मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #125 – पान…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

इस संवेदनशील मराठी कविता का हिन्दी भावानुवाद “एक पत्ता” आप आज के अंक में पढ़ सकते हैं । 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 125 – पान…! 🍃 

मी अंगणातल्या झाडाचं

एक पान…

वहीत जपून ठेवलंय

भविष्यात लेकरांन  

झाड़ म्हणजे काय…

विचारलं

तर निदान

झाडाचं पान तरी

दाखवता येईल…!

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – अजुनी रूसुन आहे – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – अजुनी रूसुन आहे   ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

😊

अजुनी रूसुन आहे

खुलता कळी खुलेना

विनवून  पाहीले मी

इकडे मानही वळेना

😊

चुकले कशात  माझे

हे काही  आकळेनी

😊

किती किडे,अळ्या मी

हुडकून  आणल्या हो

त्यातील चव कुणाची

प्रियेस का रूचेना

😊

रानावनात फिरलो

गवतातूनी हुडकलो

पण वेगळ्या चवीची

हिस भूल का पडेना!

😊

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#149 ☆ लघुकथा – बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा  “बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी…”)

☆  तन्मय साहित्य # 149 ☆

☆ लघुकथा – बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

सायंकालीन दिनचर्या में टहलते हुए किसी पार्क के कोने या किसी पुलिया पर समय काटते बुजुर्गों के समूह में अजीब चर्चाओं का दौर चलता रहता है।

आज चर्चा शुरू करते हुए रूपचंद ने पूछा – “रामदीन! यह बताओ इन भगवानों के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?”

“विचार क्या! ये सब इंसानी दिमागों की उपज है। ढूँढो तो इन भगवानों में भी कई खोट मिल जाएंगे। अब राम जी को ही ले लो, कहने को मर्यादा पुरुषोत्तम और एक धोबी के कहने से अग्नि में पवित्र हुई गर्भवती सीता जी को अकेली जंगल में छुड़वा दिया।”

“सच कहते हो रामदीन! बृजमोहन जी बीच में ही बोल पड़े, सोलह कलाओं के स्वामी पूर्णावतार कृष्ण जी ने क्या कम गुल खिलाये थे! सुना है सोलह हजार रानियों के बीच में  केवल सत्यभामा और रुक्मणी जी की पूछ-परख बाकी सब बाँदियों की तरह थी। वैसे तत्वदर्शी मनीषी इन बातों की अलग तरह से भी आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं।”

“अरे ब्रजमोहन!  दूर क्यों जाते हो ईश्वर के बारहवें अवतार भगवान बुद्ध तो अपनी सोई हुई पत्नी और वृद्ध माता-पिता को बीच मँझधार में छोड़ कर अपने मोक्ष के लिए रातों रात घर से पलायन कर गए थे, रघुनंदन ने कहा, जबकि विदेही राजा जनक की भांति अपने राजधर्म का पालन करते हुए भी वे बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते थे।”

 “हाँ भाई रघुनंदन, वैसे बुद्ध को भी छोड़ दें तो अभी-अभी के हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में कहते हैं कि, वृद्धावस्था में भी अपनी कामवासना पर काबू कर पाए हैं कि नहीं यह जाँचने के लिए विचित्र-विचित्र प्रयोग करने लगे थे। बाकी उनके यौवनकाल की घटना तो जानते ही हैं हम सब रूपचंद ने कहा।”

“गांधी जी ने तो फिर भी देश के लिए बहुत कुछ किया था रूपचंद भाई!”

