हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #176 ☆ कहानी – आलोक बाबू का दुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुन्दर एवं प्रेरणास्पद कहानी  ‘आलोक बाबू का दुख ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 176 ☆

☆ कहानी ☆ आलोक बाबू का दुख 

आलोक बाबू क्रोध और बेबसी के आवेग में घर से निकल पड़े। किस तरफ चले, यह खुद उन्हें भी पता नहीं चला। बिना सोचे समझे सड़क पर दूर तक निकल गये। शायद मन में उम्मीद रही हो कि पीछे से प्रकाश या बहू उन्हें आवाज़ देकर रोक लेंगे या पीछे पीछे दौड़ते आएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे लंबी फैलती सड़कों पर, जैसे पहली बार, किसी अदृश्य शक्ति के ढकेले आगे बढ़ते गये। निकलते वक्त उनका नाम लेकर पुकारता पत्नी का क्षीण स्वर ज़रूर सुनायी पड़ा था, लेकिन उन्होंने उसे अनसुना कर दिया था।

शाम हो चली थी। पता नहीं चला कब वे चलते चलते बस अड्डे पहुँच गये। सब तरफ चिल्ल-पों मची थी। थोड़ी दूरी पर टेंपो का समूह इकट्ठा था। वहाँ से इंजन के घुरघुराने की कानफोड़ू आवाज़ें फैल रही थीं। लेकिन आलोक बाबू के कान में ये आवाज़ें नहीं पहुँच रही थीं। उनके दिमाग में कोई और ही फिल्म चल रही थी जिसने उनके सोच को पूरी तरह जकड़ रखा था।

ये सब टेंपो नर्मदा के घाट जाने वाले थे। एक टेंपो सवारियों से भरा, रवाना होने की तैयारी में घुरघुरा रहा था। आलोक बाबू उसी में अँट गये। जेब छू कर देख ली। पर्स जेब में था, अन्यथा अभी उतर कर पैदल लौटना पड़ता।

दरअसल सारा फसाद उनके छोटे बेटे प्रकाश ने पैदा किया था। साल भर पहले उन्होंने बैंक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। सोचा था, अच्छा खासा पैसा लेकर सुकून से ज़िन्दगी बिताएंगे। लेकिन बैंक से बाहर आते ही वे ज़मीन पर आ गये। बिना काम के वे फालतू और बेकार हो गये। समझ में आ गया कि सक्रिय और व्यस्त रहना ज़िन्दगी के लिए ज़्यादा ज़रूरी है, पैसा सामने रखकर उसे निहारते रहना एक बीमारी पालने से बेहतर कुछ नहीं है।

पैसा हाथ में आने के बाद से नाते- रिश्तेदारों की आँखों में कुछ बदलाव आ गया था—- कुछ ईर्ष्या के कारण और कुछ उम्मीद की वजह से। लोगों को यह लगा कि उनके पास फालतू पैसा पड़ा है और उसे उनसे उधार लेकर किसी काम में लगाना बुद्धिमानी की बात होगी। उनकी बड़ी बेटी अपने पति की हिदायत पर दो तीन बार संदेश भेज चुकी थी कि अगर वे ढाई तीन लाख रुपया दे सकें तो पतिदेव अपना बिज़नेस बढ़ा सकेंगे। तीन-चार साल में पैसा वापस कर दिया जाएगा, और पापा जी ‘चाहें’ तो उचित ब्याज भी ले सकते हैं। आलोक बाबू ने हर बार बात को टाल दिया।

लेकिन इस बार गड़बड़ी इसलिए हुई कि उन्होंने बड़े बेटे दीपक के माँगने पर उसे कार खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए दे दिये। दोनों बेटे बाहर नौकरी में थे। दीपक के घर में कार आने के पंद्रह दिन के भीतर ही प्रकाश पिता के घर आ धमका। उसका कहना था कि जब बड़े भाई को डेढ़ लाख रुपया दिया है तो उसे भी इतनी ही रकम मिलना चाहिए, भले ही वह कुछ खरीदे या न खरीदे। उसकी नज़र में यह भेदभाव था जिसे बर्दाश्त करना उसके लिए नामुमकिन था।

इसी बात को लेकर उसके चक्कर हर महीने लगने लगे। पिता की तरफ से टालमटोल होते देख वह बदतमीज़ी पर उतरने लगा। धीरे-धीरे हालत यह हो गयी कि उसके आने पर आलोक बाबू को घबराहट होने लगी। वह साफ साफ कहता, ‘दादा को पैसा दिया है तो मुझे भी दीजिए। यह भेदभाव की नीति नहीं चलेगी। हम दोनों आपके बेटे हैं। नहीं तो दादा से कहिए पैसा वापस करें।’

जिस दिन की बात है उस दिन प्रकाश अलमारी से आलोक बाबू की चेकबुक लेकर उनके पीछे पड़ गया था कि तत्काल उसके नाम चेक काट कर दें। आलोक बाबू हर बार चेकबुक को परे धकेल देते थे और प्रकाश हर बार धृष्टता से चेकबुक उनके सामने रखकर उनके हाथ में पेन थमाने की कोशिश करता था। उसी रौ में आलोक बाबू घर से पैदल निकल पड़े थे। मुहल्ले-पड़ोस में कहीं दुखड़ा रोना खुद ही लाज से मरना था।

टेंपो पर बैठकर आलोक बाबू नर्मदा तट पहुँच गये। रास्ते में टेंपो किन किन जगहों से गुज़रा, उन्हें कुछ पता ही नहीं चला। वे अपने ही दुख में डूबे थे। घिरती साँझ में टेंपो ने उन्हें नर्मदा तट से थोड़ी दूर छोड़ दिया। वे अपने में खोये आगे बढ़ गये। आगे जाकर रेलिंग के पास खड़े हो गये, जहाँ नीचे नदी की लहरें गर्जन के साथ पछाड़ खा रही थीं। लहरों के उस उन्माद को देखते देखते आलोक बाबू का दिमाग घूमने लगा। बगल में रखी पत्थर की बेंच पर वे सिर लटका कर बैठ गये।

बैठे-बैठे उन्हें पता ही नहीं चला कब शाम रात में परिवर्तित हो गयी। उनके आसपास अब निर्जन हो गया था। जो लोग अब वहाँ थे वे  खाने-पीने और पत्थर की कलात्मक वस्तुओं की दूकानों में सिमट गए थे। रात के सन्नाटे में लहरों की गरज भयानक लग रही थी।

आलोक बाबू फिर रेलिंग से लगकर खड़े हो गये। क्या करें? कहाँ जाएँ? घर जाकर क्या करेंगे? फिर वही फजीहत। ऐसा पैसा किस काम का जो अनादर और द्वेष पैदा करे! न पैसा किसी काम का, न रिश्ते। फिर जीना किस लिए? बेहतर है इस जीवन का अन्त हो जाए। बस थोड़ी सी हिम्मत की ज़रूरत है और सब कुछ ख़त्म। शायद शरीर भी नहीं मिलेगा। ठीक भी है, अब इस शरीर की ज़रूरत किसे है?

आलोक बाबू इसी उधेड़बुन में थे कि किसी ने उनकी बाँह कोहनी से ऊपर कसकर पकड़ ली। देखा, एक तगड़ा सा अधेड़ आदमी था, सिर पर छोटे-छोटे खिचड़ी बाल, बदन पर आधी बाँह की कमीज़ और नेकर, और पैरों में रबर की चप्पल। आलोक बाबू ने कौतूहल से उसकी तरफ देखा तो वह बोला, ‘यह क्या कर रहे हैं बाबू साहब? साथ में कौन है?’

आलोक बाबू ने बताया वे अकेले हैं

वह आदमी बोला, ‘इरादे कुछ ठीक नहीं दिखते। इधर आइए।’

उसने बाँह छोड़ कर आलोक बाबू की उँगलियों में अपनी उँगलियाँ फँसा लीं। चाँद की रोशनी में चट्टानों पर चढ़ता हुआ वह आलोक बाबू को ऊँचाई पर एक खपरैल वाले छोटे से घर में ले आया। वहाँ बिजली की हल्की रोशनी में आलोक बाबू ने एक स्त्री और दो तीन बच्चों को देखा।

वह व्यक्ति बाहर ही एक चट्टान पर आलोक बाबू को लेकर बैठ गया। पत्नी को पानी लाने के लिए आवाज़ देकर बोला, ‘क्या करने जा रहे थे आप ? इस उम्र में खुदकुशी करने का इरादा था क्या?’

