्येक शब्द की सविस्तार व्याख्या करते हुये इन सभी ग्रंथों से प्रासंगिक उद्धवरण देते हुये विवेचना की है. अनेक कवियों ने जिनमें मेरे पिताजी पूज्य प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी ने भी हनुमत स्तुतियां रची हैं. भगवान हनुमान जी पर मैंने श्री अमरेंद्र नारायण जी, श्री सुशील उपाध्याय जी, की किताबें पढ़ी हैं. मैं दावे से कह सकता हूं कि पं अनिल कुमार पाण्डेय जी द्वारा की गई श्री हनुमान चालीसा की यह विस्तृत विवेचना अपूर्व है. पठनीय है. मनन करने को प्रेरित करती है. पाठक को चिंतन की गहराई में उतारती है. प्रायः हिन्दू परिवारों में स्नान के उपरांत प्रतिदिन लोग श्री हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं. बहुतों को यह कंठस्थ है. नये इलेक्ट्रानिक संसाधनो यू ट्यूब आदि के माध्यम से मंदिरों में श्री हनुमान चालीसा गाई बजाई जाती है. धार्मिक मूढ़ता और राजनैतिक उन्माद में श्री हनुमान चालीसा को अस्त्र के रूप में प्रयोग करने से भी लोग बाज नहीं आ रहे. मेरा सदाशयी आग्रह है कि एक बार इस पुस्तक का गहन अध्ययन कीजीये, स्वतः ही जब आप गूढ़ार्थ समझ जायेंगे तो विवेक जागृत हो जायेगा और आप श्री हनुमान चालीसा जैसे सिद्ध मंत्र का श्रद्धा भक्ति और भावना से सकारात्मक सदुपयोग करेंगें तथा श्री हनुमान चालीसा के अवगाहन का सच्चा गहन आनंद प्राप्त कर सकेंगे. 

खरीदिए और पढ़िये किताब अमेजन पर सुलभ है. aasra. jyotish@gmail. com पर आप लेखक से सीधा संपर्क भी कर सकते हैं. जय जय श्री हनुमान.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 158 – बेघर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बेघर ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🏚️ बेघर 🏚️

अपनी मां के साथ वेदिका एक किराए के मकान में रहती थी। मां और बिटिया की कमजोरी को देखते हुए हर जगह से उन्हें निकाल दिया जाता था और फिर दूसरे किराए के मकान में, झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहना पड़ता था।

बचपन उसका कैसे बीता उसे ठीक से याद नहीं। थोड़ा संभलने पर समझ में आ गया उसे कि सारे रिश्ते नाते केवल पैसों का खेल होता है। पिताजी की मृत्यु के बाद कोई भी रिश्तेदार यह पूछने नहीं आया कि तुम मां बेटी कैसे अपना गुजारा करती हो या फिर किसी चीज की आवश्यकता को हम पूरा कर सकते हैं क्या? किसी तरह से वेदिका ने दसवीं की पढ़ाई कर ली गणित में  कंप्यूटर जैसा दिमाग पाई थी।

सिटी के एक किराने दुकान पर हिसाब किताब, समान का लेनदेन के लिए नौकरी करने लगी।

धीरे-धीरे यह यौवन की दहलीज चढ़ते जा रही थी। दुकानदार भी देख रहा कि वेदिका के समान लेनदेन से उसकी दुकान पर बहुत भीड़ होने लगी है। उसने एक दिन वेदिका से कहा.. अब तुम्हें कुछ और काम कर लेना चाहिए।

वेदिका इन बातों से अनजान दो-तीन वर्षों से उसके यहां काम कर रही थीं। उसने सोचा सेठ जी मुझे कुछ अच्छा काम करने के लिए कह रहे होंगे। उसने कहा ठीक है सेठ जी जैसा आप उचित समझे परंतु मुझे इस जोड़ घटाव हिसाब किताब में बहुत अच्छा लगता है। मुझे यही रहने दीजिए। सेठ जी ने कहा एक बार काम देख लो बाकी तुम्हें भी अच्छा लगेगा। मेरे यहां भी काम करते रहना। तुम्हारे लिए रहने का ठिकाना भी बन जाएगा और तुम बेघर होने से बच जाओगी। आराम से गुजर बसर करोगी अपनी माँ के साथ।

