हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 106 ☆ कविता – रिश्ते ये खून के ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता  ‘रिश्ते ये खून के’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 106 ☆

☆ कविता – रिश्ते ये खून के — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

नहीं मालूम था

कि रिश्ते ये खून के ,

समय के साथ

पानी हो जाते हैं ,

बेमानी हो जाते हैं ।

नहीं मालूम था कि

रिश्ते ये प्यार भरे

 भाव भरे , स्नेह तरे

संजोया जिन्हें हर पल

आँखों के संग – संग

वह दे जाएंगे खालीपन

रिश्तों में दे खारापन |

नहीं मालूम था कि

रिश्तों की किरचें

बिखर जाएंगी

 चारों ओर

संभलने और संभालने

की कोशिशें

छोड़ जाएंगी निशान !

 रिश्ते ये खून के ?  

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 126 ☆ सम्मान को सम्मानित करना ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सम्मान को सम्मानित करना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 126 ☆

☆ सम्मान को सम्मानित करना ☆ 

आज इसको कल उसको अपना गुरु बनाते हुए सम्मान बटोरते जाना ये भी एक कला है। जिस तरह हर कला की साधना,आराधना होती है वैसे ही इसकी भी कुछ साधकों द्वारा निरंतर साधना की जा रही है। एक हाथ लेना और दूसरे हाथ देना ये सब कुछ जायज है, बस नियत सच्ची होनी चाहिए। एक कार्यक्रम के दौरान दो इसी तरह के साधक आपस में बात कर रहे थे कि यहाँ से अब बहुत मिल चुका चलो अपना बसेरा कहीं और बनाते हैं। पहले ने कहा कहीं और जाने की जगह हम खुद ही अपना समूह बना कर संस्था के अध्यक्ष व सचिव बन जाते हैं। बस विज्ञापन निकालने की देर है, लोग खुद ही संपर्क करेंगे। जो संरक्षक बनना चाहेगा उसका स्वागत करेंगे।

दूसरे ने कहा सही बात है, संरक्षक ही कार्यक्रम को प्रायोजित करेंगे आखिर उनको हम पूरे समय मंचासीन रखेंगे। उन्हीं की फोटो पेपर में छपेगी।

पहले ने कहा अरे हाँ सबसे जरूरी तो मीडिया ही है, कोई आपकी पहचान का हो तो बताएँ, उसको प्रचार सचिव बनाकर सारे कार्य करवाने हैं।

ऐसा होना  कोई नयी बात नहीं है ये तो जोड़- तोड़ है जो आगे बढ़ने हेतु करनी ही पड़ती है। आखिर ये भी एक गुण है, हमें खुद को तराशते हुए जुटे रहना चाहिए, रास्ता जितना नेक होगा परिणाम उतना सुखद होगा।

हर वस्तु  चाहे  वो सजीव हो या निर्जीव उसकी अपनी एक विशिष्टता होती है,  और यही  उसका गुण कहलाता  है  जैसे मछली में तैरने का गुण होता है तथा वो जल के बिना नहीं रह सकती, इसी तरह मेढक जल थल दोनों में रह सकता है। पंछी आसमान की सैर करते हैं  तो बंदर एक डाल से दूसरी डाल तक छलाँग मार सकता है।

कुछ निर्जीव जैसे कोयला काला होता है  तो वहीं मिट्टी अपनी उत्त्पति के अनुसार कहीं काली,लाल, रेतीली,आदि रूपों में मिलती है।

इन सबमें बुद्धिमान प्राणी की बात करें तो  वो निश्चित रूप से मानव ही है जो निरन्तर गुणों की खोज में भटक रहा है, ये गुण कस्तूरी की तरह उसके भीतर ही समाहित है बस आवश्यकता है  हीरे की तरह उसे तराशने की।

