हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 25 ?

?दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- दस्तक देती आँधियाँ

विधा- कविता

कवयित्री- डॉ. कांतिदेवी लोधी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? भीतर तक प्रवेश करती आँधियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी का यह  काव्यपुष्प उनके पूर्ववर्ती संग्रह ‘भावों के पदचिह्न’ का विस्तार है। पूर्ववर्ती संग्रह में उभरती प्रतिमाएँ यहाँ पूर्ण आकृति ग्रहण कर सृजन को प्रसूत करती हैं। विभिन्न भावों से विभूषित संवेदनाओं के इस नीड़ का नामकरण कवयित्री ने ‘दस्तक देती आँधियाँ’ किया है।

इस संग्रह में डॉ. लोधी ने अनुभूति और भाव साम्य की दृष्टि से कविताओं को क्रम दिया है। यह क्रम रचनाकार के विभिन्न भावों को कुशलता से चित्रित करने के सामर्थ्य को उभारता है तो कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति और लेखन शैली की सीमाओं को भी चित्रित करता है। समान भावों को एक साथ पिरोते समय यह होना स्वाभाविक है। इस स्वाभाविकता से समझौता किये बिना उसे रेखांकित होने देना कवयित्री की सहजता एवं साहस का परिचायक है।

रचनाएँ, रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ परिचय होती हैं। उन्हें पढ़ते समय आप रचनाकार को भी पढ़ सकते हैं। डॉ. लोधी की रचनाओं से एक ऐसी आकृति उभरती है जो उन्हें प्रयोगधर्मी सर्जक के रूप में स्थापित करती है। कवयित्री कहीं-कहीं सीधे लोकभाषा में संवाद करती हैं तो कहीं अंग्रेजी का एक ही शब्द प्रयोग कर काव्य को वर्तमान धारा और पाठक से सीधे जोड़ देती हैं। वे कहीं साहित्य के शुद्ध भाषा सौंदर्य के साथ बतियाती हैं तो कहीं परिधियों को लांघकर हिन्दी-उर्दू की मिली जुली ज़बान में अपनी बात प्रकट करती हैं। इतने विविध रूपों में एक बात समानता से दिखती है कि कवयित्री हर वर्ग के साथ संवाद स्थापित करने में सफल होती हैं। यही रचना का सामर्थ्य है, यही रचनाकार की विशेषता है। फलत: उनकी आकृति मानसपटल पर अधिक गहरी हो जाती है।

कवयित्री डॉ. लोधी के इस संग्रह में उनकी तीन दशकों की अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं । इन अभिव्यक्तियों के पड़ाव, उनकी भाषा, प्रवाह और भाव कुछ स्थानों पर देखते ही बनते हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता की अनुगूँज है। अधिकाश स्थानों पर यह अनुगूँज प्रकृति की विभिन्न छटाओं के साथ प्रतिध्वनित हुई है। इसका चित्रण करते समय वह नाटककार या कथाकार की-सी कुशलता से एक चित्र का वर्णन करते हुए दूसरे को अवचेतन में इतना प्रभावी कर देती हैं कि वह चेतन पर भी हावी हो जाए, फिर हौले से चेतन और अवचेतन का एकाकार कर देती हैं। एकाकार का उदाहरण देखिए-

प्रकृति का अनुपम शृंगार,

हमें मिला अद्भुत उपहार,

कण-कण रोमांचित करती हुई,

बरबस उस कलाकार की याद दिला रही है।

ईश्वर में आस्था और आध्यात्मिकता के स्वर उनकी कई रचनाओं में सुनने को मिलते हैं।

डॉ. लोधी की रचनाओं में प्रकृति के सौंदर्य और शृंगार का चित्रण गहराई से हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण बेहद सुंदर दृश्य उपस्थित करता है। उनकी उपमाएँ शब्दों को जीवित कर देती हैं। बादलों का वर्णन करते हुए वे लिखती है –

