हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

1977 से 1980 और फिर 1989 से 2014 तक के वर्षों के बीच बनी केंद्र सरकारों का ध्यान, येन केन प्रकारेण विघटन से बचने के लिये समझौतों में ही निकल जाता रहा. भ्रष्टाचार और एक के बाद एक घोटाले, सरकारों की कमजोरी और नियत पर शक पैदा कर रहे थे. इस बीच ही आंतकवाद अपने चरम पर था और आतंकवादियों के होसले बुलंद. नागरिक भयभीत थे कि कब कोई घटना, उन पर संकट बन जाये. जनआकांक्षा स्थिर सरकार और मजबूत, निर्भीक और स्वतंत्र नेतृत्व चाहती थी. वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने जनआकांक्षा को पहचाना और नये चेहरे के साथ चुनावी समर में कदम रखा. ये भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व था, लोग जो चाहते थे और जिस बात की कमी महसूस कर रहे थे, वो विकल्प उनके सामने था. बाकी जो हुआ, वह कहने की ज़रूरत नहीं है. पर शायद हर शासक और नेतृत्व को ये समझने की जरूरत है कि वो अपने एजेंडे और कार्यप्रणाली से ऊपर वरीयता, इस बात पर दें कि लोग क्या चाहते हैं और क्या ये उनके लिये आवश्यक, न्यायोचित है. वरना हर वो नेतृत्व जो लोगों को भ्रमित करता है या फिर खुद भी भ्रम में रहता है, अक्सर अपना प्रतिनिधित्व का अधिकार खो बैठता है और निर्मम इतिहास उसे डस्टबिन के सुपुर्द ही करता है.

कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का रिप्रसेंटेशन, सामान्यतः निकटगामी मुद्दों के लिये ही होता है, शिक्षण संस्थान खुलने या नहीं खुलने का, एडमीशन में पक्षपात का, डोनेशन और फीस का, कॉलेजों, हॉस्टल की आंतरिक व्यवस्था का, परीक्षा होने या नहीं होने का, रिजल्ट में अनावश्यक देरी, शिक्षण संस्थानों के नियंत्रकों द्वारा छात्रों के लिये अहितकर निर्णयों के लिये. अगर छात्र संघ के चुने हुये (और सुलझे हुये भी), प्रतिनिधि हैं तो अक्सर मामले बातचीत से हल हो जाते हैं जब तक कोई राजनैतिक दखलंदाजी न हो तो, वरना महानगरीय शिक्षण संस्थानों में ये प्रतिष्ठा का सवाल भी बन जाता है. जब प्रतिनिधित्व तो हो पर आंदोलन का निर्णय कोई और ही, अपने फायदे के लिये ले रहा हो. फिर तो छात्रसंघ के ये पदाधिकारी, छात्रों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि किसी परिपक्व और शातिर राजनेता के मोहरे बन जाते हैं .शिक्षण संस्थानों में अगर चुने हुये प्रतिनिधि न हों तो कोई भी आंदोलन अपनी जायज़ मांगों से भटककर गलत दिशा पकड़ लेता है. मुझे सागर विश्वविद्यालय के शिक्षण सत्र 1972-73 का एक वाकया याद है जब चार हॉस्टल के छात्रों को निलंबित कर दिया गया था और निर्वाचित प्रतिनिधि न होने के कारण, प्रोटेस्ट को गलत दिशा देने वाला छात्र तो फरार हो गया पर भीड़ के रूप में फालोअर्स के लिए नुकसानदेह रहा.

कॉलेज और विश्वविद्यालयों से लेकर हर संस्थानों और राजनैतिक परिदृश्य में भी, जिम्मेदार, परिपक्व और समझदार नेतृत्व आवश्यक होता है वरना आंदोलन निष्कर्ष हीन और अहितकर ही होते हैं. आंदोलनों की सफलता यही है कि प्रतिनिधित्व और पदासीन एक टेबल पर आकर मामले को हल करने का प्रयास करें हमारे वेज़ सेटलमेंट, वार्तालाप से ही हल हुये हैं और जहाँ न्यायालय जाना पड़ा वहाँ बस तारीख पर तारीख और वकील की फीस दर फीस. ये स्थिति प्रबंधन के लिये सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि वो अगले दस बीस सालों के लिये चिंतामुक्त हो जाता है. हम पैंशनर्स इसे साक्षात अनुभव कर रहे हैं. नादान हैं वो लोग जो फैसले और राहत का इंतजार करते हैं.

