सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है । देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

फिर चली बात , बात किताबों की – कमलेश भारतीय

ये दिन साहित्य के दिन हैं । साहित्य में रमने के दिन हैं । साहित्य के बहाने आपस में मिलने मिलाने ही नहीं बतियाने के दिन हैं यानी पुस्तक मेले के दिन हैं । बस । दिल्ली का पुस्तक मेला आने ही वाला है । प्रकाशक तैयारियों में जुटे हैं तो लेखक इंतज़ार में कि इस बार पुस्तक मेले में तो उसकी किताब आ ही जाये ! दिल्ली का पुस्तक मेला लेखकों के मिलन का भी बहाना है । दूर दराज से लेखक इसी आशा से आते हैं कि सबसे मिलना हो जायेगा । दो तीन वर्ष तो कोरोना ने यह मिलना मिलाना भी जैसे अभिशप्त कर दिया था । बड़ी मुश्किल से यह अभिशाप खत्म हुआ । पुस्तक मेले में दुनिया भर की पुस्तकें और हर तरह की पुस्तकें आती हैं । लेखक एक दूसरे की नयी पुस्तक का हाथों हाथ विमोचन कर देते हैं । यह ऐसी दुनिया जिसका इंतज़ार साल भर रहता है । आइए पुस्तक मेले में चलें । वैसे अब दिल्ली के अलावा भी अन्य बड़े शहरों में पुस्तक मेले लगने लगे हैं जो बहुत ही सुखद बात है । चंडीगढ़ के पुस्तक मेले में भी अब खूब मुलाकातें होती रही हैं लेखकों से ।

पुस्तक पखवाड़ा : भोपाल के लघुकथा के परिंदे ग्रुप की ओर से ऑनलाइन पुस्तक पखवाड़ा आयोजित किया गया जिसमें विभिन्न प्रदेशों के लेखकों को इसमें आमंत्रित कर पुस्तकों पर चर्चा की गयी । यह भी एक अच्छा प्रयोग रहा । बधाई ।

हिसार का फिल्म महोत्सव : इस सप्ताह हिसार के गुरु जम्भेश्वर विश्विद्यालय के रणबीर सभागार व सेमिनार हाल में दो दिवसीय हरियाणवी फिल्म महोत्सव संपन्न हुआ । हरियाणा भर से रंगकर्मी जुटे और हरियाणवी फिल्मों के लिए विचार विमर्श हुआ । पचास से ऊपर शाॅर्ट फिल्में दिखाई गयीं विभिन्न विश्वविद्यालयों के जनसंचार विभाग के छात्र छात्राएं जुटे । स्टेज एप की खूब वाहवाही हुई । इस सबके बावजूद इस फिल्म महोत्सव में कलाकारों ने हिसार दूरदर्शन के चंडीगढ़ शिफ्ट किये जाने पर कोई चर्चा नहीं की और न ही इसे वापिस लाये जाने का कोई प्रस्ताव पारित किया गया । आखिर कलाकार ही दूरदर्शन की मांग नहीं उठायेंगे तो कौन उठायेगा ?

वीरेंद्र वीर को सम्मान : हिमाचल की ऊना की संस्था हिमोत्कर्ष की ओर से वीरेंद्र शर्मा वीर को सम्मानित किये जाने की घोषणा की गयी है । हिमाचली संस्कृति के लिये वीर के प्रयासों को देखते हुए यह सम्मान दिया जा रहा है । बधाई । 

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #176 – 62 – “जड़ें ज़मीन छोड़ती जा रहीं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल जड़ें ज़मीन छोड़ती जा रहीं…”)

? ग़ज़ल # 62 – “जड़ें ज़मीन छोड़ती जा रहीं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ये ज़िंदगी बिना कोशिश बदल सकती नहीं ,