मानो कोई नटखट बालक,

मौसी का हाथ छुड़ा, माँ की ओर भाग रहा हो।

इसी भाव की कविताओं में चाय के बागानों को हरे मखमली दुशाले ओढ़े धरती की बेटियाँ कहना या बांस के वृक्षों से आच्छादित द्वीपों को, ‘रात में अनेक दैत्य घुटनों तक पानी में खड़े होकर षड्यंत्र रच रहे हों’ की दृष्टि से देखना उनके काव्य लेखन का सशक्ततम बिंदु है। ये उपमाएँ एक निष्पाप, मासूम-सी अभिव्यक्ति लगती हैं जिनके साथ पाठक लौह-चुंबक सा जुड़ जाता है। प्रकृति के साथ लिखने की यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं बादलों से जोडती है, कहीं सागर से, कभी सूर्य से तो कभी नदियों और झरनों से भी ।

कवयित्री की रचनाओं में प्रकृति के विनाश विशेषकर वृक्षों की कटाई को लेकर मार्मिक टिप्पणियाँ हैं। विकास के नाम पर होने वाले इस विनाश का प्रबल विरोधी होने के कारण संभवतः मुझे इन रचनाओं ने अधिक प्रभावित किया है। पर यह भी सत्य है कि वृक्षों के विनाश का दृश्य अपने एक परिजन को खोने की अनुभूति उपस्थित कर देता है-

जिसकी पूजा करती थी सुहागिनें,

अक्षत सौभाग्यदायी वटवृक्ष,

आज क्षत-विक्षत असहाय पड़ा था,

वहाँ आज बहुत बड़ा गड्ढा हो गया है।

शहर में मई महीने में गर्मी के पूछकर आने का अतीत और अब मार्च से ही पाँव पसार कर सो जाने का वर्तमान हृदय में शूल चुभो देता है। सड़क चौड़ी करने के अभियान में घर के बगीचे को काटने के निर्णय से घर को मिली ‘मौत और काले पानी की एक साथ सज़ा,’ ‘वसंत का भ्रम मात्र होना ‘जैसी पंक्तियाँ, उनकी संवेदनाओं को पाठकों के मानसपटल पर सीधे उतार देती हैं।

संवेदना, प्रेम की माता है। रचनाकार का संवेदनशील होना आवश्यक होता है……और संवेदनशील रचनाकार प्रेम पर, फिर वो चाहे जीवन के जिस पड़ाव और जिस स्वरूप का हो,  न लिखे, यह हो नहीं सकता । प्रेम को कवयित्री यूँ स्वर देती हैं-

अलक्षित अहिल्या थी मैं, पथ के किनारे और तुम राम हो, मेरे लिए ।

प्रेम के बल पर विभिन्न पड़ावों और कठिनाइयों के बीच सहचर के साथ की सहयात्रा को कांति जी बड़ी मंत्रमुग्ध शैली में ‘हम साथ चलते रहे’ कविता में उकेरती हैं। वानप्रस्थ की बेला में घोसले की परिधियों को पार कर गगन में उड़ानें भरते अपने ही पंछियों को देखकर वे पुलकित हैं तो एकाकी होना उन्हें म्लान भी करता है। पर यहाँ भी उम्र की गठरी बांधे अपने सहचर की अंगुली थामे अंत में वह पूछती हैं, ‘कहाँ है हमारा घर ?’ ‘मैं’ से ‘हम’ होने की प्रक्रिया उनकी प्रेमाभिव्यक्ति को विशाल आयाम प्रदान करती है।

कवयित्री वर्तमान की त्रासदियों और भविष्य की चिंताओं से भी साक्षात्कार करती हैं। ‘मानवीय क्लोन होने की प्रवृत्ति’ में वह भविष्य की भयावहता को अधोरेखित करती हैं। समाज में निरंतर घटते जीवनमूल्यों पर ‘कर्तव्य आज का’ कविता में सीधे प्रश्न करती हैं। ‘दृश्य आज का’ राजनीति के मुखौटों के पीछे दबी कालिख व कटु सच्चाइयों का दर्पण है। ‘हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं ‘में आतंकवाद और हिंसा से दुखी आम आदमी स्वर पाता है। ‘मीलों तक कोहरा है’ में अपने समय की सक्रिय खूँख़्वार प्रवृत्तियों और निष्क्रिय प्रतिक्रियाओं पर गहरे शब्द सामर्थ्य का वह परिचय देती हैं।

