(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ज़िंदगी हसीन है ग़र …”।)
ग़ज़ल # 45 – “ज़िंदगी हसीन है ग़र…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।मिट्टी का बदन और साँसें उधार की हैं।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 36 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।। मिट्टी का बदन और साँसें उधार की हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆
[1]
मिट्टी का बदन और साँसे उधार की हैं।
जाने घमंड किस चीज़ का बात विचार की है।।
आदमी बस इक मेहमान होता कुछ दिन का।
नहीं उसकी हैसियत यहाँ पर जमींदार की है।।
[2]
जिन्दगी हमें हर मोड़ पर रोज़ आज़माती है।
कुछ नया रोज़ हमें बतलाती और सिखलाती है।।
सुनते नहीं हम बातअंतरात्मा की अपने ही स्वार्थ में।
ईश्वरीय शक्तियाँ भी हमें यह बात जतलाती हैं।।
[3]
उम्मीद की ऊर्जा से अंधेरें में भी रोशनी कर सकते हैं।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता “.. चलो माँ के दर्शन करें…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा 102 ☆ गीत – “.. चलो माँ के दर्शन करें” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #109 एक अच्छा मनुष्य बनाइएगा ☆ श्री आशीष कुमार☆
मैं बिस्तर पर से उठा,अचानक छाती में दर्द होने लगा मुझे… हार्ट की तकलीफ तो नहीं है. ..? ऐसे विचारों के साथ. ..मैं आगे वाले बैठक के कमरे में गया…मैंने नज़र की…कि मेरा परिवार मोबाइल में व्यस्त था…
मैंने … पत्नी को देखकर कहा…काव्या थोड़ा छाती में रोज से आज ज़्यादा दु:ख रहा है…डाक्टर को बताकर आता हूँ . ..
हां, मगर संभलकर जाना…काम हो तो फोन करना मोबाइल में देखते देखते ही काव्या बोली…
मैं… एक्टिवा की चाबी लेकर पार्किंग में पहुँचा … पसीना,मुझे बहुत आ रहा था…एक्टिवा स्टार्ट नहीं हो रहा था…
ऐसे वक्त्त… हमारे घर का काम करने वाला ध्रुव सायकल लेकर आया… सायकल को ताला मारते ही उसे मैंने मेरे सामने खड़ा देखा…
क्यों साब? एक्टिवा चालू नहीं हो रहा है…मैंने कहा नहीं…
आपकी तबीयत ठीक नहीं लगती साब… इतना पसीना क्यों आया है ?
साब… स्कूटर को किक इस हालत में नहीं मारते….मैं किक मारके चालू कर देता हूँ …ध्रुव ने एक ही किक मारकर एक्टिवा चालू कर दिया, साथ ही पूछा..साब अकेले जा रहे हो
मैंने कहा… हां
ऐसी हालत में अकेले नहीं जाते…चलिए मेरे पीछे बैठ जाइए…मैंने कहा तुम्हें एक्टिवा चलाना आता है? साब… गाड़ी का भी लाइसेंस है, चिंता छोड़कर बैठ जाओ…
पास ही एक अस्पताल में हम पहुँचे, ध्रुव दौड़कर अंदर गया, और व्हील चेयर लेकर बाहर आया…
साब… अब चलना नहीं, इस कुर्सी पर बैठ जाओ..
ध्रुव के मोबाइल पर लगातार घंटियां बजती रही…मैं समझ गया था… फ्लैट में से सबके फोन आते होंगे..कि अब तक क्यों नहीं आया? ध्रुव ने आखिर थक कर किसी को कह दिया कि… आज नहीँ आ सकता….
ध्रुव डाक्टर के जैसे ही व्यवहार कर रहा था…उसे बगैर पूछे मालूम हो गया था कि, साब को हार्ट की तकलीफ हो रही है… लिफ्ट में से व्हील चेयर ICU कि तरफ लेकर गया….
