हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 72 – मनोज के दोहे – ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 72 – मनोज के दोहे – ☆

1 सुकुमार

लखन राम सुकुमार सिय, चले कौशलाधीश।

मात-पिता आशीष ले, बढ़े नवा कर शीश।।

2 राधिका

प्रेम राधिका का अमर, जग करता नित याद।

भक्त सभी जपते सदा, जब आता अवसाद।।

3 उपवास

तन-मन को निर्मल करे, जो करता उपवास।

रोग शोक व्यापे नहीं, जीवन भर मधुमास।।

4 लोचन

लोचन हैं राजीव के, श्याम वर्ण अभिराम।

द्वापर में फिर आ गए, अवतारी घन-श्याम।।

5 मिठास

वाणी सिक्त मिठास की, होती है अनमोल।

जीवन भर जो स्वाद ले, बोले मिश्री घोल।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 131 – “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा संजीव कुमार जी की पुस्तक “कोणार्क ” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 131 ☆

☆ “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कोणार्क

डा संजीव कुमार

इंडिया नेट बुक्स,नोयडा

मूल्य १७५ रु, पृष्ठ ११६

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

कोणार्क पर हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है. कोणार्क मंदिर के इतिहास पर परिचयात्मक किताबें हैं. प्रतिभा राय का उपन्यास कोणार्क मैंने पढ़ा है. जगदीश चंद्र माथुर का नाटक “कोणार्क” भी है. स्फुट लेख और अनेक कवियों ने कोणार्क पर केंद्रित कवितायें लिखी हैं. इसी क्रम में साहित्य सेवी डा संजीव कुमार ने कोणार्क नाम से हाल में ही मुक्त छंद में कविता संग्रह या बेहतर होगा कि कहें कि उन्होने खण्ड काव्य लिखा है.

पुरी और भुवनेश्वर मंदिरों की नगरियां है. कोणार्क सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी में आज से लगभग ९०० वर्षो पूर्व बनवाया गया था. पुरातत्वविदों के अनुसार यह कलिंग शैली में बना मंदिर है. यह स्वयं में अनूठा है, क्योंकि मंदिर  रथ की आकृति में हैं.  12 जोड़ी भव्य विशाल पहियों की आकृतियां  हैं, 7 घोड़े रथ को खींच रहे हैं. इस दृष्टि से सूर्य देव के रथ की आध्यात्मिक भारतीय कल्पना को मूर्त रूप दिया गया है. समुद्र तट पर मंदिर इस तरह निर्मित है कि सूरज की पहली किरण मंदिर के प्रवेश द्वार पर पड़ती है. समय की आध्यात्मिकता दर्शाते कोणार्क की कहानी रोचक है. इस मंदिर को वर्ष 1984 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था. इस महत्व के दृष्तिगत कोणार्क पर लिखा जाना सर्वथा प्रासंगिक है. मैने पर्यटन के उद्देश्य से कोणार्क की सपरिवार यात्रा की है. वहां मोमेंटो की दूकानो पर कोणार्क पर लिखी किताबें भी देखी थीं, उनमें एक श्रीवृद्धि डा संजीव कुमार की किताब से और हो गई है.

कोणार्क का मंदिर तो बना पर,आज तक वहां कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. इसी तरह  भोपाल के निकट भोजपुर में भी एक विशालतम शिवलिंग की स्थापना की गई थी पर वहां भी  आज तक  कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. कोणार्क को  लेकर किवदंतियां हमेशा से ही लोगों के बीच चर्चित रही हैं. ये ही कथानक संजीव जी की कविताओ की विषय वस्तु हैं. खजुराहो की ही तरह मंदिर की बाहरी दीवारों पर रति रत मूर्तियां हैं, जो  संदेश देती हैं कि परमात्मा का सानिध्य पाना है तो भीतर झांको किन्तु वासना को बाहर छोडकर आना होगा.

