मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ बाबू समझो ईशारे, हारन पुकारे पम पम… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ बाबू समझो ईशारे, हारन पुकारे पम पम… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

… साठच्या दशकातील मुंबईचा हा ट्राम चा फोटो मला फेसबुकवर दिसला… मन भुतकाळात गेले… कितीतरी बालपणीच्या आठवणी त्या ट्रामशी निगडीत होत्या त्या एकेक मनचक्षूसमोर उभ्या राहत गेल्या…. मला आठवतंय ते किंग्ज सर्कल, आताचा माहेश्वरी उद्यान,ते काळा घोडा, आताचं जहांगीर आर्ट गॅलरीचा परिसर इतका तिचा प्रवासाचा पल्ला असे… हमरस्ताच्या मधोमध लोखंडी पट्ट्याच्या , रेल्वे लाईन सारख्या खाचा पडलेल्या मार्गिका होती. त्यात आठ चाकांची ट्राम खडखड करत येजा करत असे… ट्राम टर्मिनस (T.T.) म्हणून परेल टी. टी., दादर टी. टी. राणीबाग. टी. टी. सायन टी. टी. आणी फ्लोरा फाउंटन टी. टी. अशी मुख्य ठिकाणी ट्रामचा मोठा पसारा असे…ट्राम स्टेशनस होते… अधे मधे प्रत्येक नाका, चौकात, थिएटर जवळ, मार्केट जवळ स्टेशन असत…माळा असलेली, आणि नसलेली स्वरुपात ह्या ट्राम फिरत असत… दोन्ही टोकाकडे उतर दक्षिण चालक उभ्यानेच दोन्ही हातांने हॅंडल फिरवित असे.. बहुधा एक लिवरचा आणि दुसरा ब्रेकचा अशी ती हॅंडलची रचना असावी… शिवाय पायात एक नाॅब असे.. हॅन्ड गियर काम करत असे… चालक एकच आणि वाहक दोन असत… आताची लोकल आणि ट्राम जवळपास सारखी फक्त ट्राम ला डबे नव्हते… अगदी संथगतीने ट्राम धावत असे… चालत्या ट्राम मधून बऱ्याच वेळेला हवे तिथे धीराचे लोक चढ उतरतं करत असतं…मोठमोठाल्या खिडक्या, दारं, संपूर्ण लाकडाच्या बनावटीची अशी हि ट्राम एका लय पकडून धावत असे.. पाच पैसे तिकीट असताना मी प्रवास त्यातून केलेला मला चांगलाच आठवतो…रविवार सुट्टीच्या दिवशी तर दोन तास फेरफटका त्यातून केल्या शिवाय दिवस मावळत नसे.. खूप गंमतीशीर अनुभव येत असे.. हळूहळू मुंबईची वस्ती वाढू लागली आणि वाहतूकही वाढली.. रस्तावर गर्दी वाढत गेली.. रस्ते दुतर्फा वाढविण्यासाठी ट्रामची जागा बळकावली गेली आणि आणि सन 1966/67च्या आसपास ट्रामची घरघर बंद झाली…

आजही जुन्या हिंदी सिनेमात मुंबई दर्शन दिसताना ती धावणारी ट्रामची छबी पाहिली कि आठवणींची जिंगल बेल मनात कुठेतरी वाजत असते…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 140 ☆ सवाल पर बवाल… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सवाल पर बवाल…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 140 ☆

☆ सवाल पर बवाल ☆

डूबती नैया पर सवारी करने का फल यही होता है कि आपको अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए कोई सही तर्क ही नहीं मिलता और आप कुतर्कों के सहारे जुबानी जंग जीतने की कोशिश करने लग जाते हैं। किंतु आजकल तो हर बात रिकॉर्डेड होती जा रही, जरा सी चूक होने पर आपका अगला- पिछला सब कारनामा सामने हाजिर हो जाता है। अब तो अपनी बात पर अड़िग रहें या शब्दों की वापसी की घोषणा करते हुए कह दें कि मेरा ये मतलब नहीं था, मीडिया ने तोड़-मरोड़  कर मेरी बात को प्रस्तुत किया है।

