हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 105 ☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता  ‘बेटी ! मत बन मेरी जैसी’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 105 ☆

☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ना जाने क्यों

मुझे आईने में

आज अपना नहीं

माँ का चेहरा नजर आया

पनीली-सी आँखें

बोल उठीं मुझसे

छोड़ दिया ना

तुम्हें भी सबने अकेला ?

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

घर के कामों को निपटाती

इधर-उधर, ऊपर-नीचे, आती-जाती

बोलोगी खुद से

सवाल तुम्हारे,

जवाब भी तुम्हारे ही होंगे | 

सन्नाटे को चीरती आवाज,

लौटेगी तुम तक बार-बार

टी. वी. चलाकर –

दूर करना चाहोगी,

घर में पसरे सूनेपन को

पर कोई नहीं तुम्हारी बात सुननेवाला |

मानों मेरी बात  |

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

शुरू हो गई है प्रक्रिया

तुम्हें पागल बनाने की

बड़े सलीके से

आईने में दिखती आँखें

मानों रो रही थीं –

कह रही थीं –

निकलो बाहर इस

भीतर – बाहर के सूनेपन से

इससे पहले तुम्हें कोई

पागल करार दे

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 125 ☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “फॉलो अनफॉलो का चक्कर । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 125 ☆

☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ 

एक दूसरे को देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।  सोशल मीडिया ने लगभग सभी को रील / शार्ट वीडियो बनाना सिखा दिया है। बस उसमें प्रचलित ऑडियो को सेट करें और वायरल का हैस्टैग करते हुए सब जगह फैला दीजिए। ये सब देखते हुए विचार आया कि इसे तकनीकी यात्रा का नाम दिया जाए तो कैसा रहेगा। वैसे भी यात्राएँ रुचिकर होती हैं। पुस्तकों में भी यात्रा वृतांत पढ़ने में आता है।

एक शहर से दूसरे शहर जाना अर्थात कुछ  बदलना। ये बदलाव हमारे अवलोकन को बढ़ाता है। जगह – जगह का खान- पान, रहन-सहन, वेश- भूषा सब कुछ अलग होता है। चारों धाम की यात्रा  यही सोच कर सदियों से की जा रही है। जब हम यात्रा संस्मरण पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि इस पुस्तक के माध्यम से हमने भी यात्रा कर ली। रास्ता नापने के मुहावरा शायद यही सोचकर बनाया गया होगा। आजकल सड़कें भी बायपास हो गयीं हैं। बिना धक्के का रास्ता आनन्द के साथ- साथ रुचिकर भी होने लगा है। तेजी से बढ़ते कदम मंजिल की ओर जब जाते हों तो लक्ष्य मिलने में देरी नहीं लगती। आस- पास हरियाली हो, वन वे ट्रैफिक हो, बस और क्या चाहिए।

यात्राएँ हमें जोड़ने का कार्य बखूबी करतीं हैं। बहुत बार हम किसी विशेष स्थान से प्रभावित होकर वहीं बसने का फैसला कर लेते हैं। हम तो ठहरे तकनीकी युग के सो सारा समय फेसबुक, इंस्टा, व्हाट्सएप व ट्विटर पर बिताते हैं। जब मामला अटकता है तो गूगल बाबा या यू ट्यूब की शरण में पहुँच कर वहाँ से हर प्रश्नों के उत्तर ले आते हैं। ये सब कुछ बिना टिकट के घर बैठे हो रहा है। पहले तो किसी से कुछ पूछो तो काम की बात वो बाद में करता था अनावश्यक का ज्ञान मुफ्त में बाँट देता था। चलो अच्छा हुआ इक्कीसवीं सदी में कम से कम इससे तो पीछा छूट गया है।

ये सब मिलेगा बस अच्छी पोस्ट को फॉलो और खराब को अनफॉलो करने की कला आपको आनी चाहिए। पहले अवलोकन करें जाँचे- परखे और सीखते- सिखाते हुए  सबके साथ आगे बढ़ते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #126 – “राम जाने” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “राम जाने”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 126 ☆

☆ लघुकथा – राम जाने ☆ 

बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”

बाबू जी कुछ देर चुप रहे।

“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को में इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”

“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसाई है।”

“हां, यह बात तो सही है।”

“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”

“तो क्या हुआ

” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”

“नहीं यार!”

“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”

“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?