बीच में ही भवानी प्रसाद बोल उठे – “किंतु आज तो सभी नेता अपनी तिजोरी भरने और देश का पैसा विदेशी बैंकों में जमा करने में लगे हैं। देश प्रेम के मुखौटे लगाए ये लोग अंदर कुछ और बाहर कुछ हैं। अब अपने क्षेत्र से ही जीते हुए नेता जी को ले लो साल में दो बार शिर्डी, वैष्णो देवी और आसपास के मंदिरों की शाही यात्राएं कर सदा मजमें लगा कर अपने को चर्चाओं में बनाये रखते हैं। उनका असली रूप क्या है सब लोग उनके आशिक मिज़ाजी  कुकर्मों से परिचित ही हैं।”

“भवानी प्रसाद! कुकर्मों की बात तुम नहीं ही करो तो अच्छा है। करम  तो तुम्हारे भी ठीक नहीं थे, देवीसिंह ने हँसते हुए कहा – रंगीन मिजाजी के तुम्हारे किस्से हम आज तक भी भूले नहीं हैं, याद है न तुम्हें?”

“और तुम कौन से दूध के धुले हो यार! मुँह न खुलवाओ मेरा नहीं तो तुम्हारी भी पूरी पोथी बाँच सकता हूँ यहाँ।”

“पोथियाँ तो यहाँ सबकी सब की बनी है, बस बाँचने भर की देर है, रूपचन्द ने कहा।”

बात भगवान से शुरू होकर अपने तक आ गई, लगने लगा कि इसके बाद अब सब लपेटे में आने वाले हैं।

रामदीन ने आज की गोष्ठी का समापन करते हुए कहा “साथियों! रात के आठ बजने वाले हैं, यदि अब भी हम लोग घर नहीं पहुँचे और घर का चूल्हा चौका एक बार बंद हो गया तो फिर कुछ अलग सी पोथी श्रवण के साथ कल दोपहर तक ही खाना नसीब हो पाएगा हमें, इसलिए आज की यह चर्चा गोष्ठी कल तक के लिए स्थगित की जाती है। सब कुछ ठीक रहा तो कल फिर मिलेंगे।”

आखिर खाली मन रोज-रोज बातें करें भी तो क्या कभी राजनीति, कभी मँहगाई, कभी पेंशन, तो कभी अड़ोस-पड़ोस की, बस इसी प्रकार कुछ नए नए विषय लेकर उनके तार मिलाते दिल बहलाते हल्की-फुल्की छींटाकशी करते फिर पूरे समय के लिए चुप्पियों की शरण में चले जाते हैं- अपनत्व से वंचित ये बुजुर्ग लोग

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 37 ☆ गीत – गुरु वन्दना… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत गुरु वन्दना… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 37 ✒️

? गीत  – गुरु वन्दना… — डॉ. सलमा जमाल ?

हर्षित हृदय से आपका ,

 शत् कोटी है वंदन ।

मन की गहराइयों से ,

करती तुम्हें नमन ।।

 

राहों में तुम्हारी मैंने ,

पलके बिछाईं हैं ।

श्रद्धा सुमन समर्पित ,

करती हूं तुम्हें अर्चन ।।

हर्षित ———————

 

क्या भेट दें तुम्हारी ,

गुरु दक्षिणा में हम ।

आशीष हो तुम्हारा ,

स्वीकारो अभिनंदन ।।

हर्षित ——————-

 

सरगम है यह सुरों की ,

 वीणा की झंकार है ।

खुशियों के दीप जले ,

 करता है मन नर्तन ।।

हर्षित ——————–

 

चन्दा उतर के आया है ,

वसुधा की गोद में ।

तारों के गजरे लेकर ,

गुरु को करूं अर्पन ।।

हर्षित ——————-

 

आपकी दुआओं में सदा,

” सलमा” की याद हो ।

 पावन- पुनीत ऋण को,

 करती शत् शत् वन्दन ।।

हर्षित ———————-

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 47 – मनमौजी लाल की कहानी – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक मज़ेदार कथा श्रंखला  “मनमौजी लाल की कहानी…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 46 – मनमौजी लाल की कहानी – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(प्रशिक्षण की श्रंखला बंद नहीं हुई है पर आज से ये नई श्रंखला प्रस्तुत है,आशा है स्वागत करेंगे.पात्र मनमौजी लाल की कहानी “आत्मलोचन” से अलग है और ज्यादा लंबी भी नहीं है.)