इन्हीं चर्चाओं के बीच बहुत से प्रश्न और खड़े हो जाते हैं जिनका स्पष्टीकरण किसी के पास नहीं होता क्योंकि यहाँ भी अक्ष पर घूमने का सिद्धांत कार्य कर रहा होता है जो आज यहाँ है वो कल कहाँ होगा ये वो भी नहीं जानता है बस चलते रहो का अनुसरण करते हुए स्वयं को लाभान्वित करना मुख्य लक्ष्य होता है।

कहते हैं जो कार्य करेगा उस पर सवाल होगा, सो सवालों से न बचते हुए उसे हल करने की ओर चलें। वैसे भी आप किसी भी विचारधारा के हों आपको अनुयायी मिल ही जाते हैं। किसी भी मुद्दे को पकड़ कर उस पर पाँच साल तो क्या पूरा जीवन गुजारा जा सकता है, बस उसके इर्द- गिर्द मायाजाल रचते रहिए, समस्याओं को हल करने की ओर यदि आप लगे तो निश्चित है कि कुचक्र का शिकार होंगे अतः ऐसा कार्य करें जो आपको व्यस्त तो रखे साथ ही रोज नए सवालों को भी पैदा करता रहे, जब सवाल होंगे तो वबाल होगा और दिन – रात की तरह आजीवन मनुष्य गतिशील रहकर विचारों का मंथन करते हुए अपने को उपयोगी बनाए रखेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 200 ☆ आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा … π — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा …

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 200 ☆  

? आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा … π – ?

विश्व पाई दिवस के अवसर पर, जर्सी साइंस म्यूजियम के रास्ते पर फुटपाथ में लगा यह π की वैल्यू वाला प्रतीक 14 मार्च को पूरी दुनिया विश्व पाई दिवस मनाती  है। पाई डे की खोज सबसे पहले विलियम जोंस ने की थी।

विश्व पाई दिवस हर साल 14 मार्च को गणितीय स्थिरांक पाई को पहचानने के लिए मनाया जाता है। पाई का अनुमानित मान 3.14 है। पाई डे 2023 की थीम इस बार  Mathematics for Everyone है, जिसका प्रस्ताव फिलीपींस के ट्रेस मार्टियर्स सिटी नेशनल हाई स्कूल से मार्को जर्को रोटायरो ने दिया था।

जब तारीख को महीने/दिन के प्रारूप (3/14) में लिखा जाता है ( अमेरिकन स्टाइल यही है) तो यह पाई मान के पहले तीन अंकों – 3.14 से मेल खाता है।

हर वर्ष 14 मार्च 1:59:26 बजे विश्व पाई दिवस मनाया जाता है। क्योंकि इस वक्त दिन और समय का मान 3.1415926 होता है। और इस तरह 14 मार्च को पाई का मान सात अंकों तक शुद्ध पाया जाता है। अर्थात 3.1415926.

 पाई एक ग्रीक लेटर है, जिसका प्रयोग मैथमेटिकल कॉन्स्टैंट के तौर पर होता है।

 पाई के मूल्य की गणना सबसे पहले गणितज्ञ, आर्कमिडीज ऑफ सिरैक्यूज ने की थी। इसे बाद में वैज्ञानिक समुदाय ने स्वीकार किया जब लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में पाई के प्रतीक का इस्तेमाल किया। 14 मार्च का दिन इसलिए भी खास है, क्योंकि इस दिन ही महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म हुआ था।

फिजिसिस्ट लैरी शॉ ने 1988 में इस दिन को मान्यता दी थी।  यूनाइटेड स्टेट्स हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स ने 14 मार्च को पाई दिवस के रूप में मनाना शुरू किया और इसी तरह यूनेस्को ने भी पाई दिवस को ‘अंतर्राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर’ – सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री सुकीर्ति भटनागर जी  के बाल उपन्यास “धरोहर” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास- धरोहर 

