हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 01 ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… नागालैंड… ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

संक्षिप्त परिचय

सुश्री ऋता सिंह जी शिक्षिका हैं। पिछले चालीस -पैंतालीस वर्षों से हिंदी अध्ययन कर रही हैं। हिंदी के साथ -साथ मराठी, अंग्रेज़ी ,पंजाबी तथा मातृभाषा बाँगला भाषा पर  भी अच्छी पकड़ है। पिछले सोलह वर्षों से लैंग्वेज कन्सल्टेंट ऍन्ड टीचर ट्रेनर के रूप में भी सेवा प्रदान करती आ रही हैं। बच्चों के मन में हिंदी भाषा के प्रति प्रेम निर्माण करने हेतु भाषा पर  विविध खेलों द्वारा अपनी छोटी – सी संस्था चलाती हैं। छात्रों को भाषा सीखने में आसानी हो इसलिए कई खेलों का निर्माण  किया है। आपने देश -विदेश का प्रचुर भ्रमण किया है। यात्रा वर्णन पर लेख लिखने में आनंद लेती हैं। कहानी, कविता ,संस्मरण आदि सभी क्षेत्र में लिखने में रुचि रखती हैं। हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे द्वारा हिंदी श्री से 2021 में सम्मानित की गई हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –

  • खेल -खेल में सीखें हिंदी ( भाग 1 से 5)
  • नानीमाँ की झोली से – सचित्र द्विभाषीय पुस्तकें (दो प्रकाशित हुईं हैं )
  • प्रतिबिंब – कविता संग्रह
  • पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानी संग्रह
  • स्मृतियों की गलियों से – संस्मरण संग्रह
  • अनुभूतियाँ – कहानी संग्रह

(सुश्री ऋता सिंह जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आपने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख साझा करना स्वीकार किया है। इसके लिए हार्दिक आभार। अब आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…नागालैंड… .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 01 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… नागालैंड…  – ?

भारत तीर्थस्थलों का देश है। साथ ही अनेक राज्य अपनी संस्कृति, त्योहार खान-पान की विविधता और  विशेषता के लिए भी प्रसिद्ध है। धर्म,जाति,भाषा,आहार सब कुछ अलग अलग होने के बावजूद भी संपूर्ण देश एक अदृश्य सूत्र से बँधा है और वह है भारतीयता।

इसी सूत्र और रंगीन भूमि के त्योहारों का आनंद लेने इस वर्ष 2022 में हमारे परिवार ने नागालैंड की यात्रा का निर्णय लिया।

अब संपूर्ण भारत में यातायात के साधन भरपूर उपलब्ध हैं। पर्यटक तो अब नियमित रूप से विमान, रेलगाड़ी तथा  अपनी मोटरगाड़ी द्वारा भी यात्रा करते दिखाई देते हैं। हमारे महामार्ग अत्यंत सुलभ, सुंदर और सुविधाजनक बनाए गए हैं। सभी राज्य अब महामार्गों द्वारा जुड़े हुए भी हैं।

नागालैंड में प्रतिवर्ष हॉर्नबिल फेस्टीवल मनाया जाता है। यह त्योहार प्रति वर्ष 1 दिसंबर से 10 दिसंबर तक मनाया जाता है। इस स्थान में सत्रह आदिवासी (ट्राइबल कम्यूनिटी)  वास करते हैं। इस भूभाग पर हॉर्नबिल नामक पक्षियों की प्रजाति बहुसंख्या में पाए जाते थे। यहाँ के नागा जाति के आदिवासी अपने सिर पर हॉर्नबिल पक्षी के पंख लगाते हैं। इन पंखों को प्राप्त करने की उत्कट इच्छा ने आज इस सुंदर पक्षी की प्रजाति को प्रायः विलुप्त होने के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।

सन 2000 में यहाँ पर पहली बार सभी आदिवासी प्रजातियाँ एकत्रित हुईं और पहली ही बार फेस्टीवल मनाया गया। इसका मूल उद्देश्य था नागा आदिवासियों की आपसी मतभेदों को दूर करना, उनकी  संस्कृति से राष्ट्र के अन्य प्रदेशों को परिचित कराना तथा देश की मुख्य धारा से उन्हें जोड़ना। इस उत्सव ने न केवल नागा जन जातियों की संस्कृति को पुनर्जीवित किया बल्कि नागालैंड की सुंदरता से पूरे संसार को परिचित भी कराया।

नागालैंड भारत के उत्तरी -पूर्व राज्यों में से एक है। यहाँ के सभी राज्य सदा से ही उपेक्षित रहे और भारत के बाकी राज्यों से कुछ हद तक कटे भी रहे। सन 1962 में  इसे अलग राज्य का स्टेटस मिला। फिर भी राज्य उपेक्षित ही रहा।