Representing the people का अर्थ यही है कि उनकी न्यायोचित मांगों को आवाज और ताकत दी जाय, वो सुनी जायें और उनके समाधान मिलें. मुंबई में कपड़ा मिलों के बंद होने का कारणों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि एक कारण मार्केट परिदृश्यों को नजरअंदाज कर मज़दूर नेता दत्ता सामंत द्वारा अनाप शनाप मांगे रखना और नतीजा मिलों के बंद होने से मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ा. मांग और देने वाले के अस्तित्व के बीच का असंतुलन ही पब्लिक सेक्टर की असफलता का कारक बना और सरकारों को निजीकरण की तरफ बढ़ना पड़ा. निजीकरण, बेहतर सर्विस के पर्दे में छुपी अभिजात्य सोच को प्रोत्साहित करता है और श्रमजीवियों को टॉरगेट के नाम पर टाइमलेस और लिमिट लेस शोषण के रास्ते खोलता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण, होम डिलीवरी वाले कोरियर बॉय हैं जिन्हें फिक्स टाइम में आर्डर की डिलीवरी करनी पड़ती है वरना आर्थिक नुकसान और नौकरी से हाथ धोने की स्थिति का सामना करना पड़ता है. ये युवक बाकायदा डिग्री धारक होते हैं और बेरोजगारी के कारण, अपनी बाइक सहित इन समस्याओं के जाल में उलझे रहते हैं. कौन हैं जो इनको रिप्रसेंट करेंगे. ये वह लडाई है जो लग्जरी और मजबूरी के बीच लड़ी जा रही है and no body is representing these people.  

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 150 ☆ तीन सख्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 150 ?

☆ तीन सख्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती दिवसांनी सख्या भेटल्या…

सांजवेळी पाणवठ्यावर ,

व्यथा मनीच्या अशा  उमटल्या

आपोआपच ओठांवर….

तहानलेल्या नदीपरी त्या नांदती संसारी…

शल्य मनीचे असे जाहले

व्यक्त विहीरीच्या साक्षीने

कितिक मेल्या..बुडून गेल्या

या पाण्यात खोल…

सख्या बोलल्या निश्चयाने..

“बेला च्या पानापरी राहू…

ढळू न देऊ तोल…”

समजून घेऊ आपण आता

या जगण्याचे मोल..

मुक्त होऊनी जळात न्हाल्या,

डोण जाहली तृप्त…

रूपवती त्या बनल्या आता..

मासोळ्या स्वच्छंद…

अशा घागरी स्वच्छ घासल्या

सोन्यावाणी लख्ख…

डोईवर ते घडे घेऊनी निघाल्या

तिनही गरती झोकात…

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 51 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ मनोज साहित्य # 51 – मनोज के दोहे….  

1 अक्षत

रोली-अक्षत का तिलक, लगा रहे प्रभु-शीश।

सुख वैभव बरसे सदा, कृपा करें जगदीश।।

 

2 अक्षर

सरस्वती आराधना, मंदिर अक्षर धाम।

ज्ञानार्जन की साधना, ज्ञानी करें प्रणाम।।

 

3 अंकुर

अंकुर निकसे धरा से, दिया जगत को ज्ञान।

यही हमारी मातु है, करें सभी गुणगान ।।

 

4 अंजन

आँखों में अंजन लगा, चली पिया के देश।

सपनों की दुनिया दिखे, बुला रहा परिवेश।।

 

5 अधीर

मानव हुआ अधीर अब, रामराज्य की आस।

दौर-विसंगति का बढ़ा, चुभी गले में फाँस ।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 122 – “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री कैलाश मण्डलेकर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 122 ☆

