हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ सुश्री नीलम भटनागर ☆

सुश्री नीलम भटनागर 

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ सुश्री नीलम भटनागर ☆ 

पुस्तक चर्चा

अर्घ, कविता संग्रह

दामिनी खरे

आवरण.. यामिनी खरे

प्रकाशक … कृषक जगत, भोपाल

विवेक रंजन श्रीवास्तव जी ने श्रीमती दामिनी खरे जी की कृति अर्घ उपलब्ध कराई।सच में बहुत अच्छा लगा पढ़कर।आजकल मैं अक्सर सोचती हूं कि अब सब खत्म हुआ, पढ़ना थोड़ा याने समाचार पत्र तक ही रखूं। वह भी अब और कोई घर में पढ़ता नहीं और मुझे उसके बिना सुप्रभात सा लगता नहीं। मुंबईया बोली में कहूं तो सब खल्लास।

पर दामिनी जी के काव्य संग्रह अर्घ ने फिर एक बार कानों में मानो मिस्री घोली नहीं अभी कहां ?जब तक सांस तब तक आस। नहीं ये शायद उतना सही नहीं।मेरी सासू मां एक मुहावरा कहती थीं उस समय उतना उचित नहीं लगता था पर शायद उससे अधिक यहां कुछ नहीं लग रहा।जब तक जीना तब तक सीना।अब यदि आप में से कोई कुछ और जोड़ें तो वह स्वतंत्र है।

मुझे लगा कि दामिनी जी जब नयी कविताएं लिखकर संग्रह प्रकाशित कर सकती है तो प्रेरणा स्वरूप मैं केवल सोचूं नहीं उनके उत्साह वर्धन में उस पर लिखूं भी।‌ जैसा कि मैंने अर्घ नाम पढ़ कर उसे पहले अर्थ शास्त्र से सम्बंधित सोचा, पर केवल अनुक्रमणिका देखकर ही समझ आ गया कि नहीं ये कवियत्री महोदया के पूरे जीवन की संचित रस से भरी गागर है। एक के बाद एक क्या नहीं है इसमें।जैसा कि उन्होंने आत्म कथ्य में कहा कि बीच के अंतराल में लेखन छूट गया पर पढ़ा बहुत।बस यही दिख गया। प्रसाद पंत निराला सबकी मनोहर झांकी और महादेवी जी की तो पूर्ण अनुकृति। बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागनी हूं, तो मानो पूरी तरह उतर कर आ गयी।

सरस्वती वंदना में पूरी तरह निराला जी का वीणा वादिनी वर दे का प्रबल प्रभाव दिखता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर जी का भाव  बने लेखनी निडर सच्चाई का बल दे में स्पष्ट दिखाई देता है।

अपने‌ परिवार में मां पिताजी भाई छोटी बहना पर बाल हृदय के सहज भावनाओं को बड़े वत्सल भाव तो पति के लिए आदर मिश्रित प्रेम को अभिव्यक्त करने में वे बहुत सफल रहीं हैं। मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि आजकल यह कम होता दिखाई दे रहा है। इस के बाद आप देखें कि आधुनिक जितने विषय है उन पर बड़ी सार्थक कविताये रची हैं। बेटी पर तो अपने समय से लेकर आज तक की सारी सम सामयिक समस्याएं सकारात्मक भाव से प्रस्तुत की गई है। श्रंगार से लेकर अधिकाधिक रसों पर इतनी हृदयग्राही शैली में रची हैं कि बस इन सुरुचिपूर्ण कविताओ को पढ़ते रहो, पढ़ते रहो‌। जिस किसी के पुस्तक हाथ आये, वह अवश्य पढ़े। आज की पीढ़ी पढ़ने में कुछ कोताही बरतती है पर मुझे ऐसा लगता है कि जिस सहजता की ये कविताये है मिलने पर वे भी अवश्य पढ़ेंगे। कठिन बातों को सरल बनाना दामिनी जी की बहुत बड़ी विशेषता है।