कवयित्री की रचनाओं में ‘माटी आंगन’ में जहाँ लोकभाषा उभरी है, वहीं कई रचनाएँ उर्दू के शब्द प्रयोग से युक्त हैं। काव्य की विभिन्न धाराओं और मनोभावों के बीच रचनाकार का जो पक्ष मजबूती से उभरता है, वह है उनके भीतर के प्रबल आशावाद का । मनुष्य के भीतर के बौने आदमी से सकारात्मक स्वर सुनने की आशा लिये वे खंडित होते-होते अखंडित रहने का मंत्र फूँकती हैं। आशा के प्रति ये आस्था जीवन और काल की सीमाओं को भी लांघती है। यथा-

प्रतीक्षा है आहट की, जब चाहे चल दूँगी, आस्था-विश्वास भरी, अक्षय डोरी थामे।

डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी की रचनाओं का यह संग्रह ‘दस्तक देती आँधियाँ’ स्तरीय है। उन्होने अभिव्यक्ति के सागर में शब्दों को अनमोल मोती लिखा है। शब्द और बह्म को वह समान ऊँचाई पर रखती हैं। शब्दों के माध्यम से वह रचना का पाठक से एकाकार करा देती हैं। अपनी शब्दयात्रा के बीच एक नन्ही आकांक्षा को भी शब्द देती हैं, कहती हैं –

ज़िंदगी की क़िताब में मेरा नाम दर्ज हो,

फूलों की जगह ।

शब्दों की स्वामिनी, भावनाओं की कुशल चितेरी डॉ. कांतिदेवी लोधी की रचनाएँ  साहित्य की फुलवारी में गुलाब के पुष्प-सी प्रतिष्ठित हों, यह आशा करता हूँ। भविष्य की शब्द यात्रा के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ।) 

☆  दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

ज्यों ज्यों समय आगे बढ़ता है, कुछ तस्वीरें दस्तावेज़ में तब्दील हो जाती हैं। उन तस्वीरों में उपस्थित कुछ इंसान हमें छोड़कर न जाने कहां चले जाते हैं और कुछ यहीं बैठे उनको याद करते हैं।

इस संस्मरण के साथ, यह कोलॉज जो आप देख रहे हैं, तीन तस्वीरों से बना है। तीनों के पीछे अपनी एक कहानी है।

पहली तस्वीर (ऊपर) रीवा विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में ली गई है। संभवतः वर्ष 1995 के दौरान। डॉ कमला प्रसाद वहां हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने हिंदी कहानी की दशा और दिशा पर एक भव्य संगोष्ठी आयोजित की थी। इसमें दिल्ली से ख्यातिप्राप्त आलोचक डॉ नामवर सिंह और काशी से प्रतिष्ठित कहानीकार काशीनाथ सिंह विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। मेरा सौभाग्य कि मैं उस कार्यक्रम में सपरिवार उपस्थित था। नामवर जी को विश्वविद्यालय प्रांगण में 8-9 वर्ष के छोटे बालक (हमारे पुत्र अनुराग) को देखकर कौतूहल हुआ। जब हम उनसे मिले तो उन्होंने पूछा, “बालक, तुम भी कुछ लिखते-पढ़ते हो?” हमारे बेटे ने उन्हें तुरंत निराला की कविता, “अबे, सुन बे गुलाब..” सुनाकर अचंभित कर दिया। यह तस्वीर उस अवसर की है।

दूसरी तस्वीर (नीचे, बाएं) देहरादून में रवींद्रनाथ त्यागी के घर में उनके पुस्तकालय में ली गई है। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में कभी। हम गर्मियों की छुट्टी में उनसे मिलने लगभग हर दूसरे साल जाते थे। उनका विशेष स्नेह मुझे और मेरे परिवार को प्राप्त था। यदि मैं उनके पास साहित्यिक मार्गदर्शन के लिए कभी अकेला जाता, तो वे मुझे अगली शाम सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित करते। कहते, “जल्दी आ जाना, पहले कुछ देर बातें होंगी और फिर पेटपूजा।”