जो लोग उचित समय पर श्रेष्ठ गुरु का सानिध्य पा जाते हैं वे जल्दी ही अपने गुणों को पहचान सफलता को प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनका गुरु वक्त होता हैं, किसी ने सच ही कहा है वक्त से बड़ा कोई गुरु नहीं हो सकता।

ये सब तो केवल व्याख्या है वास्तविकता  जिसके पास विद्या रूपी धन होता है उसमें सरलता व विनम्रता का गुण अपने आप ही विकसित हो जाता है। सम्मान के पीछे भागने की जगह यदि हम स्वयं को उपयोगी बनाकर समय के साथ- साथ बढ़ते रहें तो सम्मान भी सम्मानित होगा। तब चेहरे पर तालियों की गड़गड़ाहट से जो भाव आएगा वो अविस्मरणीय होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #127 – पुरस्कृत बाल कथा – “चाबी वाला भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “चाबी वाला भूत।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆

☆ पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा – चाबी वाला भूत ☆ 

बेक्टो सुबह जल्दी उठा। आज फिर उसे ताले में चाबी लगी मिलीं। उसे आश्चर्य हुआ। ताले में चाबी कहां से आती है ?

वह सुबह चार बजे से पढ़ रहा था। घर में कोई व्यक्ति नहीं आया था। कोई व्यक्ति बाहर नहीं गया था। वह अपना ध्यान इसी ओर लगाए हुए था। गत दिनों से उस के घर में अजीब घटना हो रही थी।  कोई आहट नहीं होती। लाईट नहीं जलती। चुपचाप चाबी चैनलगेट के ताले पर लग जाती।

‘‘ हो न हो, यह चाबी वाला भूत है,’’ बेक्टो के दिमाग में यह ख्याल आया। वह डर गया। उस ने यह बात अपने दोस्त जैक्सन को बताई। तब जैक्सन ने कहा, ‘‘ यार ! भूतवूत कुछ नहीं होते है। यह सब मन का वहम है,’’ 

बेक्टो कुछ नहीं बोला तो जैक्सन ने कहा, ‘‘ तू यूं ही डर रहा होगा। ’’

‘‘ नहीं यार ! मैं सच कह रहा हूं। मैं रोज चार बजे पढ़ने उठता हूं। ’’

‘‘ फिर !’’

‘‘ जब मैं 5 बजे बाहर निकलता हूं तो मुझे चैनलगेट के ताले में चाबी लगी हुई मिलती है। ’’

‘‘ यह नहीं हो सकता है,’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ भूत को तालेचाबी से क्या मतलब है ?’’

‘‘ कुछ भी हो। यह चाबी वाला भूत हो सकता है।’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ यदि तुझे यकीन नहीं होता है तो तू मेरे घर पर सो कर देख है। मैं ने बड़ वाला और पीपल वाले भूत की कहानी सुनी है। ’’

जैक्सन को बेक्टो की बात का यकीन नहीं हो रहा था। वह उस की बात मान गया। दूसरे दिन से घर आने लगा। वह बेक्टो के घर पढ़ता। वही पर सो जाता। फिर दोनो सुबह चार बजे उठ जाते। दोनों अलग अलग पढ़ने बैठ जाते। इस दौरान वे ताला अच्छी तरह बंद कर देते।

आज भी उन्होंने ताला अच्छी तरह बंद कर लिया। ताले को दो बार खींच कर देखा था। ताला लगा कि नहीं ? फिर उस ने चाबी अपने पास रख ली।

ठीक चार बजे दोनों उठे। कमरे से बाहर निकले। चेनलगेट के ताले पर ताला लगा हुआ था।  

दोनों पढ़ने बैठ गए। फिर पाचं बजे उठ कर चेनलगेट के पास गए। वहां पर ताले में चाबी लगी हुई थी।

‘‘ देख !’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ मैं कहता था कि यहां पर चाबी वाला भूत रहता है। वह रोज चैनल का ताला चाबी से खोल देता है, ’’ यह कहते हुए बेक्टो कमरे के अंदर आया। उस ने वहां रखी। चाबी दिखाई।  

