हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 117 – “अस्तित्व की यात्रा (लघुकथा संग्रह)” – श्रीमती कान्ता राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्रीमती कान्ता राय जी के लघुकथा संग्रह “अस्तित्व की यात्रा” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 117 ☆

☆ “अस्तित्व की यात्रा (लघुकथा संग्रह)” – श्रीमती कान्ता राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – अस्तित्व की यात्रा (लघुकथा संग्रह)   

लेखिका – कान्ता राय

पृष्ठ १६८, मूल्य ३६०, संस्करण २०२१

प्रकाशक… अपना प्रकाशन, भोपाल

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

श्रीमती कान्ता राय

हाल ही राही रेंकिंग के इस वर्ष घोषित रचनाकारों में इस कृति की लेखिका कान्ता राय का नाम भी शामिल है, यह उल्लेख इसलिये कि लघुकथा के क्षेत्र में स्वयं के लेखन तथा लघुकथा शोध केंद्र के माध्यम से लघुकथा वृत्त के नियमित प्रकाशन, लघुकथा केंद्रित वेबीनारों के संयोजन आदि के जरिये लंबे समय से लेखिका लघुकथा पर एक टीम वर्क कर रही हैं, जिसे साहित्य जगत स्वीकार रहा है. मूलतः कान्ता राय एक अहिन्दी भाषी, हिन्दी रचनाकार हैं. उन्हें समर्पित भाव से भोपाल के विभिन्न साहित्यिक आयोजनो में सक्रिय भूमिका निभाते देखा जा सकता है. मैंने उनकी पुस्तक अस्तित्व की यात्रा लघुकथा संग्रह की छोटी छोटी किन्तु बड़े संदेशे देती कहानियां पढ़ीं. कविता के बाद लघुकथा ही वह विधा है जिसमें न्यूनतम वाक्यों में अधिकतम कथ्य व्यक्त किया जा सकता है. इस तरह यह ‘गागर में सागर’ भर देने की कला है. अस्तित्व की यात्रा की लघुकथाओ से गुजरते हुये मैंने पाया कि कान्ता राय ने अपनी कहानियों से जो शब्द चित्र रचे हैं वे यथावत पाठक के मानस पटल पर पुनर्चित्रित होते हैं. पाठक रचना का संदेश ग्रहण करता है एवं कथा बिम्ब से ध्वनित होती व्यंजना से प्रभावित होता है . उनकी लघुकथाओ में भाषाई मितव्ययता है. तीक्ष्णता है, अभिधा में संक्षिप्त वर्णन है तो  लक्षणा और व्यंजना शक्ति का उपयुक्त प्रयोग मिलता है.

प्रभावोत्पादकता में लघुकथा का शीर्षक अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान करता है, कान्ता राय की लघुकथाओ के कुछ शीर्षक इस तरह हैं.. लाचार आँखें, आबदाना, कागज का गांव, मेरे हिस्से का चाँद, डोनर चाहिये, अस्तित्व की यात्रा, मेड इन इंडिया, ९वर टेक, खटर पटर… इस तरह वे शीर्षक सेही पाठक को आकर्षित करती हैं और कौतुहल जगा कर उसे लघुकथा पढ़ने के लिये प्रेरित करती हैं. लघुकथा के विन्यास में विसंगति पर “सौ सुनार की एक लुहार की” वाला ठोस प्रहार देखने को मिलता है. कथ्य घटना का नाटकीय और रोचक वर्णन तभी किया जा सकता है, जब रचनाकार में अभिव्यक्ति का कौशल एवं भाषा पर पकड़ हो, यह गुण लेखिका की कलम में मुखरित मिलता है. शब्द विन्यास और आकार में कान्ता राय की लघुकथायें आकार की सीमाओ का निर्वाह करती हैं. संभवतः “व्रती” शीर्षक से लघुकथा संग्रह की सबसे छोटी रचना है… ” सालों गुजर गये, मोहित विदेश से वापस नहीं लौटे. प्रतिदिन आने वाला फोन धीरे धीरे महीनों के अंतराल में बदल गया. पतिव्रता अपना धर्म निर्वाह कर रही थी कि आज अशोक आफिस में दोस्ती से जरा आगे बढ़ गये, उसने भी इंकार नहीं किया और व्रत टूट गया “.