सन 2000 से हॉर्नबिल फेस्टीवल देखने के लिए दर्शकों की संख्या बढ़ने लगीं तो होटल और होम स्टे की व्यवस्था भी होती रही। बड़ी संख्या में होटल खुले और विदेशों से भी यात्री इस रंगीन उत्सव का आनंद लेने आने लगे। नागावासियों का उत्साह बढ़ा,शहर स्वच्छ बनते रहे और लोगों को काम मिलने लगा। इस तरह वे अपनी पहचान बनाने लगे, भारत के मानचित्र ही नहीं संसार के मानचित्र पर उनकी चमक और पहचान बनी। बल्कि नागा आदिवासियों की संस्कृति फिर एक बार जागृत हुई।

आपको नागालैंड के निवासी भारत के अन्य राज्यों में कम ही दिखाई देंगे। वे सेल्फ शफीशियंट प्रजातियाँ तो हैं ही साथ ही उनसे बातचीत करने पर एक और बात सामने आई कि वे भारत के अन्य राज्यों में अपने अलग चेहरे,कद -काठी और भोजन आदि के कारण सहर्ष स्वीकृत नहीं हैं। यह अत्यंत दुख की बात है।

कोहीमा  नागालैंड की राजधानी है। पर यह शहर पहाड़ों से घिरा होने के कारण यहाँ पर रेलवे और हवाई अड्डे की व्यवस्था नहीं है। इस शहर से सत्तर किलोमीटर की दूरी पर दीमापुर नामक शहर है। यहाँ एक छोटा -सा हवाई अड्डा है, रेलगाड़ी की सुविधा उपलब्ध है। यह नागालैंड का सबसे बड़ा शहर है। ऑटोरिक्शा, टैक्सियाँ और प्राइवेट टैक्सियाँ भी उपलब्ध हैं। सभी पर्यटक दीमापुर तक आते हैं और आगे की यात्रा टैक्सियों द्वारा पूरी करते हैं।

दीमापुर शहर की भीतरी सड़कें खास ठीक नहीं क्योंकि उपेक्षित राज्य होने के कारण रास्तों की मरम्मत संभवतः कभी की ही न गई होगी। लेकिन हॉर्नबिल फेस्टीवल के चलते दीमापुर से कोहीमा तक का रास्ता बहुत ही सुंदर और शानदार बनाया गया है जिस कारण डेढ़ -दो घंटों में टैक्सी द्वारा कोहीमा पहुँचा जा सकता है। यहाँ सड़कों के किनारे लोकल फलों की दुकानें दिखाई देती हैं। मीठे और सस्ते अनन्नास का हमने भरपूर स्वाद लिया। यहाँ लंबे -लंबे अनन्नास काटकर, मसाले लगाकर एक पतली बाँस की सलाख  उसमें ठूँस देते हैं जिससे इसे खाने में सुविधा हो जाती है। हमने बचपन को याद करते हुए इसका आनंद लिया।

हॉर्नबिल फेस्टीवल  कोहिमा में आयोजित किया जाता है। कोहिमा से 12 किलोमीटर की दूरी पर किसामा नामक छोटा -सा कस्बा है जहाँ पिछले 22 वर्षों से उत्सवों का उत्सव हॉर्नबिल फेस्टीवल मनाया जाता  आ रहा है।

यहाँ की आबादी  ईसाई धर्म को मानती है। 2022 का  वर्ष इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा कि इस राज्य में  ईसाई धर्म की नींव रखे 150 वर्ष पूरे हुए हैं। इसका भी हर्षोल्लास सुसज्जित शहर को देखकर लगाया जा सकता है। क्रिसमस इनका सबसे बड़ा त्योहार है।

हर भारतीय को नागालैंड आने से पूर्व ILP ( Internal line of permit) लेने की अनिवार्यता होती है। यह ऑनलाइन उपलब्ध है। अगर आप इस उत्सव का हिस्सा बनना चाहते हैं तो जुलाई के महीने में ही बुकिंग कर लें कारण ऑक्तूबर माह से सभी होटल और होम स्टे बुक हो जाते हैं। हमने सितंबर में बुकिंग की थी और हमें ऊँची कीमत भरनी पड़ी। पाँच हज़ार वाले कमरे पंद्रह हज़ार में बुक होते हैं। इससे बचा जा सकता है।

