मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ सुमनांच्या बगिचामध्ये…  ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? सुमनांच्या बगिचामध्ये… ? ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

त्याग करावा ना लागे काही

मोद हासरा भोवती राही

त्या गं कुसुमांच्या गावामध्ये

गंध रवी अस्ता जात नाही॥

या सुमनांच्या बगिचामध्ये

रंगगंध गंमत जंमत

या तुम्हीही छान गावात

अनुभवा रंगत संगत॥

सूर आळवीत कोणी राणी

गात बसते मधाळ गाणी

सूरही होती मोहित आणि

दंगूनी ऐकती गोड वाणी॥

राग लोभ विकारांवरती

जय येथ सारे मिळवती

राग वनराणी जे छेडती

विहरणारे भान हरती॥

जागा अशी मनात भरते

रोज रोज जावेसे वाटते

जा, गा, मना हर्षूनी तिथे तू

कानी कोण हे मला सांगते?

शिरा-शिरातुन चैतन्याचे

आपसुक रुधिर वाहते

शिरा तुम्हीही गंध गुहेत

जिथे मनमोहिनी राहते॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #179 – 65 – “मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ…”)

? ग़ज़ल # 65 – “मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

उम्र का सफ़र अब ढलने लगा है,

सब्र का पानी  पिघलने लगा है।

ज़िल्लतों को ढो लिया बहुत दिन,

वजन कंधों पर से उतरने लगा है।

ज़माने की भीड़ में कोई नहीं मेरा,

आरज़ूओं का नशा ढलने लगा है।

मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ,

फ़ना का साया अब उभरने लगा है।

बदरंग हो चली हैं अब सब तस्वीरें, 

ख़्वाहिशों का पानी जमने लगा है।

देख कर मेला यहाँ रुसवाइयों का,

ज़िंदगी का मक़सद घुलने लगा है।

आशिक़ी में हम रहे नाकाम आतिश,

यारों को हमारा साथ खलने लगा है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 121 ☆ कविता – “प्रल्हाद के विश्वास का संसार है होली…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक कविता – “प्रल्हाद के विश्वास का संसार है होली…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #121 ☆  कविता  – “प्रल्हाद के विश्वास का संसार है होली…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रल्हाद के विश्वास का संसार है होली।

भारत का भावना भरा त्यौहार है होली ।

संस्कृति ने हमें जो दिया उपहार है होली ।

हर मन में जो पलता है वही प्यार है होली ||1||

मिट जाते जहाँ दाग सब मन के मलाल के

उड़ते हैं जहाँ घिर नये बादल गुलाल के।

खुश होते जहाँ लोग सब भारत विशाल के

वह पर्व प्यार का मधुर आधार है होली ||2||

इसके गुलाल रंग में अनुपम फुहार है।

मनमोहिनी सुगन्ध का मादक खुमार है।

हर पल में छुपे प्यार की धीमी पुकार है।

आपस में हेल-मेल का उपचार है होली ||3||

धुल जाते जहाँ मैल सभी रस की धार में।

मिट जाते सभी भेदभाव प्रेम-प्यार में।

दुनियाँ जहाँ दिखती नई आई बहार में।

अनुराग भरा अनोखा त्यौहार है होली ॥4॥

हम भारतीयों का सुखद संस्कार है होली ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 57 ☆।।कोशिश करो कि जिंदगी पहेली नहीं कि सहेली बन जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। कोशिश करो कि जिंदगी पहेली नहीं कि सहेली बन जाये।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 57 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। कोशिश करो कि जिंदगी पहेली नहीं कि सहेली बन जाये ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

कोशिश करो कि जिंदगी तुम्हारी चेली बन जाये।

मत उलझाओ इतना जिंदगी पहेली बन जाये।।

कदम से कदम मिला कर चलो वक़्त के साथ।

यही चाहो कि जिंदगी तुम्हारी सहेली बन जाये।।

[2]

