हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#153 ☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  “तन्मय के दोहे…”)

☆  तन्मय साहित्य # 153 ☆

☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कुछ दोहे….

फूलों जैसा दिल कहाँ, पैसा हुआ दिमाग।

दिल दिमाग गाने लगे, मिल दरबारी राग।।

 

भीतर की बेचैनियाँ, भाव-हीन संवाद।

फीकी मुस्कानें लगें, चेहरे पर बेस्वाद।।

 

संबंधों  के  बीच में,  मजहब की  दीवार।

देवभूमि, इस देश में, यह कैसा व्यवहार।।

 

निश्छल सेवाभाव से,  मिले परम् संतोष।

मिटे ताप मन के सभी, संचित सारे दोष।।

 

शुभ संकल्पों की सुखद, गागर भर ले मीत।

जितना बाँटें  सहज हो,  बढ़े  सभी से प्रीत।।

 

कर्म अशुभ करते रहे, दुआ न आये काम।

मन की निर्मलता बिना, नहीं मिलेंगे राम।।

 

चार बरस की जिंदगी, पल-पल क्षरण विधान।

साँस-साँस नित मर रहे, मूल्य समय का जान।

 

जब-जब सोचा स्वार्थहित, तब-तब हुए उदास।

जब भूले हित स्वयं के,  हुआ सुखद अहसास।।

 

सत्य मार्ग पर जब चले, कठिनाइयाँ अनेक।

अंत मिले संतोष धन, दृढ़ता विनय, विवेक।।

 

यह जीवन फिर हो न हो, आगे सब अज्ञात।

भेदभाव की  बेड़ियाँ, छोड़ें  जात – कुजात।।

 

रंग-रूप छोटे-बड़े, अलग/अलग सब लोग।

भिन्न-भिन्न मत-धर्म हैं,  यही सुखद संयोग।।

 

सत्कर्मों के पेड़ पर, यश-सुकीर्ति फलफूल।

ध्यान  रहे  यह  सर्वदा, रहें  सींचते  मूल।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 43 ☆ पैगंबर मोहम्मद साहब के जन्मदिन पर विशेष – ग़ज़ल – मोहम्मद से प्यारा-… ग़ज़ल – मोहम्मद से प्यारा-… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ सलमा जमाल जी द्वारा 9 अक्तूबर को पैगंबर मोहम्मद साहब  के जन्मदिन पर रचित विशेष ग़ज़ल मोहम्मद से प्यारा-…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 41 ✒️

? पैगंबर मोहम्मद साहब के जन्मदिन पर विशेष – ग़ज़ल – 🕋 मोहम्मद से प्यारा-… 🕋 ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

मोहम्मद से प्यारा ,

कोई नहीं है ।

नबी जैसा दुलारा ,

कोई नहीं है ।।

 

आमना की बेटे ,

हलीमा के तारे ।

आज तुमसा सहारा ,

कोई नहीं है ।।

 

जो भी करूं उसमें ,

रब की रज़ा हो ।

क़ुरआन से प्यारा ,

कोई नहीं है ।।

 

बचा लो नबी बड़ी ,

ज़ालिम है दुनिया ।

मुझसे गुनहगार ,

कोई नहीं है ।।

 

नवासे तुम्हारे ,

हुसैनो – हसन से ।

फ़ातिमा सी बेटी ,

कोई नहीं है ।।

 

दमें वापसी ,

सामने हो मदीना ।

अब ख़ुश क़िस्मत मुझसा,

कोई नहीं है ।।

 

