☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 38 – भाग 3 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
काळं पाणी आणि हिरवं पाणी
दुसऱ्या दिवशी पहाटे लवकर उठून बसने निघालो. जारवा आदिवासींच्या जंगलात जायचे होते. त्या संरक्षित जंगलात जाण्या- येण्याच्या वेळा ठराविक असतात. सर्व प्रवासी बसेसना एकदम एकत्र सोडण्यात येतं. त्या जंगल विभागाशी पोहोचेपर्यंत दुतर्फा आंबा, फणस, नारळ, सुपारी, केळी, एरंड, भेंडी अशी झाडं व विविध प्रकारचे पक्षी दिसत होते. संरक्षित जंगल विभागात साधारण ३०० जारवा आदिवासी राहतात. बंद काचेच्या धावत्या बसमधून त्यातील काही आदिवासी दिसले. स्त्री व पुरुषांच्या फक्त कमरेला झाडाच्या सालींचे उभे उभे पट्टे रंगवून कमरेच्या दोरात अडकवलेले होते. पुरुषांच्या हातात तिरकमठा होता व स्त्रियांच्या कडेवर छोटी मुलं होती. लोखंड खूप तापवलं तर त्याचा जसा तांबूस काळा रंग दिसतो तसा त्यांचा तकतकीत रंग होता. काही छोटी मुलं बसमागे धावत होती. सरकारतर्फे त्यांना कपडे, धान्य देण्याचा प्रयत्न होतो. मानव वंशशास्त्रज्ञ त्यांचा अभ्यास करीत असतात पण सारे त्यांचे रीतीरिवाज सांभाळून, त्यांचा विश्वास संपादन करून करावं लागतं.
जंगल ओलांडल्यावर थोड्यावेळाने आम्ही बसमध्ये बसूनच बार्जवर चढलो. पलिकडे उतरल्यावर स्पीड बोटीने, लाईफ जॅकेट घालून, ‘बाराटांगा’ वन विभागात पोहोचलो. दुतर्फा मॅनग्रोव्हजचे घनदाट जंगल आहे. नीलांबर गुंफा बघायला जाताना स्पीड बोटीच्या दोन्ही बाजूंनी असलेल्या मॅनग्रोव्हज् व इतर झाडांची सुंदर दाट हिरवी कमान तयार झाली होती. हे गर्द हिरवे ट्रॉपिकल रेन फॉरेस्ट आहे. हजारो वर्षी पाणी या गुंफेमध्ये ठिबकल्याने त्यांचे नैसर्गिक आकार तयार झाले आहेत.
१. एलिफंट बीच २. एलिफंट बीचला जाताना वाटेत दिसलेले एक बेट ३. समुद्री कोरल्स
हॅवलॉक आयलँडला जायला लवकर उठून सहाची बोट पकडली. तिथल्या हॉटेलवर आज मुक्काम होता. जेवून दुपारी राधानगर समुद्रकिनाऱ्यावर गेलो. तीव्र उन्हामुळे समुद्राचे पाणी व वाळू चकाकत होती. दुसऱ्या दिवशी सकाळी हॉटेलजवळच्या बीचवर फिरायला गेलो . अंदमानच्या जवळजवळ सर्व बेटांवर सदाहरित जंगलं व किनाऱ्याजवळ खारफुटीची दाट वनं आहेत. किनारे प्रवाळाने समृद्ध आहेत. विविध पक्षी आहेत. तिथल्या समुद्रकिनाऱ्यावरील शंख- शिंपले, कोरल्स बाहेर नेण्यास बंदी आहे. इथला निसर्ग लहरी आहे आणि बंगालचा उपसागर सदैव अस्वस्थ असतो.
हॅवलॉकवरून छोट्या होडीतून ( डिंगीतून ) एलिफंट बीचसाठी केलेला प्रवास थरारक होता. वाटेतल्या एका डोंगराचं टोक गरुड पक्षाच्या नाकासारखं पुढे आलं आहे. त्यावर दीपगृह आहे. एलिफंट बीचवर नितळ समुद्रस्नानाचा आनंद घेतला. पूर्वी इथे लाकडाचे भले मोठे ओंडके वाहण्यासाठी हत्तींचा उपयोग करीत म्हणून या किनाऱ्याला ‘एलिफंट बीच’ असं नाव पडलं. आता तिथे हत्ती नाहीत. तिथून हॅवलॉक आयलँडला परत आलो.