दर्दऔर गम में भी जरा मुस्कराना  सीख लो।

बांट कर खुशी किसी को हंसाना सीख लो।।

जन्नत खुद उतर कर आ जायेगी जमीन पर।

बस जरा प्यार से गले   लगाना सीख लो।।

[3]

पीछे देखना नहीं आगे की रवानी है जिंदगी।

हर दिन इक नई सी कोई कहानी है जिंदगी।।

जोशो  जनून जज्बा कभी कम न होने पाए।

जी कर जरा देखो जीने को दीवानी है जिंदगी।।

[4]

प्रभु की दी हुई नियामत मेहरबानी है जिंदगी।

बहुत कुछ सीखा दे इतनी सयानी है जिंदगी।।

हर रोज़ बेहतर से भी बेहतर बनायो इसको।

इस एक उम्र में सारी   समानी है जिंदगी।।

[5]

जिंदगी कोई सवाल  नहीं जवाब है जिंदगी।

गर बनायो तो कोई सुनहरा ख्वाब हैं जिंदगी।।

हज़ारों रंग समेटे है जिंदगी अपनी कहानी में।

कुछ और नहीं बस बहुत लाजवाब है जिंदगी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 142 – समन्वय ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 142 – समन्वय ☆

समन्वय सुख दुःखाचा

मार्ग सुलभ जगण्याचा।

मन बुद्धी या दोहोंचा

मेळ घडावा सर्वांचा।

यश कीर्तीच्या शिखरी

उत्तुंग मनाची भरारी।

परी असावे रे स्थिर

ध्येय असावे करारी |

घेता सुखाचा अस्वाद

राहो दुःखी  तांचे भान।

क्षण दुःखी व सुखद

मिळो समबुद्धी चे दान

हक्क कर्तव्य कारणे

राही सदैव तत्पर ।

लेवू हक्काची भूषणे

करू कर्तव्ये सत्वर ।

जीवन उत्सवा आवडी

प्रेम रागाची ही जोडी।

लाभो द्वेषालाही थोडी

प्रेम वात्सल्याची गोडी

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २१ (इंद्राग्नि सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २१ (इंद्राग्नि सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २१ (इंद्राग्नि सूक्त )

ऋषी – मेधातिथि काण्व : देवता – इंद्र, अग्नि

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील एकविसाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी इंद्रदेवतेला आणि अग्निदेवतेला आवाहने केलेली आहेत. त्यामुळे हे सूक्त इंद्राग्नि सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. 

मराठी भावानुवाद 

इ॒हेन्द्रा॒ग्नी उप॑ ह्वये॒ तयो॒रित्स्तोम॑मुश्मसि । ता सोमं॑ सोम॒पात॑मा ॥ १ ॥

देवेंद्राला  गार्ह्यपत्या अमुचे आवाहन

आर्त होउनी उभयतांचे त्या करितो स्तवन

त्या दोघांना सोमरसाची मनापासुनी रुची

सोमपान करुनिया करावी तृप्ती इच्छेची ||१||

ता य॒ज्ञेषु॒ प्र शं॑सतेन्द्रा॒ग्नी शु॑म्भता नरः । ता गा॑य॒त्रेषु॑ गायत ॥ २ ॥

इंद्राचे अन् अग्नीचे या यज्ञी स्तवन करा

हे मनुजांनो अलंकार स्तुति त्यांना अर्पण करा

स्तोत्रे गाउनिया दोघांची प्रसन्न त्यांना करा

आशिष घेउनी उभयतांचे यज्ञा सिद्ध करा ||२||

ता मि॒त्रस्य॒ प्रश॑स्तय इंद्रा॒ग्नी ता ह॑वामहे । सो॒म॒पा सोम॑पीतये ॥ ३ ॥

इन्द्राग्नी यज्ञासी यावे करितो आवाहन 

सोमरसाचे प्राशन करिण्या करितो पाचारण 

सन्मानास्तव मित्राचा तुम्हासी आमंत्रण

सोमपात्र भरलेले करितो तुम्हासी अर्पण ||३||

उ॒ग्रा सन्ता॑ हवामह॒ उपे॒दं सव॑नं सु॒तम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी एह ग॑च्छताम् ॥ ४ ॥

