English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 121 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 121 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 121) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 121 ?

☆☆☆☆☆

फरियाद कर रही है

ये तरसी हुई निगाहें,

देखे हुए किसी को इक

ज़माना गुजर गया…!

Pleading are these

ever longing eyes…

An epoch has passed by

having seen someone!

☆☆☆☆☆ 

मुसकुराना बड़ी बात नहीं

गम छुपना बड़ी बात नहीं,

जिंदगी तेरा मिलना नहीं

इसका रास आना बड़ी बात है…!

Smiling is not a big deal

Hiding sorrow is not a big stuff

O’ Life It’s not meeting you

but liking yhou is the big thing…!

☆☆☆☆☆

है जिसको लगन जिसकी

वो उसको ढूंढ ही लेगा,

दरिया को कौन भला

समंदर का पता देता है…!

 

One who has the passion for

someone will find him anyways

Nobody ever gives the river

the address of the ocean…!

☆☆☆☆☆ 

उन्हें ये गुमान है कि

मेरी उड़ान कुछ कम है…

मुझे यकीं है कि ये

आसमां ही कुछ कम है…!

They think that my

flight is little short…

I trust resolutely that

sky is bit too small…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 169 ☆ श्वेतपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

श्री भास्कर साधना आरम्भ हो गई है। इसमें जाग्रत देवता सूर्यनारायण के मंत्र का पाठ होगा। मंत्र इस प्रकार है-

💥 ।। ॐ भास्कराय नमः।। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 169 ☆ श्वेतपत्र ?

वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है-

 शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं,

 इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 121 ☆ ~ भोजपुरी दोहे – नेह-छोह रखाब सदा ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित “~ भोजपुरी दोहे – नेह-छोह रखाब सदा ~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 121 ☆ 

☆ ~ भोजपुरी दोहे – नेह-छोह रखाब सदा ~ ☆

*

नेह-छोह राखब सदा, आपन मन के जोश.

सत्ता का बल पाइ त, ‘सलिल; न छाँड़ब होश..

*

कइसे बिसरब नियति के, मन में लगल कचोट.

खरे-खरे पीछे रहल, आगे आइल खोट..

*

जीए के सहरा गइल, आरच्छन के हाथ.

अनदेखी काबलियत कs, लख-हरि पीटल माथ..

*

आस बन गइल सांस के, हाथ न पड़ल नकेल.

खाली बतिय जरत बा, बाकी बचल न तेल..

*

दामन दोस्तन से बचा, दुसमन से मत भाग.

नहीं पराया आपना, मुला लगावल आग..

*

प्रेम बाग़ लहलहा के, क्षेम सबहिं के माँग.

सुरज सबहिं बर धूप दे, मुर्गा सब के बाँग..

*

शीशा के जेकर मकां, ऊहै पाथर फेंक.

अपने घर खुद बार के, हाथ काय बर सेंक?

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – मातृत्व – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– मातृत्व – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

गाय जेंव्हा माय होते

कासेला वासरू लुचते

त्या ओठांच्या स्पर्शाने

ती आपसूक पान्हावते

मातृत्वाचा शिरी तूरा

मुखी पडती अमृत धारा

ढूशा देऊनी पिते वासरू

जिव्हास्पर्शी  स्नेह झरा

आई भोवती जग बाळाचे

बाळासाठी जगणे आईचे

पशुपक्षी कटक वा मानव

बदलून  जाते विश्व बाईचे

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

29/12/22

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #170 – 56 – “आँखों में जल की बात करते हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “आँखों में जल की बात करते हो…”)

? ग़ज़ल # 56 – “आँखों में जल की बात करते हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तुम दिल की जो बात करते हो।

बड़ी अकल की  बात करते हो।

मेरे तन मन में आग लगा कर,

तुम सँभल की बात करते हो।

छोड़ कर अनसुलझे सवाल कई।

बेबजह पहल की बात करते हो।

तेज़ रिमझिम में भीगी है फ़िज़ा,

आँखों में जल की बात करते हो।

मिलते हो जब भी ख़्वाबों में,

आतिश हल की बात करते हो।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 47 ☆ मुक्तक ।। मनोकामना ।। शुभकामना – 2023 ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। मनोकामना ।। शुभकामना – 2023 ।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 47 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। मनोकामना ।। शुभकामना – 2023 ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

