हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ।)   

☆ आलेख  # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ…  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

स्वयं को पढ़ना सबसे कठिन कार्य है, इसलिए कबीर कह गये कि

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”

ज्ञान अगर पुस्तकों से मिलता तो गौतम बुद्ध ,एल्बर्ट आईंस्टीन और आचार्य रजनीश को किसी विश्वविद्यालय से मिलता, पेड़ के नीचे नहीं. प्रतिभा पुस्तकों से अगर मिलने लगती तो क्रिकेट साहित्य पढ़कर सचिन तेंदुलकर, संगीत शास्र पढ़कर लता मंगेशकर और शतरंज की पुस्तकें पढ़कर आनंद विश्वनाथन हजारों या लाखों की संख्या में आते रहते. ये बात अलग है कि सिर्फ वृक्ष के नीचे बैठने से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता. मूलतः चिंतन, मनन और रिसर्च की प्रवृत्ति के साथ साथ वस्तु, व्यक्ति या घटनाओं का ऑब्जरवेशन महत्वपूर्ण है.

Creativity is important rather than copy and paste.

शायद इसलिए भी रचनाकार वही करिश्मा बार बार नहीं दोहरा पाते क्योंकि वे नया रचने का जोखिम लेने से बचना चाहते हैं. तो जो हिट हुआ है, उसकी सीरीज़ बनाते रहते हैं और पैसे कमाते रहते हैं पर ये तो वणिकता है, रचनात्मकता नहीं.

पुस्तकें जानकारियों का संग्रह होती हैं जैसे कि आज के युग में गूगल. पर अविष्कार की ताकत न गूगल में है न ही पोथियों में. वे तो एक बार ही सजीव थीं जब लिखी गईं पर फिर तो जड़ हो गईं और उनसे ज्यादा जड़ता तो उनमें है जो आँख बंद कर वही पढ़े जा रहे हैं, वही रटे जा रहे हैं और वही बोले जा रहे हैं. उससे आगे सोचना बंद कर वही पर्याप्त है ऐसी धारणा बना चुके हैं. ऐसे जड़ लोगों से बेहतर तो वायरस हैं जो अपने आपको निरंतर अपडेट करते रहते हैं. ओमिक्रान, कोरोना का अपडेट है. मनुष्य जब तक वेक्सीन बनाकर, टेस्ट करने के बाद पूर्ण वेक्सीनेशन तक पहुंचेगा, उससे पहले ही ये अपना अगला वरस  वर्जन लेकर मार्केट में आ जाते हैं. तुम डाल डाल हम पात पात. हमारे पास तो कहावतें भी पीढ़ियों पुरानी हैं.

सनातन का प्रयोग तो धर्म नामक शब्द के साथ ज्यादा प्रचलित है जिसका भावार्थ यही है कि जो सदा नूतन हो, नदी के समान प्रवाहित होता रहे न कि कुंये के समान जड़ रहे.  कुयें की इसी जड़ता से शब्द बना है “कूपमंडूकता ” गहरा पर चारों तरफ से घिरा हुआ. याने बंधन, प्रोटोकॉल, सीमा को ही अंतिम क्षमता मान लेने की मानसिकता. इसलिये ही कुएं की नहीं नदियों की पूजा होती है, उन्हें माता का सम्मान दिया जाता है, पवित्रता का पर्याय माना जाता है,  स्थिरता नहीं बल्कि प्रवाह, निरंतरता, नूतनता ही सम्मान पाते है. क्योंकि ये सीमाओं के बंधनों से मुक्त हैं. संपूर्ण अंतरिक्ष गतिशील है और समय भी.ये गतिशीलता ही जीवन है और जीवन का सत्य भी. Move on बहुत नयी तो नहीं पर बहुत पुरानी कहावत भी नहीं है.

सुप्रभात, आपके जीवन में नूतनता से भरा दिवस शुभ हो.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 159 ☆ नातं ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 159 ?

☆ नातं ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

“अकारणच जवळीक दाखवली!”

असे वाटून जाते,

आजकाल!

 

निष्कारणच Attitude दाखवत,

निघून गेलेली ती…..

रिक्षात बसल्यावर ,

कसा करेल इतक्या प्रेमाने आपल्याला हात??

हे लक्षात यायला हवं होतं !

पण प्रतिक्षिप्त क्रियेसारखा….

उंचावला जातो हात…

पण तिचं पुढचं वाक्य ऐकून जाणवतं,

अरे, ती इतर कुणाशी बोलतेय,

 आपल्या पाठीमागे असलेल्या !

 

किती फसवी असतात ना,

ही नाती??

काल परवाच सांगितले,

गूज मनीचे,

पाश असतात कुठले, कुठले !

शेअर केल्या काही गोष्टी,

की , शांत होते मन!