तीसरी तस्वीर जबलपुर की है। वर्ष 1992। साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का आयोजन था। उस कार्यक्रम में, कहानीकार और संपादक ज्ञानरंजन के कर-कमालों से मेरे प्रथम व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के विमोचन का यह दृश्य है। संयोगवश, ज्ञानरंजन जी ने ही कटनी में ‘पहल’ के एक आयोजन में, मेरी दूसरी पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ का विमोचन किया। फिर, प्रगति मैदान में, दिल्ली पुस्तक मेले में मेरी पुस्तक ‘हिन्दी की आख़िरी क़िताब’ का विमोचन जब डॉ शेरजंग गर्ग ने किया, तो वहां भी ज्ञानरंजन जी उपस्थित थे। इसका प्रसारण दूरदर्शन पर भी हुआ।

यह मेरा परम सौभाग्य है कि इन महान साहित्य-सेवियों का आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ और उनके साथ खींची गई ये तस्वीरें एक यादगार बन गई हैं।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #36 – गीत – बावरा मन चाहता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतबावरा मन चाहता

? रचना संसार # 36 – गीत – बावरा मन चाहता…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।

अब किनारा भी दिखादो, डूबते मझधार में।।

 *

प्रेम की सौगात ढूँढे ,हम बिछे इन शूल में।

साथ बस उल्लास हो अब भावना के मूल में।।

छल कपट का बोलबाला झूठ की सत्ता सजे।

मौन बैठा ये गगन पाखंड की वंशी बजे।।

द्वेष कटुता ही बसी हिय,क्या रखा सत्कार में।

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।।

 *

धर्म  को सब भूलते गठरी भरी है पाप की।

लोभ की सत्ता रहे ये नित्य ही संताप की।।

अब कहाँ रिश्ते रहे हैं डोर टूटी आस की ।

भूलते निज कर्म को सब छोड़ गति विश्वास की।।

सब मनुज ने अब गँवाया जान लो इंकार में।

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।।

 *

दुष्टता बढ़ती धरा में फैलता  व्यभिचार है।

त्याग का अब नाम क्या जीवन बना अब भार है।।

शांति अरु सदभाव रूठे देख कैसी ये घड़ी।

रक्तरंजित है डगर आहत हुई आत्मा बड़ी।।

तार दो रघुनाथ हमको हम खड़े हैं द्वार में।

बावरा मन चाहता प्रभु प्रेम ही संसार में।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #263 ☆ भावना के दोहे – पर्यावरण ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – पर्यावरण)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 263 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – पर्यावरण ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

झरने झील पहाड़ की, करो न कोई बात।

याद मुझे आने लगी, वहीं सुहानी रात।।

*

मन प्रसन्न अब हो गया, देख तेरा ये रुप।

तुझमें अन्तर बहुत है, लगी समय की धूप।।

*

चिंता अब बढ़ने लगी, नहीं बचेंगे प्राण।

पर्यावरण  को नष्ट कर, करते भवन निर्माण।।

*

भानु देवता कर रहे, चारों ओर प्रकाश।

सूर्य उगता दिखा रहा, है सुंदर आकाश।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #245 ☆ संतोष के दोहे – अहम… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – अहम आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 245 ☆

☆ संतोष के दोहे – अहम… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कभी न हम पालें अहम, इसकी गहरी मार

