(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है कविता – यही तो वह संस्कारधानी है…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-६ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆
.. चैत्र पालवी…
मराठी चैत्र महिना उत्साहाचं वारं घेऊनच येतो. माहेरवाशिण चैत्रगौर घरोघरी विराजमान होते. आपल्यातल्या सुप्त गुणांना, कलेला वाव देण्यासाठी गृहिणींची लगबग सुरू होते. आमची आई आणि विमल काकू चैत्रगौर अप्रतिम सजवायच्या. पंचामृत, शुद्धोदक चंदन, अत्तर लावून चैत्रगौर लखलखीत घासलेल्या नक्षीदार झोपाळ्यात मखमली आसनावर विराजमान व्हायची. गृहिणीच्या उत्साहाला उधाण यायचं. हळदी कुंकवाच्या दिवशी. घरातल्याच वस्तू वापरून कमी खर्चात सुंदर आरास सजायची. सोनेरी जरीकाठाचे, मोतीया रंगाचे उपरणे अंथरून पायऱ्या केल्या जायच्या. अफलातून आयडिया म्हणजे सुबक कापून टरबुजाचं कमळ, कैरीचा घड, द्राक्षाचं स्वस्तिक आणि हिरव्यागार पोपटी कैरीला टोकाकडून कुंकू पाण्यात कालवून लाल जर्द चोचीचा डौलदार पोपट सुंदर ग्लासात ऐटीत बसायचा. छताला हाताने बनवलेलं तोरण चमकायचं. फळांच्या खाली बारीक दोऱ्याने विणलेली कमळं ऐसपैस पसरली जायची. असा होता चैत्रगौरीचा थाट. मग का नाही गौर प्रसन्न होणार?
आईच्या मैत्रिणीकडे शांतामावशीकडे अन्नपूर्णेसह लक्ष्मी पाणी भरत होती. चांदीच्या ताटात वाट्या, तांब्याभांडं, व पेल्याचा सेटच होता तिच्याकडे. त्याकाळी स्टील घेणे सुद्धा महागात पडायचं. सजलेल्या चैत्रगौरीपुढे चांदीच्या ताटलीत छोट्या नक्षीदार वाट्यांमधून आंब्याची डाळ, पन्हं आणि झक्कास हरभऱ्याची उसळ, काकडीची चकती सुबकपणे मांडून चविष्ट नैवेद्य देवीपुढे मांडला जायचा. चांदीच्या रेखीव पेल्यात केशर, विलायची युक्त केशरी पन्हं पाहून आमच्या मुलांच्या तोंडाला पाणी सुटायचं आणि मग काय ! पोटभर छानशी उसळ, चटकदार कैरीची डाळ, आणि बर्फाचे खडे घातलेले जम्बो ग्लासातले ते केशरी अमृत पिऊन पोटभर फराळ करून हळदी कुंकवाची, फराळाची सांगता व्हायची.
सवाष्णीसाठी तर हा समारंभ म्हणजे मानाचे पान. हळदी कुंकू, गजरा, अत्तर, आंब्याच्या डाळी, आणि काकडीबरोबर घशाला थंडावा देणारं अप्रतिम चवीचं थंडगार पन्हं पिऊन त्या तृप्त तृप्त व्हायच्या.
