हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #138 ☆ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 138 ☆

☆ ‌ कविता ☆ ‌बेटी की अभिलाषा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(सृष्टि का जब सृजन हुआ तो विधाता ने जीव जगत की रचना की तो मात्र नर और मादा के रूप में ही की थी। न जाने सृष्टिकर्ता की किस चूक का परिणाम है ये ट्रांसजेंडर (वृहन्नला अथवा किन्नर) जिन्हें आज भी समाज में इज्जत की रोटियां नसीब नहीं। लेकिन सिर्फ ये ही दुखी नहीं है मानव समाज के अत्याचारों से, बल्कि शक्ति स्वरूपा कही जाने वाली नारी समाज भी पीड़ित है समाज के पिछड़ी सोच से। यदि विधाता ने बीज रूप में सृष्टि संरचना के लिए नर का समाज बनाया।  तो नारी के  भीतर कोख की रचना की जिससे जन्म के पूर्व जीव जगत का हर प्राणी मां की कोख में ही पलता रहे, इसीलिए मां यदि जन्म दायिनी है तो पिता जनक है ।

नारी अर्द्धांगिनी है उसके बिना वंश परम्परा के निर्माण तथा निर्वहन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह बेटी, बहन, बहू, पत्नी तथा मां के रूप में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी तथा दायित्वों ‌का‌ निर्वहन ‌करती‌ है। आज बेटियां डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर अंतरिक्ष की ऊंचाईयां नाप रही है, लेकिन सच्चाई तो यह भी है कि आज भी प्राचीन रूढ़ियों के चलते उसका जीवन एक पहेली ‌बन कर उलझ गया‌ है, वह समझ नहीं पा रही‌ है कि आखिर क्यों यह समाज उसका दुश्मन ‌बन गया है। आज उसका‌ जन्म लेना क्यों समाज के माथे पर कलंक का प्रश्नचिन्ह बन टंकित है। प्रस्तुत  रचना  में पौराणिक काल की घटनाओं के वर्णन का उल्लेख किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि नारी की विवशता का चित्रांकन करने के लिए किया‌ गया‌ है। ताकि मानव समाज इन समस्या पर सहानुभूति पूर्वक विचार कर सके। –  सूबेदार पाण्डेय)

मैं बेबस लाचार हूं, मैं इस जग की नारी हूं।

सब लोगों ने मुझ पे जुल्म किये, मैं क़िस्मत की मारी हूं।

हमने जन्माया इस जग को‌, लोगों ने अत्याचार किया।

जब जी‌ चाहा‌ दिल से खेला, जब चाहा दुत्कार दिया।

क्यो प्यार की पूजा खातिर मानव, ताज महल बनवाता है।

जब भी नारी प्यार करे, तो जग बैरी हो जाता है।

जिसने अग्नि‌ परीक्षा ली, वे गंभीर ‌पुरूष ही थे।

जो जो मुझको जुए में हारे, वे सब महावीर ही थे।

अग्नि परीक्षा दी हमने, संतुष्ट उन्हें ना कर पाई।

क्यों चीर हरण का दृश्य देख कर, उन सबको शर्म नहीं आई।

अपनी लिप्सा की खातिर ही, बार बार मुझे त्रास दिया।

जब जी चाहा जूये में हारा, जब चाहा बनबास दिया।

क्यों कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर, नारी ही चढ़ाई जाती है।