संजीव जी मंदिर के महा शिल्पी को इंगित करते हुये लिखते हैं

समेटे अपने आँचल में

खड़ा है आज भी

एक कालखंड

जिसमें निहित थी

कल्पना की उड़ान

नभ पर उड़ते सूर्य को

अपनी धरती पर उतार लाने का स्वप्न

जो अपनी अभिनवता में

भर लाया होगा।

उत्साह का पारावार और कल्पना के उत्कर्ष

उकेर गया होगा

उन पत्थरों पर

जो हो उठा जीवंत

कला की प्राचुर्यता के साथ विभिन्न मुद्राओं में

जीवन की भंगिमाओं में

मैने स्व अंबिका प्रसाद दिव्य का उपन्यास खजुराहो की अतिरूपा पढ़ा था. उसमें वे कल्पना करते हैं कि शिल्पी ने अतिरूपा को विभिन्न काम मुद्राओ में सामने कर उन जीवंत मूर्तियों को देह के प्रेम की  व्याख्या हेतु तराशा रहा होगा.

कवि डा संजीव कुमार भी लिखते हैं

संगिका थी वह

 मेरे बचपन की

 जिसे पाया था मैंने

 बाल हठ से

 कितने ही वर्षों के बाद

 और आज

 हमारी देहों का

 कण कण

 महकता था

 हमारे प्रेम का साक्षी बनकर

 हमने खेले थे

 बचपन के खेल भी

 और तरूणाई की केलि भी

 पर यौवन हो गया

 समर्पित

 किसी राजहठ को

 और बस

 एक असंभव को

 संभव बनाने में

विभिन्न कविताओ से गुजरते हुये कोणार्क के महाशिल्पी उसके पुत्र की कथा चित्रमय होकर पाठक के सम्मुख उभरती है. 

मंदिर की वर्तमान भग्नावस्था को देख वे लिखते हैं…

 काश! उग सकता

 वह स्वप्न आज भी

 इन भग्नावशेषों के बीच

 जहाँ उतरता

 किरणों भरा रथ

 दिवाकर का

 और जाज्वल्यमान

 हो उठता

 भारत का कण क

 बरस जाती चेतनता विहस पड़ता

 नव जीवन

 उसी कोणार्क के उच्च शिखरों से

 भुवन भर में

 और नवचेतना

 संगीत लहरियों में बसकर

 हवा में बहती.

कोणार्क पर काव्य रूप में लिखी गई पुस्तकों में यह एक बेहतरीन कृति है, जिसके लिये डा संजीव कुमार बधाई के सुपात्र हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 152 – होलिका दहन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय,स्त्री विमर्श  एवं होली पर्व पर आधारित एक सुखांत एवं भावप्रवण लघुकथा होलिका दहन”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 152 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 होली पर्व विशेष – ❤️ होलिका दहन ?

मेघा पढ़ाई पूरी करके एक अच्छी कंपनी में जॉब करती थी। सोशल मीडिया और मोबाइल आज की जिंदगी में सभी पर हावी है। ऐसे ही शिकार हुई अपने ऑफिस के सुधीर के साथ और लिव-इन-रिलेशनशिप  में रहने लगे।

समय पंख लगा कर उड़ चला पता ही नहीं चला। किसी बात को लेकर दोनों में दूरी हो गई और मामला अलग अलग होने का हो गया।

मेघा मानसिक परेशान हो अपने घर वापस आ गई। वर्क फ्रॉम होम करते हुए घर परिवार में स्थिर हो खुश रहना चाहती थी। परंतु सुधीर के साथ बिताए हुए पल और उसके साथ की सभी मोबाइल पर तस्वीरें उसे परेशान कर रही थी।

घरवालों मेघा को कुछ समझ पाते, इसके पहले ही विवाह का निर्णय लेने लगे। घर पर खुशियाँ छा गई।

मेघा की शादी होना है। एक अच्छे परिवार से लड़का शिवा से उसका विवाह निश्चित हुआ। मेघा को डर था कि वह कि वह आज का लड़का है।  उसकी सारी बातें वह सब जान जायेगा।और सुधीर की बातें शिवा के सामने आ जायेगी।