दुसऱ्या दिवशी संध्याकाळी हॅवलॉक बंदरात छान गोरीगोमटी कॅटामरान उभी होती. हलत्या बोटीच्या बंद काचेतून तसंच वरच्या डेकवरून सूर्यास्त टिपण्यासाठी सगळ्यांनी कॅमेरे सरसावले होते. एकाएकी सारं बदललं. आकाश गडद झालं. सूर्य गुडूप झाला. जांभळे ढग नंतर दाट काळे झाले. कॅटामरान जोरजोरात उसळू लागली. टेबल टेनिसचा चेंडू उडवावा तसा समुद्र बोटीला उडवत होता. सारे जण जीव मुठीत धरून बसले. बऱ्याच परदेशी प्रवाशांना, लहान मुलांना उलट्यांनी हैराण केलं. ‘समुद्री तुफान आया है’ असं म्हणत बोटीचा स्टाफ धावपळ करीत साऱ्यांना धीर देत होता, ओकाऱ्यांसाठी पिशव्या पुरवीत होता. दीड तास प्रवासापैकी हा एक तास भयानक होता. निसर्गापुढे माणूस किती क्षुद्र आहे हे दाखविणारा होता.
पोर्ट ब्लेअरला तुफान पावसाने स्वागत केलं. आभाळ फाडून वीज कडाडली. जीव घाबरला, पण आता पाय जमिनीवर टेकले होते. किनाऱ्यावर सुखरूप उतरलो म्हणून त्या अज्ञात शक्तीचे आभार मानले. आकाशातून बरसणाऱ्या धारा आता आशीर्वादासारख्या वाटत होत्या.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – हिंदी नाटकों का अभाव।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 195 ☆
आलेख – हिंदी नाटकों का अभाव
आज नाटक अपेक्षकृत कम लिखे जा रहे हैं. लोगो की बदलती अभिरुचि के चलते जीवंत नाट्य प्रस्तुति की जगह कैमरे में कैद संपादित फिल्म या धारावाहिक ज्यादा लोकप्रिय हैं.
कथावस्तु, नाटक के पात्र, रस, तथा अभिनय नाटक के प्रमुख तत्व होते हैं. पौराणिक, ऐतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक विषय नाटक की कथावस्तु हो सकते हैं. कथा वस्तु को नाटक के माध्यम से दर्शको के सम्मुख प्रस्तुत करके नाटककार विषय को संप्रेषित करता है.ऐतिहासिक नाटको में कथावस्तु सामान्यतः ज्ञात होती है पर फिर भी दर्शक के लिये नाटक में जिज्ञासा बनी रहती है, और इसका कारण पात्रो का अभिनय तथा नाटक का निर्देशन होता है. नाटक की कथा वस्तु का दर्शको तक संप्रेषण तभी सजीव होता है जब नाटक के पात्रों व विशेष रूप से कथावस्तु के अनुरूप नायक व अन्य पात्रो का चयन किया जावे. यह दायित्व नाटक के निर्देशक का होता है. पात्रों की सजीव और प्रभावशाली प्रस्तुति ही नाटक की जान होती है. नाटक में नवरसों में से आठ का ही परिपोषण होता है. शांत रस नाटक के लिए निषिद्ध माना गया है, वीर या श्रंगार में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है. अभिनय नाटक का प्रमुख तत्व है. इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है.