आलोक बाबू लज्जित होकर बोले, ‘नहीं, नहीं। ऐसा कुछ नहीं था।’

वह आदमी व्यंग्य से हँसकर बोला, ‘आप झूठ बोल रहे हैं। हमें तो अब इतना तजुर्बा हो गया है कि आदमी को देखकर जान जाते हैं कि कौन छलाँग लगाने वाला है।’

आलोक बाबू ने पूछा, ‘आप यहाँ क्या करते हैं?’

वह आदमी बोला, ‘हम रामनरेश पांडे हैं। चार साल से दिन-रात यही काम कर रहे हैं— आत्महत्या करने वालों को बचाने का। चार साल में पाँच सौ से ज़्यादा मर्द-औरतों को बचाया। यहाँ सब हमें जानते हैं।’

आलोक बाबू मुँह बाये उसका चेहरा देखते रह गये। बोले, ‘वैसे आप काम क्या करते हैं?’

पांडे जी बोले, ‘अब तो यही करते हैं। पहले एक ठेकेदार के साथ काम करते थे। बचपन से ही तैरने का शौक था। एक बार शाम को यहाँ घूम रहे थे कि एक लड़की झम से कूद पड़ी। प्यार व्यार का लफड़ा था। मैं भी बिना सोचे विचारे उसके पीछे कूदा। बस तब से सिलसिला चल पड़ा। तीन चार बार छोड़ कर भाग गया, लेकिन फिर लौट आया। समझ लिया कि अब यही मेरा काम है। मेरा कोई बस नहीं है। बराबर यहाँ नजर रखता हूँ और शक होते ही दौड़ता हूँ।’

आलोक बाबू अवाक रह गये। उनका अपना दुख शर्मसार होकर कहीं पीछे छिप गया। बोले, ‘गुज़र बसर कैसे होती है?’

पांडे जी बोले, ‘बड़ी मुश्किल से होती है। प्रशासन एक हजार रुपये महीना देता है। यह घर दे दिया है। पत्नी यहाँ स्कूल में चपरासी लग गयी है, इसलिए गाड़ी किसी तरह खिंच रही है। मंत्री आते हैं, पक्की नौकरी देने का भरोसा देकर चले जाते हैं। अभी तक कुछ नहीं हुआ। लेकिन यह काम छोड़कर नहीं जा सकता। आत्मा नहीं मानती। इसीलिए किसी को दोष भी नहीं देता। पत्नी का पूरा सहयोग है, इसलिए कोई पछतावा नहीं होता।’

आलोक बाबू अपनी तरफ नज़र डालकर भारी लज्जा में डूब गये। ऐसी ज़िन्दगी उनकी कल्पना से परे थी।

पांडे जी बोले, ‘अगर मेरा सोचना सही है तो जरूर किसी बिपदा में फँस कर आप जीवन त्यागने की सोच रहे होंगे। लेकिन इतने सयाने आदमी का इस तरह धीरज छोड़ देना ठीक नहीं। अभी रोटी बन जाती है। जो रूखा सूखा है ग्रहण कीजिए और यहीं खुले आसमान के नीचे शांति से सोइए। यह आकाश जो है आपके दुख को छोटा कर देगा। सवेरे तक आपका मन शान्त हो जाएगा।’

आलोक बाबू संकोच में हाथ उठा कर बोले, ‘न न! भोजन की इच्छा बिलकुल नहीं है।’

पांडे जी हँसे, बोले, ‘भोजन नहीं त्यागना चाहिए। भोजन बड़े बड़े दुखों को दबा देता है। खाली पेट से बहुत से भूत-प्रेत पैदा होते हैं। जो थोड़ा बहुत खाना हो खाइए और फिर आराम कीजिए। समझिए कि आज हम आपके डॉक्टर हैं। जीवन को बचाइए। पता नहीं किस के काम आ जाए।’

आलोक बाबू चुप हो गये। भोजन करते वक्त उन्हें खयाल आया कि अपनी विपन्नता के बावजूद पांडे जी इसी तरह कितने लोगों को अपने घर लाकर खिला पिला और सुला कर नये रास्ते पर रवाना कर चुके होंगे।

भोजन का ग्रास मुँह में डालते आलोक बाबू को लगा पांडे जी का अन्न उन्हें बहुत भारी पड़ेगा। चौबीस घंटे लोगों की जान बचाने में लगे पांडे का अन्न खाने के बाद आत्महत्या की बात सोचना गुनाह लगेगा। आत्महत्या की बात सोचते ही पांडे जी अपनी तर्जनी उठाये सामने आ खड़े होंगे।

पांडे जी ने आलोक बाबू के लिए एक समतल चट्टान पर मोटी दरी बिछा दी और शारीरिक और मानसिक रूप से थके आलोक बाबू उस पर लंबे लेट गये। अब उनके दिमाग की धुंध साफ हो गयी थी, इसलिए उन्हें ज़ोर की नींद लग रही थी।

तभी एक हाथ में ढिबरी लिये और दूसरे में एक आठ-दस साल की लड़की का हाथ थामे पांडे जी प्रकट हो गये। बोले, ‘बाबू साहब, आप पढ़े-लिखे दिखते हैं। थोड़ा इस लड़की को सवाल समझा दीजिए। हमारा दिमाग खाती है। अपनी गणित हमेशा कमजोर रही। ये सवाल हमारे बस के नहीं हैं।’

आलोक बाबू उत्साह में उठ कर बैठ गये। पढ़ाई में वे हमेशा तेज़ रहे थे। कॉलेज से मास्टर ऑफ कॉमर्स की डिग्री लेकर निकले तो बैंक में चुने जाने में दिक्कत नहीं हुई। अभी अपनी प्रतिभा दिखाने का अच्छा मौका था। एक घंटे तक उनकी क्लास चलती रही,उन सवालों की जो पांडे जी की बेटी जानना चाहती थी, और उनकी भी जो आलोक बाबू ने उसे समझाना ज़रूरी समझा। लड़की खूब खुश हो कर उठी और पांडे जी भी गदगद हो गए।

लड़की की क्लास ख़त्म कर आलोक बाबू उस चट्टान पर बच्चों जैसी गहरी नींद में डूब गये। पूरे वातावरण में अद्भुत शान्ति छायी थी।

सवेरे आलोक बाबू की नींद खुली तो पूर्व में नारंगी सूरज आधा उठ चुका था। उन्हें लगा यह उनकी ज़िन्दगी की नयी सुबह है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 124 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 124 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 124) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 124 ?

☆☆☆☆☆

यूँ तो गलत नहीं हुआ करते

अंदाज़ चेहरों के,

पर लोग वैसे भी नहीं होते

जैसे नज़र आते हैं…!

☆☆

Generally, expressions on the

faces do not go wrong,

But then, actually people are

not what they appear to be…!

☆☆☆☆☆

☆☆ ~ ज़िंदगी  ~ ☆☆ 

सब कुछ तो यहाँ बदल जाता है

देखते-देखते ही दिन ढल जाता है,

तेरी चाहतों के बीच मेरी तमाम

ज़िंदगी यूँ ही निकली जाती है…

☆☆ 

 Everything here changes so fast

even the day fades away in a jiffy,

In the midst of longing for you,

whole life passes away just like that…

☆☆☆☆☆

☆☆ ~ Shattering of Moon’s Ego… ~ ☆☆ 

तुम कभी मेरे साथ

    आसमान तक चलो,

मुझे इस चांद का

    गुरूर  तोड़ना  है…!

☆☆ 

Sometime you must come

      to the sky with me

I’ve to deflate the conceited

      ego of the moon…!

☆☆☆☆☆

☆☆ ~ Memories~ ☆☆ 

यादें बनकर जो तुम

    साथ रहते हो मेरे

तेरे इस अहसान का भी

    सौ  बार  शुक्रिया..!

☆☆ 

For staying with me

    as lasting memories

I’m  indebted  to  you

    for this favour of yours..!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 172 ☆ शारदीयता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 172 शारदीयता ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की स्थूल अथवा प्रत्यक्ष मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। अभिव्यक्ति सूक्ष्म या परोक्ष आवश्यकता है। जिस प्रकार सूक्ष्म देह के बिना स्थूल का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अभिव्यक्ति या मानसिक विरेचन के बिना मनुष्य जी नहीं सकता। अक्षर की इकाई को शब्द, वाक्य एवं भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति का, सूक्ष्म का सर्वाधिक सशक्त साधन बनाने वाली वागीश्वरी हैं माँ सरस्वती।

वसंतपंचमी सन्निकट है। यह माँ सरस्वती का अवतरण दिवस है। पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद, वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ। जल के प्रवाह और पवन के बहाव में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ‘नादब्रह्म’ है।

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥

अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।

शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-

वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति।

वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि  वसंतपंचमी, रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।

इस संदर्भ में अपनी एक कविता का स्मरण हो आया,

मौसम तो वही था,

यह बात अलग है;

तुमने एकटक निहारा

स्याह पतझड़,

मेरी आँखों ने चितेरे

रंग-बिरंगे वसंत,

बुजुर्ग कहते हैं-

देखने में और

दृष्टि में

अंतर होता है..!