चलने दो जैसी बात अब चल सकती नहीं। 

जड़ें ज़मीन छोड़ती जा रहीं बिना पानी के,

संस्कार बिना संस्कृति संभल सकती नहीं। 

ख़्वाब में खाने से भूख मिट नहीं सकती,

जुमलों से दिया  बाती जल सकती नहीं।

ज़िंदगी को खेत में पसीना बहाना पड़ता है,

चमकती मेट्रो में जाकर टहल सकती नहीं।

खुद्दार आतिश कहता वही जो लगता सही,

सोच किसी विचारधारा में ढल सकती नहीं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 54 ☆।। जीवन अर्थ मर्म, मानवता की ओर प्रथम कदम।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।।।जीवन अर्थ मर्म, मानवता की ओर प्रथम कदम।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 54 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। जीवन अर्थ मर्म, मानवता की ओर प्रथम कदम ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

कभी   नीम    सी    कभी      मीठी     है    जिंदगी।

मत    ज्यादा     उलझा   कि   सीधी   है  जिंदगी।।

सुख  दुःख धूप  छाँव  हर   किसी  के  जीवन  में।

पयोगे कि हर किसी की ये आपबीती है जिंदगी।।

[2]

मत   तमन्ना   रख   तू    कोई   भगवान  बनने  की।

बस आरजू   हो  अच्छे काम कुछ  इंसान बनने की।।

यह   जीवन   सफल होगा   परोपकार  कोशिश में।

हरपल कोशिश इंसानियत का सम्मान करने की।।

[3]

जान  लो  कि  मन  को  दूजे से कुछ  आशा  होती  है।

मित्रता  रिश्तों   की  यही   सही  परिभाषा होती  है।।

बिन  कहे ही जान  लें   हम  दूजे के भीतर व्यथा को।

हर रिश्ते में ही परस्पर यही इक अभिलाषा होती है।।

[4]

जान लीजिए यह जीवन  अर्थ का ही एक कदम है।

ये मिल  के बनता जाता   मानवता का  करम   है।।

हम बदलेंगे समाज बदलेगा यह  है  एक  सच्चाई।

छिपा इसी में सत्व इंसानियत का सच्चा धरम है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 118 ☆ ग़ज़ल – “न जाने क्या होगा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “न जाने क्या होगा…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #119 ☆  ग़ज़ल  – “न जाने क्या होगा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बढ़ती  महंगाई  के  चलते  ये  सोच  के  जी  घबराता है

कल आने वाली दुनिया का भगवान न जाने क्या होगा।

 

मौसम भी बदल चाहे जब तब करता रहता है मनमानी

वर्षा बिन प्यासी धरती का प्रतिदान न जाने क्या होगा।

 

पानी  ही  जग  का जीवन  है, पानी  बिन  बड़ी परेशानी

बिजली-पानी बिन भोजन का सामान न जाने क्या होगा।

 

रूपये का गया घट मान बहुत, व्यवहारों में बाजारों में

है चिन्ताओं का बोझ बढ़ा अरमान न जाने क्या होगा ?

 

नये रीति रिवाजों का है चलन, व्यवहार बदलते आये दिन

मुश्किल में फंसी हर जान है जब, आसान न जाने क्या होगा।

 

रहना  पड़ता  है लोगों को, बेमन से अधूरी छाया में

बढ़ती जाती नित बेचैनी, आदान न जाने क्या होगा।

 

माहौल गरम, दिल बैठा है, हर नये दिन नई लड़ाई है

बेदर्द जमाना मन मौजी, अनुमान न जाने क्या होगा।

 

दब कर भी अनेक बोझो में, एक बुझी-बुझी मुस्कान लिये

परवशता में पिसता कल का इंसान न जाने क्या होगा।

 

दिखती न कहीं भी कोई डगर जहां छाया हो तूफान नहीं

अरमान  ’विदग्ध’  उड़े जाते भगवान न जाने क्या होगा।   

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 139 – सौंदर्यवती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 139 – सौंदर्यवती ☆