आणि गळामिठी घातलीच जाते,

त्या “हमराज” मैत्रीणीला !

 

 पण नाती रहात नाहीत

आता इतकी निखळ,

पूर्वीही व्हायच्याच कुरबुरी…भांडणं

रूसवेफुगवे!

…..पण आजकाल दर्प येतात,

अहंकाराचे!

याच प्रांगणात खेळ सुरू झाले होते…

पण “जो जिता वही सिकंदर”

म्हणत पहात रहायची लढाई,

बेगुमान!

या युद्धात सहभागी व्हायचेच

नसतेच खरेतर!

पण युद्ध अटळ मैत्रीतही !

जो तो समजत असतो,

 स्वतःला रथी महारथी ! ….नसतानाही !

आपण सांगून टाकतो

आपले अर्धवट ज्ञान…

म्हणूनच आपला होतोच,

अभिमन्यू!

मैत्रीच्या नात्यातही !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 115 – गीत – क्षण को क्यों बचा लिया ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत –क्षण को क्यों बचा लिया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 115 – गीत – क्षण को क्यों बचा लिया ✍

अर्पित अगर किया है जीवन

तो क्षण को क्यों बचा लिया।

 

क्षण का ही विस्तार समय है

प्रेम नहीं कुछ केवल लय हैं

विलय अगर कर दिया स्वयं का

तो मन को क्यों बचा लिया?

 

मन का मधुबन ही तो सच है

तन का क्या वह मात्र कवच है

सौंप दिया है मन मधुबन

तो तन को ही क्यों बचा लिया।

 

अर्पित अगर किया है जीवन

क्षण को क्यों बचा लिया।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 117 – “रिस रही है धूप…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “रिस रही है धूप।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 117 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “रिस रही है धूप” || ☆

खास जरदोजी

चिकन के

हम बँधे हैं फूल

चोटी में रिबन के

 

जहाँ अम्बर व

वनस्पति में हँसी है

जो समयकी

शिराओं में जा बसी है

 

हृदय में उल्लास

की उठती तरंगें

बिम्ब हैं लटके गगन

हम पीत दिन के

 

रिस रही है धूप

चुपचाप छप्पर से

हो रही है भीड़

वापस इस शहर से

 

बिखरती जूड़े से

व्यव्हल रोशनी

केश फैले ज्यों दिखे

हों नव किरन के

 

ताँम्बियाँ संध्या

बदल कर नई साड़ी

खींचने में लगी

दिन की बड़ी गाड़ी

 

औरअस्ताचल

पहुँच कर खोजती

कुन्तलों में छोर

खोंसी गई पिनके

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 164 ☆ “खंभों पर सवार चापलूसी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य–“खंभों पर सवार चापलूसी”)

☆ व्यंग्य # 164 ☆ “खंभों पर सवार चापलूसी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

शहर के बिजली खंभों को देखकर कभी कभी दया आ जाती है, कभी कभी लगता है खंभे न होते तो चापलूसों का जीवन जीना मुश्किल हो जाता। खंभो का मुफ्त उपयोग दो ही प्राणी करते हैं.. एक चापलूस , दूसरे कुत्ते। बड़े घर का कुत्ता जब बंगले के बाहर मेडम के साथ सड़क पर निकलता है तो सड़क पर खड़े बेचारे खंभे पर टांग उठाकर अपनी भड़ास निकाल देता है। सड़क छाप कुत्ते दिन भर इन बेचारे खंभों को सींचने का काम करते रहते हैं पर खम्भों को किसी से शिकायत नहीं होती, वह चिलचिलाती धूप, कुनमुनाती ठंड और बरसते आसमान के नीचे खड़ा खिलखिलाते हुए खुश रहता है।

बिजली के खंभे बहुउपयोगी होते हैं। बिजली के तारों से कसे हुए ये सबके घरों को रोशन करते हैं, इंटरनेट -केबिल कंपनियां भी अपने तार इनके ऊपर लाद देती हैं, बिजली के खंभे चापलूसों के लिए बड़े काम के होते हैं, शहर में नेताओं का आगमन-प्रस्थान हो, नेता जी का जन्मदिन हो, झूठ-मूठ का आभार प्रदर्शन हो, ऐसे सब तरह के फ्लेक्स लटकाने के लिए शहर के बिजली के खंभे चापलूसी करने के लिए काम के होते हैं, एक फ्लेक्स हटता नहीं और दूसरा आकर लटक जाता है। शहर में कोई न कोई नेता आता ही रहता है, खंभों ने लदना सीख लिया है, एक मंत्री हर हफ्ते राजधानी से हवाई जहाज में लद के पत्नी से मिलने आते और चमचों को खबर कर देते, चमचे प्रेस विज्ञप्ति देते लोग चापलूसी करने बैनर खंभों पर टांग देते, हवा से कई बार बैनर आधा लटक जाते फिर मोहल्ले के कुत्ते उसमें लघुशंका करते। बैनर फ्लेक्स लगाने वाले छुटकू नेता कभी कभी सोचते भी थे कि खंभे नहीं होते तो क्या होता ? नगर निगम चाहे तो बैनर फ्लेक्स लटकाने वालों से जुर्माना भी वसूल कर सकती है पर बैनर फ्लेक्स लटकाने वाले छुटकू चिपकू नेता सत्ताधारी पार्टी के चमचे होते हैं इनसे वसूल करोगे तो बात चाचा मामा तक पहुंच जाएगी, और नगर निगम के अफसरों के ऊपर खंभा गाड़ दिया जाएगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 106 ☆ # खाली हाथ जाना है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#खाली हाथ जाना है…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 106 ☆