उपन्यासकार- सुकीर्ति भटनागर 

प्रकाशक- साहित्यकार, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राजस्थान) 302003 मोबाइल नंबर 93142 02010

पृष्ठ संख्या- 114 

मूल्य- ₹250

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश‘, 

☆ समीक्षा- धरोहर के महत्व को रेखांकित करता उपन्यास ☆

उपन्यास का लेखन सबसे सरलतम विधा है। मगर उसके कथानक की बनावट और उपकथाओं का सृजन अपेक्षाकृत कठिन कार्य है। यदि इसका सृजन सरलता, सहजता व प्रवाह के साथ कर लिया जाए तो उपन्यास की रचना पूरी हो जाती है। तभी उपन्यास की गल्प रचना मुकम्मल और उत्कृष्ठ होती है।

उपन्यासकार को उपन्यास के कथानक में लिखने यानी विचार व्यक्त करने की संपूर्ण आजादी मिली होती है। वह अपने भावों, अपने विचारों और मनोरथ को अपनी मर्जी से उपन्यास की कथावस्तु में पिरो सकता है। उसका जो मन्तव्य हो उससे उपन्यास में डाल सकता है। इसी मन्तव्य से उपन्यास की सार्थकता सिद्ध होती है।

यदि बड़ों के लिए उपन्यास लिखा जाए तो उसमें संपूर्ण लेखकीय आजादी से कार्य किया जा सकता है। मगर यदि उपन्यास लेखन बालकों के लिए किया जाना है तो वह सबसे दुरुह यानी कठिन कार्य होता है। बच्चों के लिए लिखने में लेखक को बच्चा बनना पड़ता है। तब बच्चों के लिए लेखन किया जा सकता है।

बच्चों के लिखे लिए लिखे जाने वाले गल्फ के लिए उसकी कथा बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। वह बच्चों को स्पष्ट रुप में समझ में आ जाए। उसमें कोई कहानी हो। वह उसे अपनी-सी लगे। तभी बच्चा उपन्यास पढ़ने को लालयित होता है।

बच्चों के उपन्यास का आरंभ रोचक कथावस्तु के साथ होना चाहिए। उसे पढ़ते ही बच्चे में उत्सुकता जागृत हो जाए। वह आरंभ पढ़ते ही पूरा उपन्यास पढ़ने को लालयित हो। उस भाग के आरंभ के साथ एक जिज्ञासा का आरंभ और अंत में समाधान हो जाए। दूसरे भाग में दूसरी जिज्ञासा का आरंभ हो जाए। यह सिलसिला हरेक भाग में चले, तभी उपन्यास सार्थक होता है।

उपन्यास की भाषा शैली सरस, सहज हो। उसमें रस की प्रधानता हो। वाक्य छोटे-छोटे हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत उपन्यास धरोहर की समीक्षा करते हैं। जिसको लिखा है प्रसिद्ध उपन्यासकार सुकीर्ति भटनागर जी ने। उपन्यास को इस कसौटी पर करते हैं तब हम देखते हैं कि धरोहर उपन्यास की अपनी एक स्पष्ट कथावस्तु है। यह आरंभ से ही इसकी कथा में उत्सुकता जगाए रखती है।

उपन्यास का कथानक स्पष्ट है। एक गांव में कुछ अनिष्ट और अनैतिक रूप से घटित घटना होती है। जिसका समाधान धरोहर उपन्यास का बालपात्र अपने हिसाब व तरीके से करता है। इसी कथानक पर पूरे उपन्यास की कथावस्तु को बुना गया है।