शादी को कुछ वक्त था। मेघा का होने वाला पति शिवा होलिका दहन के दिन अचानक आ गया। सभी उसकी खातिरदारी में लग गए। मेघा के चेहरे का रंग उड़ा जा रहा था।

वह बड़े प्यार से मेघा के कमरे में आया। “मेघा… चलो आज हम होलिका दहन, शादी के पहले देख आएं।”

“शादी के बाद तो ससुराल की पहली होली होती है। पर मैं चाहता हूं शादी के पहले होलिका दहन में तुम्हें लेकर जाऊं।”

तैयार हो घरवालों का आदेश ले शिवा के साथचल पड़ी। पास ही मैदान में होलिका को सजाया गया था। शिवा धीरे से मेघा का हाथ अपने हाथ में लेकर बोला…” मुझे सुधीर ने सब कुछ बता दिया है। वह बहुत अच्छा लड़का है।”

” मुझे तुम्हारे पुराने रिश्ते से कोई परेशानी नहीं है, परंतु मैं चाहता हूं तुम सब कुछ भूल कर इस होलिका दहन में खत्म करके नए सिरे से मेरे साथ विश्वास और पूरी जिंदगी खुशी के साथ रहना चाहोगी। वचन दो  यदि तुम्हें मंजूर है तो…” मेघा इतना सुनते ही पास रखी थाली से गुलाल ले आसमान में खुशी से उछाल कर होली के गीत पर नाचने लगी।

दोनों हाथों से लाल रंग लिए शिवा उसके मुखड़े पर लगा रहा था।

होलिका की परिक्रमा लगाते मेघा के नैन अश्रुं से भीगते चले जा रहे थे।

लाल गुलाबी चुनर से मेघा का सिर ढाकते शिवा होलिका दहन पर विजयी अनुभव कर रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 24 – मित्रता की स्वर्ण जयंती ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 24 – मित्रता की स्वर्ण जयंती ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सन ’72 में गोविंद राम सक्सेरिया महाविद्यालय, जबलपुर में अध्यन के लिए प्रवेश लिया, तो कक्षा के सभी सहपाठी अनजान थे, क्योंकि पाठशाला में विज्ञान से उत्तीर्ण होकर वाणिज्य विषय चयनित किया था।

विगत दिनों जबलपुर के पुराने सहपाठी से विदेश में पचास घंटे साथ व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हुआ। ये संयोग ही था कि मित्रता को भी पचास वर्ष पूरे हुए हैं।

महाविद्यालय में साथ बिताए हुए पांच वर्ष की स्मृतियों को मानस पटल पर आने में कुछ क्षण ही लगे। मानव प्रवृत्ति ऐसी ही होती हैं, जब कोई पुराना मित्र या पुराने स्थान से संबंधित कोई भी वस्तु सामने होती है, तो मन के विचार प्रकाश की गति से भी तीव्र गति से दिमाग में आकर स्फूर्ति प्रदान कर देते हैं। हम अपने आप को उस समय की आयु का समझ कर हाव भाव व्यक्त करते हैं। पुरानी यादें, पुराने मित्र या पुरानी शराब का नशा कुछ अलग प्रकार का होता है।

हम दोनों मित्रों ने अगस्त 88 में जबलपुर से विदा ली थी। मित्र अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में जीवकोपार्जन के लिए निकल गए थे, और हमें पदोन्नत होने पर इस्पात नगरी, भिलाई जाना पड़ा था।

मित्र के साथ बिताए हुए समय का केंद्र बिंदु तो जबलपुर ही था, परंतु उनके वर्तमान देश अमेरिका के बारे में भी चर्चाएं होना भी स्वाभाविक है। बातचीत में मित्र ने बताया कि- “US is land full of Golden opportunities and they want each and every one in US शुड 1. Be a homeowner and 2. Be a business owner.”

क्योंकि ये देश ही तो विश्व में पूंजीवाद का सिरमौर है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #178 ☆ भावनांचा रंग… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 178 ?