सिद्ध करुनिया हवी ठेवला या वेदीवरती

अर्पण करण्या इंद्राग्निंना आतुर अमुची मती

उग्र असुनिही उदार इन्द्र आणि अग्नी देवता

स्वीकाराया हविर्भाग हा यज्ञी यावे आता ||४||

ता म॒हान्ता॒ सद॒स्पती॒ इंद्रा॑ग्नी॒ रक्ष॑ उब्जतम् । अप्र॑जाः सन्त्व॒त्रिणः॑ ॥ ५ ॥

समस्त जनतेचे रक्षक तुम्ही चंड बलवान

अग्निदेवते सवे घेउनी करता संरक्षण

दुष्ट असुरांना निर्दाळुनी तुम्ही करा शासन

शौर्याने तुमच्या कुटिलांचे होवो निःसंतान ||५||

तेन॑ स॒त्येन॑ जागृत॒मधि॑ प्रचे॒तुने॑ प॒दे । इंद्रा॑ग्नी॒ शर्म॑ यच्छतम् ॥ ६ ॥

चैतन्याच्या तेजाने उज्ज्वल तुमचे स्थान

कृपा करुनिया आम्हावरती व्हावे विराजमान

सत्यमार्गी ही तुमची कीर्ति दिगंत विश्वातून 

जागुनिया तुमच्या महिमेला करी सौख्य दान ||६||

(हे सूक्त व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे.. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.  त्यामुळे आपल्याला गीत ऋग्वेदातील नवनवीन गीते आणि इतरही कथा, कविता व गीते प्रसारित केल्या केल्या समजू शकतील.  चॅनलला सबस्क्राईब करणे निःशुल्क आहे.)

https://youtu.be/U07wHkVNtT4

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 21

Rugved Mandal 1 Sukta 21

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ महा-सम्राट… श्री विश्वास पाटील ☆ परिचय – सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ महा-सम्राट…  श्री विश्वास पाटील ☆ परिचय – सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

पुस्तकाचे नाव – महा-सम्राट

लेखक -विश्वास पाटील

खंड पहिला – झंझावात (छत्रपती शिवरायांच्या जीवनावरील कादंबरी माला)

प्रकाशक – मेहता पब्लिशिंग हाऊस प्रा.लि., १९४१, सदाशिव पेठ, माडीवाले काॅलनी. पुणे ४११०३०

प्रकाशन काल -१ आॅगस्ट २०२२

किंमत – रू.५७५/-

या पुस्तकाचा पहिला भाग आपल्याला शहाजी महाराजांच्या काळातील बऱ्याच गोष्टी सांगून जातो शहाजीराजे मंदिर निजामशाही, आदिलशाही या दोन्ही ठिकाणी कामगिरी गाजवलेले एक मातब्बर सरदार म्हणून माहीत होते. परंतु या पुस्तकात सुरुवातीलाच त्यांनी लढलेल्या अनेक लढाया, गाजवलेले शौर्य आणि त्यांची मनातून असणारी स्वातंत्र्याची ओढ याविषयी अगदी परिपूर्ण माहिती मिळते. शिवराय आपल्या पिताजींबरोबर बंगळूर येथे फक्त सहा वर्षापर्यंत होते. त्यानंतर राजमाता जिजाऊ सह ते पुनवडी म्हणजेच पुणे येथे आले. आणि खरा स्वराज्याचा इतिहास सुरू झाला. पण त्यासाठी त्यांच्या आधीच्या काळात शहाजीराजे किती झगडले हे या पुस्तकात वाचायला मिळते. पुरंदर, जावळी, प्रबळगड, पेमगिरी अशा विविध ठिकाणी त्यांनी युध्दे खेळली.तसेच जे राजकारण केले ते या पुस्तकातून कळते. गुलामगिरी विरुद्ध पहिला एल्गार त्यांनी केला. शिवरायांना स्फूर्ती देणारे हे त्यांचे पिताजी! परक्यांची चाकरी करताना त्यांच्या मनात केवढी मोठी खंत होती हे वाचताना जाणवते.