इस छोटी से कथा में लांग डिस्टेंस रिलेशनशिप की वर्तमान सामाजिक समस्या, स्त्री पुरुष संबंधो का मनोविज्ञान बहुत कुछ संप्रेषित करने में वे सफल हुई हैं.

पुस्तक की शीर्षक लघुकथा अस्तित्व की यात्रा है. इस लघुकथा का कला पक्ष कितना प्रबल है यह देखिये  “… वह ठिठकी.. आँखो में कठोरता उतर आई, वह प्रसवित जीव को लेकर स्वयं शिकार करने शेरनी बनकर निकल पड़ी, वह अब स्त्री नहीं कहलाना चाहती थी. “

संक्षेप में अपने पाठको से यही कहना चाहता हूं कि किताब पैसा वसूल है, अब तक लघुकथा के एकल संग्रह कम ही हैं, यह महत्वपूर्ण संग्रह पठनीय है और लघुकथा साहित्य में एक मुकाम बनायेगा यह विश्वास देता है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वायुयान में प्रवेश के समय अंतर्मन में विचार चल रहे थे, कि कैसी और कौनसी सीट मिलेगी। खिड़की वाली होगी तो ऊपर से अपनी प्यारी दुनिया देख सकेंगे। आज की पीढ़ी तो ऑनलाइन ही अपनी पसंदीदा सीट का चयन करने में सक्षम है।  वैसे इस बेसब्री का अपना ही मज़ा हैं।

युवावस्था में बस / रेल यात्रा के समय खिड़की से रूमाल  सीट पर फेंक कर कब्जा करने में भी महारत थी। ऐसी सीट को लेकर हमेशा विवाद ही हुआ करते थे।

विमान में अपनी सीट पर विराजमान होने के पश्चात व्योम बालाएं यात्रा के नियम इत्यादि की जानकारी देने का कार्य किया करती थी। अब समय के साथ उद्घोषणा और सीट के सामने लगें पट पर जानकारी उपलब्ध कराई जाती हैं।

कुछ यात्री जिनको आपने साथी के साथ सीट नहीं मिली थी, वो अब सीट बदलने / एडजस्ट करने में लग गए थे।उधर विमान गति पकड़ कर जमीं छोड़ने की तैयारी में था।एक झटका सा लगा और विमान ने जमीं छोड़ दी। हमे अपने बजाज स्कूटर की याद आ गई, जब उसमें स्टार्टिंग समस्या थी, तब उसको दौड़ा कर गाड़ी को गियर में डाल देते थे और उछल कर बैठ जाते थे, तो वैसा ही झटका लगता था। “हमारा बजाज” का कोई जवाब नहीं था। रजत जयंती मना कर ही उसको भरे मन से विदा किया था।

विमान परिचारिकाएं नाश्ता परोस गई हैं, खाने के बाद मिलते हैं।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #151 ☆ जादूचा पेला… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 151 ?

☆ जादूचा पेला…

दारीद्र्याला चटके देतच एक दागिना केला

आणि फाटक्या आयुष्याचा उसवत गेलो शेला

 

जाता येता फुंकर मारी तो सुमनांच्या गाली

वात आणला या वाऱ्याने चावट आहे मेला

 

शिशिर नाहीच कधी पाहिला नित्य घाततो पाणी

बारा महिने वसंत आहे कसा घरी नटलेला

 

रोज रात्रिला प्राशन करतो तरी पुन्हा भरलेला

आंदणात मज होय मिळाला हा जादूचा पेला

 

नीती नाती विसरुन जातो सत्तेसाठी सारी

क्षणात टोपी नवी घालतो स्वार्थासाठी चेला

 