अदब से कहूं सलमा ,

उम्मत तुम्हारी ।

बरसाओ रहमत ,

अब कोई नहीं है ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 52 – कहानियां – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की  प्रथम कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 52 – कहानियां – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सबसे ज्यादा पढ़ने का आनंद स्वंय अनुभवित कहानियों में आता है जिन्हें आत्मकथा कीै श्रेणी में भी वर्गीकृत किया जा सकता है. इसके पीछे भी शायद यह मनोविज्ञान ही है कि हम लोग दादा /दादी की कहानियां सुनकर ही बड़े हुये हैं जो अक्सर रात में बिस्तर पर लेटे लेटे सुनी जाती थीं और सुनते सुनते ही कहानियों का स्थान नींद लेती थी. कहानियां तब ही खत्म होती थीं जब ये कहानियां सुनने की उमर को छोड़कर बच्चे बड़े हो जाते थे और अपनी खुद की कहानी लिख सकें, इसकी तैयारियों में लग जाते थे. ये दौर शिक्षण के मैदान बदलने का दौर होता है जब बढ़ने का सफर प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर विद्यालयों से गुजरते हुये महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में विराम पाता है और उसके बाद नौकरी, विवाह, परिवार, स्थानांतरण, पदोन्नति के पड़ावों पर ठहरने की कोशिश करता है पर रुकता सेवानिवृत्ति के बाद ही है. जब समय मिलता है , तो समय न मिलने के कारण बंद बस्तों में जंग खा रही रुचियां पुनर्जीवन पाती हैं, साथ ही व्यक्ति धर्म और आध्यात्म, योग और पदयात्रा की तरफ भी कदम बढ़ाता है. हालांकि इसके बाद फिर वही दादा दादी की कहानियों का दौर शुरू होता है पर भूमिका बदल जाती है, सुनने से आगे बढ़कर सुनाने वाली. पर आज के बदलते दौर में, आधुनिक संसाधनों और न्यूक्लिक परिवारों ने कहानियां सुनने वालों को, सुनाने वालों से दूर कर दिया है. ये कटु वास्तविकता है पर सच तो है ही, हो सकता है कि अपवाद स्वरूप कुछ लोग कहानियां सुनाने का आनंद ले पा रहे हों पर सामान्यतः स्थितियॉ बदल चुकी हैं. पर यहां इस ग्रुप में सबको अपने अनुभवों से रची कहानियां कहने का और दूसरों की कहानियां सुनने का मौका मिल रहा है तो बिना किसी दुराग्रह के निश्चित ही इस मंच पर अपनी कहानियां कहने का प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि कहानियां सुनने का शौक तो हर किसी को होता ही है.