और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-02-22

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 135 ☆ बाल कविता – खेल खिलौने टुनटुन वाले… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 135 ☆

☆ बाल कविता – खेल खिलौने टुनटुन वाले… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

नौनू – मौनू की है जोड़ी

कभी खेलते घोड़ा – घोड़ी।।

 

घुँघरू बजते रुनझुन – रुनझुन

निश्छल मनभावन बड़े मगन।।

 

खेल खिलौने टुनटुन वाले

खेल खेलते हैं मतवाले।।

 

चूमें – झूमें  प्यार बढ़ाते

तनिक नहीं हैं वे शरमाते।।

 

सीख सिखाएँ हमको हरदम।

प्रेम सत्य है बाजे सरगम।।

 

ईश्वर के हैं रूप निराले

खुशियों से भर देते प्याले।।

 

बचपन है प्यारा सतरंगा

जैसे पावन बहती गंगा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #135 ☆ संत सोपान देव… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 135 ☆ संत सोपान देव … ☆ श्री सुजित कदम ☆

 

ज्ञाना निवृत्ती सोपान

आणि मुक्ताई धाकली

चार वेद अध्यात्माचे

जणू एकात्म आवली…! १

 

सुसंस्कृत जीवनाचा

ठरे सोपान वारसा

अध्यात्मिक उन्नतीचा

संत सोपान आरसा…! २

 

ग्रंथ सोपान देवीत

केल्या अभंग रचना

उरी अपार करूणा

विश्व शांती  संकल्पना…! ३

 

तीर्थाटन माधुकरी

भटकंती समाजात

केली मलिनता दूर

भक्तीभाव अभंगात…! ४

 

ज्ञानगंगा सोपानाची

ठेवा अक्षय अभंग

काळजाला काळजाने

भेटवीला पांडुरंग…! ५

 

पांडुरंग चरणांची

हवी अंतराला ओढ

एका एका अभंगाला

लाभे हरिनाम जोड…! ६

 

भक्तीमय भावनांनी

दिली अलौकिक ठेव

संत सोपान देवाची

सांप्रदायी देवघेव…! ७

 

स्वर्गलोक शब्दांकन

पंढरीचा थाट माट

अभंगात वर्णियेला

प्रपंचाचा हरी घाट…! ८

 

दिला जीवन विचार

अंतर्मुख झाले जन

सोपानाच्या अभंगात

लीन झाले तन मन…! ९

 

समाधिस्थ ज्ञानदेव

गेला जीवन आधार

हरी रूप झाला देह

पंचतत्व उपचार…! १०

 

मार्गशीर्ष वद्य पक्षी

संपविला अवतार

संत सोपान समाधी

सासवडी अंगीकार…! ११

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#157 ☆ लघुकथा – ज्ञानदीप… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “ज्ञानदीप…”)

☆  तन्मय साहित्य # 157 ☆

☆ लघुकथा – ज्ञानदीप… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

“यार चंदू! इन लोगों के पास इतने सारे पैसे कहाँ से आ जाते हैं, देख न कितने सारे पटाखे बिना जलाये यूँ ही छोड़ दिए हैं। ये लछमी माता भी इन्हीं पर क्यों, हम गरीबों पर  मेहरबान क्यों नहीं होती”

दीवाली की दूसरी सुबह अधजले पटाखे ढूँढते हुए बिरजू ने पूछा।

“मैं क्या जानूँ भाई, ऐसा क्यों होता है हमारे साथ।”

“अरे उधर देख वो ज्ञानू हमारी तरफ ही आ रहा है , उसी से पूछते हैं, सुना है आजकल उसकी बस्ती में कोई मास्टर पढ़ाने आता है तो शायद इसे पता हो।”

“ज्ञानु भाई ये देखो! कितने सारे पटाखे जलाये हैं इन पैसे वालों ने। ये लछमी माता इतना भेदभाव क्यों करती है हमारे साथ बिरजू ने वही सवाल दोहराया।”

“लछमी माता कोई भेदभाव नहीं करती भाई! ये हमारी ही भूल है।”

“हमारी भूल? वो कैसे हम और हमारे अम्मा-बापू तो कितनी मेहनत करते हैं फिर भी…”

“सुनो बिरजू! लछमी मैया को  खुश करने के लिए पहले उनकी बहन सरसती माई को मनाना पड़ता है।”

“पर सरसती माई को हम लोग कैसे खुश कर सकते हैं” चंदू ने पूछा।

“पढ़ लिखकर चंदू।  सुना तो होगा तुमने, सरसती माता बुद्धि और ज्ञान की देवी है। पढ़ लिख कर हम अपनी मेहनत और बुद्धि का उपयोग करेंगे तो पक्के में लछमी माता की कृपा हम पर भी जरूर होगी।”

“पर पढ़ने के लिए फीस के पैसे कहाँ है बापू के पास हमें  बिना फीस के पढ़ायेगा कौन?”