उपन्यास के बाल पात्र अपनी समझ के अनुरूप समस्या का निरूपण करते हैं। उसी समस्या के द्वारा इसके सहायक पात्र उस समस्या का समाधान तक पहुँचते हैं। इस बीच अनेक उतार-चढ़ाव व समस्याएं आती हैं। उनका समाधान भी होता चला जाता हैं।

मसलन- उपन्यास की हरेक भाग में एक समस्या आती है। उसका समाधान अंत में हो जाता है। तत्पश्चात दूसरे भाग में दूसरी समस्या उत्पन्न होती है। उसका समाधान के साथ एक अन्य नई समस्या उत्पन्न हो जाती है।

इस तरह पूरा उपन्यास सरल, सहज व प्रवाहमई गति से जिज्ञासा जगाते हो आगे बढ़ता है।

उपन्यास की भाषा सरल व सहज है। कहीं-कहीं मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किया गया है। जहां आवश्यक हुआ है वर्णन के साथ-साथ उपयुक्त संवाद का प्रयोग किया गया है।

कुल मिलाकर देश की धरोहर की अनमौलता और उसकी उपयुक्तता को सहेजने के रूप में लिखा गया उपन्यास पाठकीय दृष्टि से बेहतर बन पड़ा है। 114 पृष्ठ के उपन्यास का मूल्य ₹250 बालकों के हिसाब से ज्यादा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 151 ☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 151 ☆

☆ बाल कविता – सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

राधाकृष्णन थे गुरू , अदभुत उन का ज्ञान।

पाँच सितंबर जन्मदिन, करे देश सम्मान।।

 

श्रेष्ठ विचारक, वक्ता , रखा दार्शनिक ज्ञान।

उत्कृष्ट लेखनी से बने , मानव एक महान।।

 

ईश्वर के प्रिय भक्त थे, बाँटा जग को प्यार।

सत्य बोलकर ही सदा, कभी न मानी हार।।

 

शिक्षक बनकर देश का, सदा बढ़ाया मान।

किया समर्पित स्वयं को, बाँटा सबको ज्ञान।।

 

प्रतिभा की सदमूर्ति थे, नहीं किया अभियान।

सदा पुण्य करते रहे, और बढ़ाई शान।।

 

लड़े सदा अज्ञान से, किया दूर अँधकार।

मिटा कुरीति ज्ञान से, किया सदा उद्धार।।

 

खुशी, प्रेम सत बाँटकर, करें सभी हम याद।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सदा रहे निर्विवाद।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #152 ☆ संत जनार्दन स्वामी…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 152 ☆ संत जनार्दन स्वामी…! ☆ श्री सुजित कदम

 जन्मा आले जनार्दन

देशपांडे घराण्यात

कृष्णातीरी औदुंबरी

दिला वेळ चिंतनात..! १

 

संत जनार्दन  स्वामी

कर्मयोगी उपासक

एकनाथ मानी गुरू

राजकार्यी प्रशासक…! २

 

यवनांची केली सेवा

देवगिरी गडावर

पद किल्ला अधिकारी

गिरी कंदरी वावर…! ३

 

धर्मग्रंथ पारायणे

एकांतात रमे मन

दत्तभक्ती ज्ञानबोध

धन्य गुरू जनार्दन. ४

 

संत साहित्य निर्मिती

लोक कल्याणाचा वसा

संत जनार्दन स्वामी

आशीर्वादी शब्द पसा….! ५

 

गुरू चरित्राचे आणि

ज्ञानेश्वरी पारायण

तीर्थक्षेत्री रममाण

संत क्षेष्ठ जनार्दन…! ६

 

जनार्दन स्वामी शिष्य

एकनाथ जनाबाई

दत्तात्रेय अनुग्रह

गुरू कृपा लवलाही…! ७

 

सुरू केली जनार्दने

दत्तोपासनेची शाखा

श्रीनृसिंह सरस्वती

नाथगुरु पाठीराखा…! ८

 

दत्त जाहला विठ्ठल

देव भावाचा भुकेला

निजरूप हरिभक्ती

दत्त कृष्ण एक केला…! ९

 