हमारी यात्रा पुणे से प्रारंभ हुई,दिल्ली होते हुए  हम दीमापुर पहुँचे। लोग अपने शहरों से गुवाहाटी पहुँचकर भी रेल द्वारा दीमापुर पहुँच सकते हैं।

 दीमापुर लकड़ी और बेंत से बननेवाले वस्तुओं के कुटीर उद्योगों का शहर  है जो अपने आप में देखने लायक स्थान है। इसके आसपास कुछ गाँव भी हैं। इन गाँवों की महिलाएँ घर-घर में  सुंदर, आकर्षक, टिकाऊ विविध प्रकार की टोकरियाँ, फल रखने के बास्केट और हाथ करघे पर कई प्रकार की वस्तुएँ बुनती हैं। इन्हें बनाने में बहुत समय लगता है। यह इस क्षेत्र का सबसे बड़ा उद्योग है। हॉर्नबिल फेस्टीवल के दौरान बड़ी मात्रा में इन वस्तुओं और बेंत के फर्नीचर आदि की बिक्री होती है। हम इन्हीं गाँवों को देखना चाहते थे। हम जब गाँवों में पहुँचे तो तैयार माल हॉर्नबिल फेस्टीवल के लिए पैक किए जा रहे थे।

दीमापुर के बाज़ार में  घूमने पर ही  यहाँ के लोगों के  खानपान के तौर – तरीकों से हम परिचित हुए। नागा जाति के लोग दुबले-पतले तथा कद के छोटे होते हैं। शारीरिक श्रम तथा जलवायु के कारण हाई प्रोटीन डायट इनकी आवश्यकता होती है। इस कारण बाज़ार में आपको कई प्रकार के जीवित कीड़े, इल्लियाँ,रेशम कीड़े, मछलियाँ, मेंढक, टिड्डे, घोंघें,  केंचुएँ,आदि दिखाई देंगे। साथ ही यहाँ के निवासी सुअर तथा कुत्ते के माँस का भी बड़ी मात्रा में सेवन करते हैं। इसे डेलिकेसी कहते हैं। कुत्ते का माँस होटलों में नहीं दिए जाते परंतु सुअर का माँस बहुप्रचलित है। यह उनका भोजन है अतः उसका सम्मान करना हम सबका धर्म है।

हम दो सखियाँ शाकाहारी हैं, हमें शाकाहारी भोजन आसानी से ही प्राप्त हुए हैं। लोग अफवाह फैलाते हैं कि शाकाहारी भोजन की यहाँ व्यवस्था नहीं है। यह ग़लत है। हमें शाक सब्ज़ियाँ और कई प्रकार के फल बाज़ार में दिखाई  दिए। होटलों ने उत्तम शाकाहारी भोजन, सूप,सलाद आदि की व्यवस्था की और हम दोनों सखियों ने इसका भरपूर आनंद लिया।

यहाँ के लोग भात खाना पसंद करते हैं। भोजन में मसाले के रूप में कई जड़ी-बूटियों तथा शाक का उपयोग करते हैं। यहाँ शराब की दुकानें नहीं हैं। यहाँ के लोग घर -घर में राइस बीयर बनाते हैं। यह उनकी बहुप्रचलित मदिरा है।

तीन दिन दीमापुर में रहने के बाद हम लोगों ने खोनोमा होते हुए कोहिमा जाने का फैसला लिया।

खोनोमा एक छोटा –  सा गाँव है जिसे  एशिया का ग्रीनेस्ट विलेज कहा जाता है। वास्तव में यहाँ रहनेवाले गाँव वासी इस बात से वाकिफ़ हैं और वे अपने गाँव को बहुत साफ़ -सुथरा रखते हैं। जगह -जगह पर बेंत से बने कूड़ेदान के रूप में  टोकरियाँ रखी दिखाई दी। इस गाँव को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं जिस कारण यहाँ एक गाइड सेंटर भी खोला गया है, जहाँ पर प्रति सदस्य दो सौ रुपये देकर पैंतालीस मिनट में पूरा गाँव चलकर दिखाए जाने की व्यवस्था की गई है। गाँव में तीन हज़ार लोग रहते हैं। सभी ईसाई धर्म को मानते हैं। यह अंग्रेज़ों की देन है। आदिवासियों को वे अपने धर्म का जामा पहना कर गए और वे अपनी प्राकृतिक पूजा-पाठ से विमुख हो गए। खैर यहाँ धर्मों पर विवाद या झगड़े नहीं। यहाँ एक विशाल गिरिजाघर है और सभी उत्साह से क्रिसमस मनाते हैं। इस छोटे से गाँव में छह पाठशालाएँ हैं। शाम होते होते चार बजे बादल नीचे उतर आए और हरियाली से भरे जंगलों के पेड़ पौधों को ओस की बूँदों से सजाने लगे। यहाँ चार साढ़े चार तक अंधकार हो जाता है। ठीक उसी तरह यहाँ प्रातः भी साढ़े चार बजे सूर्यदेव दर्शन देते हैं। यहाँ से आगे हम छह किलोमीटर की दूरी पर कोहिमा पहुँचे।