अंत में फिर कहना चाहूंगी कि हृदय से चढ़ाये गये इन काव्य कुसुमों को  पूजा में चढ़ाते अंजली लिए जल पुष्प रूपी अर्घ जैसे भाव से गृहण करें। अत्यधिक बधाई की पात्र हैं दामिनी जी और मुझे इन कविताओं पर लिखने को प्रेरित करने हेतु श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव जी का हृदय से आभार।

ई-अभिव्यक्ति ने श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी द्वारा श्रीमती दामिनी खरे जी के काव्य संग्रह अर्घ की समीक्षा को प्रकाशित किया था। आप उसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं 👇🏻

☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

चर्चाकार… श्रीमती नीलम भटनागर

सेवा निवृत व्याख्याता हिंदी, जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 151 – वेलेंटाइन तोहफा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय एवं स्त्री विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण लघुकथा वेलेंटाइन तोहफा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 151 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 वेलेंटाइन डे विशेष – वेलेंटाइन तोहफा ❤️

मालती इस दिन को कैसे भूल सकती है। आज वह अपना 25वां जन्मदिन मना रही है। आज ही के दिन किसी ने गुलाब से भरी टोकरी में मालती को लिटा कर अनाथ आश्रम के द्वार पर रख कर चला गया था।

धीरे-धीरे मालती बड़ी हुई। अपने रूप गुण और सरल स्वभाव के कारण सभी की आंखों का तारा बन चुकी थी। अनाथ आश्रम में कई कर्मचारी काम करते थे। सभी मालती को बहुत पसंद करते थे क्योंकि वह बाकी अन्य बच्चों से बिल्कुल अलग थी।

दिन बीतते गए। मालती पढ़ने लिखने में भी बहुत होशियार थी। वहां के एक कर्मचारी को वह बिटिया भा गई थी क्योंकि उसका अपना बेटा भी बहुत ही शांत स्वभाव और होनहार था। पवन मालती के सपने देख रहा था। जब भी उसका आना होता, उसकी सुंदरता उसे आकर्षित करती थी।

उसकी इच्छा को समझ पापा ने कहा… पहले थोड़ा पढ़ लिख जाओ, उसे भी पढ़ने दो और फिर उसकी इच्छा का मान रखो।

मालती इन सब बातों से अनभिज्ञ थी। वहीं पर उसने पढ़ाई कर प्राइवेट कंपनी में जॉब करना शुरू कर दिया। आज जब वह अपने जन्मदिन की खुशियां मना रही थी। दुल्हन की तरह सजी हुई थी। उसने देखा आश्रम गुलाब के फूलों से सजा हुआ है और पास में ही बहुत बड़ी डलिया फूलों से भरी रखी है।

उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा। वह अपने जन्मदिन को लेकर मंत्रमुग्ध हुए जा रही थी। उसी समय वह कर्मचारी अपने बेटे और पत्नी परिवार के साथ आया। शहनाई की धुन बजने लगी। मालती ने सोचा हैप्पी बर्थडे की जगह शहनाई क्यों बजाई जा रही है। तभी सुपरवाइजर मैडम ने मालती को हाथों से पकड़ लिया और डलिया पर बिठा दिया। कर्मचारी और उसकी पत्नी और उनके बेटे पवन को देखकर मालती सारा मामला समझ चुकी थी और शर्म से लाल हो गई।

मैडम ने कहा… आज वैलेंटाइन डे पर तुम फूलों के साथ आई थी आज तुम्हें फूलों सहित विदा कर रहे हैं अपने नए जीवन और नए घर पर बड़े प्यार से रहना। यही वैलेंटाइन उपहार है। सभी की आंखें खुशी से नम हो रही थी। आज मालती को अपना घर मिल गया।