स्वानंदाचा दिला बोध

परमार्थ शिकविला

स्वयमेव गुरू कृपा

भक्तीभाव मेळविला…! १०

 

आदिनारायण अर्थी

दत्तात्रेय जनार्दन

गुरू परंपरा दैवी

पांडुरंगी संकर्षण…! ११

 

दत्त दर्शनाचा लाभ

बोधदान दिक्षा दिन

गुरू शिष्य दोघांचाही

नाथषष्ठी स्मृती दिन..! १२

 

पुण्यतिथी महोत्सव

हरिपाठ संकीर्तन

मठ आणि आश्रमात

सेवा भाव समर्पण…! १३

 

सुर्यकुंड दुर्गातीर्थ

रम्य भावगर्भ स्मृती

संत जनार्दन स्वामी

अध्यात्मिक फलश्रृती…! १४

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #173 – दूर जड़ों से हो कर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है होली पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता  दूर जड़ों से हो कर…”)

☆  तन्मय साहित्य  #173 ☆

☆ दूर जड़ों से हो कर… 

घर छूटा, परिजन छूटे

रोटी के खातिर

एक बार निकले

नहीं हुआ लौटना फिर।

 

वैसे, जो हैं वहाँ

उन्हें भी भूख सताती

उदरपूर्ति उनकी भी

तो पूरी हो जाती,

घी चुपड़ी के लिए नहीं

वे हुए अधीर,

एकबार निकले…

 

दूर जड़ों से होकर

लगा सूखने स्नेहन

सिमट गए खुद में

है लुप्त हृदय संवेदन,

चमक-दमक में भटके

बन कर के फकीर,

एकबार निकले…

 

गाँवों सा साहज्य,

सरलता यहाँ कहाँ

बहती रहती है विषाक्त

संक्रमित हवा,

गुजरा सर्प, पीटने को

अब बची लकीर,

एकबार निकले…

 

भीड़ भरे मेले में

एक अकेला पाएँ

गड़ी जहाँ है गर्भनाल

कैसे जुड़ पाएँ,

बहुत दूर है गाँव

सुनाएँ किसको पीर,

एकबार निकले

नहीं हुआ लौटना फिर।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 59 ☆ ग़ज़ल – फ़ागुन में रंग… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल – “फ़ागुन में रंग”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 59 ✒️

?  ग़ज़ल – फ़ागुन में रंग… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

फ़ागुन में रंगों की नज़ाकत न पूछिए।

दिल से मिले हैं दिल नफ़ासत न पूछिए।।

अलसाए हुए तन की क्या मिसाल दें।

बिजली भरी नज़र की ये हालत नपूछिए।।

होंठ हैं टेसू से गालों पे रंग गुलाल ।

अल्लाह रे आज हुस्न की रंगत न पूछिए।।

बौरा गए हैं आम भी कोयल के भाग से।

इस फ़ागुनी फ़िज़ा की शरारत न पूछिए।।

रंगों की ये फ़ुहार तन मन भिगो गई।

साड़ी के भीगने की अलामत न पूछिए।।

दिनभर की थकावट को पहलू में साजन की।

सलमा गई है भूल कैसे न पूछिए।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 173 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 173 ?

💥 गझल… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

या निशेचा नशिला नूर आहे

पण मनी कसले काहूर आहे

सांग मी आता जाणार कोठे

गाव हे परके, मगरूर आहे

साहवेना जगणे अन मरणही

शाप हा इतका भरपूर आहे

घेतला “काव्य वसा” वेदनेचा

डंख जहरी मज मंजूर आहे

ध्वस्त झाली जिवनाचीच नौका

सागरा  ने ,मी आतूर आहे

कृष्ण राधेला बोले, मृगाक्षी,

 ज्योत तू अन मी कापूर आहे

गीत हृदयीचे झंकारताना

आर्ततेचाच ‘प्रभा ‘ सूर आहे

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग-1 – सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग-1 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ✈️

