हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #179 – कविता – तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  “तन्मय के दोहे…”)

☆  तन्मय साहित्य  #179 ☆

☆ तन्मय के दोहे…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कभी हँसे, रोयें कभी, जीवन हुआ कुनैन।

भागदौड़ की जिंदगी, पलभर मिले न चैन।।

भूल रहे निज बोलियाँ, भूले निज पहचान।

नव विकास की दौड़ में, भटक गया इंसान।।

नव-विकास की दौड़ में,  मची हुई है होड़।

धर्म-कर्म जो हैं नियत, सब को पीछे छोड़।।

हो जाने पर गलतियाँ, या अनुचित संवाद।

तनिक ग्लानि होती नहीं, होता नहीं विषाद।।

प्रगतिवाद के दौर  में, संस्कृति का उपहास।

निजता पर भी आँच है, भस्मासुरी विकास।।

रहा न पानी  आँख में,  हुई निर्वसन लाज।

उच्छृंखल वातावरण,  निडर विचरते बाज।।

फूलों जैसा दिल कहाँ, पैसा हुआ दिमाग।

दिल दिमाग गाने लगे, मिल दरबारी राग।।

भीतर की बेचैनियाँ, भाव-हीन संवाद।

फीकी मुस्कानें लगें, चेहरे पर बेस्वाद।।

संबंधों  के  बीच में,  मजहब की  दीवार।

देवभूमि, इस देश में, यह कैसा व्यवहार।।

निश्छल सेवाभाव से,  मिले परम् संतोष।

मिटे ताप मन के सभी, संचित सारे दोष।।

शुभ संकल्पों की सुखद, गागर भर ले मीत।

जितना बाँटें  सहज हो,  बढ़े  सभी से प्रीत।।

कर्म अशुभ करते रहे, दुआ न आये काम।

मन की निर्मलता बिना, नहीं मिलेंगे राम।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ यायावर यात्राएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “यायावर यात्राएँ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ यायावर यात्राएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हर शुरुआत का

 होता है अंत कभी

 यायावर यात्राएँ

 होती हैं अंतहीन

 

धूप गाँठ में बाँधे

चल रही विरासत

कंठ में उतरती है

घूँट भर इबारत

 

भटके हैं बंजारे

चलते जो दिशाहीन।

 

शब्दों के महाजाल

अर्थवान मछली

प्यास के समुंदर में

नाच रही बिजली

 

चाँद के झरोखे से

झाँकते तमाशबीन।

 

दूध के कटोरे में

रोटी के ख़्वाब

मरे पड़े ग्रंथालय

बंद हर किताब

 

हो गया सियासत में

मुखपृष्ठ तक अधीन।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 64 ☆ ईद मुबारक!… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है ईद पर्व पर आपका एक स्नेहिल गीत – “ईद मुबारक!

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 64 ✒️

?  ईद मुबारक… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

दिल में खुशियां तो ईद होती है ।

रात ख़्वाबों में दीद होती है ।।

ईद ऐसा त्यौहार है यारो ।

जिसमें दुश्मन से प्रीत होती है ।।

आओ मिल जाएं गले आपस में ।

मीठी सेवइयों की रीत होती है ।।

पहल करता जो सलाम करने की ।

सवाब मिलता है जीत होती है ।।

हो मुबारक सभी को सलमा ईद ।

तुम सभी से ही ईद होती है ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीयआलेख  “किस्साये तालघाट…“।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट जगह का भी नाम था तो बैंक की शाखा भी

