मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – संरक्षण – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – संरक्षण   ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

डोक्यावर छत्री

संरक्षण खात्री

कल्पकतेशी हवी

आपली मैत्री

वेळ निभावते

कामही होते

जोडले जाते

निसर्ग नाते

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#150 ☆ कविता – हार जीत का प्रश्न नहीं है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय कविता “हार जीत का प्रश्न नहीं है…”)

☆  तन्मय साहित्य # 150 ☆

☆ कविता – हार जीत का प्रश्न नहीं है ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कौन गलत है कौन सही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है।

आप सतत निगरानी में हैं

उसकी सत्य कहानी में हैं

आकर्षक इस रंगमंच पर

शक्ल नई अनजानी में हैं,

सोचा! कभी स्वयं की कब

परछाई खुद से अलग रही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है।

 

खुद होकर कोईं कब बोले

भेद न कोईं अपने खोले

समय, तराजू लिए खड़ा है

साँच-झूठ पल-पल का तोले,

सबकी करतूतों के अपने

अपने खाते और बही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है।

 

खुश है मन तो कभी विकल है

मछली की भांति चंचल है

मृग मरीचिकाओं से मोहित

चलती रहे सदा हलचल है,

जीवन के सच से अबोध

ये राग-द्वेष सुख-दुख सतही है

हार जीत का प्रश्न नहीं है

कौन गलत है कौन सही है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 38 ☆ लोरी – सो जा – सो जा गजराज… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण लोरी  “सो जा – सो जा गजराज… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 37 ✒️

? लोरी   – सो जा – सो जा गजराज… — डॉ. सलमा जमाल ?

सोजा, सोजा, गजराज शंकर के ललना ।

तुझे पार्वती माता झुलाये पलना ।।

 

भुजायें छोटी-छोटी सूंढ़ है प्यारी ,

नेत्र हैं विशाल मूस की सवारी ,

प्रथम पूज्य की नहीं किसी से तुलना।

सो जा ——————————- ।।

 

इक हाथ हैगी, दूजे में फ़रसा सजा ,

तीजे में कंज ,चौथे में लड्डू धरा ,

सारे देवता मिलके डुलावें  बिजना ।

सो जा —————————— ।।

 

माथे अर्धचन्द्र ,मोती -मांणिक जड़े ,

लम्बोदर कहाते , दयावंत हैं बड़े ,

भूतगणांधि खींचें तुम्हारा झुलना ।

सो जा —————————– ।।

 

पाप हरो मेरे , भक्त हूं तुम्हारी ,

पूर्ण करो इकदन्त मनोरथ हमारी ,

अपने पराये चाहें मुझको छलना ।

सो जा —————————- ।।

 

विश्वकर्मा जी लाये चन्दन पलना ,

लताओं की डोरी जामुन फुन्दना ,

भगवती भी करतीं तुम्हारी वन्दना ।

सो जा —————————– ।।

 

अर्पण करे ‘सलमा ‘ सिंदूर फूल कपूर ,

प्रसाद में लायी गणपति को मोतीचूर ,

साक्षात् दर्शन से कब होगा मिलना ।

सो जा —————————— ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 178 ☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी: वैधानिक स्थितियाँ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – ”हिन्दी: वैधानिक स्थितियां…”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 178 ☆  

? आलेख – राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी: वैधानिक स्थितियां… ?

हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को क्यों ?

1947 में जब भारत को आजादी मिली तो देश के सामने राजभाषा के चुनाव को लेकर गहन चर्चायें हुई. भारत में अनेकों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं, ऐसे में राष्ट्रभाषा के रूप में किसे चुना जाए ये संवेदनशील सवाल था. व्यापक मंथन के बाद संविधान सभा ने देवनागरी लिपी में लिखी हिन्दी को राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया. भारत के संविधान में भाग 17 के अनुच्छेद 343 (1) में कहा गया है कि राष्ट्र की राज भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी. 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था. इसीलिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की अनुशंसा के बाद से 1953 से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाने लगा. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस दिन के महत्व देखते हुए प्रति वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी.

विश्व हिन्दी दिवस १० जनवरी को क्यों ?

हिन्दी आज विश्व में तीसरे नम्बर पर बोले जाने वाली भाषा बन चुकी है. भारतीय विश्व के कोने कोने में बिखरे हुये हैं. वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था. इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.