वेदिका उस जगह पर पहुंच गई। जहाँ सेठ जी ने बुलाया था। घर तो बड़ा खूबसूरत था।

सभी सुख-सुविधाओं का सामान दिख रहा था। सेठ जी के साथ चार व्यक्ति और भी बैठे हुए थे। जो देखने में अच्छे नहीं लग रहे थे परंतु वेदिका ने सोचा मुझे इससे क्या करना है मुझे तो अपना काम करना है। तभी सेठ ने कहा.. वही वेदिका है जो अब आप लोगों के साथ काम करेगी। सेठ के हाव भाव को देखकर वेदिका को अच्छा नहीं लगा। वेदिका ने कहा मुझे काम क्या करना है। सभी सेठ ने बाहर निकलते हुए कहा.. बाकी बातें अब यह बता देंगे।

वेदिका को समझते देर नहीं लगी कि वह बिक चुकी है। उसने बहुत ही धैर्य से काम की और बोली मैं अपना कुछ सामान बाहर छोड़ कर आ गई हूं। लेकर आती हूं। जैसे ही वह बाहर निकलना चाहा। किसी ने हाथ पकड़ापरंतु वेदिका की चुन्नी हाथ में आई।

और वेदिका दौड़ते हुए मकान से बाहर निकल चुकी थी। दौड़ते दौड़ते  माँ के पास आकर आँचल में छुप गई माँ को समझते देर न लगी। वह वेदिका  के सिर पर हाथ रखते हुए बोली बेटी हम बेघर ही सही बेआबरू नहीं है।

चल कहीं और चलते हैं यहां से दाना पानी उठ चुका है। वेदिका ने देखा माँ की कमजोर आंखों में एक अजीब सी चमक उठी है और मानों कह रही हो अभी तुम्हारी माँ का आँचल है तुम बेघर नहीं हुई हो।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 35 – देश-परदेश – शिकागो शहर (स्वामी विवेकानंद – राजा भास्कर सेतुपति, रामेश्वरम) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 35 ☆ देश-परदेश – शिकागो शहर (स्वामी विवेकानंद – राजा भास्कर सेतुपति, रामेश्वरम) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो की धर्म संसद में दिए गए भाषण की 11 सितंबर को 129वीं जयंती है।

आज जब पूरा देश स्वामी विवेकानंद को याद कर रहा है। इस अवसर पर  स्वामी विवेकानंद को शिकागो भेजने वाले और उनकी पूरी अमेरिका और यूरोप की ट्रिप स्पॉन्सर करने वाले भास्कर सेतुपति को याद करते हैं।

भास्कर सेतुपति रामेश्वरम के निकट रामानंद या रामेश्वरपुरम रियासत के राजा थे। सेतुपति पदवी उनके पूर्वजों से मिला था जो सेतु यानि पुल के रखवाले थे। राजा भास्कर सेतुपति के पूर्वजों ने राम सेतु की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले रखा था।

जब रामेश्वरम के राजा भास्कर सेतुपति को पता चला कि स्वामी विवेकानंद जी शिकागो की धर्म संसद में जाना चाहते हैं और उनके पास जाने की व्यवस्था नहीं है। तब राजा  भास्कर सेतु पति ने उनकी पूरी यात्रा के व्यय का वहन करने का बीड़ा उठाया।

स्वामी विवेकानंद अपनी 4 साल की यात्रा के बाद 1897 में लौटे तो उन्होंने सबसे पहला कदम राजा भास्कर सेतुपति के राज्य में ही रखा, जहां भास्कर सेतुपति ने स्वामी विवेकानंद की सफल यात्रा के उपलक्ष में एक 40 फ़िट ऊंचा कीर्ति स्तम्भ बना रखा था, जिसके नीचे उन्होंने लिखवाया था….”सत्यमेव जयते”, यही वाक्य बाद में भारत सरकार का अधिकारिक सूक्ति बना।

भास्कर सेतुपति स्वामी विवेकानंद के इतने अनन्य शिष्य थे कि 1902 में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के बाद उन्हें ऐसा सदमा लगा कि अगले ही वर्ष 1903 में महज़ 35 वर्ष की आयु में अपने प्राण त्याग दिए।

बंगाल में जन्मे स्वामी विवेकानंद के प्रति तमिलनाड के राजा की ये अनन्य भक्ति बताती है कि उस समय भी जब न इंटरनेट था, न टी वी, न रेडियो और अख़बार भी इतने सहज उपलब्ध न थे, तब भी भारतवासी एक दूसरे से जुड़े हुए थे, और आज इतना सब होने के बाद सिर्फ़ 75 सालों में हमने भाषा, संस्कृति, रीति रिवाजों के चक्कर में आपस में कितनी दूरियाँ बना ली हैं।

स्वामी विवेकानंद के साथ उनके ज्ञान और हमारी भारतीय संस्कृति को सवा सौ साल पहले पूरी दुनिया से अवगत कराने के माध्यम भास्कर सेतुपति को भी नमन…

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #189 ☆ काचेचे घर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 189 ?