 इसी नाम से रजिस्टर्ड थी.स्थान की विशेषता यही थी कि जब घाट समाप्त होता तो ताल से भरपूर नगर की सीमा शुरू हो जाती थी.ताल एक ही था पर नगर की तुलना में बहुत विशाल था.तालघाट में होने के बावजूद इस ताल में सिर्फ एक ही पक्का घाट था.इसे भी घाट कहते हैं और रास्ते की चढ़ाई भी घाट कहलाती है.प्रदेश के राजमार्ग के किनारे बसा था यह स्थान और इसकी एक विशेषता और भी थी कि यह नगर दो प्रदेशों की सीमा पर भी स्थित था.याने इस पार अटारी तो उस पार वाघा बार्डर जैसी भौगोलिकता से संपन्न था.एक प्रदेश को पारकर दूसरे राज्य में आ गये हैं,ये सड़क के गड्ढे बयान कर देते थे.जिनकी सरकार और सड़क अच्छी थी वहां के सीमावर्ती नागरिक भी खुद के प्रति श्रेष्ठि भाव और दूसरे राज्य के वासियों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे.जबकि उन बेचारों का सिर्फ यही दुर्भाग्य था कि वो खस्ताहाल सड़क वाले राज्य के ईमानदार निवासी थे और उनके द्वारा दी जाने वाली टेक्स की रकम भी उनसे ज्यादा मोटी थी जो अच्छी सड़क वाले राज्य के टेक्स चोर नागरिक थे.तालघाट नगर का कल्चर दोनों राज्यों की गंगाजमुनी संस्कृति का अनूठा उदाहरण था.वहाँ रहने वाले यहाँ नौकरी के नाम पर रोज आते जाते थे और वेतन मिलने पर उसे खर्च करना तो अपने वाले राज्य के अधिकार क्षेत्र का विषय था.जो रोज नौकरी करने के नाम पर बस या ट्रेन से आना जाना करे,उसे सरकारी भाषा में अपडाऊनर कहा जाता है और कम से कम असुविधा झेले समय पर अपनी घर वापसी का सुखद एहसास पाना ही उसका दैनिक लक्ष्य या मंजिल मानी जाती है.इस जीवन की आपाधापी में उसकी राह में अनुशासन, अटेंडेंस, कार्यक्षमता, समर्पित आस्था नाम के असुर जरूर अड़चन बनकर सामने आते हैं पर वो तो तांगे का अश्व होता है जिसकी गति न्यूटन के नियमों से नहीं बल्कि जल्द से जल्द घरवापसी के हथकंडों से निर्धारित होती है.हर अपडाऊनर का यह मानना होता है कि उसके पांच घंटो का आउटपुट, उन स्थानीय लोगों के दस घंटे के बराबर होता है जो बॉस को देखकर अपनी दुकान सजाते हैं और बॉस के जाते ही अतिक्रमण धारियों के सदृश्य अपनी दुकान समेट कर गपशप,चायपानी में लग जाते हैं चूंकि यहाँ रहते हैं तो बैंक के अलावा कोई ऐसी जगह होती नहीं जहाँ शामें या रातें कटें तो उनका ठौरठिकाना बैंक की शाखा और चायपान के ठिये तक ही सीमित हो जाता है पर खुद को असली कर्मवीर समझने वाले अपडाऊनर्स के पास नौकरी में अपना काम निपटाने के अलावा और भी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं जैसे सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में बिस्तर छोड़ने की मजबूरी, ब्रम्हास्त्र की गति से बिना कुछ भूले तैयार होकर स्टेशन या बस के लिये मिलखा सिंह बनना,फिर रेल के डिब्बों में कभी बैठने की तो कभी खड़े होने की जगह ढूंढना और फिर कभी कभी चार कलात्मक श्रेष्ठता से संपन्न मित्रों के साथ बावन पत्तों की बाजी में रम जाना.ना यहाँ कोई पांडव होता है न कोई कौरव और न ही इस बाजी से कोई द्रौपदी अपमानित होती है पर इस रेलबाजी का अंत आने वाला स्टेशन ही करता है जब ये कौरव और पांडव रेल से उतरकर अपने अपने दफ्तर को प्रस्थान करते हैं.बस के अपडाउनर्स इस सुविधा से वंचित रहते हैं तो उन बेचारों के पास राजनीति पर बहस के अलावा मन बहलाने का कोई दूसरा साधन नहीं होता.इनमें कुछ धूमकेतु भी होते हैं जो इंतजार की घड़ियों को सिगरेट के कश में उड़ाते हैं.पर ये सभी अपडाउनर्स रूपी सज्जन अपने हॉकी के इस दैनिक मैच का फर्स्ट हॉफ ऑफिस पहुचकर हाजिरी देने,साथियों और बॉस से गुडमॉरनिंग करने पर ही पसमाप्त होना मानते हैं.बॉस अक्सर या बहुधा इनसे खुश नहीं रहते हैं पर इनकी याने अपडाउनर्स की नजरों से समझें तो यह पायेंगे कि इनके बॉस इनकी अपडाउन की अवस्था के कारण इनको ब्लेकमेल करते हैं.ये बात अलग है कि अपडाऊन की यह व्यवस्था इन्हें चतुर,चाकचौबंद, बहानेबाज,द्रुतगति धावक,एंटी-हरिश्चंद्र बना देती है.हर गुजरता दिन और अपडाउन करने वालों की बढ़ती संख्या इन्हें आत्मविश्वास और साहस की प्रबलता प्रदान करते जाती है.जब ये अल्पमत में होते हैं तो मितभाषी और बहुमत में होने पर दबंग भी बन जाते हैं.इन्हें कर्मवीर बनाना सिर्फ और सिर्फ शाखा प्रबंधक का ही उत्तरदायित्व होता है और यह उत्तरदायित्व ही सबसे विषम और चुनौतीपूर्ण होता है.कड़कता याने एंटीबायोटिकता से ज्यादा मनोवैज्ञानिकता याने होमियोपैथिक मीठी गोली ज्यादा प्रभावी होती है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 179 ☆ सखी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 179 ?

💥 सखी… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(अनिकेत मधून…….१९९७ नोव्हेंबर)

आयुष्याचं पुस्तक उघडलं की,

पहिल्यांदा तू सामोरी येतेस!

तुझा नितळ सावळा रंग,

दाटलेल्या मेघासारखा

बरसत रहातो पुस्तकभर!

तू नायिका की सहनायिका?

नेमकी कोणती तुझी भूमिका ?

तुझ्या आठवणी पानोपानी,

बहरलेल्या वृक्षासारख्या !

 शाळेसमोरच शिरीषाचं झाड,

तुझ्या माझ्यातल्या नात्याचं साक्षीदार!

सारं कसं निर्मळ,निखळ,

उमलत जाणारं कृष्णकमळ!

गणिताच्या पेपराच्या आदल्या रात्री

पाहिलेला,देव आनंद चा ‘गाईड’

तरीही तुला मिळालेले साठ

आणि

माझ्या पेपरावरचे आठ,

अजूनही आठवतात,

आणि आठवणींचं झाड बोलू लागतं ,

कधी मीनाकुमारीची शायरी,

तर कधी अमीन सयानी चा आवाज,

बुधवारची “बिनाका गीत माला”

न चुकता ऐकलेली!

