हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 30 ☆ नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!! ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!”।) 

☆ शेष कुशल # 30☆

☆ व्यंग्य – “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हार में गुंथे एक फूल ने दूसरे से कहा – ‘मैं मर जाना चाहता हूँ.’

दूसरे ने कहा – ‘चौबीस-छत्तीस घंटे की ही तो लाईफ और बची है, कल तक सूख-साख जाओगे, फिर तो मिट्टी में मिलना तय है.’

‘चौबीस घंटे एक लंबा वक्त है दोस्त, मैं चौबीस सेकण्ड्स भी जीना नहीं चाहता. विधाता ने हम फूलों में जान तो डाल दी मगर हाराकीरी कर पाने के साधन नहीं दिए वरना अभी तक तुम मेरी मिट्टी देख रहे होते. मादक खूशबू, खूबसूरत पंखुड़ियाँ, ये चटख रंग एक झटके में सब के सब बदरंग हो गए हैं. अब मैं और जीना नहीं चाहता.’

‘कुछ देर पहले तक तो ठीक-ठाक थे अचानक ऐसा क्या हो गया है ?’

‘देख नहीं रहे! सम्मान करने के परपज से जिस गले में हमें डाला गया है वो नृशंस हत्या और बलात्कार कांड के सजायाफ़्ता मुजरिम का गला है. वह उस गुलबदन को मसल देने का अपराधी है जिसके गर्भ में एक पाँच माह की कली पनप रही थी. उसी की टहनी से फूटी नन्ही नाजुक सी ट्यूलिप को पत्थर पर पटक पटककर जिन्होने कुचल दिया उनकी सज़ा माफ कर दी गई है. गला इनका है और दम मेरा घुट रहा है. जो शख्स कैक्टस का हार पहनाए जाने की पात्रता नहीं रखते उसके गले को गुलों-गुलाबों से सजाया गया है !!, उफ़्फ़…. घिन आने लगी है दोस्त अब और जीने का मन नहीं है.”

फिर उसने हार में से कुछ तिरछा होकर आसमान की ओर देखा और कहा – ‘आगे से अंटार्कटिका में उगा देना प्रभु मगर आर्यावर्त में नहीं. मैं टहनियों में उगे कांटो के बीच रह लूँगा मगर नए दौर के आकाओं के निमित्त निर्मित मालाओं, गुलदस्तों में तो बिलकुल नहीं भगवान. कभी हम देवताओं के हाथों बरसाए जाने के काम आते रहे, आज अपराधियों के संरक्षकों के हाथों बरसाए जा रहे हैं. हमारी प्रजाति में जूही, चम्पा, चमेली किसी रेपिस्ट के रिहा होने पर तिलक नहीं लगातीं, आरती नहीं उतारतीं. आर्यावर्त में जुर्म, सजा, इंसाफ अपराध की प्रकृति देखकर नहीं, अपराधी का संप्रदाय और रिश्ते देखकर तय होने लगे हैं. हम आवाज़ नहीं कर पाते मगर समझते सब हैं. आर्यावर्त में बगीचे के माली फूलों को उनका धरम देखकर सींचते हैं. विधर्मी फूल सहम उठते हैं, कब कौन मसल दिया जाएगा कौन कह सकता है. कभी संगीन अपराधों पर सन्नाटा पसर जाया करता था अब ढ़ोल-ताशे बजते हैं. बजते रहें, इल्तिजा बस इतनी सी है प्रभु सहरा के रेगिस्तान में उग लें, साईबेरिया की बर्फ में उग लें, सागर की गहराईयों उग लें – आर्यावर्त में नहीं मालिक.’

‘मैं समझ सकता हूँ दोस्त, अब दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी भी नहीं रहे कि तुम्हारी निराशा को स्वर दें सकें.’

‘पता है मुझे. कोई बात नहीं अगर वनमाली उस पथ पर न फेंक पाए जिस पर शीश चढ़ाने वीर अनेक जा रहें हों, कम से कम बलात्कारियों के पथ पर तो न डालें. सुरबाला के गहनों में गूँथ दें, चलेगा. प्रेमी-माला में बिंध दें – इट्स ऑलराईट. सम्राटों के शव पर अपने को सहन कर लूँगा. देवों के सिर पर चढ़ा दे तब भी कोई बात नहीं, हत्यारों बलात्कारियों के गर्दन-गले की शोभा तो न बनाएँ मुझे.’  उसने फिर साथी फूल से मुखातिब होकर कहा – ‘ये मिठाई, ये अबीर गुलाल और ये आतिशबाज़ी! इन्हे मामूली स्वागत समारोह की तरह मत देखना दोस्त – ये आनेवाले कल के आर्यावर्त का ट्रैलर है. फूलों की आनेवाली जनरेशन को इससे कठिन समय देखना बाकी है.’