नवरात्रात रोज उठता बसता म्हणजे पहिल्या आणि दसऱ्याच्या दिवशी सवाष्ण व कुमारीका जेवायला असायची. पुण्यात शिकायला आलेले गरीब विद्यार्थी अध्ययन शिक्षण घ्यायचे पण पोटोबाचे काय? हा त्यांचा प्रश्न सुगरण गृहिणी सहजतेने माधुकरी देऊन सोडवायच्या. आता मुलांना तोंडातून शब्द बाहेर पडल्यावर सहज अगदी त्या क्षणी सारं काही मिळतंय, आई-वडिलांच्या जीवावर पैसा अडका, कपडे, चैनीच्या वस्तू, गाड्या अगदी विनासायास मिळताहेत, पण त्या काळी पोटासाठी पुण्यात विद्यार्थ्याला ठराविक घर हिंडून घरोघरी “भवती भिक्षां देही ” असं म्हणून फिरावे लागायचे. तेव्हां गृहिणीची त्या देण्यात.. “अतिथी देवो भव ” ही पुण्यकर्माची भावना असायची. बुद्धीने कष्टाने मिळवलेलं ते संघर्षमय असं विद्यार्थी जीवन होतं. अशा या विद्येच्या माहेरघरात कितीतरी विद्यमान व्यक्ती यशोदायी होऊन शिक्षण क्षेत्रात चमकल्या. उगीच नाही पालक म्हणायचे, ‘ पुणं तिथे काय उणं ‘. असं होतं विद्यादान, अन्नदान करण्यात अग्रगण्य असलेलं तेव्हाचं कसबे पुणं..
☆ तिकीट…☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’☆
सध्या निवडणुकांचे वातावरण आहे. इच्छुक माणूस उमेदवारी मिळावी म्हणून प्रयत्नरत आहे. काहींनी तर देव पाण्यात घालून ठेवले असतील…… असो, समजा एखाद्या मनुष्याला एखाद्या पक्षाने उमेदवारी दिली आणि तो निवडून आला. तर तो पक्षांतर करणार नाही असे आपण सांगू शकत नाही….. तसेच त्याने दिलेली आश्वासने पूर्ण करेलच असे नाही…….
तिकीट….
अनेक लोकांच्या जिव्हाळ्याचा विषय….
एक महामंडळ आहे, ज्याने अनेकांचे जीवन घडवले, ते सुध्दा आपल्या ग्राहकांना तिकीट देते आणि मुख्य म्हणजे ते तिकीट अहस्तांतरणीय असते…..
आपल्या लक्षात आलेच असेल….. आपल्या सर्वांच्या जिवाभावाची एस. टी.
एस. टी. ने अनेकांची आयुष्ये उजळली. पूर्वी ग्रामीण भागात एस. टी. शिवाय पर्याय नव्हता…. आणि एस. टी. शिवाय अन्य पर्याय नव्हता आणि एस. टी. लाही पर्याय नव्हता…..
विद्यार्थी, चाकरमानी (नोकरदार), रुग्ण, अन्य प्रवासी यांना वाट पाहीन पण एस. टी. नेच जाईन असे घोष वाक्य न लावता, लोकं लाल रंगाची पिवळा पट्टा असलेल्या एस. टी. ची चातका सारखी वाट पाहत असतं…
अनेक गावात अमुक वेळेची बस आली की लोकं त्यावर आपली घड्याळे लावत असतं…..
कमीतकमी पैशात योग्य स्थानावर सुरक्षित प्रवास घडवणारे प्रवासाचे एकेमव माध्यम एस टी हेच होते……
महाराष्ट्राची रक्तवाहिनी म्हणता येईल अशी एस. टी.
एस. टी. गावात आली नाही तर त्यादिवशी गावांसाठी ती बातमी असे…..
ज्यांनी एस. टी. ला विश्वासाहर्यता मिळवून तमाम कर्मचारी बंधू भगिनींना कितीही धन्यवाद दिले तरी कमीच पडतील……
तर….. अशी तिकीट देऊन तिकीट घेणाऱ्यांचे आणि त्याच्या कुटुंबाचे हीत जपणारी आपली सर्वांची जिवाभावाची #एश्टी#…… !!
