हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

Cycle Thief                   

सत्तर के दशक में इस शीर्षक से अंग्रेजी फिल्म देखी थी। फिल्म श्याम और श्वेत काल खंड की थी।  

विश्व के सबसे समृद्ध कहे जाने वाले देश अमेरिका में एक साइकिल को सांकल से बांध कर रखा हुआ देखा तो मानस पटल में ये विचार आया की यहां भी लोग अभी तक साइकिल की चोरी/ उठाई गिरी करते हैं। ऐसी संपन्न अर्थव्यवस्था वाले देश की स्थिति भी हमारे देश जैसी ही है।

यहां साइकिल को मेट्रो ट्रेन और बस में लेकर जाने की भी सुविधा हैं। हमारे देश में भी तो दूध विक्रेता ट्रेन की खिड़की में साइकिल और दूध के भरे डिब्बे लटकाकर एक गांव से दूसरे गांव ले जाते हैं। ये उनकी रोजी-रोटी अर्जित करने का साधन हैं।

स्थानीय जानकारी प्राप्त हुई की यहां पर अधिकतर लोग साइकिल को स्वयं ही कसते (असेंबल) हैं, क्योंकि दुकान में इस कार्य के लिए बहुत अधिक शुल्क लिया जाता है।

साइकिल के दाम अधिक होने से यहां पर भी पुरानी साइकिल का बाज़ार हैं। किराये की साइकिल को एक स्थान से लेने के पश्चात किसी अन्य स्थान पर भी छोड़ा जा सकता है।

(भारत में भी अब कुछ मेट्रो शहरों में साइकिल रेंट सेवाएं उपलब्ध हैं। आप अपने नजदीक उपलब्ध ऑन लाइन साइकिल सेवाएं मोबाईल अप्प की मदद से ले सकते हैं।)

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #156 ☆ नक्षत्रांचे फुलणे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 156 ?

☆ नक्षत्रांचे फुलणे…

समर्पणाच्या तेलामधल्या लावु प्रीतिच्या वाती

लैला-मजनू सोबत व्हावी तुझी नि माझी गणती

 

पुनवेच्या या चांदण रात्री नक्षत्रांचे फुलणे

फांदीवरच्या कळ्या फुलांचे आनंदाने झुलणे

भल्या पहाटे दवात भिजुनी तुझ्यासारख्या नटती

 

मेंदीसोबत हात फुलांचे छान रंगले होते

फांदीसोबत जडले होते जन्मभरीचे नाते

तुझ्याचसाठी या नात्याला पहा लागली गळती

 

मातृत्वाचा स्पर्श सोडुनी तुझ्यासोबती आले

जन्मोजन्मी या संसारी तुझीच रे मी झाले

तुझ्या घराचा दिवा लावण्या जळत राहिली पणती

 

वृक्ष बहरला नवीन फांद्या नव्या युगाची नांदी

इतिहासाच्या पानांवरती व्हाव्या याच्या नोंदी

या प्रीतीची नोंद रहावी नव्या पिढीच्या हाती

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 8 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 8  ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

संतसाहित्य,  संतवाडॄमय , सद्गुरूंची चरित्रे,  देवदेवतांच्या पोथीवाचन हा एक वेगळाच अनुभव असतो. हे वाचन करताना दैवी लीला, सद्गुरुंचा शाब्दिक दिलासा आणि त्यानुसार येणा-या अनुभवांनी,  प्रीतीने मन भारावून जाते. ह्रदय भरून येते. नकळत डोळे पाझरू लागतात. ते पाणी असतं कृतज्ञतेचं. आस्तिकतेला आश्वस्त करणारं, श्रद्धा अधिक दृढ करणारं. ह्रदयस्थ आत्मा  अश्रूंच्या रूपाने गुरुचरणावर लीन होतो.  हा अनुभव वर्णनातीत आहे. तो ज्याचा त्यानंच अनुभवायचा असतो.

असं हे डोळ्यातलं पाणी म्हणजे भावना व्यक्त करण्याची भाषा. दुःख, यातना, वेदना, राग, प्रेम, ममता, असूया, विरह, कृतज्ञता,  अगतिकता अशा अनेक भावनांचं मूर्त स्वरूप.

” प्रेमस्वरूप आई वात्सल्यसिंधू आई……” हे गाणं ऐकताना केव्हा मी रडायला लागते तेच कळत नाही.  दुस-याच्या डोळ्यात पाणी बघून आपले डोळे भरून येतात.