‘‘ देख ! अपनी चाबी यह रखी है,’’ बेक्टो ने कहा तो जैक्सन बोला, ‘‘ चाहे जो हो। मैं भूतवूत को नहीं मानता। ’’

‘‘ फिर, यहां चाबी कहां से आई ?’’ बेक्टो ने पूछा तो जैक्सन कोई जवाब नहीं दे सकता।

दोपहर को वह बेक्टो को घर आया। उस वक्त बेक्टो के दादाजी दालान में बैठे हुए थे।  

जैक्सन ने उन को देखा। वे एक खूंटी को एकटक देख रहे थे। उन की आंखों से आंसू झर रहे थे।  

‘‘ यार बेक्टो ! ’’ जैक्सन ने यह देख कर बेक्टो से पूछा, ‘‘ तेरे दादाजी ये क्या कर रहे है ?’’ उसे कुछ समझ में नहीं आया था। इसलिए उस ने बेक्टो से पूछा।

‘‘ मुझे नहीं मालूम है, ’’ बेक्टो ने जवाब दिया, ‘‘ कभी कभी मेरे दादाजी आलती पालती मार कर बैठ जाते हैं।  अपने हाथ से आंख, मुंह और नाक बंद कर लेते हैं। फिर जोरजोर से सीटी बजाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं ? मुझे पता नहीं है ?’’

‘‘ वाकई !’’

‘‘ हां यार। समझ में नहीं आता है कि इस उम्र में वे ऐसा क्यों करते हैं। ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ कभीकभी बैठ जाते हैं। फिर अपना पेट पिचकाते हैं। फुलाते है। फिर पिचकाते हैं। फिर फूलाते हैं। ऐसा कई बार करते हैं। ’’

‘‘ अच्छा !’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ तुम ने कभी अपने दादाजी से इस बारे में बात की है ?। ’’

‘‘ नहीं यार, ’’ बेक्टो ने अपने मोटे शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘ दादाजी से बात करूं तो वे कहते हैं कि मेरे साथ घूमने चलो तो मैं बताता हूं। मगर, वे जब घूमने जाते हैं तो तीन चार किलोमीटर चले जाते हैं। इसलिए मैं उन से ज्यादा बात नहीं करता हूं। ’’ 

यह सुनते ही जैक्सन ने बेक्टा के दादाजी की आरे देखा। वह एक अखबार पढ़ रहे थे।

‘‘ तेरे दादाजी तो बिना चश्मे के अखबार पढ़ते हैं ?’’

‘‘ हां। उन्हें चश्मा नहीं लगता है। ’’ बेक्टो ने कहा।

जैक्सन को कुछ काम याद आ गया था। वह घर चला गया। फिर रात को वापस बेक्टो के घर आया। दोनों साथ पढ़े और सो गए। सुबह चार बजे उठ कर जैक्सन न कहा, ‘‘ आज चाहे जो हो जाए। मैं चाबी वाले भूल को पकड़ कर रहूंगा। तू भी तैयार हो जा। हम दोनों मिल कर उसे पकड़ेंगे ?’’

‘‘ नहीं भाई ! मुझे भूत से डर लगता है, ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू अकेला ही उसे पकड़ना। ’’

जैक्सन ने उसे बहुत समझाया, ‘‘ भूतवूत कुछ नहीं होते हैं। यह हमारा वहम है। इन से डरना नहीं चाहिए। ’’ मगर, बेक्टो नहीं माना। उस ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘ भूत से मुझे डर लगता है। मैं पहले उसे नहीं पकडूंगा। ’’

‘‘ ठीक है। मैं पकडूंगा। ’’ जैक्सन बोला तो बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू आगे रहना, जैसे ही तू पहले पकड़ लेगा। वैसे ही मैं मदद करने आ जाऊंगा,’’