“मिलन चक्रवर्ती ” जब अपने बचपन के कोलकाता डेज़ को याद करते हैं तो उनकी फुटबाल सदृश्य गोल गोल आंखों से आँसू और दिल से एक हूक निकलने लगती है.बचपन से ही दोस्तों के मामले में लखपति और दुश्मनों के मामले में भी लखपति रहे थे और ये दोस्तियां स्कूल और कॉलेज से नहीं बल्कि फुटबॉल ग्राउंड पर परवान चढ़ी थीं. मोहनबगान के कट्टर समर्थक, मिलन मोशाय हर मैच के स्थायी दर्शक, हूटर, चियरलीडर सबकुछ थे और उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैरामीटर था. अगर कोई मोहनबगान क्लब का फैन है तो वो दोस्त और अगर ईस्ट बंगाल क्लब वाला है तो दुश्मन जिसके क्लब के जीतने पर उसकी पिटाई निश्चित है पर उस बंदे को घेरकर कहां मोहन बगान क्लब की हार की भड़ास निकालनी है, इसकी प्लानिंग स्कूल /कॉलेज़ में ही की जाती थी. जब भी ये टारगेट अकेले या मात्र 1-2 लोगों के साथ सपड़ में आ जाता तो जो गोल मिलन बाबू का क्लब फुटबाल ग्राउंड में नहीं कर पाया, वो एक्सट्रा टाईम खेल यहां खेला जाता और फुटबाल का रोल यही बंदा निभाता था. यही खेल मिलन मोशाय के साथ भी खेला जाता था जब ईस्ट बंगाल क्लब हारती थी. पर दोस्ती और दुश्मनी का ये खेल फुटबाल मैच के दौरान या 2-4 दिनों तक ही चला करता था जब तक की अगला मैच न आ जाय. फुटबाल मैच उन दिनों टीवी या मोबाइल पर नहीं बल्कि ग्राउंड पर देखे जाते थे और अगर टिकट नहीं मिल पाई तो ट्रांजिस्टर पर सुने जाते थे. हर क्रूशियल मैच की हार या जीत के बाद नया ट्रांजिस्टर खरीदना जरूरी होता था क्योंकि पिछला वाला तो मैच जीतने की खुशी या मैच हारने के गुस्से में शहीद हो चुका होता था. (फुटबाल में मोशाय गम नहीं मनाते बल्कि गुस्सा मनाते हैं.)आज जब मिलन बाबू पश्चिम मध्य रेल्वे में अधिकारी हैं तो अपने ड्राइंग रूम के लार्ज स्क्रीन स्मार्ट टीवी पर सिर्फ फुटबाल मैच ही देखते हैं. नाम के अनुरूप मिलनसारिता कूट कूट कर भरी है और अपने हर दोस्त को और हर उस ईस्ट बंगाल क्लब के फैन को भी जो कोलकाता से दूर होने के कारण अब उनका दोस्त बन चुका है, उसके जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी पर जरूर फोन करते हैं. अगर उनकी मित्र मंडली के किसी सदस्य के या उसके परिवार के साथ कोई हादसा होता तो भी फोन पर बात करके उसके दुःख में सहभागी बनने का प्रयास करते रहते थे.जब कभी कोलकाता जाना होता तो कम से कम ऐसे मित्रों से जरूर घर जाकर मिलते थे. मिलन मोशाय न केवल मिलनसार थे बल्कि अपने कोलकाता के दोस्तों से दिल से जुड़े थे. ये उनकी असली दुनियां थी जिसमें उनका मन रमता था. बाकी तो बस यंत्रवत काम करना, परिवार के साथ शॉपिंग और सिटी बंगाली क्लब के आयोजन में परिवार सहित भाग लेना उनके प्रिय शौक थे. डॉक्टर मुखर्जी की सलाह पर उन्होंने टेबल टेनिस खेलना शुरु किया जिसमें एक्सरसाईज़ भी होती थी और मनोरंजन भी. यहां बने उनके कुछ मित्रों की सलाह पर प्रोग्रसिव जमाने के चालचलन को फालो करते हुये उन्होंने स्मार्ट फोन ले डाला और जियो की सिम के दम पर वाट्सएप ग्रुप के सदस्य बन गये.

जारी रहेगा…

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 153 ☆ पसारे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 153 ?

☆ पसारे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(वृत्त- भुजंगप्रयात)

कसे सांग हे सावरावे पसारे

किती काळ मी वागवावे पसारे

 

कशा स्वच्छ होतील सांदीफटीही

कळेना कसे घालवावे पसारे

 

इथे अंगवळणी पडावे कसे हे

जुने जाणते हाकलावे पसारे?

 

दिवाळीत जातात माळ्यावरी अन

पुन्हा वाटते साठवावे पसारे

 

असे वेंधळेपण सदासर्वदाही

कुणी का असे लांबवावे पसारे

 

मनाला मुभा मुक्त संचारण्याची

कुठेही कुणी पांघरावे पसारे

 

कुणा शल्य सांगू जिवीच्या जिवाचे

प्रभा वाटते आवरावे पसारे

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 54 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ मनोज साहित्य # 54 – मनोज के दोहे….  

1 नेकी

नेकी खड़ी उदास है, लालच का बाजार ।

मूरत मानवता बनी, दिखती है लाचार ।।

2 परिधान

बैठ गया यजमान जब, पहन नए परिधान।

देख रहा ईश्वर उसे, मन में है अभिमान।।

3 अनाथ

देखो किसी अनाथ को, उसका दे दो साथ।

अगर सहारा मिल गया, होगा नहीं अनाथ।।

4 सौजन्य

मित्र सभी सौजन्य से, मिलते हैं हर बार।

दुश्मन खड़ा निहारता, मन में पाले खार।।

5 सरपंच

गाँवों के सरपंच ने, दिया सभी को ज्ञान।

फसलों की रक्षा करें, प्राण यही भगवान।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

24-9-2022

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – जश्ने आज़ादी – भाग -6 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – जश्ने आज़ादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज पंद्रह अगस्त तो है, नहीं आप कहेेंगे तो स्वतंत्रता दिवस के मानने की बात क्यों हो रही हैं?