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जगमग ज्योति जले…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
संस्कार भारतीयता में समाहित हैं, जितने भी त्योहार हम मनाते हैं सभी में दान की परम्परा को ही महत्व दिया जाता है। हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसके हाथ माँगने के लिए नहीं, देने के लिए उठें, शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जब दायाँ हाथ किसी को कुछ दे तो बाएँ हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए।
हमारी जरूरतें तो कभी कम नहीं होंगी पर हमें अपने खर्चों में कमीं करते हुए स्वविवेक से कुछ न कुछ जरूरतमंदों को अवश्य देना चाहिए जिससे आपमें उत्साह व सकारात्मकता का भाव विकसित होगा और यही संस्कार आप अगली पीढ़ी को देंगे जो उनकी उन्नति का मार्ग निर्धारित करेगा।
कोशिश कीजिए कि जन्म सार्थक हो, किसी का भला कर सकें इससे बड़ी बात कुछ हो ही नहीं सकती।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “घृणा से निपटना ही होगा… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 310 ☆
आलेख – स्त्री के प्रति अपराध रोकने में धार्मिक आस्थाओ का महत्व… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भारत की पहचान एक धर्म प्रधान, अहिंसा व आध्यात्मिकता के प्रेमी और नारी गौरव-गरिमा का देश होने की रही है, फिर क्या कारण है कि इस शिक्षित युग में भी बेटियो की यह स्थिति हुई है कि कन्या भ्रूण बचाने के लिये सरकारी अभियान चलाने पड रहे हैं. कानून का सहारा लेना पड़ रहा है.
एक ओर कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स जैसी बेटियां अंतरिक्ष में भी नाम रोशन कर रही हैं, महिलायें राजनीति के सर्वोच्च पदो पर हैं, पर्वतारोहण, खेल, कला,संस्कृति, व्यापार,जीवन के हर क्षेत्र में लड़कियो ने सफलता की कहानियां गढ़कर सिद्ध कर दिखाया है कि “का नहिं अबला करि सकै का नहि समुद्र समाय” तो दूसरी ओर बलात्कार, दहेज हत्या, कार्यस्थलों में स्त्री असुरक्षा, जन्म से पहले ही भ्रूण हत्या बंदनहीं हो रही. ये विरोधाभासी स्थिति मौलिक मानवाधिकारो का हनन तथा समाज की मानसिक विकृति की सूचक है.
पुरुषो की तुलना में निरंतर गिरते स्त्री अनुपात के चलते इन दिनो देश में “बेटी बचाओ अभियान” की आवश्यकता आन पड़ी है. नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से समाज ग्रस्त है. तमाम स्त्री विमर्श के बाद भी नारी से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमें आत्ममंथन व चिंतन के लिये विवश कर रही है. एक ओर नारी स्वातंत्र्य की लहर चल रही है तो दूसरी ओर स्त्री के प्रति निरंतर बढ़ते अपराध दुखद हैं. “नारी के अधिकार “, “नारी वस्तु नही व्यक्ति है”,वह केवल “भोग्या नही समाज में बराबरी की भागीदार है”, जैसे वैचारिक मुद्दो पर लेखन और सृजन हो रहा है, पर फिर भी नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में वांछित सकारात्मक बदलाव का अभाव है. “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ नारियो की पूजा होती है वहां देवताओ का वास होता है यह उद्घोष, हिन्दू समाज से कन्या भ्रूण हत्या ही नही, नारी के प्रति समस्त अपराधो को समूल समाप्त करने की क्षमता रखता है, जरूरत है कि इस उद्घोष में व्यापक आस्था पैदा हो. नौ दुर्गा उत्सवो पर कन्या पूजन, हवन हेतु अग्नि प्रदान करने वाली कन्या का पूजन हमारी संस्कृति में कन्या के महत्व को रेखांकित करता है, आज पुनः इस भावना को बलवती बनाने की आवश्यकता है.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका बालसाहित्य के अंतर्गत एक ज्ञानवर्धक आलेख – “आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 192 ☆