जिजाऊंच्या माहेरच्या माणसांची त्यांना वैर घ्यावे लागले पण ज्या मुस्लिम राज्यांची त्यांनी सरदारकी पत्करली होती त्यासाठी कर्तव्य म्हणून त्यांनीही युद्ध केली.

शहाजीराजांना घोड्यांची चांगली पारख होती सारंगखेड्याच्या घोड्यांचा बाजार भरत असेल तेथे “दिल पाक” नावाचा अश्व  शहाजीराजांनी खरेदी केला होता.

आदिलशाही, निजामशाही आणि मुगल शाही या तीनही मुसलमानी शाह्यांना तोंड देत 30-40 वर्षे शहाजीराजांनी कार्य केले होते. शिवबांना लहानपणीच स्वराज्याचे बाळकडू जिजामातेकडून कसे मिळाले त्याचेही वर्णन या कादंबरीत खूप छोट्या छोट्या प्रसंगातून दिसून येते.

या पुस्तकाचा शेवटचा भाग राजगड ही स्वराज्याची पहिली राजधानी कशी घडली. तसेच शिवरायांनी छोटे-मोठे किल्ले घेत घेत स्वराज्याची पायाभरणी कशी केली हे सांगतो. अफजल खान महाराजांच्या भेटीसाठी येण्याच्या प्रसंगाचे वर्णन या पुस्तकात शेवटच्या भागात आहे शिवरायांचे वैशिष्ट्य हे की त्यांनी चांगले विचार स्वराज्य स्थापनेसाठी दिले. अफजलखानाच्या वधा नंतर ‘देहाचे शत्रुत्व संपले’ या विचाराने त्याची कबर प्रतापगडाच्या पायथ्याशी बांधण्यासाठी वेगळी जागा शिवरायांनी दिली.

शिवरायांच्या जीवनावरील कादंबरी मालेतील या पहिल्याच झंजावातात आपल्याला शिवरायांचा इतिहास पुन्हा एकदा नव्याने वाचण्याचा आनंद मिळतो!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

वारजे, पुणे.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #172 ☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 172☆

☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र 

‘जो अपने वश में नहीं, वह किसी का भी गुलाम बन सकता है’ मनु का यह कथन आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि जब तक हम अपने अंतर्मन में नहीं झाँकेगे; अपनी बुराइयों व ग़लतियों से अवगत नहीं हो पाएंगे। उस स्थिति में सुधार की गुंजाइश कहाँ रह जाएगी? यदि हम सदैव दूसरों के नियंत्रण में रहेंगे, तो हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं की कोई अहमियत नहीं रहेगी और हम गुलामी में भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। वास्तव में स्वतंत्रता में जीवंतता होती है, पराश्रिता नहीं रहती और जो व्यक्ति स्व-नियंत्रण अर्थात् आत्मानंद में लीन रहता है, वही सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ होता है। इसलिए पक्षी पिंजरे में कभी भी आनंदित नहीं रहता; सदैव परेशान रहता है, क्योंकि आवश्यकता है–अहमियत व अस्तित्व के स्वीकार्यता भाव की। सो! जो व्यक्ति अपनी परवाह नहीं करता; ग़लत का विरोध नहीं करता तथा हर विषम परिस्थिति में भी संतोष व आनंद में रहता है; वह जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।