मान गिराता यह सदा, होता है अपकार

*

अहम करे किस बात का, हे मूरख इंसान

जाना सबको एक दिन, बचता नहीं निशान

*

बचें सदा हम क्रोध से, इसमें लिपटा दंभ

अहंकार की आग में, गिरें टूट के खम्भ

*

सदा कभी रहता नहीं, धन-वैभव अभिमान

माटी में मिलता सदा, माटी का इंसान

*

साथ न देते बंधु प्रिय, महल अटारी कोष

वहम बढ़ाता अहम को, और बढ़ाये रोष

*

धन दौलत सम्मान से, मिले अहम को खाद

कमतर समझे गैर को, करे झूठ आबाद

*

अहंकार से सब मिटे, वैभव, इज्जत, वंश

देखें तीन उदाहरण, रावण, कौरव, कंस

*

साईं इतना दीजिए, आ ना सके गुरूर

चलें धर्म की राह हम, प्रेम रहे भरपूर

*

मनसा, वाचा कर्मणा, सबके बनें चरित्र

स्वयं रहे “संतोष” भी, रहें विचार पवित्र

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 239 ☆ संस्कार सावली… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 239 – विजय साहित्य ?

संस्कार सावली ☆

(काव्यप्रकार अष्टाक्षरी.)

अनाथांची माय

करुणा सागर

आहे भोवताली

स्मृतींचा वावर…! १

*

ममतेची माय

आदर्शाची वाट

सुख दुःख तिच्या

जीवनाचा घाट..! २

*

परखड बोली

मायेची पाखर

आधाराचा हात

देतसे भाकर…! ३

*

जगूनीया दावी

एक एक क्षण

संकटाला मात

झिजविले तन…! ४

*

पोरकी जाहली

माय ही लेखणी

आठवात जागी

मूर्त तू देखणी…! ५

*

दु:ख पचवीत

झालीस तू माय

संस्कार सावली

शब्द दुजा नाय..! ६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्रतोपासना – ७. कोणत्याही ऋतूची निंदा करु नये ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

व्रतोपासना – ७. कोणत्याही ऋतूची निंदा करु नये ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

जसे आपण काही व्रत कथा वाचल्या की, त्यात प्रथम लिहिलेले असते ‘उतू नको, मातू नको, घेतला वसा टाकू नको. ‘ त्याच प्रमाणे कोणती व्रते करावीत हे आपण बघत आहोत. ही व्रते जुनीच आहेत फक्त काळानुसार आपण त्यात थोडा बदल करुन अंमलात आणावे.

वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर अशा सहा ऋतूंनी आपले संवत्सर पूर्ण होते. आणि हे ऋतूचक्र अव्याहत चालू असते. त्या मुळेच संपूर्ण जीवसृष्टीला, माणसाला जगण्यासाठी आवश्यक गोष्टी मिळतात. कधी कधी काही ऋतूंचा त्रास होऊ शकतो. पण तो काही जणांनाच होतो. काहींना ऋतू बदलाचा पण त्रास होतो. या बदलाच्या काळात काहींना आरोग्याशी संबंधित समस्या येऊ शकतात. पण त्यात ऋतूंचा दोष नसतो. आपली प्रत्येकाची प्रकृती भिन्न असते. त्या नुसार आपल्याला त्रास होतात. पण आपण आहार, विहार, विश्रांती, यात ऋतू प्रमाणे बदल करुन कधी आवश्यक ती औषध योजना करुन हे त्रास, आजार नियंत्रित करु शकतो. परंतू या कोणत्याही ऋतूंची निंदा करणे योग्य नाही.

आपण निसर्गा कडे बघितले की निसर्ग प्रत्येक ऋतुशी कसे जमवून घेतो, पशुपक्षी कसे जमवून घेऊन राहतात हे समजते. आणि कोणत्याही परिस्थितीत आनंदी कसे रहायचे हे शिकवतात. एक माणूसच असा आहे की आनंद शोधण्या पेक्षा दु:ख शोधत रहातो. आपल्याला जर कोणी आठवणी विचारल्या किंवा लिहायला सांगितल्या तर आनंदी प्रसंग फार कमी समोर येतात. आणि अवघड, दुःखाचे प्रसंग जास्त आठवतात. ही सवय जर आपण बदलू शकलो तर आपण कायम आनंदात राहू शकतो. हेच ऋतूंच्या विषयी करायचे. प्रत्येक ऋतुतील आनंद शोधायचा. आयुर्वेदिक औषधे देणाऱ्यांना या ऋतूंचे खूप महत्व असते. आपली संस्कृती, आपले सण समारंभ बघितले तर त्यात निसर्गाचेच पूजन दिसते. आपल्या पूर्वजांनी सगळे सण व त्यातील आहार, पूजा, व्रते त्या त्या ऋतू नुसार ठरवलेली होती. ऋतू बदलतात म्हणून तर आपल्याला विविध फळे, फुले यांचा आस्वाद घेता येतो. आणि अनेक प्रकारची धान्ये, भाज्या मिळतात. हा सर्व विचार करून विविधता देणाऱ्या ऋतूंचा सन्मान करु या. आणि या ऋतूंची निंदा बंद करु या.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक, संगितोपचारक.