परजीवास्तव जेथ आतडे

कळवळुनी येई

त्या ह्रदयाविण स्वर्ग दुजा या

ब्रम्हांडी नाही

रडणं ही क्रिया म्हणा किंवा भावना म्हणा , अगदी नैसर्गिक आहे.  हसण्याच्या  वेळी मनमुराद हसावं, तसंच मनमोकळेपणाने रडावं. आरोग्यासाठी दोन्ही चांगलं ! मोकळेपणाने हसता न येणं किंवा रडताही न येणं यासारखी निराशेची आणि लाजिरवाणी गोष्ट दुसरी नाही .

अर्थात काही जणांना उगीचच रडण्याची सवय असते. सतत तक्रार,  सतत रड.अशावेळी

” सुख दुखतःय” हा शब्दप्रयोग योग्य वाटतो. वरवरचे अश्रू म्हणजेच नक्राश्रू. काही जण दुसरा रडत असेल तर तायाला हसतात, चिडवतात. काही जणांना दुस-याला दुःखी बघून आनंद होतो. या वृत्तीसारखी वाईट गोष्ट दुसरी असूच शकत नाही.

जन्मापासून मृत्यूपर्यंत डोळ्यातलं पाणी मन, भावना,  यांचं खरेपण व्यक्त करत असतं.पुरूषांपेक्षा स्त्रियांचं मन हळवं असतं हा एक सर्व साधारण समज आहे. पुरूषांनी रडायचं म्हणजे अगदी बायकी पणाचं वाटतं हाही एक ” समजच ” आहे.पण तो योग्य नाही. एखादा कलाकार, पुरूष असो किंवा स्त्री,  आपली कला रंगमंचावर सादर करताना जर भूमिकेशी समरस झाला तर खोट्या अश्रूंसाठी ग्लिसरीन वापरण्याची गरज पडत नाही. त्याचं संवेदनाशील मन त्याला साथ देतं.  तोच अभिनय खरा असतो, आणि तोच प्रेक्षकांवर परिणाम करतो. म्हणून मन संवेदनशील असणं व ते तद्रूप होणं गरजेचं असतं.

(क्रमशः… प्रत्येक मंगळवारी)

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 106 – गीत – हो हृदय के पास… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके गीत – हो हृदय के पास…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 106 – गीत – हो हृदय के पास✍

शपथ है उन सात फेरों की

है शपथ संझा-सबेरों की

है साक्षी आकाश,

मत तोड़ना विश्वास।

हो हृदय के पास।

*

याद है वह दिन तुम्हें

जाँचे बिना ही व्याह लाया था

अब कहूँ क्या और ज्यादा,

मैं समंदर थाह लाया था।

*

रतन से ज्यादा तुम्हें पाया,

जिंदगी को गीत – सा गाया

मत तोड़ना विश्वास

साक्षी आकाश

हो हृदय के पास ।

*

देवता की बात छोड़ो

आदमी से भूल होती है

निर्मली आकाश के भी पाश में

कुछ धूल होती है

धूल को तुमने हटाया है

रंग मेरा निखर आया है

मत तोड़ना विश्वास

साक्षी आकाश

हो हृदय के पास ।

*

कवि हृदय को बाँचना भी एक मुश्किल काम होता है

आँख उसकी भिखारिन इसलिए बदनाम होता है।

जो सजाई फूल क्यारी है, सम्मिलित खुशबू हमारी है

मत तोड़ना विश्वास

साक्षी आकाश

मैं हृदय के पास

हो हृदय के पास।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 108 – “नदिया का तर्क…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –नदिया का तर्क।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 108  ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “नदिया का तर्क”|| ☆

बादल दिखें जैसे

थान मारकीन के

कुछ फैले नभ की

दूकानमें,

लगते कटपीस

पापलीन के

 

हवा बहिन क्रय करने

आती बाजार में

पढ़ कर विज्ञापन को

ताजा अखवार में

 

रिमझिम वाली यहाँ

खरीदी परमुफ्त मिलें

दो डिब्बे कीचड़

से बनी बेसलीन के

 

नदिया का तर्क

नये रंग व डिजाइन के

छापे- पैटर्न रखो

चीड़ व बकाइन के

 

झाडियाँ जँचेंगी क्या

सोचकर बताओ तो

कुर्ते या टॉप पहिन

बिना आस्तीन के

 