मुखडा ठेवुन बाजूला ती समोर आली होती

खरा चेहरा समोर येता तडा जाय काचेला

 

आभाळाला हात टेकले शस्त्रे केली गोळा

बसू लागले धक्के आहे आता मानवतेला

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 101 – गीत – 15 अगस्त… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में  एक विचारणीय गीत – 15 अगस्त…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 101 – गीत – 15 अगस्त✍

आजादी की याद दिलाने पंद्रह अगस्त फिर आया है,

और गवाही देने हमने ध्वज तिरंगा फहराया है।

 

अब आजादी के बावजूद जन-गण-मन है दुखी त्रस्त,

भरे हुए मन  से कहते हैं स्वागत है  पंद्रह अगस्त।

 

आजादी कैसे पाई है अब तो सिर्फ कहानी है,

आजादी है राजकुमारी जनता राजा रानी  हैं।

 

आजादी की कीमत हमने अभी नहीं पहचानी  है,

यह वीरों के बलिदानों की जीवित अमर कहानी है।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 103 – “भारी बरसात और…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “भारी बरसात और…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 103 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “भारी बरसात और”|| ☆

बादल दिखें जैसे

थान मारकीन के

कुछ फैले नभ की

दूकानमें,

लगते कटपीस

पापलीन के

 

हवा बहिन क्रय करने

आती बाजार में

पढ़ कर विज्ञापन को

ताजा अखवार में

 

रिमझिम वाली यहाँ

खरीदी परमुफ्त मिलें

दो डिब्बे कीचड़

से बनी बेसलीन के

 

नदिया का तर्क

नये रंग व डिजाइन के

छापे- पैटर्न रखो

चीड़ व बकाइन के

 

झाडियाँ जँचेंगी क्या

सोचकर बताओ तो

कुर्ते या टॉप पहिन

बिना आस्तीन के

 

भारी बरसात और

बाढ़ के आसार यहाँ

ऐसे में पुल चिन्तित

जायें तो जायें कहाँ

 

गड्ढों की बोतल ले

सड़कें उदास दिखीं

भूल गई घर बारिश

पैकेट नमकीन के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

21-07-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 150 ☆ “सहानुभूति” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “सहानुभूति”)  

☆ कथा-कहानी # 150 ☆ लघुकथा –  “सहानुभूति” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्याह अंधेरे को चीरती अमरकंटक एक्सप्रेस अपनी पूरी स्पीड से दौड़ रही है। कड़ाके की ठंड में सामने की बर्थ में दाढ़ी वाला आदमी कांप रहा है, पतला सा कंबल ओढ़े वह धुप्प अंधेरे में भागते पेड़ पौधों को ताक रहा है। अचानक ट्रेन एक छोटे से प्लेटफार्म में रुकती है, कुछ यात्री शयनयान में घुसते हैं, उसकी निगाह एक सुंदर सी नवयौवना पर जाती है, काले लम्बे बाल सुन्दर नाक नक्श वाली वह नवयुवती जगह तलाशती हुई उस दाढ़ी वाले से अनुनय विनय करके उसके बगल में बैठ जाती है। 

ट्रेन अपनी स्पीड पकड़ लेती है। घड़ी की सुइयां रात्रि साढ़े बारह बजने का संकेत दे रहीं हैं। सभी यात्री अपनी अपनी बर्थ में सो गए हैं, कुछ जाग रहे हैं। 