तुझ्या लावण्याला तोड नसे उभ्या ग जगती।

अशा सौंदर्यवतीची कशी वर्णावी महती।।धृ।।

नाना अलंकार ल्याली नवविध भूषणे सजली।

तुझ्या लावण्याची प्रभा नाना छंदाने नटली।

जगी मानाचा ग तुरा तुझ्या मुकूटा वरती।।१।।

तुझी शृंगारली बोली जाग प्रणयाला आली।

के ले कित्येक घायाळ धुंदी  शब्दांनी चढली।

मधुर रसाची उधळण शब्द अमृतात न्हाती।।२।।

संत तुका चोखा नामा करी अभंग गायना।

भक्तीरस मंथनाला भुले पंढरीचा राणा।

ज्ञानीयांचा राजा जगी तुझी वर्णितो महती।।३।।

वीर रौद्र शांत रस किती निर्मिले सुरस।

हस्य करूण रसाला भाव फुलांची आरास।

दीग्जांनी भूषविली शब्द भूषणे ही किती।।४।।

भारूड गौळणी पोवाडे लोकगीतांचा हा झरा।

करीती जन जागरण देऊन संदेश हा खरा।

माय मराठी ही शोभे राजभाषा स्थानावरती।।५।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ तर मी का नाही ?… डाॅ. बिंदुमाधव पुजारी ☆ परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ तर मी का नाही ?… डाॅ. बिंदुमाधव पुजारी ☆ परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

पुस्तकाचे नाव – तर मी का नाही?

लेखक – डॉ. बिंदुमाधव पुजारी

पृष्ठे – ३२४ मूल्य – ४५० रु.

नुकतेच एक चांगले पुसताक वाचनात आले. ‘…. तर मी का नाही?’ मिरजेतील ख्यातनाम सर्जन डॉ. बिंदुमाधव पुजारी यांचे हे आत्मचरित्र. वेगळे वाटणारे हे शीर्षक पाहिले आणि मनात कुतुहल निर्माण झाले.

सुरूवातीला त्यांनी लिहिलय, ‘माझा डॉक्टर आणि त्यानंतर सर्जन होण्याचा प्रवास हा योगायोग, दैव, आणि खूप खडतर वाटचाल इत्यादींचे मिश्रण होते. मी वैद्यकीयशास्त्र हे आवडीने घेतले नाही किंवा नाकारले पण नाही. जे नशिबी आले, ते जिद्दीने स्वीकारले. एक गोष्ट मात्र नक्की. कोणताही विषय स्वीकारला की मी त्यात स्वत:ला संपूर्ण झोकून देत असे. मग कितीही कष्ट करावे लागले आणि यातना सोसाव्या लागल्या तरीही माझी तयारी असे.  एखादी गोष्ट जर दुसर्‍याला करता येत असेल, तर ती  मला का करता येणार नाही? मी ती करणारच.’ ते पुढे लिहितात, ज्यावेळी इंग्रजी चौथीत इंग्रजीत ते नापास झाले होते, तेव्हा त्यांचे गुरुजी म्हणाले होते, ‘तुझ्या वर्गातील अठ्ठावीस मुले पास झाली आहेत. तर तू का पास होणार नाहीस? अभ्यास कर म्हणजे तूही पास होशील.’ त्यांनी भरपूर अभ्यास केला. ते नुसतेच पास झाले नाहीत, तर चांगले  गुण त्यांनी मिळवले. त्यावेळी  गुरुवाणीतून स्फूर्ती घेऊन त्यांनी जीवन प्रवास सुरू केला आणि ते उत्तम गुण मिळवत राहिले. अव्वल येत राहिले. त्यांच्या सार्‍या जीवनाचे सूत्र, ‘हे इतर करू शकतात, तर मी का नाही? (करू शकणार?) हे राहिले. ते त्यांनी हृदयस्थ केले  म्हणून मग आत्मचरित्राचे नावही नक्की झाले,   ‘…. तर मी का नाही?  