भावनांचा रंग… ☆

भावनांचा रंग आहे वेगळा

ओठ माझा त्यास वाटे जांभळा

 

डाग नाही एकही अंगावरी

टाकुनी तो रंग झाला मोकळा

 

काय सांगू मी घरी सांगा मला

खंत नाही त्यास तो तर बावळा

 

पेटते होळी तशी देहातही

साजरा दोघे करूया सोहळा

 

धूळ माती फासली अंगास तू

रंग गोरा जाहला बघ सावळा

 

आग आकाशात होती पोचली

पाहिलेला सोहळा मी आगळा

 

शांत झाली आग आहे कालची

लाकडांचा फक्त दिसतो सापळा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 129 – शब्द, अब नहीं रहे शब्द… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – शब्द, अब नहीं रहे शब्द।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 129 – शब्द, अब नहीं रहे शब्द…  ✍

शब्द, अब नहीं रहे शब्द

शब्द को ब्रह्म कहा गया है

और

ब्रह्म को देखा नहीं किसी ने

शब्द को भी

कोई कहाँ देख पाता है।

हाँ,

सुन पाता है उसे

अगर सुनना चाहे तो।

मगर क्या होता है

मात्र सुनने से

जबकि अर्थहीन हो गए हों शब्द

लगता है

शब्दों की केंचुली उतर गई है

बदल गई है उनकी तासीर

अब प्रेम शब्द ना तो स्निग्धा देता है

ना ऊर्जा

और विश्वास का दावा

कानों में उड़ेल देता है

पिघला शीशा

संबोधन के सारे शब्दों से

सड़ी मछली की बू आने लगी है

शब्द, अब शब्द नहीं रहे…। 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 128 – “धरती भीगी मैं भी भीगी…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  धरती भीगी मैं भी भीगी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 128 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

धरती भीगी मैं भी भीगी… ☆

बदली के बालो को छू कर

बोली मधूलिका

नही जा रही वहाँ कदापि

मैं फिर अमेरिका

 

तुम क्या बरसी बहकर आयी

फसलों की दुनिया

तुम को पाकर हुई चंचला

जल की चुनमुनिया

 

धरती भीगी मैं भी भीगी

गहरे गहरे गहरे तक

पेड़ो से कह कह कर हारी

व्यव्हल कुमारिका

 

आसमान की छत से डगमग

देख रही शुभकर

जिस को पढ़ने तारा मंडल

उतरा है भू पर

 

एक घास का छज्जा आगे

को झुकर सा आया

कहता है कुछ छंद सुनाओ

मुझ को सागरिका

 

कभी कभी तारों को छूती

हुई निकलती हो

लगता जैसे चाँदी की पाय लें

बदलती हो

 

जगमग तारों मैं दिख जाती

मुझ को भी जब तब

कभी रुपहली कभी सुनहली

झिल मिल निहारिका

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

03-03-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 177 ☆ “पुस्तक मेला और बड़े साहब का दौरा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक  व्यंग्य – पुस्तक मेले में चिलमची लेखक…”।)

☆ व्यंग्य  # 177 ☆ “पुस्तक मेला और बड़े साहब का दौरा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हेड आफिस के बड़े साहेब के दौरे की खबर से आफिस में हड़बड़ी मच गई। बड़ी मंहगी सरकारी कार से बड़े साहब उतरे तो आफिस के बाॅस ने पूंछ हिलाते हुए गुलदस्ता पकड़ा दिया। आते ही बडे़ साहब ने आफिस के बाॅस पर फायरिंग चालू की तो बाॅस ने रोते हुए गंगा प्रसाद उर्फ गंगू को निशाना बना दिया। सर…. सर  हमारे आफिस में गंगू नाम का स्टाफ है, काम धाम कुछ करता नहीं, अपने को कभी साहित्यकार तो कभी व्यंग्यकार कहता है। दिन भर आफिस में फेसबुक, वाटस्अप के चक्कर में और बाकी समय ऊटपटांग लिख लिखकर आफिस की स्टेशनरी बर्बाद करता है। आपके दौरे की भी परवाह नहीं कर रहा था, दो दिनों पहले दिल्ली भग रहा था बिना हेडक्वार्टर लीव लिए। दादागिरी दिखाते हुए कह रहा था कि दिल्ली के प्रगति मैदान में उसकी व्यंग्य की पुस्तक का विमोचन और व्यंग्य का कोई बड़ा पुरस्कार – सम्मान मिलेगा साथ में 21 हजार या 51 हजार रुपये भी मिलने की बात कर रहा था। 

