हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 110 – “इस अतृप्ति के महासमर में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –इस अतृप्ति के महासमर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 110 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इस अतृप्ति के महासमर के” || ☆

सभी सदस्यों को इस घर के

बोझ पिता जी थे

मन बहलाने को बच्चों का-

रोज, पिता जी थे i

 

सब के तानों का हुजूम

उन पर टूटा करता

सदा ठीकरा अगर बुरा

उन पर फूटा करता

 

अपनी आँखों में उदासियाँ

और हँसी मुख पर

इस घर की सारी खुशियों

की खोज पिता जी थे

 

बाहर के कमरे में लेटे

रहते खटिया पर

दरवाजे, चबूतरे के

पत्थर के पटिया पर

 

रहें खाँसते भोजन की

अनवरत प्रतीक्षा में

इस अतृप्ति के महासमर

के भोज पिता जी थे

 

चौथा चरण डसे जाता

सम्मान प्रतिष्ठा को

किन्तु कभी कम नहीं किया

घर के प्रति निष्ठा को

 

और सूर्य सा आभा-मंडल

थे बिखेर देते

पूरे घर की गरिमाओं का

ओज पिता जी थे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

29-09-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – “गांधी का भूगोल”)  

☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हूबहू एकदम गांधी की शक्ल, गांधी जैसा माथा, गांधी जैसी चाल, चश्मा तो बिल्कुल गांधी जैसा ओरिजनल, गांधी जैसी नाक, चलता ऐसे जैसे साक्षात गांधी चल रहे हों,उसका उठने बैठने के तरीके में मुझे गांधी जी दिख जाते। वह अक्सर गांधी जैसी लाठी लिए मेरे आफिस के सामने से गुजरता, गांव भर के गाय बैल भैंस लेकर जंगल की ओर चराने रोज ले जाता। जब वह लाठी टेकते यहां से निकलता तो स्कूल जाते गांव के बच्चे उसे देखकर गांधी.. गांधी.. कहकर चिढ़ाते और वह भी खूब चिढ़ता, बच्चों को पत्थर मारने दौड़ता, गाली बकते हुए उन्हें डराने की कोशिश करता, गांव की नई उमर की बहू बेटियां लोटा लेकर खेतों तरफ जाते हुए उसकी इस हरकत से हंसती, मुझे भी यह सब दृश्य देखकर मजा आता। 

दूर दराज के गांव में गांधी जैसा हमशक्ल,या अमिताभ बच्चन जैसा हमशक्ल चलता फिरता दिख जाए तो बाहरी आदमी का  रोमांचित हो जाना स्वाभाविक है जिसने फिल्म में गांधी को देखा हो,या गांधी की जीवनी पढ़ी हो।

मेरे लिए यह गांव नया था,दो तीन महीने पहले शहर से इस गांव में ट्रांसफर हुआ था,रुरल असाइनमेंट करने के लिए। बियाबान जंगल के बीच मुख्य सड़क से दूर छोटा सा गांव था, और ऐसे गांव में गांधी जैसे हमशक्ल के दर्शन हो जाएं तो मेरे लिए अजूबा तो था। वह सुबह सुबह जानवरों को लाठी से हांकता रोज दिख जाता जब हम आफिस खोलकर बाहर बैठते।बच्चे गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगते, वह भरपूर चिढ़ता, मारने को पत्थर उठाता,गाली बकते हुए आगे बढ़ जाता। बच्चों के साथ मुझे भी मजा आता, असली गांधी याद आ जाते। वैसे मैंने भी ओरिजनल गांधी को जिन्दा या चलते फिरते नहीं देखा, कैसे देखता जब गांधी को गोली मारी गई थी उसके बीस साल बाद हम धरती पर आये थे।पर बचपन से दिल दिमाग में गांधी जी छाये रहते, जहां भी उनके बारे में कुछ पढ़ने मिलता बड़े चाव से पढ़ते और दूसरों को भी बताते।

एक दिन बड़ा अजीब हुआ,जब वह आफिस के सामने से गुजर रहा था बच्चे दौड़ दौड़ कर गांधी.. गांधी…चिल्लाने लगे,वह भरपूर चिढ़ रहा था,गाली बक रहा था, मैं बहुत ज्यादा रोमांचित हो उठा और मैं भी बच्चों के साथ गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगा।