☆ बाल साहित्य – आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मेरा जन्म 1900 की शुरुआत में ओहियो के डेटन में एक छोटे से वर्कशॉप में हुआ था। मेरे निर्माता ऑरविल और विल्बर राइट नाम के दो भाई थे। वे पक्षी की उड़ान से प्रेरित थे। वे कई वर्षों से मेरे डिजाइन पर काम कर रहे थे।
मैं एक बहुत ही साधारण मशीन था। मेरे पास दो पंख थे, एक प्रोपेलर और एक छोटा इंजन। लेकिन मैं भी बहुत नवीन था। मैं पहला हवाई जहाज था जो कुछ सेकंड से अधिक समय तक उड़ान भरने में सक्षम था।
17 दिसंबर, 1903 को मैंने अपनी पहली उड़ान भरी। मैं ऑरविल के नियंत्रण में था। विल्बर मेरे साथ दौड़ रहा था। वह एक रस्सी पकड़े था। मैंने 12 सेकंड के लिए उड़ान भरी। 120 फीट की यात्रा की। यह एक छोटी उड़ान थी, लेकिन यह एक ऐतिहासिक थी।
मेरी उड़ान ने साबित कर दिया कि इंसान उड़ सकता है। इसने अन्य अन्वेषकों को नए और बेहतर हवाई जहाज बनाने के लिए प्रेरित किया। और इसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।
मैं अब 100 से अधिक वर्षों से उड़ रहा हूं। मैंने उस समय में काफी बदलाव देखे हैं। हवाई जहाज बड़े और तेज हो गए हैं। वे ऊंची और दूर तक उड़ सकते हैं। वे अधिक लोगों को ले जा सकते हैं।
लेकिन एक चीज नहीं बदली है: मैं अभी भी दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक मशीन हूं। मैं लोगों को नई जगहों और नए अनुभवों के साथ ले जा सकता हूं। मैं लोगों को एक-दूसरे से और उनके आसपास की दुनिया से जुड़ने में मदद कर सकता हूं। मैं दुनिया को एक छोटी जगह बना दिया है।
मुझे मेरे हवाई जहाज होने पर गर्व है। लोगों को यात्रा करने और अन्वेषण करने में मदद करने पर मुझे प्रसन्न्ता होती है। मुझे मेरी प्यारी दुनिया के भ्रमण करने पर गर्व है।
(पूर्वसूत्र- आठवड्यातून ठरलेले दोन दिवस बँकेत येतानाच ‘लिटिल् फ्लावर’ मधे जाऊन कॅश व्यवस्थित मोजून घेऊन मी स्वतःच बँकेत घेऊन येऊ लागलो. कांही दिवस हे असं सुरू राहिलं पण अचानक एक दिवस या क्रमाला अतिशय अनपेक्षितपणे वेगळंच वळण लागलं आणि या सगळ्या चांगल्यात मिठाचा खडा पडला! मला मुळापासून हादरवून सोडणारी ती एक नाट्यपूर्ण कलाटणी मला पूर्णत: हतबल करून गेली होती!
मला पुढे येऊ पहाणाऱ्या एका अतर्क्य आणि गूढ अशा अनुभवाची हीच तर पार्श्वभूमी ठरणार होती आणि सुरुवातसुद्धा.. !) इथून पुढे —-
तो शुक्रवार होता. आमच्या रिजनल ऑफिसकडून आलेल्या फोनवर दुसऱ्या दिवशी शनिवारी संध्याकाळी ५. ३० वाजता अचानक ठरलेल्या ब्रॅंच मॅनेजर मिटिंगसाठी मला कोल्हापूरला येण्याचा निरोप मिळाला. योगायोग असा की मीटिंगच्या दुसऱ्या दिवशी रविवारी पौर्णिमा होती आणि मीटिंग संपताच सांगलीला घरी मुक्कामाला जाऊन तिथून रविवारी माझ्या नेमानुसार पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला दत्तदर्शनासाठी जाणंही सुलभ होणार होतं.
पण हा निरोप मिळताच मीटिंगची आवश्यक ती माहिती गोळा करून फाईल तयार करायलाच खूप रात्र झाली. म्हणून मग रात्री उशिरा न निघता शनिवारी पहाटेच्या बसने निघायचं ठरवलं. रात्री अंथरुणाला पाठ टेकली आणि शनिवारी सकाळी ‘लिटिल् फ्लॉवर’ मधे जाऊन आपल्याला कॅश कलेक्ट करायचीय याची आठवण झाली. रिजनल ऑफिसच्या फोननंतर सुरू झालेल्या या सगळ्या गदारोळात शनिवारी कॅश कलेक्शनसाठी मला येता येणार नाहीय असा मिस् डिसोझांना निरोप देणं राहूनच गेलं होतं त्यामुळे कॅश कलेक्ट करणं क्रमप्राप्तच होतं.