हिन्दी की वैधानिक स्थितियां

चुंकि जब अंग्रेज गये तब सरकारी काम काज प्रायः अंग्रेजी में ही होते थे, रातों रात सारा हिन्दीकरण संभव नहीं था अतः अंग्रेजी में कामकाज यथावत जारी रहे. इसके चलते हिन्दी और अंग्रेजी के बारे में यह भ्रम व्याप्त है कि ये दोनों भारत संघ की सह-राजभाषाएँ हैं. वास्तविक सांविधानिक स्थिति बिल्कुल भिन्न है. संविधान में कहीं भी अंग्रेजी को राजभाषा नहीं कहा गया है. संविधान में अंग्रेजी के लिए प्रयुक्त शब्द हैं ” the language for the time being authorised for use in the Union for official purposes. ” संविधान ने कहा कि अंग्रेजी अगले पन्द्रह वर्ष तक राजकीय प्रयोजन के लिए साथ साथ प्रयुक्त होगी, तब तक संपूर्ण रूप से हिन्दी अपना ली जायेगी किन्तु दलगत तथा क्षेत्रीय राजनीति के चलते ये पंद्रह बरस अब तक खिंचते ही जा रहे हैं.

अनुच्छेद 344 में मुख्यत: छ: संदर्भों को रेखांकित किया गया है-

राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्ष की समाप्ति पर भारत की विभिन्न भाषाओं के सदस्यों के आधार पर एक आयोग गठित किया जाएगा और आयोग राजभाषा के संबंध में कार्य-दिशा निर्धरित करेगा.

हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग पर बल दिया जाएगा. देवनागरी के अंकों के प्रयोग होंगे. संघ से राज्यों के बीच पत्राचार की भाषा और एक राज्य से दूसरे राज्य से पत्राचार की भाषा पर सिफारिश होगी. आयोग के द्वारा औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति के साथ लोक-सेवाओं में हिंदीतर भाषी क्षेत्रों के न्यायपूर्ण औचित्य पर ध्यान रखा जायेगा.
राजभाषा पर विचारार्थ तीस सदस्यों की एक समिति का गठन किया जाएगा जिसमें 20 लोक सभा और 10 राज्य सभा के आनुपातिक सदस्य एकल मत द्वारा निर्वाचित होंगे.
समिति राजभाषा हिंदी और नागरी अंक के प्रयोग का परीक्षण कर राष्ट्रपति को प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगी. राष्ट्रपति के द्वारा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निर्देश जारी किया जाएगा.

अनुच्छेद 345, 346 और 347 में विभिन्न राज्यों की प्रादेशिक भाषाओं के विषय में भी साथ-साथ विचार किया गया है.

अनुच्छेद 345 में प्रावधान है कि राज्य के विधान मण्डल द्वारा विधि के अनुसार राजकीय प्रयोजन के लिए उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली भाषा या हिंदी भाषा के प्रयोग पर विचार किया जा सकता है. इस संदर्भ में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जब तक किसी राज्य का विधन मंडल ऐसा प्रावधान नहीं करेगा, तब तक कार्य पूर्ववत अंग्रेजी में चलता रहेगा.

अनुच्छेद 346 के अनुसार संघ में राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त भाषा यदि दो राज्यों की सहमति पर आपस में पत्राचार के लिए उपयोगी समझते हैं, तो उचित होगा. यदि दो या दो से अधिक राज्य आपस में निर्णय लेकर राजभाषा हिंदी को संचार भाषा के रूप में अपनाते हैं, तो उचित होगा.

अनुच्छेद 347 कहता है कि यदि किसी राज्य में जनसमुदाय द्वारा किसी भाषा को विस्तृत स्वीकृति प्राप्त हो और राज्य उसे राजकीय कार्यों में प्रयोग के लिए मान्यता दे, और राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाए, तो उक्त भाषा का प्रयोग मान्य होगा.

अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों की भाषा पर विचार किया गया है. यहाँ यह प्रावधान है कि जब तक संसद विधि द्वारा उपबंध न करे, तब तक कार्य अंग्रेजी में ही होता रहेगा. इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय, प्रत्येक उच्च न्यायालय के कार्य क्षेत्र रखे गए.

हिन्दी प्रयोग के लिए संसद के दोनों सदनों से प्रस्ताव पारित होना चाहिए. अधिनियम संसद या राज्य विधान मंडल से पारित किए जाएं और राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा स्वीकृति मिले. यह प्रस्ताव विधि के अधीन और अंग्रेजी में होंगे. नियमानुसार स्वीकृति के बाद हिंदी का प्रयोग संभव होगा, किंतु उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय या आदेश पर लागू नहीं होगा.