सर… र… बिल्कुल भी नहीं सुनता बहुत तंग किए है और दूसरे काम करने वालों को भी भड़काता है लाल झंडा दिखाने की धमकी देता है…. हम बहुत परेशान हैं। सर.. र… आफिस का माहौल उसके कारण बहुत खराब है। हमारा भी काम में मन नहीं लगता, इसलिए आपके पास इतनी शिकायतें और गड़बड़ियों की लिस्ट पहुंच रही है। बाहरी आदमी तक कह रहा है कि आपके आफिस का गंगाधर (गंगू) अखबार और पत्रिकाओं के साथ सोशल मीडिया में आफिस के कामकाज का मजाक उड़ा रहा है, व्यंग्य लिखता है। सरकार की नीतियों के खिलाफ व्यंग्य लिखकर खूब ऊपरी पैसे कमाता है और आफिस में धेले भर काम नहीं करता। 

सर….. र… आप विश्वास नहीं करोगे पिछले दिनों मेरे और मेरी स्टेनो के ऊपर ऐसा व्यंग्य लिखा कि मैं मुंह दिखाने लायक नहीं रह गया….. झांक झांक कर सब देख लेता है तिरछी नजर से सब बातें पकड़ लेता है, कुछ करने भी नहीं देता है.. स.. र.. र  आप बताइए हम क्या करें ? 

… अच्छा ऐसा है, तो तुम तंग आ गये हो…. तुमको इस आफिस का बाॅस बनाकर इसलिए बैठाया गया है कि एक सड़े से कर्मचारी पर तुम्हारा कन्ट्रोल नहीं है। स्टेनो के साथ बिजी रहते होगे, तभी आफिस का माहौल अनकन्ट्रोल हो गया है। 

… नहीं स.. र.. र  इसने ही अपने व्यंग्य लेख से इतने किस्से बना लिए हैं वास्तविकता कुछ नहीं है सर जी   प्लीज। 

… अच्छा ये बताओ कि बदमाश तुम हो कि तुम्हारी स्टेनो? किस्से तो काफी फैल गये हैं और तुम्हारी काम नहीं करने की भी बड़ी शिकायतें हेड आफिस पहुंच रहीं हैं। 

… नहीं सर, ये गंगा प्रसाद ‘गंगू’ के कारण ही ये सब हो रहा है। 

… तो बुलाओ उस हरामजादे गंगाधर को… अभी देखता हूं साले को, बहुत बड़ा साहित्यकार कम व्यंग्यकार बन रहा है… ।

बाॅस ने घंटी बजायी  चपरासी से कहा कि गंगू को बताओ कि बड़े साहब मिलना चाहते हैं। जब चपरासी ने गंगा प्रसाद को खबर दी तो गंगू फूला नहीं समाया… उसे लगा चलो दिल्ली नहीं जा पाए तो दिल्ली के हेड आफिस से सबसे बड़े साहब हमारा सम्मान करने पहुंच गए, जरूर किसी बड़े लेखक ने बड़े साहब को ऊपर से दम दिलाई होगी तभी ये आज भागे-भागे आये हैं चलो चलते हैं देखते हैं कि… 

… मे आई कम इन सर.. कहते हुए गंगा प्रसाद केबिन में घुसे तो बड़े साहब ने व्यंग्य भरी नजरों से ऊपर से नीचे तक देखा। 

… आइये आइये… वेलकम… तो आप हैं 1008 व्यंग्य श्री आचार्य गंगा प्रसाद गंगू…

… जी… स… र.. र आपके आने की खबर के कारण हमने अपना दिल्ली जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया सर… वहां विश्व पुस्तक मेले में हमारा सम्मान और हमारी पुस्तक का विमोचन…. 

