हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 145 ☆ बाल-कविता – तिल के लड्डू, गजक मूंगफली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 145 ☆

☆ बाल-कविता  – तिल के लड्डू, गजक मूंगफली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

तिल के लड्डू जाड़ों – जाड़ों

बंदर और बंदरिया खाते

साथ मूंगफली गजक रेवड़ी

खाकर जाड़ा दूर भगाते

 

मक्का और बाजरा रोटी

पत्तेदार साग सँग भाती

शक्ति बढ़ती प्रतिरोधात्मक

तन को यह मजबूत बनाती

 

पढ़ते लिखते बंदर मामा

नित्य योग , उछल कूद करते

सब बच्चों को रोज पढ़ाकर

जीवन में खुशियाँ हैं भरते

 

सूर्य मुद्रा करें साथ ही

उससे जाड़ा थर – थर काँपे

मोड़ अनामिका अंगुली अपनी

अँगूठे के नीचे दाबे

 

खाते – पीते खुश ही रहकर

जीवन में खुशियाँ हैं मिलतीं

शुभ कर्मों को करें सदा जो

विपदाएँ भी हाथ मसलतीं

 

लोहड़ी , पोंगल , मकरसंक्रांति

पर्व एक जो खुशियाँ लाएँ

खिचड़ी, तिल , फल , मेवा उत्तम

प्यार बढ़ेगा,  मिलकर खाएँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #146 ☆ संत सखू… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 146 ☆ संत सखू… ☆ श्री सुजित कदम ☆

संत सखू भक्ती भाव

दावी नाना चमत्कार

अंतरीची हरीभक्ती

पदोपदी साक्षात्कार…! १

 

साधी भोळी सवाशीण

सासरचा सोसे छळ

मर्यादेच्या पार नेई

दृढ निश्चयाचे बळ…! २

 

भावपूर्ण तळमळ

अनिवार इच्छा शक्ती

सासरच्या जाचालाही

मात देई विठू भक्ती…! ३

 

विठ्ठलाच्या चिंतनात

दूर झाला भवताप

युगे अठ्ठावीस उभे

विटेवरी मायबाप…! ४

 

नाव विठ्ठलाचे घेण्या

नाही कधी थकणार

संत सखू वाटचाल

पांडुरंग नांदणार…! ५

 

संत सखू वाटसरू

सुख दुःख पायवाट

जगुनीया दाखविले

प्रारब्धाचा दैवी घाट…! ६

 

अत्याचारी सासराला

नाही कधी दिला दोष

कृतज्ञता मानुनीया

विसरली राग रोष…! ७

 

दुराचारी कुट़ुंवाने

दिली प्रेरणा भक्तीची

अव्याहत हरीनाम

जोड ईश्वरी शक्तीची…! ८

 

दुःख दैन्य साहताना

संत सखू दावी वाट

नाही कोणा प्रत्युत्तर

पचविली दुःख लाट…! ९

 

पांडुरंग दर्शनाची

पुर्ण करी आस हरी

रूप सखुचे घेऊनी

नांदे पांडुरंग घरी…! १०

 

हरिभक्ती अनुभूती

हरिभक्ती पारायण

सांसारिक वेदनांचे

संत सखू शब्दायण…! ११

 

गेली पंढरीस सखू

पुर्ण केली तिने वारी.

घरकाम करताना

पांडुरंग झाला नारी…! १२

 

मोक्षपदी गेली सखू

इहलोक सोडूनीया

पांडुरंग आशीर्वादे

आली घरा साधूंनीया…! १३

 

श्रद्धा विठ्ठलाच्या पायी

संत सखू भक्ती भाव

वसवून गेला जगी

अध्यात्माचा नवा गाव…! १४

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – न्याहाळते मी मला…– ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– न्याहाळते मी मला… – ?सौ. उज्ज्वला केळकर 

नऊवारी नऊवारी नऊवारी 

नेसले मी साडी इरकली

काठ पदर आहे पिवळा

झंपर निळा,जांभळा ल्याली

रंग माझा गोरा,झाले वय जरी

आहे सौभाग्यवती खरी

आरश्यात बघून लावते कुंकू

तब्येतीने आहे मी बरी

भरून हाती हिरवा चुडा

आठवते मी तरूणपण

हसून गाली मला न्याहाळते

गेले नाही अजून खोडकरपण

रचना : सौ. रागिणी जोशी, पुणे

प्रस्तुती : सौ. उज्ज्वला केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #167 – लघुकथा – कम्बल… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अप्रतिम लघुकथा  “कम्बल…”)