दोनों तैयार बैठे थे। उन का ध्यान पढ़ाई में कम ओर भूत पकड़ने में ज्यादा था।

जैक्सन बड़े ध्यान से चेनलगेट की ओर कान लगाए हुए बैठा था। बेक्टो के डर लग रहा था। इसलिए उस ने दरवाजा बंद कर लिया था।  

ठीक पांच बजे थे। अचानक धीरे से चेनलगेट की आवाज हुई। यदि उसे ध्यान से नहीं सुनते, तो वह भी नहीं आती।

‘‘ चल ! भूत आ गया ,’’ कहते हुए जैक्सन उठा। तुरंत दरवाजा खोल कर चेनलगेट की ओर भागा।

चेनलगेट के पास एक साया था। वह सफेद सफेद नजर आ रहा था। जैक्सन फूर्ति से दौड़ा। चेनलगेट के पास पहुंचा। उस ने उस साए को जोर से पकड़ लिया। फिर चिल्लाया, ‘‘ अरे ! भूत पकड़ लिया। ’’

‘‘ चाबी वाला भूत !’’ कहते हुए बेक्टो ने भी उस साए को जम कर जकड़ लिया।  

चिल्लाहट सुन कर उस के मम्मी पापा जाग गए। वे तुरंत बाहर आ गए।

‘‘ अरे ! क्या हुआ ? सवेरेसवेरे क्यों चिल्ला रहे हो ?’’ कहते हुए पापाजी ने आ कर बरामदे की लाईट जला दी।

‘‘ पापाजी ! चाबी वाला भूत !’’ बेक्टो साये को पकड़े हुए चिल्लाया।

‘‘ कहां ?’’

‘‘ ये रहा ?’’

तभी उस भूत ने कहा, ‘‘ भाई ! मुझे क्यों पकड़ा है ? मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? ’’ उस चाबी वाले भूत ने पलट कर पूछा।

‘‘ दादाजी आप !’’ उस भूत का चेहरा देख कर बेक्टो के मुंह से निकल गया, ‘‘ हम तो समझे थे कि यहां रोज कोई चाबी वाला भूत आता है,’’ कह कर बेक्टो ने सारी बात बता दी।  

यह सुन कर सभी हंसने लगे। फिर पापाजी ने कहा, ‘‘ बेटा ! तेरे दादाजी को रोज घूमने की आदत है। किसी की नींद खराब न हो इसलिए चुपचाप उठते हैं। धीरे से चेनलगेट खोलते हैं। फिर अकेले घूमने निकल जाते हैं। ’’

‘‘ क्या ?’’

‘‘ हां !’’ पापाजी ने कहा, ‘‘ चूंकि तेरे दादाजी टीवी नहीं देखते हैं। मोबाइल नहीं चलाते हैं। इसलिए इन की आंखें बहुत अच्छी है। ये व्यायाम करते हैं। इसलिए अँधेरे में भी इन्हें दिखाई दे जाता है। इसलिए चेनलगेट का ताला खोलने के लिए इन्हें लाइट की जरूरत नहीं पड़ती है। । ’’

यह सुन कर बेक्टो शरमिंदा हो गया,। वह अपने दादाजी से बोला, ‘‘ दादाजी ! मुझे माफ करना। मैं समझा था कि कोई चाबी वाला भूत है जो यहां रोज ताला खोल कर रख देता है। ’’

‘‘ यानी चाबी वाला जिंदा भूत मैं ही हूं, ’’ कहते हुए दादाजी हंसने लगे।

बेक्टो के सामने भूत का राज खुल चुका था। तब से उस ने भूत से डरना छोड़ दिया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 136 ☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 136 ☆

☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

हवा – हवा कहती है बोल।

मानव रे! तू विष मत घोल।।

 

मैं तो जीवन बाँट रही हूँ

तू करता क्यों मनमानी।

सहज, सरल जीवन है अच्छा

तान के सो मच्छरदानी।

 

विद्युत बनती कितने श्रम से

सदा जान ले इसका मोल।।

 