चार जुलाई को  अमेरिका  भी स्वतंत्र हुआ था, इसलिए विगत कुछ दिनों से यहां उल्लास और आनंद का माहौल बना हुआ है।

हमारे देश के झंडे को हम तिरंगा कह कर भी संबोधित करते हैं, उसी प्रकार से अमेरिका के झंडे में भी तीन रंग लाल, नीला और सफेद रंग होते हैं।हमारे देश के साथ इनकी एक और समानता है,इनके देश पर भी ब्रिटिश कॉलोनी का साम्राज्य था।हमारा देश इस वर्ष स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है,लेकिन इनकी आज़ादी तो करीब अढ़ाई सौ वर्ष पुरानी हैं। 

चार जुलाई को तो पूरे देश में अवकाश रहता है,इसके अलावा कुछ संस्थानों ने एक जुलाई को भी अवकाश घोषित किया हुआ था, दो और तीन जुलाई क्रमशः शनि और रविवार के अवकाश थे।कुल मिलाकर यहां की भाषा में ” long weekend” है। प्रतिवर्ष इस मौके पर तीन से चार दिन का अवकाश हो ही जाता हैं। क्रिसमस/ नव वर्ष  अवकाश के बाद स्वतंत्रता दिवस के समय ही ऐसे मौके आते हैं। हमारे देश में तो विभिन्न संप्रदायों/ संस्कृतियों के नाम से अनेक त्यौहार मनाए जाते है, जो विरले देश में ही होते होंगें।                       

बाजारवाद यहां भी मौके को भुनाने से नहीं चूकता,मन लुभावन छूट, दो खरीदने के साथ एक मुफ्त इत्यादि से बिक्री को बढ़ावा दिया जाता हैं।लंबे अवकाश का भरपूर मज़ा लेने के लिए यहां के लोग दूर दराज क्षेत्रों में भ्रमण या परिवार / मित्रों को मिलने के लिए उपयोग करते हैं।हवाई यात्रा,होटल इत्यादि में भी अग्रिम बुकिंग हो जाती है।मौसम भी खुशनुमा होता है,जिसका पूर्ण रूप से आनंद लेकर यहां के निवासी अपने आप को रिचार्ज कर लेते हैं।     यहां पर भी कुछ स्थानों पर पटाखे/ आतिशबाजी के सार्वजनिक आयोजन किए जाते हैं।निजी तौर से पठाखे चलाने पर प्रतिबंधित हैं, लेकिन अपनी पिस्टल/ बंदूक से आप जब चाहे लोगों को भून सकते हैं।किसी विशेष दिन/ आयोजन की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 140 – महाकाली का रंँग ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक स्त्री विमर्श पर आधारित भावपूर्ण लघुकथा “महाकाली का रंँग ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 140 ☆

 🔥लघु कथा – महाकाली का रंँग 🔥

कॉलेज कैंपस में गरबे का आयोजन था। नव दुर्गा का रुप बनाने के लिए कॉलेज गर्ल का चुनाव होना आरंभ हुआ। सभी की निगाह महाकाली के रोल के लिए वसुधा की ओर उठ चली।

वसुधा का रंग सामान्य लड़कियों के रंग से थोड़ा ज्यादा गहरा लगभग काले रंग का थी । रंग को लेकर सदा उसे ताने सुनने पड़ते थे। यहां तक कि घर परिवार के लोग भी कहने लगे थे… कि तुम तो इतनी काली हो तुमसे शादी कौन करेगा?