अनुच्छेद 349 में प्रावधान है कि संविधान के प्रारंभिक 15 वर्षों की कालावधि तक संसद के किसी सदन से पारित राजभाषा संबंधित विधेयक या संशोधन बिना राष्ट्रपति की मंजूरी के स्वीकृत नहीं होगा. ऐसे विधेयक पर राजभाषा संबंधित तीस सदस्यीय आयोग की स्वीकृति के पश्चात्, राष्ट्रपति विचार कर स्वीकृति प्रदान करेंगे.

अनुच्छेद 350 के प्रावधानो के अनुसार विशेष निर्देशों को व्यवस्थित किया गया है. इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या को संघ और राज्य के पदाधिकारियों को संबंधित मान्य भाषा में आवेदन कर सकेगा. इस तरह प्रत्येक व्यक्ति को अधिकृत भाषा में संघ या राज्य के अधिकारियों से पत्र-व्यवहार का अवसर दिया गया है.

अनुच्छेद 351 में भारतीय संविधान की अष्टम सूची में स्थान प्राप्त भाषाओं को महत्व दिया गया है. हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार से भारत की सामाजिक संस्कृति को अभिव्यक्ति मिलने का संकेत है. हिंदी भाषा को मुख्यत: संस्कृत शब्दावली के साथ अन्य भाषाओं के शब्दों से समृद्ध करने का संकेत भी इस अनुच्छेद में किया गया है.

हिन्दी के साथ साथ उपयोग हेतु राष्ट्रपति के आदेश

भारत संघ में राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन के लिए राष्ट्रपति के द्वारा समय-समय पर आदेश जारी किए गए हैं. 1952 का आदेश उल्लेखनीय है जिसमें राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 343(2) के अधीन 27 मई, 1952 को एक आदेश जारी किया जिसमें संकेत था कि राज्य के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति पत्रों में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी और अंक नागरी लिपि में हों.

राजभाषा आयोग की स्थापना सन् 1955 में हुई. आयोग के तीस सदस्यों द्वारा राजभाषा संदर्भ में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए-

त्वरित गति से हिन्दी के पारिभाषिक शब्द-निर्माण हों.

14 वर्ष की आयु तक प्रत्येक विद्यार्थी को हिंदी भाषा की शिक्षा दी जाए.

माध्यमिक स्तर तक भारतीय विद्यार्थियों को हिंदी शिक्षण अनिवार्य हो.

इसमें से प्रथम सिफारिश मान ली गई. अखिल भारतीय और उच्चस्तरीय सेवाओं में अंग्रेजी जारी रखी गई. सन् 1965 तक अंग्रेजी को प्रमुख और हिंदी को गौण रूप में स्वीकृति मिली. 45 वर्ष से अधिक उम्र के कर्मचारियों को हिंदी- प्रशिक्षण की छूट दी गई.

1955 के राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार संघ के सरकारी कार्यों में अंग्रेजी के साथ हिंदी प्रयोग करने का निर्देश किया गया. जनता से पत्र-व्यवहार, सरकारी रिपोर्ट का पत्रिकाओं और संसद में प्रस्तुत, जिन राज्यों ने हिंदी को अपनाया है, उनसे पत्र-व्यवहार, संधि और करार, अन्य देशों उनके दूतों अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से पत्र-व्यवहार, राजनयिक अधिकारियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत के प्रतिनिधियों द्वारा जारी औपचारिक विवरण सभी कार्य अंग्रेजी और हिन्दी दोनो भाषाओ में किये जाने के निर्देश दिये गये.

1960 में राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा आयोग के प्रतिवेदन पर विचार कर निम्न निर्देश जारी किए गए थे-

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के निर्माणार्थ शिक्षा मंत्रालय के अधीन एक आयोग स्थापित किया जाए.शिक्षा मंत्रालय, सांविधिक नियमों आदि के मैनुअलों की एकरूपता निर्धरित कर अनुवाद कराया जाए. मानक विधि शब्दकोश, हिंदी में विधि के अधिनियम और विधि-शब्दावली निर्माण, हेतु कानून विशेषज्ञों का एक आयोग बनाएँ.तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों को छोड़, 45 वर्ष तक की उम्र वाले कर्मचारियों को हिंदी प्रशिक्षण अनिवार्य किया जावे. गृह मंत्रालय हिंदी आशुलिपिक, हिंदी टंकण प्रशिक्षण योजना बनाए.