भारी बरसात और

बाढ़ के आसार यहाँ

ऐसे में पुल चिन्तित

जायें तो जायें कहाँ

 

गड्ढों की बोतल ले

सड़कें उदास दिखीं

भूल गई घर बारिश

पैकेट नमकीन के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

21-07-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 155 ☆ “आदिवासी औरतें” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “आदिवासी औरतें”)  

☆ कविता # 155 ☆ “आदिवासी औरतें” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पुरखों का आशीष

लिए वे गातीं हैं 

जंगल के गीत,

 

पहाड़ी नदी के

उफान से बह जाता 

 है उनका काजल,

 

वे नहीं लगातीं

गोरेपन की 

कोई मंहगी क्रीम,

 

सौन्दर्य सहेज कर

रखतीं हैं नाक नक्श में

अपनी सच्चाई के साथ,

 

उनकी हंसी से

खिलखिलाते हैं साल 

फूल जाता है महुआ,

 

 उनकी आंखों के

 कोरों से बह जाती

 है जंगली नदी ,

 

वे जूड़े में गुथ

 लेतीं है जंगल का

 नैसर्गिक सौन्दर्य,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 98 ☆ # भोजन के पैकेट… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# भोजन के पैकेट… #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 98 ☆

☆ # भोजन के पैकेट… # ☆ 

गांव का एक गरीब

जिसके सोए थे नसीब

भूख से बेहाल

बेरोजगार और कंगाल

काम के तलाश में

शहर आया

शहर की चकाचौंध में घबराया

किस्मत से उसे

एक रैली में

शामिल होने का काम मिला

हाथ में झंडा

नाश्ता का पैकेट

पानी की बोतल के साथ

कुछ नगदी रुपए देख

उसका मन प्रसन्नता से खिला

सब के साथ वह भी

रैली में शामिल होकर

नारे लगाने लगा

साथियों के आवाज़ में

आवाज़ मिलाने लगा

वह रैली में, दिनभर

पूरे शहर में घूमकर

शाम को पार्क में वापस आया

बैठकर थोड़ा सा सुस्ताया

तभी, वहां एक सभा होने लगी

जमकर नारे बाजी होने लगी

कुछ लोग भाषण दे रहे थे

रैली में शामिल लोग

भोजन के पैकेट

ले रहे थे

उस गरीब को

किस बात की

रैली है या सभा है

समझ नहीं आया

वह प्रसन्न था कि वह

बिना मेहनत किए ही

आज अपना पेट भर पाया

उसने हाथ जोड़े

सर झुकाया

और बस इतना कह पाया

हे प्रभु!

आपकी यह अद्भुत लीला है

बिन मांगे ही अन्न मिला है

गांव में दिनभर

मेहनत करके भी

हम, अन्न के दाने-दाने को

तरसते हैं

और

शहर में बिना मेहनत किए ही

भगवान!

भोजन के पैकेट

हम पर बरसते हैं /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 98 ☆ सांगना केव्हा येणार तू… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 98 ? 

☆ सांगना केव्हा येणार तू… ☆

आठवतात दिवस

आजही मला ते

ओल्या वाळूतले

खेळण्याचे ते…

 

तुझा लटका राग

आजही आठवतो

तुझा तो अबोला

मी मनात साठवतो

 

असा हा तुझा ध्यास

माझ्या रोम रोमात

तुझ्या-विना मी,

असतो फक्त शून्यात…

 

तुझे प्रेमळ बोलणे

स्मरणात आहे मला

सांग तू आहेस कुठे

कसा शोधू गं तुला…

 

अंगणातल्या जागी

आजही पारिजात उभा

विचारतो सतत मला

कुठे आहे तुझी प्रभा…

 

त्यास मी काय सांगू,

न कळलेच तेव्हा

प्रिये सोडणं अबोला,

सांगणं तू येणार केव्हा…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३५ परिव्राजक १३.गुजरातचे दिवस ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३५ परिव्राजक १३.गुजरातचे दिवस ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