९/११/२०२४

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १८ — मोक्षसंन्यासयोगः — (श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १८ — मोक्षसंन्यासयोगः — (श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्‌ । 

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌ ॥ २१ ॥ 

*

सकल जीवांत भिन्न भाव भिन्नतेने जाणणे

राजस या ज्ञानासी मनुष्यातून पार्था जाणणे ॥२१॥

*

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌ । 

अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ २२ ॥ 

*

एकाच कार्यदेही सर्वस्वी आसक्त जे ज्ञान

तामस ते अहेतुक तत्वशून्य अल्प ज्ञान ॥२२॥

*

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्‌ । 

अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ 

*

नियत कर्म अभिमान रहित

रागद्वेषासम भावना विरहित

निरपेक्ष भाव निष्काम कर्म

हेचि जाणावे सात्विक कर्म ॥२३॥

*

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः । 

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌ ॥ २४ ॥ 

*

जरी बहुप्रयासाचे कर्म भोगासक्तीने युक्त 

राजस जाणावे कर्म असते अहंकारयुक्त ॥२४॥

*

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌ । 

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥ 

*

परिणती हानी हिंसा सामर्थ्य नाही विचारात

अज्ञाने कर्मा आचरिले तामस तयासी म्हणतात ॥२५॥

*

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः । 

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥ २६ ॥ 

*

संगमुक्त अहंकाररहित धैर्योत्साहाने युक्त

कार्यसिद्धी वा अपयश मोदशोक विकार मुक्त

कर्तव्य अपुले जाणून मग्न आपुल्या कर्मात

सात्त्विक कर्ता तयासी म्हणती अपुल्या धर्मात ॥२६॥

*

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः । 

हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ २७ ॥ 

*

लोभी मोही कर्मफलाशा मनात जोपासतो

अशौच आचरण दुजांप्रति पीडादायक असतो

हर्षाने शोकाने कर्माच्या परिणतीने लिप्त राहतो

असला कर्ता राजस कर्ता ओळखला जातो ॥२७॥

*

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः । 

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥ २८ ॥ 

*

शठ गर्विष्ठ अयुक्त असंस्कृत परजीवित नाशतो

दीर्घसूत्री आळशी विषादी तो तामस कर्ता असतो ॥२८॥

*

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु । 

प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥ २९ ॥ 

*

साकल्याने तुला कथीतो समग्र विवेचन

गुणागुणांचे पृथक् तत्वे धनंजया तुज ज्ञान

बुद्धीधृतीचे त्रिविध भेदांचे तुज करितो कथन

ऐकोनीया चित्त लावुनी अंतर्यामी तू जाण ॥२९॥

*

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये । 

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥ ३० ॥ 

*

प्रवृत्ती-निवृत्ती कर्तव्याकर्तव्य मोक्ष तथा बंधन

भय-अभय यथार्थ जाणी सात्त्विक ती बुद्धी अर्जुन ॥३०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 36 – “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी”)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 36 – “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

बुढ़ापा क्या है? एक ऐसा संतत्व जो बिना पूजा, बिना माला, और बिना शांति के थमा दिया जाता है। और इसके साथ मिलता है एक गिफ्ट पैक—उम्मीदों का, तानों का और एक अजीब सा सम्मान जो तंग करता है। ऐसे ही हमारे नायक, 82 साल के जगन्नाथ शर्मा, कानपुर वाले, इस अनचाहे संतत्व के शिकार बन गए।