बस  आदमी  को आदमी से प्यार हो  जाये।

हर नफ़रत की  जीवन  में हार  हो  जाये।।

इंसानियत का ही  हो  बोल बाला हर जगह।

हर व्यक्ति में मानवता का संचार हो जाये।।

[2]

हर किसी का हर किसी से सरोकार हो जाये।

हर सहयोग देने को आदमी तैयार हो जाये।।

अमनो चैन सुकून की हो अब सबकी जिंदगी।

खत्म हमारे बीच की हर तकरार हो  जाये।।

[3]

राष्ट्र का हित ही सबका कारोबार हो जाये।

देश की आन को हर बाजू तलवार हो जाये।।

दुश्मन नज़र उठा कर देख न सके हमको।

हर जुबां पर शत्रु के लिए ललकार हो जाये।।

[4]

माहमारी कॅरोना की करारी अब हार हो जाये।

पूर्ण स्वास्थ्य का स्वप्न दुनिया में साकार हो जाये।।

भय डर का यह जीवन अब हो जाये समाप्त।

यह विषाणु हर जीवन से अब बाहर हो जाये।।

[5]

हर बाग में  अब  गुल गुलशन बहार हो जाये।

जिंदगी का मेला वैसा ही फिर गुलज़ार हो जाये।।

यह नववर्ष खुशियां लेकर आये हज़ारों हज़ार।

हर ओर जीवन में सुख शांति बेशुमार हो जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 112 ☆ ग़ज़ल – “जिंदगी…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “जिन्दगी …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #112 ☆  ग़ज़ल  – “’जिन्दगी …” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

सुख दुखों की एक आकस्मिक रवानीं जिंदगी

हार-जीतों की की बड़ी उलझी कहानीं जिंदगी

व्यक्ति श्रम और समय को सचमुच समझता बहुत कम

इसी से संसार में धूमिल कई की जिंदगी ।।1।।

 

कहीं कीचड़ में फँसी सी फूल सी खिलती कहीं

कहीं उलझी उलझन में, दिखती कई की।

पर निराशा के तमस में भी है आशा की किरण

है इसीसे तो है सुहानी दुखभरी भी जिंदगी ।।2।।

 

कहीं तो बरसात दिखती कहीं जगमग चाँदनी 

कहीं हँसती खिल-खिलाती कहीं अनमन जिंदगी।

भाव कई अनुभूतियाँ कई, सोच कई, व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी ।।3।।

 

 सह सके उन्होंने ही सजाई है कई की जिंदगी

कठिनाई से जो उनने नित रचा इतिहास

सुलभ या दुख की महत्ता कम, महत्ता है कर्म की

कर्म से ही सजी सँवरी हुई सबकी जिंदगी ।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 133 – तो चंद्र सौख्यदायी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 133 – तो चंद्र सौख्यदायी ☆

तो चंद्र सौख्यदायी सोडून आज आले।

ते भास चांदण्याचे विसरून आज आले।

 

प्रेमात रगलेल्ंया माझ्याच मी मनाला

वेड्या परीस येथे तोडून आज आले।

 

होता अबोल नेत्री होकार दाटलेला।

खंजीर जीवघेणे खुपसून आज आले।

 

मागू नकोस आता ते प्रेम भाव वेडे।

वेड्या मनास माझ्या जखडून आज आले।

 

देऊ कशी तुला मी खोटीच आर राजा।

आभास जीवनाचे विसरून आज आले।

 

जाणीव वेदनांची सांगू कशी कुणाला।

माझ्याच जीवनाला गाढून आज आले

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ कवितासंग्रह : “नाही उमगत ‘ती’ अजूनही“ – डाॅ. सोनिया कस्तुरे ☆ परिचय – डाॅ.स्वाती  पाटील ☆

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆कवितासंग्रह : “नाही उमगत ‘ती’ अजूनही“ – डाॅ. सोनिया कस्तुरे ☆ परिचय – डाॅ.स्वाती  पाटील ☆ 

कवयित्री – डॉक्टर सोनिया कस्तुरे

प्रकाशक – मनोविकास प्रकाशन, पुणे. 