समय का चक्र रुकता नहीं और जिसे हम विकास, आधुनिकता, नई सोच परिभाषित करते हैं, वो बदलते जीवन मूल्यों की कहानी भी होती है.अब बदलते मूल्यों के साथ बहुत कुछ बदल गया और विभिन्न लेवल की परीक्षा पास करते हूये मन और उनकी जीवन संगिनी दोनों ही देश के आई.टी. हब के नाम से विख्यात मेट्रो नगरी में वन एंड हॉफ BHK Flat के स्वामी बनकर कार्यरत हैं. दोनों ही देश की श्रेष्ठ सॉफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हैं. एक ही कंपनी में कार्यरत होने के कारण ही विवाह बंधन में बंधना, वरीयता पा गया. पिताजी और माँ अपने मूल निवास में आनंदपूर्वक रह रहे हैं, उनका अपने वर्तमान परिवेश में रहकर संतुष्ट और अभ्यस्त होने के अलावा ,पुत्र की स्टडी टेबल विथ चेयर और टू सीटर सोफे से भावनात्मक लगाव भी एक कारण बना हुआ है. मेट्रो की दिनचर्या और परिवेश, आबोहवा उन्हें रास नहीं आती.

कभी अपनी स्टडीज में सोफे के न होने से परेशान मनमौजी के पास आज सुविधा की हर वस्तु है. बैंक के ऋण से लिया गया, शहर की पॉश कालोनी में फ्लेट भले ही वह छोटा हो. कीमती  SUV, फ्लेट में आधुनिकतम सज्जा के सर्वश्रेष्ठ ब्रांड का हर सामान जिसमें कंपनी का सामान्य नहीं एक्सट्रा साईज का एल शेप सोफा भी शामिल है. दोनों के पास व्यस्त रहने के लिये अपने-अपने स्मार्टफोन, अपने अपने-लैपटॉप और बेडरूम और लिविंग रूम में स्मार्ट टीवी मौजूद हैं. घर में एक दरवाजे से जैसे-जैसे आधुनिकता में लिपटी संपन्नता प्रवेश करती है, पुरातन मूल्य दूसरे दरवाजे से बाहर निकलना शुरू कर देते हैं. जीवनशैली की आधुनिकता और मेट्रो में रहने की मज़बूरी के कारण, तुलसी के पौधे की पूजा के लिये न तो जगह होती है न ही श्रद्धा और न ही समय. फ्लेट में लगी देवी देवताओं की फोटो के सामने, समय की कमी और फास्ट लाईफ को जस्टीफाई करते हुये, नतमस्तक होना ही एकमात्र धर्म से जुड़ा कर्मकांड या प्रक्रिया है. दही हांडी, गनपति उत्सव और दुर्गा पूजा या तो टीवी पर कभी कभी कभार देखी जाती है या फिर रास्ते में ट्रैफिक जाम में उड़ती नज़र से दर्शन किये जाते या हो जाते हैं. कोविड काल में मिलना जुलना बंद होने से सोफासेट काम में नहीं आता, पर सामान्य काल में भी अक्सर मेल मुलाकात, बाहर कॉफी शॉप, मल्टीप्लेक्स, मॉल्स में ही हो जाती है. घर पर आना जाना बहुत कम हो जाता है, तो सोफा बेचारा मेहमानों का इंतज़ार करते करते थक जाता है. पर यही सोफा उस वक्त जरूर काम में आता है जब घर में रहने वाले दोनों सॉफ्टवेयर इंजीनियर का अपने अपने शिखर पर स्थित ईगो के कारण हुआ क्लेश, बेडरूम पर पत्नी को और सोफे पर पति को शरण देता है.