बढ़ा प्रदूषण आसमान में

कृषक पराली जला रहा है।

वाहन , मिल धूआँ हैं उगलें

बम – पटाखा हिला रहा है।।

 

सुविधाभोगी बनकर मानव

प्रकृति में तू विष मत घोल।।

 

पौधे रोप धरा, गमलों में

साँसों का कुछ मोल चुका ले।

व्यर्थं न जाए जीवन यूँ ही

तन – मन को कुछ हरा बना ले।।

 

अपने हित से देश बड़ा है

खूब बजा ले डमडम ढोल।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #136 ☆ संत निवृत्ती नाथ… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 136 ☆ संत निवृत्ती नाथ… ☆ श्री सुजित कदम ☆

दिली गहिनीनाथांनी

दिक्षा निवृत्ती नाथांस

बंधू थोरले ज्ञानाचे

गुरू लाभले सर्वांस…! १

 

धन अध्यात्मिक सारे

दिले निवृत्ती नाथांनी

दिला आदेश ज्ञानाला

लिही गीता दृष्टांतांनी…! २

 

जगामध्ये गांजलेले

सुखी केले हीन दीन

संत निवृत्तीनाथांची

सिद्धयोगी  कर्मवीण…! ३

 

ज्ञाना सोपान मुक्ताई

केला सांभाळ स्नेहाने

आधाराची कृपाछाया

दिली निवृत्ती नाथाने…! ४

 

कृष्ण तत्व गीता सार

अभंगांचे मुळ रूप

कार्य निवृत्ती नाथांचे

परब्रम्ह निजरूप…! ५

 

ग्रंथ निवृत्ती ‌साराने

गीता टीकेस उत्तर

ग्रंथ निवृत्ती देवी हा

अद्वैताचे मन्वंतर…! ६

 

योगमय अद्वैताची

गाथा कृष्ण‌भक्तीपर

तीन चारशे अभंग

हरीपाठ सुखकर…! ७

 

हस्त लिखितांची ठेव

आहे कैवल्याचे लेणे

संत निवृत्तीनाथांचे

आहे आशीर्वादी देणे….! ८

 

वारकरी संप्रदाय

असे समता संदेश

वसा विश्व कल्याणाचा

देई निवृत्ती निर्देश…! ९

 

ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी

शोकाकुल परीवार

नाथ निवृत्त जाहले

संजीवन निरंकार…! १०

 

ब्रम्हगिरी पर्वताच्या

पायथ्याशी अंतर्धान

नाथ समाधी मंदिर

वैष्णवांचे श्रद्धास्थान…! ११

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ एकटी – कवी – अज्ञात ☆ संग्राहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ?  एकटी – कवी – अज्ञात  ? ☆ संग्राहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

येतोस इथे

होऊन पाहुणा आता

रामतोस जुन्या

मित्रांसह येता जाता

मी थकले तरीही

तुजसाठी वावरते

जे आवडते तुज

तेच रांधुनी देते

पण ध्यान तुझे

मजपाशी असते नसते

मी तरीही तुजला

मनात टीपुनी घेते

ती सुट्टीही का

लवकर सरूनी जाते

तू गेल्यावरती

पुनः एकटी होते

कवी – अज्ञात 

संग्राहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#158 ☆ बाल मन की कविता – हो जाऊँ मैं शीघ्र बड़ा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है बाल मन की कविता “हो जाऊँ मैं शीघ्र बड़ा…”)

☆  तन्मय साहित्य # 158 ☆

☆ बाल मन की कविता – हो जाऊँ मैं शीघ्र बड़ा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(बालदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत एक बाल मन की कविता)

आता है मन में विचार

मैं भी हो जाऊँ शीघ्र बड़ा

नहीं किसी की ओर निहारूँ

अपने पैरों रहूँ खड़ा।

 

चॉकलेट टॉफी के लिए

कहाँ तक  हम तरसेंगे

होंगे बड़े  करेंगे मेहनत

फिर  पैसे  बरसेंगे,

थोड़ी कंजूसी करके

भर लूँगा पूरा एक घड़ा।

आता है मन में विचार

मैं भी हो जाऊँ शीघ्र बड़ा….