‘डोंट वरी, हमें बहुत नहीं सहना पड़ेगा. जमाना आर्टिफ़िशियल फ्लावर का है. न उनमें जान होगी न तुम्हारी तरह जान देने की जिद. और लीडरान ? वे तो आर्टिफ़िशियल रहेंगे ही, अन्तश्चेतना से शून्य.’

सजा-माफ बलात्कार वीर समूह माला पहने-पहने तस्वीर खिंचवा रहा है. तस्वीर कल सुबह अखबार के कवर पेज पर नुमायाँ होगी. नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “बांध और बाढ़ का खेल”)  

☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

एक अभियंता की दया से बांध बनाने का ठेका मिल गया, बांध बियाबान जंगल के बीच पिछड़े आदिवासी इलाके में बनना था, बीबी गर्व से फूली नहीं समा रही थी कहने लगी – अर्थ वर्क भ्रष्टाचार के रास्ते खोलता है और अमीर बनाने के खूब मौके देता है कमा लो जितना चाहो…। दो बड़े पहाड़ों को एक बड़ी मेंड़ बनाकर जोड़ने का काम था ताकि बहती नदी के पानी को रोका जा सके। इधर शहर में साहब का बंगला बनाने का नक्शा भी पास हो गया था। “बांध के साथ शहर में इंजीनियर साहब का बंगला भी बनता रहेगा” साहब के इसी इशारे में काम दिया गया था। सीमेंट, गिट्टी, लोहा शहर से खरीदा जाता बांध के लिए। पर पहली खेप बंगले बनने वाली जमीन पर उतार दी जाती। फिर बांध के नाम का बिल तुरंत पास हो जाता। 

बांध का काम चलता रहा और साहब का बंगला तैयार…। उधर साहब कभी कभी बांध के पास बनी कुटिया में शराब, शबाब और कबाब में डूबे रहते और शहर के बंगले के बेडरूम में उनकी मेडम फिनिशिंग का काम कराती रहती। बरसात आयी खूब पानी गिरा, लीपापोती के चक्कर में साहब ने बांध बह जाने की रिपोर्ट ऊपर भेज दी। साहब का बंगला रहने के लिए तैयार और साहब ने पैसे देकर ट्रांसफर करा लिया। 

अब जो नया साब आया उसे बड़े टाइप के बांधों में घोटाला करने का अच्छा अनुभव था… नाम  सलूजा साब। एक दिन शराब के नशे में सलूजा जी ने बड़े बांधों में घपले के किस्से सुनाए – बांध  बनने से बहुत से गांव डूब जाते हैं, बड़ी आबादी विस्थापित होती है, सोना-चांदी उगलतीं फसलें तबाह होतीं हैं गरीब बेसहारा हो जाते हैं और बांध बनाने वाले अधिकारी और ठेकेदारों की चांदी हो जाती है, बंगले और मंहगी गाड़ियों में ईजाफा हो जाता है। 

अभी एक खबर सुनी, ये भी आदिवासी जिले के 305 करोड़ लागत के बांध के घपले की खबर थी। खबर सुनकर बड़बड़ाना स्वाभाविक है कि हम लगातार बांधों का निर्माण तो करते जा रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त होकर बांध प्रबंधन का सलीका नहीं सीख पाए हैं। यदि बांध से बाढ़ को रोका जा सकता है तो पूरा देश बाढ़ की चपेट में आकर क्यों बर्बाद हो रहा है। बांध बनते जा रहे हैं और बाढ़ से तबाही भी बढ़ती जा रही है। बाढ़ देखने के हवाई दौरे भी बढ़ रहे हैं। बांध और बाढ़ की चर्चा पर करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं, और बांध बाढ़ से दोस्ती करके हाहाकार मचवाये हुए हैं। नेता लोग बांध घूम कर बाढ़ का मजा लेते हैं और बाढ़ में गरीब लोग मरते हैं। बिहार में 47 साल से बन रहा 380 करोड़ रुपये का बांध उदघाटन होने के एक दिन पहले ही बह गया था।  बांध भी मुख्यमंत्रियों से डरता है। आरोप लगे कि बांध को दलित चूहों ने कुतर दिया इसलिए बांध बह गया। गंगा मैया सागर से मिलने उतावली है और उसे बांध में बांध दोगे तो क्या अच्छी बात है गंगा मैया नाराज नहीं होगी क्या? उदघाटन के पहले मुख्यमंत्री को गंगा मैया में नहा-धोकर पाप कटवा लेना चाहिए था, तो हो सकता है कि बिहार का बांध बच जाता। 