डाक्टरों की टीम तो तैयार ही थी… मेरी तकलीफ सुनकर… सब टेस्ट शीघ्र ही किये… डाक्टर ने कहा, आप समय पर पहुँच गए हो….इस में भी आपने व्हील चेयर का उपयोग किया…वह आपके लिए बहुत फायदेमंद रहा…
अब… कोई भी प्रकार की राह देखना… वह आपके लिए हानिकारक होगी…इसलिए बिना देर किए हमें हार्ट का ऑपरेशन करके आपके ब्लोकेज जल्द ही दूर करने होंगे…इस फार्म पर आप के स्वजन के हस्ताक्षर की ज़रूरत है…डाक्टर ने ध्रुव को सामने देखा…
मैंने कहा, बेटे, दस्तखत करने आते है? साब इतनी बड़ी जवाबदारी मुझ पर न रखो…
बेटे… तुम्हारी कोई जवाबदारी नहीं है… तुम्हारे साथ भले ही लहू का संबंध नहीं है… फिर भी बगैर कहे तुमने तुम्हारी जवाबदारी पूरी की, वह जवाबदारी हकीकत में मेरे परिवार की थी…एक और जवाबदारी पूरी कर दो बेटा, मैं नीचे लिखकर सही करके लिख दूंगा कि मुझे कुछ भी होगा तो जवाबदारी मेरी है, ध्रुव ने सिर्फ मेरे कहने पर ही हस्ताक्षर किये हैं, बस अब. ..
और हां, घर फोन लगा कर खबर कर दो…
बस, उसी समय मेरे सामने, मेरी पत्नी काव्या का मोबाइल ध्रुव के मोबाइल पर आया. वह शांति से काव्या को सुनने लगा…
थोड़ी देर के बाद ध्रुव बोला, मैडम, आपको पगार काटने का हो तो काटना, निकालने का हो तो निकाल दो, मगर अभी अस्पताल ऑपरेशन शुरु होने के पहले पहुँच जाओ। हां मैडम, मैं साब को अस्पताल लेकर आया हूँ। डाक्टर ने ऑपरेशन की तैयारी कर ली है, और राह देखने की कोई जरूरत नहीं है…
मैंने कहा, बेटा घर से फोन था…?
हाँ साब.
मैंने मन में सोचा, काव्या तुम किसकी पगार काटने की बात कर रही है, और किस को निकालने की बात कर रही हो? आँखों में आंसू के साथ ध्रुव के कंधे पर हाथ रख कर, मैं बोला, बेटा चिंता नहीं करते।।
मैं एक संस्था में सेवाएं देता हूं, वे बुज़ुर्ग लोगों को सहारा देते हैं, वहां तुम जैसे ही व्यक्तियों की ज़रूरत है।
तुम्हारा काम बरतन कपड़े धोने का नहीं है, तुम्हारा काम तो समाज सेवा का है… बेटा… पगार मिलेगा, इसलिए चिंता ना करना।
ऑपरेशन बाद, मैं होश में आया… मेरे सामने मेरा पूरा परिवार नतमस्तक खड़ा था, मैं आँखों में आंसू के साथ बोला, ध्रुव कहाँ है?
काव्या बोली-: वो अभी ही छुट्टी लेकर गांव गया, कहता था, उसके पिताजी हार्ट अटैक में गुज़र गऐ है… 15 दिन के बाद फिर से आयेगा।
अब मुझे समझ में आया कि उसको मेरे में उसका बाप दिखता होगा…
हे प्रभु, मुझे बचाकर आपने उसके बाप को उठा लिया!
पूरा परिवार हाथ जोड़कर, मूक नतमस्तक माफी मांग रहा था…
एक मोबाइल की लत (व्यसन)…अपने व्यक्ति को अपने दिल से कितना दूर लेकर जाता है… वह परिवार देख रहा था….यही नहीं मोबाइल आज घर घर कलह का कारण भी बन गया है
डाक्टर ने आकर कहा, सब से पहले यह बताइए ध्रुव भाई आप के क्या लगते?
मैंने कहा डाक्टर साहब, कुछ संबंधों के नाम या गहराई तक न जाएं तो ही बेहतर होगा उससे संबंध की गरिमा बनी रहेगी।
बस मैं इतना ही कहूंगा कि, वो आपात स्थिति में मेरे लिए फरिश्ता बन कर आया था!
पिन्टू बोला :- हमको माफ करो पप्पा… जो फर्ज़ हमारा था, वह ध्रुव ने पूरा किया, वह हमारे लिए शर्मजनक है, अब से ऐसी भूल भविष्य में कभी भी नहीं होगी. ..