पृष्ठसंख्या – १६०

किंमत – रु. ३००/-

अतिशय सुंदर मुखपृष्ठ, ,,’ती ‘च्या स्वप्तरंगी मनोविश्वाचे जणु प्रतीकच, तिच्या भरारीच्या अपेक्षेत असणारे आभाळ आणि झेप घेणारी पाखरे, तिच्या मनात असणारे पंख लावून केव्हाच ती आकाशात स्वैर प्रवाहित होत आहे परंतु त्याचवेळी जमिनीवरील घट्ट बांधून ठेवणाऱ्या साखळ्या आणि पर्यायाने बेडीमध्येही तिने ‘ती’ चं अस्तित्व टिकवून ठेवले आहे. अतिशय अर्थवाही असं हे या कवितासंग्रहाचे मुखपृष्ठ असून संग्रहाच्या नावाप्रमाणेच सखोल आणि विचार प्रवृत्त करायला लावणारे आहे.

अतिशय संवेदनशीलतेने  लिहिलेल्या या संग्रहाला प्रस्तावना ही तेवढीच वस्तुनिष्ठपणे, तरलतेने, आणि अतिशय अभ्यासपूर्ण व डोळसपणे लिहिलेली आहे ती प्राध्यापक आर्डे सरांनी.

डॉ सोनिया कस्तुरे

मनोगतामध्येच कवयित्री डॉक्टर सोनिया यांनी या कवितांची जडणघडण कशी झाली आहे हे सांगितले आहे. अत्यंत उत्कृष्ट प्रतीचे सामाजिक मूल्य असणाऱ्या या कविता लिहिताना त्यांना त्यांच्या वैद्यकीय व्यवसायातील अनुभवांचा, आजूबाजूच्या सामाजिक परिस्थितीचा, तात्कालीक घटनांचा खूप उपयोग झाला आहे. तरीही कवयित्रीची मूळ संवेदनशील वृत्ती, समाजाकडे डोळसपणे पाहण्याची दृष्टी आणि केवळ स्त्री म्हणून नाही तर एकूणच माणसांकडे पाहण्याची समदृष्टी ही जागोजागी आपल्याला ठळकपणे जाणवते. म्हणूनच केवळ स्त्रीवादी लाटांमध्ये आलेले आणखी एक साहित्य असे याचे स्वरूप न राहता यापेक्षा अतिशय दर्जेदार ,गुणवत्तापूर्ण, उच्च सामाजिक मूल्य व अभिरुचीपूर्ण असा हा वेगळा कवितासंग्रह आहे. 

हा कवितासंग्रह जरी पहिला असला तरी तो पहिला वाटत नाही. प्रत्येक कवितेमागे असणारी विचारधारा ही गेली अनेक वर्ष मनात, विचारात ,असणारी वाटते. सजगतेचे भान प्रत्येकच कवितेला आहे, म्हणूनच त्यांच्यामध्ये फार अलंकारिकता नाही परंतु जिवंतपणा 100% आहे. या कविता वाचणाऱ्या सर्व वयोगटातील स्त्रियांना ती आपली वाटणारी आहे. कारण या सर्वच जणी वेगवेगळ्या प्रकारे व्यवस्थेच्या बळी ठरलेल्या आहेत , ठरत आहेत आणि ही विषमता दूर झाली पाहिजे, समाजव्यवस्था बदलली पाहिजे, याचं भान जवळपास प्रत्येक कवितेत आहे. स्त्री आणि पुरुष यापलीकडे जाऊन व्यक्तीकडे एक माणूस म्हणून बघण्याची किती गरज आहे, हे हा कवितासंग्रह जाणवून देतो. स्त्रीवादी म्हणाव्या अशा या कविताच नाही, तर त्या आहेत एक उत्तम समाजव्यवस्था कशी असली पाहिजे. त्यामध्ये माणूस हा माणसाप्रमाणे वागला पाहिजे न की रुढी परंपरा, लिंगभिन्नता, दुय्यमतेच्या ओझ्याखाली वाकलेल्या, जातीपाती, धर्म अधर्म, सुंदर कुरुपतेच्या  स्वनिर्मित काचामध्ये अडकून स्वतःचे आणि इतरांचे जीवन असह्य बनवलेल्या  राक्षसाप्रमाणे– सुंदर कोण या कवितेत या सगळ्या जीवन मूल्यांचा त्यांनी मागोवा घेतला आहे. अतिशय सोप्या, सुबोध आणि छोट्या शब्दांमध्ये सुंदर या शब्दाचा अर्थ सांगताना सध्या समाजात जे समज झाले आहेत सुंदरतेचे, त्यावर त्यांनी अचूकपणे भाष्य केले आहे आणि ते अगदी आपल्याला तंतोतंत पटतेही .