☆ # खाली हाथ जाना है… # ☆ 

जीवन की आपाधापी में

क्या खोना क्या पाना है

जन्म लिया है इस धरती पर

तो सब को एक दिन जाना है

 

कांटों को सहलाओ तुम

फूलों सा मुस्कराओ तुम

जीवन जो मिला है तो

परोपकार में लगाओ तुम

 

स्वर्ग यहीं है नरक यहीं है

कर्म भाग्य की रेखा है

पाप, पुण्य सब साथ है तेरे

कल को किसने देखा है

 

जब तक सांस चलेगी तब तक

हर पल एक जिज्ञासा है

कभी खुशी तो कभी गम है

यही जीवन की परिभाषा है

 

कैसा घमंड, कैसा अहंकार

यह तो सब फानी है

याद रहते हैं वहीं दुनिया में

जिनकी सबसे अलग कहानी है

 

धन संपदा, पद प्रतिष्ठा

यहीं पर रह जाना है

खाली हाथ आया था जग में

खाली हाथ ही जाना है/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 107 ☆ हे विश्वची माझे घर…. ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 107 ? 

☆ हे विश्वची माझे घर… ☆

हे विश्वची माझे घर

सुबुद्धी ऐसी यावी 

मनाची बांधिलकी जपावी.. १

 

हे विश्वची माझे घर

औदार्य दाखवावे 

शुद्ध कर्म आचरावे.. २

 

हे विश्वची माझे घर

जातपात नष्ट व्हावी 

नदी सागरा जैसी मिळावी.. ३

 

हे विश्वची माझे घर

थोरांचा विचार आचरावा 

मनाचा व्यास वाढवावा.. ४

 

हे विश्वची माझे घर

गुण्यगोविंदाने रहावे 

प्रेम द्यावे, प्रेम घ्यावे.. ५

 

हे विश्वची माझे घर

नारे देणे खूप झाले 

आपले परके का झाले.. ६

 

हे विश्वची माझे घर

वसा घ्या संतांचा 

त्यांच्या शुद्ध विचारांचा.. ७

 

हे विश्वची माझे घर

`सोहळा साजरा करावा 

दिस एक, मोकळा श्वास घ्यावा.. ८

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग-४४ – ते … पाच आठवडे ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग – ४४ – ते … पाच आठवडे ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

आलीया भोगासी असावे सादर ! केव्हढा मोठा धक्का? ज्या सर्वधर्म परिषदेत भाग घ्यायला अमेरिकेत आलो ते ध्येय च साध्य होणार नाही? आपल्यासाठी सर्व शिष्यांनी एव्हढी धडपड केली ती सर्व व्यर्थ जाणार? मनातून स्वामीजी नक्कीच खूप अस्वस्थ झाले असतील. आपलीही चूक त्यांच्या लक्षात आली. म्हणजे या विषयीचं अज्ञान जाणवलं. कारण सर्वधर्म परिषद भरवण्याची योजना गेली दोन वर्ष चालू होती. जगातले सर्व प्रमुख धर्म, पंथ,संप्रदाय त्या त्या धर्माच्या विविध संस्था यांच्याशी पत्रव्यवहार चालू होता. त्यामुळे त्या त्या देशासाठी समित्याही स्थापन झाल्या होत्या. एव्हढच काय भारतासाठीही समिति झाली होती. पण याची तिळभरही कल्पना स्वामीजींना आणि त्यांच्या शिष्यांना नव्हती. शिवाय अशी अधिवेशने कशी भरतात,त्याची पद्धत काय असते, हे ही माहिती नव्हते. शिष्यांनाही वाटलं की एकदा अमेरिकेला पोहोचले की पुढचं सगळं आपोआप होईल. या त्रुटी लक्षात आल्या. आणखी एक महत्वाचं कारण होतं, या धर्म परिषदेसाठी केलेल्या भारतीय समितीत परंपरांबरोबर धर्माला विरोध करणारे ब्राह्म समाजाचे आणि सामाजिक सुधारणेचे पुरस्कर्ते होते. की जे स्वामीजींना पण ओळखत होते. त्यांनी महाबोधी समिति आणि जैन समिती च्या प्रतींनिधींना परवानगी दिली होती. भारतातला प्रमुख धर्म हिंदू असला तरी त्याच्या प्रतिनिधित्वाबद्दल विचार केला गेला नव्हता. दुर्दैवच म्हणावं.