कभी जहर पिलाई जाती है, कभी वन में पठाई‌ जाती है।

मेरा अपराध बताओ लोगों, क्यों घर से ‌मुझे निकाला था।

क्या अपराध किया था मैंने, क्यो हिस्से में विष प्याला था।

इस मानव का दोहरा चरित्र, मुझे कुछ  भी समझ न आता है।

मैं नारी नहीं पहेली हूं, जीवन में गमों से नाता है ।

अब भी दहेज की बलि वेदी पर, मुझे चढ़ाया जाता है।

अग्नि में जलाया जाता है, फांसी पे झुलाया जाता है।

दुर्गा काली का रूप समझ, मेरा पांव पखारा जाता है।

फिर क्यो दहेज दानव के डर से, मुझे कोख में मारा जाता है ।

जब मैं दुर्गा मैं ही काली, मुझमें ही शक्ति बसती है।

फिर क्यो अबला का संबोधन दे, ये दुनिया हम पे हंसती है।

अब तक तो नर ही दुश्मन था, नारी‌ भी उसी की राह चली।

ये बैरी हुआ जमाना अपना, ना ममता की छांव मिली।

सदियों से शोषित पीड़ित थी, पर आज समस्या बदतर है।

अब तो जीवन ही खतरे में, क्या‌ बुरा कहें क्या बेहतर है।

मेरा अस्तित्व मिटा जग से, नर का जीवन नीरस होगा।

फिर कैसे वंश वृद्धि होगी, किस‌ कोख में तू पैदा होगा।

मैं हाथ जोड़ विनती करती हूं, मुझको इस जग में आने दो।

 मेरा वजूद मत खत्म करो, कुछ करके मुझे दिखाने दो।

यदि मैं आई इस दुनिया में, दो कुलों का मान बढ़ाऊंगी।

अपनी मेहनत प्रतिभा के बल पे, ऊंचा पद मैं पाऊंगी।

बेटी पत्नी मइया बन कर, जीवन भर साथ निभाउंगी।

करूंगी सेवा रात दिवस, बेटे का फर्ज निभाउंगी।

सबका जीवन सुखमय होगा, खुशियों के फूल खिलाऊंगी

सारे समाज की सेवा कर, मैं नाम अमर कर जाऊंगी।

मैं इस जग की बेटी हूं, बस मेरी यही कहानी है।

ये दिल है भावों से भरा हुआ, और आंखों में पानी है।

जब कर्मों के पथ चलती हूं, लिप्सा की आग से जलती हूं।

अपने ‌जीवन की आहुति दे, मैं कुंदन बन के निखरती हूं।

 © सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ वलयांकित गोल गोल तरंग ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? वलयांकित गोल गोल तरंग ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆ 

सुंदर नजारा श्रावणातला

हिरवाईने डोंगर नटला,

चादर धुक्याची पायथ्याची

मोहित करी मम मनाला !

निळ्याशार तळ्यात उठती

वलयांकित गोल गोल तरंग,

उभे राहून काठावर निरखती

उंच कल्पवृक्ष आपुले अंग !

छायाचित्र  – प्रकाश चितळे, ठाणे.

© प्रमोद वामन वर्तक

१२-०८-२०२२

ठाणे.

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #154 – ग़ज़ल-40 – “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…”)

? ग़ज़ल # 40 – “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सरेशाम से सुहानी ख़ुशबू आने लगती है

उन्हें ज़िंदगी की हर चीज़ भाने लगती है,

 

जिसे कमाने बचपन ओ जवानी खपी है,

बूढ़ी देह इसीलिए सबको भाने लगती है।

 

चिकनी खोपड़ी पर बचा नहीं एक भी बाल,

नई कंघी बरबस सिर पर आने लगती है।

 

मधुमेह है तो क्या एक गोली और ले लेंगे,

चाशनी में तर गरम जलेबी आने लगती है।

 

सुबह सैर की सख़्त हिदायत देते हैं डॉक्टर,

कमबख़्त नींद तो मगर तभी आने लगती है।

 

दोस्तों के साथ गप्पों का मज़ा अल्हदा है,

गुज़रे ज़माने की यादें ख़ूब मायने लगती है।

 

भूलने लगे थे जवाँ जिस्म के सभी पहाड़े,

तब कायनात फिरसे याद दिलाने लगती है।

 

ख़स्ता हाल हो चुके देह के सभी कल पुर्ज़े,

आशिक़ के सामने माशूका शरमाने लगती है।

 

अब तो तौबा कर लो मयकशी से ए आदम,

साक़ी मगर ज़ाम के फ़ायदे गिनाने लगती है।

 

जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी गुज़र जायेगी,

क़ज़ा की आहट “आतिश” को सताने लगती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 31 ☆ मुक्तक ।। जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 31 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

जिन्दगी   रोज़  थोड़ी  सी  व्यतीत  हो   रही  है।

कुछ    जिन्दगी   रोज़   अतीत    हो   रही   है।।

जिन्दगी   जीते  नहीं  हमें   जैसी  जीनी  चाहिये।

कल  आएगी मौत सुनकर भयभीत हो रही है।।

[2]