नरसोबाची वाडी (नृसिंहवाडी) इथे वेदशास्त्र पारंगत, पौरोहित्य करणार्‍या अशा पुजारी घराण्यात २४ एप्रील १९३५ मध्ये डॉक्टर बिंदुमाधव यांचा जन्म झाला. सुरूवातीला ते नरसोबाची वाडी हे गाव कसं वसलं आणि पुजारी हे आडनाव कसं अस्तित्वात आलं, त्याचा इतिहास देतात. श्रीनृसिंहसरस्वती १४२२साली या स्थानी तपश्चर्येला आले. तेथून जवळच असलेल्या आलास या गावातून भैरव जेरे त्यांचे दर्शन घेऊन पुढे शिरोळ येथे जोसकी करण्यासाठी जात. श्रीनृसिंहसरस्वती जेव्हा गाणगापूरला जायला निघाले, तेव्हा त्यांनी आपल्या पादुकांचे ठसे तिथे ठेवले आणि त्यांनी भैरव जेरे यांना तुम्ही वंशपरांपरागत या पादुकांची पूजा करावी, असे सांगितले. पुढे त्यांना एक मुलगा, नंतर त्या मुलाला चार मुले झाली. त्यांचा वंशवेल वाढत गेला. श्रींच्या पादुकांची पूजा करणारे म्हणून जेरे घराणे पुजारी या नावाने ओळखले जाऊ लागले. भैरंभट हा त्यांचा मूळ पुरुष. त्याप्रमाणेच गावाचा इतिहास, भूगोल, संस्कृती, लोकजीवन, श्रींची पूजा-अर्चा, सण- उत्सव, इत्यादिंची माहितीही सुरूवातीला सांगितली आहे. त्यावेळच्या समस्या- दुष्काळ, साथीचे रोग, वैद्यकीय (अ)सुविधा, शिक्षणाच्या सोयी, गांधीवधांनंतर गावात झालेले जळीत प्रकरण, त्याचा लोकजीवनावर झालेला परिणाम या सगळ्याचे वर्णन सुरूवातीला येते. ही सगळी माहिती वेधक आणि मनोरंजक पद्धतीने यात येते.

गावातील धार्मिक वातावरण, घरातील जुने वळण, एकत्र कुटुंब, यामुळे, ‘सहनशीलता, समानता, समजूतदारपणा, खिलाडू वृत्ती, सांघिक भावना, कष्टाची तयारी इ. गोष्टी लहानपणीच आमच्या अंगात मुरल्या होत्या. त्याचा पुढील आयुष्यात आम्हाला फार उपयोग झाला’, असे ते सांगतात.  त्या काळात, सोयी-सुविधांच्या अभावी, जीवन, विशेषत: ग्रामीण जीवन कष्टप्रद होते. लहान मुलांनाही त्यांच्या त्यांच्या वयाप्रमाणे कष्टाची कामे करावी लागत. डॉक्टर म्हणतात, त्यांचे लहानपण कष्टात, तरीही आनंदात मजेत गेले.

माध्यमिक शिक्षणाची सोय गावात नव्हती. त्यासाठी कुरूंदवाडला जावे लागे. वर्षातले नऊ महीने, प्रथम नावेतून पंचगंगा नदीच्या पलिकडे जावे लागे. नंतर कुरूंदवाडच्या वेशीपर्यंत चालत जाऊन पुढे तीन मैल अनवाणी चालत जावे लागे. पावसाळ्यात, भरपूर पाऊस, प्रचंड वेगाने वहाणारे पाणी, घोंगावणारे वारे, यातून नाव बाहेर काढणे बिकट असे. प्रवास भीतीदायक, धोकादायक वाटायचा. असा सारा त्रास, कष्ट सहन करत वाडीतील अन्य मुलांप्रमाणे डॉक्टरांचे माध्यमिक शिक्षण पूर्ण झाले. ७८% गुण मिळवून ते शाळांत परीक्षा पास झाले.

