(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 21 – बाज़ार व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में भले ही विगत दो दशक से बड़े-बड़े मॉल अपने जाल में जन साधारण को फँसाने के प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इनकी सफलता का पैमाना अभी भी बहुत पीछे चल रहा है। एक दशक से ऑनलाइन के बड़े खिलाड़ी भी अभी आरंभिक अवस्था में ही झूल रहे हैं।
हमारी प्राचीन दुकान/फुटकर प्रणाली की जड़े बहुत गहरी हैं। उनमें कमियां ज़रूर हैं, परंतु परिवर्तन के साथ मूलभूत प्रणाली ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
यहाँ विदेश में सड़कों/गलियों में छोटी दुकानें या ठेले पर विक्रय करने के स्थान पर खुले स्थानों पर तीस/चालीस बड़े-बड़े और खुले स्थान में व्यवस्थित ढंग से बने हुए शोरूम के बाज़ार होते हैं। कम से कम सैकड़ों या हज़ार से भी अधिक कार पार्किंग का स्थान उपलब्ध होता है।
हर सामान बिल से विक्रय होता है, सबके भाव तय रहते हैं। हमारे देश में तो आधा जीवन मोल भाव में ही व्यर्थ हो जाता है। अंत में हमेशा ऐसा महसूस होता है कि अभी भी महंगा क्रय कर लिया है। क्रेता और विक्रेता हमेशा दोनों एक दूसरे से ऊपर रहने के अनवरत प्रयास करते रहते हैं। गृहणियां सब्ज़ी वाले से मुफ्त धनिया प्राप्त करके प्रसन्नता महसूस करती हैं।
यहाँ बाज़ार से क्रय किए हुए समान को उस दुकान की किसी भी अन्य शाखा में वापस कर राशि प्राप्त हो जाती है।
ऐसी जानकारी भी मिली है, कि कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे देश के प्रवासी अपने यहाँ आए हुए मेहमानों को बाज़ार से लाकर ठंड से बचने के जैकेट इत्यादि को कुछ माह उपयोग में लाकर मेहमान के जानें के पश्चात दुकानदार को वापस कर देते थे। अब यहाँ एक/ दो सप्ताह में ही सामान वापस किया जा सकता है। लंबे समय से रह रहे प्रवासी इस बाबत ऐसी आदतों से गुरेज़ करते हैं। किसी भी व्यवस्था का गलत लाभ लेना हमेशा अनुचित रहता है। यहाँ के निवासी छोटे लाभ का लालच कभी भी नहीं करते है। नियम का पालन करना यहाँ के निवासियों की रगो में है।
इन सब मूलभूत बातों से ही तो यहाँ का जीवन सरल और सुगम बना रहता है।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत – आज नहीं…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 125 – गीत – आज नहीं…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी – “॥ गजल ॥”)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी सोशल मीडिया की आभासी दुनिया पर आधारित व्यंग्य – “टैगिंग की दुनिया…”।)
☆ व्यंग्य # 174 ☆ “टैगिंग की दुनिया…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
पिछले दिनों हमने एक व्यंग्य “ब” से बसंत, बजट और बीमा लिखा। अधिक से अधिक लोग पढ़ें इसलिए टेग करने का तरीका सीखा। अभासी दुनिया के देखने में सुंदर, संस्कारवान, समझदार एक ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी को यह सोचकर टेग कर दिया कि वे व्यंग्य पढ़कर हमें व्यंग्य के बारे में कुछ सीख देंगे कुछ कमियां दूर करने के लिए मार्गदर्शन देंगे उनसे हमें कुछ सीखने मिलेगा चूंकि वे स्वयं व्यंग्य लिखते हैं और व्यंग्य की अच्छी समझ रखते हैं।
उन्होंने अपने कमेंट में टेग न करने की हिदायत दी हमने भी उनसे माफी मांग ली। बात आयी और गई पर उसके आगे के कमेंट को पढ़कर हम दंग रह गए कि एक और आभासी दुनिया के छत्तीसगढ़ी मित्र जी ने टेग करते रहने का खुला आफर दे डाला। खुशी हुई। हालांकि टेग करने की आदत बुरी हो सकती है पर आशा से आसमान टिका है कुछ सीखने के उद्देश्य से टेग करने की मृगतृष्णा जागती है इसी उद्देश्य से हमने ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी को विश्वास के साथ टेग किया था। इस बाबद एक व्यंग्यकार ने सलाह दे डाली उन्होंने अपने कमेंट में लिखा, गुरु बनाने के लिए यदि आप किसी को टेग करते हैं तो उनसे पहले अनुमति ले लें।
जब तक हमारे ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार जी का नया कमेंट आ गया – नये व्यंग्यकार जी एक गुजारिश है कृपया बिना पूछे टेंग न करें।
हमने अपने कमेंट में लिखा – माफ करियेगा अब कभी भी टैग नहीं करेंगे चाहे आप कितने भी बड़े व्यंग्यकार बन जाएं, और लगे हाथ उन्हें धन्यवाद भी दे दिया। हमारे विनम्रता भरे कमेंट को पढ़कर दिल्ली के बहुचर्चित व्यंग्यकार ने लिखा – कृपया मुझे टैग किया करे सर…मेरा व्यक्तित्व सामाजिक रूप से इतना कठोर माना जाता है कि मैं खुद भी हतप्रभ हूँ कि ऐसा क्यों माना जाता रहा है… वैसे भी मैं थोड़ा बहुत समाजवादी / मार्क्सवादी हमेशा से रहा हूँ… अब निज़ी बौद्धिकता का वास्तविक जीवन में यथार्थ तो पाखंड से भरा हुआ रहता है… कम से कम अपने जीवन में तो मैं ऐसा मानता ही हूँ… तो मैं चाहता हूँ कि समाजवादी / समतावादी और एक समानांतर दुनिया में साझेपन के साथ होने की निजी और सामूहिक कुंठा को संवाद के इस तकनीकी माध्यम में टैग के द्वारा ही पूरा कर सकूं। एक और भी कारण है कि आपको मुझे टैग करना चाहिए कि, मुझे लोगों की तस्वीरें, उनके जीवन के उत्सव के रंग… उनकी मामूली बातें… उनका खिलंदड़पन… उनकी उदासी…सब कुछ मेरे महानतम संवेदन से बार-बार रूबरू होने के लिए विवश कर देती हैं… मैं दूसरे ढंग से मुक्तिबोध को महसूस कर पाता हूँ कि हर पत्थर में आत्मा अधीरा है, हर आत्मा में महाकाव्य पीड़ा है… कुछ इसी तरह है शायद…
तो आप मुझे कृ पया टैग करें.. वैसे मैं नितांत दुकानदार किस्म का आदमी हूँ…मेरा पेशा ही दुकानदारी है… फिर भी मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि मैं आपके व्यक्तित्व का अपनी किसी भी किस्म की दुकानदारी के लिए उपयोग नही करूँगा…
हमेशा टैग किये जाने की उम्मीद के साथ……
एक दूसरे जले कटे व्यंग्यकार ने जैसे ही ऊपर वाला कमेंट पढ़ा, उन्होंने तुरंत लिख मारा-
खुले दिल का मालिक और उदार सोच का धनी मैं फलां अधपका व्यंग्यकार दिल से आपको सलाम करता हूं, आप हमें भी बेहिचक अपनी पोस्ट पे टैग किया कीजिये इससे लाभ हमें ही ये होगा कि हम खुद को टैग की पोस्टस् पर जल्दी नजर पड़ जाती है, रही बात ऐसी पोस्टस् को मिले भारी लाईक कमेंट के नोटिफिकेशन पे हमारी वॉल पर बजने से होती तथाकथित असुविधा (जमाने की नजर में) तो हमारे लिये खुशी और उत्सुकता का सबब होती है क्यूंकि उस हिट होती जा रही रचना से हमें भी अपनी कलम को निखारने के मंत्र मिलते रहते हैं और तो और पोस्ट के कमेंटस् में के रूप में हमें कई और अनजान कलमकारों की बेहतरीन कलम के नमूने भी पढ़ने को मिल जाते हैं।
लगातार आ रहे कमेंट्स को पढ़ते-पढ़ते हम थक गये थे, तब तक एक नया कमेंट प्रगट हुआ
‘अगली बार से हमें आपने टैग किया तो हम आक्षपके ऊपर कानूनी कार्यवाही करेंगे।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मुक्ति… #”)
☆ विचार–पुष्प – भाग – ५६ – आपलेच झाले परके ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
अमेरिकेत मत्सराचा अग्नी कसा भडकला होता ते आपण पाहिले. जे लोक जागतिक स्तरावर सर्व धर्म भेद ओलांडण्याचा विचार मांडत होते ते यात सहभागी होते हे दुर्दैवच म्हणायचे. भारतात सुद्धा त्याची री…ओढत हिंदू धर्म कसा संकुचित व बुरसटलेला आहे, हे ओरडून सांगितले जात होते. पण स्वामी विवेकानंद मात्र हिंदू धर्मातील प्राचीन ऋषींचे उदात्त विचार परदेशात समजावून देत होते. त्यात कुठल्या धर्माची सीमा आडवी येत नव्हती. वा देशाची नाही. हिंदू धर्माचं हे वैशिष्ट्य आज पण आपण माहिती करून घेणं आवश्यक आहे.
भारतात प्रसिद्ध झालेले विवेकानंद यांच्या विरोधातले लेख अमेरिकेत पुन्हा प्रसिद्ध केले जात. हे लेख तिथल्या ‘लॉरेन्स अमेरिकन’, ‘आऊटलुक’ आणि ‘डेट्रॉईट फ्री प्रेस’ मध्ये छापून आल्याने सगळ्या लोकांना वाचायला मिळत असत. या विषारी प्रचारामुळे लोक दुरावत चालले होते. परिषदेवेळी मित्र झालेले डॉ.बॅरोज बोलेनसे झाले. एव्हढा सतत प्रचार वाचून प्रा. राईट सुद्धा थोडे साशंक झाले. हे बघून विवेकानंद अस्वस्थ झाले. होणारच ना. कलकत्त्यात इंडियन मिरर या वृत्तपत्रात याचा प्रतिवाद होत असायचा. यात विवेकानंद यांच्या कार्याचे वर्णन, परिषदेची माहिती, चर्चा, त्यांनी मिळवलेले यश हे सर्व छापून येत होतं. माध्यमे कसं जनमत घडवतात याचं हे उत्तम ऊदाहरण आहे. म्हटलं तर चांगल्या कामासाठी माध्यमांचा खूप चांगला उपयोग आहे पण वाईट कामांना किंवा विघातक कामाला प्रसिद्धी देऊन खतपाणी घालणे हे समाजाला अत्यंत घातक आहे. पण भारतात. जगातल्या प्रसिद्धी माध्यमांची ओळख भारतीय लोकांना नव्हती. त्यामुळे इथे आलेली वृत्त अमेरिकेतल्या लोकांनाही अधिकृतरीत्या कळावित असे कोणाच्या लक्षात आले नाही. कलकत्त्यात ‘इंडियन मिरर’ मध्ये १० एप्रिल १८९४ या दिवशीच्या अग्रलेखात विरोधकांच्या टीकेला सडेतोड उत्तर दिले होते.ते असे होते, “अमेरिकेला जाऊन हिंदू धर्माचा एक प्रवक्ता म्हणून विवेकानंदांनी जे नेत्रदीपक यश मिळवले आहे, त्याबद्दल त्यांना एक सन्मानपत्र लिहून आपली कृतज्ञता व्यक्त करणे हे हिंदू समाजाचे कर्तव्य आहे. ज्यांनी सर्वधर्म परिषदेचे आयोजन केले त्या अमेरिकन लोकांचेही आपण कृतज्ञ असावयास हवे. कारण त्यांनी त्या परिषदेच्या निमित्ताने विवेकानंदांना व्यासपीठ उपलब्ध करून दिले, त्यामुळे, त्यांना आपले पुढील कार्य करण्यासाठी पाया भरता आला”. विवेकानंद यांना जे अपेक्षित होते तेचं यात म्हटले होते, पण हा मजकूर त्यांच्या हातात नव्हता. तसाच मधेच बोस्टन मध्ये भारतातील आलेला मजकूर छापला होता ते कात्रण मिसेस बॅगले यांनी विवेकानंद यांना पाठवले. त्याबरोबर बोटभर चिठ्ठी सुद्धा नव्हती यावरून त्यांची गंभीरता लक्षात आली. उत्तम परीचय झालेली ही मोठ्या मनाची लोकं, त्या क्षणी अशी वागली याचे स्वामीजींना किती दु:ख झाले असेल.
आता हे सारं त्यांना असह्य होत होतं. शेवटी त्यांनी एक मार्ग निवडला आणि त्याबद्दल मद्रासला आलसिंगा आणि कलकत्त्याला गुरुबंधूंना पत्र पाठवले. त्यात लिहिले होते, मद्रास व कलकत्त्यात दोन सार्वजनिक सभा घ्याव्यात, त्यात नामवंतांचा सहभाग असावा. त्यांनी विवेकानंद यांच्या कार्याची पावती देणारी प्रतींनिधिक भाषणे व्हावीत, अभिनंदन करणारा ठराव संमत करावा, आणि अमेरिकेतील लोकांना धन्यवाद देणारा दूसरा ठराव असावा. या सभांचे वृत्त भारतीय वृत्त पत्रात प्रसिद्ध व्हावे. आणि त्यांच्या प्रती इथे अमेरिकेत डॉ बॅरोज आणि प्रमुख वृत्तपत्रांचे संपादक यांना पाठवावीत अशी विनंतीपर पत्र पाठवली.
स्वत:ची प्रसिद्धी हा भाग यात नव्हता. पण हिंदू धर्माचा प्रतिनिधी म्हणून जी लोकं त्यांच्या बरोबर आदराने उभी होती, मदत करत होती त्यांच्या मनातून संदेह निर्माण झाला तर केलेल्या कामावर पाणी चं फिरणार ही भीती होती. कारण हिंदू धर्माची ध्वजा एका चारित्र्यहीन माणसाने हातात घेतली आहे असे चित्र तिथे रंगविले जात होते. हा ध्वजाचा अपमान होता. मिशनर्यांचा काही भरवसा राहिला नव्हता. काय करतील ते सांगता येत नाही अशी परिस्थिति उद्भवली होती.
डेट्रॉईट मध्ये आयोजित एका भोजन समारंभात घडलेला प्रसंग यावेळी विवेकानंद यांनी कॉफीचा पेला उचलला तर त्यांना आपल्या शेजारी एकदम श्रीरामकृष्ण उभे असल्याचे दिसले, ते म्हणत होते, “ ती कॉफी घेऊ नकोस, त्यात विष आहे. विवेकानंदांनी एक शब्दही न बोलता तो कॉफीचा पेला खाली ठेवला. अशी आठवण गुरुबंधुनी सांगितली आहे. यावरून केव्हढी गंभीर परिस्थिति तिथे झाली होती याची कल्पना येते. एका सर्वसंग परित्यागी संन्याशाला स्वत:च्या अभिनंदनाचे ठराव करून अमेरिकेत पाठवावेत असे स्वत:च लिहावे लागले होते. यामुळे त्यांच्या मनाची काय अवस्था व किती घालमेल झाली असेल ?
त्यांनी जुनागड चे दिवाण साहेब, खेतडी चे राजे, यांनाही पत्र लिहिली. मेरी हेल यांनाही पत्र लिहून आपल मन मोकळं केलं. सर्वधर्म परिषदेचं महाद्वार ज्यांनी आपल्यासाठी उघडलं होतं त्या प्रा. राईट यांच्या मनात तरी आपल्याबद्दल संशयाची सुई राहू नये असे विवेकानंद यांना वाटत होते. ती दूर करणं आपलं नैतिक कर्तव्य आहे असेही त्यांना वाटले म्हणून त्यांनी तसे पत्र राईट यांनाही लिहिले. ते लिहितात, “ मी धर्माचा प्रचारक कधीही नव्हतो, आणि होऊ ही शकणार नाही. माझी जागा हिमालयात आहे, माझ्या मनाला एक समाधान आहे की, माझ्या सद्सद्विवेक बुद्धीला स्मरून मी परमेश्वराला म्हणू शकतो की, हे भगवन, माझ्या बांधवांची भयानक दैन्यवस्था मी पहिली, ती दूर करण्यासाठी मी मार्ग शोधला, तो प्रत्यक्षात उतरविण्यासाठी मी पराकाष्ठेचा प्रयत्न केला. पण माला यश आले नाही. तेंव्हा तुझी इच्छा असेल तसे होवो”. तर मिसेस हेल यांना विवेकानंद लिहितात. “या सार्वजनिक जीवनाला आपण कंटाळून गेलो आहोत. माताजी तुमच्या सहानुभूतीचा मला लाभ होईल? शेकडो बंधनांच्या ओझ्याखाली माझे हृदय आक्रंदत आहे”.
दरम्यान विवेकानंद यांच्या हातात जुनागड चे हरिभाई देसाई आणि खेतडीचे अजित सिंग यांची पत्रे आली. लगेच ती प्रा. राईट यांना पाठवली.
अगदी एकाकी पडले होते ते. महिनाखेरीस विवेकानंद हेल यांच्या कडे आले. या सर्व घटनांनी ते अतिशय थकून गेले होते. शरीराने नाही तर मनाने.याचवेळी हेल यांना एक अनामिक पत्र आले की, विवेकानंद यांना तुमच्या घरी ठेऊन घेऊ नका म्हणून, हा एक खोटा आणि चारित्र्यहीन माणूस आहे. हेल यांनी हे पत्र घेतले आणि फाडून, तुकडे करून पेटत्या शेगडीत टाकले.
प्रतापचंद्र यांची मजल तर श्री रामकृष्ण यांच्यावरही प्रतिकूल शब्दात टीका करण्याचे सोडले नव्हते. वास्तविक त्यांनी नरेंद्रला या आधी पहिले होते रामकृष्ण यांच्यावर तर श्रेष्ठत्व सांगणारा सुंदर लेख लिहिला होता. एकदा संध्याकाळी मेळाव्यात प्रतापचंद्र बोलत असताना श्रीराम कृष्ण आणि विवेकानंद यांच्याबद्दल निंदा करणारे काही बोलले.
हे दीड दोन महीने जणू काळ रात्रच होती स्वामीजींसाठी. पण ती आता संपत आली होती. नवा सूर्य उगवणार होता आणि मनातल्या व्यथा नाहीशा होऊन क्षितिजावर प्रसन्नता प्रकाशमान होणार होती.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी ‘पापा का बर्डे’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 179 ☆
☆ कथा – कहानी ☆ पापा का बर्डे ☆
गोपू की आँख सवेरे ही खुल गयी। पापा और बड़ा भाई अनिल अभी सो रहे थे। मम्मी उठ गयी थीं। आधी आँखें खोल कर थोड़ी देर इधर उधर देखने के बाद उसने उँगलियों पर कुछ हिसाब लगाना और धीरे-धीरे कुछ बोलना शुरू कर दिया। उसकी आवाज़ सुनकर बगल में दूसरे पलंग पर सोये नीरज ने आँखें खोल कर उसे देखा, बोला, ‘चुप रह। सोने दे।’
वह सोने के लिए सिर पर चादर खींचने लगा, लेकिन गोपू ने उसकी चादर अपनी तरफ खींच ली। बोला, ‘पापा उठो, सवेरा हो गया।’
नीरज ने झूठे गुस्से से उसकी तरफ देखा। गोपू उसके अभिनय पर हँस कर बोला, ‘पापा, आज कौन सी डेट है?’
नीरज बोला, ‘ट्वंटी-फस्ट।’
गोपू बोला, ‘ट्वंटी-फिफ्थ को कितने दिन बचे?’
नीरज बोला, ‘चार दिन। मैं जानता हूँ तू क्यों पूछ रहा है। शैतान।’
गोपू ताली बजाकर बोला, ‘अब आपके बर्डे को चार दिन बचे।’
नीरज उठते उठते बोला, ‘चाट गया लड़का। जब देखो तब पापा का बर्डे। इस लड़के को पता नहीं कितना याद रहता है।’
गोपू छत की तरफ देख कर बोला, ‘हम ट्वंटी-फिफ्थ को पापा का बर्डे मनाएंगे।’
आठ दस दिन से गोपू का यही रिकॉर्ड बज रहा है। हर एक-दो दिन में याद कर लेता है कि पापा के बर्डे के कितने दिन बचे हैं। उसे किसी ने बताया भी नहीं। अपने आप ही उसे पापा का बर्डे याद आ गया। पाँच साल का है, लेकिन उसकी याददाश्त ज़बरदस्त है। अपने सब दोस्तों के बर्थडे उसे कंठस्थ हैं।
आज इतवार है, स्कूल की छुट्टी है। इसलिए गोपू को आराम से अपनी योजनाएँ बनाने का मौका मिल रहा है। मम्मी से कहता है, ‘हम पापा के लिए कार्ड बनाएँगे। मम्मी, मैं नीरू दीदी के घर जाऊँगा। वे खूब अच्छा कार्ड बनाती हैं।’
दिव्या उसकी बात सुनकर कहती है, ‘हाँ, चले जाना। पापा के बर्थडे की सबसे ज्यादा फिक्र तुझे ही है।’
गोपू पूछता है, ‘मम्मी, केक मँगाओगी?’
दिव्या कहती है, ‘केक बच्चों के बर्थडे में कटता है। बड़ों के बर्थडे में ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ कौन गायेगा?’
गोपू मुट्ठी उठा कर कहता है, ‘मैं गाऊँगा। आप केक तो मँगाना। केक के बिना मजा नहीं आएगा।’
उसकी भोली बातें सुनकर नीरज की समझ में नहीं आता कि वह क्या करे। बच्चों को समझाया भी नहीं जा सकता। चार-पाँच दिन से उसका मन किसी भी काम में नहीं लगता। पाँच दिन पहले उसकी कंपनी ने उससे इस्तीफा ले लिया है। पाँच दिन से वह सड़क पर है। बारह साल की नौकरी पाँच मिनट में खत्म हो गयी। कंपनी अपने निर्णय का कारण बताना ज़रूरी नहीं समझती। गुपचुप कर्मचारियों की सेवाओं की नापतौल होती रहती है, और फिर किसी भी दिन बुलाकर इस्तीफा ले लिया जाता है। इस वजह से कर्मचारी सब दिन सूली पर लटके रहते हैं। इस्तीफा एक कर्मचारी से लिया जाता है, लेकिन चेहरे सबके सफेद पड़ जाते हैं।
अब नीरज के सामने गृहस्थी और बच्चों के भविष्य की चिन्ता है। नौकरी आसानी से मिलती कहाँ है? अब असुरक्षा-बोध और बढ़ गया है। जब बारह साल पुरानी नौकरी नहीं टिकी, तब नयी नौकरी की क्या गारंटी? अब तो हमेशा यही लगेगा जैसे सर पर तलवार लटकी है। उसे सोच कर आश्चर्य होता है कि अधिकारियों के चेहरे एक मिनट में कैसे बदल जाते हैं।
दिव्या को बहुत चिन्ता होती है क्योंकि नौकरी छूटने के बाद से नीरज ज़्यादातर वक्त कमरे में गुमसुम बैठा या लेटा रहता है। लाइट जलाने के लिए मना कर देता है। नौकरी खत्म होने से समाज में आदमी का स्टेटस खत्म हो जाता है। परिचितों की आँखों में सन्देह और अविश्वास तैरने लगता है। जल्दी ही न सँभले तो बाज़ार में साख खत्म हो जाती है। इसीलिए नीरज चोरों की तरह पाँच दिन से घर में बन्द रहता है। किसी का हँसना- बोलना उसे अच्छा नहीं लगता। बच्चों पर भी खीझता रहता है। उसकी मनःस्थिति समझ कर दिव्या का चैन भी हराम है।
लेकिन गोपू को इन सब बातों से क्या लेना देना? उसे तो पापा का बर्डे मनाना है। खूब मस्ती होगी। खाना-पीना होगा।
अगले दिन मम्मी से कहता है, ‘मम्मी, नीरू दीदी के यहाँ कब चलोगी? फिर कार्ड कब बनेगा?’
दिव्या का मन कहीं जाने का नहीं होता। उसे लगता है लोग नीरज की नौकरी को लेकर सवाल पूछेंगे। अब शायद लोग उससे पहले जैसे लिहाज से बात न करें। उसने तो किसी को नहीं बताया, लेकिन बात फैलते कितनी देर लगती है! नीरज के कंपनी के साथी तो इधर-उधर चर्चा करेंगे ही।
गोपू ने मम्मी को अनिच्छुक देखकर भाई अनिल को पकड़ा। ‘चलो भैया, नीरू दीदी के घर चलें। पापा का बर्डे-कार्ड बनवाना है। मम्मी नहीं जातीं।’
अनिल को खींच कर ले गया। बड़ी देर बाद लौटा तो खूब खुश था। बोला, ‘नीरू दीदी ने कहा है कल या परसों दे देंगीं। खूब अच्छा बनाएँगीं।’
फिर उसने माँ से पूछा, ‘मम्मी, आप पापा को क्या गिफ्ट देंगीं?’
दिव्या बुझे मन से बोली, ‘मैं क्या गिफ्ट दूँगी! कुछ सोचा नहीं है।’
गोपू बोला, ‘मैं पापा के लिए एक पेन खरीदूँगा। बटन दबाने से उसमें लाइट जलती है। आप मुझे गिफ्ट खरीदने के लिए पैसे देना।’
दिव्या ने कहा, ‘तुझे गिफ्ट देना है तो पैसे मुझसे क्यों माँगता है?’
गोपू मुँह फुलाकर बोला, ‘ठीक है, मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए। मैं अपनी गुल्लक के पैसों से खरीदूँगा।’
दिव्या ने हार कर कहा, ‘बड़ा आया गुल्लक वाला! ठीक है, मैं पैसे दे दूँगी।’
चौबीस तारीख की शाम को गोपू ने भाई के साथ जाकर पापा के लिए गिफ्ट खरीदी, फिर कार्ड लाने के लिए नीरू दीदी के घर गया। नीरू दीदी के घर से लौटा तो उसके हाथ में एक पॉलीथिन का बैग था। बैग को पीठ के पीछे पकड़े घर में घुसा। ज़ाहिर था बैग में पापा का बर्थडे-कार्ड था, लेकिन अभी किसी को देखने की इजाज़त नहीं थी। बोला, ‘अभी कोई नईं देखना। कल पापा को दूँगा, तभी सब को दिखाऊँगा।’
गोपू ने पॉलिथीन बैग को बड़ी गोपनीयता से अपने स्कूल-बैग में छिपा दिया। उसमें यह समझ पाने की चालाकी नहीं थी कि स्कूल-बैग में ताला नहीं था और उसके सो जाने पर कार्ड की गोपनीयता भंग हो सकती थी।
उसके सो जाने पर अनिल ने उसके बैग से कार्ड निकाल लिया। नीरू ने खूब अच्छा कार्ड बनाया था। सामने फूलों के बीच में ‘हैप्पी बर्थडे, डियर पापा’ लिखा था। भीतर पापा का बढ़िया कार्टून था। नीरू अच्छी कलाकार है। कार्टून के नीचे लिखा था ‘पापा,ऑफ ऑल द पापाज़ इन द वर्ल्ड, यू आर द बैस्ट। आई लव यू वेरी मच।’ नीचे लिखा था ‘गोपू’, और उसके नीचे गोपू का कार्टून था।
दूसरे दिन सुबह नींद खुलने पर गोपू ने आँखें मिचमिचाकर पापा को देखा, फिर बोला, ‘हैप्पी बर्डे पापा।’ सुनकर नीरज का दिल भर आया। इस बेरोज़गारी के सनीचर को भी अभी लगना था!
फिर उठकर लटपटाते कदमों से गोपू अपने स्कूल-बैग तक गया, उसमें से कार्ड और पेन निकालकर पापा को दे कर अपनी लाख टके की मुस्कान फेंकी।
अनिल उसे चिढ़ाने के लिए पीछे से बोला, ‘ऑफ ऑल द पापाज़ इन द वर्ल्ड, यू आर द बैस्ट।’ गोपू ने पलट कर देखा। समझ गया कि उसका कार्ड रात को देख लिया गया। मुँह फुला कर भाई से बोला, ‘मेरा कार्ड चोरी से देख लिया। गन्दे।’
अनिल ताली बजाकर हँसा।
थोड़ी देर में गोपू की फरमाइश आयी, ‘मम्मी, आपने मिठाई नहीं मँगायी? बर्डे पर मिठाई मँगाते हैं।’
दिव्या ने जवाब दिया, ‘मँगाती हूँ,बाबा। दूकान तो खुलने दे।’
स्कूल जाते वक्त बोला, ‘अच्छा खाना बनाना। खीर जरूर बनाना।’
नीरज और दिव्या संकट में हैं। बच्चे को खुश रखने के सिवा और किया भी क्या जा सकता है?
एक दिन उसके मन की कर दी जाए, फिर चिन्ता करने को ज़िन्दगी पड़ी है। तय हुआ कि शाम को खाना लेकर किसी पार्क में हो लिया जाए। वहीं खाना-पीना हो जाएगा और बच्चों को मस्ती करने के लिए जगह मिल जाएगी। होटल में जाना वर्तमान स्थिति में बुद्धिमानी की बात नहीं होगी।
शाम को वे खाना लेकर बच्चों को शिवाजी पार्क ले गए। साफ सुथरी जगह, अच्छा लॉन और बच्चों के खेलने के लिए झूले, फिसलपट्टी और मेरी-गो-राउंड। गोपू मस्त हो गया। झूले में झूलते और फिसलपट्टी में फिसलते खूब हल्ला-गुल्ला मचाता। माँ-बाप उसकी सुरक्षा की फिक्र में आसपास मुस्तैद रहे। फिर दोनों भाइयों ने घास में खूब धींगामुश्ती की। पार्क से गोपू खूब खुश लौटा।
नीरज और दिव्या भी कुछ अच्छा महसूस कर रहे थे। पाँच दिन से मन पर बैठा विषाद कुछ हल्का हो गया था। घर से बाहर निकले, प्रकृति का सामीप्य मिला और बच्चों के साथ दौड़-भाग हुई तो लकवाग्रस्त पड़ी बुद्धि में कुछ चेतना लौटी। नीरज को लगा नौकरी खत्म होने के साथ ज़िन्दगी खत्म नहीं होती। अभी सब दरवाजे़ बन्द नहीं हुए।
उसके पास अपना अनुभव और योग्यता है। दस्तक देने पर शायद कोई और दरवाज़ा खुल जाए।
उसने विचार किया। अभी उसके पास बहुत पूँजी है। प्यारे बच्चे हैं। समझदार पत्नी है। काम का अनुभव है। मुसीबत के वक्त ये बड़ी नेमत हैं। उसने अपने सिर को झटका दिया। मुसीबत आयी है, लेकिन उदासी में डूबे रहना समझदारी की बात नहीं है। गाँठ की कार्यक्षमता में दीमक लगनी शुरू हो जाएगी।
बच्चे सो गये तो उसने दिव्या की ठुड्डी पकड़कर उसके चिन्ताग्रस्त चेहरे को उठाया, कहा, ‘मैं बेवकूफ था जो इतने दिन फिक्रमन्द होकर बैठा रहा। परेशान मत हो। मैं दूसरी नौकरी ढूँढ़ूँगा। जल्दी ही कोई रास्ता निकलेगा। चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा।’
पति की बात सुनकर दिव्या की आँखें भर आयीं। चिन्ता के बादल छँट गये। चेहरे पर आशा का भाव छा गया। उसने एक बार फिर पति की आँखों में झाँका और आश्वस्त होकर पाँच दिन बाद शान्ति की नींद में डूब गयी।