 

इक दिन मैं बाजार गया

अंगूर सेंवफल लेने

बच्चा, हमें जान कर

हेर-फेर की फल वाले ने,

घर आकर देखा तो

एक सेवफल, पूरा मिला सड़ा।

आता है मन में विचार

मैं भी हो जाऊँ शीघ्र बड़ा।।

 

टोका टाकी रोज-रोज मैं

कब तक और सहूँगा

मम्मी पापा के अधीन

मैं कब तक और रहूँगा,

यही बात पूछी पापा से

चाँटा प्यार से मुझे पड़ा।

आता है मन में विचार

मैं भी हो जाऊँ शीघ्र बड़ा।।

 

फिर मम्मी ने समझाया

यह बाल उम्र ही अच्छी है

होंगे जितने बड़े, बढ़ेगी

उतनी  माथापच्ची है,

बात समझ में आई सच में

बचपन हीरो हार जड़ा।

आता है मन में विचार

मैं भी हो जाऊं शीघ्र बड़ा।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 48 ☆ स्वतंत्र कविता – अगला जनम… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण स्वतन्त्र कविता  “अगला जनम…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 48 ✒️

? स्वतन्त्र कविता – अगला जनम…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

प्यार तुम्हारा

नीलगगन ,

उड़ते पंछी

मेरा मन ।

चांद सितारे

आभूषण………..।।

 

तुम पर समर्पित

तन – मन – धन ,

जग की हम पे

पैनी चितवन ।

कैसे संभव

अपना मिलन ,

लेना होगा

अगला जन्म ………..।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 57 – कोविड और जीवनप्रकाश ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा  “कोविड और जीवनप्रकाश …“।)   

☆ कथा कहानी  # 57 – कोविड और जीवनप्रकाश ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

“जीवनप्रकाश” नाम था उनका घर में और स्कूल में ,पर उन्हें जीवन कहकर ही बुलाया जाता था. “जीवन” उन दिनों के प्रसिद्ध खलनायक थे तो उन्हें जीवन कहकर संबोधित किया जाना पसंद नहीं था पर उस उम्र में विरोध के कोई मायने नहीं होते. पर जब कॉलेज में गये तो अपने नाम का शार्ट फार्म “जेपी” पॉपुलर करने के लिये बहुत मेहनत की और ये हो भी गया. नौकरी बैंक में मिली तो यहां पर भी लोगों द्वारा पहले जेपी और बाद में जेपी सर कहकर संबोधित किये जाते रहे.जेपी अपनी कुछ अच्छी आदतों और सच्चे दोस्तों के मामले में बहुत धनी थे. जब भी कहीं जाना हो तो बाकायदा बोलकर और बैंक में तो अधिकतर लीव स्वीकृत होने पर ही जाते थे. यही नहीं बल्कि काम खत्म करने के बाद शाखा प्रबंधक को गुडनाईट सर कहकर जाने का अटूट सिलसिला उनके रिटायरमेंट तक अनवरत जारी रहा. जब कभी ब्रांचमेनेजर की कुर्सी खाली होती, तब भी खाली कक्ष को भी गुडनाईट सर कहकर ही जाने की उनकी आदत थी. लोग हंसते तो कहा करते थे कि व्यक्ति कोई भी हो, बैठे या न बैठे पर मेरी गुडनाईट बैंक को संबोधित रहती है. उनकी काम के प्रति लगन, कस्टमर्स को मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार उन्हें नगर में लोकप्रिय बनाता गया. ब्रांचमेनेजर भी उन्हें पसंद करने लगे. जब कभी शाम को जाते वक्त जेपी, चैंबर के समीप आते तो शाखाप्रबंधक खुद ही पहल करके बोल देते “गुडनाईट जेपी”. जब उनके बॉस उनका अच्छा काम और कस्टमर्स के प्रति मधुर व्यवहार से प्रभावित होकर प्रमोशन के लिये प्रेरित करने की कोशिश करते तो उनका विनम्र जवाब यही होता “सर मैं अपने तीन दोस्तों के साथ शाम की चाय नहीं छोड़ सकता”. दरअसल बैंक से निकल कर घर पहुंचने से पहले अपने बचपन के मित्रों “हंसमुख, खुशवंत और इस्माइल ” के साथ शाम 6:30 की चाय पीना रोज का कार्यक्रम था, छुट्टियों के दिनों को को छोड़कर क्योंकि वे दिन तो पूरे या तो उन्हीं के साथ गुजरते थे या फिर परिवार के साथ.इनके अलावा उनकी दोस्ती तो किसी से नहीं थी पर पहचान सभी से थी , उनकी मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार के कारण़.