1963 का राजभाषा अधिनियम : 26 जनवरी, 1965 को पुन: आगामी 15 वर्षों तक अंग्रेजी को पूर्ववत् रखने का प्रावधान कर दिया गया. हिंदी-अनुवाद की व्यवस्था पर जोर दिया गया. उच्च न्यायालयों के निर्णयों आदि में अंग्रेजी के साथ हिंदी या अन्य राजभाषा के वैकल्पिक प्रयोग की छूट दी गई. इससे अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा. देश को एकता के सूत्र में बाँधने वाली हिंदी को वह स्थान नहीं मिल सका जो राजभाषा से अपेक्षा थी.

वर्ष 1968 में संविधान के राजभाषा अधिनियम को ध्यान में रखकर संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष संकल्प पारित किया. इसमें विचार रखे गए-

हिंदी प्रचार-प्रसार का प्रयत्न किया जाएगा और प्रतिवर्ष लेखा-जोखा संसद के पटल पर रखा जाएगा.
आठवीं सूची की भाषाओं के सामूहिक विकास पर राज्य सरकारों से परामर्श और योजना-निर्धारण.
त्रिभाषा-सूत्र पालन करना.
संघ लोक-सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी के साथ हिंदी और आठवीं सूची की भाषाओं को अपनाना.
कार्यालयों से जारी होने वाले सभी दस्तावेज हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों. संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत किए जाने वाले सरकारी पत्र आदि अनिवार्य रूप से हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हों.
राजभाषा हिंदी कार्यान्वयन के लिए देश को भाषिक धरातल पर तीन भागों में बाँटा गया-

‘क’ क्षेत्र- बिहार, हरियाणा, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली.

‘ख’ क्षेत्र- गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, अंडमान निकोबार द्वीप-समूह और केद्रशासित क्षेत्र.

‘ग’ क्षेत्र- भारत के अन्य क्षेत्र-बंगाल, उड़ीसा, आसाम, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, केरल आदि.

इस अधिनियम के अनुसार केद्र सरकार द्वारा ‘क’ क्षेत्र अर्थात हिन्दी बैल्ट से पत्र-व्यवहार हिंदी से ही होगा. यदि अंग्रेजी में पत्र भेजा गया, तो उसके साथ हिंदी अनुवाद अवश्य होगा. ‘ख’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार हिंदी के साथ अंग्रेजी में भी होगा. ‘ग’ क्षेत्र से पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में हो सकता है.

इन स्थितियों में आजादी के अमृत महोत्व वर्ष में भी हम हिन्दी के अधूरे राजभाषा स्वरूप में हिन्दी दिवस मना रहे हैं. प्रधानमंत्री ने दासता के सारे चिन्हों से मुक्त होने का आव्हान किया है, राजपथ का नाम करण कर्तव्य पथ हो चुका है, अब हम भारत वासियों और हिन्दी प्रेमियों का कर्तव्य है कि हम अंग्रेजी की दासता से मुक्त होकर हिन्दी को उसकी संपूर्णता में कब तक और कैसे अपनाते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 48 – Representing People – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की प्रथम कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 48  – Representing People – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

मेरे स्कूल युग से लेकर आज़तक के मिश्रित अनुभवों और धारणाओं के आधार पर लिखने का प्रयास रहेगा.रिकार्डेड कुछ भी नहीं, सब इंस्टेंट ही रहेगा.स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूं कि ये श्रंखला विवादों को जन्म देने या फिर किसी शख्सियत को टॉरगेट करने के लिये नहीं लिखी जायेगी. अगर आप लोग भी अपने अनुभव और विचार रखेंगे तो काफी कुछ रोचकता बनी रहेगी. विचारों में तथ्यों और सद्भाव, सहभागिता को रोचक बना सकते हैं पर अगर विवादित बनने की दिशा में बढी तो स्थगित करना विवशता होगी पर इस कारण हम सभी एक स्वस्थ्य और गंभीर विचार विमर्श से वंचित हो सकते हैं. जो अपने अतीत की भडा़स निकालने की मंशा से इस विचार श्रंखला का दुरुपयोग करना चाहेंगे, उनसे क्षमा चाहता हूँ.ये ग्रुप को घिसे पिटे रास्ते की जगह अनुभवों की सहभागिता का प्रयास है. कितना सफल होगा, याद किया जायेगा यह भविष्य ही बतलायेगा. यह चुनौतीपूर्ण तो है पर अपना पक्ष या विचार रखने का अवसर भी है. कभी कभी भीड़ के आगे चलने वालों को गलत भी समझ लिया जाता है और संवादहीनता की स्थिति, धुंध को हटा नहीं पाती.इससे पहले कि पूर्वाग्रह, भ्रमित करें, पहला भाग प्रस्तुत है.