पुढे कॉलेज ते एम.बी.बी.एस.पर्यंतच्या खडतर शैक्षणिक प्रवासाची माहिती येते. आर्थिक विवंचनेमुळे हा शैक्षणिक प्रवास खडतर झाला होता. शिष्यवृत्ती होती, पण जेवणाचा प्रश्न होता. हा प्रश्न सोडवण्यासाठी त्यांनी कधी मेसच्या सेक्रेटरीचे काम केले, कधी एका मुलाला तासभर अ‍ॅनाटॉमी शिकवून त्याच्या डब्यात जेवणाची सोय करून घेतली.

बिंदुमाधव मुळात मेडिकलकडे कसे गेले, याचाही एक किस्सा आहे. एफ. वाय. ला ते सायन्स विभागात व गणितात विद्यापीठात पहिले आले. इंजींनियारिंगला जायचा त्यांचा विचार होता, पण रिझल्टच्या वेळी काही प्रतिष्ठित मंडळी त्यांना भेटायला आली. त्यांनी सुचवले, त्याने डॉक्टर व्हावे. पंचक्रोशीत कुरूंदवाडच्या डॉ. वाटव्यांशिवाय कुणी एम.बी.बी.एस. डॉक्टर नाही. बिंदू उत्तम डॉक्टर होऊ शकेल. त्यांच्या वडलांनाही ती कल्पना पसंत पडली. त्या सर्वांचा आग्रह पाहून ते मेडिकलला जायला तयार झाले.  

या पुस्तकात त्यांनी आपल्या लहानपणाच्या, शिक्षण घेत असतानाच्या, नोकरी करत असतानाच्या, स्वतंत्र व्यवसाय सुरू केल्यानंतरच्या, कॉन्फरन्स काळातल्या अनेक आठवणी सांगितल्या आहेत. पुस्तकात शेवटी व्यवसाय काळातल्या निवडाक बारा आठवणी दिलेल्या आहेत. त्याचप्रमाणे त्यांचे लेखन, व्याख्याने, त्यांना मिळालेले पुरस्कार, त्या त्या वेळचे फोटो असा सगळा भाग पारिशिष्टात दिलेला आहे

डॉक्टर१९५९ आली एम.बी.बी.एस. झाले व १९६३ साली एम.एस. झाले. सुरवातीला चार वर्षे त्यांनी सरकारी नोकरी केली. १९६५पासून त्यांनी स्वतंत्र व्यवसाय सुरू केला. १९६८साली त्यांचे ‘श्री हॉस्पिटल’ स्वत:च्या वास्तूत गेले.

१९६४साली त्यांचा विवाह बंगलोरयेथील डॉ. इंदुमती कुलकर्णी यांच्याशी झाला. त्या माधवी कुलकर्णी बनून डॉक्टरांच्या घरात आल्या आणि दुधात साखर विरघळावी, तशा त्यांच्या जीवनात विरघळून गेल्या.

प्रत्येक वर्षी ते वेगवेगळ्या कॉन्फरन्सेस ला जाऊ लागले. तिथे होणारी भाषणे, चर्चा यातून त्यांनी आपले ज्ञान अद्ययावत ठेवले आणि आपल्या ज्ञानाचाही इतरांनाही  फायदा करून दिला.

पुस्तक वाचत असताना डॉक्टरांची खास गुणवैशिष्ट्ये लाक्षत येतात, ती अशी— प्रखर बुद्धिमत्ता, जिद्द, कष्ट करण्याची तयारी, अभ्यास आणि संशोधनाची वृत्ती, सौजन्यशील-मृदू स्वभाव, अफाट लोकसंग्रह. नीटनेटकेपणा हा त्यांचा आणखी एक विशेष. आपल्या सगळ्या पेशंटसचे व्यवास्थित रेकॉर्ड त्यांनी ठेवले. ओपरेशन्सच्या वेळचे फोटो घेऊन तयार केलेल्या पारदर्शिका (स्लाईडस), प्रबंध-व्याख्यानांची तयारी या सगळ्यात त्यांचा नीटनेटकेपणा जाणवतो.