अचानक वह आश्चर्य के साथ रुक गया, मुड़कर मेरी तरफ उसने ऊपर से नीचे तक कई बार देखा फिर हताशा और निराशा के साथ मेरे पास आकर बोला – बाबू आप तो पढ़े लिखे और समझदार इंसान हैं मैं अपढ़,गंवार,मूर्ख और गरीब हूं। पिछले कुछ सालों से गांव भर के बच्चे जबरन गांदी…गंधी… गंदी कह कहकर मुझे चिढ़ाते हैं,मेरा जीना हराम किए रहते हैं अपमान के घूंट पी पी कर मैं चुप रहता हूं,ऐसा मुझमें क्या गंदा है जो ये लोग गांदी..गंधी… गन्दी कहकर मुझे चिढ़ाते रहते हैं और आज आप भी बड़े मजे लेकर मुझे चिढ़ाने की शुरुआत कर रहे हैं।

मेरे अंदर करुणा की नदी फूट गई थी, मैं समझ गया कि ये आदमी गांधी से परिचित नहीं हैं, कैसे होता, पढ़ा लिखा कुछ था नहीं, बचपन से गांव के जानवरों को लेकर जंगल चला जाता रहा और रात को थका हारा झोपड़ी में सो जाता रहा होगा। मैंने उससे माफी मांगते हुए बताया कि बच्चे उसे जो गांधी गांधी कहकर चिल्लाते हैं उसका कारण जानते हो ?

वह लपककर बोला -बाबू जी ये गांधी क्या बला है? मैंने उसे बताया कि गांधी का मतलब होता है वह महान व्यक्तित्व जिसने देश को आजादी दिलाई थी, गांधी का मतलब होता है ईमानदारी, निष्ठा, लगन….

गांधी का मतलब होता है त्याग, बलिदान, देशभक्ति…..

अचानक मैंने देखा वह मूर्ति की तरह अकड़ गया था, उसे छूकर देखा वो बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया था, और जब तक मैं उसे संभालता वह गिर कर मर चुका था…..। फिर थोड़ी देर मेरे अन्दर पछतावे का लावा बहता रहा, मुझे लगा कि उसे गांधी का असली मतलब नहीं बताना चाहिए था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 100 ☆ # माता ! तेरा ही सहारा है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “#माता ! तेरा ही सहारा है…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 100 ☆

☆ # माता ! तेरा ही सहारा है… # ☆ 

अंधकार में जग सारा है

दुःख दर्द का मारा है

भक्तों ने तूझे पुकारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

धरती पर कितना पाप बढ़ गया

अहंकार कुछ के सर चढ़ गया

सत्य कदम कदम पर हारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

घर घर में तेरी ज्योत जल रही

भक्ति भाव से तेरी पूजा चल रही

हाथ जोड़े तेरे दर पे

भक्त बेचारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

एक वर्ग कितना शोषित है

जोर ज़ुल्म से कितना पीड़ीत है

ढूंढ रहा  वह किनारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

मनोकामना तू पूरी कर दें

सब भक्तो की झोली भर दें

पोंछ लें इन आंखों से

जो बहती धारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

नवरात्रि के यह पावन नौ दिन

भक्ति, व्रत, पूजा करते है हर दिन

हर मंदिर में गूंजता

माता का जैकारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

इन अधर्मी यों को दंड दे माता

भक्तों को शक्ति प्रचंड दें माता

हर युग में, तूने ही तो तारा है

माता! तेरा ही तो सहारा है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 100 ☆ परोपकार… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 99 ? 

☆ परोपकार… ☆

एक फुलपाखरू मला

स्पर्श करून गेलं

अचानक बिचारं ते

माझ्यावर आदळलं

कसेतरी स्वतःला

सावरत सावरत

उडण्याचा स्व-बळे,

प्रयत्न करू लागलं.