कुछ लोग उसे उठा कर चलने लगे मैडम ने कहा… ये तुम्हारा अपना घर है। आते जाते रहना। उसका हाथ पवन के हाथों में देते हुए बोली… आज से इसका ख्याल रखना। सुपरवाइजर मैडम की आंखों में आंसू थे। मालती दोनों अंजलि से फूलों की पंखुड़ियां उछाल रही थी। फूलों की डलिया में बैठ मालती धीरे-धीरे विदा हो रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 21 – बाज़ार व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 21 – बाज़ार व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में भले ही विगत दो दशक से बड़े-बड़े मॉल अपने जाल में जन साधारण को फँसाने के प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इनकी सफलता का पैमाना अभी भी बहुत पीछे चल रहा है। एक दशक से ऑनलाइन के बड़े खिलाड़ी भी अभी आरंभिक अवस्था में ही झूल रहे हैं।

हमारी प्राचीन दुकान/फुटकर प्रणाली की जड़े बहुत गहरी हैं। उनमें कमियां ज़रूर हैं, परंतु   परिवर्तन के साथ मूलभूत प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ हैं।

यहाँ विदेश में सड़कों/गलियों में छोटी दुकानें या ठेले पर विक्रय करने के स्थान पर खुले स्थानों पर तीस/चालीस बड़े-बड़े और खुले स्थान में व्यवस्थित ढंग से बने हुए शोरूम के बाज़ार होते हैं। कम से कम सैकड़ों या हज़ार से भी अधिक कार पार्किंग का स्थान उपलब्ध होता है।

हर सामान बिल से विक्रय होता है, सबके भाव तय रहते हैं। हमारे देश में तो आधा जीवन मोल भाव में ही व्यर्थ हो जाता है। अंत में हमेशा ऐसा महसूस होता है कि अभी  भी महंगा क्रय कर लिया है। क्रेता और विक्रेता हमेशा दोनों एक दूसरे से ऊपर रहने के अनवरत प्रयास करते रहते हैं। गृहणियां सब्ज़ी वाले से मुफ्त धनिया प्राप्त करके प्रसन्नता महसूस करती हैं।

यहाँ बाज़ार से क्रय किए हुए समान को उस दुकान की किसी भी अन्य शाखा में वापस कर राशि प्राप्त हो जाती है।

ऐसी जानकारी भी मिली है, कि कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे देश के प्रवासी अपने यहाँ आए हुए मेहमानों को बाज़ार से लाकर ठंड से बचने के जैकेट इत्यादि को कुछ माह उपयोग में लाकर मेहमान के जानें के पश्चात दुकानदार को वापस कर देते थे। अब यहाँ एक/ दो सप्ताह में ही सामान वापस किया जा सकता है। लंबे समय से रह रहे प्रवासी इस बाबत ऐसी आदतों से गुरेज़ करते हैं। किसी भी व्यवस्था का गलत लाभ लेना हमेशा अनुचित रहता है। यहाँ के निवासी छोटे लाभ का लालच कभी भी नहीं करते है। नियम का पालन करना यहाँ के निवासियों की रगो में है।

इन सब मूलभूत बातों से ही तो यहाँ का जीवन सरल और सुगम बना रहता है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #175 ☆ उर्वशी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 175 ?

☆ उर्वशी… ☆

रोज रोज तू नवीन भासते अशी

दूरचा उगाच पाहु सांग का शशी ?

 

स्वर्गलोक छान वाटला कुणा जरी

भूवरील तूच मेनका नि उर्वशी

 

खूप दानशूर भेटतीलही तुला

काळजी जरूर घे पडू नको फशी

 

ओठ लाल बोलुदेत कान हासुदे

मूक मूक राहतेस तू अशी कशी

 

वात थंडगार फार देइ यातना

तप्त या मिठीस का उगाच टाळशी

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 125 – गीत – आज नहीं… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – आज नहीं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 125 – गीत – आज नहीं…  ✍