‘… तर मी का नाही?’ हे आत्मचरित्र जितके माहितीपूर्ण आहे, तितकेच ते रसाळही झालेले आहे. त्याचे श्रेय उत्तम शब्दांकन करणार्‍या प्रा. डॉ. मुकुंद पुजारी यांनाही द्यावे लागेल. साधी प्रासादिक, ओघवती, उत्सुकता वाढवणार्‍या भाषेत पुस्तकाचे लेखन झाले आहे. डॉ.चा मोठेपणा सांगणारा त्यांचा स्वत:चा लेखही यात आहेच. मुंबई विद्यापीठाच्या माजी कुलगुरू डॉ.(श्रीमती) स्नेहलता देशमुख यांची प्रस्तावना पुस्तकाचे सार आणि महत्व मोजक्या शब्दात सांगणारी, लक्षवेधी अशी आहे. एका कृतार्थ जीवनाची वेधक कहाणी यात आपल्याला वाचायला मिळते.

पुस्तक परिचय – सौ. उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #169 ☆ संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

(कृपया आदरणीया डॉ मुक्ता जी की पुस्तक “चिंतन के शिलालेख” की समीक्षा के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 169 ☆

☆ संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा

‘संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। परंतु जब आप संवाद अर्थात् वार्तालाप करना बंद कर देते हैं, तो आप अपने अनमोल संबंध खो देते हैं।’ यह वाक्य गहन-गूढ़ अर्थ को परिलक्षित करता है। जैसे संवाद अथवा कथोपथन कहानी या नाटक को गति प्रदान करते हैं; वैसे ही संवाद हमारे जीवन को ऊर्जा व जीवंतता प्रदान करते हैं… हमारे अंतर्मन में जीने की उमंग जाग्रत करते हैं। जैसाकि सर्वविदित है– मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह अकेला रहने में स्वयं को असमर्थ पाता है। इसलिए ही वह जन्म- जात संबंधों के रहते भी अन्य संबंध स्थापित करता है, क्योंकि वह अपने सुख-दु:ख की अभिव्यक्ति किए बिना ज़िंदा नहीं रह सकता। वह अपने हृदय के भावों को अभिव्यक्ति प्रदान कर सुक़ून पाता है तथा स्वयं को अकेला, असहाय व विवश अनुभव नहीं करता।

यदि आप वार्तालाप/ संवाद करना बंद कर देते हैं, तो अनमोल संबंधों को खो देते हैं। संवादहीनता मान-दशा तक तो  वाज़िब है, परंतु उसके बाद यह सज़ा बनकर रह जाती है और एक अंतराल के पश्चात् मानव स्वयं को  नितांत अकेला अनुभव करता है। प्रश्न उठता है– क्या संबंध बनाए रखने के लिए मानव को दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए अपने आत्म-सम्मान को दाँव पर लगा देना चाहिए? नहीं…यह तो चाटुकारिता कहलायेगी। यदि लंबे समय तक यह स्थिति बनी रहती है, तो मानव तनाव, चिंता व अवसाद से घिर जाता है और अंततः उस व्यूह को भेदना मानव के वश से बाहर हो जाता है। तनाव संबंधों की ताज़गी व पारस्परिक स्नेह-सौहार्द को लील जाता है और ऐसे व्यक्ति के साथ रहने से दूसरे पक्ष के लोग भी गुरेज़ करना प्रारंभ कर देते हैं। सो! उसे जीवन में अकेले विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।