☆ “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री कैलाश मण्डलेकर जी द्वारा लिखी कृति   “धापू पनाला” पर चर्चा ।

☆ पुस्तक चर्चा – “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कृति : धापू पनाला,

लेखक : कैलाश मण्डलेकर,

प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सीहोर(मप्र),

मूल्य: 200 रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

शिवना प्रकाशन सीहोर, छोटे शहर से बड़ा साहित्यिक काम करता संस्थान है. जो अंतर्राष्ट्रीय स्तार पर पुस्तक  एवं पत्रिका प्रकाशन के साथ ही साहित्यिक गोष्ठियों तथा सम्मान के बहुमुखी आयोजन कर अपनी पहचान दर्ज कराता रहा है. यह सब शिवना के संचालक साहित्यकार तथा विचारक पंकज सुबीर की व्यैक्तिक अभिरुचियों तथा प्रयासों का सुपरिणाम है.

हाल ही शिवना ने सुप्रसिद्ध, साहित्यिक सम्मानो से देश भर में पुरस्कृत खंडवा के प्रसिद्ध व्यंग्य कर्मी श्री कैलाश मंडलेकर के हास्य व्यंग्य संग्रह धापू पनाला,का प्रकाशन कर अपनी पुस्तक सूची में मनोरंजक विविधता जोड़ी है. खुली सड़क पर, सर्किट हाउस पर लटका चांद, एक अधूरी प्रेम कहानी का दुखांत, लेकिन जाँच जारी है, बाबाओ के देश में जैसी व्यंग्य पुस्तको से कैलाश जी बेहद शांत, शालीन तरीके से व्यंग्य जगत में अपनी लम्बी पैठ बनाते चले आ रहे हैं. खण्डवा की धरती से जुड़े अनेक साहित्यकार हिन्दी के राष्ट्रीय क्षितिज पर परचम लहराते दिखते हैं, ललित निबंध में डा श्रीराम परिहार, कहानी में स्व.जगन्नाथप्रसाद चौबे ‘वनमाली’, और भी अनेको नामो की उत्कृष्ट परंपरा में कैलाश जी का नाम सुस्थापित हो चुका है.

व्यंग्य की मारक क्षमता के साथ हास्य की मार करना एक बड़ी कला है और इस कला के दर्शन करने हों तो यह किताब जरूर पढ़िये. मजेदार लेखों का संग्रह है. कालोनी के दंत चिुकित्सक, बिगड़ा हुआ कूलर और एक अदद ठेलेवाले की तलाश, एक ठहरी हुई बारात, धापू पनाला में वसंत की अगवानी, रेन कोट पहनकर नहाने के निहितार्थ, पकौड़ा पालिटिक्स, एंटी रोमियो स्क्वाड और आशिक का गिरेबान,उत्सव के पंडालों में चंदा उगाही की रोशनी, … जैसी कुल जमा बयालीस रचनायें अपने लम्बे शीर्षको में ही पाठको को आकर्षित करने के लिये काफी कुछ हिंट देती हैं. चर्चित फिल्मी गीतों के मुखड़ों को को भी कैलाश जी व्यंग्य के रूपकों के रूप में ले उड़े हैं. सुन दर्द भरे मेरे नाले, जिस गली में तेरा घर न हो बालमा, सिलि सिलि बिरहा की रात, ऐसी ही हास्य रंजक रचनायें हैं.अपने व्यंग्य लेखो के बीच बीच वे कविताओ, चौपाईयों, मुहावरों, लोकोक्तियो के प्रयोग से पाठको को बांधे रखते हैं. उनका संस्कृत अध्ययन परिपक्व है, वे मेघदूत से प्रासंगिक कथा भी अपने व्यंग्य में कोट करते दिखते हैं.

कुछ उदाहरण उधृत करना प्रासंगिक होगा जिससे मेरे पाठक समीक्षा पढ़कर किताब मंगवाने के लिये प्रेरित होंगे…

” दांत की बीमारियों के विशेषज्ञ बढ़ते जा रहे हैं… आगे चलकर हर दांत का अलग विशेषज्ञ होगा…..”