त्याला मी जवळ घेतलं     

स्नेहाने अलगद ओंजळीत भरलं

झाडाच्या फांदीवर

हळूच सोडून दिलं…

त्याला सोडलं जेव्हा, तेव्हा

ओंजळ माझी रंगली

पाहुनी त्या रंगाला मग

कळी माझीच खुलली

हसू मला आलं विचार सुद्धा आला,

ना मागताच मला फुलपाखराने त्याचा रंग विनामूल्य बहाल केला, 

परोपकार कसा असावा याचा निर्भेळ पुरावा मला मिळाला…!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प,भाग ३८ परिव्राजक १६.बेळगांव ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प भाग ३८ परिव्राजक १६.बेळगांव ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजी १६ ते २७ऑक्टोबर १८९२ मध्ये बेळगांवमुक्कामी आले. महाराष्ट् म्हणजे तेव्हाचा मुंबई प्रांत ! तेव्हा बेळगांव मुंबई प्रांतात होते. कोल्हापूरहून भाटे यांचे नावाने गोळवलकर यांनी परिचय पत्र दिलं होतंच.  श्री. सदाशिवराव भाटे वकिलांकडे स्वामीजींचं अत्यंत अगत्यपूर्वक स्वागत झालं. त्यांना पाहताक्षणीच हा नेहमीप्रमाणे एक सामान्य संन्यासी आहे अशी समजूत इथेही झाली असली तरी त्यांचं काहीतरी वेगळेपण आहे हे ही त्यांना जाणवत होतंच. भाटे कुटुंबीय आणि बेळगावातले इतर लोक यांना कधी वाटलं नव्हतं की काही दिवसांनी ही व्यक्ती जगप्रसिद्ध होईल. बेळगावचे हे श्री भाटे वकिल यांचे घर म्हणजे विदुषी रोहिणी ताई भाटे यांच्या वडिलांचे घर होय.

मराठी येत नसल्यामुळे भाटे कुटुंबीय स्वामीजींशी इंग्रजीतच संवाद साधत. त्यांच्या काही सवयी भाटेंना वेगळ्याच वाटल्या म्हणजे खटकल्या. पहिल्याच दिवशी स्वामीजींनी जेवणानंतर मुखशुद्धी म्हणून विडा मागितला. त्याबरोबर थोडी तंबाखू असेल तरी चालेल म्हणाले. संन्याशाची पानसुपारी खाण्याची सवय पाहून भाटेंकडील मंडळी अचंबित झाली. आणखी एक प्रश्न भाटे यांना सतावत होता तो म्हणजे, स्वामीजी शाकाहारी आहेत मांसाहारी? शेवटी न राहवून त्यांनी स्वामीजींना विचारलंच की आपण संन्यासी असून मुखशुद्धी कशी काय चालते? स्वामीजी मोकळेपणाने म्हणाले, “मी कलकत्ता विद्यापीठाचा पदवीधर आहे. माझे गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस यांच्यामुळे माझे जीवन जरी संपूर्ण बदलले असले तरी, त्याधीचे माझे आयुष्य मजेत राहणार्‍या चारचौघा तरुणांप्रमाणेच गेले आहे. संन्यास घेतल्यावर इतर सर्व गोष्टी सोडल्या असल्या तरी या एक दोन सवयी राहिल्या आहेत. पण त्या फारशा गंभीर स्वरुपाच्या नाहीत. म्हणून राहू दिल्या आहेत. पण आपोआपच सुटतील”. आणि शाकाहारीचं उत्तर पण भाटेंना मिळालं. “ आम्ही परमहंस वर्गातील संन्यासी. जे समोर येईल त्याचा स्वीकार करायचा. काहीही मिळालं नाही तर उपाशी राहायचं”.

खरच असं व्रत पाळणं ही कठीण गोष्ट होती. मनाचा निश्चय इथे दिसतो. स्वामीजी सलग पाच दिवस अन्नावाचून उपाशी राहण्याच्या प्रसंगातून गेले होते. भुकेमुळे एकदा चक्कर येऊन पडलेही होते. तर कधी राजेरजवाडे यांच्या उत्तम व्यवस्थेत सुद्धा राहिले होते. पण त्यांना कशाचाही मोह झाला नव्हता हे अनेक प्रसंगातून आपल्याला दिसलं आहे. जातीपातीच्या निर्बंधाबद्दल ही शंका विचारली तेंव्हा, आपण मुसलमानांच्या घरीही राहिलो आहोत आणि त्यांच्याकडे जेवलोही आहोत असे सांगितल्यावर, हे संन्यासी एका वेगळ्या कोटीतले आहेत हे समजायला वेळ लागला नाही.