बेटा, जवाबदारी और नसीहत (सलाह) लोगों को देने के लिए ही होती है…
जब लेने की घड़ी आये, तब लोग ऊपर नीचे (या बग़ल झाकते है) हो जातें है।
अब रही मोबाइल की बात…
बेटे, एक निर्जीव खिलोने ने, जीवित खिलोने को गुलाम कर दिया है, समय आ गया है, कि उसका मर्यादित उपयोग करना है।
नहीं तो…. परिवार, समाज और राष्ट्र को उसके गंभीर परिणाम भुगतने पडेंगे और उसकी कीमत चुकाने को तैयार रहना पड़ेगा।
बेटे और बेटियों को बड़ा अधिकारी या व्यापारी बंनाने की जगह एक अच्छा मनुष्य बनाइएगा।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आईना झूठ नहीं बोलता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 152 ☆
☆ आईना झूठ नहीं बोलता☆
लोग आयेंगे, चले जायेंगे। मगर आईने में जो है, वही रहेगा, क्योंकि आईना कभी झूठ नहीं बोलता, सदैव सत्य अर्थात् हक़ीक़त को दर्शाता है…जीवन के स्याह व सफेद पक्ष को उजागर करता है। परंतु बावरा मन यही सोचता है कि हम सदैव ठीक हैं और दूसरों को स्वयं में सुधार लाने की आवश्यकता है। यह तो आईने की धूल को साफ करने जैसा है, चेहरे को नहीं, जबकि चेहरे की धूल साफ करने पर ही आईने की धूल साफ होगी। जब तक हम आत्मावलोकन कर दोष-दर्शन नहीं करेंगे; हमारी दुष्प्रवृत्तियों का शमन कैसे संभव होगा? हम हरदम परेशान व दूसरों से अलग-थलग रहेंगे।
जीवन मेंं सदैव दूसरों का साथ अपेक्षित है। सुख बांटने से बढ़ता है तथा दु:ख बांटने से घटता है। दोनों स्थितियों में मानव को लाभ होता है। सुंदर संबंध शर्तों व वादों से नहीं जन्मते, बल्कि दो अद्भुत लोगों के मध्य संबंध स्थापित होने पर ही होते हैं। जब एक व्यक्ति अपने साथी पर अथाह, गहन अथवा अंधविश्वास करता है और दूसरा उसे बखूबी समझता है, तो यह है संबंधों की पराकाष्ठा।
सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधा हुआ। दोनों में यदि अंतर भी हो, तो भी भाव-धरातल पर समता की आवश्यकता है। इसी में जाति, धर्म, रंग, वर्ण का ही स्थान नहीं है, बल्कि पद-प्रतिष्ठा भी महत्वहीन है। वैसे प्यार व दोस्ती तो विश्वास पर कायम रहती है, शर्तों पर नहीं। महात्मा बुद्ध का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है कि ‘जल्दी जागना सदैव लाभकारी होता है। फिर चाहे नींद से हो, अहं से, वहम से या सोए हुए ज़मीर से। ख़िताब, रिश्तेदारी सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है…बशर्ते लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग से नहीं।’ सो! संबंध तीन-चार वर्ष में समाप्त होने वाला डिप्लोमा व डिग्री नहीं, जीवन-भर का कोर्स है। यह अनुभव व जीने का ढंग है। सो! आप जिससे संबंध बनाते हैं, उस पर विश्वास कीजिए। यदि कोई उसकी निंदा भी करता है, तो भी आप उसके प्रति मन में अविश्वास का भाव न पनपने दें, बल्कि संकट की घड़ी में आप उसकी अनुपस्थिति में ढाल बन कर खड़े रहें। लोगों का काम तो कहना होता है। वे किसी को उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख केवल ईर्ष्या ही नहीं करते; उनकी मित्रता में सेंध लगा कर ही सुक़ून पाते हैं। सो! कबीर की भांति आंख मूंदकर नहीं, आंखिन देखी पर ही विश्वास कीजिए। उन्हीं के शब्दों में ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय।’ इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए, आप स्वयं में असंख्य दोष पाएंगे। दोषारोपण की प्रवृत्ति का त्याग ही आत्मोन्नति का सुगम व सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। केवल सत्य पर विश्वास कीजिए। झूठ के आवरण को हटाने के लिए चेहरे पर लगी धूल को हटाने की आवश्यकता है अर्थात् अपने अंतस की बुराइयों पर विजय पाने की दरक़ार है।
इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ऐसे लोगों की ओर आकर्षित मत होइए, जो ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचे हैं। वास्तव में वे तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं, जो तुम्हें ऊंचाई से गिरते देख थाम लेते हैं। सो! लगाव दिल से होना चाहिए, दिमाग़ से नहीं। जहां प्रेम होता है, तमाम बुराइयां अच्छाइयों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा अविश्वास के दस्तक देते व अच्छाइयां लुप्तप्राय: हो जाती हैं। त्याग व समर्पण का दूसरा नाम दोस्ती है। इसमें दोनों पक्षों को अपनी हैसियत से बढ़ कर समर्पण करना चाहिए। अहं इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ईगो अर्थात् अहं तीन शब्दों निर्मित है, जो रिलेशनशिप अर्थात् संबंधों को अपना ग्रास बना लेता है। दूसरे शब्दों में एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। संबंध तभी स्थायी अथवा शाश्वत बनते हैं, जब उनमें अहं, राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होता।
सो! जिससे बात करने में खुशी दुगुन्नी तथा दु:ख आधा रह जाए, वही अपना है; शेष तो दुनिया है, जो तमाशबीन होती है। वैसे भी अहंनिष्ठ लोग समझाते अधिक व समझते कम हैं। इसलिए अधिकतर मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा जीवन। इसलिए कहा जाता है कि असंभव दुनिया में कुछ भी नहीं है। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। इसलिए कहा जाता है, मानव असीम शक्तियों का पुंज है। स्वेट मार्टन के शब्दों में ‘केवल विश्वास ही एकमात्र ऐसा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचा देता है।’ सो! आत्मविश्वास के साथ-साथ लगन व्यक्ति से वह सब करवा लेती है, जो वह नहीं कर सकता। साहस व्यक्ति से वह सब करवाता है; जो वह कर सकता है। किन्तु अनुभव व्यक्ति से वह करवा लेता है, जो उसके लिए करना अपेक्षित है। इसलिए अनुभव की भूमिका सबसे अहम् है, जो हमें ग़लत दिशा की ओर जाने से रोकती है और साहस व लगन अनुभव के सहयोगी हैं।
परंतु पथ की बाधाएं हमारे व्यक्तित्व विकास में अवरोधक हैं। सो! कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है। यहाँ साहस अपना चमत्कार दिखाता है। सो! संकट के समय परिवर्तन की राह को अपनाना चाहिए। तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जाती हैं/ ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध के बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं। सो! अहंनिष्ठ मानव पल भर मेंं अर्श से फ़र्श पर आन गिरता है। इसलिए ऊंचाई पर पहुंचने के लिए मन में प्रतिशोध का भाव न पनपने दें, क्योंकि उसका जन्म ईर्ष्या व अहं से होता है। आंख बंद करने से मुसीबत टल नहीं जाती और मुसीबत आए बिना आँख नहीं खुलती। जब तक हम अन्य विकल्प के बारे में सोचते नहीं, नवीन रास्ते नहीं खुलते। इसलिए मुसीबतों का सामना करना सीखिए। यह कायरता है, पराजय है। ‘डू ऑर डाई, करो या मरो’ जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। ‘कौन कहता है आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं। अक्सर मानव को स्वयं स्थापित मील के पत्थरों को तोड़ने में बहुत आनंद आता है। सो थककर राह में विश्राम मत करो और न ही बीच राह से लौटने का मन बनाओ। मंज़िलें बाहें पसारे आपकी राह तकेंगी। स्वर्ग-नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैंं; हमारे कार्य-व्यवहार ही उन्हें निर्धारित करते हैं।
श्रेष्ठता संस्कारों से प्राप्त होती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। जिसने दूसरों के दु:ख में दु:खी होने का हुनर सीख लिया, वह कभी दुखी नहीं हो सकता। ‘ज़रा संभल कर चल/ तारीफ़ के पुल के नीचे से/ मतलब की नदी बहती है।’ इसलिए प्रशंसकों से सदैव दूरी बना कर रखनी चाहिए, क्योंकि ये उन्नति के पथ में अवरोधक होते हैं। इसलिए कहा जाता है, घमंड मत कर ऐ दोस्त/ अंगारे भी राख बनते हैं। इसलिए संसार में इस तरह जीओ कि कल मर जाना है। सीखो इस तरह कि जैसे आपको सदैव जीवित रहना है। शायद इसलिए ही थमती नहीं ज़िंदगी किसी के बिना/ लेकिन यह गुज़रती भी नहीं/ अपनों के बिना। ‘सो! क़िरदार की अज़मत को न गिरने न दिया हमने/ धोखे बहुत खाए/ लेकिन धोखा न दिया हमने।’ इसलिए अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, आनंद आभास है/ जिसकी सबको तलाश है/ दु:ख अनुभव है/ जो सबके पास है। फिर भी ज़िंदगी में वही क़ामयाब है/ जिसे ख़ुद पर विश्वास है। इसलिए अहं नहीं, विश्वास रखिए। आपको सदैव आनंद की प्राप्ति होगी। रास्ते अनेक होते हैं। और निश्चय आपको करना है कि आपको जाना किस ओर है?