कांटों   से  करो  दोस्ती  गमों से भी याराना कर लो।

हँसने   बोलने   को    कुछ  तुम  बहाना   कर  लो।।

मायूसी   मान  लो    रास्ता  इक   जिंदा  मौत  का।

हर बात नहीं दिल पर मिज़ाज़ शायराना करलो।।

[3]

जिंदगी जीनी चाहिये कुछ अंदाज़ कुछ नज़रंदाज़ से।

हवा चल रही उल्टी फिर भी खुशनुमा  मिज़ाज़ से।।

मिलती नहीं खुशी बाजार  से किसी  मोल  भाव में।

बस खुश होकर ही  जियो  तुम हर एक लिहाज से।।

[4]

सुख  से  जीना  तो  उलझनों को तुम सहेली बना  लो।

मत     छोटी   बड़ी  बात  को   तुम   पहेली  बना   लो।।

समझो    जिन्दगी    के   हर   बात  और   जज्बात  को।

नाचेगी इशारों पर तुम्हारे जिंदगी अपनी चेली बना लो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 96 ☆ ’’नारी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “नारी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 97 ☆ नारी” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

 

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ “प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी”

 

परिवार की है प्रेरणा, जीवन का उत्स है

है प्रीति की प्रतिमूर्ति सहन शक्ति है नारी

 

ममता है माँ की साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

 

कोमल है फूल सी, कड़ी चट्टान सी भी है

आवेश, स्नेह, भावना, अनुरक्ति है नारी

 

सहधर्मिणी, सहकर्मिणी सहगामिनी भी है

है कामना भी, कामिनी भी, स्वामिनी भी है

 

संस्कृति का है आधार, हृदय की पुकार है

सावन की सी फुहार है, आसक्ति है नारी

 

नारी से ही संसार ये, संसार बना है

जीवन में रस औ” रंग का आधार बना है

 

नारी है धरा, चाँदनी अभिसार प्यार भी

पर वस्तु नही एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 104 – शरण ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #104 🌻 शरण 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर…रात को जोरों की वर्षा हो रही थी. सज्जन था, छोटी सी झोपड़ी थी. स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे. आधीरात किसी ने द्वार पर दस्तक दी।

उन सज्जन ने अपनी पत्नी से कहा – उठ! द्वार खोल दे. पत्नी द्वार के करीब सो रही थी. पत्नी ने कहा – इस आधी रात में जगह कहाँ है? कोई अगर शरण माँगेगा तो तुम मना न कर सकोगे?

वर्षा जोर की हो रही है. कोई शरण माँगने के लिए ही द्वार आया होगा न! जगह कहाँ है? उस सज्जन ने कहा – जगह? दो के सोने के लायक तो काफी है, तीन के बैठने के लायक काफी हो जाएगी. तू दरवाजा खोल!

लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है. दरवाजा खोला. कोई शरण ही माँग रहा था. भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी. वह अंदर आ गया. तीनों बैठकर गपशप करने लगे. सोने लायक तो जगह न थी.

थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी. फिर गरीब आदमी ने अपनी पत्नी से कहा – खोल ! पत्नी ने कहा – अब करोगे क्या? जगह कहाँ है? अगर किसी ने शरण माँगी तो?

उस सज्जन ने कहा – अभी बैठने लायक जगह है फिर खड़े रहेंगे. मगर दरवाजा खोल! जरूर कोई मजबूर है. फिर दरवाजा खोला. वह अजनबी भी आ गया. अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे. इतना छोटा झोपड़ा! और खड़े हुए चार लोग!

और तब अंततः एक कुत्ते ने आकर जोर से आवाज की. दरवाजे को हिलाया. गरीब आदमी ने कहा – दरवाजा खोलो. पत्नी ने दरवाजा खोलकर झाँका और कहा – अब तुम पागल हुए हो!

यह कुत्ता है. आदमी भी नहीं! सज्जन बोले – हमने पहले भी आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने हृदय के कारण खोला था!! हमारे लिए कुत्ते और आदमी में क्या फर्क?

हमने मदद के लिए दरवाजा खोला था. उसने भी आवाज दी है. उसने भी द्वार हिलाया है. उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब हमें अपना काम करना है. दरवाजा खोलो!