जब मासूम बचपन घर और परिवार से बाहर निकलकर स्कूल की कक्षाओं की सीढ़ियां चढ़ता है तो उसका सामना एक अलग तरह के छात्र से होता है जिसे मॉनीटर (पहले की शब्दावली) कहते हैं. ये टीचर और छात्रों के बीच की कड़ी होता है पर टीचर की अनुपस्थिति में क्लास का अनुशासन बनाए रखने की अपेक्षा, इनसे ही की जाती है. प्रारंभिक शिक्षणकाल में ये चुने नहीं जाते बल्कि टीचर द्वारा ही नामांकित किये जाते हैं जिसका आधार टीचर की दृष्टि में होशियार होना ही होता है. इसी तरह विद्यालय की विभिन्न टीम के भी कैप्टन होते हैं जो उस खेल में प्रवीणता, प्रभावशाली छवि और टीम प्लेयर्स को टीम स्प्रिट से ऊर्जावान बनाते हुये विजय के लक्ष्य को प्राप्त करने की जीतोड़ कोशिश करते हैं. स्कूल से लेकर राष्ट्र को रिप्रेजेंट करने वाली हर टीम में एक उप कप्तान या वाईस़ कैप्टन भी होता है. उप कप्तान न केवल कप्तान को फैसलों में मदद करता है बल्कि वह टीम का भावी कप्तान भी हो सकता है. क्लास मॉनीटर से अपेक्षा तो हो सकती हैं पर इनका कोई लक्ष्य नहीं होता. स्कूलों से निकलकर जब ये पीढ़ी कॉलेज केम्पस और विश्वविद्यालय पहुंती है तो छात्र संघ नामक संस्था से संपर्क होता है. “ये वो जगह है दोस्तो” जो भविष्य की वो शख्सियत का पोषण करता है जो आगे चलकर नगर, प्रदेश और देश तथा विभिन्न सामाजिक और औद्योगिक संस्थाओं के लिये वास्तविक अर्थों में “Representing the People” का रोल निभाते हैं. जबलपुर के शरद यादव और सागर विश्वविद्यालय के रघु ठाकुर के सफर से हममें से अधिकांश परिचित होंगे.

कुछ लोग जन्मजात ही लीड करते हैं, कुछ को कुर्सियाँ लीड करने का मौका देती हैं तो कुछ पर ये लीडरशिप थोप दी जाती है. हमारे माननीय मनमोहन सिंह जी इस तीसरी श्रेणी के ज्वलंत उदाहरण हैं. भगवान कृष्ण बजपन से ही गोप गोपियों के नेता थे और महाभारत युद्ध के भी असली नायक तो वही थे. याने representing the people since childhood.अब जो कुर्सियों के कारण लोगों को रिप्रसेंट करते हैं, उनमें बहुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे और इन लोगों को कुर्सी से हटने के बाद ही पता चलता है कि जनभावनाओं को, जन जन की शक्ति से वे आवाज़ दे नहीं पाये क्योंकि आवाज़ में समूह की शक्ति का प्रभाव नज़र ही नहीं आया. जब एक प्रभावशाली नक्षत्र स्थान से हटकर शून्य या अंधेरा उत्पन्न कर दे तो, जरूरत रिप्रसेंट करने के लिये उस शख्स की होती है जो उस खाली जगह को निर्विवादित रूप से भर दे. स्वतंत्रता संग्राम किसी एक व्यक्ति या एक विचारधारा का युद्ध नहीं था पर गांधी उस जनभावना को रिप्रसेंट कर रहे थे जो भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखना चाहती थी. उस लक्ष्य की प्राप्ति में अनेकानेक जीवन आहूतियां दी गई और उन सब की आकांक्षा भी, आने वाली पीढ़ियों को आज़ाद हिंदुस्तान की हवा में सांस लेने का मौका देना ही था.