इतिहासाच्या वहीत ठेवलेला,

जितेंद्रचा फोटो आणि

अंगणात खेळलेला,

साही सुट्ट्यो !

बोरीच्या झाडाखाली वाचलेली,

काकोडकरांची कादंबरी,

आणि “मेल्याहून मेल्यासारखं होणं “

म्हणजे काय?

हे न उलगडणारं कोडं!

सारं कसं स्वच्छ वाचता येतंय!

आपल्या वर्गातली मी गीता बाली,

तर तू माला सिन्हा होतीस!

मला मात्र तू नीटशी कळली नाहीस !

आयुष्याचा सिनेमा झाला,

तेव्हाही तू सहीसलामत सुटलीस,

सहनायिके सारखी !

पण मला नायिका व्हायचंच नव्हतं गं !

“ओ मेरे हमराही, मेरी बाह थामे चलना “

म्हणणारी तू–

अर्ध्या वाटेवरच गेलीस निघून,

परतीचे दोर कापून!

तरीही सगळं आयुष्य तू टाकलंयस व्यापून !

हातावर,भाळावर,

मनामनावर,पानापानावर,

कोरलंय तुझ्या आठवणीचं गोंदण!

जन्मभरची व्यथाही तूच दिलीस ना आंदण?

तूच कविता आहेस,तूच कादंबरी !

मी शोधते आहे अजूनही–

तुझ्यातली शकुंतला ,

माझ्यातली प्रियंवदा मात्र,

समजलीच नाही कोणाला !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चहा आणि मैत्री… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ मी आणि काॅफी… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

चहा आणि मैत्री

 

चहा म्हणजे चहा असतो

माझ्यासाठी तुमच्यासाठी

आनंदाचा झरा असतो

चहा आणि मी आमची अगदी घट्ट मैत्री आहे..

माझी दिवसाची सुरुवात चहाने आणि दिवस संपतो सुद्धा चहानेच

एक कप चहा दिवसाची सुरवात किक फ्रेश करतो आणि रेंगाळलेल्या दुपारची मरगळ झटकतो…आणि ह्याच चहामुळे माझे अनेकांशी मैत्रीपूर्ण नाती तयार झाली…

ज्या चहात साखर नाही तो चहा पिण्यात मजा नाही आणि ज्यांच्या जीवनात मैत्री नाही अशा जीवनात मजा नाही असे इथे मनापासून नमूद करावेसे वाटते..

चहामुळे मित्र मैत्रीणी जमले आणि आपण चहाबाज झालो अशाच सर्वांच्या भावना असतात नाही का..!

“चला रे जरा चहा घेऊ या किंवा चला रे मस्त कटिंग चहा घेऊन या” असे म्हणत जमलेले  मित्र-मैत्रिणी आणि चहाची टपरी हा जसा माझा हळवा कोपरा आहे ना तसा अनेकांचा ही  हळवा  कोपरा असतो आणि  जर बाहेर मस्त पाऊस पडत असेल तर…

पाऊस पडत असताना

अजून हव तरी काय

एक कटिंग चाय

चवदार चहाचा सुगंध दरवळतो तसं आपणही दरवळाव. जीवनाचा आनंद कसा चहाच्या भरल्या कपा प्रमाणे भरभरून घ्यायला हवा, ताजा ताजा.. चहाच्या प्रत्येक घोटा बरोबर आपणही ताजं व्हाव…

आयुष्य कसं चहाच्या रंगा सारखं असावं… प्रत्येक रंग हवा…! नवनवीन नाती जोडावीत. भरपूर मित्र असावेत म्हणजे तुमचा चहाचा ग्लास जरी रिकामा झाला तरी आठवणींचा ग्लास कायम भरलेला राहील…

माझ्यापुरतं सांगायचं झालं तर चहा घराचा असो की बाहेरचा.. माझ्या अनेक चांगल्या आठवणी या चहाच्या कपाशी जोडल्या गेलेल्या आहेत आणि अनेक जीवाभावाची मित्रमंडळीही बरं…!

कॉलेजच्या दिवसातली सर्वात जास्त मिस होणारी गोष्ट म्हणजे टपरीवरचा चहा… एक कटिंग चारजणांत पिण्याची मजा परत काही आली नाही…!

आयुष्यात किती कप चहा प्यायली असेल मी कुणास ठाऊक…! अगदी उडप्याच्या हॉटेलातल्या दुधाळ चहापासून ते तारांकीत हॉटेलमधल्या स्टाईलमारू चहापर्यंत.  गावोगावच्या टपऱ्यांवरच्या चहापासून रेल्वेतल्या चहा पर्यंत…

मैत्रीचे वय वाढत गेले….चहाच्या टपरीचे रुपडेही बदलले.. बदलत गेले

चहाची चव आणि प्रकारही बदलले  बदलत गेले.. आता तर चहाच्या कपाची साईजही बदलली आहे पण वाफाळता चहा आणि

मित्र-मैत्रिणींचा गप्पाचा रंगलेला फड याची लज्जत मात्र कधीही बदलणार नाही हे नक्कीच…!