आज हिंदी में नाटक लेखन अत्यंत सीमित है, पर इस क्षेत्र में व्यापक संभावना है.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 20 – अंधविश्वास मान्यताएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विदेशों में हमारे देश के बारे में अंधविश्वास/ मान्यताएं आदि से ही परिचय दिया जाता था। पश्चिम देश हमारे देश को अनपढ़ और पिछड़ा हुआ के परिचय से ही जानते थे। विगत कुछ सप्ताहों के प्रवास के समय हमें विदेशियों की भी ऐसी ही कुछ जानकारियां प्राप्त हुई, जैसे कि तेरह अंक को यहां अच्छा नहीं मानते हैं। इसलिए अनेक होटलों में तेरह नंबर का कमरा नहीं होता हैं। कुछ ऊंचे भवनों में भी बारह के बाद चौदहवीं मंजिल रहती हैं।
साथ का फोटो स्वर्गीय जॉन हारवर्ड का है। उनके द्वारा ही हारवर्ड विश्वविद्यालय की स्थापना अमेरिका स्थित बोस्टन शहर में की गई थी।
इनकी मूर्ति में बाएं पैर का जूता सोने जैसा चमक रहा हैं।
भ्रमण के समय गाइड ने जानकारी दी कि इस विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने हेतु अधिकतर विद्यार्थी उनके चमकने वाले जूते को अपने हाथ से साफ करने के पश्चात नम्रता पूर्वक प्रवेश के लिए प्रार्थना करते हैं।
इस विश्वविद्यालय में प्रवेश अत्यंत कठिन है, क्योंकि पूरी दुनिया में इसकी स्थिति हमेशा प्रथम तीन में ही रहती है। वैसे बोस्टन शहर में ही एक और भी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय MIT (मैसेच्यूट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) भी है। हमारे देश के श्री रतन टाटा और श्री आनंद महिंद्रा भी इसके सफल छात्र रहे हैं। जिन पर हमें नाज़ हैं।
वैसे बॉलीवुड महानायक के पुत्र और सुश्री श्रद्धा कपूर भी बोस्टन शहर के किसी अन्य महाविद्यालय में अध्ययन अधूरा छोड़ कर फिल्मी दुनिया में रोज़ी रोटी कमाने चले गए थे।
मान्यताएं हमेशा प्रेरणा और धनात्मक सोच की परिचायक रहती हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय एवं स्त्री विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण लघुकथा “ रोज डे”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 150 ☆
🌹 लघुकथा 🌹 रोज डे 🌹
एक ही शहर में एक जगह रमाकांत बाबू अपनी पत्नी और बेटी के साथ फ्लैट में रहते थे और उसी शहर में उनका बेटा निवेश और बहू नित्या रहते थे।
पहले घर का वातावरण इतना अच्छा नहीं था। रमाकांत ने अपनी छोटी सी नौकरी से दोनों बच्चों को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया। समाज के उच्च वर्ग से निवेश की शादी नित्या के साथ विधि-विधान से संपन्न कराए। कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य चलता रहा परंतु बड़े घर की बेटी और नाज – नखरो से पली नित्या को उनका छोटा सा फ्लैट रास नहीं आया।
रोज-रोज की कहासुनी से तंग आकर निवेश ने अपने ऑफिस के पास ही प्राइवेट रूम ले लिया। जो रमाकांत के घर से बहुत दूरी पर था। शायद रोज-रोज जाना नहीं होता और अब तो महीनों आना-जाना नहीं होता।
दिन बीतते गए पहले तो फोन कॉल आ जाता था, परंतु अब कभी कभार ही फोन आता था। माँ बेचारी चुपचाप अपनी बेटी की शादी की चिंता और घर की परेशानी को देख चुप रहना ही उचित समझ रही थी।