उनकी पत्नी ने कहा – अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है! उसने कहा – अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर थोड़े सटकर खड़े होंगे. और एक बात याद रख! यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो!

यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है!! जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती, जगह दिलों में होती है!

अक्सर आप पाएँगे कि गरीब कभी कंजूस नहीं होता! उसका दिल बहुत बड़ा होता है!!

कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं. पकड़े तो पकड़े क्या? जैसे जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे कंजूस होने लगता है, उसमें मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है .

जरूरतमंद को अपनी क्षमता अनुसार शरण दीजिए. दिल बड़ा रखकर अपने दिल में औरों के लिए जगह जरूर रखिये.

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 117 – बाळ गीत – सुंदर माझी शाळा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 117 – बाळ गीत – सुंदर माझी शाळा

सुंदर माझी शाळा, लाविते लळा ।

वाजवूनी घंटा ही खुणावते बाळा ।।धृ।।

 

मोठ्या या मैदानी जमले ताई भाऊ।

खूप खूप नाचू आणि गाणी गाऊ ।

नियमित या सारे नको कानाडोळा ।।१।।

 

मधोमध फुले कशी छान फुलबाग।

फुलपाखरां मागे मुलांची ही रांग ।

फुला भोवती होती मुले सारी गोळा ।।२।।

 

ताईनेही आता सोडून दिली छडी।

म्हणतच नाही घाला हाताची घडी।

खूप खूप खेळणी वाटेल ते खेळा ।।३।।

 

जवळ घेत मला बोले लाडेलाडे ।

म्हणत नाहीत नुसते पाठ करा पाढे।

बिया मणी खडे केले आम्ही गोळा ।।४।।

 

अकं अक्षर गाडी जोरदार पळते ।

चित्राची गोष्ट कशी झटपट कळते।

शब्द डोंगराकडे आता थोडे वळा ।।५।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – किती दिवस श्रावण आहे? – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – किती दिवस श्रावण आहे?   ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

श्रावण  महिना संपायला

का लागतोय उशिर

किती दिवस राहीलेत बघतो

मनपसंत  खायला उंदीर

सुरवाती बर वाटल

 जिभेने लपलप दुध प्यायला

कधी कधी चपातीही मिळे

 कुसकरून  मस्त  खायला

पण आता नको वाटत तेच

तोंडाचीच गेलीय चव

किती दिवस श्रावण  आहे

म्हटल कॅलेंडर तरी पहाव

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #147 ☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम संवेदनाएं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 147 ☆

☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं

सांसों की नमी ज़रूरी है, हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो/ तो हाथों से फिसल जाती है। प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं; अगर देने लग जाओ/ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं–जैसे जीने के लिए एहसासों की ज़रूरत है; संवेदनाओं की दरक़ार है। वे जीवन का आधार हैं, जो पारस्परिक प्रेम को बढ़ाती हैं; एक-दूसरे के क़रीब लाती हैं और उसका मूलाधार हैं एहसास। स्वयं को उसी सांचे में ढालकर दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करना ही साधारणीकरण कहलाता है। जब आप दूसरों के भावों की उसी रूप में अनुभूति करते हैं; दु:ख में आंसू बहाते हैं तो वह विरेचन कहलाता है। सो! जब तक एहसास ज़िंदा हैं, तब तक आप भी ज़िंदा मनुष्य हैं और उनके मरने के पश्चात् आप भी निर्जीव वस्तु की भांति हो जाते हैं।