जिभेवर रेंगाळणाऱ्या चहाच्या 

चवीशी इतर कुठल्याही पेयाशी तुलना होणार नाही…!

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ आनंदाश्रू… ☆ प्रस्तुती – श्री कमलाकर नाईक ☆

श्री कमलाकर नाईक

📖 वाचताना वेचलेले  📖

☆ आनंदाश्रू… ☆ प्रस्तुती – श्री कमलाकर नाईक ☆

सकाळी सातची वेळ, शांतारामअण्णांना जोरात प्रेशर आलं होतं पण घरात मुलाची,नातवाची आवरायची लगबग होती. खरंच होतं ते. डोंबिवलीतला वन बीएचकेचा ब्लॉक, तो सुद्धा चाळीतली खोली विकून घेतलेला.

अण्णा करीरोडला एका प्रायव्हेट कंपनीत कामाला होते.रोज सकाळी साडेसहाला घर सोडायचे. ओव्हरटाईम करुन रात्री उशिरापर्यंत घरी यायचे.

आताशा दोन महिने झालेले, अण्णांना रिटायर्ड होऊन. पहिली पहिली ही हक्काची सुट्टी बरी वाटली त्यांना. थोडे दिवस गावी जाऊन आले; पण तिथेही थोरला भाऊ नोटांची पुडकी मागू  लागला. पहिल्यासारखं आदराने बोलेनासा झाला. शेवटी अण्णा आठवडाभर राहून पत्नीसोबत माघारी आले. घरी आल्यावर मयंकच्या (मुलाच्या) चेहऱ्यावर प्रश्नचिन्ह होतंच,”रहाणार होतात ना,इतक्या लवकर कसे परतलात?” काही वाक्यं चेहऱ्यावर वाचता येतात. त्यासाठी शब्दांची आवश्यकता नसते आणि अशी वाक्यं आपल्या पोटच्या मुलाच्या चेहऱ्यावर पेरलेली पाहणे, याहून क्लेशदायी काही नाही.

“आणायची कोठून प्रत्येकाला द्यायला नोटांची पुडकी? अरे मी काय टाकसाळीत होतो का?” अण्णा स्वतःशीच बोलले व कुशीवर वळून निजले;पण त्यांना आत्ता थोपवेना. ते गेलेच तडक टॉयलेटमध्ये. इकडे मयंकलाही प्रेशर आलं. अण्णा दहा मिनटं झाली तरी बाहेर पडेनात. मयंक तिथल्या तिथे येरझाऱ्या घालून दमला. टॉयलेटचं दार ठोकवू लागला.

शेवटी एकदाचे अण्णा बाहेर आले. आताशा अर्ध्या अधिक दंताजींचे ठाणे उठल्याने अण्णांना अन्न नीट पचत नव्हते. त्यामुळे त्यांना नीट मोशन होत नव्हते. बराच वेळ बसून रहावे लागे. त्यांचे पायही वळून येत. अण्णा बाहेर येताच मयंक आत पळाला. पोट मोकळं करुन बाहेर आला व पेपर वाचायला घेणार तर अण्णा पेपर वाचत बसलेले. मयंकला रागच आला. मयंक अण्णांच्या अंगावर खेकसलाच,”काय हे अण्णा? सकाळीसकाळी कशाला उठता? टॉयलेट अडवून ठेवता. आत्ता पेपर घेऊन बसलात. मी ऑफिसला गेल्यावर करा की तुमची कामं निवांत. माझ्या वेळेचा कशाला खोळंबा करता? आत्ता माझी आठ चौदाची डोंबिवली लोकल चुकली. पुढच्या गाड्यांत पाय ठेवायलाही जागा नसते. तुम्हाला कसं समजत नाही.”

“हो रे बाळा, मी कुठे ऑफिसला गेलोच नाही कधी. मला कसं कळणार?”

“काय ती तुमची नोकरी, अण्णा! कुठेतरी चांगले नोकरीला असला असतात तर आत्ता रिटायरमेंटनंतर भरघोस पेंशन मिळाली असती. पीएफ,ग्रेज्युइटी मिळाली असता. टुबीएचके घेता आला असतं आपल्याला. टॉयलेटचा असा प्रॉब्लेम आला नसता. माझ्या मित्राचे बाबा बघा गेल्या वर्षी रिटायर झालेत. त्यांनी लेकाला टुबीएचके घेऊन दिला. शिवाय कर्जतला फार्महाऊस घेतलंय,एक होंडा सिटी घेतली. बढाया मारत होता लेकाचा. अण्णा, तुम्ही काय केलंत हो माझ्यासाठी?”

अण्णांचे डोळे पाण्याने डबडबले. मोठ्या कष्टाने त्यांनी आसवांना बांध घातला व हॉलच्या खिडकीशेजारी असणाऱ्या त्यांच्या पलंगावर जाऊन खिडकीत पहात बसले. त्यांना तसं पाहून आभाळही भरून आलं. मधुराने(सुनेनं)चहा आणून दिला. तो कसातरी गळ्याखाली उतरवला त्यांनी.