आज लॉकडाउनच्या  काळात दारूची दुकाने उघडली तर परमोच्च आनंद झाला लोकांना. जणू उपाशी होते ते. १०ला उघडणार्‍या दुकानांसमोर सकाळी सातपासूनच उभे होते लोक ! दुकानांसमोर दारू घ्यायला रांगाच रांगा लागल्या होत्या. यात स्त्रिया सुद्धा मागे नव्हत्या. खांद्याला खांदा देऊन लढत होत्या !  हे दृश्य पाहिल्यावर स्वामी विवेकानंदांच्या शिकवणुकीची किती आवश्यकता आहे हे जाणवून मन खिन्न होते. 

एकदा भाटेंचा मुलगा संस्कृत भाषेचा अभ्यास करताना पाणीनीच्या अष्टाध्यायीतील सूत्र म्हणत होता. त्यातल्या चुका स्वामीजींनी दुरुस्त करून सांगितल्या तेव्हा या अवघड विषयाचे ज्ञान असणे ही सामान्य गोष्ट नाही असे भाटे यांना वाटले. एक दिवस काही परिचित व्यक्तींना एकत्र करून त्यांनी स्वामीजींबरोबर संभाषण घडवून आणले. त्यात एक इंजिनियर होते. ‘धर्म हे केवळ थोतांड आहे, शेकडो वर्षांच्या रूढी चालीरीती यांच्या बळावर समाजमनावर त्याचे प्रभूत्त्व टिकून राहिले आहे किंबहुना लोक केवळ एक सवय म्हणून धार्मिक आचार पाळत असतात’, असं त्यांचं मत होतं. पण स्वामीजींनी बोलणे सुरू केल्यावर त्यांना ह्या युक्तिवादाला तोंड देणं अवघड जाऊ लागलं. आणि अखेर शिष्टाचाराच्या मर्यादेचा  भंग झाल्यावर भाटेंनी त्यांना (म्हणजे एंजिनियर साहेबांना) थांबवलं. पण स्वामीजींनी अतिशय शांतपणे परामर्श घेतला. ते प्रक्षुब्ध झाले नाहीत. कोणाच्याही वेड्यावाकड्या बोलण्याने सुद्धा स्वामीजी अविचल राहिले होते. याचा उपस्थित सर्वांवर परिणाम झाला.या चर्चेचा समारोप करताना स्वामीजी म्हणाले, “ हिंदुधर्म मृत्युपंथाला लागलेला नाही हे आपल्या देशातील लोकांना समजावून सांगण्याची वेळ आली आहे. एव्हढच नाही तर, सार्‍या जगाला आपल्या धर्मातील अमोल विचारांचा परिचय करून देण्याची आवश्यकता आहे. वेदान्त विचाराकडे एक संप्रदाय म्हणून पहिले जाते हे बरोबर नाही. सार्‍या विश्वाला प्रेरणा देण्याचे सामर्थ्य त्या विचारात आहे हे समजून घेण्याची आवश्यकता आहे”. स्वामीजींची ही संभाषणे आणि विचार ऐकून बेळगावचा सर्व सुशिक्षित वर्ग भारावून गेला होता.                                                                          

बेळगावातील मुक्कामात रोज सभा होऊ लागल्या. शहरात स्वामीजींच्या नावाची चर्चा होऊ लागली. वेगवेगळ्या विषयांवर सभांमध्ये वादविवाद व चर्चा झडत असत. स्वामीजी न चिडता शांतपणे प्रश्नांची उत्तरे देत. कोपरखळ्या मारत विनोद करत स्वामीजी समाचार घेत असत.

या बेळगावच्या आठवणी वकील सदाशिवराव भाटे यांचे पुत्र गणेश भाटे यांनी लिहून ठेवल्या आहेत. स्वामीजी त्यांच्याकडे आले तेंव्हा ते (गणेश)  बारा-तेरा वर्षांचे होते. स्वामीजीच्या वास्तव्याने पावन झालेली त्यांची ही वास्तू भाटे यांनी रामकृष्ण मिशनला दान केली आहे. स्वामी विवेकानंदांनी या मुक्कामात वापरलेल्या काठी, पलंग, आरसा या वस्तू ते राहिले त्या खोलीत आठवण म्हणून जपून  ठेवल्या आहेत, त्या आपल्याला आजही  पाहायला मिळतात.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 31 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 31 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

४८.