‘मिरवू लागले’, या कवितेत ‘पुरोगामी’ या आजकाल प्रत्येकाने स्वतःला लावून घेतलेल्या बिरुदाचा फोलपणा दर्शवून दिला आहे. प्रत्येक स्वतःला विसरलेल्या बाईने वाचलाच पाहिजे असा हा संग्रह आहे. ‘ती’च्या उपजत निसर्गदत्त शक्तीचे यथायोग्य वर्णन कोणत्या न कोणत्या स्वरूपात प्रत्येक कवितेत वाचायला मिळते. उदाहरणार्थ :-

एक वाट सुटली तिची तरी

दुसरी तिला मिळत राहते

तिच्या उपजत कौशल्याने

ती वळण घेईल नव्याने जिकडे

नवी वाट तयार होते तिकडे…!

समतेचे धडे शिकवण्याची तीव्र गरज या कविता व्यक्त करतात. ते ही अतिशय सौम्य शब्दात. स्त्री पुरुष समानता या विषयावर कोणीही हल्ली उठून सवंग लिहीत असतो परंतु मुळात हा विषय समजून एक उत्तम सहजीवन कसं असावं आणि त्यामध्ये पुरुषांनी कसा पुढाकार घेतला पाहिजे ही शिकवणारी कविता म्हणजे,’ शब्दाबाहेर’ अर्थात ती तुम्ही स्वतःच वाचली पाहिजे. याबरोबरच तडजोड आणि स्वतःत बदल या दोन गोष्टीचे महत्त्व ही  ‘प्रपंच ‘ नावाच्या कवितेत व्यक्त करून कुटुंब व्यवस्थेचे महत्त्व त्या निर्विवादपणे स्वीकारतात. तिची आय. क्यु. टेस्ट कराल का? ही कविता तर डोळ्यात पाणी आल्याशिवाय वाचून पूर्ण होतच नाही. कारण आपल्या भारतातली प्रत्येक बाई यातल्या कोणत्या आणि कोणत्या ओळीत स्वतःला पाहतेच. यापेक्षा अधिक संवेदनशीलता काय असते ?’आरसा ‘ही कविता तर सर्वांनाच डोळ्यात अंजन घालणारी आहे. समान हक्क आणि वागणूक न देता, सन्मानांच्या हाराखाली जखडून ठेवणारी ही समाजव्यवस्था कधी कधी ‘ती’च्याही लक्षात येत नाही आणि हे स्वभान जागवण्याचं काम ही कविता करते. म्हणूनच ‘माणूस ती’ या कवितेत त्या म्हणतात :–

लक्ष्मी ना सरस्वती। ना अन्नपूर्णा।

सावित्रीची लेक। माणूस ती ।

दुर्गा अंबिका। कालिका चंडिका।

देव्हारा नको। माणुस ती…

सावित्रीचे ऋणही त्यांनी अगदी चपखल शब्दात फेडले आहे. जनावरांपेक्षा हीन,दीन लाचार होतो माणूस, आम्ही झालो माई तुझ्यामुळे । –या शब्दांची ओळख करून देणाऱ्या माईला शब्दफुलांच्या ओंजळीने कृतज्ञता वाहिली आहे, आपल्या सर्वांच्याच वतीने.