लंबे समय तक तनाव की यह स्थिति मानव को चिंता के अथाह सागर में धकेल देती है। चिंता चिता समान है, जो दीमक की भांति मानव के उत्साह, साहस, धैर्य आदि को लील कर, शरीर रूपी इमारत की चूलों को हिला कर खोखला कर देती है। चिंताग्रस्त मानव सदैव ख़ुद से बेखबर स्वनिर्मित लोक में विचरण करता रहता है। वह बेसिर-पैर की कल्पनाओं में खोया, अनगिनत शंकाओं में घिरा स्वयं को अपाहिज-सा अनुभव करता है। यदि ऐसा-वैसा हो गया, तो उसका क्या होगा? उसके परिवार की क्या दशा होगी? उन विषम परिस्थितियों से वे कैसे निज़ात पा सकेगे? चिंताग्रस्त मानव को चारों ओर अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। जीवन में उसे आशा की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ती और न ही कोई उम्मीद की झलक दिखाई पड़ती है…उसे जीवन मरु-सम भासता है। उसकी दशा रेगिस्तान के उस हिरण-सी हो जाती है, जो प्यास से आकुल-व्याकुल सूर्य की किरणों को जल समझ उनके पीछे दौड़ा चला जाता है और अंत में अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। यही होती है अवसाद-ग्रस्त मानव की मन:स्थिति… जिसके जीवन में न कोई उमंग रहती है; न ही कोई तरंग; न प्रसन्नता; न ही उल्लास…वह तो नितांत अकेला, तन्हा-सा अपना जीवन बसर करता है अर्थात् ढोता है।

संवादहीनता मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां वह हरदम तन्हाई के दंश झेलता है; जो नासूर बन उसे आजीवन सालते हैं। संवादहीनता आजकल सभी रिश्ते-नातों में सेंध लगाकर जीवन के सुक़ून व सुखों पर डाका डाल रही है। सुक़ून मन की वह निर्विकार अवस्था है, जहां मानव राग-द्वेष व स्व-पर की निकृष्टतम वृत्तियों से ऊपर उठ जाता है और अंतर्मन रूपी सागर के शांत जल में निरंतर अवगाहन करता रहता है और वहां पहुचने के पश्चात् सभी इच्छाओं का शमन हो जाता है। परंतु उस स्थिति तक पहुंचने में मानव को वर्षों तक साधना-तपस्या करनी पड़ती है।

आइए! हम संबंध-निर्वाह के विषय पर चर्चा कर लें। संबंध विश्वास के आधार पर स्थापित तो हो जाते हैं, परंतु उनका निबाह करने के लिए आवश्यकता होती है बर्दाश्त करने की…यदि हममें सहनशीलता का मादा है, तो संबंध स्थायी व स्थिर रह सकते हैं, अन्यथा वे पानी के बुलबुले की भांति पल-भर में विलीन हो जाते हैं। संबंध कभी भी दूसरों से जीतकर नहीं निभाए जा सकते; उन्हें बनाए रखने के लिए तो जीतकर भी हारना पड़ता है। उनकी भावनाओं को महत्व देते हुए, प्रियजनों की प्रसन्नता के लिए पराजय को स्वीकारना पड़ता है। इसके विपरीत यदि आप वार्तालाप बंद कर देते हैं, तो संबंध टूट जाते हैं;  समाप्त हो जाते हैं और उन विषम परिस्थितियों में आप अकेले रह जाते हैं और कोई पल-भर के लिए भी आपके साथ समय व्यतीत करना पसंद नहीं करता।

यदि हम संबंधों को चिरस्थाई व शाश्वत् रूप प्रदान करना चाहते हैं, तो हमारे लिए यथासमय झुकना व दूसरों को सहन करना कारग़र होगा। दूसरे शब्दों में हमें परिस्थितियों के अनुसार समझौता करना होगा। झुकना, सहना व समझौता करने की एक ही मांग होती है…अहं का विसर्जन। यह ही एक ऐसा उपादान है; जिसके द्वारा आप दूसरों का हृदय परिवर्तित कर सकते हैं…अपने प्रति दूसरों के मन में विश्वास जाग्रत कर सकते हैं। वैसे भी जीवन केवल संघर्ष ही नहीं; समझौता है। संघर्ष की स्थिति हमारे अंतर्मन की आंतरिक शक्तियों को जाग्रत करती है; प्रेरित करती है; हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचाती है। दूसरे शब्दों में समझौता हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन कर, संबंधों को शाश्वत रूप प्रदान कर हमें सुक़ून देता है; जीने की प्रेरणा देता है। सो! संबंधों को सार्थकता प्रदान करने हेतु जहां संवादों की दरक़ार है; वहीं समझौता भी वह संजीवनी है, जिसमें प्राणदायिनी शक्ति निहित है।