  पाखरांच्या मंजुळ स्वरांनी

  प्रभातसमयीचा शांत सागर उचंबळला,

  रस्त्याकडे ची फुलं आनंदानं नाचू लागली.

  ढगाढगांच्या पोकळीमधून परमेश्वराची

  दौलत पसरू लागली.

 

 मात्र या साऱ्यांकडे दुर्लक्ष करून

आम्ही आमच्या उद्योगाला लागलो.

आनंदगीतं आम्ही गायली नाहीत की

खेळलो- बागडलो नाही.

बाजारहाट करायला आम्ही गावात गेलो नाही.

 

एकही शब्द आम्ही बोललो नाही,

हसलो नाही की वाटेवर रेंगाळलो नाही.

 

जसजसा समय जाऊ लागला तसतसा

आमच्या चालण्याचा वेग वाढत गेला.

 

सूर्य माथ्यावर आला.

बदकं सावलीत जाऊन गाऊ लागली.

दुपारच्या उन्हात गिरकी खात

पिकली पानं नाचू लागली.

केळीच्या झाडाखाली बसून

मेंढपाळांची पोरं पेंगू लागली,

स्वप्नात हरवून गेली

आणि मी जलाशयाशेजारच्या गवतावर

थकलेली गात्रं पसरली.

 

माझे सोबती उपहासानं मला हसून

ताठ मानेनं न थांबता घाईघाईनं निघून गेले.

विसाव्यासाठी ते विसावले नाहीत.

दूरच्या निळाईत ते दिसेनासे झाले.

त्यांनी किती कुरणं पार केली,

किती टेकड्या पार केल्या,

दूरचे किती मुलूख पादाक्रांत केले!

 

हे शूरवीरांनो, अनिर्बंध पथाच्या प्रवाशांनो,

तुमचा जयजयकार असो!

 

तुमची चेष्टा- मस्करी ऐकून,

त्वेषाने मला उठावेसे वाटले,

पण माझ्यात उभारी नव्हती.

 

अंधूक आनंदाच्या सावलीत

सुखी अवमानाच्या गहराईत मी लुप्त झालो.

सूर्यवलयांकित पोपटी निराशेनं

माझ्यावर पखरण घातली.

 

मी कशासाठी प्रवासास

निघालो होतो कुणास ठाऊक?

विनासायास माझं मन मात्र

छाया आणि संगीत यांना शरण गेलं.

 

आणि शेवटी, जाग आल्यावर मी डोळे उघडले, तेव्हा तू माझ्या बाजूला उभा होतास.

माझी निद्रा तुझ्या स्मितानं

काठोकाठ भरून टाकत होतास.

 

मात्र मला भिती वाटली होती. . .

तुझ्याकडे नेणारा हा प्रवास. . .

किती दीर्घ पल्ल्याचा,

कंटाळवाणा आणि कठीण असेल?

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 111 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 111 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 111) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 111 ?

☆☆☆☆☆

कितना सुहाना लगता है

तुम्हारे शहर का मौसम,

अगर इजाज़त हो तो

मैं एक शाम चुरा लूं…

How endearing is the

weather of your city,

If allowed, then I’d like

to steal an evening…

☆☆☆☆☆

आओ गले मिल कर

ये देखें कि…

अब हम में

कितनी दूरी है…

Come, let’s hug each other

and check…

How much of distance is

left between us…!

☆☆☆☆☆

कभी लफ्जों में ना तलाश

करना वजूद मेरा…

मैं उतना लिख नहीं पाता

जितना तुम्हें चाहता हूँ …!

Never look for my

existence in the words,

I cannot write as

much as I want you…!

☆☆☆☆☆

कभी लफ्जों में ना तलाश

करना वजूद मेरा…

मैं उतना लिख नहीं पाता

जितना तुम्हें चाहता हूँ …!

Never look for my

existence in the words,

I cannot write as

much as I want you…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 158 ☆ नर में नारायण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

आज की साधना (नवरात्र साधना)

इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे।

अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे।

मंगल भव। 💥

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

पुनर्पाठ 🙏🏻

☆  संजय उवाच # 158 ☆ नर में नारायण ☆?