एक ईश्वरीय चमत्कार इन चारों दोस्तों के साथ यह भी था कि इनके ब्लड ग्रुप एक ही थे AB Negative. बहुत दुर्लभ था तो जरूरत पड़ने पर रक्तदान के लिये ये लोग हमेशा तैयार रहते और जब एक रक्तदान करता तो बाकी दोस्त मज़ाक करते “अरे हमारे लिये भी बचाकर रख, हम किसको ढूंढ़ेगे “

जब कोरोना का संक्रमण काल और लॉकडाऊन शुरु हुआ तब भी बचते बचाते शाम की चाय ये किसी भी एक के यहां उसके घर पर ही पीते, कभी कभी पुलिसवाले इन्हें बाहर निकलते देखकर चमका भी देते और मज़ाक में  कहते भी कि अंकल घर पर रहो वरना इस उम्र में पुलिस के डंडे बर्दाश्त नहीं कर पाओगे.

ये अक्सर आपस में भी मजाकिया लहजे में कहते रहते कि हम पॉज़िटिव नहीं हो सकते, नेगेटिविटी तो हमारे खून में ही है. हमें तो अपने दोस्तों के कंधे पर अंतिम यात्रा करनी है और जरूरत पड़ने पर इनका ब्लड और इनके कंधे ही हमारे काम आने वाले हैं. पर विधाता की मर्जी कुछ और ही थी, जीवनप्रकाश जी कोरोना से संक्रमित होकर हॉस्पिटलाईज हुये और बहुत चाहकर भी ये लोग मिलने जा नहीं सके क्योंकि मिलना पूरी तरह प्रतिबंधित था. एडमिट होने की दूसरी सुबह ही जेपी सर ने कोविड हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली, इम्यूनिटी और दोस्तों का अटूट प्रेम भी उन्हें यारों से जुदा होने से नहीं रोक पाया. अंतिम संस्कार भी कोविड गाइडलाईन के अनुसार हुआ और नियमानुसार सिर्फ दो परिवार के सदस्य ही उपस्थित रहने के लिये अनुमत किये गये.

हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत स्तब्ध थे, खामोश थे आंखे सूनी सूनी पर ऑंसुओं से खाली थीं. लोग इन्हें देखते और ये तीनों नज़रें झुकाकर चुपचाप आगे बढ़ जाते. लोग आश्चर्य चकित होकर रह जाते पर बोलते कुछ नहीं. अंतिम संस्कार के दूसरे दिन शाम को ठीक 6 बजे इस्माइल, खुशवंत और हंसमुख तीनों उस गार्डन की बैंच के पास पहुंचे जहां ये कभी कभी सुबह वॉक के बाद बैठकर गपशप किया करते थे, हल्का अंधेरा हो चुका था और कोरोना की दहशत के कारण पार्क खाली था. ये तीनों बैंच के सामने नीचे जमीन पर बैठ गये, इस्माइल ने बैग से फ्रेम की हुई चारों की ग्रुप फोटो निकाली, खुशवंत ने मोमबत्ती निकाल कर जलाई, हवा भी शायद संक्रमण की गंभीरता से डर कर शांत और स्थिर थी, पत्ते तक नहीं हिल पा रहे थे.हंसमुख ने अपने बैग से थर्मस और चार डिस्पोज़ेबल कप निकाले और चाय भरकर बैंच पर ऱख दी. इस्माइल ने धीमी आवाज़ में कहा “जीवन,लो चाय पी लो।”

खुशवंत :उसे जीवन नहीं जेपी कहो, ये नाम उसे कभी पसंद नहीं था.