जगन्नाथ जी का जीवन एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बीतता था—उनका राजसिंहासन। उनका साम्राज्य? एक दो कमरे का फ्लैट, जहां तीन पीढ़ियां एक साथ रहती थीं, लेकिन किसी को उनसे मतलब नहीं था। “दादा जी तो घर का फर्नीचर हैं,” ये सबने मान लिया था।

“बुजुर्गों को सबसे अच्छा तोहफा क्या दे सकते हो? अपनी गैर-मौजूदगी,” उनका पोता, केशव, अक्सर कहा करता था। वो यह कहता हुआ अपने फोन पर ऐसे व्यस्त रहता जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय से सीधा आदेश आ रहा हो। “बुजुर्ग तो पूजनीय होते हैं, लेकिन नेटफ्लिक्स भी तो ज़रूरी है,” केशव ने अपना तर्क पूरा किया।

जगन्नाथ जी की कहानी अनोखी नहीं थी। ये एक ऐसा राष्ट्रीय खजाना है जिसे हम सब छुपा कर रखते हैं। जहाँ वेद कहते हैं कि बुजुर्ग भगवान के समान होते हैं, वहीँ आधुनिक परिवार उनकी पूजा योग की तरह करते हैं—कभी-कभार और इंस्टाग्राम पर दिखाने के लिए। उनके बेटे प्रकाश शर्मा, जो ‘पारिवारिक मूल्यों’ पर बड़े-बड़े भाषण देते थे, ने अपने पिता को बचा हुआ खाना और बेपरवाही के साथ जीवन जीने की परंपरा दी थी। “पापा, आदर दिल से होता है, कामों से नहीं। और मेरा दिल साफ है,” प्रकाश ने कहा।

भारतीय संस्कृति संयुक्त परिवारों पर गर्व करती है। ये गर्व अक्सर शादी में भाषणों के रूप में दिखता है, जबकि दादा-दादी को बच्चों के साथ छोड़ दिया जाता है जो उन्हें चलती-फिरती मूर्ति समझते हैं। “दादा जी ताजमहल की तरह हैं,” केशव की छोटी बहन रिया ने कहा। “खूबसूरत, लेकिन दूर से देखने में ही अच्छे लगते हैं।”

एक दिन परिवार ने “वृद्ध दिवस” मनाने की योजना बनाई। योजना क्या थी? जगन्नाथ जी की सलाह को अनसुना करना, उन्हें मसालेदार खाना खिलाना जो उनके पेट के लिए ज़हर था, और सोशल मीडिया पर दिल छू लेने वाले कैप्शन डालना। “हैशटैग ग्रैटीट्यूड,” रिया ने लिखा, जगन्नाथ जी की एक फोटो के साथ जिसमें वो एक प्लेट छोले को देखते हुए उलझन में थे।

प्रकाश ने “त्याग” पर भाषण दिया, लेकिन उस त्याग का ज़िक्र नहीं किया जब उन्होंने जगन्नाथ जी की पुश्तैनी ज़मीन बेच दी थी। “परिवार ही सब कुछ है,” प्रकाश ने जोड़ा, वकील का मैसेज इग्नोर करते हुए जो उनके पिता की पेंशन के केस के बारे में था।

पड़ोसी भी आए। “बुजुर्ग अनमोल होते हैं,” गुप्ता जी ने कहा, जो खुद अपने पिता को वृद्धाश्रम भेजने की गूगल सर्च कर रहे थे। “उनकी बुद्धि तो अनमोल है,” गुप्ता आंटी ने जोड़ा, जो जगन्नाथ जी को पार्क की बेंच से हटाने की शिकायत कर चुकी थीं।

दिन के अंत में, उन्होंने एक तोहफा दिया—ब्लूटूथ हियरिंग ऐड। “तकनीक सब कुछ आसान कर देती है,” केशव ने कहा, जब उनके दादा उसे चालू करने की कोशिश में लगे हुए थे।