सूर्यदेवांची उबदार किरणं पृथ्वीवर जिथे पहिली पावलं टाकतात तो देश जपान! किमोनो आणि हिरव्या रंगाच्या चहाचा देश जपान! हिरोशिमाच्या अग्नीदिव्यातून झळाळून उठलेला देश जपान! साधारण पंधरा-सोळा वर्षांपूर्वी या जपानला जायचा योग आला. आम्ही मुंबईहून हॉंगकॉंगला विमान बदलले आणि चार तासांनी ओसाका शहराच्या कंसाई विमानतळावर उतरलो. आधुनिक जपानी तंत्रज्ञानाचा आविष्कार इथूनच पहायला मिळाला. जपानने कंसाई हे मानवनिर्मित कृत्रिम बेट भर समुद्रात बांधले आहे व त्यावर भलामोठा विमानतळ उभारला आहे. हे कृत्रिम बेट सतत थोडे थोडे पाण्याखाली जाते आणि दरवर्षी हजारो जॅक्सच्या सहाय्याने ते वर उचलले जाते. विमानातून उतरून कस्टम्स तपासणीसाठी दाखल झालो. शांत, हसऱ्या चेहऱ्यांच्या जपानी मदतीमुळे विनासायास त्या भल्यामोठ्या विमानतळाबाहेर आलो तेव्हा रात्रीचे दहा वाजले होते. आमचे मित्र श्री.अरुण रानडे यांच्याबरोबर टॅक्सीने त्यांच्या घरी कोबे इथे जायचे होते.

त्या मोठ्या टॅक्सीच्या चारही बाजूंच्या स्वच्छ काचांमधून बाहेरची नवी दुनिया न्याहाळत चाललो होतो. एकावर एक असलेले चार-पाच एक्सप्रेस हायवे झाडांच्या, फुलांच्या, दिव्यांच्या आराशीने नटले होते. रस्त्याच्या दोन्ही बाजूला सारख्या आकाराच्या दहा मजली इमारती होत्या. त्यांच्या पॅसेजमध्ये एकसारखे, एकाखाली एक सुंदर दिवे लागले होते. असं वाटत होतं की, एखाद्या जलपरीने लांबच लांब रस्त्यांची पाच पेडी वेणी घातली आहे. त्यावर नाना रंगांच्या पानाफुलांचा गजरा माळला आहे. दोन्ही बाजूंच्या दिव्यांच्या माळांचे मोत्याचे घोस केसांना बांधले आहेत. कंसाई ते कोबे हा शंभर मैलांचा, सव्वा तासाचा प्रवास रस्त्यात एकही खड्डा नसल्याने अलगद घरंगळल्यासारखा झाला.

दुसऱ्या दिवशी सकाळी आवरून निघालो. अनघा व अरुण रानडे यांचे कोबेमधले घर एका डोंगराच्या पायथ्याशी पण छोट्याशा टेकडीवजा उंचवट्यावर होते. तिथून रेल्वे व बस स्टेशन जवळपासच होते. आम्ही आसपासची दुकाने, घरे,  बगीचे न्याहाळत बसस्टॅंडवर पोहोचलो. कोबे हिंडण्यासाठी बसचा दिवसभराचा पास काढला. बसने एका मध्यवर्ती ठिकाणी उतरून दाईमारू नावाचे चकाचक भव्य शॉपिंग मॉल तिथल्या वस्तूंच्या किमतींचे लेबल पाहून फक्त डोळ्यांनी पाहिले. नंतर दुसऱ्या बसने मेरीकॉन पार्कला गेलो. बरोबर आणलेले दुपारचे जेवण घेऊन पार्कमध्ये ठेवलेली चारशे वर्षांची जुनी भव्य बोट पाहिली. संध्याकाळी पाच वाजताच इथे काळोख पडायला लागतो. समुद्रावर गेलो. तिथून कोबे टॉवर व समुद्राच्या आत उभारलेले सप्ततारांकित ओरिएंटल हॉटेल चमचमतांना दिसत होते. नकाशावरून मार्ग काढत इकॉल या हॉटेलच्या अठराव्या मजल्यावर जाऊन तिथून रात्रीचे लखलखणारे कोबे शहर, कोबे पोर्ट ,कोबे टॉवर पाहिले. त्यामागील डोंगरांची रांग मुद्दामहून वृक्ष लागवड करून हिरवीगार केली होती. त्या पार्श्वभूमीवर हे सारे दृश्य विलोभनीय वाटत होते.