माँ सरस्वती का अनुग्रह, हम सबमें देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता सदा जाग्रत रखे।

शारदा पूजन एवं वसंतपंचमी की स्वस्तिकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ ~  कृति चर्चा ~ मैं प्रेम हूँ : उपन्यास ~ डा. रश्मि कौशल ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  डा. रश्मि कौशल जी के उपन्यास  “~ मैं प्रेम हूँ ~” पर चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ 

☆ कृति चर्चा ~ मैं प्रेम हूँ : उपन्यास ~ डा. रश्मि कौशल ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

‘मैं प्रेम हूँ’ – उपन्यास

डा. रश्मि कौशल

पृ.सं. – 184

मूल्य – 275 रुपये

प्रकाशक – शिल्पायन बुक्स, शाहदरा, दिल्ली,

प्रथम संस्करण 2020

कृतिकार संपर्क – 9711282391

चर्चाकार: आचार्य संजीव.

अमेजन लिंक 👉 ‘मैं प्रेम हूँ’ – उपन्यास – डा. रश्मि कौशल

‘मैं प्रेम हूँ’ राधाभाव रश्मि का अनूठा कौशल – आचार्य संजीव

मानव सभ्यता के जन्म से तुरत पश्चात् से आज तक विकास के हर सोपान पर कथा कहानियाँ चोली-दामन की तरह उसके साथ रही हैं। इऩका जन्म मानव की कौतूहली प्रवृत्ति, औत्सुक्य तथा मनोरंजन की तृप्ति हेतु हुआ। कई कथाओं का उद्देश्यपूर्ण क्रमवार सुगठित प्रस्तुतीकरण उपन्यास है। उपन्यास मानवीय जिजीविषा, स्पर्धा, संघर्ष, समरसता, सहिष्णुता, राग-द्वेष, आदि की समग्र झाँकी प्रस्तुत करते हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, भाषाशैली, देश, काल तथा उद्देश्य उपन्यास के प्रमुख अंग हैं। उपन्यास दो शब्दों उप+न्यास के योग से बना है, जिसका अर्थ आसपास की कहानी या घटनाक्रम है। उपन्यास को मानव जीवन का गाथा भी कहा जा सकता है। उपन्यास का रूपविधान लचीला होता है। प्रेमचंद ने उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र कहा है। उपन्यास के अनेक प्रकार हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सांस्कृतिक, समाजवादी, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, राजनैतिक, प्रयोगात्मक, तिलस्मी-जादुई, लोक कथात्मक, आंचलिक, रोमानी, जासूसी, आदर्शवादी, नीतिप्रधान, आत्मचरितात्मक, समस्या-प्रधान, भावप्रधान, महाकाव्यात्मक, वातावरण प्रधान, पर्यावरणात्मक, चरित्रप्रधान, कथानक प्रधान, स्त्रीविमर्शवादी, आप्रवासी, पुरुष-विमर्शवादी आदि।

विवेच्य उपन्यास ‘मैं प्रेम हूँ’ धार्मिक भावप्रधान, मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। उपन्यासकार डा. रश्मि कौशल उच्च शिक्षित अभियंता हैं। अनास्था, पश्चिम के अंधानुकरण तथा धर्म व भक्ति को पिछड़ापन मानने के इस संक्रान्तिकाल में इलैक्ट्रॉनिक्स एवं इंजीनियरिंग में डॉक्टरी उपाधि प्राप्त रश्मिजी द्वारा एक भक्ति भाव प्रधान उपन्यास लिखा जाना चकित करता है। उपन्यास के शीर्षक से यह कृति रोमानी होने की प्रतीति होती है, किन्तु ऐसा है नहीं। यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास कृष्णकाल की बहुचर्चित, अतिलोकप्रिय, विवादास्पद (थी या नहीं थी), अगणित भक्तों की आराध्या सोलह कला से सम्पन्न विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की प्रेयसी, प्रेरणा और शक्ति का स्रोत रही राधा रानी पर केन्द्रित है। ‘राधा हरती भव बाधा’ लोक मानस में राधा की छवि तमाम लोक परंपराओं, रीति रिवाजों, मूल्यों आदि के विपरीत आचरण करने पर भी कल्याणकारी जगदम्बिका की है, जो ईश्वर की आल्हादिनी शक्ति है। जिसके साथ विवाह न हुआ, उसके साथ लुक-छिपकर, लड़-झगड़कर रास रचाने, श्रृंगार कराने तथा जिसके साथ विवाह हुआ उससे प्रायः दूरी पालने के बाद भी राधा लोकमानस में मंगलमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। राधा थी या नहीं थी, राधा का आचरण अनुकरणीय था या नहीं, राधा-कृष्ण का प्रेम आत्मिक था या दैविक, राधाकृष्ण का विवाह हुआ या नहीं, कृष्ण एक से एक रूपवती, गुणवती पत्नियों के रहते राधा को विस्मृत नहीं कर सके, राधा, कृष्ण द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद भी कृष्ण के प्रति समर्पित क्यों रही? दोनों का साहचर्य केवल निर्दोष बालक्रीड़ा थी या कैशोर्य, तारुण्य और यौवन की बेला में परिपुष्ट हुआ नाता, वार्धक्य में दोनों मिले या नहीं? कृष्ण की पटरानियों और राधा का अंतर्संबंध आदि अनेक प्रश्न लोक मानस में उठते और चर्चा का विषय बनते रहते हैं। इस कृति की रचना इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए नहीं की गई, पर विचित्र किंतु सत्य है कि इस कृति का आद्योपांत वाचन करने पर इनमें से हर प्रश्न का सटीक, परिस्थितजन्य, तर्क आधारित उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है।। यह उपन्यासकार रश्मिजी का अद्भुत कौशल है कि वे बिना लिखे भी वह सब लिख सकी हैं, जो पाठक पढ़ना चाहता है।

‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास एक दैवीय अनुभव, सृष्टि से पहले सृष्टि के बाद, रूप और नियम, पृथ्वी पर अवतरण, मिलन, बचपन, गोवर्धन, संबंध, स्पर्श, महारास, विवाह, घर-आँगन, मान, मथुरागमन, विरह, प्रयोजन, उद्धव प्रकरण, मेरा जीवन, मार्गदर्शन, भ्रमण, विलयन, संदेह प्रश्न, तथा सार संग्रह शीर्षक 24 अध्यायों में विभक्त है। हर शीर्षक कथाक्रम की प्रतीति कराता है। सामान्यतः, रचनाकार अपनी रचना का श्रेय खुद लेता है, किंतु रश्मि आभार के क्षण के आरंभ में ही “इस पुस्तक के लिए दैविकता के प्रति जितना भी आभार व्यक्त करूँ वो कम ही होगा। इस पुस्तक में जितनी भी कल्पनाएँ हैं, सत्य हैं, जो कुछ भी है उसका सारा श्रेय दैविकता को देती हूँ।” लिखकर “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा?” की भंगिमा के साथ कृति को कृष्णार्पित कर देतीं हैं। विवेच्य कृति में पूर्व रश्मिजी काव्य संग्रह ‘बारिश की दीवारें’ तथा ‘दरख्त का दर्पण’, कहानी संग्रह, ‘यह शहर की धूप है’ तथा विज्ञानाधारित उपन्यास ‘मुरली एक रहस्यकथा’ का प्रणयन कर चुकी हैं। व्यावसायिक तकनीकी क्षेत्र में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय परिसंवादों में 24 शोधालेख प्रस्तुत कर रश्मि बहुश्रुत और बहुचर्चित हुई हैं।