आज नहीं, कल बात करेंगे, अभी सफर से आई हो।

कल भी कितनी बात करेंगे

हाँ या ना उत्तर दोगी

कोई मुश्किल प्रश्न किया तो

अलमारी में रख लोगी

ऐसे ही चलती है दुनिया, किसकी भली चलाई हो ।

 

तुम्हें देखने उस नगरी के

कितने लोग जुड़े होंगे

संयम के शहजादों के भी

सहसा पाँव मुड़े होंगे

सच कहना, उस भरी भीड़ क्या, याद शहर की आई हो।

 

वापस आई राजनगर से

रूप नगर की शहजादी

स्वागत का अधिकार नहीं है

कहने भर की आजादी

नहीं, नहीं, कुछ नहीं कहूँगा, नाहक ही घबराई हो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 125 – “॥ गजल ॥” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है आपकी – “॥ गजल ॥)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 125 ☆।। कविता ।। ☆

☆ ॥ गजल ॥ ☆

अपने पुराने घर खिड़की मे

अतीत होते हुये बह तुम थे

आइनों की बडी कतारों में

व्यतीत होते हुये वह तुम थे

कभी कहीं पर तुम्हें देखा है

प्रतीत होते हुए वह तुम थे

गौर से देखता तारोंकोगहन

निशीथ होते हुए वह तुमथे

लिखेहैंबहुतगीतअभिनवसे

अगीत होते हुये वह तुम थे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 174 ☆ “टैगिंग की दुनिया…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी सोशल मीडिया की आभासी दुनिया पर आधारित व्यंग्य – टैगिंग की दुनिया)

☆ व्यंग्य # 174 ☆ “टैगिंग की दुनिया…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पिछले दिनों हमने एक व्यंग्य “ब” से बसंत, बजट और बीमा लिखा। अधिक से अधिक लोग पढ़ें इसलिए टेग करने का तरीका सीखा।  अभासी दुनिया के देखने में सुंदर, संस्कारवान, समझदार एक ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी को यह सोचकर टेग कर दिया कि वे व्यंग्य पढ़कर हमें व्यंग्य के बारे में कुछ सीख देंगे कुछ कमियां दूर करने के लिए मार्गदर्शन देंगे उनसे हमें कुछ सीखने मिलेगा चूंकि वे स्वयं व्यंग्य लिखते हैं और व्यंग्य की अच्छी समझ रखते हैं। 

उन्होंने अपने कमेंट में टेग न करने की हिदायत दी हमने भी उनसे माफी मांग ली। बात आयी और गई पर उसके आगे के कमेंट को पढ़कर हम दंग रह गए कि एक और आभासी दुनिया के छत्तीसगढ़ी मित्र  जी ने टेग करते रहने का खुला आफर दे डाला। खुशी हुई। हालांकि टेग करने की आदत बुरी हो सकती है पर आशा से आसमान टिका है कुछ सीखने के उद्देश्य से टेग करने की मृगतृष्णा जागती है इसी उद्देश्य से हमने ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी को विश्वास के साथ टेग किया था। इस बाबद एक व्यंग्यकार ने सलाह दे डाली उन्होंने अपने कमेंट में लिखा, गुरु बनाने के लिए यदि आप किसी को टेग करते हैं तो उनसे पहले अनुमति ले लें। 

जब तक हमारे ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी का नया कमेंट आ गया – नये व्यंग्यकार जी एक गुजारिश है कृपया बिना पूछे टेंग न करें। 