कई वर्ष पुरानी घटना है। शहर में खाद्यपदार्थों की प्रसिद्ध दुकान से कुछ पदार्थ बड़ी मात्रा में खरीदने थे‌। संभवत: कोई आयोजन रहा होगा। सुबह जल्दी वहाँ पहुँचा। दुकान खुलने में अभी कुछ समय बाकी था। समय बिताने की दृष्टि से टहलते हुए मैं दुकान के पिछवाड़े की ओर निकल गया। देखता हूँ कि वहाँ फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की लंबी कतार लगी हुई है। लगभग 30-40 बच्चे होंगे। कुछ समय बाद दुकान का पिछला दरवाज़ा खुला। खुद सेठ जी दरवाज़े पर खड़े थे। हर बच्चे को उन्होंने खाद्य पदार्थ का एक पैकेट देना आरंभ किया। मुश्किल से 10 मिनट में सारी प्रक्रिया हो गई। पीछे का दरवाज़ा बंद हुआ और आगे का शटर ग्राहकों के लिए खुल गया।

मालूम हुआ कि वर्षों से इस दुकान की यही परंपरा है। दुकान खोलने से पहले सुबह बने ताज़ा पदार्थों के छोटे-छोटे पैक बनाकर निर्धन बच्चों के बीच वितरित किए जाते हैं।

सेठ जी की यह साक्षात पूजा भीतर तक प्रभावित कर गई।

अथर्ववेद कहता है,

।।ॐ।। यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।

-(अथर्ववेद 10-8-1)

अर्थात जो भूत, भवि‍ष्‍य और सब में व्‍याप्त है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

योगेश्वर का स्पष्ट उद्घोष है-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

(श्रीमद्भगवद्गीता-6.30)

अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

वस्तुत: हरेक की श्वास में ठाकुर जी का वास है। इस वास को जिसने जान और समझ लिया, वह दुकान का सेठजी हो गया।

… नर में नारायण देखने, जानने-समझ सकने का सामर्थ्य ईश्वर हरेक को दें।…तथास्तु!

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 110 ☆ ॐ – शारद स्तुति… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ॐ – शारद स्तुति…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 110 ☆ 

☆ ॐ – शारद स्तुति… ☆

माँ शारदे!

भव-तार दे।

 

संतान को

नित प्यार दे।

 

हर कर अहं

उद्धार दे।

 

सिर हाथ धर

रिपु छार दे।

 

निज छाँव में

आगार दे।

 

पग-रज मुझे

उपहार दे।

 

आखर सिखा

आचार दे।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२५-९-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #142 ☆ मैं गंगा मां हूं – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 142 ☆

☆ ‌एक आत्म कथा – मैं गंगा मां हूं ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हां हां पहचाना मुझे! मैं गंगा मां हूं।

मैं गंगा मां ही बोल रही हूं, क्या सुनाई दे रही है तुम्हें मेरी आवाज़?

मैं गंगा के किनारे पूर्णिमा के दिन रात्रि बेला में धवल चांदनी से युक्त निस्तब्ध  वातावरण में गंगा घाट पर अपनी ही धुन में खोया हुआ बैठा था, गंगा में चलने वाली नावों के चप्पुओं की गंगा जल में छप छप करती लहरों से अठखेलियां करती  आवाजों तथा गंगा की धाराओं से निकलने वाली कल-कल ध्वनियों में खोया हुआ था कि सहसा किसी नाव पर रखे रेडियो पर आकाशवाणी विविध भारती से बजने वाले गीत ने मेरा ध्यान आकर्षित किया————

*मानो तो मैं गंगा मां हूं,ना मानो तो बहता पानी*

और ये गीत मेरे मन की अतल गहराइयों में उतरता चला गया और उस चांदनी रात की धवल  जल धारा से एक आकृति प्रकट होती हुई जान पड़ी जो शायद उस मां गंगा की आत्मा थी। और अपने पुत्र भीष्म पितामह की तरह मुझसे  भी संवाद करने के लिए व्यग्र दिखाई दे रही थी। उनके चेहरे पर चिंता और विषाद की अनगिनत रेखाएं झलक रही थी। उनके दिल में जमाने भर का दर्द समाया हुआ था। जो बातों बातों में दिखा भी।