अण्णांची सौ., लताई देवळातून आली. लताई रोज पहाटे स्नान उरकून महालक्ष्मीच्या देवळात जायची. देवीला स्नान घालणं,साडीचोळी नेसवणं,आरती करणं हे सारं ती भक्तीभावाने करायची. अण्णा रिटायर्ड झाले म्हणून तिने तिच्या नित्यक्रमात बदल केला नव्हता. घरी आल्यावर अण्णांचा मुड पाहताच तिच्या लक्षात आलं की काहीतरी बिनसलंय. अण्णांनी लताईकडे आपलं मन मोकळं केलं तेव्हा नकळत त्यांच्या डोळ्यांतून दोन मोती ठिबकले.ते पाहून मधुराला गलबलून आलं.

मधुराला वडील नव्हते; पण सासरी आल्यापासून अण्णांनी तिची ही पोकळी त्यांच्या वात्सल्याने भरून काढली होती.

संध्याकाळी मधुरा,मयंक व छोटा आर्य फिरायला गेले. मयंक आर्यसोबत फुटबॉल खेळला. आर्य मग मातीत खेळू लागला, तसा मयंक मधुराशेजारी येऊन बसला. मधुराने मयंकजवळ सकाळचा विषय काढला. ती म्हणाली,”मयंक, तू लग्न झालं, तेव्हा मला अण्णांबद्दल किती चांगलं सांगितलं होतंस. अण्णा स्वतः जुने कपडे वापरायचे; पण तुझ्या साऱ्या हौशी पुरवायचे. तुला खेळण्यातल्या गाड्या फार आवडायच्या. अण्णा तुला दर महिन्याला नवीन गाडी आणून द्यायचे. पुढे तुला वाचनाचा छंद लागला,तेव्हा अण्णांनीच तुला चांगल्या चांगल्या लेखकांची पुस्तकं त्यांच्या तुटपुंज्या पगारातून आणून दिली. तुला हवं त्या शाखेत प्रवेश घ्यायची मोकळीक दिली. तुला अकाऊंट्ससाठी क्लास लावावा लागला नाही. अण्णांनीच तुला शिकवलं पण आज तू ‘अण्णा, तुम्ही माझ्यासाठी काय केलंत?’ या एका प्रश्नाने चांगलेच पांग फेडलेस त्यांचे. मयंक,अरे तुला वडील आहेत तर तुला त्यांची किंमत नाही रे. आपल्या आयुष्यात वडिलांची किंमत काय असते, ते माझ्यासारखीला विचार, जिला आपले वडील नीटसे आठवतही नाहीत.”

आर्य मम्मीपप्पांजवळ कधी येवून बसला, त्यांना कळलंच नाही.

आर्य म्हणाला,”खलंच, पप्पा. तुम्ही फाल वाईट्ट वादलात आजोबांशी. आजोबा ललत होते. आजीने गप्प केलं त्यांना. आजोबा दुपाली जेवलेपन नाही.”

मयंकला अगदी भरुन आलं. त्याला त्याची चूक कळली. घरी परतताना तो लायब्ररीत गेला व अण्णांची वार्षिक मेंबरशिप फी भरली. तसंच मधुराला म्हणाला,”आपला बाथरुम मोठा आहे त्यात आपण एक कमोड बसवून घेऊया अण्णांसाठी आणि थोड्या वर्षांत जरा मोठं घर बघूया. मी अण्णांशी नीट बोलेन. माझं असं कधी परत चुकलं, तर अशीच मला माझी चूक वेळोवेळी दाखवत जा.”

घरी गेल्यावर मयंक अण्णांबरोबर चेस खेळायला बसला. मधुराने त्यांच्या आवडीचा मसालेभात  व मठ्ठा केला. चेस खेळता खेळता मयंकने अण्णांचा हात हलकेच दाबला व  तो त्यांना ‘सॉरी’ म्हणाला.

आर्य तिथेच त्यांचा खेळ बघत बसलेला. तो आजोबांच्या गळ्यात हात टाकून म्हणाला,”बाबा,यू आल आलवेज वेलकम.” अण्णांचे डोळे पुन्हा भरुन आले; पण आत्ताचे अश्रू सकाळच्या अश्रूंपेक्षा वेगळे होते. हे तर आनंदाश्रू होते.

एक इंग्रजी वाक्य वाचनात आलं होतं. ते असं होतं की, “we are all a little broken. But the last time I checked, broken crayons still colour the same”

म्हणजे,

“आपण प्रत्येकजण कधी ना कधी मनानं तुटलेलो असतो. पण तुटलेले रंगीत खडू मी पाहिले, तर लक्षात आलं ते तुटले असले तरीही त्यांचा रंग तसाच राहिला आहे.”

किती सुंदर वाक्य आहे, नाही! आपण प्रत्येकजण कुठे ना कुठे तरी मनावर आघात झाल्यानं किंवा ओरखडा उमटल्यानं तुटलेलो असतो. पण म्हणून त्या तुटलेपणानं आपल्यात जो चांगुलपणा आहे, तो का नष्ट होऊ द्यायचा? ज्या क्षमता आहेत, त्या का लयास जाऊ द्यायच्या? तसेच रंगाचे खडूदेखील कधी कधी वापरताना तुटतात, पण म्हणून त्यांचा रंग पालटतो का? नाही! तो खडूचा तुटका तुकडाही आपल्या मूळ स्वरूपाप्रमाणेच त्याच रंगाचा प्रत्यय देत राहतो… अगदी झिजून संपेपर्यंत! त्या खडूच्या तुकड्यांकडून आपण इतकं तरी शिकलंच पाहिजे!!