कोहिमा छोटा सा शहर है, यहाँ खास दर्शनीय स्थल नहीं है। सुभाषचंद्र बोस इस शहर में कभी रहे थे और नागाओं का उन्हें साथ मिला था,इस इतिहास का वहाँ कहीं उल्लेख नहीं है। इस बात का हमें बहुत दुख हुआ। यहाँ  एक विशाल वॉर सेमिट्री है जहाँ ब्रिटिश सैनिकों के कब्र बने हुए हैं। पर्यटक इस स्थल को देखने जाते हैं। यहाँ दुकानें सात बजे तक खुल जाती है और चार बजे तक सब बंद भी कर दिए जाते हैं।

अर्ली टू बेड,अर्ली टू राइज़ यहाँ का मूल मंत्र है। लोग स्वस्थ,परिश्रमी तथा हँसमुख हैं।

हमें पूरे पर्यटन के दौरान एक भी भिखारी नज़र नहीं आया। यह एक बहुत बड़ी बात है। यहाँ आज भी संयुक्त परिवार की प्रथा है। घर के बड़े बूढ़ों का सम्मान सभी करते हैं। बुजुर्ग अपने घर के छोटे बच्चों के साथ काफी समय व्यतीत करते हैं।

हॉर्नबिल फेस्टीवल इस राज्य का आकर्षण बिंदु है, सभी वस्तुएँ बहुत कीमती हो जाती हैं। पाँच -छह किलोमीटर की यात्रा के लिए पाँचसौ रुपये लोकल टैक्सियाँ लेती हैं।

यहाँ मेरू,उबेर या ओला टैक्सियाँ नहीं चलतीं बल्कि काली-पीली टैक्सियाँ शेयर में चलती हैं। ये सुविधा सर्वत्र उपलब्ध है। यही लोकल ट्रान्सपोर्ट है। सड़कें पहाड़ी और संकरी हैं जिस कारण छोटी गाड़ियाँ बहुसंख्यक हैं। यहाँ गाड़ी पर कैरियर लगाने की इज़ाज़त नहीं है।

हॉर्नबिल फेस्टीवल

1 दिसंबर से यह पर्व प्रारंभ हुआ। पर्व प्रारंभ होने के कई माह पूर्व तैयारी शुरू होती है। यहाँ हर नागा आदिवासी अपने तौर-तरीके और खानपान की व्यवस्था के साथ अपने आवास की व्यवस्था का रेप्लिका प्रस्तुत करता है इसे मोरॉन्ग कहते हैं। इस वर्ष 17 प्रजातियों में से छह प्रजातियों ने हिस्सा नहीं लिया है। ये छह प्रजातियाँ मुख्य नागालैंड राज्य से अलग होने की माँग रखते हैं।

किसामा में पहुँचकर पर्यटक नागा जातियों के मोरॉन्ग पर जाकर समय व्यतीत कर सकते हैं। उनके साथ बातचीत कर तस्वीरें खींच सकते हैं। उनके भोजन का आनंद ले सकते हैं। वस्त्र तथा आभूषण भी खरीद सकते हैं। नागा अत्यंत मिलनसार जाति हैं। वे पर्यटकों के साथ समय बिताना भी पसंद करते हैं।

इस वर्ष देश के उपराष्ट्रपति श्री धनकड़ जी सपत्नीक इस उत्सव के लिए उपस्थित हुए। शाम को चार बजे कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। विशाल मैदान के एक तरफ मंच बना हुआ है तथा तीनों ओर पर्यटकों के बैठने की सुविधाजनक व्यवस्था है। स्वच्छ शौचालय की भी व्यवस्था है। ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस और इंग्लैंड के राजनीतिक उच्च पदाधिकारी तथा राज्यपाल इस वर्ष आमंत्रित थे। शहर के प्रमुख चर्च के मुख्य पादरी ने सभी को शुभकामनाएँ दी तथा प्रार्थना से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। नागालैंड के मुख्यमंत्री, पर्यटन विभाग के मंत्री, मान्यवर धनकड़ जी तथा विदेश से आए आमंत्रित सदस्यों ने अपने विचार प्रकट किए।