टू सीटर से हुई शुरुआत इस तरह एल शेप सोफे पर विराम पाती है, ये इस दौर का सच है जिसे बिना जजमेंटल हुये स्वीकारा जाना चाहिए. सही है या गलत जो भी है इसकी शिकायत बदलते दौर से की जा सकती है पर इस दौर में उलझे पात्रों से नहीं. जब मात्र संपन्नता ही आगे बढ़ने की परिभाषा हो तो नैतिकता और स्नेह घर में और समाज में स्थान नहीं पाते. यही बदलते दौर की विसंगतियां हैं. कहीं कम तो कहीं ज्यादा. मनमौजी न तो मन की कर पाते हैं न ही मौज़ मना पाते हैं.  पर ये सच्चाई ओझल रहे, इसका बंदोबस्त उत्पादों की जबरदस्त मार्केटिंग ने बहुत अच्छे से कर दिया है. जब तक इस कहानी की पहली किश्त नहीं पढ़ेगे, सोफों की ये यात्रा समझने में मुश्किल होगी.

धन्यवाद

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 148 ☆ गणेश स्तुती ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 148 ?

☆ गणेश स्तुती ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(वृत्त– शुद्धसती) (८+४)

वाजत गाजत आले

गणपती देव येथे

घरकुले छान सजली

 दार ही गीत गाते

 

जास्वंद फुले आता

दरवळे मोगराही

बनलीय जुडी दुर्वा

छानसा केवडाही

 

कुणाला सांग सांगू

हेरंब घरी आल्याचे

उघडले दार आता

माझ्याही सौख्याचे

 

बाप्पास गंध शोभे

सुवासी चंदनाचे

गूळ अन खोबरे ते

नैवेद्य मोदकाचे

 

करावी आरती की

 सुखाने गणेशाची

 असावी रोज पूजा

 शुद्धच या भावांची

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनीक्रमांक २६- भाग ४ – पूर्व पश्चिमेचा सेतू – इस्तंबूल ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २६ – भाग ४ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ पूर्व पश्चिमेचा सेतू– इस्तंबूल ✈️

कॅपाडोकीयाजवळ  चार हजार वर्षांपूर्वीचं एक भुयारी शहर पाहिलं. शत्रूच्या हल्ल्यापासून बचाव करण्यासाठी जमिनीखाली हे सात मजल्यांचं शहर बसवलं होतं.टर्कीमध्ये अशी आणखी काही शहरं प्रवाशांना दाखविण्यासाठी  स्वच्छ करून प्रकाशाची सोय  केलेली आहे. गाईडच्या मागून वाकून चालत, कधी ओणव्याने जाऊन ते भुयारी शहर पाहिलं. त्यात धान्य साठविण्याच्या जागा, दारू तयार करण्याची जागा, एकत्र स्वयंपाक करण्याची जागा, स्वयंपाकाचा धूर बाहेर दिसू नये म्हणून घेतलेली काळजी, मलमूत्र साठविण्याचे भले मोठं दगडी रांजण, मृत व्यक्तींना टाकण्याचेही वेगळे दगडी रांजण, प्रार्थनेसाठी  जागा असं सारं काही होतं. सकाळपासून रात्रीपर्यंतचे सारे कार्यक्रम त्या अंधाऱ्या, सरपट जायच्या बोळातून करायचे. हजारो माणसांनी त्यात दाटीवाटीने राहायचं! कल्पनेनेही अंगावर काटा आला. सहा- सहा महिने बाहेरील ऊन वारा न मिळाल्याने माणसं फिकट पांढुरकी, आजारी होऊन जात. ‘सबसे प्यारा जीव’ वाचविण्यासाठी माणूस काय काय करू शकतो याचं मूर्तीमंत दर्शन झालं.