वसुधा का मन हुआ इस रोल के लिए वह मना कर दे, परंतु अपनी भावना को साथ लिए वह तैयार हो गई। परफॉर्मेंस स्टेज पर हो रहा था। दैत्य को मारने के सीन के साथ ही साथ वसुधा ने दैत्य के सिर को हाथ में लेकर अपना डायलॉग बोलना आरंभ किया…. आप सब जान ले काले गोरे रंग का भेद उसकी अपनी उपज नहीं होती। बच्चों का कोई कसूर नहीं होता। देखिए ब्लड का रंग एक ही होता है। कहते-कहते वह भाव विभोर हो नृत्य करने लगी।

उसके इस भयानक रुप को देख सभी आश्चर्य में थें कि कुछ न करने वाली लड़की अचानक इतना तेज डान्स करने लगी हैं।

तभी कालेज का खूबसूरत छात्र पुष्पों की माला लिए स्टेज पर आया। महाकाली के गले में पहना उसके चरणों पर लेट गया।

तालियों की गड़गड़ाहट से कैंपस गूंज उठा। सीने पर पांव रखते ही वसुधा की जिव्हा बाहर निकल आई…. अरे यह तो वही निखिल है!!! जिसे वह मन ही मन बहुत प्रेम करती है।

माँ काली का रुप प्रेम वशीभूत बिजली की तरह चमकने लगी वसुधा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #159 ☆ वळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 159 ?

☆ वळ… ☆

शब्दांच्या फटक्याने

भावनेच्या पाठीवर उमटलेले वळ

तू कोर्टात कसे सिद्ध करणार ?

त्यांनं तुला दिलेल्या वेदना

हे कोर्ट मान्य करू शकत नाही

डोळ्यावर पट्टी बांधलेल्या न्यायदेवतेला

लागतात कागदी पुरावे,

काळजावरच्या जखमा

कोर्ट कधीच ग्राह्य धरत नाही

आणि काळजावरील

शब्दांचे वार टिपणारा कॕमेरा

अजून तरी अस्तित्वात आलेला नाही

मग कसा सादर करणार पुरावा

आणि कशी होणार त्याला शिक्षा

केस मागं घे म्हणणाऱ्यांना शरण जाणं

किंवा

पुराव्याअभावी

होणारी हार स्विकारणं

या शिवाय दुसरा पर्याय नाही

जर त्याला तुला शिक्षाच द्यायची असेल

तर स्वतःला सक्षम करून

त्याच्याशी कुठेही दोन हात करण्याची ताकद

तुला निर्माण करावी लागेल…

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 109 – सुमित्र के दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके सुमित्र के दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 109 – सुमित्र के दोहे  ✍

*

ब्रह्म तुम ही हो नियंता, तुम ही हो मन-मारीच ।

धनुष-मुरलिका साँस की, तुम्हीं रहे हो खींच।।

*

शंकर, तुलसी, सूर में, करते शब्द निनाद ।

मीरा के नुपुरों में, करते हो संवाद ।।

*

ओ! लीलामय सुदर्शन, गोकुल मुक्ति धाम ।

मेरे मन में आ बसो, ओ! मीरा के श्याम।।

*

मीरा गिरधर प्रिया का, भक्त करें गुणगान।

 मीरा की समता नहीं, अद्वितीय प्रतिमान।।

*

मीरा का सुमिरन करूँ, ध्याऊँ श्याम सुजान ।

वर्णन क्षमता दीजिए, वाणी का वरदान।।

*

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 111 – “सुनकर साक्ष्य – दलीलें……” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –सुनकर साक्ष्य – दलीलें।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 111 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “सुनकर साक्ष्य – दलीलें” || ☆

निकल गई विधवा की,

अपनी माँ जैसी धरती

पड़ी हुई थी यों बरसों

से बेशक वह परती

 

जमी हुई थीं कई दबंगों

की उस पर आँखें

और कतरने को आतुर

थे दुखिया की पाँखे

 

जो अपनी उधेड़बुन में

जर्जर कर के काया

सूख रही थी, करती वह

तो आखिर क्या करती

 

पटवारी भी तुरत  कोर्ट

में हलफ उठायेगा

तब सच झूठी शहादतों

में बदला जायेगा

 

धीरे  गीता अलमारी

में रख   दीजायेगी

इतना दुख अपनी छाती में

कैसे क्या धरती

 

हाकिम थका थका सुनता है

बेमन जिरह जहाँ

जो सच्चाई और झूठ का

निर्णय करे वहाँ

 

सुनकर साक्ष्य – दलीलें

विधवा वंचित ही होगी

न्याय तराजू खडी हाशिये

पर घूरा करती

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

08-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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