‘मैं प्रेम हूँ’, न तो शत-प्रतिशत प्रामाणिक दस्तावेज है, न ही कपोल-कल्पना। यह लोक मान्यताओं, पौराणिक साहित्य, लोक परम्पराओं, वैयक्तिक चिंतन तथा प्रचलित धारणाओं का तर्कसंगत सुव्यवस्थित सिलसिलेवार विश्लेषण करता कथाक्रम है। मैं प्रेम हूँ की कथावस्तु सृष्टि रचना पूर्व दैवीय तत्वों के विमर्श, राधारानी के अष्ट रूपों का प्राकट्य, महारास, राधा का प्राकट्य, दाम्पत्य आदि लेखिका की मनःसृष्टि की उपज है। मौलिक चिंतन तथा तर्क सम्मतता के ताने-बाने से बुना गया कथानक यथावश्यक पौराणिक साहित्य से समरसता स्थापित कर अपनी तथ्यपरकता की प्रतीति कराता है। इस तकनीक ने मौलिक चिंतन को दिशाभ्रम से बचाकर लोक-मान्यताओं से संश्लिष्ट रखा है। यह कथानक लोकश्रुत, लोकमान्य, रुचिकर तथा पाठक को चिन्तन परक कल्पनाकाश में उड़ान भरने का अवसर देने में समर्थ है।

उपन्यास की नायिका राधा का चरित्र-चित्रण महिमामय होना स्वाभाविक है। ‘मैं प्रेम हूँ’ का कृष्ण भी राधा के समतुल्य महिमामय है। उपन्यासांत में राधा कृष्णावलंबित होकर अपेक्षाकृत कम उज्ज्वल प्रतीत होती हैं। सम्भवतः इसका कारण राधा का मूर्तिमंत प्रेम होना है। प्रेम में आत्मोत्सर्ग प्रेमी के प्रति समर्पण और प्रेमी में विलय के त्रिचरणीय सोपानों पर राधा के चरित्र का विकास किया गया है। कृष्ण पर गद्य और पद्य में असंख्य लघु-दीर्घ रचनाएँ सहज उपलब्ध हैं, किंतु राधा पर लेखन मुख्यतः राधाभक्तिधारा तक सीमित रह गया है। रश्मि ने राधा पर स्वतंत्र औपन्यासिक कृति की रचना कर साहस का परिचय दिया है, जोखिम उठाया है। राधा थी या नहीं? यह युधिष्ठिर के यक्ष प्रश्न की तरह चिरकाल तक पूछा-बूझा जाता रहेगा। ‘एक दैवीय अनुभव’ के अंतर्गत स्वयं रश्मि भी इस तथ्य का उल्लेख करती हैं। राधा पर लिखित अपनी कविता में वे ‘राधा कौन थी?’ इस प्रश्न के विविध पहलुओं और विकल्पों से दो-चार होती हैं किन्तु कोई मान्यता पाठक पर थोपती नहीं, उसे चिंतन करने का अवकाश देती हैं। अंतत:, वे राधा की ही शरण गहतीं हैं और तब राधा अनुकंपा कर उनके मानस के प्रश्नों के उत्तर ही नहीं देतीं, अपनी समूची कथा में प्रवेश कराकर उन्हें कृतकृत्य करती हैं।

‘सृष्टि से पहले’ के घटनाक्रम की बृहद् आरण्यक उपनिषद् में वर्णित कथा से साम्यता है। पुरुष (ब्रह्म) से उत्पन्न राधा (प्रेम) से सृष्टि उत्पन्न होने का वर्णन अद्भुत है। प्रेम का उद्भव पुरुष के हृदय में होना, प्रेम का पृथक् प्रकट होना, प्रेम के मन में प्रश्न और पुरुष द्वारा उत्तर पठनीय है पुरुष और प्रेम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन रोचक बन पड़ा है। तुम प्रेम हो, तुम्हारी उत्पत्ति मेरे हृदय से हुई है। मैं इस अनंतनिद्रा अवस्था में था। मैंने तुमको अपने भीतर अनुभव किया, मुझमें स्पंदन हुआ मैं भी तुमसे ही जागृत हुआ।

“…जैसे तुम मेरे अंदर थी, मैं तुम्हारे अंदर हूँ। तुम्हारे बिना मैं भी कुछ नहीं है।… तुम्हारी प्रेम-ऊर्जा से संसार की रचना होगी। जैसे तुम मेरे हदय के केंद्र में स्थित थीं, अब यह सारा अनगिनत ब्रह्माण्ड अनंत तक होगा और तुम उसका केंद्र होओगी। तुम्हारे बिना सृष्टि असंभव है, इसलिए तुम्हारा जन्म हुआ है।” इस प्रसंग में पुरुष से प्रेम की उत्पत्ति वर्णित है तथा प्रेम से सृष्टि के जन्म का संकेत है। प्रेम कहता है- ”पुरुष मुझे अपनी तरफ खींच रहा था, जैसे मैं फिर से उसमें समा जाऊँगी। पुरुष ने प्रकृति को इशारा किया। प्रकृति ने तुरंत मेरे पैरों में नूपुर बाँध दिए और पुरुष के हाथ में बाँसुरी दे दी। मेरे कदम बढ़े और नूपुरों की ध्वनि निकली, साथ ही बन रही सृष्टि में गूँजा एक मधुर संगीत बाँसुरी का संगीत। पुरुष एक के बाद एक धुनें बजा रहा था, मेरे कदम जो उसमें समाने के लिए निकले थे, वे धीरे धीरे नृत्य करने लगे। पुरुष भी झूम रहा था औऱ हम दोनों के कदमों की आवाज से, नृत्य और संगीत से हुए कंपन से सृष्टि में निर्माण हुआ अनंत ब्रह्माण्ड, अनेक सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, देव, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस, असुर और अनेकानेक प्राणियों की उत्पत्ति हुई।” यहाँ प्रकृति कौन है, कहाँ से आई, प्रकृति पुरुष से उत्पन्न हुई या पुरुष प्रकृति से, जैसे प्रश्न उठते हैं किंतु अनुत्तरित हैं।

पुरुष के चरणों से ‘काल’ का जन्म जहाँ ‘काल’ वहाँ ‘मोह’ से परे, सृष्टि निवासियों द्वारा सीमोल्लंघन, महाविष्णु, महादेव, पुरुष, प्रेम का सृष्टि के सुचारु संचालन हेतु गोलोक में अवतरण… यहाँ पुनः प्रश्न उठता है कि महाविष्णु व महादेव पुरुष से उत्पन्न हुए या उऩकी स्वतंत्र सत्ता है? जिस तरह ‘पुरुष’ से ‘प्रेम’ उत्पन्न हुआ क्या वैसे ही महाविष्णु व महादेव से भी किसी तत्त्व की उत्पत्ति हुई? गोलोक के नीचे वैकुण्ठ और शिवलोक का संकेत है किंतु भूलोक या अन्य लोकों का नहीं। कालांतर में सिद्धों, मुनियों, देवों के आग्रह पर पुरुष और प्रेम, नर-नारी का रूप लेकर गोलोक में दृष्टिगोचर हुए, जिन्हें पृथ्वीलोक के प्रबुद्ध जनों ने ‘कृष्ण’ और ‘राधा’ नाम दिया। गोलोक में राधा-कृष्ण एक-दूसरे के आराध्य हैं।

‘सृष्टि के बाद’ अध्याय में असुरों का अनाचार, कृष्णभक्त श्रीदामा द्वारा प्रेम (राधा) की अवमानना से फलस्वरूप शंखचूड़ के रूप में जन्म, राधा की कला के अंश से तुलसी का जन्म, राधा के अंश से विरजा का जन्म, राधा-कृष्ण से गंगा की उत्पत्ति, कृष्ण-राधा का अवतरण आदि प्रसंगों का संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण से संकलित है। ‘रूप’ और ‘निगम’ शीर्षक अध्याय में शिव तथा विष्णु के आग्रह पर कृष्ण का विष्णु व राधा का लक्ष्मीरूप धारण करना, कश्यप, अदिति तथा द्रोण व धरा द्वारा तप, हरि का संग चाहनेवालों के जन्मादि का प्रसंग है। ‘पृथ्वी पर अवतरण’ नामक अध्याय में राधा-कृष्ण-योगमाया का धरावतरण, नश्वर सृष्टि देह बंधनों आदि का संकेत है। ‘मिलन’ अध्याय में राधा के 11 माह बाद कृष्ण का जन्म वर्णित है। शैशव से परस्पर आकर्षण, कृष्ण द्वारा असुरवध, बाल लीलाएँ, बचपन शीर्षक अध्याय में वकासुर, तथा कालिय मर्दन, राधा की मानरक्षा, गोवर्धन अध्याय में राधा के सहयोग से कृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण वर्णित है। संबंध अध्याय राधा-कृष्ण-मैत्री से उठते लोकापवादों, दुर्वासा के आगमन, राधा की बालसुलभ जिज्ञासाओं पर केंद्रित है। स्पर्श अध्याय में ग्यारह वर्षीया राधा तथा दस वर्षीय कृष्ण की विविध लीलाएँ हैं, देवी द्वारा नृत्य शिक्षा तथा रास का आध्यात्मिक अर्थ ‘महारास’अध्याय का वर्ण्य विषय है। राधा के अनुसार– “रास एक क्रिया का नाम है, जिसके द्वारा ऊर्जा एकत्रित की गई थी, पृथ्वी के संतुलन के लिए, युग-युगांतर के लिए…. रास समाधि की वह अवस्था है, जहाँ हममें से कोई भी न शरीर होता था, न मन, न ही कर्मों में लिपटा आत्मन। हम सब सिर्फ ऊर्जा के रूप में थे।”