अंकारा ही  टर्कीची राजधानी. तिथल्या ‘अनातोलिया सिव्हिलायझेशन म्युझियम’ मध्ये प्राचीन संस्कृतीचा वारसा नेटकेपणाने जपला आहे. उत्खननात सापडलेल्या दगडी मूर्ती, भलं मोठं दगडी रांजण, वेगवेगळ्या जातींच्या दगडांपासून बनविलेले दागिने, हत्यारे असं सारं आहे. त्यातील तीन- चार दगडी शिल्पे मात्र विलक्षण वाटली. अर्जुनाच्या रथाचं सारथ्य करणारे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुनाला उपदेश करीत आहेत हे शिल्प आपल्याकडे आपण नेहमी पाहतो. अगदी तशाच प्रकारची शिल्पं, पण चेहरे थोडे वेगळे. अशी चार-पाच दगडी शिल्पे तिथे होती. त्याचा संदर्भ मात्र मिळाला नाही.

अंकारामध्ये राष्ट्रपिता केमाल पाशा यांचं अतिभव्य स्मारक आहे. एक राष्ट्रप्रमुख द्रष्टा असेल तर राष्ट्राची किती आणि कशी प्रगती होऊ शकते याचं अतातुर्क (म्हणजे तुर्कांचा पिता) केमाल पाशा हे उत्तम उदाहरण आहे. त्यांनी आपल्या अत्याधुनिक विचार शैलीने व थोड्या लष्करी शिस्तीने टर्कीला युरोपियन राष्ट्रांच्या पंक्तीत देऊन बसविले आहे. स्त्री- पुरुष सर्वांना सक्तीचं शिक्षण केलं. बुरखा, बहुपत्नीत्व या पद्धती रद्द केल्या. मुल्ला मौलवींचा विरोध खंबीरपणे मोडून काढून स्त्रियांना पूर्ण स्वातंत्र्य दिलं. तंत्रज्ञानाची, आधुनिक विज्ञानाची विद्यापीठे उभारली. व्यापार उद्योग, स्वच्छता, पेहराव, प्राचीन संस्कृतीचं जतन अशा अनेक गोष्टी त्यांनी राष्ट्राला शिकविल्या.१९३८ मध्ये मृत्यू पावलेल्या या नेत्याचे उत्तुंग स्मारक बघताना हे सारं आठवत होतं. त्यांच्या जीवनातील महत्त्वाच्या घटना, त्यांच्या वस्तू, फोटो, युद्धाचे देखावे असं त्या म्युझियममध्ये ठेवलेलं आहे.

रात्री विमानाने इस्तंबूल विमानतळावरून उड्डाण केलं. खिडकीतून पाहिलं तर इस्तंबूलच्या असंख्य प्रकाश वाटा हात हलवून आम्हाला निरोप देत होत्या. आम्हीही या पूर्व- पश्चिमेच्या सेतूचा ‘अच्छा’ (आणि ‘अच्छा’ म्हणजे ‘छान’ असंही) म्हणून निरोप घेतला.

भाग ४ व इस्तंबूल समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 49 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 49 – मनोज के दोहे …. 

ब्रह्मचर्य-व्रत-साधना, रहा देवव्रत नाम।

श्री शांतनु के पुत्र थे, अटल प्रतिज्ञा-धाम।।

 

तन-मन को निर्मल रखे, पूजन व्रत उपवास

जीवन सुखद बनाइए, हटें सभी संत्रास।।

 

फल की इच्छा छोड़कर, कर्म करें अविराम।

गीता में श्री कृष्ण का, सार-तत्व अभिराम।।

 

तीजा के त्यौहार में, निर्जल व्रत उपवास।

शिव की है आराधना, पावन भादों मास।।

 

विजयी होता क्रोध पर, जिसने सीखा मौन

सुखमय जीवन ही जिया, व्यर्थ लड़ा है कौन।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 120 – “टांग खींचने की कला” – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 120 ☆

☆ “टांग खींचने की कला” – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री रामस्वरुप दीक्षित जी की पुस्तक  “टांग खींचने की कला” पर चर्चा ।