शेवटी पहाटे उठून प्रवासाची तयारी करून मी बॅग घेऊन बाहेर पडलो ते नेहमीप्रमाणे आठ वाजताच. ‘लिटिल् फ्लाॅवर’ मधे जाऊन पैसे मोजून ताब्यात घेतले. बँकेत जाऊन पैसे व स्लीप सुजाताच्या ताब्यात दिली.
“कॅश नीट मोजून घे. मगच मी निघतो. ” मी गंमतीनं म्हटलं. ती हसली. समोर इतर कस्टमर्स थांबलेले होते म्हणून मग तिने मी दिलेली ती कॅश आणि स्लीप समोर बाजूला सरकवून ठेवली आणि…. “सर, असू दे. तुम्ही स्वत: कॅश मोजून आणलीय म्हणजे ती बरोबरच असणाराय. मी नंतर मोजते. तुम्हाला उशीर होईल. तुम्ही तेवढ्यांसाठी नका थांबू. ” ती मनापासून म्हणाली. ते खरंही होतंच. मला तातडीने स्टॅण्ड गाठणं आवश्यक होतंच. सर्वांचा निरोप घेऊन मी निघालो.
पुढचं सगळंच सुरळीत झालं. मीटिंग चांगली झाली. मला घरी रहाताही आलं. सर्वांना भेटता आलं. गप्पा झाल्या. आराम करता आला. रविवारी नृसिंहवाडीचं दत्तदर्शनही निर्विघ्नपणे पार पडलं. आणि मग नेहमीच्या चक्रात अडकण्यासाठी मी रविवारी रात्री उशिराची सोलापूर बस पकडली. पहाटे साडेपाचच्या सुमारास घरी पोचलो. थोडा आराम करायलासुध्दा वेळ नव्हताच. सगळं आवरून साडेआठला ब्रॅंच गाठली. रात्रभराच्या जागरणाचा शीण सोबत असल्याने उत्साह फारसा नव्हताच. पण जो होता तो उसना उत्साहही नाहीसा करणारं एक अशुभ आक्रित
ब्रॅंचमधे माझी वाट पहात होतं!मी केबिनमधे जाऊन बसलोही नव्हतो तेवढ्यांत माझीच वाट पहात असल्यासारखे हेडकॅशिअर सुहास गर्दे माझ्या पाठोपाठ केबिनमधे आले.
“गुड मॉर्निंग सर”
“गुड मॉर्निंग. बसा. कांही विशेष?”
“विशेष असं नाही… पण एकदा तुमच्या कानावर घालावं असं वाटलं. तुम्ही परवा शनिवारी इथून गेल्यानंतर थोडा घोळच झाला होता… ” ते म्हणाले.
“घोळ ? म्हणजे.. ?”
“म्हणजे.. ‘लिटिल् फ्लॉवर’ च्या कॅशमधे साडेआठशे रुपये कमी होते सर… “
“काय? अहो, भलतंच काय? कसं शक्य आहे हे?.. “
“हो सर. पन्नास रुपयांच्या सतरा नोटा कमी होत्या… “
एव्हाना प्रचंड दडपणाखाली असलेली सुजाता बोबडे केबिनबाहेर घुटमळत उभी होती, ती आत येऊन माझ्यासमोर खाली मान घालून उभी राहिली.
“सुजाताs. काय म्हणतायत हे?”