1 तारीख को कुछ ही नृत्य प्रस्तुत किए गए। एक नागा छात्रा ने गिटार पर राष्ट्रगीत बजाकर सबको मंत्र मुग्ध कर दिया।

2 तारीख सुबह 10 बजे से दर्शक एकत्रित होने लगे। 11.30 बजे तक विविध नागा प्रजातियों ने अपने नृत्य प्रदर्शन किए। फिर मोरॉन्ग दर्शन तथा नागा भोजन के लिए 1.30 बजे तक समय दिया गया। फिर कुछ नृत्य प्रदर्शन हुए और फिर शाम को 3बजे से अंग्रेज़ी और बॉलीवुड संगीत पर वहाँ के निवासियों ने नृत्य प्रदर्शित किए। इस तरह दस दिन कार्यक्रम चलते रहे।

नागाप्रजातियों के वस्त्र अत्यंत रंगीन होते हैं। लाल, काला और सफेद मूल रंग हैं। इन कपड़ों की बुनाई भी अलग तरीके से होती है। हर प्रजाति के स्त्री -पुरुष के सिर पर मुकुट जैसा पहना जाता है इसे हेडगीयर कहते हैं। हरेक के अस्त्र-शस्त्र अलग होते हैं। उनके गीत और उनकी पुकार भी अलग होती है। वे नृत्य प्रस्तुत करते समय खूब आवाज़ करते हुए आते हैं। वे नंगे पैर चलते हैं तथा पुरुषों का ऊर्ध्वांग वस्त्रहीन होता है। स्त्री -पुरुष के वस्त्र घुटने तक ही होते हैं। कुछ प्रजातियाँ अपने पैरों पर पेंटिंग करते हैं। सभी खूब आभूषण पहनते हैं।

हर प्रजाति अत्यंत अनुशासित दिखाई देती है।

प्रतिदिन जो नृत्य प्रस्तुत किए गए उनमें उनके जीवन के विविध पहलुओं को दर्शाया गया।

फसल काटे जाने, खलिहान में रखे जाने की कथा नृत्य द्वारा प्रस्तुत की गई।

नवविवाहित दंपत्ति विवाह में आए मेहमानों को उपहार देकर विदा करते हैं इस प्रचलन को नृत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया।

अपने अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग युद्धाभ्यास में किस तरह उपयोग में लाया जाता था तथा वॉर क्राय कैसी ध्वनि होती थी यह भी दर्शाया गया। कुल मिलाकर यह आनंददायी उत्सव रहा है।

आज नागालैंड के आदिवासी शिक्षित हैं, वे अलग अलग जगह पर नौकरी करते हैं। इसकारण अलग -अलग प्रकार के नृत्य के लिए अलग अलग अकादमी बनी हुई हैं जहाँ आज के छात्र-छात्राएँ नृत्य सीखने जाते हैं।

यहाँ की लिखित भाषा अंग्रेज़ी है। बाकी सबकी बोलियाँ अलग हैं। यहाँ के निवासी ऊँची आवाज़ में बात नहीं करते। पर्यटकों का सम्मान करते हैं तथा स्वभाव से अत्यंत मिलनसार होते हैं।

हमारी आगे आसाम और मेघालय की यात्रा तय थी इसलिए तीन दिन हम दीमापुर में रहे फिर तीन दिन हमने हॉर्नबिल फेस्टीवल का आनंद लिया और फिर अगली यात्रा के लिए रवाना हुए। अगली यात्रा काजीरंगा, शीलाँग, चेरापूंजी आदि स्थानों  की ओर थी। अतः हम पुनः दीमापुर लौट आए। एक रात रहकर अगली यात्रा प्रारंभ की।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 202 ☆ आलेख – नवाचार… — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – नवाचार …

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 202 ☆  

? आलेख – नवाचार…  – ?

https://www.ieindia.org इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है । यह प्राइवेट तथा शासकीय विभिन्न विभागों , इंजीनियरिंग शिक्षा की संस्थाओं, इंजीनियरिंग की सारी फेकल्टीज के समस्त इंजीनियर्स का एक समग्र प्लेटफार्म है । जो विश्व व्यापी गतिविधियां संचालित करता है । नालेज अपडेट , सेमिनार आयोजन , शोध जर्नल्स का प्रकाशन , इंजीनियर्स को समाज से जोड़ने वाले अनेक आयोजन हेतु पहचाना जाता है । यही नहीं स्टूडेंट्स चैप्टर के जरिए अध्ययनरत भावी इंजीनियर्स के लिए भी संस्था निरंतर अनेक आयोजन करती रहती है ।

इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है । लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रति वर्ष चुने गए प्रतिनिधि संस्था का संचालन करते हैं। संस्था के सदस्य सारे देश में फैले हुए हैं अतः चुनाव के लिए ओ टी पी आधारित मोबाइल वोटिंग प्रणाली विकसित की गई है।

जब देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या सीमित थी तो इंस्टिट्यूशन ने बी ई के समानांतर ए एम आई ई डिग्री की दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से परीक्षा लेने की व्यवस्था की । अब इंजीनियरिंग कालेजों की पर्याप्त संख्या के चलते AMIE में नए इनरोलमेंट तो नहीं किए जा रहे किंतु पुराने विद्यार्थियों हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तिहरे  सुरक्षा कवच के साथ आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की गई है ।

मुझे अपने कालेज के दिनों में इस संस्था के स्टूडेंट चैप्टर की अध्यक्षता के कार्यकाल से अब फैलो इंजीनियर्स होने तक लगातार सक्रियता से जुड़े रहने का गौरव हासिल है । मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से चुनाव में चेयरमैन बोर्ड आफ स्क्रुटिनाइजर्स और परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया है ।
इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 27 – किसान बाज़ार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 27 – किसान बाज़ार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत गुरुवार के दिन यहां विदेश में किसान बाज़ार जाने का अवसर मिला तो लगा की अपने देश के समान छोटे किसान गठरी में अपने उत्पाद विक्रय करने आते होंगे। जो अधिकतर मुख्य सब्जी मंडी के आस पास सुबह के समय आकर ताज़ी सब्जियां सस्ते में विक्रय कर देते हैं।

यहां का माहौल कुछ अलग ही है। किसान अपने-अपने तंबू नुमा काउंटर में कुर्सी पर बैठ कर सब्जियों, अंडे, शहद इत्यादि विक्रय कर रहे थे। उनका विक्रय मूल्य सामान्य से कुछ अधिक था। बाज़ार बंद होने के समय उनसे पूरा ढेर के लिए छूट पूछी तो बताया यहां के भाव तय हैं। सभी किसान अपने समान सहित छोटे वातानुकूलित ट्रक/वैन इत्यादि में भरकर रवाना हो गए। हमारे किसान तो लाए गए उत्पाद को औने पौने दाम में विक्रय कर ही वापिस जातें हैं। यहां के किसान के पास वातानुकूलित स्टोरेज की उत्तम व्यवस्था जो उपलब्ध हैं।

किसान बाज़ार के प्रचार में भी “स्थानीय खरीद को प्राथमिकता दिए जाने ” का संदेश है,हमारे देश में भी आजकल “Vocal for Local” की ही बात हो रही हैं।

एक चीज़ और हमारे देश जैसी अवश्य देखने को मिली,यहां भी एक वृद्ध सज्जन अपने तंबू में चाकू/ छुरियां की धार तेज कर रहे थे। उनसे बातचीत हुई तो जानकारी मिली कि वे एक सेवानिवृत हैं, और अपने को व्यस्त रखने के लिए ये रोज़गार अपना लिया है। वो भी अपना ताम झाम समेट अपनी वैन से चले गए। हमारे देश में तो चाकू तेज़ करने वाले पैदल या साइकिल का ही उपयोग कर अपना जीवकोपार्जन करते हैं। यहां पर जीवन और व्यवसाय में सुविधायुक्त साधन उपलब्ध है,इसलिए श्रम का उपयोग सीमित हैं। विदेश में श्रम को सबसे मूल्यवान माना जाता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 155 – माता की चुनरी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “माता की चुनरी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 155 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 🚩 माता की चुनरी 🚩❤️

सुशील अपनी धर्मपत्नी सुरेखा के साथ बहुत ही सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था। सदा अच्छा बोलना सब के हित की बातें सोचना, उसके व्यक्तित्व की पहचान थी।

दोनों पति-पत्नी अपने घर परिवार की सारी जरूरतें भी पूरी करते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के साथ-साथ सहयोग की भावना से भरपूर जीवन बहुत ही आनंदित था। परंतु कहीं ना कहीं कहते हैं ईश्वर को कुछ और ही मंजूर होता है। विवाह के कई वर्षों के उपरांत भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हो सका था।. 