युवती दाढ़ी वाले से सटती जा रही है और वह बेचारा संकोचवश खिड़की तरफ दबा जा रहा है। बड़ी देर बाद युवती ने ऐसा क्या किया कि वह आदमी चौकन्ना सा होकर अपने कंबल को बार बार समेटने लगा, शहडोल स्टेशन आने को है कि अचानक मैंने देखा युवती दाढ़ी वाले की सोने की चैन खींच चुकी थी एवं युवती ने चिल्लाना शुरू कर दिया था, बचाओ….. बचाओ ये दाढ़ी वाला आदमी मेरी इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा है, इस बीच मैंने देखा उसने अपना ब्लाउज फाड़ लिया और साड़ी के पल्लू को पेटीकोट से अलग कर दिया। कोलाहल से कोच के अधिकांश लोग जाग गये एवं हम लोगों की बर्थ के पास काफी लोग इकट्ठे हो गए, गाड़ी स्टेशन पर खड़ी हो गई, उस युवती ने रोना धोना शुरू कर दिया है, भीड़ बढ़ रही है, भीड़ से मारो… मारो.. की आवाज से दाढ़ी वाला आदमी कांप उठा है, पर वह चुपचाप अपनी जगह पर ही बैठा हुआ है। भीड़ की आवाजें सुनकर वहां से गुजर रहे पुलिस वाले दौड़कर कोच में घुसे तब तक भीड़ ने उस दाढ़ी वाले को लात घूसों से तर कर दिया है और पुलिस वालों के आते ही उस पर कई डण्डे पड़ चुके हैं। वह कराह उठा, वह बेचारा हक्का बक्का सा मार खाते हुए कुछ बोलना चाहता था पर उसकी आवाज कोलाहल में गुम हो जाती थी। मैंने भी भीड़ और पुलिस को समझाने की कोशिश की तो दो चार डण्डे मुझे भी पड़ चुके थे। युवती बिफरती हुई धीरे धीरे कोच से बाहर भागने की फिराक में थी, भीड़ के कुछ लोग उसकी सुंदरता से घायल से हो गये थे और उस दाढ़ी वाले को कोस रहे थे। एक ने मां बहन की गाली बकते हुए कहा – साला चलती ट्रेन में युवती की इज्जत पर हाथ डाल रहा था। पुलिस वाले उस दाढ़ी वाले पकड़ कर घसीटते हुए प्लेटफार्म पर उतार रहे थे, वह लगातार अपने कंबल को मुंह में दबाए हुए कह रहा था – साब मेरी कोई ग़लती नहीं है बल्कि उस युवती ने मेरे सोने की चैन खींच ली है, ऐसा सुनते ही पुलिस वाले ने उस पर लातों की बरसात कर दी वह पस्त होकर जमीन पर गिर गया। पुलिस वाले ने जैसे ही उसका कंबल पकड़ कर घसीटना चाहा, कंबल पुलिस वाले के साथ में आ गया और भीड़ यह देखकर दंग रह गयी कि उस दाढ़ी वाले के दोनों हाथ कटे हुए थे और वह बेचारा अपाहिज कराह उठा। अचानक भीड़ उस युवती को तलाशने मुड़ गई, पर वह युवती भाग चुकी थी। भीड़ से आवाज आई कि ये आदमी उस युवती का ब्लाउज और साड़ी तो फाड़ ही नहीं सकता, इसके तो दोनों हाथ ही नहीं है, जरुर वह युवती जेबकतरे गैंग से संबंधित होगी पर रोज चलने वाले ये सिपाही जरूर युवती को जानते होंगे। इतना सुनते ही पुलिस वाले डण्डा पटकते हुए आगे बढ़ गये…..

इंजन की ओर हरी बत्ती चमक उठी, इंजन सीटी बजा रहा है, भीड़ देखते देखते ट्रेन में समा गई, लोग व्याकुल होकर खिड़कियों से झांक रहे हैं, अनायास मेरे हाथ जंजीर तक पहुंच गये और एक झटके के साथ ट्रेन रुक गई, भीड़ का हुजूम दाढ़ी वाले की तरफ टूट पड़ा, मेरे बाजू वाला यात्री भीड़ के चरित्र पर हंस पड़ा, दाढ़ी वाले के लिए सहानुभूति की लहर फैल चुकी थी और भीड़ ने उस दाढ़ी वाले को अपने सर पर उठा लिया फिर ट्रेन धीरे से चल पड़ी ….।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 93 ☆ # रेशम के धागे… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# रेशम के धागे…  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 93 ☆