दूरदराज और जंगल के बीच बने छोटे छोटे  बांध आंकड़ों में चोरी हो जाते हैं अक्सर। असली क्या है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है न, इसलिए बांध और बाढ़ की जरूरत पड़ती होगी देश पूरी तरह खेती पर आश्रित है और इन्द्र महराज पानी देने में पालिटिक्स कर देते हैं तो सिंचाई के लिए बांध और नहरों की जरूरत पड़ती है। बांध बनाने के पहले विरोध होता है फिर बांध बनते समय विरोध होता है और बांध बन जाने के बाद विरोध होता है क्योंकि विरोध करना हमारी संस्कृति है। 

सबको मालूम है कि जब बड़े बांध बनते हैं तो हजारों गांव खेती की जमीन पशु, पक्षी, पेड़, पौधे सब डूब जाते हैं विस्थापितों के पुनर्वास में लाखों करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं फर्जी भू-रजिस्टरी का कारोबार पकड़ में आता है।

गंगू बांध और बाढ़ की दोस्ती से परेशान है, बिहार वाले नेपाल के बाधों से परेशान हैं और किसान हर तरफ से परेशान है। दुख इस बात का है कि इस बार आदिवासी क्षेत्र के इस 305 करोड़ रुपए लागत के  बांध के फूटने की खबर ने हजारों किसानों को रक्षाबंधन और आजादी का अमृत महोत्सव चैन से नहीं मनाने दिया।  

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 95 ☆ # पानी… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# पानी… #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 95 ☆

☆ # पानी… # ☆ 

जिंदगी के खेल निराले हैं

यह समझ मे नही आने वाले हैं

कहीं बूंद बूंद को लोग तरसते हैं

कहीं तबाही लाने वाले हैं

 

मेघों पर दीवानगी छाई है

घनघोर घटाएं संग लाई है

बरस रहा है पानी ही पानी

पृथ्वी पर बाढ़ सी आई है

 

तूफान सब कुछ रौंद रहा है

आसमान दामिनी बनकर

कौंध रहा है

बह गये है गांव के गांव

इन्सान डर के मारे

मौन रहा है

 

कहीं पर आशियाने

लुट गए हैं

कहीं पर लाचारी में जीने

पीछे छूट गये है

ना शरीर पर वस्त्र

ना सर पर छत

ईश्वर जैसे उनसे

रूठ गये है

 

यह मेघों की कैसी

दीवानगी है

धरती पर फैली त्रासदी है

बाढ़ प्रलय बन गई है

मानव के हाथ

बस बेचारगी है

 

कहीं वर्षा नहीं तो अकाल है

कहीं खूब वर्षा तो काल है

जग में पानी ही तो जीवन है

कहीं बिना पानी हाल-बेहाल है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588\

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 95 ☆ माझी कविता… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 95  ? 

☆ माझी कविता… ☆

कविता माझी, खूप वेगळी

तिची रूपे, खूप आगळी…

 

मुक्तछंद छंदमुक्त,

छंदबद्ध चारोळी

आर्या,ओव्या,

अभंग त्या ओळी…

 

कधी होते,

कविता भावुक

कधी तिचा भाव,

मऊ साजूक…

 

प्रेमात ती,

कोमल बनते

रागात ती,

क्रोध आणते…

 

भावदर्शक,

कविता होते

हसत हसत,

रडायला लावते…

 

कविता मला,

जवळ घेते

माझ्यातील शब्द,

तीच बोलते…

 