Representing the people का अर्थ ही जन असंतोष और जन समस्याओं की नब्ज़ पहचानना, और उन्हें न्यायिक और तर्कसंगत बनाकर वहां तक ले जाना होता है जहां से इनका निदान संभव है, यही लक्ष्य है और इसे पाने के लिये बेझिझक, बिना अपने हित की चिंता किये पहला कदम बढ़ाना ही रिप्रेसेन्टिंग द पीपल की परिभाषा है. सफलता या असफलता नेतृत्व की चुनौतियां हो सकते हैं, मापदंड नहीं।अन्ना हजारे पागल नहीं थे, असफल हो गये पर भ्रष्टाचार से उपजे जनअसंतोष को उन्होंने आंदोलन की दिशा दी. जयप्रकाश नारायण ने निरंकुशता को चुनौती दी और जन असंतोष और प्रबल जन भावना के तूफानी वेग से सरकार पलट दी. “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” ये जेपी की क्षीणकाय काया की अपने युग की सबसे बुलंद आवाज़ बनी.

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 149 ☆ कैफियत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 149 ?

☆ कैफियत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

कधी वाटते करावीच का वणवण नुसती

अखेरीस जर होतो आपण अडचण नुसती

 

तरूण असते तेव्हा असते सोशिक,साधी

पण पैशाची भासे तेव्हा चणचण नुसती

 

खस्ता खाते,पोरासाठी,घर सांभाळी

जळत रहाते ,असते ती ही सरपण नुसती

 

सुखात आहे म्हणायची ती ज्याला त्याला

अनवाणी ती,पायाखाली रणरण नुसती

 

उडून गेले पिल्लू आता घरट्या मधले

वाट पाहते डोळ्यामधली झणझण नुसती

 

खात्या मध्ये पैसाअडका पडून आहे

परी एकाकी मरते आहे कणकण  नुसती

 

 म्हातारीला काय पाहिजे कळले नाही

रात्रंदिन ती करत राहिली फणफण नुसती

© प्रभा सोनवणे

७ सप्टेंबर  २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 50 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 50 – मनोज के दोहे …. 

1 अंतर्मन

अंतर्मन में नेह का, बिखरे प्रेम प्रकाश।

मानव जीवन सुखद हो, हर मानव की आश।।

2 ऊर्जा

शांति प्रेम सौहार्द को, सच्चे मन से खोज।

भारत की ऊर्जा यही, मन में रहता ओज।।

3 वातायन (खिड़की)

उर-वातायन खुली रख, ताने नया वितान।

जीवन सुखमय तब बने, होगा सुखद विहान।।

4 वितान (टेंट )

अंतर्मन की यह व्यथा, किससे करें बखान।

फुटपाथों पर सो रहे, सिर पर नहीं वितान।।

5 विहान(सुबह)

खड़ा है सीना तानकर, भारत देश महान।

सदी बीसवीं कह रही, होगा नवल विहान।।

6 विवान (सूरज की किरणें)

अंधकार को चीर कर,निकले सुबह विवान

जग को किया प्रकाशमय, फिर भी नहीं गुमान।। 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 121 – “व्यंग्य यात्रा” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 121 ☆

☆ “व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रेम जनमेजय जी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका  “व्यंग्य यात्रा ” पर चर्चा ।

☆ चर्चा पत्रिका की – “व्यंग्य यात्रा ”  संपादक – श्री प्रेम जनमेजय – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी

वर्ष १८ अंक ७१..७२ अप्रैल सितम्बर २०२२

संपादक… प्रेम जनमेजय

मूल्य मात्र २० रु

ई मेल.. [email protected]

२० रु में १५० पृष्ठो की स्थाई महत्व की विषय विशेष पर सार गर्भित सामग्री,  शार्ट में पत्रिका के रूप में किताब ही है व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी. यदि पत्रिका में प्रकाशित महत्वपूर्ण सामग्री में से  प्रेम जनमेजय जी के बरसों के संबंध, उनकी निरंतर व्यंग्य साधना हटा ली जाये तो किसी खास मुद्दे पर समर्थ रचनाकारो की इतनी सशक्त रचनायें तक, पत्रिका के अंतराल के तीन महीनों के सीमित टाइम फ्रेम में एकत्रित नहीं की  जा सकतीं. व्यंग्ययात्रा तो इस सीमित समय में छप भी जाती है और सुधी पाठको तक पहुंच भी जाती है. इसलिये १८ बरसों से निरंतरता बनाये हुये ऐसी गुरुतर पत्रिका की चर्चा करना आवश्यक है. मुझे तो लगता है कि व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी के हर अंक का समारोह पूर्वक विमोचन होना चाहिये, पर नहीं जो शांत काम करते हैं वे ढ़ोल तमाशे से दूर दूर ही रहते हैं.