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे…”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है “संतोष के दोहे – अहम”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 119 ☆
☆ सुधारीकरण की आवश्यकता☆
दूसरों को सुधारने की प्रक्रिया में हम इतना खो जाते हैं कि स्वयं का मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में गलत रास्ते पर चल देना आजकल आम बात हो गयी है। पुरानी कहावत है चौबे जी छब्बे बनने चले दुब्बे बन गए। सब कुछ अपने नियंत्रण करने की होड़ में व्यक्ति स्वयं अपने बुने जाल में फस जाता है। दो नाव की सवारी भला किसको रास आयी है। सामान्य व्यक्ति सामान्य रहता ही इसीलिए है क्योंकि वो पूरे जीवन यही तय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना है। कभी इस गली कभी उस गली भटकते हुए बस माया मिली न राम में गुम होकर पहचान विहीन रह जाता है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि एक ओर ध्यान केंद्रित करें। सर्वोच्च शिखर पर बैठकर हुकुम चलाने का ख्वाब देखते- देखते कब आराम कुर्सी छिन गयी पता ही नहीं चला। वो तो सारी साजिश तब समझ में आई कि ये तो खेला था मुखिया बनने की चाहत कहाँ से कहाँ तक ले जाएगी पता नहीं। अब पुनः चौबे बनना चाह रहे हैं, मजे की बात दो चौबे एक साथ कैसे रहें। किसी के नियंत्रण में रहकर आप अपना मौलिक विकास नहीं कर सकते हैं। समय- समय पर संख्या बल के दम पर मोर्चा खोल के बैठ जाने से भला पाँच साल बिताए जा सकेंगे। हर बार एक नया हंगमा। जोड़ने के लिए चल रहे हैं और स्वयं के ही लोग टूटने को लेकर शक्तिबल दिखा रहे हैं। देखने और सुनने वालों में ही कोई बन्दरबाँट का फायदा उठा कर आगे की बागडोर सम्भाल लेगा। वैसे भी लालची व्यक्ति के पास कोई भी चीज ज्यादा देर तक नहीं टिकती तो कुर्सी कैसे बचेगी। ऐसे में चाहें जितना जोर लगा लो स्थिरता आने से रही। हिलने- डुलने वाले को कोई नहीं पूछता अब तो स्वामिभक्ति के सहारे नैया पार लगेगी। समस्या ये है कि दो लोगों की भक्ति का परीक्षण कैसे हो, जो लंबी रेस का घोड़ा होगा उसी पर दाँव लगाया जाएगा। जनता का क्या है कोई भी आए – जाए वो तो मीडिया की रिपोर्टिंग में ही अपना उज्ज्वल भविष्य देखती है। ऐसे समय में नौकरशाहों के कंधे का बोझ बढ़ जाता है व उनकी प्रतिभा, निष्ठा दोनों का मिला- जुला स्वरूप ही आगे की गाड़ी चलता है। कुल मिलाकर देश की प्रतिष्ठा बची रहे, जनमानस इसी चाहत के बलबूते सब कुछ बर्दाश्त कर रहा है।