श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 138 ☆
☆ कविता ☆ बेटी की अभिलाषा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
(सृष्टि का जब सृजन हुआ तो विधाता ने जीव जगत की रचना की तो मात्र नर और मादा के रूप में ही की थी। न जाने सृष्टिकर्ता की किस चूक का परिणाम है ये ट्रांसजेंडर (वृहन्नला अथवा किन्नर) जिन्हें आज भी समाज में इज्जत की रोटियां नसीब नहीं। लेकिन सिर्फ ये ही दुखी नहीं है मानव समाज के अत्याचारों से, बल्कि शक्ति स्वरूपा कही जाने वाली नारी समाज भी पीड़ित है समाज के पिछड़ी सोच से। यदि विधाता ने बीज रूप में सृष्टि संरचना के लिए नर का समाज बनाया। तो नारी के भीतर कोख की रचना की जिससे जन्म के पूर्व जीव जगत का हर प्राणी मां की कोख में ही पलता रहे, इसीलिए मां यदि जन्म दायिनी है तो पिता जनक है ।
नारी अर्द्धांगिनी है उसके बिना वंश परम्परा के निर्माण तथा निर्वहन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह बेटी, बहन, बहू, पत्नी तथा मां के रूप में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी तथा दायित्वों का निर्वहन करती है। आज बेटियां डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर अंतरिक्ष की ऊंचाईयां नाप रही है, लेकिन सच्चाई तो यह भी है कि आज भी प्राचीन रूढ़ियों के चलते उसका जीवन एक पहेली बन कर उलझ गया है, वह समझ नहीं पा रही है कि आखिर क्यों यह समाज उसका दुश्मन बन गया है। आज उसका जन्म लेना क्यों समाज के माथे पर कलंक का प्रश्नचिन्ह बन टंकित है। प्रस्तुत रचना में पौराणिक काल की घटनाओं के वर्णन का उल्लेख किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि नारी की विवशता का चित्रांकन करने के लिए किया गया है। ताकि मानव समाज इन समस्या पर सहानुभूति पूर्वक विचार कर सके। – सूबेदार पाण्डेय)
मैं बेबस लाचार हूं, मैं इस जग की नारी हूं।
सब लोगों ने मुझ पे जुल्म किये, मैं क़िस्मत की मारी हूं।
हमने जन्माया इस जग को, लोगों ने अत्याचार किया।
जब जी चाहा दिल से खेला, जब चाहा दुत्कार दिया।
क्यो प्यार की पूजा खातिर मानव, ताज महल बनवाता है।
जब भी नारी प्यार करे, तो जग बैरी हो जाता है।
जिसने अग्नि परीक्षा ली, वे गंभीर पुरूष ही थे।
जो जो मुझको जुए में हारे, वे सब महावीर ही थे।
अग्नि परीक्षा दी हमने, संतुष्ट उन्हें ना कर पाई।
क्यों चीर हरण का दृश्य देख कर, उन सबको शर्म नहीं आई।
अपनी लिप्सा की खातिर ही, बार बार मुझे त्रास दिया।
जब जी चाहा जूये में हारा, जब चाहा बनबास दिया।
क्यों कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर, नारी ही चढ़ाई जाती है।
कभी जहर पिलाई जाती है, कभी वन में पठाई जाती है।
मेरा अपराध बताओ लोगों, क्यों घर से मुझे निकाला था।
क्या अपराध किया था मैंने, क्यो हिस्से में विष प्याला था।
इस मानव का दोहरा चरित्र, मुझे कुछ भी समझ न आता है।
मैं नारी नहीं पहेली हूं, जीवन में गमों से नाता है ।
अब भी दहेज की बलि वेदी पर, मुझे चढ़ाया जाता है।
अग्नि में जलाया जाता है, फांसी पे झुलाया जाता है।
दुर्गा काली का रूप समझ, मेरा पांव पखारा जाता है।
फिर क्यो दहेज दानव के डर से, मुझे कोख में मारा जाता है ।
जब मैं दुर्गा मैं ही काली, मुझमें ही शक्ति बसती है।
फिर क्यो अबला का संबोधन दे, ये दुनिया हम पे हंसती है।
अब तक तो नर ही दुश्मन था, नारी भी उसी की राह चली।
ये बैरी हुआ जमाना अपना, ना ममता की छांव मिली।
सदियों से शोषित पीड़ित थी, पर आज समस्या बदतर है।
अब तो जीवन ही खतरे में, क्या बुरा कहें क्या बेहतर है।
मेरा अस्तित्व मिटा जग से, नर का जीवन नीरस होगा।
फिर कैसे वंश वृद्धि होगी, किस कोख में तू पैदा होगा।
मैं हाथ जोड़ विनती करती हूं, मुझको इस जग में आने दो।
मेरा वजूद मत खत्म करो, कुछ करके मुझे दिखाने दो।
यदि मैं आई इस दुनिया में, दो कुलों का मान बढ़ाऊंगी।
अपनी मेहनत प्रतिभा के बल पे, ऊंचा पद मैं पाऊंगी।
बेटी पत्नी मइया बन कर, जीवन भर साथ निभाउंगी।
करूंगी सेवा रात दिवस, बेटे का फर्ज निभाउंगी।
सबका जीवन सुखमय होगा, खुशियों के फूल खिलाऊंगी
सारे समाज की सेवा कर, मैं नाम अमर कर जाऊंगी।
मैं इस जग की बेटी हूं, बस मेरी यही कहानी है।
ये दिल है भावों से भरा हुआ, और आंखों में पानी है।
जब कर्मों के पथ चलती हूं, लिप्सा की आग से जलती हूं।
अपने जीवन की आहुति दे, मैं कुंदन बन के निखरती हूं।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266