हमने अपने कमेंट में लिखा – माफ करियेगा अब कभी भी टैग नहीं करेंगे चाहे आप कितने भी बड़े व्यंग्यकार बन जाएं, और लगे हाथ उन्हें धन्यवाद भी दे दिया। हमारे विनम्रता भरे कमेंट को पढ़कर दिल्ली के बहुचर्चित व्यंग्यकार ने लिखा – कृपया मुझे टैग किया करे सर…मेरा व्यक्तित्व सामाजिक रूप से इतना कठोर माना जाता है कि मैं खुद भी हतप्रभ हूँ कि ऐसा क्यों माना जाता रहा है… वैसे भी मैं थोड़ा बहुत समाजवादी / मार्क्सवादी हमेशा से रहा हूँ… अब निज़ी बौद्धिकता का वास्तविक जीवन में यथार्थ तो पाखंड से भरा हुआ रहता है… कम से कम अपने जीवन में तो मैं ऐसा मानता ही हूँ… तो मैं चाहता हूँ कि समाजवादी / समतावादी और एक समानांतर दुनिया में साझेपन के साथ होने की निजी और सामूहिक कुंठा को संवाद के इस तकनीकी माध्यम में टैग के द्वारा ही पूरा कर सकूं। एक और भी कारण है कि आपको मुझे टैग करना चाहिए कि, मुझे लोगों की तस्वीरें, उनके जीवन के उत्सव के रंग… उनकी मामूली बातें… उनका खिलंदड़पन… उनकी उदासी…सब कुछ मेरे महानतम संवेदन से बार-बार रूबरू होने के लिए विवश कर देती हैं… मैं दूसरे ढंग से मुक्तिबोध को महसूस कर पाता हूँ कि हर पत्थर में आत्मा अधीरा है, हर आत्मा में महाकाव्य पीड़ा है… कुछ इसी तरह है शायद…

तो आप मुझे कृ पया टैग करें.. वैसे मैं नितांत दुकानदार किस्म का आदमी हूँ…मेरा पेशा ही दुकानदारी है… फिर भी मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि मैं आपके व्यक्तित्व का अपनी किसी भी किस्म की दुकानदारी के लिए उपयोग नही करूँगा…

हमेशा टैग किये जाने की उम्मीद के साथ……

एक दूसरे जले कटे व्यंग्यकार ने जैसे ही ऊपर वाला कमेंट पढ़ा, उन्होंने तुरंत लिख मारा- 

खुले दिल का मालिक और उदार सोच का धनी मैं फलां अधपका व्यंग्यकार दिल से आपको सलाम करता हूं, आप हमें भी बेहिचक अपनी पोस्ट पे टैग किया कीजिये इससे लाभ हमें ही ये होगा कि हम खुद को टैग की पोस्टस् पर जल्दी नजर पड़ जाती है, रही बात ऐसी पोस्टस् को मिले भारी लाईक कमेंट के नोटिफिकेशन पे हमारी वॉल पर बजने से होती तथाकथित असुविधा (जमाने की नजर में) तो हमारे लिये खुशी और उत्सुकता का सबब होती है क्यूंकि उस हिट होती जा रही रचना से हमें भी अपनी कलम को निखारने के मंत्र मिलते रहते हैं और तो और पोस्ट के कमेंटस् में के रूप में हमें कई और अनजान कलमकारों की बेहतरीन कलम के नमूने भी पढ़ने को मिल जाते हैं।

लगातार आ रहे कमेंट्स को पढ़ते-पढ़ते हम थक गये थे, तब तक एक नया कमेंट प्रगट हुआ

‘अगली बार से हमें आपने टैग किया तो हम आक्षपके ऊपर कानूनी कार्यवाही करेंगे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 116 ☆ # मुक्ति… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मुक्ति… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 116 ☆

☆ # मुक्ति… # ☆ 

तुमने मुझको कितना सताया

तुमने मुझको कितना रूलाया

जब जब मैंने चलना सीखा

तुमने राहों में कांटे बिछाया

 

मैं उन कांटों को चुनती रही

फूलों के संग बुनती रही

हार बनाकर वरमाला पहनाई

फिर भी जीवन भर सुनती रही

 

तुमने लेकर अपनी बाँहों में

प्रतिबंध लगाया मेरी चाहो में

लोकलाज की बातें कहकर

बेड़ियाँ डाल दी मेरी पांवों में

 

मैं आजादी से कभी उड़ ना सकी

मैं नीले आसमान से कभी जुड़ ना सकी

सिमट के रह गई एक दायरे में

मैं मुक्ति के पथ कभी मुड़ ना सकी

 