व्यंग्य सँग्रह : टाँग खींचने की कला

लेखक : रामस्वरूप दीक्षित

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य : 200₹

प्रकाशन वर्ष : 2022

समीक्षक : विवेकरंजन श्रीवास्तव

समीक्षक सम्पर्क [email protected]

☆ टांग खींचने की कला : एक पठनीय व्यंग्य संग्रह – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

समसामयिक घटनाओं पर हिन्दी व्यंग्य पिछली सदी के अंतिम दशकों से लिखे जाते रहे हैं. अब ये अधिकांश पत्र पत्रिकाओं के लोकप्रिय स्तंभ बन चुके हैं.तानाशाही व कम्युनिस्ट सरकारों के राज में जहां खबरों पर प्रशासन का पहरा होता है, खबरों की वास्तविक तह का अंदाजा लगाने के लिये भी लोग व्यंग्यकारों को रुचि से पढ़ते हैं. पाठक संपादकीय पन्नों  पर रुचि पूर्वक पिछले दिनो हुई घटनाओं को व्यंग्यकारों के नजरिये से पढ़कर मुस्कराता है, अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप रचनाकार का इशारा समझता है, कुछ मनन भी करता है.इनके माध्यम से पाठक को बौद्धिक सामग्री मिलती है. ये व्यंग्यलेख पाठक के मानस पटल पर त्वरित रूप से गहरा प्रभाव छोड़ते हैं. और इस तरह व्यंग्यकार क्रांतिकारी भूमिका में होते हैं. तारीखों के बदलते ही अखबार अवश्य ही रद्दी में तब्दील हो जाता है पर अखबारों में प्रकाशित ऐसे व्यंग्य लेखों का साहित्यिक महत्व बना रहता है. मैने अनुभव किया है कि किंचित बदलाव के साथ घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है, और पुराने पढ़े हुये व्यंग्य पुनः सामयिक लगने लगते हैं. यह व्यंग्यकार का कौशल ही होता है कि जब वह किसी घटना का अपनी शैली में लोक व्यापीकरण कर उसे अभिव्यक्त करता है तो वह व्यंग्य, साहित्य बन जाता है. अखबार अल्पजीवी होता है, पर साहित्य का महत्व हमेशा बना रहता है. इसीलिये अखबारों में छपे ऐसे व्यंग्य लेखों के पुस्तकाकार प्रकाशन की जिम्मेदारी लेखक पर आ जाती है. इन व्यंग्य संग्रहों से कोई शोधार्थी कभी सामाजिक घटनाओं के साहित्यिक प्रभाव का पुनर्मूल्यांकन करेगा. बदलती पीढ़ीयों के पाठक जब जब इन संग्रहों के व्यंग्य लेखों के कथ्य को पढ़ेंगे, समझेंगे, उनके परिवेश तथा अनुभनुवों के साथ बदलते समय के नये बिम्ब बनाएंगे. स्मित मुस्कान, किंचित करुणा, विवशता, युग  की व्यथा, हर बार पाठक को गुदगुदायेगी, हंसायेगी, रुलायेगी, सोचने पर मजबूर करेगी.