इसमें भाग लेनेवाली हर गोपी आध्यात्मिक शिखर पर थी… कृष्ण माया का उपयोग अवश्य करते थे तकि गोपियाँ अगले दिन सब भूल जाएँ… हमारी ऊर्जा का स्पंदन गाँव से निकल कर, पृथ्वी के वातावरण को चीरते हुए त्रिलोक में फैलने लगा… आगे महाभारत होने वाला था, उसमें जितना विध्वंस होता उसी को कमतर करने के लिए महारास की जरूरत थी अगर कोई मानव चाहे तो अपने अंदर इस महारास को देख सकता है।। उन 144 ऊर्जा-केंद्नों को समझ सकता है, सर्वशक्तिमान परब्रह्म का अनुभव कर सकता है परमानंद पा सकता है, परब्रह्म में विलीन हो सकता है।…”

बढ़ते लोकापवादों को समाप्त करने के लिए राधा-अमन विवाह, राधा की कृष्णमयता, ससुर नंद का रोष, घर-आँगन तथा महल अध्यायों में है। मथुरा गमन तथा विरह शीर्षक ही अध्यायों के कथ्य का संकेत देते हैं। प्रयोजन अध्याय में लेखिका कृष्ण के माध्यम से महारास पर और प्रकाश डालती है। रास में गोपेश्वर शिव के सम्मिलित होने पर राधा के प्रश्नों के उत्तर में कृष्ण कहते हैं- “वो सृजन और संहार की युगलबंदी हैं जिसे पाना आसान नहीं है… ऊर्जा संतुलन के लिए महारास का प्रयोजन (आयोजन) अनिवार्य था। महाभारत के लिए आसुरी शक्तियाँ थीं और महारास के लिए सात्त्विक प्रेम शक्तियाँ। ” इन प्रसंगों में राधा-कृष्ण की अभिन्नता, और एक दूसरे के बिना अपूर्णता जगह-जगह द्रष्टव्य है।

ब्रह्मज्ञान के गर्व से भरे उद्धव और प्रेमभक्ति में निमग्न गोपियों का संवाद उद्धव प्रकरण अध्याय में है। कृष्ण के जीवन की उथल-पुथल तथा आठ विवाहों का संकेत कर राधा कहती हैं- “उन आठों का उनके भौतिक जीवन पर अधिकार था और मेरे जीवन की हर साँस पर कृष्ण का नाम था, कृष्ण का अधिकार था।” लोक की दृष्टि में अमन की पत्नी की सांस पर कृष्ण का अधिकार कैसे मान्य होता?

स्वप्न साक्षात्कार में पधारे कृष्ण ने राधा को व्यावहारिक-आध्यात्मिक दीक्षा देकर मार्गदर्शन भी किया। राधा और अमन को हर (श्यामवर्णी) और हरि (गौरवर्णी) पुत्रों की प्राप्ति हुई। नंद बाबा द्वारा राधा से प्रेम और भक्ति का ज्ञान पाना, राधा के सास-ससुर तथा पति तथा दोनों पुत्रों का महाप्रस्थान, राधा द्वारा उद्धव व सखियों को ज्ञान देना, दोनों पटरानियों का रास से साक्षात्का,र राधा का चिर कैशोर्य तथा कांति देख विस्मित होना, ईर्ष्यावश गर्म दूध पिलाना, कृष्ण के पाँवों में छाले होना, कृष्ण द्वारा रोग के निवारणार्थ रानियों से उनकी चरणरज शीश पर लगाने का अनुरोध, रानियों का भय-संकोच और समाचार मिलते ही राधा द्वारा अपना पग कृष्ण के शीश पर रखकर उन्हें निरोग करने का प्रसंग राधा-कृष्ण की अभिन्नता और ऐक्य इंगित करते हैं। ‘विलयन’ के अध्याय में रुक्मिणी द्वारा आमंत्रण, राधा और गोपियों का द्वारका-गमन, वापिसी के समय कृष्ण विरह से व्याकुल गोपियों के अश्रुपात से भरे सरोवर में 26 गोपियों का देहपात, कृष्ण द्वारा राधा को रोकना, राधा द्वारा वृद्धा का रूप धारणकर रसोई बनाना, दुर्वासा को आभास, राधा द्वारा बनाई खीर का सेवनकर जूठी खीर में तपोबल मिलाकर कृष्ण के तन पर मलने हेतु कहना, कृष्ण द्वारा ऋषि-प्रसाद पाँवों पर न लगाना, दुर्वासा का चिंतित होकर पैरों का विशेष ध्यान रखने का संकेत करना, सांब द्वारा दुर्वासा का उपहास, दुर्वासा द्वारा शाप, कृष्ण का राधा के रंग में रंगकर पांडुरंग होना, व्याध जरा द्वारा कृष्ण वध तथा द्वारका का समुद्र में विलय होने के साथ उपन्यास का पटाक्षेप होता है।

परिशिष्टवत् संदेह-प्रश्न के अंतर्गत कुछ प्रश्नोत्तर हैं, जिनके अंत में राधाजी लेखिका को बतलातीं हैं कि वे लेखिका (हर भक्त) के अभ्यंतर में प्रेम रूप में हैं, अपने भीतर डूबकर उन्हें पाया जा सकता है। ‘सार-संग्रह’ में लेखिका की आत्मानुभूति है, उसका वैज्ञानिक मन, आध्यात्मिक अनुभूतियों से समायोजन स्थापित कर जो पाता है, वही राधा-कृष्ण का प्रसाद मानकर पाठकों में बाँट देता है। तदनुसार जीवन प्रेम है, प्रेम से उत्पन्न, प्रेम में लीन, प्रेम में विलीन… और बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ… अतः, गुरु के प्रति आभार।

‘मैं प्रेम हूँ’ में मुख्य तथा गौण पात्रों का चरित्र-चित्रण स्थूल रूप से कम, उऩकी मनोवृत्ति के संकेत के रूप में अधिक है। इस तकनीक से लेखिका ने अनावश्यक विस्तार से बचकर कथा को गति तथा दिशा देने में सफलता पाई है। इसी तरह कथोपकथन में पारस्परिक प्रश्नोत्तरी संवाद न्यून तथा वर्णनात्मक अभिकथन अधिक है। यह शिल्प हर संवाद के माध्यम से वह उद्घाटित करता है जिससे कथा तथा घटनाक्रम आगे बढ़ते रहे। घटनाओं को क्रमानुसार न रखकर, कथाक्रम की उपादेयता के अनुसार रखा गया है। इस तरह लेखिका अपनी विचार सरणि में पात्रों को भटकाव के भँवर से बचाकर सुरक्षित पार लगा सकी है।

उपन्यास की भाषा शैली विषय की गूढ़ता, आध्यात्मिक प्रसंगों में अभिव्यक्ति की जटिलता शब्दों की सीमित सामर्थ्य तथा पाठक की ग्रहण क्षमता के परिप्रेक्ष्य में सरल, सुबोध, सटीक तथा सहज है। उपन्यास का देश-काल अति विस्तृत है। राधा-कृष्ण के अवतरण से पूर्व प्रसंग पाठक के मन में पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। उन्हें राधा की आत्मानुभूति के रूप में कथाक्रम में पिरोया जा सकता था। पूरे उपन्यास में राधा की भूमिका द्वितीयक तथा कृष्ण की प्राथमिक है, बावजूद इसके कि स्वयं कृष्ण स्वीकारते हैं कि राधा-रहित कृष्ण नहीं हो सकते। ‘मैं प्रेम हूँ’ नायिका प्रधान उपन्यास है किन्तु नायिका हर प्रसंग में नायक पर आश्रित है, नायक उसमें संबल खोजता है पर बल पाता नहीं, देता हुआ मिलता है। उपन्यास का उद्देश्य राधा-कृष्ण का एकत्व प्रतिपादित करना है, और वह भली प्रकार से प्रतिपादित हुआ भी है। लेखिका अपनी विज्ञान के प्रति वैचारिक पृष्ठभूमि में अध्यात्मजनित कथांकुरों को पल्लवित-पुष्पित करने में पूरी तरह सफल है।