 “जिंदगी एक बार मिलती है”

  “बिल्कुल गलत है!”

सिर्फ मौत एक बार मिलती है!

 जिंदगी हर रोज मिलती है !!

  बस जीना आना चाहिए!!

 

संग्राहक – श्री कमलाकर  नाईक

फोन नं  9702923636

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ महर्षी वाल्मिकी… श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ महर्षी वाल्मिकी… श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆ 

निखळ वाचनाचा आनंद घ्या…

महर्षी वाल्मिकी….

लेखक : विश्वास देशपांडे. 

प्रकाशक : सोहम क्रिएशन अँड पब्लिकेशन, पुणे. 

अचानक “महर्षी वाल्मिकी“ हे विश्वास देशपांडे लिखित पुस्तक हातात पडले. एखादे पुस्तक पाहताक्षणीच आवडून जाते आणि मनाची पकड घेते. तसंच या पुस्तकाच्या बाबतीत झाले.

आकर्षक मुखपृष्ठ, छोटेखानी पण वेगळेपण नावापासूनच जपणारे, व आत्तापर्यंत माहिती नसलेले आगळे वेगळे पुस्तक. पुस्तकाची रचना अतिशय उत्कृष्ट व उत्सुकता वाढवणारी आहे. सुरुवातीच्या पानावर लेखक परिचय व त्यांची साहित्य संपदा या विषयी माहिती आहे. त्या नंतर पुस्तकाविषयी लेखकांचे मनोगत पुस्तकाची थोडक्यात माहिती देणारे व उत्सुकता वाढवणारे आहे. त्यात भर घालणारी श्री.प्रमोद कुलकर्णी यांची सुंदर प्रस्तावना! मनोगत व प्रस्तावना वाचून कधी ते पुस्तक वाचते आहे असे होऊन गेले.

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

विशेष म्हणजे दहा लेख असून अनुक्रमणिका नाही. त्यामुळे एकच गोष्ट वाचत आहोत असे वाटते आणि सलग वाचन केल्याशिवाय राहवत नाही. पुस्तक वाचताना त्या घटना डोळ्यासमोर उभ्या राहतात. निसर्ग, ऋषींचा आश्रम, शिष्यगण, नदी, पक्षी, या सर्वांचा आपण एक भाग आहोत असे वाटते.

क्रौंच पक्ष्याच्या हत्येमुळे पूर्वाश्रमीच्या आठवणींच्या रूपात त्यांचा जीवनपट उलगडत जातो. जी गोष्ट शालेय जीवनात ७/८ ओळीत संपत होती तीच गोष्ट पुढच्या तीन लेखात अतिशय बारकाव्यासहित वाचायला मिळते.

वाटमारी करणाऱ्या रत्नाकरचा पश्चाताप, व रामनामाच्या तपश्चर्येमुळे झालेला अनाकलनीय बदल –  म्हणजे वाल्मिकी ऋषींमध्ये झालेले रूपांतर फारच रंजक व वेगळ्याच उंचीवर घेऊन जाते. रामनाम, मनापासून झालेला पश्चाताप व स्वतः मध्ये बदल घडवण्याची प्रामाणिक इच्छा काय करू शकते याचे उत्तम उदाहरण म्हणजे वाल्मिकी ऋषी.

मला असे माहिती होते की नारद मुनींच्या सांगण्यानुसार वाल्मिकींनी तप सुरु केले. पण तेही सत्य समजले व नारदांकडून पुढील कार्याची प्रेरणा मिळाली हेही समजले. देवर्षी व ब्रह्मदेव यांच्या भेटीचा वृत्तांत अतिशय रोचक व अध्यात्मिक उंचीवर घेऊन जातो. विशेषतः मनुष्य आपल्या कर्माने भाग्यरेषा बदलू शकतो– हे मनुष्याच्या हातात आहे–  हे विशेष महत्वाचे वाटले.

त्यांनी रामकथा कशी लिहिली? याचे उत्तर मिळाले. खरोखरच दिव्य शक्तींच्या आशीर्वादाशिवाय हे शक्य नाही. रामकथा त्यांच्या डोळ्यासमोर कशी साकारली हेही समजले.—- वाल्मिकी ऋषींनी रामायण काव्यात समाजाला उपयोगी व चिरंतन तत्वे रंजक रीतीने मांडली आहेत. हजारो वर्षांपूर्वी लिहिलेले आदर्श आजही उपयुक्त आहेत. मानवी भावभावना अतिशय उत्तम रीतीने साकारल्या आहेत. त्यातून आदर्श राजा, समाज याची चिरकाल टिकणारी शिकवण मिळते.

हे पुस्तक खूप अभ्यासपूर्वक आपल्या समोर आले ( माझ्या माहिती प्रमाणे हे एकमेव असावे ), आणि बरीच माहिती मिळाली. गैरसमज दूर झाले. वाल्मिकी खरंच महान होते. इतके चिरकालीन टिकणारे महाकाव्य लिहून ठेवले, मात्र स्वतःची माहिती कुठेच ठेवली नाही. 

आपल्यापर्यंत महर्षी वाल्मिकी यांचा जीवनपट आपल्या लिखाणातून पोहोचवणाऱ्या देशपांडे सरांचे मनापासून आभार ! कितीही आभार मानले तरी कमीच आहेत.