तिची उपासना, सतत करणार

तिच्याच करता, श्वास घेणार…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३२ – परिव्राजक १० – लोकसंपर्क ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३२ – परिव्राजक १० – लोकसंपर्क  ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजींच्या लोक संपर्कात सुशिक्षित लोक जास्त असायचे पण त्याचा बरोबर ग्रामीण भागातले लोक सुद्धा असायचे. सुशिक्षित लोकांबरोबर त्यांचा सतत विविध संवाद,चर्चा होत असत. सुशिक्षित तरुणांकडून त्यांना ही अपेक्षा होती की, ‘त्यांनी आपल्या देशाचा इतिहास समजून घेतला पाहिजे. एव्हढंच नाही तर भारतीयांनीच भारताचा इतिहास लिहिला पाहिजे. नाहीतर परकीय लोक आपल्या देशाचा इतिहास लिहितात. त्यांना आपली संस्कृती आणि परंपरा यांची काहीही माहिती नसताना तो लिहीत असतात. त्यामुळे त्यांना भारताच्या इतिहासातले बारकावे समजत नाहीत. अशांनी इतिहास लिहिला आणि तो आपण वाचला तर आपली दिशाभूल होते असे त्यांना वाटायचे’.

स्वामीजी राजस्थान सारख्या ऐतिहासिक पार्श्वभूमी असलेल्या प्रदेशात आले होते, त्यामुळे त्यांना साहजिकच ही तुलना करता आली असणार. आज तर आपल्या राजकीय परिस्थितीमुळे आपल्या इतिहासकडेही राजकीय द्वेषातूनच पाहिलं जातय. ही परिस्थिति इतकी वाईट आहे ही राजकीय स्वार्थापोटी देशाचा इतिहास, देशाभिमान यांचं महत्व राहिलेलं दिसत नाही. त्याकाळात ही गुहेत राहणार्‍या आध्यात्मिक स्वामीजींनी सामाजिक भान सुद्धा जपलं होतं. त्यांचा मोलाचा सल्ला,उपदेश अशा समाजात जिथं अनुभव येईल, जिथं गरज आहे तिथं तो देत असत.

भारत कृषि प्रधान देश आहे त्यामुळे जास्त संख्या ग्रामीण भागात राहणारी आहे. पण ग्रामीण भागातले खेडूत जास्त शिकले की शहराकडे धाव घेतात. खर तर देशाच्या अर्थव्यवस्थेचा कणा असलेल्या शेतीकडे हा वर्ग नोकरीला भुलून पाठ फिरवतो. हे स्वामीजींच्या त्या काळात सुद्धा लक्षात आलं होतं. उलट शहरातल्या सुशिक्षित लोकांनी खेड्यात जाऊन तिथल्या शेतकर्‍यांशी संवाद साधला पाहिजे. उलटा प्रवास झाला पाहिजे. म्हणजे दोन्ही वर्गात आपुलकीचे नाते निर्माण होईल असे स्वामीजींचे मत होते. त्यानुसार ते सहवासात आलेल्या लोकांना मार्गदर्शन करत असत.

आज कोरोना साथीच्या परिस्थितून पुन्हा एकदा हीच गोष्ट सिद्ध झाली आहे. इतके कामगार आणि मजूर, कारागीर असेच खेड्याकडून शहराकडे नोकरीच्या आमिषानेच स्थलांतरित झाले आहेत. त्याचा अशा संकटाच्या वेळी केव्हढा परिणाम व्यवस्थेवर आणि त्यांच्याही जीवनावर पडलेला दिसतोय. आता तर शहराकडून खेड्यात जाऊन तिथली अर्थव्यवस्था भक्कम करण्याची वेळ आली आहे.

स्वामीजींनी अशा खेडूत लोकांबरोबर तरुण लोकांना पण दिशा देण्याचा प्रयत्न केला होता. त्यांनी तरुणांना संस्कृत भाषेचा अभ्यास करण्यासाठी प्रवृत्त केले होते. त्याचे काही प्राथमिक धडेही त्यांनी तरुणांना दिले कारण, संस्कृत शिकलं तरच भारताची परंपरा खर्‍या अर्थाने समजू शकेल असं त्यांना वाटत होतं. शिवाय पाश्चात्य देशात जे जे काही नवे ज्ञान असेल, नवे विचार असतील, त्याचाही परिचय भारतीयांनी करून घेतला पाहिजे. सर्व अभ्यासला शिस्त हवी, माहितीमध्ये रेखीवपणा हवा,नेमकेपणा  हवा. कोणत्याही विषयाच्या ज्ञांनाच्या बाबतीत परिपूर्णतेची आस हवी या गोष्टींवर स्वामीजींचा भर होता. हे गुण आपण भारतीयांनी पाश्चात्यांकडून घेतले पाहिजेत असे त्यांना वाटे.

