☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ – ऋचा ९ व १० ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ ऋचा ९ व १०
देवता : अग्नि
आज मी आपल्यासाठी मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अग्नि देवतेला उद्देशून रचलेल्या ऋग्वेदाच्या पहिल्या मंडळातील बाविसाव्या सूक्तातील नऊ आणि दहा या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.
मराठी भावानुवाद :
अग्ने॒ पत्नी॑रि॒हा व॑ह दे॒वाना॑मुश॒तीरुप॑ । त्वष्टा॑रं॒ सोम॑पीतये ॥ ९ ॥
अग्निदेवा ऐका आर्त अमुची ही प्रार्थना
त्वष्टादेवा सवे घेउनीया सोमप्राशना
देवपत्निही सिद्ध जाहल्या यज्ञी साक्ष व्हाया
यागास्तव हो त्यांना संगे यावे घेऊनिया ||९||
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आ ग्ना अ॑ग्न इ॒हाव॑से॒ होत्रां॑ यविष्ठ॒ भार॑तीम् । वरू॑त्रीं धि॒षणां॑ वह ॥ १० ॥
अग्निदेवा हे ऋत्विजा कृपा करी आता
घेउनि या देवी सरस्वती धीषणा वरुत्रा
चिरयौवन त्या असती जैशी सौंदर्याची खाण
बलशाली ही करतिल अमुचे सर्वस्वी रक्षण ||१०||
☆
(या ऋचांचा व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)
☆ मी आले, निघाले, सजले फुलले, फुलपाखरू झाले… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆
… ” अगं ये! ऐकलसं का? आमच्या ऑफिसची पिकनिक निघालीय येत्या शुक्रवारी रात्री लोणावळयाला. आणि रविवारी रात्री उशिरापर्यंत परत येणार आहे, चांगले दोन दिवस मौजमजा करुन. तेव्हा जाताना मला भडंग आणि कांदे मिरच्या बांधून देशील.. आम्ही प्रत्येकाने काय काय खाणं आणायचं तेही वाटून घेतलयं बरं.. तुला उगाच करत बसायला त्रास पडायला नको म्हणून अगदी बिना तसदीचं मी ठरवून घेतले आहे.. थंडी फार असेल वाटते आता तिकडे तेव्हा माझे स्वेटर्स, पांघरूण शिवाय दोन दिवसाचे कपडे देखील बॅगेत भरून देशील..बऱ्याच वर्षांनीं पिकनिक निघतेय. तेव्हा मी न जाऊन चालेल कसे?.. “
“.. हे काय मी एव्हढ्या उत्साहाने तुला सांगतोय आणि तू हाताची घडी घालून डोळे बंद करुन हसत काय बसलीस? कुठल्या स्वप्नात दंग झाली आहेस? मी काय म्हणतोय ते ऐकतेस आहेस ना?.. “
” हो हो डोळे बंद असले तरी कान ऊघडे आहेत बरं! झालं का तुमचं सांगुन? का आणखी काही शिल्लक आहे? नसेल तर मी आता काय सांगते ते ऐका! काय योगायोग आहे बघा! आमची महिला मंडळाची सुद्धा पिकनिक निघालीय याच शुक्रवारी रात्री लोणावळयाला,आणि रविवारी रात्री उशिरापर्यंत परत येणार आहे, चांगले दोन दिवस मौजमजा करुन. बऱ्याच वर्षांनीं पिकनिक निघतेय. तेव्हा मी न जाऊन कसे चालेल ?. आम्हा बायकांना तुम्ही पुरुषांनी संसाराच्या चक्रात बांधून पिळून काढत आलात.. फक्त नोकरी आणि तिच्या नावाखाली आजवर आम्हाला वेठीस धरलंय तुम्ही.. रांधा वाढा घर सांभाळा, आलागेला, पोरबाळं आणि गेलाबाजार सासूरवाडीचा बारदाना झेला.. यातच आमचा जन्म वाया गेला… कधी तरी हौसमोज करायची होती.. मेली काटकसर आमच्या नशीबी पाली सारखी चिकटली ती काही सुटायचं नाव घेईना.. साधं माहेरला चार दिवस जाऊन निवांत राहिन म्हटलं तरीही ते जमेना… या उसाभरीत तो जीव कातावून गेला मग आमच्या महिला मंडळाने हा स्व:ताच पुढाकार घेतला.. आम्ही सगळया झाडून पिकनिकला जातोय म्हटलंय.. अगदी एकेकीने पदार्थ पण वाटून घेतलेत.. तयारीसुद्धा सुरू झाली… मी तुम्हांला सांगणारच होते पण म्हटलं तुम्ही काही शनिवारी रविवारी घर सोडून जाताय कुठे? जायच्या आधी एक दिवस कानावर घालू मग जाऊ.. “
“.. तेव्हा लेडीज फस्ट या न्यायाने मी पिकनिकला जाणार हे नक्की.. तुमची यावेळची पिकनिक पुढे ढकला.. नि मला पिकनिकला जायाला जरा मदत करा… आणि हो एक महत्त्वाचं या पिकनिकच्या दिवसात तुम्ही घर सांभाळणार आहात कुठलीही कुरबुर न करता समजलं.. मला कसे जमेल म्हणायचा आता प्रश्नच येत नाही.. संसाराला आता पंचवीसहून अधिक वर्षे लोटली..आता येथून पुढे संसाराची अर्धी जबाबदारी तुम्हालाही द्यायची ठरली… “
“अहो असं काय बघताय माझ्या कडे डोळे विस्फारून.? मी काही चालली नाही तुम्हाला सोडून.!. आता पन्नास टक्के हक्काचे अधिकार आमचेही आहेत त्याचाच लाभ घेणार.. आमच्या मंडळाने ही जागृती केली.. आणि आणि आम्ही सगळया बायकांनी ती आता अंमलात आणायला सुरुवात केली.. तिचा पहिला उपक्रम हि पिकनिक आहे.. तेव्हा बंच्चमजी तुम्ही इथंच थांबायचं आणि मी एकट्याने पिकनिकला जायचं.. “
मी आले, निघाले, सजले फुलले, फुलपाखरू झाले.. वेग पंखाना आला जसा, आला या लकेरी , घेतली भरारी…