‘बहुत कमियां निकालते हैं हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाक़ात ज़रा आईने से भी कर लें।’ जी हाँ! आईना कभी झूठ नहीं बोलता; सत्य से साक्षात्कार कराता है। इसलिए मानव को आईने से रूबरू होने की सलाह दी जाती है। वैसे दूसरों में कमियां निकालना तो बहुत आसान है, परंतु ख़ुद को सहेजना-सँवारना अत्यंत कठिन है। संसार में सबसे कठिन कार्य है अपनी कमियों को स्वीकारना। इसलिए कहा जाता है ‘ढूंढो तो सुकून ख़ुद में है/ दूसरों से तो बस उलझनें मिलती हैं।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाक़ात करने व ख़ुद को तलाशने की सीख दी जाती है। यह ध्यान अर्थात् आत्म-मुग्धता की स्थिति होती है, जिसमें दूसरों से संबंध- सरोकारों का स्थान नहीं रहता। यह हृदय की मुक्तावस्था कहलाती है, जहां इंसान आत्मकेंद्रित रहता है। वह इस तथ्य से अवगत नहीं रहता कि उसके आसपास हो क्या रहा है? यह आत्मसंतोष की स्थिति होती है, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का स्थान नहीं रहता।

ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ना दूसरों से ग़िला कीजिए।’ शायद इसीलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में जड़ से मिटा देना चाहिए, वरना ये कुकुरमुत्तों की भांति अपने पाँव पसार लेती हैं। सो! उलझनों को शांति से सुलझाना कारग़र है, अन्यथा वे दरारें दीवारों का आकार ग्रहण कर लेती हैं। शायद इसीलिए यह सीख दी जाती है कि मतभेद रखें, मनभेद नहीं और मन-आँगन में दीवारें मत पनपने दें।

मानव को अपेक्षा व उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकलना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियाँ मानव के लिए घातक हैं। यदि हम किसी से उम्मीद करते हैं और वह पूरी नहीं होती, तो हमें दु:ख होता है। इसके विपरीत यदि कोई हमारी उपेक्षा करता है और हमारे प्रति लापरवाही का भाव जताता है, तो वह स्थिति भी हमारे लिए असहनीय हो जाती है। सामान्य रूप में मानव को उम्मीद का दामन थामे रखना चाहिए, क्योंकि वह हमें मंज़िल तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि उसमें निराशा की गुंजाइश नहीं होती। विपत्ति के समय मानव को इधर-उधर नहीं झाँकना चाहिए, बल्कि अपना सहारा स्वयं बनना चाहिए– यही सफलता की कुंजी है तथा अपनी मंज़िल तक पहुंचने का बेहतर विकल्प।

‘ज़िंदगी कहाँ रुलाती है, रुलाते तो वे लोग हैं, जिन्हें हम अपनी ज़िंदगी समझ लेते हैं’ से तात्पर्य है कि मानव को मोह-माया के बंधनों से सदैव मुक्त रहना चाहिए। जितना हम दूसरों के क़रीब होंगे, उनसे अलग होना उतना ही दुष्कर व कष्टकारी होगा। इसलिए ही कहा जाता है कि हमें सबसे अधिक अपने ही कष्ट देते व रुलाते हैं। मेरे गीत की यह पंक्तियाँ भी इसी भाव को दर्शाती हैं। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इस संसार में इंसान अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है और ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक यहाँ ठहर पाएगा।’