त्यांचे नुसते तात्विक गोष्टींकडे च लक्ष होते असे नाही .इतके लोक भेटायला येत, त्यांना कोणाला कशाची गरज आहे या व्यावहारिक गोष्टींकडेही त्यांचे लक्ष असे. अलवर मुक्कामात एका गरीब ब्राम्हणाला आपल्या मुलाची मौंज करण्याची इच्छा होती पण त्याची तेव्हढी आर्थिक परिस्थिति नव्हती. तेंव्हा स्वामीजींनी लोकांना विनंती केली की सर्वांनी वर्गणी गोळा करून, त्या मुलाची मौंज करावी. सर्वांनी संमती दिली. पण पुढे स्वामीजी जेंव्हा अबुला गेले तेंव्हा त्यांनी तिथल्या अनुयायला पत्र लिहून विचारले की, सांगितलेल्या सर्व गोष्टी चालू आहेत ना आणि त्या ब्राम्हणाच्या मुलाची मौंज झाली का हे ही विचारले.

अशा प्रकारे स्वामीजींनी पुढच्या प्रवासाला गेल्यावर आधीच्या मुक्कामातल्या लोकांशी पत्र संवाद चालू केला. संपर्क ठेवला आणि उपदेश पण करत राहिले. परिव्राजक म्हणून फिरताना ते कुठेही गुंतून पडत नव्हते पण  पत्र लिहिणे, संबंधित लोकांचे पत्ते लक्षात ठेवणे, जपून ठेवणे या नव्या व पूरक गोष्टी अनुभावातून त्यांनी स्वीकारल्या होत्या आणि यातूनच मग स्वामीजींनी आपल्या वराहनगरच्या मठातील गुरुबंधूंना संपर्कात राहण्यासाठी पत्र लिहिणे सुरू केले.

अलवरचा निरोप घ्यावा असं त्यांना वाटलं, सात आठवडे झाले होते इथे येऊन. त्यात अनेकांनी अनुयायित्व पत्करल होतं. खूप हितचिंतक जमवले होते. प्रवास पुढे सरकत होता तसे त्यांच्या अडचणी कमी होत होत्या. मोठ्या संख्येने लोक ओळखू लागले होते. पुढे पुढे तर, पुढच्या मुक्कामाला कोणीतरी परिचय पत्र द्यायचे ते बर्‍याच वेळा आधीच्या मुक्कामातील प्रभावित झालेली व्यक्तीच असायची. सहज ही सोय व्हायची, पण त्यांनी स्वत: कधी अशा सोयीसाठी प्रयत्न केला नव्हता.

अलवर सोडून स्वामीजी आता जयपूरला पोहोचले. यावेळी अलवरचे त्यांचे खूप हितचिंतक लोक त्यांना सोडायला त्यांच्या बरोबर पन्नास साठ किलोमीटर पर्यन्त आले होते. यावरून स्वामीजींच्या सहवासाचा परिणाम कसा होत होता याची कल्पना येते.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 26 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 26 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

३७.

प्रवास संपत आला असं वाटलं होतं,

माझ्या शक्तीची मर्यादा गाठली असं वाटलं होतं,

माझ्या समोरचा मार्ग संपलाय असं वाटलं होतं,

शिदोरी संपलीय आणि शांत विजनवासात आसरा घ्यावा असं वाटलं होतं. . . .

 

आता वाटतंय तुझ्या माझ्यावरील मर्जीला

अजून शेवट नाही.

जुने- पुराणे शब्द तोंडातून

बाहेर पडायचे थांबतात,

तेव्हा  ऱ्हदयातून नवी धून निघते,

जुने मार्ग नजरेआड होतात,

तेव्हा आश्चर्ययुक्त  नवा प्रदेश दिसू लागतो.

 

३८.

‘तू मला हवास, तू मला हवास. . . . . ‘

असंच सतत माझं काळीज

चिरंतनपणे घोकीत राहो.

तुझं अस्तित्व विसरायला लावणाऱ्या

सर्व वासना मिथ्या, पोकळ आहेत

 

रात्रीच्या अंधारात

प्रकाशाची विनवणी दडलेली असते.

तसाच तू हवास, फक्त तू हवास. . .