जब मैं भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से हाल ही प्रकाशित श्री रामस्वरूप दीक्षित की कृति ” टांग खींचने की कला ” पढ़ रहा था तो मुझे स्मरण हुआ कि मिलते जुलते टाइटिल “टांग अड़ाने के मजे” का संपादन मैंने किया था. वह किताब व्यंग्यकार मित्र  राकेश सोह्म का पहला  व्यंग्य संग्रह था.  श्री रामस्वरूप दीक्षित वरिष्ठ कवि, तथा सुस्थापित व्यंग्यकार हैं. वे समकालीन व्यंग्य नामक एक वैश्विक स्तर के साहित्यिक समूह के संस्थापक भी हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने विशद साहित्यिक गोष्ठियां तथा व्यंग्य के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक चर्चायें भी की हैं. टांग खींचने का भाषाई अर्थ प्रयोग के अनुरूप व्यापक होता है, जहाँ घोड़े या टट्टू भौतिक रूप से टांग खींचने पर दुलत्ती झाड़ते हैं, वहीं मनोविज्ञान के अनुसार जो पति पत्नी बातों बातों में  एक दूसरे की प्यार भरी टांग खिंचाई करते रहते हैं, उनमें परस्पर बेहतर तालमेल होता है. लायन्स क्लब में तो टेल ट्विस्टर का एक पद ही होता है, जिसका काम ही होता है कि वह उस पदाधिकारी की खिंचाई करे जो अपना दायित्व भलिभांति न निभा रहा हो, इस तरह मैनेजमेंट के फंडे के अनुसार टांग खिंचाई से कार्य दक्षता बढ़ती है. दूसरी ओर केंकड़ों की तरह की टांगखिंचाई भी होती है, जिसमें जो दौड़ में आगे निकल रहा हो उसकी टांग खिंचाई कर उसकी प्रगति बाधित कर दी जाती है. बहरहाल मैंने मनोयोग से रामस्वरूप दीक्षित जी की यह पुस्तक टांग खींचने की कला आद्योपांत पढ़ी. और इसके सभी तीस बत्तीस व्यंग्य लेखों का निहितार्थ यही समझा कि जब एक मंजा हुआ दीक्षित जी जैसा व्यंग्यकार समाज की टांगें खींचता है तो उसका मंतव्य गिराना नहीं उठाना होता है. वह इतनी कलात्मक भाषाई शैली से विसंगतियों को पकड़ कर व्यंग्य के मृदु प्रहार से टांगे खींचता है कि जिस पर दांव चला जाता है वह तुरंत सजग हो उठ खड़ा होना चाहता है, और मुड़कर देखता है कि किसी ने उसे गिरते देखा तो नहीं. रामस्वरूप जी का पहले भी एक व्यंग्य संग्रह आ चुका है, “कढ़ाही में जाने को आतुर जलेबियां ”  जो काफी चर्चित हुआ है।