डा. अवधेश प्रसाद सिंह ठीक ही लिखते हैं कि “वर्णित सारी घटनाएँ ऐसी हैं जैसे किसी ने सब कुछ अपनी आँखों देखा है।” श्रीपाद कश्यप के मत में – “पुराणों का ज्ञान, तथ्यों का ताना-बाना, रचनात्मकता, भावनाओं और दृश्यों की क्रमबद्ध बेहतरीन प्रस्तुति पुस्तक को पठनीय बनाता है।”

‘मैं प्रेम हूँ’ में प्रेम भाव की सघनता इतनी अधिक है कि कृष्ण भारद्वाज के शब्दों में “ पहली बार ऐसा लगा कि मैं राधाजी बन जाऊँ। पूर्ण प्रेम बन जाऊँ।” शिवी शर्मा इस कृति को “आधुनिक ग्रंथ के समान तथा दैविक प्रेरणा के वशीभूत लिखी गई” पाते हैं। डा. अश्विनी इंदुलकर इस किताब को पढ़ते समय खुद को कृष्ण भगवान् के युग में अनुभव करत हैं। “जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी…”

मुझे एक पाठक के नाते ‘मैं प्रेम हूँ’ का प्रथमतः वाचन करते समय भावलोक में विचरण कर धन्यता की प्रतीति हुई। ‘मैं प्रेम हूँ’ का द्वितीय वाचन अपने अंतर्मन के सामान्यतः अज्ञात रहे पक्ष को उद्घाटित करता लगा और यह विवेचन लिखते समय उपन्यास को उलटते-पलटते हुए राधा-कृष्ण की विविध छवियों की साक्षात् प्रति हुई।

राधा-कृष्ण ही नहीं, अन्य पौराणिक पात्रों, घटनाओं आदि पर क औपन्यासिक कृतियाँ तथा प्रबंध काव्यों को पढ़ने का सौभाग्य मिला है। प्रायः रचनाकारों के पांडित्य प्रदर्शन से उन्हें सराबोर पाया है। कई कृतियों में पात्रों के संवादों, गतिविधियों आदि से रचनाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता झलकती है तब ऐसा प्रतीत होता कि किसी कठपुतली को दूसरी कठपुतली की वेश-भूषा पहना दी गयी है।

रश्मि का कौशल यह है कि वह उपन्यास की हर पंक्ति, हर शब्द में होकर भी कहीं नहीं है। भोजन की थाली में हर व्यंजन में पानी होता है पर ऊपरी दृष्टि से कहीं नहीं दिखता। रश्मि के अभियंता के रूप में कथ्यानुशासन, वैज्ञानिक तथ्यों का नवान्वेषण, भक्त की भावपरकता, लेखिका का अभिव्यक्ति सामर्थ्य तथा ‘स्व’ को ‘सर्व’ में ढाल सकने के मातृत्व भाव के पंच तत्त्व इस उपन्यास की रचना करते हुए, सृजन में लीन सृष्टि में विलीन होकर पाठक मन में पुन: पुनः अवतरित होते हैं। यह लेखिका की सृजन साधना की सफलता है।

अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान के इस त्रिवेणी संगम में हर चैतन्य पाठक को अवगाहन करना चाहिए। पौराणिक औपनिषदिक कथ्यों को विज्ञान सम्मत तथ्यपरकता के साथ संगुंफित कर सत्साहित्य सृजन का सारस्वत अनुष्ठान सतत चलता रहे तो हिंदी साहित्य समृद्ध होगा तथा युवा पाठकों का अपनी उदात्त विरासत की प्रामाणिकता से भी परिचय होगा।

डा. रश्मि कौशल एक लगभग अछूते विषय पर ‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य की छाप छोड़ सकी हैं। कथ्य का संक्षेपीकरण-सरलीकरण, नीर-क्षीर-विश्लेषण, घटनाओं की तारतम्यता, पौराणिक प्रसंगों का यथार्थपरक वर्णन तथा सुगठित कथाक्रम कृति की पठनीयता में वृद्धि करता है। जयदेव तथा चैतन्य महाप्रभु प्रणीत राधा भाव भक्ति धारा आंदोलन ने संक्रमण काल में जनगण के मन को शांत-सुदृढ़ करने में महती भूमिका निभाई है। राधाभाव भक्ति का विज्ञान-सम्मत विश्लेषण, राधाभाव धारा को नव आयाम देकर तर्कणा प्रधान नव पीढ़ी को जोड़ने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकता है। इस सोद्देश्य सृजन हेतु डा. रश्मि कौशल साधुवाद की पात्र हैं।

समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत 🌹

(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

🌹प्रवासी तथा विश्व  हिन्दी दिवस का आयोजन संपन्न🌹

प्रवासी भारतीय साहित्य  एवं संस्कृति शोध केन्द्र  एवं  रविन्द्र नाथ टैगोर  विश्व विद्यालय द्वारा प्रवासी तथा विश्व  हिन्दी दिवस का आयोजन किया गया।   

“हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में भारत सहित विश्व के कई देशों में बोली जाने वाली एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में स्थापित हो गई है। हिंदी का विस्तार अनवरत जारी है। यहीं सही समय है जब हमें पूरी आधुनिकता के साथ वैश्विक स्तर पर हिंदी को रोजगार की भाषा के रूप में स्थापित करना चाहिए।” 

उक्त उद्गार लिस्बन विश्वविद्यालय, पुर्तगाल से भारत प्रवास पर आये डॉ. शिवकुमार सिंह ने प्रवासी दिवस एवं विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में प्रवासी भारतीय साहित्य एवं संस्कृति शोध केंद्र, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा ‘विश्व में हिंदी : हिंदी का विश्व’ विषय पर विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित ‘परिसंवाद’ को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।

कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एव॔ विश्व रंग के निदेशक श्री संतोष चौबे ने की।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद, नई दिल्ली के मानद निदेशक श्री नारायण कुमार ने कहा कि – “आज के समय में हिंदी विश्व के इतने देशों में बोली जा रही हैं कि हम गर्व से कह सकते है कि हिंदी के राज में अब सूर्यास्त नहीं होता।”

कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री संतोष चौबे ने  की ।

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भोपाल में पाँचवे लिटरेचर फेस्टिवल का शुभारंभ – इस फैस्टिवल का शुभारंभ चर्चित पुस्तक ‘डायमंडस आर फार एवर ‘सो आर मोरल्स’ के लेखक गोविन्द ढोलकिया, वास्तुकार क्रिस्टोफर बेनिंगर, राघव चन्द्रा, अभिलाष खांडेकर, डीके मेहता, और हजूर हबीब के द्वारा हुआ। फेस्टिवल में अनेक पुस्तकों पर चर्चा हुई ।

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दूसरा सत्र कहानी पाठ आदरणीय शंशाक जी की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें हरीश पाठक, नीलिमा शर्मा, और हरि भटनागर ने कहानी पाठ किया।

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तीसरा सत्र प्रबोध गोविल की अध्यक्षता में लघुकथा पाठ का रहा।

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भोपाल ‘लिटरेचर एंड आर्ट फेस्टिवल’ के तीन दिनी महाकुंभ का आगाज भारत भवन में हुआ जिसका दूसरा दिन – सेलेब्रिटी आनर्स के नाम रहा। कबीर बेदी, रंजीता दिवेकर आई सी आई सी आई संजय यादव, पूर्व हाई कमिश्नर, टीसीएस राघवन, व एक्स कैग मेम्बर विनोद राय, पद्मश्री सोवना नारायण के सेशनों एवं थैंक्स, क्रिटिक्स, पब्लिशर्स एवं लिटरेचर लवर्स से पूरा भारत भवन कैम्पस गुलजार रहा ।

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‘तुलसी साहित्य अकादमी’ की सृजन श्रंखला 29 की बांसतिक काव्यगोष्ठी वरिष्ठ साहित्यकार डा .गौरीशंकर गौरीश की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई।