ही हाक माझ्या अजाणपणाच्या

गर्भात दडलेली असावी

 

सर्व शक्तिनिशी वादळ शांततेला धडक देतं

तेव्हा त्याला शांततेची ओढ असते.

तसेच माझी बंडखोरी तुझ्या प्रेमाशी टक्कर घेते,

तेव्हा सुध्दा ‘ तू हवास’ फक्त ‘तू हवास’ अशी

साद ती घालते.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #156 ☆ व्यंग्य – हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 156 ☆

☆ व्यंग्य – हिन्दी साहित्य में मेरे समाज का योगदान

रोड पर चलते हुए कुछ दूर पर भीड़ सी देखकर उत्सुकतावश रुक गया। पास गया तो देखा भीड़ एक मूर्ति को घेरे थी। आरती और पूजा का कार्यक्रम चल रहा था। भीड़ से छटक कर एक सज्जन निकले तो पूछा, ‘यहाँ क्या हो रहा है?’

जवाब मिला, ‘यह हमारे समाज के कवि जी की मूर्ति है। आज उनका जन्मदिन है, इसलिए समाज का कार्यक्रम चल रहा है। इन्होंने हमारे समाज का नाम ऊँचा किया है।’

मैंने पूछा, ‘इनकी कविताएँ आपने पढ़ी हैं?’

जवाब मिला, ‘अभी पढ़ी तो नहीं हैं, लेकिन इनकी दो किताबें है हमारे पास हैं। समाज ने मँगवा कर सबको बँटवायी थीं।’

मैंने पूछा, ‘आप दूसरे कवियों को पढ़ते हैं?’

वे बोले, ‘अरे भैया, कहाँ घसीट रहे हो? हम व्यापारी आदमी हैं। हमें धंधे से फुरसत मिले तो कविता अविता देखें। ये सब फुरसत वालों के काम हैं।’

घर पहुँचा तो वह घटना दिमाग में घूमती रही। सोचते सोचते अपराध-भाव से घिरने लगा। बार-बार यह विचार कुरेदने लगा कि दूसरे समाजों में लोग जाति-गर्व से फूले हैं, और एक मैं हूँ कि कभी अपनी जाति पर गर्व करने का सोचा नहीं, जबकि हर क्षेत्र में हमारी जाति के झंडे लहरा रहे हैं। शहर में महाराणा प्रताप और सुभद्रा कुमारी चौहान के अलावा हमारी जाति के किसी बड़े आदमी की मूर्ति दिखायी नहीं पड़ी, जो निश्चय ही अफसोस की बात है। इस सबके बीच मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। बुलाये जाने पर भी अपनी जाति के कार्यक्रमों से कन्नी काटता रहा। कभी जाति पर गर्व नहीं किया।

इसलिए सोचा कि फिलहाल हमारे समाज के उन महानुभावों के नाम खोज कर सामने लाऊँ जिन्होंने साहित्य में नाम किया है और हमारे समाज का नाम रोशन किया है। बताना ज़रूरी है कि जैसे हमारे समाज ने वीरता में इतिहास रचा, वैसे ही साहित्य में कम हासिल नहीं किया।

प्रातःस्मरणीय सुभद्रा कुमारी जी का नाम ले चुका हूँ। उनकी ‘खूब लड़ी मर्दानी’ तो आप भूल नहीं सकते। उनसे पहले हमारे समाज के एक और साहित्यकार राधिका रमण प्रसाद सिंह हुए थे जिनकी कहानी ‘कानों में कंगना’ खूब चर्चित हुई।

हमारी जाति का समाज साहित्यकारों की खान रहा है। आलोचना में शीर्षस्थ नामवर सिंह हमारे समाज में ही अवतरित हुए। उनके अनुज काशीनाथ सिंह ने कहानी और उपन्यास में झंडे गाड़े। उनके समधी दूधनाथ सिंह एक और महत्वपूर्ण कथाकार रहे। आलोचना में नामवर जी के अलावा कर्ण सिंह चौहान और चंचल चौहान भी सुर्खरू हुए। इसी काल में हमारे समाज में ‘नीला चाँद’ उपन्यास के रचयिता शिवप्रसाद सिंह भी मशहूर हुए। बताना ज़रूरी है कि ‘आँवा’ उपन्यास की लेखिका चित्रा मुद्गल जी जन्म से हमारे समाज की हैं।