परिषदेला अजून वेळ होता तोवर शिकागोतले हे थंडीचे दिवस कसे निघणार?जवळचे पैसे तर भरभर संपत होते. आता सर्वात गरज होती ती पैशांची. थंडीसाठी गरम कपडे घेण्यासाठी शंभर डॉलर्स लागणार होते. स्वामीजी हताश झाले त्यांनी अलसिंगा ना तार केली, ‘सर्व पैसे संपत आलेत उपाशी राहण्याची वेळ आली आहे’. मद्रासला अलसिंगा यांनी भरभर वर्गणी गोळा करून तीनशे रुपये आणि मन्मथनाथ यांनी पाचशे रुपये पाठवले.’ एका दुर्बल क्षणी’ आपण तार केली असे त्यांनी पत्रात म्हटले. पण त्यांचा निर्धार पक्का होता काही झाले तरी मागे हटायचे नाही. परिषदेत भाग घ्यायचाच.

इथली व्यवस्था लागेपर्यंत स्वामीजी वेळ सत्कारणी लावत होते. तिथे जे औद्योगिक प्रदर्शन भरलं होतं ते पहायला रोज जात. ते अवाढव्यच होतं. सातशे एकर जागेवर ते उभं केलं होतं. या कामासाठी दोन वर्ष, सात हजार मजूर काम करत होते. सातशे जखमी झाले, अठरा मृत्यूमुखी पडले. यावरून त्याच्या भव्यतेची कल्पना येते. त्यात वेगवेगळे विभाग होते, रचना सुंदर होती. अडीच कोटीहून अधिक लोकांनी याला भेट दिली होती. यात विज्ञानातील अद्ययावत संशोधन, त्याचा उपयोग, यंत्रे उपकरणे, हे सर्व मांडलं होतं. यातलं मानवाची बुध्दी आणि कर्तृत्व स्वामीजींना आकर्षित करणारं होतं. त्यांना ते आवडलं होतं. ते आठवडाभर रोज बघायला जात.

त्या प्रदर्शनात स्वामीजींना अनेक अनुभव आले. अमेरिकन वृत्तपत्राची नीतीमत्ता कशी याचा अनुभव आला.  कपूरथळयाचे महाराज प्रदर्शनात फिरत होते. पहिल्याच दिवशी प्रदर्शनात एक वार्ताहर एका भारतीय माणसाची मुलाखत घेत होता, तो भारतीय लोकांची अवस्था सांगू लागला, दुसर्‍या दिवशी वृत्तपत्रात ‘ हा महाराज दिसतो तसा नाही ,तो हलक्या जातीचा आहे, हे सर्व राजे ब्रिटीशांचे गुलाम आहेत, ते नैतिकतेने वागत नाहीत असं काही स्वामीजींना उद्देशून सनसनाटी वृत्त दिले, भारतातील एक विद्वान प्रदर्शनास भेट देतो अशी स्तुति करून, ते न बोललेली वाक्ये त्यांच्या तोंडी घातली होती.

त्यांच्या वेषामुळे सर्वांच लक्ष वेधलं जायचं. प्रदर्शन पाहता पाहता एकदा तर मागून कुणीतरी त्यांच्या फेट्याचं टोक ओढलं. स्वामीजींनी मागे वळून इंग्रजीतून आपली नाराजी व्यक्त केली. तसे, सद्गृहस्थ स्वामीजीना इंग्रजी येतं हे ऐकून, वरमून म्हणाले तुम्ही असा पोशाख का करता? कुतूहल म्हणून कुणी विचारलं तर ठीक, पण असा मागून ओढणं हा असभ्यपणाच. प्रदर्शन पाहताना एकदा गर्दीत तर त्यांना मागून ढकललं आणि मुद्दाम धक्का पण मारला गेला होता. असाही अनुभव त्यांना आला. वरच्या वर्गातील सुशिक्षित लोक असे वागतात याचं त्यांना आश्चर्य वाटलं.