खेत्री म्हणजेच खेतडीहून स्वामीजी पुन्हा अजमेरला आले. श्री हरविलास सारडा यांच्याकडून तीन चार दिवसांनी ते बेबार इथं गेले असता, शामजी कृष्ण वर्मा अजमेरहून कामानिमित्त बेबारला आले होते, तेंव्हा ते स्वामीजींना बरोबर घेऊनच आले. हरविलास यांनी शामजींना स्वामीजींचं व्यक्तिमत्व, त्यांचे विचार आणि त्यांची देशभक्ती याबद्दल सर्व सांगितलं होतं. शामजींच्या घरी स्वामीजी पंधरा दिवस राहिले होते. तिथे स्वामीजींचा शामजींबरोबर धार्मिक आणि तत्वज्ञानवर संवाद होत असे. हरविलास यांचे राजस्थानमध्ये समाज सुधारणेचे मोठे काम होते तर, राजकीय क्षेत्रातल्या सर्वात जहाल क्रांतिकारकांच्या चळवळीला मदत करणारे पंडित शामजी कृष्ण वर्मा. (आपल्याला शामजी कृष्ण वर्मा हे व्यक्तिमत्व  स्वातंत्र्यवीर सावरकर यांच्या चरित्रात आपल्याला भेटले आहे.) या दोघांची भेट आणि झालेली वैचारिक देवाण घेवाण आश्चर्यकारकच आहे.

यानंतर स्वामीजी अबुच्या मार्गाने निघाले असता त्यांना तिथे ब्रम्हानंद आणि तुरीयानंद भेटले. यावेळी स्वामीजी फार उदास होऊन त्यांना म्हणाले, “ राजस्थान मधले लोकांचे दारिद्र्य पाहून माझे अंतकरण फाटून गेले आहे. त्यामुळे मला धड रात्री नीट झोप पण लागत नाही”. आणि त्यांच्या डोळ्यातून घळघळा अश्रु वाहू लागले. ते जरी खेत्रीला राजवाड्यात राहिले होते, तरी त्यांचा गावातील लोकांचा संपर्क आला होता. रोज कुठे ना कुठे खेडेगावात पण प्रवास झाला होता. तेंव्हा ग्रामीण भागातल्या लोकांचे दर्शन झाले होते. शेतकरी आणि झोपड्यातून राहणारी मुलेबाळे त्यांनी पहिली होती. अंगावर पुरेसे कपडे नाहीत, पोट खपाटीला गेलेलं, चेहरे निस्तेज हे दारिद्र्याचं दृश्य त्यांच्या अंतकरणाला भिडलं होतच. राजा अजीतसिंग यांच्याशी बोलताना सामान्य माणसापर्यंत शिक्षण कसं पोहोचवता येईल. शिक्षण हे दारिद्र्य कमी करण्यास कसं उपयोगी पडेल यावर चर्चा होत असत आणि एखादा छोटासा संस्थानिक आपल्या प्रजेचा कल्याणकारी विचार करेल तर हजारो माणसांचं जीवन तरी सुखी होईल हे स्वामीजींना समजत होतं म्हणून ते तशी दृष्टी देण्याचा प्रयत्न संस्थांनीकांच्या भेटीत सगळीकडेच करत होते.

राजस्थान मधला प्रवास आटोपता घेऊन स्वामीजी आता गुजरातेत अहमदाबादला आले. काही दिवस भिक्षा मागून मिळेल तिथे राहिले नंतर, उपन्यायाधीश श्री बालशंकर उमियाशंकर यांच्याकडे राहिले, जैन साधूंची भेट घेतली. त्यांच्या बरोबर जैन तत्वज्ञानवर चर्चा केली. पुढे लिमडी संस्थानला ते आले. लिमडीचे राजे, श्री ठाकुर जसवंतसिंग स्वामीजींच्या दर्शनाने प्रसन्न झाले. स्वामीजींना त्यांनी राजवाड्यातच काही दिवस ठेऊन घेतलं, ठाकुर जसवंतसिंग इंग्लंड आणि अमेरिकेचा प्रवास करून आले होते. त्यामुळे त्यांच्या विचारांना आधुनिकतेचा स्पर्श झाला होताच. पण तरी सुद्धा भारताच्या सनातन धर्माचा त्यांना अभिमान होता. त्यामुळे स्वामीजींचे विचार त्यांना पटले होते. वेदान्त विचारांचा प्रसार करण्यासाठी स्वामीजींनी पाश्चात्य देशात जावे ही कल्पना त्यांनीच प्रथम स्वामीजींना सुचवली असं म्हणतात. लिमडीहून जुनागडला जाताना ठाकुरांनी स्वामीजींना परिचय पत्र दिले.