सुशील का प्रतिदिन का नियम था ऑफिस से छुट्टी होते ही गाड़ी पार्किंग के पास पहुंचने से पहले बैठी फल वाली एक सयानी बूढ़ी अम्मा से चाहे थोड़ा सा फल लेता, परंतु लेता जरूर था। बदले में उसे दुआएँ मिलती थी और वह उसे पैसे देकर चला जाता।

आज महागौरी का पूजन था। जल्दी-जल्दी घर पहुँचना चाह रहा था। अम्मा ने देखा कि आज वह बिना फल लिए जा रहा है उसने झट आवाज लगाई… “बेटा ओ बेटा आज बूढ़ी माँ से कुछ फल लिए बिना ही जा रहा है।” विचारों का ताना-बाना चल रहा था सुशील ने कहा…. “आज कन्या भोज है मुझे जल्दी जाना है कल ले लूंगा।”

अम्मा ने कहा… “फल तो लेता जा कन्या भोज में बांट देना।” पन्नी में दो तीन दर्जन केले वह देने लगी सुशील झुक कर लेने लगा और मजाक से बोला…. “इतने सालों से आप आशीर्वाद दे रही हो पर मुझे आज तक नहीं लगा।” कह कर वह हँसने लगा।

उसने देखा अम्मा की साड़ी का आँचल जगह-जगह से फटा हुआ है। और वह कह रही थी… “तेरी मनोकामना पूरी होते ही माता को चुनरी जरूर चढ़ा देना।”

जल्दी-जल्दी वह फल लेकर घर की ओर बढ़ चला। घर पहुँचने पर घर में कन्याएँ दिखाई दे रही थी और साथ में कुछ उनके रिश्तेदार भी दिखाई दे रहे थे।

माँ और पिताजी सामने बैठे बातें कर रहे थे और सभी को हँसते हुए मिठाई खिला रहे थे।” क्या बात है? आज इतनी खुशी हमेशा तो कन्या भोजन होता है परंतु आज इतनी सजावट और खुशहाली क्यों?” अंदर गया बधाइयों का तांता लग गया।

“बधाई हो तुम पापा बनने वाले हो!” सुशील के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा सुरेखा ने हाँ में सिर हिलाया। शाम ढलने वाली थी सुशील की भावना को समझ सुरेखा ने मन ही मन हाँ कह कर तैयारी में जुट गई।

 सुशील बाहर निकल कर गया। साड़ी की दुकान से साड़ी चुनरी और जरूरत का सामान ले वह फल वाली अम्मा के पास पहुँचा और कहा… “अभी घर पर आपको फलों की टोकरी सहित बुलाया है। चलो।” अम्मा ने कहा… “थोड़े से फल बच्चे हैं बेटा बेंच लूं।” सुशील ने कहा….. “नहीं इसी को टोकरी में डाल लो और अभी मेरे साथ गाड़ी में चलो।” उसने सोचा नेक दिल इंसान है और प्रतिदिन मेरे से सौदा लेता है। हमेशा आने को कहता है आज चली जाती हूं उनके घर।

दरवाजे पर पहुँचते ही उसकी टोकरी को रख सुशील उसे दरवाजे पर ले आया। सामने चौकी बिछी थी उसमें बिठाने लगा। वह आश्चर्यचकित थी परंतु हाथ पकड़कर उसने उसे बिठा दिया। फूलों का हार और सुंदर सी साड़ी चुनर लिए सुरेखा आई।

साड़ी भेंट कर वह हार पहना चुनर ओढा रही थी। अब तो अम्मा को सब समझ में आ गया। खुशी से वह नाचने लगी। सभी की आँखें खुशी से नम थी। सुशील की आँखों से बहते आँसू देख, अपने हथेलियों पर वह रखते हुए बोली… “मोती है इसे बचा कर रखना बिदाई पर देने पड़ेंगे।” आशय समझकर सुशील हंसने लगा। माता रानी के जयकारे लगने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पालवी…. ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पालवी… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

माझ्या रानात,रानात

तुझ्या झाडाची पालवी

गर्द सावल्या,सावल्या

माझ्या मनाला झुलवी

 

जस सपान, सपानं

एक असाव घरटं

दोन पाखरं,पाखरं

गुज प्रेमाच चावट.

 

गं तुझ हिरवं लेण

माझ्या काळजात ठाण

काळी पांघर हलते

तुला जल्माचीच आण.

 

वारा धावतो,धावतो

सुसाट पिसाट खुळा

वर आभाळ,आभाळ

चुंबते ओढ्याच्या जळा.

 

आता बांधात,बांधात

सळसळ चाल धुंद

झाली चाहुल-चाहुल

सांज येळची ही मंद.

 

पुन्हा भेटशी भेटशी

अशी दुपार वकत

तुझ्या पालवीत जीव

आयुष्य गेले थकत..

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #181 ☆ यादवी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 181 ?