बोस्टनला तर आणखीनच वाईट अनुभव. स्वामीजी रस्त्यावरून जात असताना त्यांना आपल्या मागून कुणीतरी येत असल्याचा भास झाला. त्यांनी मागे वळून पाहिले तर, काही मुलांचा आणि मोठ्या माणसांचा जमाव मागून येत असल्याचे दिसले ते पाहून स्वामीजी वेगात चालू लागले, तसे ते ही लोक वेगात आले. क्षणात आपल्या खांद्यावर काहीतरी आदळलं  हे कळताच स्वामीजी धावत सुटले आणि अंधार्‍या गल्लीत नाहीसे झाले. थोड्या वेळाने मागे पहिले तर तो जमाव निघून गेला होता. स्वामीजींनी सुटकेचा निश्वास टाकला. स्वामीजींना लक्षात आली पाश्चात्य देशातली वर्णभेदाची विषमता. समतेचं तत्व पाश्च्यात्यांकडून शिकावं असं भारतात अनेक वर्ष शिकवलं जात होतं. तिथेच हे अनुभव आले. पाश्चात्य संस्कृतीतल्या गुणदोषांची आल्या आल्याच जवळून ओळख होत होती. स्वामीजींवरील हा हल्ला परदेशात झाला होता . इथे प्रकर्षाने आठवण झाली ती नुकत्याच पालघर मध्ये झालेल्या निर्दोष साधूंच्यावरील हल्ल्याची. त्यात त्यांना प्राणास ही मुकावे लागले. जी सर्वसामान्य प्रत्येक माणसाला प्रचंड धक्का देणारी होती. आपल्याच देशात घडलेली ही घटना समता बंधुत्वाबद्दल काय सांगते?

आता विवेकानंदांना आर्थिक अडचण सोडवण महत्वच होतं. बोस्टनला राहील तर स्वस्त पडेल असं कळल्याने ते तिकडे जाण्याचं प्रयत्न करू लागले. स्वामीजी प्रथम जहाजातून व्हंकुव्हरला उतरून शिकागोला जाणार्‍या कॅनेडियन पॅसिफिक या गाडीत बसले तेंव्हा, स्वामीजिंना भेटलेल्या केट सॅंनबोर्न यांनी पत्ता दिला होता तो बोस्टन जवळचा होता. या पहिल्याच भेटीत ओळख झालेल्या स्वामीजींचं वर्णन करताना त्यांनी म्हटलंय की, “रेल्वेत मी विवेकानंदांना प्रथम पाहिलं, त्यांचे रुबाबदार व्यक्तिमत्व हा पौरुषाचा एक उत्तुंग आविष्कार होता. त्यांचे इंग्रजी माझ्यापेक्षाही अधिक चांगले होते. प्राचीन आणि अर्वाचीन साहित्याशी त्यांचा परिचय होता. शेक्सपियर किंवा लॉङ्गफेलो किंवा टेनिसन, डार्विन, मूलर, आणि टिंडॉल यांची वचने त्यांच्या मुखातून अगदी सहजपणे बाहेर पडत होती. बायबलमधील उतारे त्यांच्या जिभेवर होते. सारे धर्म आणि संप्रदाय याची त्यांना माहिती होती आणि त्या सर्वांविषयीची त्यांची दृष्टी सहिष्णुतेची होती. त्यांच्या सान्निध्यात असणे हेच एक शिक्षण होते”.असा ठसा त्यांच्या मनात पाहिल्याच भेटीत उमटला होता. ही एक चांगली आनंद देणारी बाब होती.

विवेकानंदांनी केट सॅंनबोर्न यांच्याकडे जाण्याचं ठरवलं आणि शिकागोहून रेल्वेने बोस्टनला आले. विश्रांगृहात थांबून त्यांनी आल्याची तार केली त्याला उत्तर आलं की, ‘आजच्या दुपारच्या गाडीने तडक इकडे या’. तिथून त्यांचे घर चाळीस किलोमीटर वर गूसव्हिल इथे होते. त्या स्वता विवेकानंदांना घ्यायला आल्या आणि त्यांना घरी घेऊन गेल्या. इथूनच सुरू झाला त्यांच्यासाठी अनुकूल घटनांचा काळ.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 38 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 38 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

५९.

पानांपानांवर नाचणारा हा सोनेरी प्रकाश,

आकाशात तरंगणारे हे ढग,

माझ्या मस्तकाला थंडावा देत जाणारा हा वारा

हा सारा तुझ्या प्रेमाचा स्पर्श आहे.

 

प्रभात समयीचा हा प्रकाश

माझे डोळे काठोकाठ भरून टाकतो

आणि तुझा संदेश ऱ्हदयात भरून जातो.

 

माझ्या चेहऱ्यावर तुझा चेहरा

वाकलेला आहे,

तुझे डोळे; माझे डोळे निरखताहेत,

माझं ऱ्हदय तुझ्या चरणांवर वाहिलं आहे.

 

६०.

अंतहीन जगाच्या समुद्रकिनाऱ्यावर मुलं भेटतात.