अचानक न जाने कहां से हवा का तेज झोंका आया, कैंडल बुझ गई और चाय के कप लुड़क गये. तीनों ने मिलकर जेपी की फोटो गिरने से पहले ही उठा ली, तीनों को लगा जैसे हवा के झोंके के साथ जेपी ने भी अपने दिल की बात उनतक पहुंचा दी जिसे सिर्फ वही सुन और समझ सकते थे.

“माफ करना दोस्तों, तुमसे बिना कहे बिना मिले जाना पड़ा, हसरत तो थी कि तुम्हारे कंधों पर जाता पर मुमकिन नहीं हो सका. भगवान को भी पता चल गया था कि मुझे “जीवन” शब्द पसंद नहीं है तो बस छीन लिया. अब सिर्फ प्रकाश है जो प्रकाश पुंज से मिलने की यात्रा पर अकेले ही जा रहा है,अलविदा !!!

हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत के रुके हुये आँसू सैलाब बनकर निकल पड़े और वो तीनों अनवरत फूटफूटकर रोने लगे. जेपी अपने साथ इस्माइल की Smile, खुशवंत की खुशी और हंसमुख की हंसी, दोस्तों की सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में ले गये. शाम की चाय अनिश्चित काल के लिये बंद हो गई.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 158 ☆ सुरैय्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 158 ?

☆ सुरैय्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

मी खूप वर्षांनी पाहिलं तुला,

फेसबुक वर!

तू माझ्याच वयाची—

एकेकाळची मैत्रीण!

तू स्विकारलीस माझी रिक्वेस्ट,

पण साधला नाहीस संवाद!

तू उच्च शिक्षित,

उच्चपदस्थ  !

 

 जेव्हा जमलं आपलं मैत्र,

तेव्हा होतो आपण,

एकाच नावेतल्या प्रवासी!

खरंतर गृहिणीच…आईसुद्धा!

पण शिकत होतो,

आपापल्या वकुबानुसार!

 

बराच मोठा असतो गं,

पस्तीस चाळीस वर्षाचा कालखंड…

आणि आयुष्यात झालेली उलथापालथही!

तरीही ओळखलं आपण एकमेकींना!

जिथे भेटलो होतो कधी,

ते बालगंधर्व….

बकुळीचे वळेसर…

विस्मरणात गेले होते खरेतर..

पण परवा बालगंधर्वमधले,

फोटो तू लाईक केलेस….

तेव्हा आठवला बकुळीचा गंध..

आणि तू !

 

तेव्हा मी तुला

 “सुरैय्या” सारखी दिसतेस म्हटलं होतं..

आणि तू म्हणालीस….

लग्न झाल्यापासून माझा नवरा

मला कधीच म्हणाला नाही…

“तू सुंदर दिसतेस”

 

बस्स इतकंच आठवतंय!

आणि नाही जाणून घ्यावसं वाटत

पुढचं काहीच….

 

फेसबुकच्या पानावर,

तू आजही भासतेस सुरैय्याच…

अधिक ग्रेसफुल!

सा-या प्रगल्भ जाणिवा सांभाळत!

 

मी पुसून टाकते,

मनातले असंख्य प्रश्न….

आणि नाही जाणू इच्छित….

तीन अंकी नाटकातले…

पुढचे दोन !

© प्रभा सोनवणे

३ नोव्हेंबर २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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