कवियों में ‘ताप के ताए हुए दिन’ के रचयिता महाकवि त्रिलोचन (असली नाम वासुदेव सिंह) और ‘कुरुक्षेत्र’ वाले रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को कौन भूल सकता है? इसी परंपरा में आगे ‘बाघ’ के कवि केदारनाथ सिंह ने खूब यश अर्जित किया।        

हमारे समाज के दो और चमकते सितारे ‘टेपचू’ और ‘तिरिछ’ के लेखक उदय प्रकाश और ‘लेकिन दरवाज़ा’ वाले पंकज बिष्ट हैं। किसी को आपत्ति न हो तो ख़ाकसार को भी इस सूची के अन्त में जोड़ा जा सकता है, यद्यपि अपना योगदान कुछ ख़ास नहीं है।

अभी यह सूची खुली है और खुली ही रहेगी। जो छूट गये हैं वे कुपित न हों। उम्र के साथ मेरी स्मरण-शक्ति कमज़ोर हो रही है, इसलिए भूल सुधार का सिलसिला चलता रहेगा। फिलहाल मैंने ‘हिन्दी साहित्य में क्षत्रियों का योगदान’ पुस्तक की शुरुआत कर दी है। मुकम्मल होने पर जनता-जनार्दन की ख़िदमत में पेश करूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 107 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 107 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 107) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 107 ?

☆☆☆☆☆

तुम्हें बहुत गुरूर है कि तुम्हें

चाहने वाले बहुत हैं और…

हमें ये कि हमारी तरह तुम्हें

कोई चाह ही नहीं सकता…!

You feel too proud that you’ve

too many people loving you

And me; that no one can

ever love you like me…!

☆☆☆☆☆ 

 अक्सर वही दिए ,

हाथों को जला देते हैं,

जिन्हें हम हवा से

बचा रहे होते हैं…!

Often the same lamps

burn our hands,

That we keep protecting

from the wind…!

☆☆☆☆☆ 

 चेहरा तो शायद मिल जाएगा

हम से भी खूबसूरत…

पर जब बात दिल की आएगी

तो फिर क्या करोगे…!

Face, probably, you may find

ever better than mine, but…

When it comes to the heart,

tell me, what will you do…!

☆☆☆☆☆ 

कितनी खुदगर्ज़ हैं

ये तेरी यादें भी…

मतलब-बेमतलब कभी

भी चली आती हैं…!

 

How selfish are these

memories of yours…

They just keep visiting

whenever they feel like…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 153 ☆ सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्! ?

स्मरण हो आता है वह समय जब रेल का आरक्षण लेना लगभग आधे दिन की प्रक्रिया थी। कामकाजी समय से आधा दिन निकालना संभव न होता। इसके चलते 250-300 किलोमीटर की यात्रा प्राय: अनारक्षित डिब्बे में होती। रेल हो या बस, सीट पाया व्यक्ति अपने स्थान से टस से मस नहीं होना चाहता था। नये यात्री है को स्थान देने के बजाय अपने लिए आवश्यकता से अधिक स्थान सुरक्षित कर लेने की वृत्ति प्रायः देखने को मिलती थी। न्यूनाधिक यही स्थिति अब भी होगी। इस वृत्ति पर मनुष्य के क्रमिक विकास का सिद्धांत लागू नहीं हुआ। केवल प्रदर्शन का क्रमिक विकास हुआ।

आँखो दिखता सच यह है कि स्थूल रूप से मनुष्य दूसरे को स्थान नहीं देना चाहता। अंतश्चेतना के स्तर पर देखें तो अनेक बार मनुष्य न केवल भौतिक रूप से किसी के लिए स्पेस देने को इंकार करता है बल्कि मानसिक रूप से भी दूसरों के विचार के लिए कोई जगह छोड़ना नहीं चाहता।

स्मरण आती है, विद्यालय के दिनों की एक घटना। साथ ही स्मरण आते हैं हमारे प्रधानाध्यापक श्रद्धेय सत्यप्रकाश जी गुप्ता सर। मैं जब नौवीं में पढ़ा करता था, सर प्रधानाध्यापक बनकर पाठशाला में आए थे। मैं जो निबंध लिखता या ललित रूप से जो कुछ भी लिखता, उसे वे बेहद पसंद करते। विशेषकर राजनीतिक-सामाजिक  विषयों पर मेरा लेखन उन्हें बहुत भाता। उदाहरण के लिए ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ जैसे विषयों पर अपनी आयु के अनुरूप अपने विचारों को मैं प्रखरता से प्रकट करता। आज लगता है कि संभवत: यह विचार एकांगी अथवा एकतरफा होते होंगे। सर इन विचारों को पढ़-सुनकर प्रसन्न होते, पीठ थपथपाया करते।