सब्र का बांध तब टूटा जब उन्होंने एक केक लाया—जो लाठी के आकार का था। “दादा जी, काटिए!” रिया ने खुशी-खुशी कहा। “क्या शानदार लमहा है,” गुप्ता आंटी ने कहा, केक के साथ सेल्फी लेते हुए, जिसमें उन्होंने जगन्नाथ जी को क्रॉप कर दिया।

जगन्नाथ जी उठ खड़े हुए, ये अपने आप में एक चमत्कार था। “बस बहुत हुआ!” वे चिड़चिड़े हो उठे। “आप लोग मेरा सम्मान वैसे ही करते हैं जैसे ट्रैफिक सिग्नल का—सिर्फ तब, जब पुलिस वाला देख रहा हो!”

परिवार स्तब्ध था। दादा जी ने शायद पहली बार अपने मन की बात कही थी। “आप लोग कहते हैं मैं समझदार हूं, लेकिन रिमोट तक देने में विश्वास नहीं रखते।”

जगन्नाथ जी की ये बातें पड़ोस के व्हाट्सएप ग्रुप पर वायरल हो गईं। उनका नाम पड़ गया—”विप्लवी दादा”। “सच्चे इंसान हैं,” गुप्ता जी ने लिखा, और फिर ग्रुप म्यूट कर दिया। प्रकाश ने अपनी लिंक्डइन प्रोफाइल पर जोड़ लिया, “महापुरुष का बेटा।”

जगन्नाथ जी को आखिरकार शांति अकेलेपन में मिली। “बुढ़ापा एक तोहफा है,” उन्होंने कहा। “लेकिन इस परिवार में, ये बस री-गिफ्टिंग जैसा है।”

और इस तरह, जगन्नाथ शर्मा की कहानी हमें याद दिलाती है कि आदर, चाय की तरह है—गर्म और बिना बनावट के होना चाहिए। लेकिन भारत में बुढ़ापा? वो हमेशा एक आशीर्वाद और एक मजाक के बीच झूलता रहेगा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 327 ☆ व्यंग्य – “मेड, इन इंडिया…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 327 ☆

?  व्यंग्य – मेड, इन इंडिया…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 मेड के बिना  घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो जाती हैं.

मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.

विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना पीरियड ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में  हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.

मेरे एक मित्र तो बहू बेटे को अमेरिका से अपने पास बुलाना ज्यादा पसंद करते हैं, स्वयं वहां जाने की अपेक्षा, क्योंकि यहां जैसे मेड वाले आराम वहां कहां ? बर्तन, कपड़े धोने सुखाने की मशीन हैं जरूर पर मशीन में कपड़े बर्तन डालने निकालने तो पड़ते ही हैं। पराठे रोटी बने बनाए भले मिल जाएं पैकेट बंद पर सारा खाना खुद बनाना होता है। यहां के ठाठ अलग हैं कि चाय भी पलंग पर नसीब हो जाती है मेड के भरोसे । इसीलिए मेड के नखरे उठाने में मैडम जी समझौते कर लेती हैं।

सेल्फ सर्विस वाले अमरीका में होटलों में हमारे यहां की तरह कुनकुने पानी के फिंगर बाउल में  नींबू डालकर हाथ धोना नसीब नहीं, वहां तो कैचप, साल्ट और स्पून तक खुद उठा कर लेना पड़ता है और वेस्ट बिन में खुद ही प्लेट डिस्पोज करनी पड़ती है । मेड की लक्जरी भारत की गरीबी और आबादी के चलते ही नसीब है । मेड इन इंडिया, कपड़े धोने सुखाने प्रेस करने, खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने, घर की साफ सफाई, झाड़ू पोंछा फटका का उद्योग है, जिसके चलते रहने से ही साहब साहब हैं और मैडम मैडम । इसलिए मेड, इन इंडिया खूब फले फूले, मोस्ट अनार्गजाइज्ड किंतु वेल मैनेज्ड सेक्टर है मेड, इन इंडिया।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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