भावनगर व सिहोरला राहून ते जुनागड इथं आले. इथल्या वास्तव्यात ते जुनागड संस्थानचे दिवाण श्री हरीदास बिहारीदास देसाई यांच्याकडे राहिले होते. इथला परिसर स्वामीजींच्या विचारांना अनुकूल होता. काही शतकांपूर्वी नरसी मेहता हे संत इथे होऊन गेले होते. शहरापासून जवळच गिरनार पर्वताचा पायथा इथं होता. तिथे जाण्याच्या मार्गावरच अनेक टेकड्यांवर पसरलेली हिंदू, बौद्ध आणि जैन धर्मांची मंदिरे होती. गिरनार पर्वताच्या पायथ्याशी सम्राट अशोकाने लिहिलेला प्राचीन शिलालेख दोन हजार वर्षापूर्वीच्या इतिहासाची साक्ष देत होता. त्यावर, प्रजेला सन्मार्गाने जाण्याचे आवाहन करणारी वचने कोरली होती. धर्म वचनांचा असा नम्रतेने पुरस्कार करणारा सम्राट अशोक खरं तर भारताचा एक वारसाच होता आणि हा इतिहास आपण कसा विसरून गेलो आहोत याची तिथल्या लोकांना स्वामीजींनी आपल्या विवेचनातून जाणीव करून दिली होती.

दिवाण साहेब स्वामीजींबरोबर अनेकांच्या भेटी आणि चर्चा घडवून आणत होतेच. हे संवाद मध्यरात्री पर्यन्त रंगत. स्वामीजींनी इथे, येशू ख्रिस्ताचे जीवन, त्याचा युरोप वर झालेला परिणाम तिथली संस्कृती राफेलची चित्रकला, धर्मोपदेशक, त्यांच्या संघटना, यामागे कशी येशू ख्रिस्ताची प्रेरणा आहे हे लोकांना समजून संगितले. युरोपमध्ये झालेली धर्मयुद्धे सांगितली. त्याच बरोबर भारतीय संस्कृतीतली तत्वे कशी युरोप मध्ये पोहोचली आहेत हे सांगीतले. मध्य आणि पश्चिम आशियाचा इतिहास सांगितला आणि जगत अध्यात्म विचारात आपल्या भारतीय संस्कृतीचा कसा महत्वाचा आणि फार मोठा वाटा आहे हे पण सांगीतले. स्वदेशीचा अभिमान आणि श्रीरामकृष्ण यांचा परिचयही तिथल्या सुशिक्षित लोकांना करून दिला. सर्वंकष विचार करणार्‍या अशा व्यक्तीचा सहवास लाभला आणि भेट झाली यात जुनागड च्या लोकांना धन्यता न वाटली तरच नवल होतं.

इथून स्वामीजी वेगवेगळ्या स्थळांना भेटी देऊन आले. भूज, कच्छ, वेरावळ आणि वेरावळ पासून जवळच असलेला, प्राचीन इतिहासाशी नातं सांगणारं प्रभासपट्टण इथे गेले. तेंव्हा त्यांनी गझनीच्या महंमदाने उध्वस्त केलेले सोमनाथचे भग्न मंदिर पाहिले. अहिल्यादेवी होळकर यांनी बांधलेले छोटे मंदिर पाहिले.  भारताला स्वातंत्र्य मिळाल्यानंतर सरदार पटेल यांनी खंबीर धोरण स्वीकारून उभं केलेलं सोमनाथ मंदिर आज आपल्याला दिसतं.

प्रभास पट्टणहून स्वामीजी पोरबंदरला आले. हे ही एक संस्थान होते. तिथले प्रशासक श्री शंकर पांडुरंग पंडित यांच्या नावाने स्वामीजींना जुनागडहून परिचय पत्र दिल्याने स्वामीजी त्यांच्याकडे उतरले होते. हे पंडित वेदवाङ्ग्मयाचे अधिकारी व्यक्ति होते. त्यावेळी त्यांचे वेदांचे भाषांतराचे काम चालू होते. स्वामीजींची ओळख झाल्यावर सुरूवातीला त्यांनी स्वामीजींची कठीण भागाचे भाषांतर करण्यासाठी मदत घेतली. पण  नंतर स्वामीजी या कामात खूप रमले. भाषांतरासाठी मदत म्हणून ते तिथे राहिले.