मैं कब तक रहूंगी पिंजरे की मैना

कौन सुनेगा मेरा दर्द, मेरा कहना

तुम पुरूषों के दंभी संसार में

क्यों नारी को है यह सब सहना

 

नहीं! अब मैं नहीं डरूंगी

लोकलाज की परवाह नहीं करूंगी

तोड़ूंगी झूठा तिलिस्म तुम्हारा

मुक्ति के बीना नहीं मरूंगी /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 117 ☆ अभंग…  अंतरी नसावा…☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 117 ? 

☆ अभंग…  अंतरी नसावा

आतला आवाज, ऐकावा सर्वांनी

साधावी पर्वणी, ज्याची त्यांनी.!!

 

अनेकांचे मत, ऐकुनीया घ्यावे

बाकीचे करावे, हवे-तेच.!!

 

उच नीच भेद, सोडूनिया द्यावा

सर्वांशी करावा, सद् व्यापार.!!

 

मनाची थोरवी, प्रगट करावी

अलिप्त असावी, वैर-बुद्धी.!!

 

कवी राज म्हणे, क्षण हा जपावा

अंतरी नसावा, अहंकार.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग – ५६ – आपलेच झाले परके ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग – ५६ – आपलेच झाले परके डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

अमेरिकेत मत्सराचा अग्नी कसा भडकला होता ते आपण पाहिले. जे लोक जागतिक स्तरावर सर्व धर्म भेद ओलांडण्याचा विचार मांडत होते ते यात सहभागी होते हे दुर्दैवच म्हणायचे. भारतात सुद्धा त्याची री…ओढत हिंदू धर्म कसा संकुचित व बुरसटलेला आहे, हे ओरडून सांगितले जात होते. पण स्वामी विवेकानंद मात्र हिंदू धर्मातील प्राचीन ऋषींचे उदात्त विचार परदेशात समजावून देत होते. त्यात कुठल्या धर्माची सीमा आडवी येत नव्हती. वा देशाची नाही. हिंदू धर्माचं हे वैशिष्ट्य आज पण आपण माहिती करून घेणं आवश्यक आहे.

भारतात प्रसिद्ध झालेले विवेकानंद यांच्या विरोधातले लेख अमेरिकेत पुन्हा प्रसिद्ध केले जात. हे लेख तिथल्या ‘लॉरेन्स अमेरिकन’, ‘आऊटलुक’ आणि ‘डेट्रॉईट फ्री प्रेस’ मध्ये छापून आल्याने सगळ्या लोकांना वाचायला मिळत असत. या विषारी प्रचारामुळे लोक दुरावत चालले होते. परिषदेवेळी मित्र झालेले डॉ.बॅरोज बोलेनसे झाले. एव्हढा सतत प्रचार वाचून प्रा. राईट सुद्धा थोडे साशंक झाले. हे बघून विवेकानंद अस्वस्थ झाले. होणारच ना. कलकत्त्यात इंडियन मिरर या वृत्तपत्रात याचा प्रतिवाद होत असायचा. यात विवेकानंद यांच्या कार्याचे वर्णन, परिषदेची माहिती, चर्चा, त्यांनी मिळवलेले यश हे सर्व छापून येत होतं. माध्यमे कसं जनमत घडवतात याचं हे उत्तम ऊदाहरण आहे. म्हटलं तर चांगल्या कामासाठी माध्यमांचा खूप चांगला उपयोग आहे पण वाईट कामांना किंवा विघातक कामाला प्रसिद्धी देऊन खतपाणी घालणे हे समाजाला अत्यंत घातक आहे. पण भारतात. जगातल्या प्रसिद्धी माध्यमांची ओळख भारतीय लोकांना नव्हती. त्यामुळे इथे आलेली वृत्त अमेरिकेतल्या लोकांनाही  अधिकृतरीत्या कळावित असे कोणाच्या लक्षात आले नाही. कलकत्त्यात ‘इंडियन मिरर’ मध्ये १० एप्रिल १८९४ या दिवशीच्या अग्रलेखात विरोधकांच्या टीकेला सडेतोड उत्तर दिले होते.ते असे होते, “अमेरिकेला जाऊन हिंदू धर्माचा एक प्रवक्ता म्हणून विवेकानंदांनी जे नेत्रदीपक यश मिळवले आहे, त्याबद्दल त्यांना एक सन्मानपत्र लिहून आपली कृतज्ञता व्यक्त करणे हे हिंदू समाजाचे कर्तव्य आहे. ज्यांनी सर्वधर्म परिषदेचे आयोजन केले त्या अमेरिकन लोकांचेही आपण कृतज्ञ असावयास हवे. कारण त्यांनी त्या परिषदेच्या निमित्ताने विवेकानंदांना व्यासपीठ उपलब्ध करून दिले, त्यामुळे, त्यांना आपले पुढील कार्य करण्यासाठी पाया भरता आला”. विवेकानंद यांना जे अपेक्षित होते तेचं यात म्हटले होते, पण हा मजकूर त्यांच्या हातात नव्हता. तसाच मधेच बोस्टन मध्ये भारतातील आलेला मजकूर छापला होता ते कात्रण मिसेस बॅगले यांनी विवेकानंद यांना पाठवले. त्याबरोबर बोटभर चिठ्ठी सुद्धा नव्हती यावरून त्यांची गंभीरता लक्षात आली. उत्तम परीचय झालेली ही मोठ्या मनाची लोकं, त्या क्षणी अशी वागली याचे स्वामीजींना किती दु:ख झाले असेल.