☆ # रेशम के धागे… # ☆ 

यह रेशम के धागों का बंधन

हृदय में भर देता है स्पंदन

भाई बहन के पवित्र रिश्ते को

मेरा कोटि कोटि वंदन

 बहन तकती है वर्ष भर बाट

भाई को कब बांधूंगी

रेशम की गांठ

रंग बिरंगी राखियों मे से

एक राखी लाती है छांट

वो –

फल, फूल और मिठाई लाई

भाई को संदेशा भिजवाई

आ जाना राखी बंधवाने

बाट देखती हूँ भाई

भाई जब राखी बंधवाता है

बहन पर स्नेह दिखाता है

रक्षा करूंगा मैं जीवनभर

मन ही मन ढाढस बंधाता है

भाग्यशाली है वो, जिनकी है बहना

उनकी खुशी का क्या कहना

जिनके भाई -बहन नहीं होते

उन अभागों को पड़ता है

कितना दुःख सहना

नसीब वाला है वो भाई

बहना ने जिसको राखी भिजवाई

मै अभागा हूँ इस जग में

मुझ तक कोई राखी ना आई

खुशी खुशी यह पर्व मनाऐ

भाई -बहन का रिश्ता निभाएं

हाथों पर बंधे यह स्नेह के धागे

जीवन में अनंत खुशियां लाएं

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588\

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 93 ☆ स्वप्ने गोड असतात… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 93  ? 

☆ स्वप्ने गोड असतात ☆

(विषय:- जगू पुन्हा बालपण… (अष्ट-अक्षरी))

जगू पुन्हा बालपण,

होऊ लहान लहान

मौज मस्ती करतांना,

करू अ,आ,इ मनन.!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

आई सोबती असेल

माया तिची अनमोल,

सर कशात नसेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

मनास उधाण येईल

रात्री तारे मोजतांना,

भान हरपून जाईल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

शाळा भरेल एकदा

छडी गुरुजी मारता,

रड येईल खूपदा..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

कैरी आंब्याची पाडूया

बोरे आंबट आंबट,

चिंचा लीलया तोडूया..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

नौका कागदाची बरी

सोडू पाण्यात सहज,

अंगी येई तरतरी..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

नसे कुणाचे बंधन

कधी अनवाणी पाय,

देव करेल रक्षण..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

माय पदर धरेल

ऊन लागणार नाही,

छत्र प्रेमाचे असेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण,

कवी राज उक्त झाला

नाही होणार हे सर्व,

भाव फक्त व्यक्त केला..!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३० परिव्राजक ८. अलवर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३० परिव्राजक ८. अलवर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

‘अलवर’ हे राजस्थानातले त्या काळातले एक संस्थान. संस्थानिक तिथले राजे असत आणि सर्व प्रजा त्यांना मानत असे. परंपरागत राजसत्तेचे ऐश्वर्य आणि इंग्रजी सत्तेचा प्रभाव असे मिश्र वातावरण तिथे होते. याचा प्रभाव तिथल्या थोड्या सुशिक्षितांवर होता. पण मोठ्या प्रमाणात प्रजा अशिक्षित, उपेक्षित, दारिद्र्य असणारी, जुन्या परंपरा पाळणारी आणि मर्यादित विश्वात राहणारी अशी होती.