मैं दसवीं में पहुँचा। बोर्ड की परीक्षा थी। दसवीं के बच्चों का विदाई समारोह होता था। विदाई समारोह के दो-चार दिन पहले सर ने मुझे अपने ऑफिस में बुलाया। वे बालक कहकर संबोधित किया करते थे। अत्यंत स्नेह से बोले, “बालक बोर्ड की परीक्षा में किसी राजनीतिक विषय  जैसे ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ पर निबंध मत लिखना। सामाजिक विषय पर लिखना।” पंद्रह वर्ष की अवस्था, जोश अधिक और होश कम। मैंने कहा, “मैं इसी पर लिखूँगा। यह मेरी पसंद का विषय है।”…” तुम्हारे अंक कम हो सकते हैं बालक, क्योंकि आवश्यक नहीं कि परीक्षक तुम्हारे विचारों से सहमत हो। मैं तुम्हें मेरिट लिस्ट में देखना चाहता हूँ, इसलिए प्रयास करना कि राजनीतिक विषय से बच सको।” उन्हें जीवन का विशद अनुभव था। मेरी आँखों में मेरी प्रतिक्रिया को उन्होंने पढ़ लिया। कुछ देर पहले प्रत्यक्ष सुन भी चुके थे। क्षण भर चुप रहकर बोले, “ठीक है, यदि ऐसे किसी विषय पर लिखो भी तो दूसरे के विचारों के लिए जगह छोड़ देना।”

घटना 42 वर्ष पूर्व की है। सर स्वर्गवासी हो चुके पर उनका अ-क्षर वाक्य चिरंजीव होकर आज भी मेरा मार्गदर्शन कर रहा है।

कालांतर में अनुभव ने सिखाया कि दूसरे के विचार के लिए विचार करना कितना आवश्यक है। संतान, जीवनसाथी, मित्र, परिवार, परिचित सब पर लागू होती है यह आवश्यकता।  कार्यालय, व्यापार, सामाजिक जीवन में यदि  आप नेतृत्व कर रहे हैं तो अनेक बार दो-टूक निर्णय लेने की स्थिति बनती है। ऐसे में प्रशंसा-आलोचना से परे निर्णय लेकर उसे समयबद्ध क्रियान्वयन तक भी ले जाना होता है। तथापि इस प्रक्रिया में भी जो लोग असहमत हैं या भिन्न मत रखते हैं, उनके विचारों के लिए जगह छोड़ना आवश्यक है। सामासिकता कहती है कि दूसरों के विचार के लिए जितनी जगह छोड़ते जाओगे, उतना ही तुम्हारा स्पेस अपने आप बढ़ता जाएगा। है न ग़ज़ब का समीकरण! दूसरों को स्पेस दो तो घटने के बजाय बढ़ता है अपना स्पेस!

ऋग्वेद यूँ ही नहीं कहता, ‘सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम्!’ अर्थात मिलकर चलें, मिलकर बोलें। सांप्रतिक जीवन शैली में मिलकर चलना-बोलना न हो सके तब भी दूसरे के विचार के लिए स्थान छोड़कर अपौरूषेय के मार्ग का अवलंबन किया जा सकता है।..इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 106 ☆ नवगीत – बेला… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – बेला…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 106 ☆ 

☆ नवगीत – बेला… ☆

मगन मन महका

प्रणय के अंकुर उगे

फागुन लगे सावन.

पवन संग पल्लव उड़े

है कहाँ मनभावन?

खिलीं कलियाँ मुस्कुरा

भँवरे करें गायन-

सुमन सुरभित श्वेत

वेणी पहन मन चहका

मगन मन महका

अगिन सपने, निपट अपने

मोतिया गजरा.

चढ़ गया सिर, चीटियों से

लिपटकर निखरा

श्वेत-श्यामल गंग-जमुना

जल-लहर बिखरा.

लालिमामय उषा-संध्या

सँग ‘सलिल’ दहका.

मगन मन महका

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-६-२०१६

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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