 

त्यांच्या मस्तकावर स्तब्ध अफाट आकाश आहे.

खळखळणारं चंचल पाणी आहे.

अंतहीन जगाच्या समुद्रकिनाऱ्यावर

आरडाओरडा करत पोरं नाचतात.

वाळूची घरं बांधतात,शिंपल्यानं खेळतात.

वाळलेल्या पानांच्या नावा बांधून

हसत हसत खोल समुद्रात सोडतात.

जगाच्या किनाऱ्यावर पोरं खेळतात.

 

पोहायला,जाळी फेकायला त्यांना येत नाही.

मोती शोधणारे समुद्रात मोत्यासाठी बुडी मारतात.

व्यापारी त्यांच्या गलबतातून सागर सफर करतात.

पोरं शिंपले गोळा करतात, उधळतात.

समुद्रातील धन- दौलत त्यांना नको,

जाळी पसरणं त्यांना माहीत नाही.

सागर खळाळून हसतो, किनारा अंधुकसा हसतो.

 

पाळण्याच्या लहानग्याला

अंगाई गाणाऱ्या मातेप्रमाणं

लाटा निरर्थक व जीवघेणी कवनं गातात.

सागर मुलांशी खेळतो आणि

किनाऱ्याच्या अस्फुट हास्यात

प्रकाशकिरण चमकतो.

 

अंतहीन जगाच्या सागरकिनाऱ्यावर

मुलं खेळतात.

पंथहीन आकाशात वादळ घोंगावतं,

मार्गहीन सागरात जहाजं फुटतात, बुडतात.

दूरवर मृत्यूचं थैमान चाललंय.

 

किनाऱ्यावर पोरांची भव्य सभा भरलीय.

अंतहीन सागरावर पोरं खेळतात.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #169 ☆ कहानी ☆ नये क्षितिज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी नये क्षितिज। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 169 ☆

☆ कथा कहानी ☆ नये क्षितिज

शुभा अपना हाथ ऊपर उठाकर देखती है। त्वचा सूखी और सख़्त हो गयी है। उम्र का असर साफ दिखता है। शीशा उठाकर देखती है तो बालों में कई अधूरी-पूरी रजत-रेखाएँ दिखायी पड़ती हैं। चेहरा भी सख़्त हो गया है, पहले जैसा चिकनापन और मृदुता नहीं रही। सड़क पर चलते अब लोगों की निगाहें उसके चेहरे पर टिकती नहीं। सरकती हुई दूसरी चीज़ों की तरफ चली जाती हैं, जैसे वह भी सड़क पर चलती हज़ार सामान्य चीज़ों में से एक हो।

घर के बाहर कोने में वह नीम का दरख्त अब भी है जहाँ वह रोज़ सवेरे पिता की कुर्सी के बगल में दरी बिछाकर पढने बैठ जाती थी।  जब हवा चलती तो पत्तियों की सरसराहट से संगीत फूटता। पिता अपना काम-धाम निपटाते रहते और वह अपनी किताब, कॉपी, पेंसिल और स्केल से जूझती रहती। पढ़ने में वह तेज़ थी। कई बार पिता पूछते, ‘पढ़ लिख कर क्या बनेगी तू?’ शुभा का एक ही जवाब होता, ‘डॉक्टर बनूँगी, बाबा।’

पिता कहते, ‘अच्छी बात है। लेकिन पैसा-बटोरू डॉक्टर मत बनना। जिनके पास पैसा नहीं है उनके लिए भी कोई डॉक्टर चाहिए। एक बार मेरे सामने एक बूढ़े ने डॉक्टर से आँख की जाँच करायी। डॉक्टर जब फीस माँगने लगा तो बूढ़ा हक्का-बक्का हो गया। उसे पता ही नहीं था कि आँख की जाँच कराने की फीस लगती है। पैसा भी नहीं था उसके पास। डॉक्टर आगबबूला हो गया। जाँच का कार्ड छीन कर अपने पास रख लिया और बूढ़े को भगा दिया।’

अपनी कॉपी-किताब में उलझी शुभा को पिता की आधी बात समझ में आती है। कहती है, ‘तुम फिकर न करो बाबा। मैं सब का इलाज मुफ्त करूँगी।’

पिता हँसते, कहते, ‘देखूँगा। नहीं तो कान ऐंठने के लिए मैं तो हूँ ही।’

लेकिन पिता शुभा के कान ऐंठने के लिए रहे नहीं। एक दिन अपने भलेपन और भोलेपन की वजह से वे सड़क पर गुंडों से पिटते एक युवक को बचाने पहुँच गये। पचीसों लोग दर्शक बने यह तमाशा देख रहे थे। गुंडों के लिए यह इज़्ज़त का सवाल था। नतीजा यह कि पिता पेट में छुरे का वार झेल पर वहीं सड़क पर लंबे लेट गये और उन्हें वहाँ से तभी हटाया जा सका जब गुंडों ने अपना नाटक पूरा कर भद्र लोगों के लिए मंच खाली किया। सहायता उपलब्ध कराते तक बहुत देर हो चुकी थी।