परिचय – विभावरी कुलकर्णी

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 75 – गीत – ज्ञान का दीपक जलाकर… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण एवं विचारणीय सजल “चलो अब मौन हो जायें…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 75 – गीत – ज्ञान का दीपक जलाकर…

ज्ञान का दीपक जलाकर,

तिमिर से हम मुक्ति पाएँ।

गीत हम सद्भावना के,

आइए मिल गुनगुनाएँ ।

 

सृजन के प्रहरी बने सब,

प्रगति की हम धुन सजाएँ।

देश में उत्साह भरकर,

नव सृजन का जश्न गाएँ।

 

सूर्य जैसा दमक सके न,

पछताना न इस बात पर।

जग मगाना सीख लेना,

लघु-दीपकों से रात-भर ।

 

खुश रहे इस देश में सब,

दर्द कोई छू न जाए।

द्वार में दीपक रखें मिल,

रूठने कोई न पाए।

 

बेबसों के अश्रु पौछें,

साथ में उनके खड़े हों।

लड़खड़ाते चल रहे जो,

दें सहारा तब बड़े हों ।

 

यदि भटक जाए पथिक तो,

मार्ग-दर्शक बन दिखाएँ।

हो सके तो मंजिलों तक,

राह निष्कंटक बनाएँ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का प्रथम भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ?

(दिसंबर 2017)

पंजाबी संस्कृति  से मेरा परिचय विवाहोपरांत ही हुआ। इस क्षेत्र की  भाषा , खान-पान , तीज -त्योहार आदि से मेरा नज़दीक से  साक्षात्कार हुआ। इससे पूर्व बाँग्ला संस्कृति,साहित्य और भाषा के बीज हमारे माता-पिता द्वारा  हृदय की बड़ी गहराई में बो दिए गए थे।

ससुराल में सभी से भरपूर स्नेह मिला साथ ही ससुर जी जिन्हें हम सब बावजी (बाबूजी शब्द का अपभ्रंश) कहते थे,पंजाब की जानकारी और नानक साहब के जीवन की लघु कथाओं से मुझे परिचित करवाते रहे।

धीरे – धीरे गुरुद्वारे के वातावरण को देख मेरे मन में विश्वास और आस्था घर करती गई ।साथ ही विभिन्न गुरुद्वारों के दर्शन की इच्छा मन में पनपती रही। यह  स्वर्णिम अवसर भी अपने जीवन में मुझे समय – समय पर मिलता रहा।

अपने इस संस्मरण में विभिन्न गुरुद्वारों की यात्रा का विवरण उपस्थित कर रही हूँ।

हम कुछ सहेलियाँ  रान ऑफ कच्छ फेस्टिवल  देखने के लिए रवाना हुए। कच्छ के कई दर्शनीय स्थल जैसे विजय विलास महल, मांडवी, कालोडुंगर, सफेद रेगिस्तान, प्राग महल  और कुछ छोटे- गाँव देखने के बाद तथा फेस्टिवल के चार दिन तक भरपूर  आनंद लेने के बाद हम भुज पहुँचे। दूसरे दिन सुबह हम सब लखपत  के लिए रवाना हुए।

लखपत भुज से 134 कि. मी के अंतर पर है।यह कच्छ का अंतिम छोर है।

आज लखपत में  एकांत है। दूर तक एक लंबी चौड़ी दीवार फैली है जो किसी समय किला का हिस्सा थी। भीषण भूंकप के कारण सब कुछ नष्ट हो गया। किले की दीवार भी दरारों से पटी पड़ी है।वहाँ से जब हवा गुज़रती है तो डरावनी आवाज़ आती है इसलिए इस गाँव को उजड़ा भूतिया गाँव कहा जाता है।

जिस लखपत में एक समय 10,000 लोग रहते थे , बारंबार भूकंप के बाद धीरे -धीरे आबादी घटती गई और आज यहाँ गिनकर शायद सौ लोग रहते हैं।

आज यहाँ संपूर्ण वीरानगी है। गुरुनानक के समय इसे बस्ता बंदर कहा जाता था क्योंकि यह व्यापार का एक बड़ा बंदरगाह था। खूब व्यस्त जगह हुआ करती थी ।समुद्री मार्ग से कई देशों से माल आता था और फिर ऊँटों की सहायता से गुजरात , सौराष्ट्र तथा कच्छ तक व्यापारी माल ले जाते थे। व्यापारी  वर्ग बड़ी संख्या में यहाँ रहा करते थे। बंदरगाह में हलचल रहती थी। काफी लोग यहाँ व्यापार करके धनी लखपति  बन गए थे इसीलिए बस्ता बंदर आगे चलकर लखपत  के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यहाँ आकर भारत की सीमा समाप्त होती है। इसके बाद आपको विशाल अरब सागर दिखाई देगा। किले की दीवार पर चढ़कर अगर आप समुद्र की ओर देखें तो यहाँ चलती साँए -साँए करती हुई हवा और किले की दीवारों से टकराती -लौटती लहरें संपूर्ण एकांतवास की कथा सुनाती हैं। आज यहाँ शायद ही कोई  पर्यटक आता है। आज यहाँ कुछ नहीं है पर फिर भी सिक्ख समुदाय के लिए यह एक पुण्य भूमि है।

सन 1506 -1513 और  1519-1521 –  यह उस समय की बात है जब नानक साहब विश्व भ्रमण करने और अपने सिद्धांतों से संसार को परिचित करवाने निकले थे।

