(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
☆ संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆
दीपावली, भारतीय लोकजीवन का सबसे बड़ा त्योहार है। कार्तिक मास की अमावस्या को सम्पन्न होने वाले इस पर्व में घर-घर दीप जलाये जाते हैं। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,
असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय…!
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ से भौतिक संसार में प्रकाश का विस्तार भी अभिप्रेत है। हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।
इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है, जिसे विनम्रता से साझा कर रहा हूँ,
अँधेरा मुझे डराता रहा, हर अँधेरे के विरुद्ध एक दीप मैं जलाता रहा, उजास की मेरी मुहिम शनै:-शनै: रंग लाई, अनगिन दीयों से रात झिलमिलाई, सिर पर पैर रख अँधेरा पलायन कर गया और इस अमावस मैंने दीपावली मनाई !
कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। सामूहिक प्रयासों की बात करना सरल है पर वैदिक संस्कृति यथार्थ में व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है। यह संस्कृति ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है।
प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाई थी। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। स्वाभाविक है कि सामूहिक दीपोत्सव का रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही है। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।
तथापि सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि वर्तमान में चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।
उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें करना ही होगा। अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप हमें प्रज्ज्वलित करना ही होगा। जिस दिन एक भी दीपक इस सुविधानुसार विस्मरण के अंधेरे के आगे सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
Anonymous Litterateur of Social Media # 114 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 114)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका~ जरा रुक-डट…)
☆ आलेख – पश्चाताप ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
ताप शब्द गर्मी का प्रतीक है,यह जब उग्र अवस्था में होता है तो सब कुछ जला कर खाक कर देता है, यह अपने पराए का भेद भाव नहीं करता, इसका स्वभाव ही ज्वलनशील है, इसके चपेटे में आने वाली हर वस्तु का जल कर नष्ट होना तय है, वहीं पश्चाताप की अग्नि आप के हृदय को शुद्ध कर देती है , यह मानव पश्चाताप की अग्नि में तब जलता है,जब मानव को अपने कर्मों का यथार्थ बोध हो जाता है, और उसे अपने गलत कर्मो का आभास होता है, पश्चाताप की अग्नि व्यक्ति के हृदय को निर्मल बना देती है, तथा आत्मचिंतन का मार्ग प्रशस्त कर देती है, पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ हृदय, व्यक्ति को सन्मार्ग पर ले जाता है,वह आत्मनिरीक्षण कर के गलत मार्ग छोड़ सही रास्ता अपना लेता है।
यही तो हुआ डाकू रत्नाकर के साथ जब उसे अपने कर्मों के यथार्थ का ज्ञान हुआ तो उनका हृदय पश्चाताप की अग्नि में जल उठा ,उन्हें बड़ा दुख और क्षोभ हुआ अपने दुष्कर्मों तथा अपने दुर्भाग्य पर और पश्चाताप की अग्नि में खुद को तिल तिल जला कर तपश्चर्या के मार्ग को अपनाया, सारे दुष्कर्म पश्चाताप की अग्नि में होम कर दिया, तब कहीं उनके अज्ञान का अंधकार दूर हुआ,ज्यों ही ज्ञान की प्राप्ति हुई ,बन बैठे महर्षि वाल्मीकि और माता सीता के आश्रय दाता की भूमिका ही नहीं निभाई, बल्कि भगवान राम के अंशजों के गुरु की भूमिका का भी निर्वहन किया। और गुरुपद धारण किया, आप खोजेंगे तो और भी बहुत सारे पौराणिक उदाहरण मिल जाएंगे।
पश्चाताप की आग में जलते हुए इंसान को अपने कर्मों पर खेद होता है, अपने भीतर के सवेदन हीन पाषाण हृदय का परित्याग कर , संवेदनशील हृदय का स्वामी बन जाता है तभी तो महर्षि वाल्मीकि संस्कृत साहित्य के प्रथम कवि बन जाते हैं,और क्रौच पक्षी के कामातुर जोड़े के बिछोह की पीड़ा की अनुभूति की अभिव्यक्ति कर पाते हैं, और काव्य रचना कर देते हैं, लिखते है-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।
इस प्रकार बाल्मिकी जी उस बहेलिये को शाप दे देते हैं। क्यों कि कवि हृदय संवेदनशील होता है ,और उसी में यह क्षमता विद्यमान होती है
जो परिस्थितिजन्य पीड़ा दुख दर्द, सुख के क्षणों का एहसास आक्रोश आदि के भावों का हृदय से अनुभूति करने में सक्षम होता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पश्चाताप की अग्नि नये व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायक होती है। और समाज के लिए उपयोगी व्यक्तित्व पैदा करती है,ऐसा तब होता है जब व्यक्ति पश्ताचाप की आंच में तपता है।
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अक्सर देखा है राह में …”।)
ग़ज़ल # 48 – “अक्सर देखा है राह में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण गजल ।।आँखें।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 39 ☆
☆ गजल ☆ ।। आँखें ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता – ’’मां लक्ष्मी…” …”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #104 ☆ ’’मां लक्ष्मी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 155 ☆
☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆
बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नयी शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’…में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़…जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है अर्थात् वह भी सही है… तो सारे विवाद, संवाद में बदल जाते हैं और सभी समस्याओं का समाधान स्वयंमेव निकल आता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?
मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट’ का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं और ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रुतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन ना जाइ’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्त्तव्य व दायित्व है। सो! वहाँ यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के लिए जीने की वजह बन जाते। हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता और महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं स्वत: समूल नष्ट हो जातीं।
आइए! हम इसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें कि ‘हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, बल्कि स्वयं पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि उम्मीद हमेशा टूटती है’ में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता, परेशानी व तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, क्योंकि उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। उस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए; सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।
अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पाँव पसारती बलवती इच्छाओं-आकांक्षाओं पर अंकुश लगाइए। इस सिक्के के दो पहलू हैं..प्रथम है– इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है–दूसरों से अपेक्षा न रखना। यदि हम प्रथम अर्थात् इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वयंमेव हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’
विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा ख़ुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।
‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष, फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में, मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन, अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर प्रयास व अभ्यास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह चिंतनीय है, मननीय है, विचारणीय है।
जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे। उस स्थिति में तो बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियाँ में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात्, मुसाफिर की भांति संसार- रूपी सराय में विश्राम करेंगे; चंद दिन ठहरेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का समयानुसार आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर; उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन…हमें सृष्टि- नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि उसकी महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।
अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को आगामी पीढ़ी को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा स्वयं बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं, एक दिन वही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख अपना सहारा ख़ुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थककर न बैठें और न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की– यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। उस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, कटुता, तनाव, अलगाव व अवसाद का शमन हो जायेगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे…दीपक ”।)