‘जोडीदार’ या कवितेत तर प्रत्येक स्त्रीला हा माझ्याच मनातला सहचर आहे असे वाटावे इतपत हे वर्णन जमले आहे आणि शेवटी या कल्पनाविलासातून बाहेर येत  ‘हे सत्यात उतरवण्याचा कायम प्रयत्न करत राहतो तो खरा जोडीदार’ असे सांगून एक आशादायक वास्तव शेवटी आपल्यापुढे मांडतात.

तर एका लेकीच्या नजरेत बाप कसा असावा हे बाप माणूस– हे तर मुळातूनच वाचण्यासारखं. अशी ही कवयित्री विठ्ठलाला सुद्धा जाब विचारायला घाबरत नाही. सर्व जनांचा, भक्तांचा कैवारी पण त्याला तरी जोडीदाराची खबर आहे का? खरंतर रूपकात्मकच ही कविता. ज्याने त्याने जाणून घ्यावी अशी. ‘मैत्री जोडीदाराशी’  या कवितेत सुद्धा एक खूप आशादायी चित्र त्या निर्माण करतात, जे खूप अशक्य नाही . क्षणाची पत्नी ही अनंत काळची मैत्रीण तसेच क्षणाचा नवरा हा अनंत काळचा मित्र झाला तर नाती शोधायला घराबाहेर जाण्याची गरजच पडणार नाही असं आदर्श सहजीवन त्या उभं करतात. आणि शेवटी अतिशय समर्पक असा शेवट करताना कवयित्री म्हणते—-

‘तिचं शिक्षण बुद्धिमत्ता शक्ती युक्तीचीच गाळ करून चुलीत कोंबले नसते ….

लग्नानंतर त्याच्या इतकं तिच्या करिअरचा विचार झाला असता…. वांझ म्हणून हिणवलं नसतं, विधवा म्हणून हेटाळलं नसतं… तिच्या योनीपावित्र्याचा बाऊ झाला नसता… तर कदाचित  मी कविता केली नसती.

हा कदाचित खरोखर अस्तित्वात येण्यासाठी समाजाच्या प्रत्येक घटकाचे योगदान येथे गरजेचे आहे .आपल्या बरोबरीने जगणाऱ्या एका माणसाला केवळ समाजव्यवस्था म्हणून रूढी परंपरा, जाती व्यवस्था, इत्यादी विषमतेच्या जोखडाखाली चिरडून टाकून ‘पुरोगामी’ म्हणून शिक्का मारून घेण्याचा कोणालाच अधिकार नाही. किमान याचे भान जरी समाजाच्या प्रत्येक घटकांमध्ये अल्प प्रमाणात का होईना जागे करण्याचे बळ या संग्रहामध्ये आहे. त्याबरोबरच जिच्या पंखांना ताकद देण्याची गरज आहे , जिच्या पंखावरचे जड ओझे भिरकावून द्यायची गरज आहे, अशा सर्व ‘ती’ ना आणि  सर्व जगातल्या  ‘ती’च्यावर आईपण व बाईपण याचे ओझे वाटू देणाऱ्या व्यवस्थेवर लेखणीने प्रहार करणारा हा कविता संग्रह निश्चितच समाजमन जागे करणारा आणि मानवतेच्या सर्व मूल्यांची जोपासना करण्याची शिकवण देणारा आहे, असे थोडक्यात याचे वर्णन करता येईल. बऱ्याच दिवसातून काही आशयसंपन्न वाचल्याचे समाधान देणारा कवितासंग्रह.

मी अभिनंदन करते कवयित्रीच्या शब्दभानाचे,  सौम्यवृत्तीचे, माणूसपण जपणाऱ्या भावनेचे आणि विवेकपूर्ण संयमी विचाराचे.