☆ यादवी… ☆

नको झोपताना उगा यादवी

इथे श्वास गातात रे भैरवी

 

पतीदेव मानून भजते तुला

तुझे वागणे का असे दानवी

 

प्रशंसा करावी अशा या कळ्या

स्वतःची न गातात त्या थोरवी

 

जरी रुक्ष आहे इथे खोड हे

जपे ओल शेंड्यावरी पालवी

 

किती विरह रात्री धरा सोसते

सकाळी धरेला रवी चाळवी

 

प्रकाशा तुझा चेहरा देखणा

हवा तीव्र होता दिवा मालवी

 

पहाटे पडावा सडा अंगणी

अपेक्षा इथे मातिची वाजवी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 132 – भाव हमारे, भाव तुम्हारे… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – भाव हमारे, भाव तुम्हारे…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 132 – भाव हमारे, भाव तुम्हारे…  ✍

भाव हमारे, भाव तुम्हारे, ज्यों नदिया के कुल किनारे

 

जैसा जैसा सोचा तुमने

वैसा वैसा सोचा हमने

हुए पराये पल में अपने

पलने लगे आँख में सपने

सपने भी तो लगते प्यारे, सपन तुम्हारे, सपन हमारे।

 

जनम जनम तड़पाया तुमने

खूब प्यास भोगी है हमने

अब जाकर पहचाना तुमने

तुमको सबकुछ माना हमने।

 

मुश्किल खुले अघर के द्वारे, धन्यवाद दो शब्द उचारे

ढाई आखर भाव तुम्हारे, ढाई आखर भाव हमारे।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 131 – “ऐसी क्या सामाजिक रचना होती है शहरी?…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  ऐसी क्या सामाजिक रचना होती है शहरी?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 131 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

ऐसी क्या सामाजिक रचना होती है शहरी?… ☆

कपडा धोने की मशीन को

देख देख महरी

मेरी कब होगी यह उसकी

इच्छा है गहरी

 

हाथों में छाले मलकिन क्यों

भोंका करती है

बात बात पर उसको यों ही

टोका करती है

 

इतना समझाती पर मेरी

सुनती नहीं कभी

मुझ को लगता हो बैठी वह

निश्चित ही बहरी

 

एक रबर की इक टायर की

चप्पलको पहने

एल्यूमिनियम के हाथों में

शोभित हैं गहने

 

और क्षीण जर्जर साड़ी

का मतलब बेमानी

इसकी काया पर लोगों की

नजरें हैं ठहरी

 

शीश झुका लोगों के घर में

आती जाती है

बेचारी मरते खटते

खुद से शरमाती है

 

लोगो की आदत स्वभाव को

जान चुकी रमिया

ऐसी क्या सामाजिक रचना

होती है शहरी ?

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-03-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 182 ☆ विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 182 विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ?

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”

जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।

सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।

विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका  एक  माइक्रो व्यंग्य – “उगलत लीलत पीर घनेरी...”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

कुछ दिनों से गंगू को कोई वामपंथी कहकर चिढ़ाता तो कोई दक्षिणपंथी कहता। गंगू जब तंग हो गया तो उसने अपने आप को टटोला, कुछ हरकतें वामपंथी जैसी दिखीं कुछ आदतें दक्षिणपंथी से मेल खाती मिलीं।

मां से पूछा -जब हम पैदा हुए थे तो वामपंथी जैसे पैदा हुए थे या दक्षिणपंथी जैसे ?

मां ने ज़बाब दिया- बेटा तुम्हारे पिता जी वामपंथी थे और मैं जन्म से दक्षिणपंथी थी जब तुम पैदा हुए थे तो तुम उल्टा पैदा हुए थे, ऊपर से दक्षिणपंथी और अंदर से वामपंथी।

मां की बातें सुनकर गंगू परेशान हो गया था, जंगल की तरफ भागकर गांव के पीपल के नीचे बैठकर चिंतन मनन करने लगा। थोड़ी देर बाद एक गांव वाला लोटा लिए कान में जनेऊ बांधे शौच को जाते दिखा।  गंगू ने रोककर पूछा – भाई ये बताओ कि इन दिनों मीडिया में वामपंथी और दक्षिणपंथी ‌की खूब चर्चा हो रही है। गांव वाले को जोर की लगी थी जनेऊ कान में उमेठते हुए बोला – जो जनेऊ न पहनें और जनेऊ बिना कान में बांधे शौचालय जाए फिर बाहर निकलकर  हाथ न धोये  वो वामपंथी और जो कान में जनेऊ लपेटकर दक्षिण दिशा में बैठकर शौच करे वो दक्षिणपंथी…

गंगू सुनकर सोचने लगा आगे चिंतन मनन करूं कि नहीं।

“फासले ऐसे भी होंगे, 

ये कभी सोचा न था,”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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