“टांग खींचने की कला ” में इस शीर्षक व्यंग्य के सिवाय लेखकीय परिवेश के कई व्यंग्य हैं जैसे साहित्य क्षेत्रे, स्तंभ लेखन के मजे, कवि का दुःख, एक व्यंग्यकार की चिट्ठी समीक्षक के नाम, सफल लेखक होने के उपाय, जे बिनु काज दाहिनेहु बांए आदि आदि. दूसरे समूह के व्यंग्य परिवार और पत्नी के इर्द गिर्द वाले हैं मसलन कैसे खुश रखें पत्नी को, नहानेवाले और न नहाने वाले, पति,  परिभाषा प्रकार और महत्व, पत्नीभ्याम नमः, जब हमने मकान ढ़ूंढ़ा वगैरह.  राजनीति और पुलिस पर व्यंग्य के बिना भी कोई किताब पूरी हो सकती है ? तीसरे समूह में इसी केटेगरी के व्यंग्य रखे जा सकते हैं पुलिस सम्मान, मंत्री जी के जूते, पटवारी की कलम, अथ विभूति वर्णन, इत्यादि. संग्रह के सारे व्यंग्यों की खासियत है कि वे अपेक्षाकृत दीर्घ जीवी विषयों पर हैं. किताब में हर उम्र, प्रत्येक अभिरुचि के पाठकों के लिये मसाला है. पुस्तक ज्ञानपीठ से प्रकाशित है स्पष्टतः त्रुटिहीन मुद्रण तथा स्तरीय प्रस्तुति है. पति,  परिभाषा प्रकार और महत्व व्यंग्य की रचनाशैली नवीनता लिये हुये है. जिसमें उपशीर्षकों के माध्यम से मजेदार व्याख्या है. उदाहरण स्वरूप पतियों के प्रकार बताते हुये उपशीर्षक है… हालावादी पति.. जो पति दिन भर काम के बाद रात को नशे में चूर होकर घर लौटते हैं और पत्नी के आपत्ति करने पर अश्लील सुभाषित उच्चारित करने लगते हैं, उन्हें दीक्षित जी हालावादी पति की श्रेणि में रखते हैं. यूं हालावादियों की एक उप श्रेणि और लिखी जानी चाहिये थी, जिसमें वे नवधनाड्य पति भी हो सकते हैं जो पत्नी के साथ जाम टकराते हुये ही हाला सेवन करते हैं. अस्तु  रचनायें उम्दा हैं. गहरे कटाक्षों से किताब भरी पड़ी हैं उदाहरण के लिये ” कुछ तो अफसर होने साथ मनुष्य भी होते हैं “, ” कैसे मुसीबत के दिनों में कविता (स्त्री का नाम नहीं )ने आपको समय से जूझने की ताकत दी, या ” विक्रमादित्य को चुप देख बेताल ने फिर कहा बोल विक्रम जबाब दे नहीं तो तेरा सिर फट जायेगा, विक्रमादित्य के मुंह से निकल गया नहीं, और बेताल फिर पेड़ पर जा लटका “… बेताल कथा को अनेकानेक व्यंग्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का अवलंबन बनाया है,मैंने कई  ऐसे व्यंग्य पढ़े हैं,  किन्तु दीक्षीत जी का मंहगाई की बेताल कथा को निभा ले जाना डिफरेंट लगा. बहरहाल सर्वथा पठनीय संग्रह के लिये दीक्षित जी बधाई के सुपात्र हैं, उनके आने वाले संग्रहों की प्रतीक्षा रहेगी.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की प्रथम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पराए देश अमेरिका जिसको बोलचाल की भाषा में यू एस कहा जाने लगा है,के तीसरे बड़े शहर शिकागो पहुंचे तो विमानतल पर बाहर जाने वालों की करीब एक मील की लंबी कतार थी।                

हमें मुम्बई के लाल बाग के राजा” गणपति” दर्शन की याद आ गई। वहां भी भीड़ नियंत्रण करने के लिया जिकजैक करके थोड़े स्थान में भीड़ की व्यवस्था बनाई जाती हैं। यहां प्रतिदिन दो हज़ार पांच सौ से अधिक विमानों का आगमन /प्रस्थान होता हैं।

इमिग्रेशन के लिए ढेर सारे केबिन हैं, इसलिए अधिक समय नहीं लगा। फोटू खींच और कुछ प्रश्न पूछ कर अपना सामान समेट कर सकुशल बाहर आ गए। विमानतल पर अपना सामान खोजना भी थोड़ा कठिन होता है।  श्रीमतीजी ने सभी सूटकेस पर लाल रंग के रिब्बन बांध दिए थे, परंतु बहुत सारे अन्य सूटकेस पर भी लाल रंग के रिब्बन थे।स्कूल के दिनों में रिब्बन के रंग से पहचान हो जाती की लड़कियां किस स्कूल की हैं।

सुना है, कभी कभी वीज़ा होते हुए भी अमेरिका में विमानतल से ही यात्री को उसके देश की रवानगी कर दी जाती हैं।

बचपन में जब उजूल फिजूल बातें करते थे, तो घर के बुजुर्ग कहा करते थे, इसको शिकागो भेज दो, इसका दिमाग़ ठीक नहीं हैं। यहां का पागल खाना प्रसिद्ध था, जैसा हमारे देश में आगरा शहर का है।

जब बड़े हुए और  विवेकानंद जी के बारे में जाना तो पता चला था, उनका धर्म संसद में दिया गया ऐतिहासिक भाषण भी शिकागो में ही दिया गया था। आने वाले दिनों में यहां की और जानकारियां उपलब्ध करवाने का प्रयास करेंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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