उसे याद है अक्सर जब भी वैलेंटाइन सप्ताह होता था रोज डे की शुरुआत भले ही नित्या अपने तरीके से करती थी परंतु निवेश अपने मम्मी पापा को बहुत खुश रखना चाहता था उन्हें दुखी नहीं करना चाहता था। इसलिए वह इसे कहता सब अंग्रेजी पद्धति है। हमारे संस्कार थोड़े ही हैं, परंतु नित्या इसे अपना स्टेटस मानती थी, और एक एक गुलाब का फूल मम्मी – पापा को दिया करती थे।
आज फिर रोज डे था मम्मी को किचन में उदास देख बेटी से रहा नहीं गया। वह पापा का हाथ पकड़ कर ले आई….. “देखो मम्मी भैया भाभी नहीं है। तो क्या मैं अपने और आपके साथ रोज डे बनाऊंगी और मैं कभी नहीं जाने वाली।” आँखों से अश्रु धार बह चली। तभी डोर बेल बजी। मम्मी ने दरवाजा खोला। कई महीनों बाद आज बेटा बहू को हाथ में गुलाब का फूल लिए देख एक किनारे होते हुए बोली… “आओ हम रोज डे मना ही रहे थे।” यह कहते हुए वह बिटिया का लाया हुआ फूल अपने बेटा बहू की ओर बढ़ाते हुए बोली…. “बेटा हम ठहरे बूढ़े और यह सब हम नहीं जानते।
परंतु क्या रोज डे की तरह तुम रोज ही आकर एक बार हम सभी से मिलोगे।” यह कह कर वह फफक पड़ी और रोने लगी। निवेश के हाथों से रोज नीचे गिर चुका था, और माँ के गले लग वह कहने लगा “हाँ माँ मैं रोज डे आपके साथ रोज मना लूंगा। अब हम रोज ही रोज मिलने का डे मनाएंगे।”
पापा जो दूर खड़े थे पास आकर गले लग लिए। आज इस रोज डे का मतलब कुछ और ही समझ आ रहा था। भाव की अभिव्यक्ति जाहिर कर माँ ने अपने परिवार को सहज शब्दों में समेट लिया।
तभी बहू बोल उठी….” अब हम सब मिलकर वैलेंटाइन डे मनाएंगे” सभी एक बार खिलखिला कर हंस पड़े।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत – बजी राग की रणभेरी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 124 – गीत – बजी राग की रणभेरी…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी – “॥ गजल ॥”)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित माइक्रो व्यंग्य – “दास्ताने दर्द…”।)
☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
दास्ताने दर्द…
डाक्टर, अस्पताल, दवाई और ठगी, लुटाई शब्दों के गठबंधन ने सांस लेना दूभर कर दिया है दूरदराज गांव के अपढ़ गरीब डाक्टर, अस्पताल और दवाओं से त्रस्त हैं। पेट खोलकर पैसे का तकाजा करना। लाश को कई दिनों तक वेंटिलेटर में रखकर बिल बढाना, बिल जमा होने पर ही लाश देना ऐसे अनगिनत कितने हादसों की लम्बी कतार है। एक गांव के गरीब मरीज के वेदनामय स्वर को हम इस व्यंग्यकथा के रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो एक गांव के गरीब मरीज की दर्द भरी दास्तान है।
“गांव के गरीब मरीज के हंसते हुए वेदनामय स्वर”
दुनिया रंगमंच जैसी है, खूब अभिनय भी कराती है, रुलाती भी है…. खुद पर शाबासी भी दे देती है। किस पर विश्वास कर लें।
सूरज आज भी निकला है। हवाएं बह रहीं हैं तेज… बेशर्म के हजारों फूल खिलखिलाकर हंस रहे हैं। नदिया के किनारे काले पत्थर में बैठकर नहाने – धोने की बात सोचते – सोचते फिर पेट में दर्द का इतिहास उखड़ गया है। गांव के नाड़ी वैद्य को दिखाया था तो पेट पकड़ कर बोले थे – शीत वात पित्त का लफड़ा है तुम्हारे पेट में तीनों इकठ्ठे होकर राजनीति कर रहे हैं आपस में दलबदल कर रहे हैं जब पित्त दलबदल कर शीत बन जाता है तो वात पेट में मरोड़ लाता है। दो महीने चूर्ण खाना, दो जनेऊ पहन लेना फिर चुनाव के बाद देखते हैं। बड़ी गजब बात है कि गांव के लिए डॉक्टर बनाए जाते हैं और गांव में कोई पढ़ा लिखा डाक्टर आने तैयार नहीं होता। सुना है कि कहीं