अंतत: हम कह सकते हैं कि जीवन में कभी संवादहीनता की स्थिति न पनपने दें, क्योंकि यह वह सुनामी है; जो संबंधों को लील जाता है और जीवन को शून्यता से भर देता है। यह स्थिति मानव के लिए अत्यंत घातक है, विस्फोटक है। सो! हम सबको अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और समाज में स्नेह, सौहार्द, समन्वय, सामंजस्यता व समरसता की स्थिति बनाए रखने के लिए अपने अहम् का विसर्जन कर, संबंधों को सार्थक बनाने का भरसक प्रयास करना चाहिए …यही समय की मांग है और मानव-मात्र से अपेक्षित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #168 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 168 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – भावना के दोहे… ☆

खड़ी सुंदरी द्वार पर, लिए हाथ में सूप।

बालों मे गजरा बंधा, सुंदर दिखता रूप।।

 

पीड़ा मन की आज तक, बांच सका है कौन।

मनवा है बैचेन तो, हूँ अब तक मैं मौन।।

 

आपस में बातें करें, है जीवन अनमोल ।

तेरी मेरी बात का, बस इतना है मोल।।

 

आंखे तेरी बोलती, उनमें बड़ा सवाल।

तू कहना क्या चाहता, पूछ रहे हो हाल।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #154 ☆ “प्रेम…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  “प्रेम। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 154 ☆

प्रेम ☆ श्री संतोष नेमा ☆

प्रेम  से  बचकर   कहाँ  जाइएगा

जहां   जाइएगा    वहीं   पाइएगा

सृष्टि के कण-कण में है पिरोहित

कैसे     इसे   अब   ठुकराइयेगा

प्रेम ही मीरा प्रेम  राधा है

जिन्होंने प्रेम को साधा है

प्रेम सूर प्रेम ही तुलसी है

रामायण भी प्रेम गाथा है

जब तक प्रेम की प्यास जिंदा है

तब तक  चहकता हर परिंदा है

प्रेम  से रिक्त है  जिसका  हृदय

संतोष   वही  आज  शर्मिंदा  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #161 ☆ गुरू प्रतिपदा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 161 – विजय साहित्य ?

☆ गुरू प्रतिपदा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(6 फेब्रुवारी 2023 माघ कृष्णप्रतिपदा दिना निमित्त)

नरसिंह सरस्वती

दत्तात्रय अवतार

माघ कृष्ण प्रतिपदा

पुण्यतिथी ही साकार..!

 

लाड कारंजे गावात

जन्मा आले शालग्राम

अंबा भवानी माधव

नरहरी पुत्र नाम….!

 

उपनयनाचे वेळी

वेदवाणी उच्चारण

माता अंबा भवानीने

केले दिव्य संस्करण…!

 

शिव विष्णु गणपती

नरसिंह उपासना

देवी, आराधना सोपी

भक्ती शक्ती संकल्पना…!

 

कृष्णा पंचगंगा काठी

गाव नरसोबा वाडी

पुण्य पावन क्षेत्रात

दत पादुकांची गोडी…!

 

मनोहर पादुकांचा

वाडी मधे आहे वास

कृष्णा काठी औंदुबरी

दत्तात्रेय ‌सहवास…!

 

कृपादृष्टी सेवाफल

नाम विमल पादुका

क्षेत्र गाणगापुरात

दिव्य निर्गुण पादुका..!

 

आज गुरू प्रतिपदा

अवधूत मनी स्मरू

भक्ती सगुण निर्गुण

दर्शनाची आस धरू…!

 

दत्त संप्रदाय क्षेत्री

गुरू प्रतिपदा खास

नरसिंह सरस्वती

दत्त रूप सहवास…!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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