☆ काचेचे घर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तुझ्या स्मृतीचा मेघ मनातून जातच नाही

मेघामधुनी बरसत आता प्रेमच नाही

समृद्धीच्या प्रदूषणाचा खूप धुराळा

श्वास मोकळा घेता येथे येतच नाही

जुनी तोडली नवीन झाडे लावत आहे

नवीन झाडे तशी सावली देतच नाही

लाज झाकण्या जावे कोठे काचेचे घर

अशा घराला कुठे लाकडी दारच नाही

ध्यानधारणा करावयाला शिकलो आता

मनात साचत अहमपणाचा केरच नाही

वादळ झाले फांदीवरचे पान गळाले

दूर उडाले पुन्हा जन्मभर भेटच नाही

तू अश्रुंची फुले उधळली आहे ज्यावर

खरे सांगतो ते तर माझे प्रेतच नाही

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 140 – याद तुम्हारी… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – याद तुम्हारी।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 140 – याद तुम्हारी…  ✍

आती जाती याद तुम्हारी

जैसे कोई राजकुमारी।

बाद, याद की नयन तुम्हारे

जिनसे प्यार छलकता है

होठों में रहता है जो कुछ

उसकी हृदय तरसता है

भाव भंगिमा ऐसी लगती

जैसे कोई राजकुमारी।

 

कोमल नरम अंगुलियों जैसे

रेशम, चंदन डूबा हो

बिखरे बिखरे केश कि जैसे

मनसिज का मनसूबा हो

गंधवती है देह तुम्हारी

जैसे कोई फूल कुमारी।

 

बंद बंद आँखों से देखा

लगा कि कोई अपना है

खुली खुली आँखों से देखा

लगा कि दिन का सपना है।

यों आती है याद तुम्हारी

जैसे कोई किरन कुंवारी।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 139 – “इधर सूर्य की किरणें…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  इधर सूर्य की किरणें)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 139 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ इधर सूर्य की किरणें ☆

निबुक गई है हरे काँच

की चूड़ी फिर इस बार

चुकी देह की क्षमता

लेकिन चलो हुई भिनसार

 

इधर सूर्य की किरणें

चढ़कर आयीं दखाजे

पूरे घर के समीकरण

में जुड़े बिन्दु ताजे

 

रात सुहागन की नींदो

पर क्यों गुजरी भारी

बूढ़ी दादी बतला सकती

जो बिरवा छतनार

 

और पौर के बँधे ढोर

धीरे धीरे खोले

आंगन से ओसारे ने

जो शब्द मधुर बोले

 

उनकी आख्या घर के

मिट्ठू के जिम्मे पर है

वही लगाया करता

सबको आवाजें हर बार

 

घरकी हलचल में सारा

कुनबा होता शामिल

जिन्हें समय से सरोकार

है उनको क्या हासिल

 

घर में आगे का असमंजस

खड़ा अडिग, निश्चल

उठी सम्हाल देह के हिस्से

बहू विवश  कचनार

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-05-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 189 ☆ “परसाई के शहर में शरद जोशी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – ——)

(जन्म: 21 मई 1931 – मृत्यु: 5 सितम्बर 1991)

☆ संस्मरण — “परसाई के शहर में शरद जोशी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(स्व. शरद जोशी जी के जन्मदिवस पर विशेष) 

वर्षों पूर्व आदरणीय शरद जोशी जी “रचना”  संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे।  हम उन दिनों “रचना” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे। 

उन दिनों “रचना” को साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था । प्रत्येक रंगपंचमी के अवसर पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। आदरणीय शरद जोशी जी के रुकने की व्यवस्था रसल चौक स्थित उत्सव होटल में की गई थी। वे  “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे। व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था-“मैं भाग्यवान हूँ कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला।”

फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्रीअवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी। खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की। 

शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे तो दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन‘कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए ।

आज 21 मई को उनका जन्मदिन है, वे याद आ गए… अमिट स्मृतियों से निकल कर…    

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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