” ह.. हो सर. आठशे पन्नास रुपये.. शॉर्ट होते.. “
तिचा आवाज भीतीनं थरथरत होता. तिचे डोळे नेहमीप्रमाणे पाझरु लागले. ती उभीच्या उभी थरथरू लागली. टोकाच्या संतापाने माझं मन भरुन आलेलं असतानाही कांही न बोलता मी डोकं गच्च धरून क्षणभर तसाच बसून राहिलो. संतापाने भरलेल्या जळजळीत नजरेने सुजाताकडे पाहून तिला जायला सांगितलं. डोळे पुसत ती केबिनबाहेर गेली. मी व्यवस्थित पैसे मोजून हिच्याकडे दिलेले असताना आठशे पन्नास रुपये कमी येतीलच कसे? एखाद दुसरी नोट कमी असणंही शक्यच नव्हतं आणि पन्नास रुपयांच्या सतरा नोटा कमी?शक्यच नाही. माझ्या मनातला संशयी विचार सुजाताच्या पाठमोऱ्या आकृतीचा पाठलाग करत राहिला. तिचे कौटुंबिक प्रश्न, थोड्याच दिवसात येऊ घातलेलं तिचं बाळंतपण, आर्थिक ओढग्रस्तता.. सगळंच माझ्या मनातल्या संशयाला पुष्टी देणारंच होतं. पण तो संशयाचा कांटा मनात रुतण्यापूर्वीच मी क्षणार्धात उपटून तो दूर भिरकावून दिला. नाही… सुजाता असं कांही करणं शक्य नाही… ! मी माझ्या मनाला बजावून सांगितलं. पण तरीही ते साडेआठशे रुपये गेले कुठं हा प्रश्न मात्र माझं मन कुरतडत राहिला.
“सुहास, इतर कुठल्यातरी रिसीटमधे चूक असेल.. काहीतरी गफलत असेल. त्या कॅशमधे चूक असणं शक्यच नाही… “
” सगळ्या रिसिटस् दोन दोनदा चेक करून खात्री करून घेतलीय सर. सगळं बरोबर होतं. त्यादिवशी सगळेजण खूप उशीरपर्यंत याच व्यापात होतो. पण आता काळजीचं कांही कारण नाहीय सर. त्या संध्याकाळी आम्ही प्राॅब्लेम साॅल्व्ह करुन मगच घरी गेलो सर. आता प्रॉब्लेम मिटलाय. पैसेही वसूल झालेत. “
“मी ‘लिटिल् फ्लाॅवर’ला त्याच दिवशी संध्याकाळी फोन करून सांगितलं सर. तुम्ही मीटिंगसाठी कोल्हापूरला गेलायत हेही सांगितलं. त्यांनी लगेच पैसे पाठवले सर. “
ऐकून मला धक्काच बसला. काय बोलावं, कसं रिअॅक्ट व्हावं समजेचना. मिस् डिसोझांना फोन करण्यासाठी रिसिव्हर उचलला खरा पण हात थरथरू लागला. फोन न करताच मी रिसिव्हर ठेवून दिला.
माझ्या अपरोक्ष नको ते नको त्या पद्धतीने घडून गेलं होतं. सुहास गर्देने बाहेर जाऊन स्वतःचं काम सुरू केलं, पण जाताना त्याच्याही नकळत त्यानं मलाच आरोपीच्या पिंजऱ्यात उभं केलंय असंच वाटू लागलं. मी शांतपणे डोळे मिटून खुर्चीला डोकं टेकवून बसून राहिलो. पण स्वस्थता नव्हती.
माझ्या मिटल्या नजरेसमोर मला सगळं स्वच्छ दिसू लागलं होतं… ! हो. हे असंच घडणाराय.. !माझ्यासमोर उभं राहून मिस् डिसोझा संशयग्रस्त नजरेने माझ्याकडे पहातायत असा मला भास झाला… न्.. मी भानावर आलो. खुर्ची मागे सरकवून ताडकन् उठलो.
काहीतरी करायलाच हवं… पण काय? मन सून्न झालं होतं. काय करावं तेच सुचत नव्हतं. आणि.. आणि अचानक.. अस्वस्थ मनात अंधूक प्रकाश दाखवू पहाणारा एक धूसर विचार सळसळत वर झेपावला… आणि केबिनचं दार ढकलून मी बाहेर आलो… !