… अच्छा !  सुना है आप सरकार के खिलाफ और आफिस की कमियों पर व्यंग्य लिखकर पैसे कमाते हैं, बड़े भारी व्यंग्यकार बनते हैं। आफिस के कामकाज और विसंगतियों और बाॅस पर व्यंग्य से प्रहार करते हो। आफिस का काम करने कहो तो लाल झंडा दिखाने की धमकी देते हो….. व्यंग्य के विषय में जानते हो कि व्यंग्य क्या होता है ? नौकरी करना है कि व्यंग्य लिखना है आपको मालूम नहीं कि असली व्यंग्यकार सबसे पहले अपने आप पर व्यंग्य लिखता है, अपने अंदर की गंदगी विसंगतियों की पड़ताल कर आत्मसुधार करता है। आफिस और सरकार के खिलाफ लिख कर नाम कमाने से आत्ममुग्धता आती है। आफिस के बाॅस और स्टेनो के संबंधों पर लिख कर उनका काम बिगाड़ दिया तुमने दाल भात में मूसरचंद बन गए।  तुम भी तो लंबे समय से आफिस में लफड़ेबाजी कर रहे हो कभी तिल का ताड़ कभी राई का पहाड़ बनाते रहते हो और सीधी सी बात है कि तुमने व्यंग्य लिखने के लिए  विभागीय अनुमति नहीं ली है  अभी दस तरह के मामलों में फंस जाओगे नौकरी चली जाएगी, बाल-बच्चे बीबी भूखी मरने लगेंगी। तुम्हें नहीं मालूम कि समाज में तुम्हारी इज्जत इस विभाग के कारण है, नहीं तो आजकल कोई पूछता नहीं है समझे। जितना पैसा व्यंग्य लिख कर कमा रहे हो उसका हिसाब आफिस में दिया क्या? जितना पैसा कमाया वो विभाग में जमा किया क्या? तो आयकर विभाग को चकमा देने का मामला भी बनता है। गंगू लाल अपने बाल बच्चों के पेट में लात मत मारो भाई। तुम्हें नहीं मालूम कि व्यंग्यकार के पास पैनी वैज्ञानिक दृष्टि होती है वह ईमानदार होता है तुम तो सौ प्रतिशत बेईमान लग रहे रहे हो। इसका मतलब है कि तुम्हारे लिखे कड़े शब्द नपुंसक होते हैं तभी न आफिस का माहौल नपुंसक हो गया। अरे भाई व्यंग्यकार तो लोक शिक्षण करता है। तुम लोग झांकने का काम करते हो किसी का बना बनाया काम बिगाड़ते हो। तुम लोग चुपके चुपके दरबार लगाते हो एक दूसरे की टांगे खींचते हो शरीफ और बुद्धिजीवी होने का नाटक करते हो। साहित्यकारों से समाज यह अपेक्षा करता है कि वे अपने आचरण और लेखन में शालीनता बरतें और बेहतर समाज बनाने में अपना योगदान दें… पर तुम तो अपने पेट से दगाबाजी करते हो आफिस का काम भी नहीं करते और चले व्यंग्यकार बनने… तुम साले कुछ नकली व्यंग्यकार पूर्वाग्रही, संकुचित सोच, अहंकारी गुस्सैल और स्वयं को सर्वज्ञानी मानते हो। हर पल चालाकियों की जुगत भिड़ाते हो…।।