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हेमन्त फाउन्डेशन एवं अंतर्राष्ट्रीय विश्वमैत्री मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन दिनांक 15 जनवरी को सम्पन्न हुआ। पहला सत्र विधा पुरस्कार तथा सम्मान  का था जिसमें  विश्व मैत्री  मंच की संस्थापक संतोष श्रीवास्तव के दिवंगत पुत्र, युवा कवि हेमन्त को उनकी  कविताओं के पाठ से याद किया। युवा गजलकार सुभाष पाठक ‘जिया’ को उनके गजल संग्रह “तुम्हीं से जिया है” के लिये सम्मानित किया गया।

🌹 🌹

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय  मानव संग्रहालय में ‘छत्तीसगढ का सांस्कृतिक भूगोल’ विषय पर डा. राहुल कुमार सिंह पुरातत्वविद एवं संस्कृतिकर्मी द्वारा व्याख्यान  का आयोजन  किया गया।

🌹 🌹 

अविरल भारतीय साहित्य परिषद के तत्वावधान में यात्रा गोष्ठी का आयोजन किया गया।

🌹 🌹 

दुष्यन्त संग्रहालय में उषा सक्सेना की दो पुस्तकों ‘कामदेव’ – खंड काव्य तथा ‘आगड़ बम बागड़ बम‘, – बाल कविता का लोकार्पण साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के निदेशक श्री विकास दवे, वरिष्ठ साहित्यकार नरेन्द्र  दीपक एवं महेश सक्सेना द्वारा हुआ।

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‘सृजन ग्लोबल एवं त्रिवेणी’ संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में ‘विजयी विश्व तिरंगा’ पुस्तक  चर्चा एवं काव्य पाठ हुआ।

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‘लघुकथा शोध संस्थान’ की निदेशक कांता राय के निर्देशन में विगत सप्ताह निम्न लिखित पुस्तकों पर चर्चा हुई –

गोदान के बाद – डा.प्रभुदयाल मंढइया

चाँद की चाहत – डा.प्रभुदयाल मंढइया

खैर पता है हुजूर – उपन्यास – सुश्री उर्मिला शिरीष

जो देखा आपने – डा. अखिलेश वार्चे

आस तीस का लाडू – निमाड़ी लघुकथा – विजय जोशी

मिथ्या मंजिल और मौजूदगी – श्री अशोक मनवानी

🌹 पुस्तक पखवाड़े का समापन 🌹 

पुस्तक पखवाड़े के समापन सत्र में टैगोर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री संतोष चौबे की दो पुस्तकों ‘इस अ-कवि समय में’ कविता संग्रह तथा ‘दस कहानियाँ’ पर चर्चा हुई। इस सत्र की अध्यक्षता मध्यप्रदेश साहित्य एवं संस्कृति परिषद के निदेशक श्री विकास दवे ने की। उन्होंने नई पीढी को पुस्तकों से जोड़ने के लिये ‘पुस्तक पखवाड़ा’ जैसे आयोजनों के महत्व को बताया।

🌹 🌹

साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – क्षितिज – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– क्षितिज – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

वरती आकाश

खाली सागर

क्षितिजावरती

मिलन सुंदर

आकाशाच्या

प्रतिबिंबासह

लाटांचे लयदार

नृत्य  निरंतर

जल आकाश

शक्ति या तर

वंदन तयांना

जोडूनी दो कर

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

१८/०१/२०२३

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #173 – 59 – “अजब हो चला इस ज़माने का चलन…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अजब हो चला इस ज़माने का चलन…”)

? ग़ज़ल # 59 – “अजब हो चला इस ज़माने का चलन…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

लँगड़े पर दौड़ने का आरोप लगाते हैं,

गंजे को कंघी का तोहफ़ा भिजवाते हैं।

अजब हो चला इस ज़माने का चलन,

अंधों को  नज़रों के चश्मे लगवाते हैं।

तिजोरी पूरी चुनावी अभियान में झोंकी,

नेता जी  बजट रिश्वत का बनवाते हैं।

नदियों पर क्रूज अभियान हो ज़रा तेज,

हज़ार करोड़ गंगा सफ़ाई पर लगाते हैं।

सौ स्मार्ट सिटी का लक्ष्य सध रहा है,

शहर की  गंदगी गाँव में फिकवाते हैं।

उल्टा सीधा खाने से किडनी हुई ख़राब,

आयुष्मान से दिल का इलाज कराते हैं। 

हिंदू हिंदी और हिंदुस्तान के नारे लगवा,

गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल खुलाते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 51 ☆ मुक्तक ।।कल का सुंदर संसार, मिलकर आज ही संवार।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।कल का सुंदर संसार, मिलकर आज ही संवार।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 51 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।कल का सुंदर संसार, मिलकर आज ही संवार।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

यदि  बनाना  है  कल  अच्छा तो करो  आज      तैयारी।

यदि पहुंचना मंजिल  पर कल तो करो आज होशियारी।।

भविष्य  का  निर्माण  प्रारंभ  ही  वर्तमान से     होता है।

यदि रहना है कल को खुश तो करो दूर आज लाचारी।।

[2]

तुम्हारी हर बात में हमेशा कुछ गहराई होनी चाहिये।

तुम्हारे काम   में सदा  ही कुछ भलाई होनी चाहिये।।

सुधार करते रहो हर गलती का भी   तुम  हर कदम।

टूटे रिश्तों   की भी    हमेशा से तुरपाई होनी चाहिये।।

[3]

जीवन प्रभु का   दिया       एक अनमोल सा उपहार है।

मूल उद्देश्य इसका रखना सबके ही  साथ   सरोकार है।।

एक ही मिला है जीवन जो फिर मिलेगा    न     दुबारा।

यही हो भावना कि सम्पूर्ण विश्व एक ही तो परिवार है।।

[4]

मिलकर बनायों संसार जिसमें बस अमन चैन सुख हो।

बस जाये ऐसा  भाई चारा कि  किसी को न दुःख  हो।।

भाषा संस्कार संस्कृति सबका  ही  होता रहे    संवर्धन।

दुनिया न   कहलाये    कलयुग बस मानवता का युग हो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 116 ☆ ग़ज़ल – “परेशां देख के तुमको…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “परेशां देख के तुमको…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #116 ☆  ग़ज़ल  – “परेशां देख के तुमको…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मुझे जो चाहते हो तुम, तुम्हारी ये मेहरबानी

मगर कोई बात मेरी तुमने अब तक तो नहीं मानी।

 

परेशां देख के तुमको मुझे अच्छा नहीं लगता

जो करते प्यार तो दे दो मुझे अपनी परेशानी।

 

तुम्हें संजीदा औ’ चुप देख मन मेरा तड़पता है

कहीं कोई कर न बैठे बख्त हम पर कोई नादानी।

 

मुझे लगता समझते तुम मुझे कमजोर हिम्मत का

तुम्हारी इस समझदारी में दिखती मुझको नादानी।

 

हमेशा अपनी कह लेने से मन का बोझ बँटता है

मगर मुझको बताने में तुम्हें है शायद हैरानी।

 

मुसीबत का वजन कोई सहारा पा ही घटता है

तुम्हारी बात सुनने से मुझे भी होगी आसानी।

 

जो हम तुम दो नहीं है, एक हैं, तो फिर है क्या मुश्किल?

नहीं होती कभी अच्छी किसी की कोई मनमानी।

 

नहीं कोई, जमाने में मोहब्बत से बड़ा रिश्ता

तुम्हरी चुप्पियां तो हैं मोहब्बत की नाफरमानी।

 

परेशां हूँ  तुम्हारी परेशानी और चुप्पी से

’विदग्ध’ दिल की बता दोगे तो हट सकती परेशानी।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ कृतार्थ वार्धक्य… डाॅ.विनिता पटवर्धन ☆ परिचय  – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ कृतार्थ वार्धक्य… डाॅ.विनिता पटवर्धन ☆ परिचय  – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

लेखिका : डॉ. वनिता पटवर्धन 

प्रकाशक : समीर आनंद वाचासुंदर, गोवा 

– हे पुस्तक पाहिलं, आणि नकळतच मनात प्रश्न उभा राहिला की… ‘‘वार्धक्य… आणि कृतार्थ…?” … आणि तेही आत्ता आजूबाजूला सातत्याने दिसणा-या परिस्थितीत? उत्सुकता स्वस्थ बसू देईना… मग लगेचच हे पुस्तक वाचायला सुरुवात केली. आणि अगदी प्रस्तावनेपासूनच पानागणिक मिळणारी वेगवेगळी शास्त्रीय माहिती वाचतांना, वृध्दत्त्वाशी निगडित असणा-या अनेक प्रश्नांचे वेगवेगळे आकृतीबंध डोळ्यासमोर उभे राहिले. 