फर्क सिर्फ इतना था कि महाभारत कालीन भीष्म अपने हृदय की पीड़ा मां गंगा से कहते थे, लेकिन आज  मां गंगा स्वयं अपने धर्मपुत्र यानि मुझ लेखक सेअपने हृदय की पीड़ा व्यक्त करने को आतुर दिखी थी। वे मुझे ही संबोधित करते हुए बोल पड़ी थी।

लो सुन लो तुम भी मेरी व्यथा कथा,ताकि मेरे हृदय का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।

हां अगर तुम मानो तो मैं गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता हुआ पानी हूं।

लेकिन मेरा दोनों ही रूप जनकल्याणकारी है। यदि मैं एक मां के रूप में आस्थावान लोगों से पूजित हो लोगों को अपनी ममता  प्यार  और दुलार देकर तारती हूं, औरउनके द्वारा पूजित हूं तो , नास्तिक लोगों के अनुसार बहते हुए जलधारा के रूप में इस मानव समुदाय को पीने के लिए शुद्ध जल  अन्न फूल फल भी उपलब्ध कराती रही हूं। इस तरह मेरा दोनों रूप लोक-मंगल कारी था।

 यूं तो मेरा जन्म पौराणिक कथाओं की मान्यता के अनुसार भगवान श्री हरी के चरणोदक से हुआ है। लेकिन रही मैं युगों-युगों तक ब्रह्मा जी के कमंडल में ही। उन्हीं दिनों परमपिता ब्रह्मा ने राजा भगीरथ के भगीरथ प्रयत्न से प्रसन्न होकर मुझे उनके पूर्वजों के तारने का लक्ष्य लेकर ब्रह्म लोक से अपने कमंडल से मुक्त कर दिया। जब प्रबल वेग से हर-हर करती पृथ्वी की तरफ चली तो सारी सृष्टि में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था।मेरा वेग रोकने की क्षमता सृष्टि के किसी प्राणी में नहीं थी। इसी लिए घबरा कर राजा भगीरथ एक बार  भगवान शिव की  शरण में चले गए, उस समय भगवान शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो मुझे अपनी जटाओं में उलझा लिया था। तथा राजा भगीरथ के आग्रह पर कुछ अंशों में मुझे मुक्त कर दिया था। मैं गोमुख से प्रकट हो गंगोत्री से होती हुई  उनके पुरखों (राजा सगर की) संततियों को तारने हेतु भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी थी। और उनका तारन हार बनी  ऐसा पुराणों का मत है तथा इतिहास की गवाही।

उसके बाद से  अब तक मैंने  अच्छे-बुरे बहुत समय देखें, मैंने लोगों का श्रद्धा विश्वास और भरोसे से भरा हृदय देखा मैंने देखा कि किस प्रकार लोग अपना इहलोक और परलोक संवारने हेतु मुझमें  गोते लगाते और मेरा पावन जल पात्रों में भर कर देवताओं का अभिषेक तथा आचमन करने हेतु ले जाते थे। एक विश्वास ही उनके भीतर था, जो उन्हें अपने परिजनों के चिता की राख  को उनके तारण हेतु मुझमें प्रवाहित करने हेतु विवश करता था। लेकिन आज़ मैं विवश हूं। मुझे अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जीवन और मृत्यु की जद्दोजहद में इस आशा विश्वास और भरोसे के साथ जी रही हूं कि भविष्य में शायद इस मानव कुल में कोई महामानव भगीरथ बन पैदा हो और मेरा पूर्वकालिक स्वरूप वापस देकर मुझे नवजीवन दे दे। आज मैं मानवीय अत्याचारों से दुखी अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रही हूं।