अलवरच्या स्थानकावर उतरून स्वामीजी रस्त्यावरून पायी चालू लागले, संस्थानच्या शासकीय रुग्णालयासमोर ते पोहोचले तेंव्हा तिथे एक बंगाली गृहस्थ गुरुचरण लष्कर उभे होते. ते त्या रुग्णालयाचे प्रमुख डॉक्टर होते. स्वामीजींनी त्यांना विचारले, इथे संन्याशांना राहण्यास एखादी जागा कोठे मिळेल? हे ऐकताच गुरुचरण स्वत: त्यांना बाजारात घेऊन गेले आणि एक खोली दाखवली. चालेल ना? स्वामीजी म्हणाले, ‘अगदी आनंदाने’. त्यांची प्राथमिक सोय करून देऊन डॉक्टर तिथून निघून थेट त्यांच्या मुस्लिम मित्राकडे गेले. ते माध्यमिक शाळेत उर्दू आणि पर्शियन शिकवणारे शिक्षक होते. डॉक्टर उत्साहाने त्यांना सांगत होते की, “मौलवीसाहेब आताच एक बंगाली साधू आला आहे. मी तर असा महात्मा आजपर्यंत पाहिला नाही. तुम्ही लगेच चला. थोडं त्यांच्याशी बोला तोवर मी काम आवरून येतोच. डॉक्टर आणि मौलवी स्वामीजींकडे आले. बोलणे सुरू झाले अर्थातच धर्म विषय निघाला. स्वामीजी म्हणाले, “ कुराणाचं एक फार मोठं वैशिष्ट्य आहे, अकराशे वर्षापूर्वी ते निर्माण झालं, तेंव्हा ते जसं होतं, त्याच स्वरुपात ते जसच्या तसं आजही आपल्या समोर आहे. त्यात कोणताही प्रक्षिप्त भाग शिरलेला नाही.” मौलवी भेटून परत गेले. डॉक्टर आणि मौलवींनी जाता येतं ज्याला त्याला स्वामिजींबद्दल सांगितले. त्याचा परिणाम असा झालं की, दोनच दिवसात अनेकजण स्वामीजींच्या भेटीला येऊ लागले.

स्वामीजींच्या अमोघ शैलीमुळे सर्वजण भारावून जात. आपले विचार मांडताना ते हिन्दी, संस्कृत,बंगाली, उर्दू  या भाषांचाही उपयोग करत. गीता, उपनिषद,कधी बायबल यांचाही संदर्भ देत असत. विषयाचे विवेचन करताना ते कधी विद्यापती, चंडीदास ,रामप्रसाद ,कबीर, तुलसीदास यांची भजने सुद्धा म्हणत. गौतम बुद्ध , शंकराचार्य यांच्या चरित्रातला प्रसंग सांगत. श्रोत्यांमध्ये कुणी सुशिक्षित दिसला तर इंग्रजी किंवा पाश्चात्य तत्वज्ञान याचा आधार घेत. आणि राजस्थान मध्ये श्रीकृष्ण भक्त असल्याने तिथे विशेषता श्रीकृष्ण चरित्रातील रोमहर्षक प्रसंग सांगत, प्रेम आणि भक्ति सांगत. ते सांगताना तन्मय होत तर श्रोते ऐकताना भावुक होत. असे बरेच दिवस चालले होते. त्यानंतर, अलवर संस्थांनचे निवृत्त इंजिनीअर पंडित शंभुनाथ, स्वामीजींना आपल्या घरी घेऊन गेले. तिथे सकाळी नऊ वाजल्यापासून लोक जमायला सुरुवात होई.

हे लोक म्हणजे सर्व प्रकारचे, हिंदू, मुसलमान, शैव, वैष्णव, कुणी गाढे अभ्यासक, वेदांती, कुणी परंपरावादी, तर कुणी आधुनिक सुद्धा असत. गावातले श्रीमंत, गरीब, प्रतिष्ठित, सामान्य असे सर्वच लोक स्वामीजींकडे  येत. अनेक विषयांवर संवाद चालत असे. काही वेळा नेहमीप्रमाणे भक्तीगीत होई. श्रोते धुंद होत आणि संगीताची बैठक असलेली पाहून आश्चर्य चकित होत. हे सर्व ऐकून हा तरुण संन्यासी प्रेमळ, विद्वान, विनम्र बघून काही जणांना त्यांच्या जातीबद्दल उत्सुकता असे. ते विचारत, स्वामीजी आपण कोणत्या जातीचे? पण स्वामी विवेकानंद कसलाही संकोच न करता स्पष्ट सांगत, “मी कायस्थ होतो.” आपण ब्राम्हण आहोत असा गैरसमज होऊ नये आणि तो झालाच तर विनाकारण श्रेष्ठ जातीमुळे मिळणारा आदर आपल्याला देऊ नये म्हणून ते स्पष्ट सांगत.