माणसाचे सर्वसाधारण आयुष्यमान ७५ ते ८० वयापर्यंत वाढले आहे हे तर जाहीरच आहे… त्यामुळे या वयोगटातील माणसांची संख्याही वाढली आहे. आणि अर्थातच् वृध्दांसमोरची आव्हानेही वाढली आहेत. इथे वृध्दांसमोरच्या ‘समस्या’ न म्हणता ‘आव्हाने’ म्हणणे, इथेच लेखिकेचा या विषयाकडे बघण्याचा सकारात्मक दृष्टीकोन अधोरेखित झाला आहे. आणि मग टप्याटप्याने पुढे जात, ही आव्हाने यशस्वीपणे कशी पेलता येतात, याचे लेखिकेने सोदाहरण विवेचन केले आहे… अगदी पटलेच पाहिजे… आणि आचरणातही आणले पाहिजे असे. 

‘एखादी व्यक्ती वृध्द होते, म्हणजे नेमके काय होते? ’ हा पहिलाच प्रश्न… इथूनच या पुस्तकाला सुरुवात झालेली आहे. उमलणे… उभरणे… कोमेजणे… थोडक्यात उत्पत्ती-स्थिती-लय… यापैकी ‘ कोमेजत जाणे ’… हा तिसरा टप्पा वृद्धत्वाचा. हे जरी सत्य असले, तरी माणसाचे कोमेजत जाणे कसे असते, हे त्याच्या शारिरिक व मानसिक स्वास्थ्यानुसार, त्याच्या कार्यरत रहाण्याच्या क्षमतेनुसार, अंगभूत कौशल्यानुसार, आणि या अनुषंगानेच, त्याने आयुष्यभर केलेल्या व्यवसायानुसार, प्रत्येकाच्या बाबतीत वेगळे असते. म्हणूनच वय आणि कार्यमग्न रहाण्याची क्षमता, याचे कुठचेही ठाम गणित मांडता येत नाही, मांडले जाऊही नये, हा विचार नकळत वाचकाच्या मनात भुंग्यासारखा गुणगुणायला लागतो, याचे श्रेय लेखिकेला द्यायलाच हवे. इथेही…१)‘नववृध्द, म्हणजे तरूण जेष्ठ’, २)‘वृध्द किंवा ज्येष्ठ’ , ३) ‘अतिवृध्द किंवा अति ज्येष्ठ’, हे वृध्दत्त्वाचे तीन टप्पे असतात हे सांगतांना लेखिकेने… १ ला टप्पा म्हणणे शिशिरातील चांदणे, २ रा टप्पा म्हणजे हेमंत ऋतूतील पानगळती, आणि ३ रा टप्पा म्हणजे शिशिरातील गूढ शांतता… अशी अगदी सुंदर… सहजपणे पटणारी उपमा दिलेली आहे. आणि अशाच अनेक चपखल उपमा, प्रसिध्द लेखकांच्या साहित्यातले या विषयाला अचूक लागू होतील असे वेचे, काही सुंदर कविता, यांचा अगदी यथायोग्य उपयोग सहजपणे या पुस्तकात केलेला आहे. 

याच्याच जोडीने, आत्तापर्यंत विकसित झालेल्या ‘ वृध्दशास्त्राच्या ’ वेगवेगळ्या शाखांचा उहापोहही केलेला आहे, आणि त्याला सहाय्यभूत असणारे कितीतरी आलेख, लहान लहान तक्त्यांच्या माध्यमातून दिलेली प्रत्यक्षदर्शी माहिती, पूरक चित्रे, याद्वारे या विषयाची परिपूर्ण माहिती देण्याचा लेखिकेचा हेतू स्पष्टपणे जाणवतो. 

वृद्धत्वाचे स्वरूप, वृध्दांची मनोधारणा, बौध्दिक स्थिती, सामाजिक स्थिती, अशा अनेक गोष्टींचा मानसशास्त्रीय दृष्टिकोनातून विचार करतांना, वृध्दांनी ‘स्वयंशोध’ घेणे किती महत्त्वाचे आहे, यावर लेखिकेने आवर्जून भर दिला आहे, आणि त्यादृष्टीने मांडलेला प्रत्येक मुद्दा कोणत्याही ‘सजग’ वृध्दाला पटलाच पाहिजे असा आहे. कोणाचेही वय विचारायचे असेल तर ‘How old are you?’ असे विचारले जाते. पण वृध्दांच्या बाबतीत मात्र, त्याऐवजी ‘How young are you?’ हा प्रश्न विचारायला हवा, हे लेखिकेचे म्हणणे मला अतिशय आवडले… मनापासून पटले. कारण या प्रश्नाच्या उत्तरातच, माणूस स्वत:च्या वृध्दत्त्वाकडे कशाप्रकारे बघतो… किंवा स्वत:ची निराशेकडे झुकणारी मानसिकता बदलू इच्छितो की नाही, याचे उत्तर दडलेले आहे… वृध्द असणे आणि सारखे वृध्द असल्यासारखे वाटत रहाणे यातला फरक यामुळे आपोआपच ठळकपणे अधोरेखित होतो. 

याच अनुषंगाने पुढे वृद्धत्वाच्या गरजा आणि अपेक्षा, नकळतपणेच पण महत्त्वाची ठरणारी मानसिक निवृत्ती, अटळ असे शारीरिक आणि आर्थिक परावलंबन, हे सगळे निरोगी मनाने स्वीकारून, ते आपल्या परीने जास्तीत जास्त नियंत्रणात ठेवण्याची मानसिकता जोपासण्याची गरज, अशा अनेक अतिशय महत्त्वाच्या मुद्यांवर लेखिकेने परिपक्व म्हणावे असे भाष्य केले आहे. खरं तर ते फक्त भाष्य नसून, वाचकांच्या विचारांना अगदी योग्य आणि आवश्यक दिशा देणारे मार्गदर्शन आहे, ज्यातून प्रत्येकाने खूप काही शिकण्यासारखे, प्रत्यक्ष आचरणात आणण्यासारखे आहे. 

भूतकाळाच्या तुलनेत आत्ताच्या काळात वृध्दांच्या समस्या बदलल्याही आहेत आणि वाढल्याही आहेत हे तर खरेच. लेखिका स्वत: मानसशास्त्र तज्ञ आणि ख्यातनाम समुपदेशक असल्याने, वृद्धत्व या आयुष्याच्या अखेरच्या टप्प्यातली मानसिकता, झेपतील की नाही अशा वाटणा-या या वयातल्या समस्या, याबद्दल फक्त शास्त्रीय माहिती देऊन न थांबता, त्यावरच्या प्रत्यक्षात करता येणा-या उपाययोजनाही त्यांनी सहजपणे समजतील, आणि तितक्याच सहजपणे प्रत्यक्ष आचरणातही कशा आणता येतील, हे अगदी उत्तमपणे, गप्पा मारता मारता महत्त्वाचे काही आवर्जून सांगावे, अशा पध्दतीने अगदी सहजसोप्या भाषेत सांगितले आहे, असे मी ठामपणे म्हणू शकते. पुस्तकाच्या दुसऱ्या भागात असलेले उत्तम समुपदेशनपर  लेखही पुस्तकातील मार्गदर्शनाला अतिशय पूरक असेच आहेत.   

मीही आता “ 72 years young “ आहे, आणि हे पुस्तक वाचल्यानंतर आता  ‘ मीच माझा दिवा आहे ’ हे मला पूर्णपणे आणि मनापासून पटले आहे. अर्थात याचे सर्व श्रेय मी लेखिकेला द्यायलाच हवे. हे पुस्तक वाचल्यानंतर, त्यात केलेले समुपदेशन मनापासून आचरणात आणण्याचा निश्चय मी तरी नक्कीच केला आहे. आता माझे वार्धक्य नक्कीच “ कृतार्थ “ होईल हा विश्वास या पुस्तकाने मला दिला आहे, आणि तोच विश्वास या पुस्तकातून सर्वांना मिळेल, याची मला खात्री आहे. 

या अतिशय वाचनीय, आणि त्याहूनही मननीय अशा पुस्तकाबद्दल लेखिका डॉ.वनिता पटवर्धन यांचे मनापासून अभिनंदन आणि आभार !!! 

प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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