” कई बार कूलर इस दौर के नेताओ की तरह धोखाधड़ी करते नजर आते हैं…” 

“खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिये जरूरी नही कि खेरती ही की जाये, खेत को प्लाट काटकर कालोनी भी बनाई जा सकती है  “

”  लड़के लोग रात के बारह बजे तक प्रेम करने के इरादे से सड़क पर आवारा भटका करते थे “

डा ज्ञान चतुर्वेदी ने किताब की भूमिका लिखी है, उन्होंने संग्रह के व्यंग्य लेखों में ग्रामीण परिवेश और भाषा की जीवंतता महसूस की है. पुस्तक का मुद्रण त्रुटि रहित, प्रस्तुति स्तरीय है. कैलाश जी से पाठको को बहुत कुछ निरंतर मिल रहा है, बस अखबार, पत्र पत्रिकायें पढ़ते रहिये और उन्हें सोशल मीडीया पर फालो कीजीये.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 138 – तर्पण – … ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “तर्पण…”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 138 ☆

☆ लघुकथा  🌿 🤲तर्पण 🤲 

कमल शादी होकर आई। बहुत सुंदर सपने संजोए, अपना मन और घर को संभालने में लगी थी। फिल्मों की तरह उसके मन में भी अनेक विचार आते थे, कि पति का प्यार उसे सदैव अपना बनाकर सुखद अनुभूति कराएगा।

परंतु स्वराज को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था। वह शादी को एक समझौता और परिवार की पसंद या जरूरत समझता था। यही कारण था कि दो बच्चे होने के बाद भी कमल को पति या घर कभी अपना नहीं लगा।

लगता था कि किसी मजबूरी या माता-पिता के सम्मान को देखते हुए  सब करना पड़ रहा है। स्वराज घर को छोड़कर चारों तरफ भटकता फिरता।

नौकरी होते हुए भी वह पैसे-पैसे का मोहताज हो चुका था और शायद इसी गम से एक दिन दुनिया को छोड़ चला।

कमल कभी खुलकर हँस खिल भी न सकी।

आज गंगा जी में तर्पण कर तिलांजलि दे रही थी।

मन में एक नई सोच ले कर डुबकी लगाकर बाहर निकली। तट पर खड़े बच्चों को लिया और बाहर मुस्कराते हुए रिक्शा पर सवार होकर बच्चों से कहने लगी…. “बेटा कीचड़ में ही कमल खिलता है। देखो तट के किनारे कीचड़ में लगे कमल के पुष्पों को।”

दोनों बच्चे इस बात को समझ ना सके। परंतु, आज मम्मी का उत्साह से भरा उनका सुंदर दमकता हुआ चेहरा उनको बहुत अच्छा लगा।

दोनों बच्चों को बाहों में लिए कमल चली जा रही थी, एक नए विश्वास की डगर पर।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

Cycle Thief                   

सत्तर के दशक में इस शीर्षक से अंग्रेजी फिल्म देखी थी। फिल्म श्याम और श्वेत काल खंड की थी।  

विश्व के सबसे समृद्ध कहे जाने वाले देश अमेरिका में एक साइकिल को सांकल से बांध कर रखा हुआ देखा तो मानस पटल में ये विचार आया की यहां भी लोग अभी तक साइकिल की चोरी/ उठाई गिरी करते हैं। ऐसी संपन्न अर्थव्यवस्था वाले देश की स्थिति भी हमारे देश जैसी ही है।

यहां साइकिल को मेट्रो ट्रेन और बस में लेकर जाने की भी सुविधा हैं। हमारे देश में भी तो दूध विक्रेता ट्रेन की खिड़की में साइकिल और दूध के भरे डिब्बे लटकाकर एक गांव से दूसरे गांव ले जाते हैं। ये उनकी रोजी-रोटी अर्जित करने का साधन हैं।