शुभा को चौबीस घंटे नसीहत देने वाले पिता मौन हो गये और शुभा अचानक मजबूरन बड़ी हो गयी। चीनू और टीनू अभी नादान थे। वही कुछ करने लायक थी। माँ इस आघात से हतबुद्धि हो गयीं। उनका सारा आत्मविश्वास जाता रहा। अब दरवाज़े पर कोई भी आता तो ‘शुभी, शुभी’ चिल्लाकर पूरे घर को सिर पर उठा लेतीं। दुनिया और हालात का सामना करने का उनका सारा बल ख़त्म हो गया। ज़्यादातर वक्त वे अपने कमरे में कुहनी पर सिर रखे, आँखें बन्द किये लेटी रहतीं।

शुभा के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। घर में दो नादान भाई थे जिन्हें पढ़ा-लिखा कर आदमी बनाना था। वर्तमान भले ही बिगड़ गया हो, भविष्य को सँवारना ज़रूरी था, अन्यथा अँधेरे की सुरंग कभी ख़त्म नहीं होगी। वह सवेरे दोनों भाइयों को डाँट-डपट  कर उठा देती और उन्हें  स्कूल के लिए तैयार होने को छोड़ उनके लिए टिफिन-बॉक्स तैयार करने में लग जाती। भाइयों के लिए वह बिलकुल पुलिस-इंस्पेक्टर बन गयी थी। स्कूल से सीधे घर आना ज़रूरी था, और पढ़ाई के घंटों में कोई दूसरा काम दीदी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता था। इस व्यवस्था में अगर माँ भी हस्तक्षेप करतीं तो उन्हें भी डाँट खानी पड़ती।

भाइयों की सब हरकतों पर शुभा की चौकस निगाह रहती थी। वे कहाँ खेलते हैं, किसके साथ उठते बैठते हैं, इसकी मिनट मिनट की खबर उसे रहती थी। जहाँ भी वे खेलते-कूदते वहाँ दीदी एकाध चक्कर ज़रूर लगाती।

एक बार मुसीबत हो गयी जब मुहल्ले के लड़के दोनों भाइयों को सिनेमा ले गये। तीन-चार दिन बाद एक भेदी ने भेद खोल दिया और बात दीदी तक पहुँच गयी। उसके बाद घर में जो लंकाकांड हुआ उसकी याद करके दोनों भाई आज भी सिहर कर माथे पर हाथ रख लेते हैं। शुभा रणचंडी बन गयी थी और माँ के लिए बेटों को उसकी मार से बचाना खासा मुश्किल काम हो गया था। माँ चिल्लातीं, ‘अरे निर्दयी, अब मार ही डालेगी क्या बच्चों को?’ और शुभा जवाब देती, ‘हाँ मार डालूँगी। कम से कम बाबा के जाने के बाद इन्हें आवारा बनाने का कलंक तो नहीं लगेगा।’

शुभा का क्रोध भाइयों तक ही सीमित नहीं रहा। उसके बाद वह मुहल्ले के दादा प्रेम प्रकाश पर भी टूटा जिनकी अगुवाई में यह टोली सिनेमा देखने गयी थी। शुभा छड़ी लेकर पागलों की तरह पिल पड़ी और प्रेम प्रकाश का सारा प्रकाश-पुंज उस दिन बुझ गया। शुभा के हाथों मार खाने के बाद उसका दादापन तो अस्त हुआ ही,  शहर में उसका राजनीतिक कैरियर भी उठते उठते डूब गया।

लेकिन परिवार की देखरेख के चक्कर में शुभा की अपनी पढ़ाई मार खाने लगी। स्कूल तो उसने पास कर लिया, लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसके पास वक्त नहीं था। माँ की मानसिक स्थिति कुछ ऐसी थी कि घर में अकेली होते ही उन्हें अवसाद घेर लेता था। बच्चों के भविष्य के बारे में सारी दुश्चिंताएँ उन्हें जकड़ने लगतीं। बच्चों के घर लौटने तक वे उद्विग्न, घर में इधर-उधर घूमती रहतीं। इसलिए शुभा ने आगे की पढ़ाई घर में ही रहकर करने का निश्चय किया।