आता हे सारं त्यांना असह्य होत होतं. शेवटी त्यांनी एक मार्ग निवडला आणि त्याबद्दल मद्रासला आलसिंगा आणि कलकत्त्याला गुरुबंधूंना पत्र पाठवले. त्यात लिहिले होते,  मद्रास व कलकत्त्यात दोन सार्वजनिक सभा घ्याव्यात, त्यात नामवंतांचा सहभाग असावा. त्यांनी विवेकानंद यांच्या कार्याची पावती देणारी प्रतींनिधिक भाषणे व्हावीत, अभिनंदन करणारा ठराव संमत करावा, आणि अमेरिकेतील लोकांना धन्यवाद देणारा दूसरा ठराव असावा. या सभांचे वृत्त भारतीय वृत्त पत्रात प्रसिद्ध व्हावे. आणि त्यांच्या प्रती इथे अमेरिकेत डॉ बॅरोज आणि प्रमुख वृत्तपत्रांचे  संपादक यांना पाठवावीत अशी विनंतीपर पत्र पाठवली.

स्वत:ची प्रसिद्धी हा भाग यात नव्हता. पण हिंदू धर्माचा प्रतिनिधी म्हणून जी लोकं त्यांच्या बरोबर आदराने उभी होती, मदत करत होती त्यांच्या मनातून संदेह निर्माण झाला तर केलेल्या कामावर पाणी चं फिरणार ही भीती होती. कारण हिंदू धर्माची ध्वजा एका चारित्र्यहीन माणसाने हातात घेतली आहे असे चित्र तिथे रंगविले जात होते. हा ध्वजाचा अपमान होता. मिशनर्‍यांचा काही भरवसा राहिला नव्हता.  काय करतील ते सांगता येत नाही अशी परिस्थिति उद्भवली होती.