☆  तन्मय साहित्य  #167 ☆

☆ लघुकथा – कम्बल

जनवरी की कड़कड़ाती ठंड और ऊपर से बेमौसम की बरसात। आँधी-पानी और ओलों के हाड़ कँपाने वाले मौसम में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए घर के पीछे निर्माणाधीन अधूरे मकान में आसरा लिए कुछ मजदूरों के बारे में मैं चिंतित हो रहा था।

ये मजदूर जो बिना खिड़की-दरवाजों के इस मकान में नीचे सीमेंट की बोरियाँ बिछाये सोते हैं, इस ठंड को कैसे सह पाएंगे। इन परिवारों से यदा-कदा एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज भी सुनाई पड़ती है।

ये सभी लोग एन सुबह थोड़ी दूरी पर बन रहे मकान पर काम करने चले जाते हैं और शाम को आसपास से लकड़ियाँ बीनते हुए अपने इस आसरे में लौट आते हैं। अधिकतर शाम को ही इनकी आवाजें सुनाई पड़ती है।

स्वावभाववश  मैं उस मजदूर बच्चे के बारे में सोच-सोच कर बेचैन हो रहा था, इस मौसम को कैसे झेल पायेगा वह नन्हा बच्चा!

शाम को बेटे के ऑफिस से लौटने पर मैंने उसे पीछे रह रहे मजदूरों को घर में पड़े कम्बल व हमसे अनुपयोगी हो चुके कुछ गरम कपड़े देने की बात कही।

“कोई जरूरत नहीं है कुछ देने की” पता नहीं किस मानसिकता में उसने मुझे यह रूखा सा जवाब दे दिया।

आहत मन लिए मैं बहु को रात का खाना नहीं खाने का कह कर अपने कमरे में आ गया। न जाने कब बिना कुछ ओढ़े, सोचते-सोचते बिस्तर पर कब नींद के आगोश में पहुँच गया पता ही नहीं चला।

सुबह नींद खुली तो अपने को रजाई और कम्बल ओढ़े पाया। बहु से चाय की प्याली लेते हुए पूछा-

“बेटा उठ गया क्या?”

उसने बताया- हाँ उठ गए हैं और कुछ  कम्बल व कपड़े लेकर पीछे मजदूरों को देने गए हैं, साथ ही मुझे कह गए हैं कि, पिताजी को बता देना की समय से खाना जरूर खा लें और सोते समय कम्बल-रजाई जरूर ओढ़ लिया करें।

यह सुनकर आज की चाय की मिठास के साथ उसके स्वाद का आनंद कुछ अधिक ही बढ़ गया।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 53 ☆ स्वतंत्र कविता – पुनर्जन्म… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण स्वतंत्र कविता “पुनर्जन्म…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 53 ✒️

?  स्वतंत्र कविता – पुनर्जन्म…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

रुकती हुई ,

सांसों के बीच

कल सुना था मैंने

कि तुम ने कर ली है

” आत्महत्या “

इस कटु सत्य का

हृदय नहीं कर पाता विश्वास !

” राजन्य “

तुम कब हुए हताश – निराश “

स्वेच्छा से बन गए काल ग्रास ।।

 

अंकित किया केवल एक प्रश्न ,

क्यों ? केवल क्यों ?

इतना बता सकते हो ,

तो बताओ ।

क्यों त्यागा ? रम्य जगत को ?

क्यों किया मृत्यु का वरण ?

अनंत – असीम जगती में क्या ?

कहीं भी ना मिलती तुम्हें शरण ?

 

अपनी वेदना तो कहते,

शून्य- शुष्क , रिक्त जीवन ,

की व्यथा ओढ़ लेती

तुम्हारी जननी ,

शित-शिथिल भावों को बांट लेते ,

भ्राता – भागीदार –

शैशवावस्था में तुम्हें

गीले से सूखे में लिटाती ,

शीर्ष चूमती रही बार-बार ,

रात्रि में जाग – जागकर,

बदलती रही वस्त्र ,

तब तुम बने रहे सुकुमार ,

वेदना की व्यथा ,

आंचल में समेट लेती ,

काश!जननी से कहते तो एक बार।।

 

” परन्तु “

तुम शिला के भांति रहे निर्विकार ,

स्वार्थी , समयाबादी और गद्दार ,

तभी वृद्ध – जर्जर हृदयों पर ,

कर प्रहार

सांझ ढले उन्हें छोड़ा मझदार ,

रिक्त जीवन दे ,

चल पड़े अज्ञात की ओर ,

बनाने नूतन विच्छन्न प्रवास ।।

 

क्यों कर आया किया

यह घृणित कार्य ,

क्या इतना सहज है ,

त्यागना संसार ,

काश ! तुम कर्मयोगी बनते

मां के संजोए हुए सपनों को बुनते ,

प्रमाद में विस्तृत कर ,

अपना इतिहास ,

केवल बनकर रह गए उपहास ।।

 

“आत्महत्या “

आवेश है एक क्षण का ,

पतीली पर से भाप की ,

शक्ति से ऊपर उठता हुआ ढक्कन ,

जो भाप के निकल जाने पर ,

पुनः अपने स्थान पर हो

जाता है स्थित ,

काश ! भाप सम तुम भी ,

निकाल देते उद्वेलित

हृदय का आवेश और फिर ,

ढक्कन की भांति अपना ,

स्थान बनाने का करते प्रयास ,

तब तुम आत्महत्या ना

कर पाते अनायास।।

 

तुमने सुना होता जननी

का करुण – क्रंदन ,

पिता का टूट कर बिखरना,

भ्राताओं की चीत्कार ,

दोस्तों की आंखों का सूनापन ,

आर्तनाद करते प्राकार ,

तब संभव था कि तुम फिर

व्याकुल हो उठते

पुनःजन्म लेने के लिए ,

पुनर्जन्म के लिए ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 167 ☆ धरणी – आकाश ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 167 ?

☆ धरणी – आकाश ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

डोक्यावरती गगन निळेसे

पाया खाली  काळी धरती

झाडे ,पक्षी, मनुष्य ,प्राणी

इथे जन्मती  आणिक मरती

ईर्षा ,स्पर्धा अखंड चाले

एकेकाची एक कहाणी

असे अग्रणी अकरा वेळा

तोच ठरतसे मूर्खच कोणी

दोन दिसांची मैफल सरते

अखेर पण असते  एकाकी

चढाओढ ही अखंड चाले

नियती फासे उलटे  फेकी

हे जगण्याचे कोडे अवघड

काल हवे जे,आज नकोसे

गूढ मनीचे जाणवताना

 प्राण घेतसे   मूक उसासे

गहन निळे नभ, मूक धरित्री

या दोघांची साथ जन्मभर

सगे सोबती निघून जाती

परी द्वैत हे असे निरंतर

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 37 – भाग 2 – काळं पाणी आणि हिरवं पाणी ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 37 – भाग 2 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ काळं पाणी आणि हिरवं पाणी  ✈️

अंदमान आता प्रवासी स्थान झालं आहे. जैवविविधतेने नटलेला निसर्ग, अनेक दुर्मिळ झाडं, प्राणी, पक्षी, जलचर असा दुर्मिळ खजिना इथे आहे. वर्ल्ड हेरिटेज म्हणून आणि इको टुरिझम म्हणून अंदमानला मान्यता मिळाली आहे. इथे सेंटेनल, जारवा,  ओंगे, ग्रेट निकोबारी अशा आदिम जमाती आहेत. त्यांना एकांतवास व त्यांची जीवनपद्धतीच प्रिय आहे. आपण प्रवाशांनी त्यांच्या जीवनात हस्तक्षेप न करता, तिथल्या श्रीमंत निसर्गाला धक्का न लावता, तिथल्या टुरिझम बोर्डाच्या नियमांप्रमाणेच वागणं आवश्यक आहे. इथले आदिवासी हे मानववंशशास्त्राच्या दृष्टीने फार महत्त्वाचा दुवा आहेत. त्यांना इथलं प्राणी व पक्षी जीवन, सागरी जीवन, विविध वृक्ष, त्यांचे औषधी उपयोग यांचं पारंपरिक ज्ञान आहे. या दुर्मिळ खजिन्याच्या रक्षणासाठी त्यांच्या ज्ञानाचा त्यांच्या कलाने उपयोग करून घेणं महत्त्वाचं आहे.

पोर्ट ब्लेअरच्या दक्षिणेला वांडूर बीच जवळ लहान मोठी पंधरा बेटे मिळून ‘महात्मा गांधी मरीन नॅशनल पार्क उभारण्यात आलं आहे. इथली सागरी संपत्ती पाहिली की निसर्गाच्या अद्भुत किमयेला दाद द्यावीशी वाटते. कोरल्सचे असंख्य प्रकार इथे बघायला मिळतात. आपल्या मेंदूसारखे लाटालाटांचे कोरल, बशीसारखे, झाडासारखे असे विविध आकारांचे कोरल्स आहेत. विंचवासारखा, वाघासारखा, सार्जंट, गिटार, वटवाघुळ, फुलपाखरू यांच्या आकारातील मासे आहेत. पोपटाच्या चोचीसारखे तोंड पुढे आलेले हिरवट पॅरट मासे आहेत. हे सारे जलचर एकमेकांशी सहकार्याने राहतात. सी-ॲनम हा जलचर खडकाला चिकटून राहतो तर जोकराच्या आकाराचा मासा त्याला खायला आणून देतो व सी-ॲनम जोकर माशाला खडकाचं घर देतो.काळ्या चंद्रकलेवर मोती जडवावे तसे काळ्या छोट्या माशांवर स्वच्छ पांढरे ठिपके होते. एका प्रचंड व्हेल माशाचा सांगाडा ठेवला आहे.

सेल्युलर जेलजवळ आता अंदमान वॉटर स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स उभारलं आहे. त्यात मोटार बोटी,पॅडल बोटी, वॉटर स्कूटर्स,स्किईंग  वगैरे प्रकार आहेत. पोर्ट ब्लेअर जवळील चातम आयलंडला एका पुलावरून गेलो. इथे आशियातील सर्वात जुनी व सर्वात मोठी सॉ मील आहे. रेडवूड, सागवान, सॅटिन वूड, ब्लॅक चुगलम, थिंगम, कोको, महुआ, जंगली बदाम, डिडु अशा नाना प्रकारच्या वृक्षांचे भले मोठे घेर असलेले ओंडके ठेवले होते. दुसऱ्या महायुद्धात या मिलच्या  काही भागाचं नुकसान झालं. हे मोठमोठे लाकडी ओंडके कापणाऱ्या, धारदार, विजेवर चालणाऱ्या करवती होत्या. यातील काही लाकूड इमारत कामासाठी तर काही फर्निचर व कोरीव कामासाठी,बोटी बनविण्यासाठी वापरण्यात येतं. पूर्वी रेल्वे रूळांचे स्लीपर्स बनविले जात.  तिथल्या म्युझियममध्ये रेडवूडपासून बनविलेले कोरीव गणपती, देव्हारे, पुतळे, घड्याळे अशा सुंदर वस्तू आहेत. तिथून मानव विज्ञान संग्रहालय पाहायला गेलो. अंदमान- निकोबारच्या आदिवासींच्या वापरण्यातल्या वस्तू म्हणजे बांबूच्या चटया, पंखा, झाडू, टोपली मशाल, बाण, तिरकमठा, हुक्का, मधपात्र, बरछी, मासे पकडायची जाळी, सामुदायिक झोपडी, लाकडाची डोंगी म्हणजे होडी, झाडाच्या सालींच्या पट्ट्या रंगवून त्या डोक्याला व कमरेला गुंडाळायचे वस्त्र, शंख- शिपल्यांच्या माळा, कवड्यांच्या माळा, सुंभाचे बाजूबंद, समुद्र कोरलचे पैंजण, लाल मातीने चेहऱ्यावर केलेले पेंटिंग,नृत्याचे रिंगण अशा वस्तू, पुतळे पाहिले की आदिम काळापासून स्त्रियांची नटण्याची हौस आणि उपलब्ध सामग्रीतून जीवनोपयोगी वस्तू बनविण्याची मानवाची बुद्धी लक्षात येते.

रॉस आयलँड ही ब्रिटिशांची जुनी ऍडमिनिस्ट्रेटिव्ह राजधानी होती. तिथे ब्रिटिशांनी घरे, स्विमिंग पूल, चर्च, जिमखाना, क्लब, ओपन एअर थिएटर सारं काही उभारलेलं होतं. नारळाची व इतर अनेक प्रकारची झाडं आहेत. हरणं व बदकं फिरत असतात. विहिरी व जपानी सैन्याने खोदलेले बंकरही बघायला मिळाले. आता हे बेट आपल्या नौदलाच्या ताब्यात आहे. वायपर आयलंड इथे कैद्यांना फाशी देण्याची ब्रिटिशकालीन जागा आहे. तसंच स्त्री कैद्यांसाठी तिथे तुरुंग बांधण्यात आला होता. आमच्या गाईडने अगदी तन्मयतेने त्या काळातील राजकीय कैद्यांचा त्याग, त्यांनी भोगलेल्या शिक्षा आमच्यापुढे शब्दातून उभ्या केल्या. त्या अज्ञात शूरवीरांना आम्ही ‘वंदे मातरम्, भारत माता की जय’ असं म्हणत आदरांजली वाहिली.

नॉर्थ बे आयलंड इथे स्नॉर्केलिंगची  मजा अनुभवता आली. आपल्याला डोळ्यांना विशिष्ट प्रकारचा चष्मा लावायला देतात. त्यामुळे नाकपुड्या बंद होतात. आपण दातांमध्ये धरलेल्या नळीचं तोंड समुद्राच्या वरच्या पातळीवर राहतं. आपल्याला तोंडाने श्वास घ्यायला लागतो. तेथील प्रशिक्षकाच्या सहाय्याने पाण्यावर तरंगत हा निसर्गाचा खजिना बघायला मिळाला. या भागात किनाऱ्याजवळच खूप प्रवाळ बेटे आहेत. पाणी संथ व स्वच्छ असल्यामुळे नाना तऱ्हेचे व रंगाचे छोटे-मोठे मासे सुळकन इकडे तिकडे फिरताना दिसत होते. बटरफ्लाय, टायगर, गोल्डन टेट्रा असे मासे झुंडीने फिरत होते. स्पंजसारखे जिवंत कोरल्स होते. त्यांना स्पर्श केल्यावर ते तोंड उघडत. त्यांचा फिका जांभळा रंग व तोंडात छोटे छोटे गोंड्यासारखे जांभळ्या रंगाचे पुंजके दिसले.

अंदमान – भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 67 – मनोज के दोहे – बसंत ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे –  बसंत। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 67 – मनोज के दोहे – बसंत ☆

शिशिर काल में ठंड ने, दिखलाया वह रूप।

नदी जलाशय जम गए, तृण हिमपात अनूप।।

 

स्वागत है ऋतुराज का, छाया मन में हर्ष।

पीली सरसों बिछ गई, बैठें-करें विमर्ष।।

 

माह-जनवरी, छब्बीस, बासंती गणतंत्र।

संविधान के मंत्र से, संचालन का यंत्र।।

 

आम्रकुंज बौरें दिखीं, करे प्रकृति शृंगार।

कूक रही कोयल मधुर, छाई मस्त बहार।।

 

वासंती मौसम हुआ, सुरभित बही बयार ।

मादक महुआ सा लगे, मधुमासी त्यौहार।।

 

ऋतु वसंत की धूम फिर, बाग हुए गुलजार।

रंग-बिरंगे फूल खिल, बाँट रहे हैं प्यार।।

 

टेसू ने बिखरा दिए, वन-उपवन में  रंग।

आँगन परछी में पिसे, सिल-लौढ़े से भंग।।

 

है बसंत द्वारे खड़ा, ले कर रंग गुलाल।

बैर बुराई भग रहीं, मन के हटें मलाल।।

 

मौसम में है छा गया, मादकता का जोर।

मन्मथ भू पर अवतरित, तन में उठे हिलोर।।

 

मौसम ने ली करवटें, दमके टेसू फूल।

स्वागत सबका कर रहे, ओढ़े खड़े दुकूल।।

 

परिवर्तन पर्यावरण, देता शुभ संदेश।

हरित क्रांति लाना हमें, तब बदले परिवेश।।

 

पलाश कान में कह उठा, खुशियाँ आईं द्वार ।

राधा खड़ी उदास है, कान्हा से तकरार ।।

 

हँस कर कान्हा ने कहा, चल राधा के द्वार ।

हँसी ठिठोली में रमें, अब मौसम गुलजार।।

 

गुवाल-बाल को सँग ले, कृष्ण चले मनुहार।।

होली-होली कह उठे, दी पिचकारी मार ।।

 

सारी चुनरी रँग गई, भींगा तन रँग लाल।

आँख लाज से झुक गईं, खड़े देख गोपाल।।

 

नव भारत निर्माण से, बिखरा नया उजास।

शत्रु पड़ोसी देख कर, मन से बड़ा उदास।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 193 ☆ आलेख – पाठको की तलाश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – पाठको की तलाश।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 193 ☆  

? आलेख पाठको की तलाश ?

पिछले जमाने की फिल्मो के मेलों में भले ही लोग बिछड़ते रहे हों पर आज के साहित्यिक परिवेश में मुझे पुस्तक मेलो में मेरे गुमशुदा पाठक की तलाश है, उस पाठक की जो धारावाहिक उपन्यास छापने वाली पत्रिकाओ के नये अंको की प्रतीक्षा करता हो, उस पाठक की जो खरीद कर किताब पढ़ता हो, जिसे मेरी तरह बिना पढ़े नींद न आती हो, उस पाठक की जो भले ही लेखक न हो पर पाठक तो हो, ऐसा पाठक जो साहित्य के लिये केवल अखबार के साहित्यिक परिशिष्ट तक ही सीमित न हो,उस पाठक की जो अपने ड्रांइग रूम की अल्मारी में किताबें सजा कर भर न रखे वह उनका पाठक भी बने, ऐसा पाठक आपको मिले तो जरूर बताइयेगा.

आज साहित्य जगत के पास लेखक हैं, किताबें हैं, प्रकाशक हैं चाहिये कुछ तो बस पाठक ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 19 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 19 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

परदेश – महंगाई

जब से होश संभाला है, दिन में सैकड़ों बार “महंगाई” शब्द सुनते आ रहे हैं। ऐसा लगता है, इस शब्द के बहुत अधिक उपयोग से ही तो कहीं वस्तुओं और सेवाओं के दाम नहीं बढ़ जाते हैं।

बचपन में जब माता/ पिता कहते थे, बिजली बेकार मत चलाओ, महंगी हो कर चार आने यूनिट भाव हो गया है। हमने भी बच्चों को चार रुपए यूनिट की दुहाई देकर समझाया था। ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा।

अर्थशास्त्र के ज्ञानी मुद्रास्फीति को अपस्फीति से कहीं बेहतर मानते हैं।

यहां विदेश में भी बढ़ी हुई महंगाई के लक्षण प्रतीत हुए। सात वर्ष पूर्व गैस स्टेशन (पेट्रोल) के बाहर तीन अमरीकी रूपे और कुछ पैसे का भाव दिखाई देता था, अब पांच रूपे और पैसे दर्शाता है। पेट्रोल और अन्य तरल पदार्थ यहां पर गैलन प्रणाली में मापे जाते हैं।

यहां के गरीबों की एक दुकान “डॉलर स्टोर” के नाम से प्रसिद्ध है, उनके भाव भी अब सवा डॉलर कर दिया गया हैं। हमारे देश में भी हर माल एक रूपे में के नाम से चलती थी, अब दस रूपे से कम कुछ नहीं मिलता है। स्थानीय लोगों से जानकारी मिली कि यहां भी कोई ना कोई “महंगाई डायन” कार्यरत रहती है। वर्तमान में यूक्रेन की डायन चल रही है। जब हमने बताया की यहां तो यूक्रेन की सहयता के पोस्टर देखे हैं, और पास में एक चर्च भी यूक्रेन के नाम से ही है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, ये सिद्धांत यहां यूक्रेन पर भी लागू होता होगा।

हम जब एक माह पूर्व देश से आए तो पिछतर का पहाड़ा याद करके आए थे, लेकिन बेकार हो गया, और डॉलर अस्सी का जो हो गया है। किसी भी वस्तु का मूल्य भारतीय मुद्रा में परिवर्तित करके अपना अंकगणित जो सुधार रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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