जुगाड़ नहीं बैठा तो एक कोटे वाली डाक्टरनी पिछले हफ्ते आयी है गांव। सो हम नहाए भी खूब और धोए भी खूब फिर डाक्टरनी बाई को दिखाने चल दिए, डाक्टरनी ने दो पाइप दोनों कान में डाले और चिटी धप्प जैसी चीज पेट में रख दी… गुदगुदी हुई तो डाक्टरनी बोली – “पांव भारी हैं…. जुड़वे लग रहे हैं। गांव भर में हवा फैल गई कि हमारे पांव भारी हैं, गांव की महिलाएं गर्म भजिया और खट्टी चटनी खिलाकर पुण्य कमाने के चक्कर में थीं। पड़ोसन ने खट्टे आम टोकनी भर भिजवा दिये। हम कहीं मुंह दिखाने काबिल नहीं रहे तुरंत जनेऊ उतार के फेंक दिया। घरवाली भी शक की निगाह से देखने लगी…. एक तो पेट में दर्द और ऊपर से लांछन पे लांछन…. ।तंग आ गये पैर तरफ नजर डाली तो पैरों में खूब सारी सूजन और अब सचमुच पैर भारी लगने लगे। पत्नी बोली – चलो पास के शहर में दिखा लेते हैं, हो सकता है कि डाक्टरनी झूठ बोल रही हो क्योंकि आजकल झूठ बोलने का फैशन बढ़ गया है, कुछ मालूम नहीं तो झूठ बोल कर टाल दो…. झूठ की अपनी महत्ता अपनी उपयोगिता और अपना इतिहास है यूं तो झूठ का ‘विकास’ मानव सभ्यता के साथ हुआ पर इन दिनों झूठ – झटका और विकास का बोलबाला है। वे “झूठ बोले कौआ काटे….” वाला गाना सुनकर खूब झूठ बोलते हैं झटके मारते हैं पर कौआ उनको नहीं काटता इसलिए वे फेंकू उस्ताद कहलाते हैं। झूठे अच्छे दिन आने वाले हैं। बड़ा गजब है झूठ बोलने वाला होशियारी और दिलेरी से सफेद झूठ बोलता है और सुनने वाला उसे पूरी सच्चाई से सुनकर मान लेता है…… पत्नी लगातार बड़बड़ाये जा रही है। पत्नी जब बड़बड़ा रही हो तो बीच में बोलने से फटाके जैसे फट पड़ती है इसलिए उस समय चुप रहने से सुरक्षा बनी रहती है सो हमने चुप रहना ज्यादा ठीक समझा, चुप रहने का भी इतिहास है जनेऊ कान में लगाने से चुप रहने की कला सीख सकते हैं।
चुपचाप कपड़े – लत्ते रखके बस में बैठ गए, शहर पहुंचे तो डॉक्टर बोला – पैर में सूजन मतलब किडनी में गड़बड़ी…… तुरत-फुरत डाक्टर ने कहीं फोन लगाया “किडनी आ गई है”। भर्ती किया सब टेस्ट कराए आपरेशन कर दिया हम का जाने कि आजकल किडनी की चोरी भी होत है। कुछ दिन में छुट्टी हुई बोला – दो महीने बाद दिखाना। दो महीने बाद गये तो पैरों की सूजन और बढ़ गई है डाक्टर बोला – दिल का मामला है हार्ट वाले को दिखाओ, हमने अपना काम कर लिया है।
हार्ट वाला डाक्टर बोला – ‘ब्लॉकेज ही ब्लॉकेज हैं’ तभी तो पैर भारी लग रहे हैं पैरों में भरपूर सूजन है, एंजियोगराफी, एंजियोप्लास्टी और न जाने क्या क्या करके पत्नी के गहने और घर बिकवा दिया, बोला – जी है तो जहान् है…… ।पत्नी फिर बड़बड़ाने लगी – ये सब झूठे हैं, ठगने के बहाने डराते हैं, साले सब परजीवी हैं, गरीबों पर दया नहीं करते, एक किडनी चुरा ली, अब दिल चुराने में लगे हैं, कोई पांव भारी हैं कहता है कोई दिल की नाली चोक की बात करता है,………. हमने फिर पत्नी को टोंका – भागवान थोड़ा चुप रहो डाक्टर सुन लेगा तो बिल बढ़ा देगा…… बिल बढ़ने के नाम पर पत्नी थोड़ा चुप हो गई।
आठ महीने बीत गए थे कुछ हो नहीं रहा था नौवें महीने की शुरुआत हो चुकी थी पेट में उथल-पुथल मची गई, पीड़ा का इतिहास पर्वत बन रहा था पेट और पांव की सूजन इतिहास बनाने के लिए दोंदरा मचा रही है।
कोई ने कहा – बराट को दिखाओ पुराना डाक्टर है मर्ज पकड़ लेता है, सो एक दिन बराट के दवाखाने चले गए। डाक्टर ने लिटाया और पूछा – कैसा लगता है ?