© डॉ.स्वाती पाटील

सांगली

मो.  9503628150

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #163 ☆ प्रार्थना और प्रयास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रार्थना और प्रयास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 163 ☆

☆ प्रार्थना और प्रयास ☆

प्रार्थना ऐसे करो, जैसे सब कुछ भगवान पर निर्भर है और प्रयास ऐसे करो कि जैसे सब कुछ आप पर निर्भर है–यही है लक्ष्य-प्राप्ति का प्रमुख साधन व सोपान। प्रभु में आस्था व आत्मविश्वास के द्वारा मानव विषम परिस्थितियों में कठिन से कठिन आपदाओं का सामना भी कर सकता है…जिसके लिए आवश्यकता है संघर्ष की। यदि आप में कर्म करने का मादा है, जज़्बा है, तो कोई भी बाधा आपकी राह में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। आप आत्मविश्वास के सहारे निरंतर बढ़ते चले जाते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है। दूसरे शब्दों में इसे कर्म की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘संघर्ष नन्हे बीज से सीखिए, जो ज़मीन में दफ़न होकर भी लड़ाई लड़ता है और तब तक लड़ता रहता है, जब तक धरती का सीना चीरकर वह अपने अस्तित्व को साबित नहीं कर देता’– यह है जिजीविषा का सजीव उदाहरण। तुलसीदास जी ने कहा है कि यदि आप धरती में उलटे-सीधे बीज भी बोते हैं, तो वे शीघ्रता व देरी से अंकुरित अवश्य हो जाते हैं। सो! मानव को कर्म करते समय फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्म का फल मानव को अवश्य प्राप्त होता है।

कर्म का थप्पड़ इतना भारी और भयंकर होता है कि जमा किया हुआ पुण्य कब खत्म हो जाए, पता ही नहीं चलता। पुण्य खत्म होने पर समर्थ राजा को भी भीख मांगने पड़ सकती है। इसलिए कभी भी किसी के साथ छल-कपट करके उसकी आत्मा को दु:खी मत करें, क्योंकि बद्दुआ से बड़ी कोई कोई तलवार नहीं होती। इस तथ्य में सत्-कर्मों पर बल दिया गया है, क्योंकि सत्-कर्मों का फल सदैव उत्तम होता है। सो! मानव को छल-कपट से सदैव दूर रहना चाहिए, क्योंकि पुण्य कर्म समाप्त हो जाने पर राजा भी रंक बन जाता है। वैसे मानव को किसी की बद्दुआ नहीं लेनी चाहिए, बल्कि प्रभु का शुक्रगुज़ार रहना चाहिए, क्योंकि प्रभु जानते हैं कि हमारा हित किस स्थिति में है? प्रभु हमारे सबसे बड़े हितैषी होते हैं। इसलिए हमें सदैव सुख में प्रभु का सिमरन करना चाहिए, क्योंकि परमात्मा का नाम ही हमें भवसागर से पार उतारता है। सो! हमें प्रभु का स्मरण करते हुए सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए, क्योंकि वही आपका भाग्य-विधाता है। उसकी करुणा-कृपा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। दूसरी ओर मानव को आत्मविश्वास रखते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। इस स्थिति में मानव को यह सोचना चाहिए कि वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं है तथा उसमें असीम शक्तियां संचित हैं।  अभ्यास के द्वारा जड़मति अर्थात् मूढ़ व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है, जिसके अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। कालिदास के जीवन-चरित से तो सब परिचित हैं। वे जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। परंतु प्रभुकृपा प्राप्त होने के पश्चात् उन्होंने संस्कृत में अनेक महाकाव्यों व नाटकों की रचना कर सबको स्तब्ध कर दिया। तुलसीदास को भी रत्नावली के एक वाक्य ने दिव्य दृष्टि प्रदान की और उन्होंने उसी पल गृहस्थ को त्याग दिया। वे परमात्म-खोज में लीन हो गए, जिसका प्रमाण है रामचरितमानस  महाकाव्य। ऐसे अनगिनत उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘तुम कर सकते हो’– मानव असीम शक्तियों का पुंज है। यदि वह दृढ़-निश्चय कर ले, तो वह सब कुछ कर सकता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। सो! हमारे हृदय में शंका भाव का पदार्पण नहीं होना चाहिए। संशय उन्नति के पथ का अवरोधक है और हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। हमें संदेह, संशय व शंका को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