जैसा कि होता है, शुभा के रिश्तेदार, परिवार के मित्र और शुभचिन्तक अब माँ को शुभा की शादी की नसीहत देने लगे थे। माँ तत्काल उनसे सहमत होतीं और कहतीं कि कोई ठीक लड़का हो तो उन्हें बतायें। शुभा सुनती तो उसे हँसी और रुलाई दोनों ही आती। वह जानती थी कि अभी उसका विवाह संभव नहीं है। वह चली जाएगी तो माँ की पूरी गृहस्थी बैठ जाएगी। भाई अपने रास्ते से भटक जाएँगे और माँ के लिए उन्हें सँभालना मुश्किल हो जाएगा।

बी.ए. पास करने और माँ का मन कुछ स्थिर होने पर उसने एक चिकित्सा-उपकरण बनाने वाली कंपनी में नौकरी प्राप्त कर ली थी। अब दुनिया कुछ भिन्न और विस्तृत हो गयी। कुछ आत्मबल भी बढ़ा। नये वातावरण में घर के दबाव और चिन्ताओं से कुछ देर मुक्त रहने का अवसर मिला।

ऐसे ही वक्त गुज़रता गया। बड़ा चीनू बी.एससी. पास करके एक दवा कंपनी में नौकरी पा गया। जल्दी ही उसकी शादी की बातें होने लगीं। घर में बहू आ जाए तो माँ को सहारा देने के लिए कोई रहे। माँ दबी ज़ुबान में कहतीं, ‘शुभी की शादी से पहले चीनू की शादी कैसे कर दें?’ शुभा हँस कर कहती, ‘माताजी, फालतू की बकवास छोड़ो। बूढ़ों की शादी की चिन्ता मत करो। चीनू की शादी कर डालो।’

माँ दुखी हो जातीं। ‘कैसी जली-कटी बातें करती है यह लड़की! कैसी पत्थरदिल हो गयी है।’

अन्ततः चीनू की शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। जल्दी ही टीनू कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नौकरी करने नागपुर चला गया।

चीनू की पत्नी को यह घर भाता नहीं था। छोटा सा, पुराना घर था। उसमें बहू की कोई स्मृतियाँ नहीं थीं। फिर उसे लगता था कि इस घर में दीदी की कुछ ज़्यादा ही चलती है। जब मन होता तब वह मायके जा बैठती। चीनू परेशान होने लगा। एक दिन शुभा ने खुद ही कह दिया, ‘भाई, तू अपनी बीवी के लिए कोई अच्छा सा घर ढूँढ़ ले और चैन से रह। हम माँ-बेटी यहाँ रह लेंगे।’ कुछ समय पाखंड करने के बाद चीनू ने घर ढूँढ़ लिया और अपनी गृहस्थी लेकर उसमें चला गया।

अब शुभा शीशे में अपनी बढ़ती उम्र के प्रमाणों को देखती रहती है। माँ उम्र बढ़ने के साथ-साथ निर्बल हो रही है। कभी हो सकता है कि वह घर में अकेली रह जाए और उसका मददगार कोई न हो। माँ ने अभी भी उसकी शादी की रट छोड़ी नहीं है। उनका विचार है अभी भी कोई नया नहीं तो दुहेजू वर तो मिल ही सकता है। कोई एकाध बच्चे वाला भी हुआ तो क्या हर्ज है? ऐसे एक दो प्रस्ताव आये भी हैं। लेकिन अब शुभा की विवाह में रुचि नहीं है। विवाह के नाम से स्फुरण होने वाली उम्र गुज़र चुकी है। अब शादी का नाम उठते ही अनेक आशंकाएँ मन को घेरने लगती हैं। ज़िन्दगी का जो ढर्रा बन गया है उसमें कोई बड़ा मोड़ पैदा करना संभव नहीं है।

घर के पास ही एक तालाब है। पक्की सीढ़ियों और छायादार वृक्षों के कारण वहाँ का दृश्य मनोरम हो गया है। शाम को अक्सर शुभा एक-दो घंटे वहीं गुज़ारती है।नहाने धोने वालों की वजह से वहाँ का वातावरण गुलज़ार बना रहता है। शुभा को देख कर कुछ पाने की लालच में एक दो बच्चे उसके पास आ बैठते हैं। शंकर से शुभा की पटती है। बातूनी और प्यारा लड़का है, लेकिन वक्त की मार झेलता, निरुद्देश्य भटकता रहता है।

एक दिन शुभा ने उससे पूछा, ‘स्कूल नहीं जाता तू?’

‘न! बापू नहीं भेजता। कहता है फीस और किताबों के लिए पैसे नहीं हैं।’

शुभा ने पूछा, ‘मैं फीस और किताबों के पैसे दूँ तो पढ़ेगा?’

शंकर खुश होकर बोला, ‘पढ़ूँगा, लेकिन बापू से बात करनी पड़ेगी।’

शुभा ने उसका हाथ पकड़ा, कहा, ‘आ चल। तेरे बापू से बात करती हूँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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