स्थानीय जानकारी प्राप्त हुई की यहां पर अधिकतर लोग साइकिल को स्वयं ही कसते (असेंबल) हैं, क्योंकि दुकान में इस कार्य के लिए बहुत अधिक शुल्क लिया जाता है।

साइकिल के दाम अधिक होने से यहां पर भी पुरानी साइकिल का बाज़ार हैं। किराये की साइकिल को एक स्थान से लेने के पश्चात किसी अन्य स्थान पर भी छोड़ा जा सकता है।

(भारत में भी अब कुछ मेट्रो शहरों में साइकिल रेंट सेवाएं उपलब्ध हैं। आप अपने नजदीक उपलब्ध ऑन लाइन साइकिल सेवाएं मोबाईल अप्प की मदद से ले सकते हैं।)

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #156 ☆ नक्षत्रांचे फुलणे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 156 ?

☆ नक्षत्रांचे फुलणे…

समर्पणाच्या तेलामधल्या लावु प्रीतिच्या वाती

लैला-मजनू सोबत व्हावी तुझी नि माझी गणती

 

पुनवेच्या या चांदण रात्री नक्षत्रांचे फुलणे

फांदीवरच्या कळ्या फुलांचे आनंदाने झुलणे

भल्या पहाटे दवात भिजुनी तुझ्यासारख्या नटती

 

मेंदीसोबत हात फुलांचे छान रंगले होते

फांदीसोबत जडले होते जन्मभरीचे नाते

तुझ्याचसाठी या नात्याला पहा लागली गळती

 

मातृत्वाचा स्पर्श सोडुनी तुझ्यासोबती आले

जन्मोजन्मी या संसारी तुझीच रे मी झाले

तुझ्या घराचा दिवा लावण्या जळत राहिली पणती

 

वृक्ष बहरला नवीन फांद्या नव्या युगाची नांदी

इतिहासाच्या पानांवरती व्हाव्या याच्या नोंदी

या प्रीतीची नोंद रहावी नव्या पिढीच्या हाती

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 8 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 8  ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

संतसाहित्य,  संतवाडॄमय , सद्गुरूंची चरित्रे,  देवदेवतांच्या पोथीवाचन हा एक वेगळाच अनुभव असतो. हे वाचन करताना दैवी लीला, सद्गुरुंचा शाब्दिक दिलासा आणि त्यानुसार येणा-या अनुभवांनी,  प्रीतीने मन भारावून जाते. ह्रदय भरून येते. नकळत डोळे पाझरू लागतात. ते पाणी असतं कृतज्ञतेचं. आस्तिकतेला आश्वस्त करणारं, श्रद्धा अधिक दृढ करणारं. ह्रदयस्थ आत्मा  अश्रूंच्या रूपाने गुरुचरणावर लीन होतो.  हा अनुभव वर्णनातीत आहे. तो ज्याचा त्यानंच अनुभवायचा असतो.

असं हे डोळ्यातलं पाणी म्हणजे भावना व्यक्त करण्याची भाषा. दुःख, यातना, वेदना, राग, प्रेम, ममता, असूया, विरह, कृतज्ञता,  अगतिकता अशा अनेक भावनांचं मूर्त स्वरूप.

” प्रेमस्वरूप आई वात्सल्यसिंधू आई……” हे गाणं ऐकताना केव्हा मी रडायला लागते तेच कळत नाही.  दुस-याच्या डोळ्यात पाणी बघून आपले डोळे भरून येतात.

परजीवास्तव जेथ आतडे

कळवळुनी येई

त्या ह्रदयाविण स्वर्ग दुजा या

ब्रम्हांडी नाही

रडणं ही क्रिया म्हणा किंवा भावना म्हणा , अगदी नैसर्गिक आहे.  हसण्याच्या  वेळी मनमुराद हसावं, तसंच मनमोकळेपणाने रडावं. आरोग्यासाठी दोन्ही चांगलं ! मोकळेपणाने हसता न येणं किंवा रडताही न येणं यासारखी निराशेची आणि लाजिरवाणी गोष्ट दुसरी नाही .