“मैं वही बताने तो आया हूँ तम्हे, हमारी बस्ती में एक मास्टर साहब पढ़ाने आते है  किताब-कॉपी सब वही देते हैं,  चाहो तो तुम लोग भी उनसे पढ़ सकते हो।”

चंदू और बिरजू ने अधजले पटाखे एक ओर फेंके  और ज्ञानु की साथ में चल दिए।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 47 ☆ ग़ज़ल – तभी समझो दीवाली… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल “तभी समझो दीवाली”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 47 ✒️

? ग़ज़ल – तभी समझो दीवाली…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

ग़रीबी और अमीरी का,

फ़र्क़ देता नहीं शोभा ।

यही अन्तर जब मिट जाए ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

सत्य की राह हम चुन लें,

राम आदर्श हों अपना ।

आतंक के बादल छठ जाऐं ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

हम सब मुस्कुराऐं तो ,

लगे छूटीं हैं फुलझरियां ।

अंधेरे दिल से हट जाएं ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

दहेज रूपी इस दानव को ,

आज संहारो मिल यारो ।

लेनदेन पे घर न बट जाऐं ,

तभी समझो है दिवाली ।।

 

जले मानवता का दीपक ,

प्रेम की उसमें हो बाती ।

सुख भारत में सिमट  आये ,

सलमा समझो है दिवाली ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 56 – कहानियां – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

कभी, आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था. “गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालूम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी. हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गलती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी.

आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी. शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था. शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा, बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करने वाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना, स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं.

हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी. ये “वह” रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक “बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे. वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संध्याकाळी… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संध्याकाळी… ☆  प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆ 

आयुष्याच्या गडद सावल्या लांबत गेल्या संध्याकाळी

आठवणींच्या तळ्यात सगळ्या मिसळत गेल्या संध्याकाळी

 

स्वप्नामधल्या ठोस प्रतिमा आदर्शाच्या मनात होत्या

 काळासोबत फिरता फिरता वितळत गेल्या संध्याकाळी

 

सहजपणाने जगतानाही संघर्षाला भिडणे झाले

चालत असता अवघड वाटा चकवत गेल्या संध्याकाळी

 

अनंतकोटी ब्रम्हांडाची ओळख पुरती झाली नाही

जगण्यामधल्या मोहक बाबी फसवत गेल्या संध्याकाळी

 

अंधारातच अंदाजाने दिशा शोधल्या मानवतेच्या

मग प्रेमाच्या प्रकाश रेषा उजळत गेल्या संध्याकाळी

 

संसाराचा खेळ मांडला तो तर होता प्रभावशाली

प्रतिमा त्याच्या डोळ्यादेखत सरकत गेल्या संध्याकाळी

 

सुखदुःखाची करत बोळवण तडजोडीच्या घटना घडल्या

झंजावाती वादळात त्या उधळत गेल्या संध्याकाळी

 

खरे काय ते अखेर कळले अनुभवले ते मृगजळ होते

लोचनातल्या आसवधारा बरसत गेल्या संध्याकाळी

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 157 ☆ लावणी – 2 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 157 ?

☆ लावणी – 2 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

साजणा हौस माझी पुरवा, हौस माझी पुरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा मला तुम्ही मिरवा ॥धृ ॥

 

चोरून भेटण्यात वर्ष गेली चार

तुम्ही मर्द गडी तालेवार

मी सुकुमार देखणी नार

पाढा पुन्हा पुन्हा प्रीतीचा गिरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा.. ॥१॥

 

राजसा,अहो दिलवरा माझं जरा ऐका

बक्कळ झालाय तुमच्या कडं पैका

इश्कबाजीचा बसू द्या ना शिक्का

सा-या गावाची तुम्ही जरा जिरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा…॥२॥

 

पाळणा जत्रेतला घालतोय साद

खेटून बसताच मिटतील वाद

जडला जीवास तुमचाच नाद

हात हलकेच पाठीवर फिरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा ..॥३॥

 

साज सोन्याचा, पुतळ्याची माळ

घडवा आतातरी चांदीचे चाळ

नाच नाचून बोलते मधाळ

विडा वर्खाचा ओठामधे भरवा

यंदा जत्रेत मला की हो मिरवा…॥४ ॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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