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘बदलेगा बहुत कुछ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 113 ☆
☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा में आज अनामिका की कविता ‘बेजगह‘ पढानी शुरू की –
अपनी जगह से गिरकर कहीं के नहीं रहते,
केश, औरतें और नाखून,
पहली कुछ पंक्तियों को पढ़ते ही लड़कियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लड़कों पर कोई असर नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ शिक्षिका पढ़ती है –
लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं,
उनका कोई घर नहीं होता।
शिक्षिका कवयित्री के विचार समझा रही थी और क्लास में बैठी लड़कियां बेचैनी से एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लड़के मुस्करा रहे थे। कविता आगे बढ़ी –
कौन सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी
एकदम बुहार दी जाने वाली।
एक लड़की ने प्रश्न पूछने के लिए हाथ ऊपर उठाया- मैडम! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?
हाँ – शिक्षिका ने शांत भाव से उत्तर दिया।
एकदम से कई लड़कियों के हाथ ऊपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा– कचरा थोड़े ही है?
शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर, बुहारकर घर से बाहर कर दिया गया था। किसी के मन – मस्तिष्क को बड़े योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खड़ी थी। उसे एक दिन पति ने बड़ी सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ —–
मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।
हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे ? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं, इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करें, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ – शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ –
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बेबसी का राग…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 141 ☆
☆ बेबसी का राग… ☆
जो चलना शुरू कर देगा वो अवश्य ही रास्ता बनाता जाएगा। राह और राही का गहरा नाता होता है। जिस रंग की तलाश आप अपने चारों ओर करते हैं कुदरत वही निर्मित करने लगती है। यही तो आकर्षण का प्रबल सिद्धांत है। इसे ससंजक बल भी कह सकते हैं जिससे तरल की बूंदे जुड़कर शक्तिशाली होती जाती हैं। बल कोई भी हो जोड़- तोड़ करने में प्रभावी होता है, अब देखिए न सारे लोग एक साथ चलने को आतुर हैं किंतु पहले कौन चलेगा ये तय नहीं कर पा रहे। जनता जनार्दन तो मूक दर्शक बनने की नाकाम कोशिश करते हुए, पोस्टरों को देख कर मुस्कुराते हुए कह देती है जब आपके पास कोई चेहरा ही नहीं है? तो मोहरा बनते रहिए। खेल और खिलाड़ी अपनी विजयी टीम के साथ मैदान में उतरेंगे और एक तरफा मैच खेलते हुए विजेता बनकर हिन्द और हिंदी का परचम विश्व में फैलाएंगे।
कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है। जब सभी आपकी ओर विश्वास भरी नजरों से देख रहें हों तो विश्वास फलदायकम का नारा बुलंद करते हुए सुखद अहसास होने लगता है। विचारों की शक्ति जिसके पास नहीं होगी, साथ ही कोई लिखित साझा कार्यक्रम भी तय नहीं होगा तो बस दिवा स्वप्न ही देखना पड़ेगा। पोस्टर में किसकी फोटो बड़ी होगी, कौन ज्यादा हाईलाइट होगा ये भी भविष्य पर छोड़ना, आपको कैसे ताकतवर बना सकता है।
जरूरत है अच्छी पुस्तकों की जिसे पढ़कर राह के साथी कैसे चुनें इसका अंदाजा लगाया जा सके। चयन हमेशा ही चौराहे की तरह होता है, यदि सही मार्गदर्शक मिला तो मंजिल तक पहुंच जायेंगे अन्यथा चौराहे के चक्कर लगाते हुए आजीवन घनचक्कर बनकर अपनी बेबसी का राग अलापना पड़ेगा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता– बड़ा बेफिक्र कर दिया तुमने …।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता –“कविता– किसे सुनाऊँ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 134 ☆
☆ कविता ☆ “कविता– किसे सुनाऊँ” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 152 ☆
☆ यह अपना नूतन वर्ष है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
(भारतीय नववर्ष विक्रम संवत 2080 के अवसर पर भारतीय नूतन वर्ष पर कोटिशः मंगलकामनाएं)