आज रविवार.क्योटो इथे जायचे होते. मुंबईहून येतानाच आम्ही सात दिवसांचा जपानचा रेल्वे पास घेऊन आलो होतो. भारतीय रुपयात पैसे देऊन हा पास मुंबईत ट्रॅव्हल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, चर्चगेट इथे मिळतो. ही सोय फार छान आहे. जेव्हा आपण जपान रेल्वेने पहिला प्रवास करू त्यादिवशी हा पास तिथल्या स्टेशनवर एंडॉर्स करून घ्यायचा. त्या दिवसापासून सात दिवस हा पास जपान रेल्वे, बुलेट ट्रेन व जपान रेल्वेच्या बस कंपनीच्या बसेसनासुद्धा चालतो. आज बुलेट ट्रेनचा पहिला प्रवास आम्हाला घडणार होता. घरापासून जवळच असलेल्या शिनकोबे या बुलेट ट्रेनच्या स्टेशनवर पोहोचलो. रेल्वे पास दाखवून क्योटोच्या प्रवासाची स्लीप घेतली. स्टेशनवर बुलेट ट्रेन सटासट येत जात होत्या. आपल्याला दिलेल्या कुपनवर गाडीची वेळ व डब्याचा क्रमांक दिलेला असतो.तो क्रमांक प्लॅटफॉर्मवर जिथे लिहिलेला असेल तिथे उभे राहण्याची खूण केलेली असते. तिथे आपण सिंगल क्यू करून उभे राहायचे. आपल्या डब्याचा दरवाजा बरोबर तिथेच येतो. दरवाजा उघडल्यावर प्रथम सारी उतरणारी माणसे शांतपणे एकेरी ओळीतच उतरतात. तसेच आपण नंतर चढायचे व आपल्या सीट नंबरप्रमाणे  बसायचे. नो हल्लागुल्ला! गार्ड प्रत्येक स्टेशनला खाली उतरून प्रवासी चढल्याची खात्री करून घेऊन मगच ऑटोमॅटिक बंद होणारे दरवाजे एका बटनाने लावतो. नंतर शिट्टी देउन, ‘ सिग्नल पाहिला’ याची खूण करून गाडी सुरू करण्याची सूचना ड्रायव्हरला देतो. सारे इतक्या शिस्तीत, झटपट व शांतपणे होते की आपणही अवाक होऊन सारे पाहात त्यांच्यासारखेच वागायला शिकतो. या सर्व ट्रेन्समधील सीट्स आपण ज्या दिशेने प्रवास करणार त्या दिशेकडे वळविण्याची सहज सुंदर सोय आहे. ताशी २०० किलोमीटरहून अधिक वेगाने धावणाऱ्या या बुलेट ट्रेनचा प्रवास म्हणजे एक चित्तथरारक अनुभव होता.( या गतीने मुंबईहून पुणे एका तासाहून कमी वेळात येईल.) तिकीट चेक करायला आलेला टी.सी. असो अथवा ट्रॉलीवरून पदार्थ विकणारी प्रौढा असो, डब्यात येताना व डब्याबाहेर जाताना दरवाजा बंद करायचा आधी कमरेत वाकून प्रवाशांना नमस्कार केल्याशिवाय बाहेर पडत नाहीत.

जपान भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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