मुझे खुद के भीतर की गंदगी और खुद का घिनौना रूप देख खुद से घृणा  तथा उबकाई आने लगी है। और इस सबका जिम्मेदार सामूहिक रूप से तुम्हारा मानव समाज ही  है।  कोई समय था जब मैं गोमुख से  अपनी धवलधार संग राजा भगीरथ के पीछे पीछे जड़ी बूटियों का सत  लेकर मंथर गति से चलती हुई मैदानी इलाकों से गुजर कर सागर से जा मिली थी और गंगासागर तीर्थ बन गई थी।उस समय हमारा मिलन देख देवता अति प्रसन्न हुए थे। तथा सागर ने अपनी बाहें पसार कर अपनी उत्ताल तरंगों से मेरा स्वागत किया था।अपनी उत्ताल तरंगों तथा मेरी कल कर की ध्वनि  सुनकर सागर भी सम्मोहित हो गया था तथा मेरे साथ छाई छप्पा  खेलते हुए एक दूसरे में समाहित हो मैंने अपना अस्तित्व गंवा दिया था और सागर बन बैठी थी।

 उस यात्रा के दौरान अनेक ऐसे संयोग बने जब अनेकों नद नाले आकर मुझमें समा गए। तब मुझे ऐसा लगता जैसे वे अपने पावन  जल से मेरा अभिषेक करना चाह रहे हों। लेकिन अब मैं क्या करूं, किसके पास जांऊ अपनी फरियाद लेकर। कौन है जो सुनेगा मेरी पीड़ा ,  क्यौ कि अब तो मेरे पुत्रों की आने वाली पिढियां गूंगी बहरी तथा  पाषाण हृदय पैदा हो रही है। उनका हृदय भी भावशून्य है। अब उन सबको मेरा यह बिगड़ा स्वरूप भी आंदोलित नहीं करता। लोगों ने जगह जगह बांध बना मेरी जीवन रेखा की जलधारा को छीन लिया। मुझमें गन्दे नाले का मल जल तथा औद्योगिक अपशिष्ट बहा कर  जिम्मेदार लोगों ने अवैध धन उगाही की मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। और मेरी सफाई के नाम पर  भ्रष्टाचार की एक नई अंतर्धारा बहा दी। मेरे सफाई के नाम पर अरबों खरबों लुटाए गए फिर भी मैं साफ नहीं हुई। क्योंकि मेरी सफाई के लिए जिस दृढ़ इक्षाशक्ति और इमानदार प्रयास की जरूरत थी वो नहीं हुआ उसके साथ ही अपनी मुक्ति का सपना संजोए मेरे पास आने वाली तुम्हारी पीढ़ियों के लोगों ने भी आस्था के नाम पर मुझे गंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुझे लगता है कि लगभग सवा अरब की आबादी वाली सारी औलादें नाकारा हो गई है।

मैं तो सदियों सदियों से चिताओं की राख  लेकर लोगों को मोक्ष देती रही तथा श्रद्धा से समर्पित फूल मालाओं की डलियां लेती रही लेकिन कभी भी इतनी गन्दी नहीं थी।

आखिर इस देश के नीति-नियंताओं के समझ में यह साधारण सी बात कब आएगी?, मेरी गंदगी का कारणबने नालों कचरे कब रोके जाएंगे? 

मेरी  जीवनजलधारा  को अनवरत जलप्रवाह कब प्राप्त होगा?

यदि मेरी जल धारा को मुक्त कर दिया जाए तथा नालों की गंदगी रोक दी जाए तो मेरी सफाई की जरूरत ही न पड़े।

तुम सब याद रखना यदि मेरी जलधारा मुक्त नहीं हुई तुम सबका राजनैतिक शह मात का खेल चलता रहा तो मैं तो एक दिन  अकालमृत्यु मरूंगी ही मेरी अंतरात्मा के अभिशाप  से तुम्हारी पीढ़ियां भी जल के अभाव में छटपटाते बिलबिलाते हुए मरेंगी। और मैं अतीत के इतिहास में दफन हो कर कालखंड के इतिहास का पन्ना बन कर रह जाउंगी। फिर तुम्हारी पिढियां मेरी मौत पर मातम मनाने का तमाशा करती दिखेंगी।

अब भी चेत जाओ ,हो सके तो मुझे जीवन देकर मौत से अपनी सुरक्षा कर लो। इस प्रकार संवाद करते हुए मां गंगा के चेहरे पर  आक्रोश छलकने  लगा कि सहसा गंगा घाट पर चलने वाले  प्रवचन पंडाल से यह ध्वनि सुनाई पड़ी——

जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।

तैसई नाथ पुरुष बिनु नारी।।

जो जीवन के यथार्थ समझा गई थी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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