गंगू के काटो तो खून नहीं… सारा लिखना पढ़ना, सम्मान पुरस्कार, पुस्तक मेला मिट्टी में मिल गया। बड़े साहब ने जम के दम देकर बेइज्जती की और नौकरी से निकाल देने की धमकी दी कि सीने के अंदर खलबली मच गई, बाल बच्चे और घरवाली की चिंता बढ़ गई हार्ट कुलबुला के के बाहर आने को है… बार बार शौचालय जाना पड़ रहा है शौचालय के कमोड में बैठे बैठे जैसे ही गंगू ने फेसबुक खोली त्रिवेदी की वाल में पुस्तक मेले का लाइव कार्यक्रम चल रहा है बार – बार गंगा प्रसाद “गंगू” को पुस्तक विमोचन के लिए और 51 हजार रुपये के सम्मान के लिए पुकारा जा रहा है.. एक से एक सजी बजी सुंदर लेखिकाएं ताली बजा रहीं हैं। पुस्तक मेले में भीड़ ही भीड़ उमड़ पड़ी है। बड़े बड़े व्यंग्यकारों पर त्रिवेदी का कैमरा घूम रहा है, विमोचन होने वाली पुस्तकों का कोई नाम नहीं ले रहा धकाधक विमोचन चल रहे हैं। एक व्यंग्य के मठाधीश बाजू वाले डुकर से कह रहे हैं कि इस महाकुंभ में मुफ्त में आंखें सेंकने मिलती हैं, किताबों में यही तो जादू है वे बुलातीं भी हैं और अज्ञान को भी नष्ट करतीं हैं।…

इधर जब गंगू ने शौचालय के कमोड का नल खोला तो पानी दगा दे गया और तुरंत मोबाइल की बैटरी रोने लगी। 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 119 ☆ # होली पर्व विशेष – होली के रंग… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी होली पर्व पर विशेष कविता “# होली के रंग … #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 118 ☆

☆ # होली पर्व विशेष – होली के रंग… # ☆ 

जीवन के हैं रंग हजार

डूबा हुआ है यह संसार

आओ तुम भी रंग लगाओ

आया है रंगों का त्योहार

 

रंग है सबके दिल की धड़कन

चंग है साजों की स्पंदन

भांग है मनमस्तिष्क की कंपन

संग है तरूणाई में डूबे तन-मन

 

कायनात पर रंगो का राज है

ना कोई छोटा ना बड़ा आज है

घूम रही फाग गाती टोलियां 

हर टोली में एक सरताज है

 

युवक युवतियां परस्पर रंगों को डालते

एक दूजे पर गुलाल उछालते

भिगो रहे हैं सबके वस्त्र

शर्मसार है तरूणाई,

भीगे वस्त्रों को संभालते

 

खेलो राधा कृष्ण सी होली

बोलो प्रेम में डूबी प्रेममय बोली

प्रेम ही तो शाश्वत है जग मे

चाहे हो मीरा या राधा भोली /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 120 ☆ माणुसकीची गुढी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 120 ? 

☆ माणुसकीची गुढी…

माणुसकीची, गुढी उभारू

विकल्प मनीचा, सहज संपवू

आत्म-परीक्षण, करता आपण

माणुसकीला, सदैव टिकवू.!!

 

माणुसकीची, गुढी उभारू

भेदभाव मिटवून टाकू

अंधश्रद्धा, झुगारुनिया

तनमन राष्ट्रहितार्थ झोकू.!!

 

माणुसकीची, गुढी उभारू

एकमेका सहाय्य करू

स्वार्थ-विरहीत, जीवन जगता

सु-संकल्प पताका, हाती धरू.!!

 

माणुसकीची, गुढी उभारू

राग-द्वेषा, तिलांजली देऊ

एकदाच येणे, भू-तलावर

काही चांगले, करुनी जाऊ.!!

 

माणुसकीची, गुढी उभारू

थोरांचा तो, आदर्श घेऊ

अनेक जाहले, शूरवीर येथे

तयांचे शुद्ध, पोवाडे गाऊ.!!

 

माणुसकीची, गुढी उभारू

कवी राज मनी, हेच चिंती

पूर्ण आयु, ईश्वर चिंतन

असेलच मग, कुठलीच भीती.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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