यह अंक व्यंग्य उपन्यासों पर विशिष्ट सामग्री संजोये हुये है, तय है कि जब कोई शोधार्थी भविष्य में व्यंग्य उपन्यासो पर कोई गम्भीर काम करेगा तो इस अंक का उल्लेख किये बिना उसका लक्ष्य पूरा नही हो सकेगा.

इस अंक में मारीशस में हिन्दी व्यंग्य पर सामग्री है, पाथेय के अंतर्गत पुनर्पठनीय रांगेय राघव, बेढ़ब बनारसी, मनोहर श्याम जोशी, नरेंद्र कोहली, रवीन्द्र नाथ त्यागी, नागार्जुन, परसाई, श्रीलाल शुक्ल उपस्थित हैं. त्रिकोणीय में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अरविंद तिवारी के उपन्यास ‘लिफाफे में कविता’ पर गोपाल चतुर्वेदी, प्रेन जनमेजय, अनूप शुक्ल, एवं नीरज दइया को पढ़ा जा सकता है. समकालीन व्यंग्यकारों की गद्य और पद्य व्यंग्य की रचनायें पठनीय हैं. प्रकाशन हेतु पारखी चयन दृष्टि के चलते ही व्यंग्य यात्रा में छपना प्रत्येक व्यंग्यकार के लिये प्रतिष्ठा कारक होता है. अनंत श्रीमाली जो हमें अनायास छोड़ गये हैं उन्हें श्रद्धा सुमन स्वरूप उनकी रचना ‘लीकेज की अलौकिक लीला’, बीना शर्मा,  प्रियदर्शी खैरा, राजशेखर चौबे, मुकेश राठौर, प्रभात गोस्वामी सहित निरंतर व्यंग्य सृजन में लगे अनेक नामचीन लेखको को इस अंक में पढ़ सकते हैं. पद्य व्यंग्य में दीपक गोस्वामी, डा संजीव कुमार, वरुण प्रभात, सुमित दहिया, नरेंद्र दीपक शामिल नामों में हैं. जिन व्यंग्य उपन्यासों में चर्चा लेख प्रकाशित हैं उनमें नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘अल्फा बीटा गामा’ पर प्रेम जनमेजय, यशवंत व्तयास के ‘चिंताघर’, ‘आदमी स्वर्ग में..’ विषणु नागर, ‘उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड,’ ‘इंफो काप का करिश्मा’, हरीश नवल के बहुचर्चित उपन्यास ‘बोगी नंबर २००३’, सुभाष चंदर के ‘अक्कड़ बक्कड़’, गंगा राम राजी के ‘गुरु घंटाल’, अर्चना चतुर्वेदी के ‘गली तमाशे वाली’, मीना अरोड़ा के ‘पुत्तल का पुष्प वटुक’, अजय अनुरागी के ‘जयपुर तमाशा’ पर गंभीर आलेख पठनीय तथा संदर्भ लेने योग्य हैं. इन नये उपन्यासों के टाइटिल देखें तो हम व्यंग्य के बदलते लक्ष्य, नये युग के सायबर कारपोरेट जगत के प्रभाव की प्रतिछाया देख सकते हैं. संपादकीय में प्रेम जी ने अंक के कलेवर की  व्याख्या और विवेचना गंभीरता से की है. बिना पूरा पढ़े अभी बस इतना ही. 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 137 – लघुकथा ☆ घड़ी भर की जिंदगी… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “घड़ी भर की जिंदगी …”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 137 ☆

☆ लघुकथा  🌿 🕛घड़ी भर की जिंदगी 🕛 

यूं तो मुहावरे बनते और बोले जाते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशेष भाषा शैली होती है और वक्त के अनुसार अलग-अलग अर्थ भी होते हैं।

किन्तु, यदि किसी की जिंदगी ही घड़ी बनकर रह जाए और अंत समय में कहा जाए… ‘घड़ी भर की जिंदगी’ तो अनायास ही आँखें भर उठती है।

अशोक बाबू का जीवन भी बिल्कुल घड़ी की तरह ही बीता। बचपन से भागते-चलते अभाव और तनाव भरी जिंदगी में एक-एक पल घड़ी के सेकंड के कांटे की तरह बीता।