संशय मित्रता में सेंध लगा देता है और हंसते-खेलते परिवारों के विनाश का कारण बनता है। इससे निर्दोषों पर गाज़ गिर पड़ती है। सो! मानव को कानों-सुनी पर नहीं; आंखिन- देखी पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि अतीत में जीने से उदासी और भविष्य में जीने से तनाव आता है। परंतु वर्तमान में जीने से आनंद की प्राप्ति होती है। कल अर्थात् बीता हुआ कल हमें अतीत की स्मृतियों में जकड़ कर रखता है और आने वाला कल भविष्य की चिंताओं में उलझा लेता है और उस व्यूह से हम चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में मानव सदैव इसी उधेड़बुन में उलझा रहता है कि उसका अंजाम क्या होगा और इस प्रकार वह अपना वर्तमान भी नष्ट कर लेता है। सो! वर्तमान वह स्वर्णिम काल है, जिसमें जीना सर्वोत्तम है। वर्तमान आनंद- प्रदाता है, जो हमें संधर्ष व परिश्रम करने को प्रेरित करता है। संघर्ष ही जीवन है और जो मनुष्य कभी बीच राह से लौटता नहीं; वह धन्य है। सफलता सदैव उसके कदम चूमती है और वह कभी भी अवसाद के घेरे में नहीं आता। वह हर पल को जीता है और हर वस्तु में अच्छाई की तलाशता है। फलत: उसकी सोच सदैव सकारात्मक रहती है। हमारी सोच ही हमारा आईना होती है और वह आप पर निर्भर करता है कि आप गिलास को आधा भरा देखते हैं या खाली समझ कर परेशान होते हैं। रहीम जी का यह दोहा ‘जै आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ आज भी समसामयिक व सार्थक है। जब जीवन में संतोष रूपी धन आ जाता है, तो उसे धन-संपत्ति की लालसा नहीं रहती और वह उसे धूलि समान भासता है। शेक्सपीयर का यह कथन ‘सुंदरता व्यक्ति में नहीं, दृष्टा की आंखों में होती है’ अर्थात् सौंदर्य हमारी नज़र में नहीं, नज़रिए में होता है इसलिए जीवन में नज़रिया व सोच को बदलने की शिक्षा दी जाती है।

जीवन में कठिनाइयां हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि हमारी छुपी हुई सामर्थ्य व  शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। ‘कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उनसे भी कठिन हैं। कठिनाइयां हमारे अंतर्मन में संचित सामर्थ्य व शक्तियों को उजागर करती हैं;  हमें सुदृढ़ बनाती हैं तथा हमारे मनोबल को बढ़ाती हैं।’ इसलिए हमें उनके सम्मुख पराजय नहीं स्वीकार नहीं चाहिए। वे हमें भगवद्गीता की कर्मशीलता का संदेश देती हैं। ‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते- निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फ़रिश्ते बन जाते।’ गुलज़ार की ये पंक्तियां मानव को आत्मावलोकन करने का संदेश देती हैं। परंतु मानव दूसरों पर अकारण दोषारोपण करने में प्रसन्नता का अनुभव करता है और निंदा करने में उसे अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह पथ-विचलित हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अगर ज़िन्दगी में सुक़ून चाहते हो, तो फोकस काम पर रखो; लोगों की बातों पर नहीं। इसलिए मानव को अपने कर्म की ओर ध्यान देना चाहिए; व्यर्थ की बातों पर नहीं।’ यदि आप ख़ुद को तराशते हैं, तो लोग आपको तलाशने लगते हैं। यदि आप अच्छे कर्म करके ऊंचे मुक़ाम को हासिल कर लेते हैं, तो लोग आपको जान जाते हैं और आप का अनुसरण करते हैं; आप को सलाम करते हैं। वास्तव में लोग समय व स्थिति को प्रणाम करते हैं; आपको नहीं। इसलिए आप अहं को जीवन में पदार्पण मत करने दीजिए। सम भाव से जीएं तथा प्रभु-सत्ता के सम्मुख समर्पण करें। लोगों का काम है दूसरों की आलोचना व निंदा करना। परंतु आप उनकी बातों की ओर ध्यान मत दीजिए; अपने काम की ओर ध्यान दीजिए। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती।’ सो!  निरंतर प्रयासरत रहिए– मंज़िल आपकी राहों में प्रतीक्षारत रहेगी। प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए तथा सत्कर्म करते रहिए…यही जीवन जीने का सही सलीका है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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