 उनकी इस यात्रा को उदासी कहा जाता है। जिसका अर्थ है संपूर्ण रूप से संन्यास ग्रहण करना। यद्यपि नानक साहब का परिवार था,संतानें थीं  पर वे भीतर ही भीतर समाज में एक अलग प्रकार से जागरूकता लाना चाहते थे। उस समय हमारा समाज न केवल मुगलों को झेल रहा था,बल्कि लोगों का  धर्म परिवर्तन भी बड़ी संख्या में  किया जा रहा था। शूद्र जाति के साथ छुआछूत के तहत समाज में उथल -पुथल भी मची हुई थी।

नानक साहब अपने जीवन के बीस वर्ष  पैदल ही चलकर यात्रा करते रहे। उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी थे।

लखपत वही स्थान है जहाँ से गुरु नानक अपनी दूसरी और चौथी उदासी यात्रा  के दौरान यहाँ पर कुछ दिन रहे थे फिर यहीं से वे मक्का के लिए रवाना हुए थे। उन दिनों मक्का में आज की तरह इतनी सुरक्षा की तीव्रता नहीं थी।

आज यहाँ एक सुंदर साफ़ -सुथरा सफेद रंग से पुता हुआ गुरुद्वारा है।साथ में छोटा सा बगीचा भी है। गुरुद्वारे में दो छोटे कमरे हैं। एक कमरे में ,कमरे के बीचोबीच  ग्रंथसाहब चौकी पर है। इस कमरे के द्वार की ऊँचाई  बहुत कम है। झुककर ही कमरे में प्रवेश कर सकते हैं।संभवतः यात्रियों को स्मरण दिलाने के लिए कि ईश्वर के दरबार में सिर झुकाकर ही प्रवेश करना है।

हम सभी सखियों ने सिर ढाँककर कमरे में प्रवेश कर ग्रंथ साहिब को नमन किया।इसी कमरे से बाहर निकलने पर बाईं ओर और एक छोटा कमरा है जहाँ नानक साहब की पादुका और पालकी रखी गई  है। सोलह सौ शताब्दी की पूजनीय वस्तुओं के दर्शन से हम सभी भावविभोर हो उठीं। कमरे के बाहर एक छोटा सा लकड़ी के नक्काशीदार खंभों का बरामदा है, हम सब थोड़ी देर वहीं पर बैठे।मन को बहुत सुकून का अहसास हुआ।

मुझे एक अलग प्रकार का रोमांच प्रतीत हुआ। मैं अपने इस पंजाबी सिक्ख मिड्डा  परिवार की प्रथम सदस्य थी  जिसे नानक साहब की पादुका का और उनकी यात्रा का साधन  पालकी के दर्शन करने का सुअवसर मिला।

हम महिलाओं को देखकर वहाँ के पाठी सामने आए, सतश्रीकाल कहकर हमारा अभिवादन किया और कहा कि हम लंगर में शामिल हों।

स्वच्छ परिसर , सब तरफ लाल टाट के बने गलीचे लगे हुए थे।एक सिक्ख पाठी, एक सहायक और एक मुसलमान स्त्री ये ही गुरुद्वारे की सेवा में रहते हैं। हमने धुली  हुई थाली ,चम्मच उठा ली और हमें बहुत स्नेह और आतिथ्य के साथ दाल रोटी और सब्जी का प्रसाद मिला। हमने भोजन के बाद बर्तन नल के  बहते पानी से माँजकर रखे। हर गुरुद्वारे का यही नियम है।

आज यह स्थान स्थानीय सिक्ख समुदाय तथा गुरुद्वारा श्री गुरु नानक सिंह सभा गाँधीधाम की देखरेख में है। भीषण भूंकप के बाद भी इस गुरुद्वारे को सुरक्षित रखे जाने की वजह से  सन 2004 में UNESCO Asia-Pacific Award भी इस स्थान को मिला है।।

नानक साहब सिमरन, अरदास और समुदाय में बैठकर भोजन अर्थात लंगर इनका महत्त्व समझा गए हैं। जाति, धर्म ,वर्ण आदि में किसी प्रकार का कोई  भेद न रखते हुए सबको अपना समझ सबके साथ भोजन करने की शिक्षा दे गए थे।

नानक जी ने करतारपुर गाँव में प्रथम गुरुद्वारे की स्थापना की थी। अपने जीवन के अठारह वर्ष वे यहीं रहे। सत्तर वर्षीय की अयु में उन्होंने इसी गाँव में देह त्याग दी।

एक ओंकार, शबद अर्थात ग्रंथसाहब में लिखी गुरुवाणी ही उनकी सबसे बड़ी देन है। किसी पंडित या पूजा की आवश्यकता नहीं।हर व्यक्ति अपनी तरह से ईश्वर का स्मरण कर सकता है, ईश्वर एक है। उसकी स्तुति में गीत गा सकता है।समाज में कारसेवा और सबके साथ बाँटकर साँझे चूल्हे पर भोजन पकाकर मिलकर खाना ताकि कोई भूखा न सोए यही आज तक चलती आई नानक साहब की सीख है।

 करतारपुर जाना तो एक सपना ही रहेगा पर लखपत की यात्रा अविस्मरणीय है।

 क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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