शंकर पांडुरंग पंडित हे मोठे विद्वान होते. युरोपातील अनेक देशात ते प्रवास करून आले होते. त्यांना फ्रेंच आणि जर्मन भाषा येत होत्या. त्यांचं स्वतच मोठं ग्रंथालय होतं. याचं आकर्षण स्वामीजींना वाटलं होतं. पंडितांनी स्वामीजींना पहिल्या भेटीत सांगितलं होतं की, कितीही दिवस रहा आणि ग्रंथालयाचा हवा तेव्हढा वापर करा. या ओढीने स्वामीजी पुन्हा पोरबंदरला येऊन भाषांतरा साठी राहिले आणि त्यांची वेदांचा अभ्यास करण्याची फार दिवसांची इच्छा पण पूर्ण झाली.

स्वामीजींचे विचार अनेक वेळा ऐकल्यानंतर पंडित त्यांना म्हणाले होते, “स्वामीजी, आपल्या देशात तुमच्या विचारांचं चीज होणार नाही. तुम्ही पाश्चात्य देशात गेलं पाहिजे. भारतीय परंपरा आणि संस्कृती जाणण्याची जिज्ञासा असणारी माणसं तिकडं आहेत. तुम्ही तिथं जाऊन आपल्या धर्मातली सनातन तत्व स्पष्ट केलीत तर, त्याचा प्रभाव पाश्चात्यांवर झाल्याशिवाय राहणार नाही. तुम्ही फ्रेंच भाषेचा अभ्यास केलात तर युरोप मध्येही खूप उपयोग होईल. यावर स्वामीजी म्हणाले, “मी एक संन्यासी आहे, माझ्या दृष्टीनं पूर्व काय आणि पश्चिम काय दोन्ही सारखी आहेत. तशी वेळ आली तर मी पश्चिमेकडे जाईन”. 

आधुनिक दृष्टी असलेल्या, जग पाहिलेल्या आणि हिंदुधर्माचा उत्तम व्यासंग असणार्‍या पंडितांची ओळख आणि भेट आणि वेदांचं भाषांतर करण्याची कष्टाची का असेना मिळालेली संधी यामुळे इथला स्वामीजींचा प्रवास फलदायी झालेला दिसतो. 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 29 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 29 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

४६.

मला भेटण्यासाठी केव्हापासून

तू माझ्याकडं यायला निघाला आहेस

तुझा सूर्य, तुझे तारे

माझ्यापासून तुला लपवू शकणार नाहीत

याची मला खात्री आहे.

 

तुझा पदरव सकाळ-संध्याकाळ मला ऐकू येतो.

तुझं गुपित तुझ्या दूतानं

माझ्या काना -मनात सांगून ठेवलंय.

 

आज माझं जीवन सर्वस्वी जागृत झालंय

आनंदाची एक क्षीण भावना

माझ्या ऱ्हदयातून स्फुरते आहे.

काम बंद करायची वेळ झाली असं वाटतं.

हवेत पसरलेल्या तुझ्या

मधुर अस्तित्वाचा मंद सुगंध मला जाणवतो आहे.

 

४७.

त्याची वाट पाहण्यात जवळजवळ

सारी रात्र वाया गेली.

 

थकून भागून रामप्रहरी मला डुलकी लागेल,

तेव्हा तो येईल अशी मला भिती वाटते.

 

मित्रांनो! त्याला अडवू नका,मना करू नका.

त्याच्या पदरवानं मला जाग आली नाही तर,

कृपा करा आणि मला उठवू नका.

 

पाखरांच्या कलकलाटानं तसंच

प्रांत:कालीन प्रकाश महोत्सवाच्या,

वाऱ्याच्या कल्लोळानं मला जाग यायला नको.

 

माझ्या दाराशी माझे स्वामी अचानक आले

तरी मला झोपू दे

त्यांच्या स्पर्शानेच मला जाग येऊ दे.

 

अंधकारमय निद्रेत पडणाऱ्या स्वप्नातून

तो येईल तेव्हा त्याच्या हास्य किरणांनी

मला जाग यावी,

पापण्या उघडताच तो समोर दिसावा,

प्रथम प्रकाशाच्या किरणात आणि आकारात

तो मला दिसावा.

माझ्या जागृत आत्म्याचा प्रथम आनंद आविष्कार

त्याच्या नजरेत मला दिसावा.

 

अशा वेळी माझे पुनरागमन

त्याच्या येण्यातच व्हावे.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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