हमें गुस्सा आ गया हम बोले – “का कैसो लगत है” सब डाक्टर परजीवी जैसे लगते हैं, कभी पत्नी भी परजीवी लगती है बच्चे होते तो वे भी परजीवी लगते, सब कुछ परजीवी लगता है कभी पड़ोसी तो कभी मेहमान भी परजीवी लगते हैं। कभी कभी लगता है एक भारत माता है और उसकी आंतों में बड़े बड़े परजीवी मंत्री, नेता अफसर, डाक्टर सब चिपक कर खून चूस रहे हैं फिर कभी लगता है कि 140 करोड़ आबादी अच्छे दिन ले के आओ कह के चिल्ला रही है और उनकी आवाज दबाने हर क्षेत्र में नये-नये परजीवी पैदा हो रहे हैं जिन्होंने देश को भाषा धर्म और जाति के आधार पर बांट रखा है कुछ परजीवी बनकर कुर्सियों में चिपके हैं और भ्रष्टाचार फैला रहे हैं……. ज्यादा मुंह चलता देख डाक्टर ने ऐसा पेट दबाया कि हमारा मुंह बंद हो गया……….
डाक्टर बोला – जिन परजीवियों की बात कर रहे हो सब तो तुम्हारे पेट में भरे हैं बहुत से जुड़वा भरे हैं। सुन के हम डर गये, बड़ी मुश्किल है कि हमने कुछ किया ही नहीं तो इतने सारे कहां से भर गये, घबराके भागने लगे तो डाक्टर ने पकड़ लिया…. ढाढस बंधाया बोला – “आपरेशन नहीं करुंगा…. गोली से निकाल दूंगा।
हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था सो हम अब हर बात पर हां… हां करते हुए बैठ गए।
डाक्टर ने तीन गोली एक साथ खिलाई। रात भर सोये, सुबह रेल पटरी के किनारे खुले में शौच करने बैठे तो भलभला के निकलने चालू हो गये….
पहले दो निकले आधे निकले और फंस गए तो हमने खींच के निकाला, फिर दो और निकल आए, दो – दो करते निकलते रहे, हम खींचतान करके निकालते रहे। लाईन लगा के निकलते रहे। इतिहास रच डाला। फिर हमने सबको धोया – पोंछा और पत्नी को दिखाया…. पत्नी की जीभ निकल आयी बोली – अरे…. ये तो पटार हैं पटार पेट में पाया जाने वाला एक्स्ट्रा लार्ज परजीवी कृमि है परजीवी बनके चूस डाला। पांव भारी करके बदनामी करायी, इनके चक्कर में किडनी चोरी हुई, दिल का दिवाला निकल गया। जाओ नाली में फेंक दो इनको…….. ।
पेट से निकले पटारों को देख देख कर अंदर से बड़ी आत्मीयता और ममता फूट रही है क्यों न फूटे…. नौ महीने से पेट में पले बढ़े हैं नौ महीनों से इन्होंने भी भूख प्यास, सुख दुख सब कुछ मेरे साथ सहा है, और पेट में ही रहे आये इधर उधर भगे नहीं, इन्होंने नयी-नयी देशभक्ति जैसी निभाई चूसते भले रहे पर आधार को लिंक करने की मांग नहीं उठाई। जीव हत्या का पाप डाक्टर को लगेगा पर हमें इन पर दया आ रही है ये जो लम्बे लम्बे तंदुरुस्त से पड़े हैं। इन बेचारों ने डाक्टरों के इतिहास के काले पन्ने पढ़ने का मौका दे दिया। पटार महराज ने हमें इतिहास लिखना सिखा दिया।
गिला किसी से नहीं……. शिकायत किसी से नहीं…. दर्द अपनी जगह था पर अपना अपना इतिहास में हमारे पटार महराज का इतिहास निखालिस कहलाएगा, हालांकि इतिहास विवाद का विषय बनता जा रहा है इन दिनों, इतिहास से राजनीति गरमा जाती है, इतिहास से दंगा फसाद का डर हो गया इन दिनों। नाक कटने का डर….. गला काटने के फरमान। इतिहास पर फतवे……. राम… राम ।खेल खतरनाक हो रहा है पर गीता पर हाथ रखकर हम कह रहे हैं कि पटार प्रकरण इतिहास सत्य है और सत्य के अलावा कुछ नहीं है और न ही इस इतिहास में कोई खतरे हैं।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# चलो इक बार…#”)