सदैव चलते जाना उनके जीवन का अंग बन चुका था। अध्यापक की नौकरी मिली, गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर उन्हें जरा सा सुकून मिला। घर में किलकारियाँ गूंजी, फिर जरूरतों का सिलसिला बढ़ चला। सब की जरूरतें पूरी करते-करते आगे बढ़ते गए।

बेटा बड़ा हुआ, विदेश पढ़ाई के लिए जाना पड़ा और उसकी जरूरतों को पूरा करते गये। वह विदेश गया तो फिर लौट कर नहीं आया।

बस फिर क्या था, वही दीवाल में लगी घड़ी की टिक-टिक की आवाज उनकी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। धर्मपत्नी ने भी असमय साथ छोड़ दिया।

स्कूल में भी घड़ी देख-देख कर काम करने की आदत हो चुकी थी। पास पड़ोसी आकर बैठते पर अशोक बाबू की आंखें दिन-रात घड़ी, समय पर आती जाती रहती, शायद वह वक्त बता दे कि बेटा वापस घर आ रहा हैं।

रिटायरमेंट के बाद घर में अकेलापन और घड़ी की टिक-टिक। एक नौकर जो सेवा करता रहता था, वह भी अपने काम से काम रखता था।

आज पलंग पर लेटे-लेटे घड़ी देख रहे थे। नौकर ने कहा… बाबूजी खाना लगा दिया हूँ। कोई जवाब नहीं आया। पड़ोसियों को बुलाया गया। आंखें घड़ी पर टिकी हुई थी और घड़ी की कांच दो टुकड़ों में चटक कर गिर चुकी थी। प्राण पखेरू उड़ चले थे। आए हुए बुजुर्गों में से किसी ने कहा…. “घड़ी भर की जिंदगी, घड़ी में समाप्त हो गई”। घड़ी भी अशोक बाबू के साँसों सी  चलने लगी थीं, घड़ी चल रही थी, साँसें रुक गई थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

शिकागो शहर को अमेरिका के नक्शे में देखा तो उसकी स्थिति वहां के मध्य भाग में मिली, जैसे हमारे देश में नागपुर शहर की हैं।

शहर के बारे में जब जानकारी मिली की यहां तो पांच बड़ी झीलें हैं। सबसे बड़ी मिशिगन झील है, जिसका क्षेत्रफल ही बाईस हज़ार वर्ग मील से भी अधिक हैं। उसकी अपनी चौपाटी (Beach) भी है। उसमें बड़े बड़े जहाज भी चलते हैं। हमारे देश में उदयपुर को झीलों की नगरी कहा जाता है। लेकिन वहां की झीलें इतनी विशाल नहीं है, जितनी शिकागो शहर की हैं। हमारे भोपाल शहर के तालाब भी कम नहीं है, और उसकी स्थिति भी देश के मध्य भाग में हैं, तो क्यों ना इस शहर को “अमेरिका का भोपाल” शीर्षक से नवाज दिया जाय।                          

शहर में प्रवेश के समय से ही शीतल हवा के झोंके महसूस हो रहें थे। जैसे हमारे देश में सावन माह की पूर्वैयां हवाएं चलती हैं। मेज़बान ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया की शिकागो शहर को windy city का खिताब भी मिला हुआ हैं। जहां बड़ी बड़ी झीलें होंगी वहां ठंडी हवाऐं तो चलेंगी और मौसम को भी सुहाना बनाएं रखेंगीं।

शहर में सब तरफ हरियाली ही हरियाली हैं। आधा वर्ष तो भीषण शीत लहर/ बर्फबारी में निकल जाता हैं। जून माह से सितंबर तक गर्मी या यों कह ले सुहाना मौसम रहता है।

हमारे जैसे राजस्थान के भीषण गर्म प्रदेश के निवासियों को तो गर्मी के मौसम में भी ठंड जैसा महसुस हो रहा है। पता नही ठंड में क्या हाल होता होगा।

इस शहर की एक कमी है, कि चाय बहुत ही कम स्थानों पर मिलती हैं, हमारे जैसे चाय प्रेमियों को जब घूमने जाते हैं, तो चाय की बहुत तलब लगती है, तो कॉफी से ही काम चलाना पड़ता हैं। अगला भाग एक कप चाय के बाद ही पेश कर पाऊंगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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