डेट्रॉईट मध्ये आयोजित एका भोजन समारंभात घडलेला प्रसंग यावेळी विवेकानंद यांनी कॉफीचा पेला उचलला तर त्यांना आपल्या शेजारी एकदम श्रीरामकृष्ण उभे असल्याचे दिसले, ते म्हणत होते, “ ती कॉफी घेऊ नकोस, त्यात विष आहे. विवेकानंदांनी एक शब्दही न बोलता तो कॉफीचा पेला खाली ठेवला. अशी आठवण गुरुबंधुनी सांगितली आहे. यावरून केव्हढी गंभीर परिस्थिति तिथे झाली होती याची कल्पना येते. एका सर्वसंग परित्यागी  संन्याशाला स्वत:च्या अभिनंदनाचे ठराव करून अमेरिकेत पाठवावेत असे स्वत:च लिहावे लागले होते. यामुळे त्यांच्या मनाची काय अवस्था व किती घालमेल झाली असेल ?

त्यांनी जुनागड चे दिवाण साहेब, खेतडी चे राजे, यांनाही पत्र लिहिली. मेरी हेल यांनाही पत्र लिहून आपल मन मोकळं केलं. सर्वधर्म परिषदेचं महाद्वार ज्यांनी आपल्यासाठी उघडलं होतं त्या प्रा. राईट यांच्या मनात तरी आपल्याबद्दल संशयाची सुई राहू नये असे विवेकानंद यांना वाटत होते. ती दूर करणं आपलं नैतिक कर्तव्य आहे असेही त्यांना वाटले म्हणून त्यांनी तसे पत्र राईट यांनाही लिहिले. ते लिहितात, “ मी धर्माचा प्रचारक कधीही नव्हतो, आणि होऊ ही शकणार नाही. माझी जागा हिमालयात आहे, माझ्या मनाला एक समाधान आहे की, माझ्या सद्सद्विवेक बुद्धीला स्मरून मी परमेश्वराला म्हणू शकतो की, हे भगवन, माझ्या बांधवांची भयानक दैन्यवस्था मी पहिली, ती दूर करण्यासाठी मी मार्ग शोधला, तो प्रत्यक्षात उतरविण्यासाठी मी पराकाष्ठेचा प्रयत्न केला. पण माला यश आले नाही. तेंव्हा तुझी इच्छा असेल तसे होवो”. तर मिसेस हेल यांना विवेकानंद लिहितात. “या सार्वजनिक जीवनाला आपण कंटाळून गेलो आहोत. माताजी तुमच्या सहानुभूतीचा मला लाभ होईल? शेकडो बंधनांच्या ओझ्याखाली माझे हृदय आक्रंदत आहे”.

दरम्यान विवेकानंद यांच्या हातात जुनागड चे हरिभाई देसाई आणि खेतडीचे अजित सिंग यांची पत्रे आली. लगेच ती प्रा. राईट यांना पाठवली.

अगदी एकाकी पडले होते ते. महिनाखेरीस विवेकानंद हेल यांच्या कडे आले. या सर्व घटनांनी ते अतिशय थकून गेले होते. शरीराने नाही तर मनाने.याचवेळी हेल यांना एक अनामिक पत्र आले की, विवेकानंद यांना तुमच्या घरी ठेऊन घेऊ नका म्हणून, हा एक खोटा आणि चारित्र्यहीन माणूस आहे. हेल यांनी हे पत्र घेतले आणि फाडून, तुकडे करून पेटत्या शेगडीत टाकले.

प्रतापचंद्र यांची मजल तर श्री रामकृष्ण यांच्यावरही प्रतिकूल शब्दात टीका करण्याचे सोडले नव्हते. वास्तविक त्यांनी नरेंद्रला या आधी पहिले होते रामकृष्ण यांच्यावर तर श्रेष्ठत्व सांगणारा सुंदर लेख लिहिला होता. एकदा संध्याकाळी मेळाव्यात प्रतापचंद्र बोलत असताना श्रीराम कृष्ण आणि विवेकानंद यांच्याबद्दल निंदा करणारे काही बोलले.

हे दीड दोन महीने जणू काळ रात्रच होती स्वामीजींसाठी. पण ती आता संपत आली होती. नवा सूर्य उगवणार होता आणि मनातल्या व्यथा नाहीशा होऊन क्षितिजावर प्रसन्नता प्रकाशमान होणार होती. 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares