हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 53 – कहानियां – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 53 – कहानियां – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मिलन बाबू जब धीरे धीरे वाट्सएप ग्रुप में रम गये तो उन्होंने पाया कि दोस्तों से बातचीत और हालचाल की जगह वाट्सएप ग्रुप में फारवर्डेड मैसेज पोस्ट करने का ही चलन बन गया है, त्यौहारों पर बधाई संदेशों के तूफानों से मिलन मोशाय परेशान हो गये, चार पढ़ते चालीस और आ जाते. फिर पढ़ना छोड़ा तो मैमोरी फुल, दोस्तों ने डिलीट फार ऑल का हुनर सिखाया तो फिर तो बिना पढ़े ही डिलीट फॉर ऑल का ऑप्शन बेधड़क आजमाने लगे. इस चक्कर में एक बार किसी का SOS message भी डिलीट हो गया तो भेजने वाला मिलन बाबू से नाराज़ हो गया, बोलचाल बंद हो गई. पहले जब वाट्सएप नहीं था तब मिलन बाबू अक्सर त्यौहारों पर, जन्मदिन पर ,एनिवर्सरी पर, अपने दिल के करीबियों और परिचितों से फोन पर बात कर लेते थे. किसी के निधन की सूचना पर संभव हुआ तो अंत्येष्टि में शामिल हो जाते थे या फिर बाद में मृतक के घर जाकर परिजनों से मिल आते थे पर अब तो सब कुछ वाट्सएप ग्रुप में ही होने लगा. मिलन बाबू सारी मिलनसारिता और दोस्तों को भूलकर दिनरात मोबाइल में मगन हो गये और ईस्ट बंगाल क्लब के फैन्स के अलावा उनके कुछ दुश्मन, उनके घर में भी बन गये जो खुद को नज़रअंदाज किये जाने से खफा थे और उनमें नंबर वन पर उनकी जीवनसंगिनी थीं. कई तात्रिकों की सलाह ली जा चुकी है और ली जा भी रही है जो इस बीमारी का निदान झाड़फूंक से कर सके.निदान उनके कोलकाता के दुश्मन याने ईस्ट बंगाल क्लब के फैन ने ही बताया कि दादा, फिर से मिलन मोशाय बनना है तो वाट्सएप को ही डिलीट कर डालो. आप भी खुश और घर वाले भी. 😊😊😊😊😊😊😊

कभी,आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था. “गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालुम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी.हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गल्ती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी. आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी. शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था. शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा ,बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करनेवाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना, स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं. हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी. ये “वह” रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक ” बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे. वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.

जारी रहेगा…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 154 ☆ चिरदाह… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 154 ?

☆ चिरदाह… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

ती अभिसारिकाच असते,

युगानुयुगे…

आणि तो भेटतोच

प्रत्येक जन्मी

आयुष्यात कुठल्या

तरी वळणावर ,

 

बकुळ फुलासारख्या,

वेचाव्या लागतात

त्या वेळा,

मोसम येईल तशा….

 

तसे नसतेच काही नाव..

या नात्याला…

नसतेच वयाचे वा

 काळाचे बंधन….

 

मनात कोसळत रहातो

बेमोसम पाऊस,

अविरत….अखंड…

ओल्याचिंब दिवसातही

जाळतच राहतो,

अभिसारिकेला..

एक अनामिक

चिरदाह …

जन्म जन्मांतरीचा!!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 55 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ मनोज साहित्य # 55 – मनोज के दोहे….  

1 तृषा

मानव की यह तृषा ही, करवाती नित खोज।

संसाधन को जोड़कर, भरती मन में ओज।।

2 मृषा

नयन मृषा कब बोलते, मुख से निकलें बोल।

सच्चाई को परखने, दोनों को लें तौल।।

प्रिये मृषा मत बोलिए, बनती नहीं है बात।

पछताते हम उम्र भर, बस रोते दिन-रात।।

3 मृदा

कृषक मृदा पहचानता, बोता फिर है बीज।

लापरवाही यदि हुई , वह रोया नाचीज।।

4 मृणाल

कीचड़-बीच मृणाल ने, दिखलाया वह रूप।

पोखर सम्मानित हुआ, सबको लगा अनूप।।

पोखर में मृणाल खिले, मुग्ध हुआ संसार।

सूरज का पारा चढ़ा, प्रकृति करे मनुहार।।

5 तृषित

तृषित रहे जनता अगर, नेता वह बेकार।

स्वार्थी नेता डूबते, नाव फँसे मँझधार ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 176 ☆ व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर।)
साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 176 ☆  

? व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ?

मेकओवर का बड़ा महत्व होता है। सोकर उठते ही मुंह धोकर कंघी कर लीजिए  कपड़े ठीक कीजीए, डियो स्प्रे कर लीजिए  फ्रेश महसूस होने लगता है। महिलाओं के लिए फ्रेशनेस का मेकओवर  थोडी लंबी प्रक्रिया  होती है, लिपस्टिक, पाउडर, परफ्यूम आवश्यक तत्व हैं। ब्यूटी पार्लर में लड़की का मेकओवर कर उसे दुल्हन बना दिया जाता है। एक से एक भी बिलकुल बदली बदली सी लगने लगती हैं। दुल्हन के स्वागत समारोह के बाद  बारी आती है ससुराल में बहू के मेकओवर की। सास, ननदे  उसे गृहणी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। शनैः शनैः  गृहणी से पूरी तरह पत्नी में मेकओवर होते ही, पत्नी पति पर भारी पड़ने लगती है।

हर मेकओवर की एक फीस होती है। ब्यूटी पार्लर वह फीस रुपयों में लेता है। पर कहीं त्याग, समर्पण, अपनेपन, रिश्ते की किश्तों में फीस अदा होती है।

एक राजनैतिक पार्टी से दूसरी में पदार्पण करते नेता जी गले का अंगोछा बदल कर नए राजनैतिक दल का मेक ओवर करते हैं। यहां गरज का सिद्धांत लागू होता है, यदि मेकओवर की जरूरत आने वाले की होती है तो उसे फीस अदा करनी होती है, और अगर ज्यादा आवश्यकता बुलाने वाले की है तो इसके लिए उन्हें मंत्री पद से लेकर अन्य कई तरह से फीस अदा की जाती है। नया मेकओवर होते ही नेता जी के सिद्धांत, व्यापक जन हित में एकदम से बदल जाते हैं। विपक्ष नेता जी के पुराने भाषण सुनाता रह जाता है पर नेता जी वह सब अनसुना कर विकास के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।

स्कूल कालेज कोरे मन के  बच्चों का मेकओवर कर, उन्हें सुशिक्षित इंसान बनाने के लिए होते हैं। किंतु हुआ यह कि वे उन्हें बेरोजगार बना कर छोड़ देते, इसलिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन किए जा रहे हैं, अब केवल डिग्री नौकरी के मेकओवर के लिए अपर्याप्त है। स्किल, योग्यता और गुणवत्ता से मेकओवर नौकरी के लिए जरूरी हो चुके हैं। अब स्टार्ट अप के मेकओवर से एंजल इन्वेस्टर आप के आइडिये के लिए करोड़ों इन्वेस्ट करने को तैयार हैं।

पिछले दिनों हमारा अमेरिका आना हुआ, टैक्सी से उतरते तक हम जैसे थे, थे। पर एयरपोर्ट में प्रवेश करते हुए अपनी ट्राली धकेलते हम जैसे ही बिजनेस क्लास के गेट की तरफ बढ़े, हमारा मेकओवर अपने आप कुछ प्रभावी हो गया लगा। क्योंकि हमसे टिकिट और पासपोर्ट मांगता वर्दी धारी गेट इंस्पेक्टर एकदम से अंग्रेजी में और बड़े अदब से बात करने लगा।

बोर्डिंग पास इश्यू करते हुए भी हमे थोड़ी अधिक तवज्जो मिली, हमारा चेक इन लगेज तक कुछ अधिक साफस्टीकेटेड तरीके से लगेज बेल्ट पर रखा गया। लाउंज में आराम से खाते पीते एन समय पर हैंड लगेज में एक छोटा सा लैपटाप बैग लेकर जैसे ही हम हवाई जहाज में अपनी फ्लैट बेड सीट की ओर बढ़े सुंदर सी एयर होस्टेस ने अतिरिक्त पोलाइट होकर हमारे कर कमलों से वह हल्का सा बैग भी लेकर ऊपर  डेक में रख दिया, हमे दिखा कि इकानामी क्लास में बड़ा सा सूटकेस भी एक पैसेंजर स्वयं ऊपर  रखने की कोशिश कर रहा था। बिजनेस क्लास में मेकओवर का ये कमाल देख हमें रुपयों की ताकत समझ आ रही थी।

जब अठारह घंटे के आराम दायक सफर के बाद  जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर हम बाहर निकले,  तब तक बिजनेस क्लास का यह मेकओवर मिट चुका था, क्योंकि ट्राली लेने के लिए भी हमें अपने एस बी आई कार्ड से  छै डालर अदा करने पड़े, रुपए के डालर में मेकओवर की फीस कटी हर डालर पर कोई 9 रुपए मात्र। हमारे मैथ्स में दक्ष दिमाग ने तुरंत भारतीय रुपयों में हिसाब लगाया लगभग पांच सौ रुपए मात्र ट्राली के उपयोग के लिए। हमें अपने प्यारे हिंदोस्तान के एयर पोर्ट याद आ गए कहीं से भी कोई भी ट्राली उठाओ कहीं भी बेतरतीब छोड़ दो एकदम फ्री।  एकबार तो सोचा कितना गरीब देश है ये अमरीका भला कोई ट्राली के उपयोग करने के भी रुपए लेता है ? वह भी इतने सारे,  पर जल्दी ही हमने टायलेट जाकर इन विचारों का परित्याग किया और अपने तन मन का क्विक मेकओवर कर लिया।  जैकेट पहन सिटी बजाते रेस्ट रूम से निकलते हुए हम अमेरिकन मूड  में आ गए। तीखी ठंडी हवा ने हमारे चेहरे  को छुआ, मन तक मौसम का खुशनुमा मिजाज  दस्तक देने लगा। एयरपोर्ट के बाहर बेटा हमे लेने खड़ा था, हम हाथ हिलाते  उसकी तरफ  बढ़ गए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -7 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 – परदेश की ट्रेल (Trail) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अमेरिका में  प्राकृतिक और विकसित किए गए वन में विचरण करने के लिए रास्ते बनाए गए है, और कुछ स्वयं बन गए है, उनको ही ट्रेल की संज्ञा दी गई हैं। हमारे देश की भाषा में खेतों की मेड़ या पगडंडी जो सघन वन क्षेत्र में आने जाने के रास्ते के रूप में उपयोग किया जाता हैं, को भी ट्रेल कह सकते हैं।                     

शिकागो शहर में भी ढेर सारी ट्रेल हैं। वर्तमान निवास से आधा मील की दूरी पर विशाल वन भूमि जिसमें छोटी नदी भी बहती है, क्षेत्र में ट्रेल बनाई गई हैं। मुख्य सड़क से कुछ अंदर जाकर गाड़ियों की मुफ्त पार्किंग व्यवस्था हैं। बैठने के लिए बहुत सारे बेंच/टेबल इत्यादि वन विभाग ने मुहैया करवाए गए हैं। कचरा डालने के लिए बड़ी संख्या में पात्र रखवा कर सफाई व्यवस्था को भी पुख्ता किया गया हैं।

मई माह से जब यहां पर भी ग्रीष्म ऋतु आरंभ होती है, तब  निवासी बड़ी संख्या में यहां आकर भोजन पकाते (Grill) हैं। लकड़ी के कोयले को छोटे छोटे चुहले नुमा यंत्र में जला कर  बहुतायत में नॉन वेज तैयार किया जाता हैं। सुरा और संगीत मोहाल को और खुशनुमा बनाने में कैटलिस्ट का कार्य करते हैं।

ट्रेल में थोड़े से पक्षी दृष्टिगोचर होते हैं।मृग अवश्य बहुत अधिक मात्रा में विचरण करते हुए पाए जाते हैं।

ट्रेल को लाल, पीले, हरे इत्यादि रंग से विभाजित किया गया हैं। भ्रमण प्रेमी रास्ता ना भटक जाएं इसलिए कुछ दूरी पर लगे हुए पिलर पर रंग के निशान देखकर हमको अपने दिल्ली मेट्रो की याद आ गई। वहां भी इसी प्रकार से अलग अलग रूट्स को रंगों से विभाजित किया गया हैं। कुछ स्टेशन पर एक लाइन से दूसरी लाइन पर भी यात्रा की जा सकती हैं। यहां ट्रेल में भी प्रातः भ्रमण करने वाले भी तिगड़ों /तिराहों पर अपना मार्ग रंगानुसार बदल सकते हैं।

ट्रेल सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता हैं। श्वान पालक भी यहां विचरण करते हुए पाए जाते हैं, लेकिन चैन से बांधना सख्ती से अनिवार्य होता है, वर्ना श्वान हिरण जैसे जीवों के लिए घातक हो सकता हैं। साइकिल सवार भी यहां दिन भर पसीना बहा कर स्वास्थ्य रहते हैं। बहुत से लोग तो धूप सेक कर शरीर के विटामिन डी के स्तर को बनाए रखते हैं। शीतकाल में तो सूर्यदर्शन भी दुर्लभ होते हैं।

वर्तमान समय में तो गर्मी, वर्षा और तीव्र वेग से हवाएं चलने का मौसम है। मौसम गिरगिट जैसे रंग बदलता है, ऐसा कहना भारतीय राजनीति के उन नेताओं का अपमान होगा, जो अपनी विचार धारा को अनेक बार बदल कर दलगत राजनीति में अपने झंडे गाड़ चुके हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वय एक आकडा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वय एक आकडा… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

सरले किती, मोजू नको,

     उरलंय अजून बरंच काही

सरलेल्या गोड आठवणींनी,

      उरलेलं गोड करुन घे काही

 

कौमार्य गेलं असेल शिक्षणात,

      अन् भाव-भावंड सांभाळण्यात..!

तारुण्य गेलं नोकरी व्यवसायात

      स्वतःला कुटुंबाला उभं करण्यात!

 

वय केवळ एक आकडा समज ,

      मन भरुन जगून घे..!

“लोक काय म्हणतील?”सोडून,

      मनाला थोडी मोकळीक दे !

 

तू शिक्षित वा अशिक्षित स्वतःसाठी

       संवेदनाशील होऊन बघ..!

स्वतःशीचा वाद संपवून,

   उर्वरीत नियोजन करुन बघ..!

 

व्रण कधीच आठवू नकोस,

     भरलेल्या त्या जखमांचे!

दिवस कधीच साठवू नकोस,

      संकटांच्या त्या क्षणांचे ।

 

हुंदका ही नकोच नको,

     सुर्य मावळतीच्या या क्षणी

तो किती तेजस्वी दिसतो,

    हेच असू दे तुझ्या मनी..।

 

काम, क्रोध,लोभ सारे,

   निवळून जातील कुठेतरी !

निरव मनाची शांतता,

   दाटून येईल तुझ्या अंतरी ।

 

कोण जाणे पुढचा जन्म,

    पशुपक्षी वा माणूस खरा

याच जन्माचा करु सोहळा,

       माणूसकीचा ध्यास बरा ।

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #160 ☆ असे मागणे आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 160 ?

☆ असे मागणे आहे… ☆

शब्दांचे मोती व्हावे, असे मागणे आहे

ते गळ्यात तू माळावे, असे मागणे आहे

 

हे सप्तक छान सुरांचे, शब्दांशी करते गट्टी

सुरातून अर्थ कळावे, असे मागणे आहे

 

कोठार कधी पक्षाच्या, घरात दिसले नाही

उदराला रोज मिळावे, असे मागणे आहे

 

दगडाच्या हृदयी पान्हा, हिरवळ त्यात रुजावी

पाषाणी फूल फुलावे, असे मागणे आहे

 

हृदयाचे फूल मला दे, नकोच बाकी काही

ते कर तू माझ्या नावे, असे मागणे आहे

 

तो गुलाब कोटावरचा, हृदयी दरवळणारा

ते अत्तर आत रुजावे, असे मागणे आहे

 

हे पुस्तक करकमलाचे, भाग्याच्या त्यावर रेषा

हातात रोज तू घ्यावे, असे मागणे आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 110 – गीत – सदियों का संतोष ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – सदियों का संतोष।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 110 – गीत – सदियों का संतोष  ✍

क्षण भर का वह मिलन कि जैसे सदियों का संतोष दे गया।

एक अकेला और उपेक्षित आखिर कब तक रहता

बंद अँधेरे तहखाने में किससे क्या कुछ कहता

एक मृदुल स्पर्श तुम्हारा गई मूर्छना होश दे गया ।

क्षण भर का वह मिलन कि जैसे सदियों का संतोष दे गया।

सूरज डूबा चंदा डूबा पड़ा न कुछ दिखलाई

टिम टिम करते जुगनू ने ही जीवन राह सुझाई।

एक झलक दिखलाई उसने लगा कि संचित कोष दे गया।

क्षण भर का वह  मिलन की जैसे सदियों का संतोष दे गया।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 112 – “वह कबीर बन अलख…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “वह कबीर बन अलख।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 112 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “वह कबीर बन अलख” || ☆

तुम्हें भले ऐसा कह

लेना लगे, सुखद है

किन्तु गीत को निम्न

बताना बहुत दुखद है

 

आओ आगे बढो चलो

पर अनुशासन में

थोड़ा संयत बनो यहाँ

पर सम्भाषण में

 

सदा संतुलित होकर

चलते रहो समय सँग

किन्तु बहुत संकीर्ण

मिली ये तुम्हें रसद है

 

कई शील वानों के

दुविधा में चरित्र हैं

दुरभिसंधियों में विच –

लित कुछ सगे मित्र हैं

 

जो लेता आया उधार

सम्वेदन सारे

आज चाहता मुझसे

वह सम्बन्ध नकद है

 

दिन भर आतम परमा –

तम के लिये भटकता

अब निगाह में सज्जन

बन कर सदा अटकता

 

वह कबीर बन अलख

जगाने को आमादा

और गा रहा निर्गुण –

वाला वही सबद है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी – “एहसासों का दरिया”)  

☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

चा -पांच कमरे का सरकारी मकान है। सुबह 10बजे मम्मी को उनके विभाग की सरकारी गाड़ी ले गई, फिर कुछ देर बाद पापा को उनके विभाग की गाड़ी ले गई… मैं हाथ हिलाता रह गया, पीछे मुड़ा तो अचानक गलियारे में लगी बाबूजी की श्वेत श्याम मुस्कुराती हुई तस्वीर ने रोक लिया….। कैसे भूल सकता हूं बाबूजी को…, उनकी प्यारी  गोद जिसमें आराम था, सुकून था और थी प्यार की गर्मी। कैसे भूल सकता हूं बचपन के उन दिनों को जब बाबूजी मुझे गोद में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे…। जीवन में क्या क्या करना है और क्या नहीं, यह सब वे मुझे रास्ते भर बताते चलते थे। बाबूजी का प्यार मेरे लिए पूंजी बन गया। रामायण और महाभारत की प्रेरणादायक कहानियां… ज्ञान के खजाने की चाबी… शब्दकोश को समृद्ध बनाने की कलाबाजी, सभी कुछ मुझे बाबूजी से मिली। मेरे कदमों ने उन्हीं की उंगली पकड़कर चलना सीखा। जीवन जीने की कला का पाठ स्कूल में कम पर बाबूजी ने मुझे ज्यादा पढ़ाया। स्कूल आते जाते रास्ते में मेरी फरमाइश लालीपाप की रहती और बाबूजी को उतनी ही याद रहती।

पांचवीं की परीक्षा के रिजल्ट ने पापा -मम्मी की महात्वाकांक्षा बढ़ा दी थी। पापा -मम्मी ने मुझे बड़े शहर के प्रतिष्ठित स्कूल के हॉस्टल में पहुंचा दिया था। मुझे याद है बड़े शहर भेजते हुए बाबूजी तुम मुस्कराने का नाटक बखूबी निभा रहे थे। बाबूजी, न तुम मुझसे जुदा होना चाहते थे और न ही मैं तुमसे अलग होना चाहता था….

फिर हॉस्टल में ऊब और अकेलापन, मेरे अंदर अवसाद ले आया। कभी कभी पापा -मम्मी मिलने आते तो खीज सी उठती,तब बाबूजी तुम मुझे फोन पर समझाते और उन परिंदों की कहानी सुनाते जिसमें परिंदे जब अपने बच्चों को उड़ना सिखाते तो धक्का दे देते और पेड़ पर बैठे देखते कि उनके बच्चे कैसे उड़ना सीखते हैं,तब बाबूजी तुम कहते कि विपरीत परिस्थिति हो, परेशानी हो या कितना भी अकेलापन हो, ये सब एक नई उड़ान का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे समय समय के साथ नई उड़ानों में बाबूजी तुम मेरे साथ होते थे।समय पंख लगाकर उड़ता रहा और मैंने कालेज में दाखिला ले लिया…तब खबरें आतीं…

बाबूजी चिड़चिड़े हो गये हैं, बात बात में पापा -मम्मी से झगड़ते रहते हैं और पापा -मम्मी ने बाबूजी को वृद्धाश्रम भेज दिया है। घर की आया ने फोन पर बताया कि बाबूजी वृद्धाश्रम नहीं जाना चाहते थे पर मम्मी ने जबरदस्ती लड़ झगड़ कर उन्हें वहां भेज दिया और उनकी श्वेत श्याम तस्वीर घर के पीछे बाथरूम की तरफ जाने वाले गलियारे में लगा दी गई है।

आजीविका के चक्कर और बड़ा आदमी बनने की मृगतृष्णा में हम परिवार से दूर बड़े शहरों में अकेलेपन की पीड़ा झेलते हुए टूटते परिवार की तस्वीरों को देखते हुए खामोश जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं, तभी तो बाबूजी के बारे में मैंने पापा -मम्मी से कभी भी चर्चा नहीं की। उनके वृद्धाश्रम भेजे जाने पर मैं हमेशा चुप रहता आया।

जिंदगी सिर्फ मौज मस्ती और खुशी नहीं है इसमें दुःख और मायूसी भी है। इसमें ऐसी घटनाएं भी हो जातीं हैं जो कभी सोची न गई हों, की बार सब कुछ उलट -पलट हो जाता है और ऐसा ही कुछ घर की आया के फोन से मालुम हुआ कि पापा आजकल देर रात से घर पहुंचते हैं, मम्मी और पापा की अक्सर झड़पें होती रहती हैं, कभी कभी शराब के नशे में घर लौटते हैं, कुछ अनमने से रहते हैं। दौरे का बहाना बनाकर किसी महिला मित्र के साथ बाहर चले जाते हैं, मम्मी का ब्लड प्रेशर आजकल बढ़ता ही रहता है और वे भी डाक्टर के चक्कर लगातीं रहतीं हैं। पापा और मम्मी में बहुत कम बात होती है।अब घर में मेलजोल का वैसा माहौल नहीं है जैसा बाबूजी के घर में रहने से बना रहता था। मम्मी बाबूजी से मिलने वृद्धाश्रम कभी नहीं जातीं। पापा महीने में एक बार बाबूजी से मिलने जाते हैं पर दुखी मन से गेट से तुरंत लौट आते हैं। फोन पर आया की बातों को सुनकर मैं परेशान हो जाता… बाबूजी क्यों घर छोड़कर चले गए? जीवन भर तो उन्होंने सबका भला किया। पापा को सभी सुविधाओं देकर पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाया, खुद भूखे रहकर पापा को भरपूर सुख सुविधाएं दीं।

जिंदगी के बारे में तो ऐसा सुना है कि जिंदगी में हमें वही वापस मिलता है जो हम दूसरों को देते हैं, तो फिर बाबूजी को वह सब क्यों वापस नहीं मिला। मुझे लगता है जीवन में खुशी एक तितली की तरह होती है जिसके पीछे आप जितना दौड़ते हैं वह आगे उड़ती ही जाती है और हाथ नहीं आती है। मैं अपने आप को समझाता हूं… बड़ी नौकरी मिलने पर बाबूजी को अपने पास इस बड़े शहर में ले आऊंगा, फिर उन्हें इतनी खुशी और सुख दूंगा कि उनका बुढ़ापा हरदम हंसी खुशी और आराम से कट जाएगा।इस संसार में अच्छे से जीने के लिए विश्वास, प्यार और मेलजोल की जरूरत होती है।घर से मेरे आने के बाद पापा -मम्मी और बाबूजी के बीच ऐसा क्या घटित हो गया कि विश्वास, प्यार मेलजोल सब कुछ टूटकर बिखर गया।

इधर कुछ दिनों से मेरे अकेलेपन के बीच नेहा की दस्तक बढ़ गई है, उससे दिनोदिन लगाव बढ़ता जा रहा है। अक्सर हम लोग मौज-मस्ती करने कभी गार्डन, कभी सिनेमा हॉल जाने लगे हैं। कभी पार्टियों में नाच गाना चलता है तो कभी पूर्ण समर्पण के साथ नेहा मुझ पर न्यौछावर हो जाती है…. नयी बात अभी ये हुई है कि मुझे एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा पद मिल गया है, खुशी और उत्साह से नेहा मेरा हाथ थामे एक बार बाबूजी से मिलने आतुर है…

मैंने तय किया कि नेहा को लेकर बाबूजी के चरणों में अपना सर रख दूंगा और फिर कहूंगा… बाबूजी तुम जीत गए।

मैं एक बड़ा आदमी बन गया हूं। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जनरल मैनेजर का पद संभाल लिया है… और आज हम ट्रेन से अपने घर जाने के लिए रवाना हो गए हैं। स्टेशन से उतरकर घर जाने के लिए टैक्सी से चल पड़े हैं, अचानक बाबूजी तुम याद आ गये, मैंने टैक्सी ड्राइवर को पहले वृद्धाश्रम चलने को कहा, टैक्सी वृद्धाश्रम की तरफ दौड़ने लगी है, वृद्धाश्रम के गेट पर रुककर मैंने नेहा का हाथ पकड़कर टैक्सी से उतारा और पूछताछ काउंटर पर बाबूजी के बारे में पूछताछ की। केयरटेकर हमें बाबूजी की खोली की तरफ लेकर चला। एक टूटी सी खटिया में भिनभिनाती मक्खियों के बीच बाबूजी लेटे हुए थे, शरीर टूट सा गया था, दाढ़ी बहुत बढ़ चुकी थी,गाल पिचके, आंखें घुसी हुई हड्डियों के कंकाल में तब्दील बाबूजी पहचान में नहीं आ रहे हैं। बाबूजी ने आंखें खोली। मेरी उपलब्धियों को सुनकर उनके बेजान चेहरे पर हल्की सी मुस्कान झिलमिलाई और अचानक हताशा में बदल गई..

बाबूजी ने हाथ उठाकर नेहा और मुझे आशीर्वाद दिया और तकिए के नीचे से कुछ पैसे निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए बेजान आवाज में बोले – ‘बेटा मेरा एक छोटा सा काम कर देना, कफन के लिए सस्ता सा कपड़ा ख़रीद कर ले आना ‘

वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था और बाबूजी ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद ली थीं….

मैं अपने मोबाइल से पापा -मम्मी को फोन लगा रहा था,उधर से लगातार आवाजें आ रहीं थीं “आऊट ऑफ कवरेज एरिया”….. आउट ऑफ कवरेज एरिया…..।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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