ज़िंदगी समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ नहीं आई तो मेले में भी अकेला अर्थात् यही है ध्यानावस्था में रहने का सलीका। ऐसा व्यक्ति हर पल प्रभु सिमरन में मग्न रहता है, क्योंकि अंतकाल में यही साथ जाता है। ग़लती को वह इंसान सुधार लेता है, जो उसे स्वीकार लेता है। परंतु मानव का अहं सदैव उसके आड़े आता है, जो उसका सबसे बड़ा शत्रु है। अपेक्षाएं जहां खत्म होती हैं: सुक़ून वहाँ से शुरू होता है। इसलिए रिश्ते चंदन की तरह होने चाहिए/ टुकड़े चाहे हज़ार हो जाएं/ सुगंध ना जाए, क्योंकि जो भावनाओं को समझ कर भी आपको तकलीफ़ देता है; कभी आपका अपना हो ही नहीं सकता। वैसे तो आजकल यही है दस्तूर- ए-दुनिया। अपने ही अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं, क्योंकि रिश्तों में अपनत्व भाव तो रहा ही नहीं। वे तो पलभर में ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुना हुआ पापड़। सो! अजनबीपन का एहसास सदा बना रहता है। इसलिए पीठ हमेशा मज़बूत रखनी चाहिए, क्योंकि शाबाशी व धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं। बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जीओ। परंतु जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जीओ, क्योंकि अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है। लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है, साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है।

दो चीज़ें देखने में छोटी नज़र आती हैं–एक दूर से, दूसरा गुरूर से। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर उम्र निकल जाती है। सो! मानव को समय का सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता। काश! लोग समझ पाते रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। सो! श्रेष्ठ वही कहलाता है, जिसमें दृढ़ता हो, पर ज़िद्द नहीं; दया हो, पर कमज़ोरी नहीं; ज्ञान हो, अहंकार नहीं। इसके साथ ही मानव को इच्छाएं, सपने, उम्मीदें व नाखून समय-समय पर काटने की सलाह दी गई है, क्योंकि यह सब मानव को पथ-विचलित ही नहीं करते, बल्कि उस मुक़ाम पर पहुंचा देते हैं, जहाँ से लौटना संभव नहीं होता। परंतु यह सब आत्म-नियंत्रण द्वारा संभव है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #171 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 170 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

लोचन

लोचन ने हमसे कहा,आ जाओ सरकार।

समझ लिया है आपको,हुआ है मुझे प्यार।।

मिठास

वाणी की है मधुरता, बोले वचन मिठास,

समा उसने बाँध लिया, सबको था विश्वास।।

उपवास

नौ देवी का है पर्व , करते है उपवास।

जीवन सुखमय हो रहा, दिन आया है खास।।

राधिका

कहे राधिका श्याम से, आना यमुना तीर।

समय बहुत अब हो गया, मन बाँधे  है धीर।।

पिचकारी

होली रंग में डूबे, राधा ओ गोपाल।

रंग भरते पिचकारी, ग्वाल बाल ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #157 ☆ “तुम समझो न समझो ये तुम जानो…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  तुम समझो न समझो ये तुम जानो। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 157 ☆

☆ तुम समझो न समझो ये तुम जानो ☆ श्री संतोष नेमा ☆

मेरे  अंदर   का  अहसास  हो  तुम

मेरे  लिए  बहुत  ही खास  हो  तुम

तुम समझो न समझो ये तुम जानो

मेरी   ज़िंदगी  की  मिठास  हो  तुम

जरा दिल दुखाने में  परहेज   करो

किसी को आजमाने में गुरेज करो

दर्द  क्या  होता  है  तुम्हें  क्या पता

जरा  प्यार  बढ़ाने  में  निवेश  करो

मुझसे   मेरा  पता   पूछते   हो

दिल  चुरा  कर खता पूछते  हो

देकर दर्द मुझे वफ़ा के नाम पर

मुझसे मेरी अब  रज़ा पूछते  हो

मेरे   दिलवर  मेरी  सरकार  हो तुम

मेरे  स्वप्नों का  सुख- संसार  हो तुम

तुम्हीं हो रौनक हमारे घर आँगन की

हमारे जीवन का सच्चा प्यार हो  तुम

काँटों  के  बीच खिला गुलाब  हूँ मैं

जीवन की एक खुली किताब हूँ मैं

जिसे  पढ़ना  है वो पढ़ ले शौक से

हर मुश्किल सवाल का जवाब हूँ मैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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