असे प्रश्न आले की, यावरून त्यांना आपला समाज कसा आहे, तो एखाद्या गोष्टीकडे कोणत्या दृष्टीकोणातून पाहतो? कोणत्या जातीत त्यांच्या परांपरानुसार कोणते विचार आहेत? ते त्यांच्या वागण्यातून कसे उमटतात हे त्यांना अनुभवायला येत होते. अशा प्रकारे भारतीय समाजाचे खरेखुरे दर्शन अशा ठिकाणी त्यांना होत होते. लोकांना जसे स्वामीजींकडून मोलाचे विचार ऐकायला मिळत होते. तसेच स्वामीजींना पण त्यांचे विचार कळत. त्यांच्याही ज्ञानात भर पडे.

मौलवी तर सुरुवाती पासूनच स्वामीजींच्या व्यक्तिमत्वाने प्रभावित झाले होते. त्यांना मनापासून वाटत होतं की अशा तपस्वी माणसाचे पाय आपल्या घरालाही लागले पाहिजेत. त्यांनी हे, शंभुनाथांना सांगितलं, म्हणाले, “ मी कोणातरी ब्राम्हणाकडून माझी खोली स्वच्छ करून घेईन, खुर्च्या सुद्धा पुसून घेईन, भांडीकुंडी ब्राम्हणाच्या हातून पाणी घालून शुद्ध करून घेईन. कोणीतरी ब्राह्मण शिधा घेऊन येईल, त्याच्याकडूनच स्वयंपाक करून घेईन. पण स्वामीजींनी माझ्या घरी एकदा येऊन भोजन करावं अशी माझी इच्छा आहे. मी लांब उभा राहून त्यांना जेवताना पाहीन.”

केव्हढा हा प्रभाव? शंभु नाथांनी त्यांना सांगितलं ते सन्यासी आहेत, धर्म, जात,पंथ  या भेदापलीकडे आहेत. ते नक्की येतील अशी खात्रीच दिली त्यांनी. कारण शंभुनाथ पण उदार दृष्टीकोनाचे होते.

आणि खरच एकदा दोघही मौलवींकडे जेवायला गेले. त्यानंतर अनेक जणांकडे जेवायला जात होते. आसपासच्या परिसरात स्वामीजींची ख्याती वाढत चालली होती. लोकसंपर्क वाढत होता.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 24 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 24 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

३५.

जिथं मन मुक्त असेल, माथा उन्मत्त असेल,

ज्ञान मुक्त असेल,

 

घरांच्या क्षुद्र भिंतींनी जगाचे तुकडे झाले नसतील,

सत्याच्या गाभाऱ्यातून शब्दांचा उच्चार होईल,

 

अथक परिश्रमांचे हात

 पूर्णत्वाप्रत उंचावले जातील,

 

मृत सवयींच्या वालुकामय वाळवंटात

बुध्दीचा स्वच्छ झरा आटून गेला नसेल,

 

सतत विस्तार पावणाऱ्या विचार

आणि कृती करण्याकडेच

तुझ्या कृपेने मनाची धाव असेल,

 

हे माझ्या स्वामी, त्या स्वतंत्रतेच्या स्वर्गात

माझा देश जागृत होऊ दे.

 

३६.

माझ्या ऱ्हदयातील दारिऱ्द्य्याच्या

मुळावर घाव घाल

 

सुख आणि दुःख आनंदानं सोसायची

शक्ती मला दे.

माझं प्रेम सेवेत फलद्रूप करण्याची शक्ती दे.

 

गरिबापासून फटकून न वागण्याची अगर

धनदांडग्या मस्तवालासमोर शरण न जाण्याची

शक्ती मला दे.

 

दैनंदिन क्षुद्रतेला ओलांडून उंच जाण्याची

शक्ती मला दे आणि

प्रेमभावनेनं तुझ्या मर्जीप्रमाणं तुला शरण

जाण्याची शक्ती मला दे.

इतकीच माझी प्रार्थना आहे!

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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