अर्थात काही जणांना उगीचच रडण्याची सवय असते. सतत तक्रार,  सतत रड.अशावेळी

” सुख दुखतःय” हा शब्दप्रयोग योग्य वाटतो. वरवरचे अश्रू म्हणजेच नक्राश्रू. काही जण दुसरा रडत असेल तर तायाला हसतात, चिडवतात. काही जणांना दुस-याला दुःखी बघून आनंद होतो. या वृत्तीसारखी वाईट गोष्ट दुसरी असूच शकत नाही.

जन्मापासून मृत्यूपर्यंत डोळ्यातलं पाणी मन, भावना,  यांचं खरेपण व्यक्त करत असतं.पुरूषांपेक्षा स्त्रियांचं मन हळवं असतं हा एक सर्व साधारण समज आहे. पुरूषांनी रडायचं म्हणजे अगदी बायकी पणाचं वाटतं हाही एक ” समजच ” आहे.पण तो योग्य नाही. एखादा कलाकार, पुरूष असो किंवा स्त्री,  आपली कला रंगमंचावर सादर करताना जर भूमिकेशी समरस झाला तर खोट्या अश्रूंसाठी ग्लिसरीन वापरण्याची गरज पडत नाही. त्याचं संवेदनाशील मन त्याला साथ देतं.  तोच अभिनय खरा असतो, आणि तोच प्रेक्षकांवर परिणाम करतो. म्हणून मन संवेदनशील असणं व ते तद्रूप होणं गरजेचं असतं.

(क्रमशः… प्रत्येक मंगळवारी)

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 106 – गीत – हो हृदय के पास… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके गीत – हो हृदय के पास…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 106 – गीत – हो हृदय के पास✍

शपथ है उन सात फेरों की

है शपथ संझा-सबेरों की

है साक्षी आकाश,

मत तोड़ना विश्वास।

हो हृदय के पास।

*

याद है वह दिन तुम्हें

जाँचे बिना ही व्याह लाया था

अब कहूँ क्या और ज्यादा,

मैं समंदर थाह लाया था।

*

रतन से ज्यादा तुम्हें पाया,

जिंदगी को गीत – सा गाया

मत तोड़ना विश्वास

साक्षी आकाश

हो हृदय के पास ।

*

देवता की बात छोड़ो

आदमी से भूल होती है

निर्मली आकाश के भी पाश में

कुछ धूल होती है

धूल को तुमने हटाया है

रंग मेरा निखर आया है

मत तोड़ना विश्वास

साक्षी आकाश

हो हृदय के पास ।

*

कवि हृदय को बाँचना भी एक मुश्किल काम होता है

आँख उसकी भिखारिन इसलिए बदनाम होता है।

जो सजाई फूल क्यारी है, सम्मिलित खुशबू हमारी है

मत तोड़ना विश्वास

साक्षी आकाश

मैं हृदय के पास

हो हृदय के पास।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 108 – “नदिया का तर्क…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –नदिया का तर्क।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 108  ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “नदिया का तर्क”|| ☆

बादल दिखें जैसे

थान मारकीन के

कुछ फैले नभ की

दूकानमें,

लगते कटपीस

पापलीन के

 

हवा बहिन क्रय करने

आती बाजार में

पढ़ कर विज्ञापन को

ताजा अखवार में

 

रिमझिम वाली यहाँ

खरीदी परमुफ्त मिलें

दो डिब्बे कीचड़

से बनी बेसलीन के

 

नदिया का तर्क

नये रंग व डिजाइन के

छापे- पैटर्न रखो

चीड़ व बकाइन के

 

झाडियाँ जँचेंगी क्या

सोचकर बताओ तो

कुर्ते या टॉप पहिन

बिना आस्तीन के

 

भारी बरसात और

बाढ़ के आसार यहाँ

ऐसे में पुल चिन्तित

जायें तो जायें कहाँ

 

गड्ढों की बोतल ले

सड़कें उदास दिखीं

भूल गई घर बारिश

पैकेट नमकीन के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

21-07-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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