सो! रिश्तों में एहसासों की नमी ज़रूरी है, वरना रिश्ते सूखी रेत की भांति मुट्ठी से दरक़ जाते हैं। उन्हें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक है– सबके प्रति प्रेम की भावना रखना; उन्हें सम्मान देना व उनके अस्तित्व को स्वीकारना…यह प्रेम की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में जब आप अहं का त्याग कर देते हैं, तभी आप प्रतिपक्ष को सम्मान देने में समर्थ होते हैं। प्रेम के सम्मुख तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। रिश्ते-नाते विश्वास पर क़ायम रह सकते हैं, अन्यथा वे पल-भर में दरक़ जाते हैं। विश्वास का अर्थ है, संशय, शंका, संदेह व अविश्वास का अभाव–हृदय में इन भावों का पदार्पण होते ही शाश्वत् संबंध भी तत्क्षण दरक़ जाते हैं, क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं। ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। भरोसा जहाँ ज़िंदगी की सबसे महंगी शर्त है, वहीं त्याग व समर्पण का मूल आधार है। जब हमारे अंतर्मन से प्रतिदान का भाव लुप्त हो जाता है; संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। इसलिए जीवन में देना सीखें। यदि कोई आपका दिल दु:खाता है, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि लोग उसी पेड़ पर पत्थर मारते हैं, जिस पर मीठे फल लगते हैं। सो! रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं। इसलिए अपनों से कभी मत ग़िला-शिक़वा मत कीजिए।

‘जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए।’ हर पल, हर दिन प्रसन्न रहें और जीवन से प्यार करें; यह जीवन में शांत रहने के दो मार्ग हैं। जैन धर्म में भी क्षमापर्व मनाया जाता है। क्षमा मानव की अद्भुत् व अनमोल निधि है। क्रोध करने से सबसे अधिक हानि क्रोध करने वाले की होती है, क्योंकि दूसरा पक्ष इस तथ्य से बेखबर होता है। रहीम जी ने भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ के माध्यम से यह संदेश दिया है। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। इसे कभी मुरझाने मत दें। इसलिए कहा जाता है कि वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें। स्नेह का धागा व संवाद की सूई उधड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं। सो! संवाद बनाए रखें, अन्यथा आप आत्मकेंद्रित होकर रह जाएंगे। सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाएंगे– एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर। ‘सोचा ना था, ज़िंदगी में ऐसे फ़साने होंगे/ रोना भी ज़रूरी होगा, आंसू भी छुपाने होंगे’ अर्थात् अजनबीपन का एहसास जीवन में इस क़दर रच-बस जाएगा और आप उस व्यूह से चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाएंगे।

आज का युग कलयुग अर्थात् मशीनी युग नहीं, मतलबी युग है। जब तक आप दूसरे के मन की करते हैं; तो अच्छे हैं। एक बार यदि आपने अपने मन की कर ली, तो सभी अच्छाइयां बुराइयों में तबदील हो जाती हैं। इसलिए विचारों की खूबसूरती जहां से मिले; चुरा लें, क्योंकि चेहरे की खूबसूरती तो समय के साथ बदल जाती है; मगर विचारों की खूबसूरती दिलों में हमेशा अमर रहती है। ज़िंदगी आईने की तरह है, वह तभी मुस्कराएगी, जब आप मुस्कराएंगे। सो! रिश्ते बनाए रखने में सबसे अधिक तक़लीफ यूं आती है कि हम आधा सुनते हैं; चौथाई समझते हैं; बीच-बीच में बोलते रहते हैं और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। सो! उससे रिश्ते आहत होते हैं। यदि आप रिश्तों को लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं, तो जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार लें, क्योंकि उपेक्षा, अपेक्षा और इच्छा सब दु:खों की जननी हैं और वे दोनों स्थितियां ही भयावह होती हैं। मानव को इनके चंगुल से बचकर रहना चाहिए। हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए और साहस व धैर्य का दामन थामे आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहां कोशिशों का क़द बड़ा होता है; उनके सामने नसीबों को भी झुकना पड़ता है। ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।’ आप निरंतर कर्मरत रहिए, आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। रिश्तों को बचाने के लिए एहसासों को ज़िंदा रखिए, ताकि आपका मान-सम्मान बना रहे और आप स्व-पर व राग-द्वेष से सदा ऊपर उठ सकें। संवेदना ऐसा अस्त्र है, जिससे आप दूसरों के हृदय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और उसके घर के सामने नहीं; उसके घर अथवा दिल में जगह बना सकते हैं। संवेदना के रहने पर संबंध शाश्वत बने रह सकते हैं। रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिए। परंतु जहां सम्मान न हो; जोड़ने भी नहीं चाहिएं। आज के रिश्तों की परिभाषा यह है कि ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध व रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ सचमुच यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

16.7.22.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #147 ☆ भावना के मुक्तक… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के मुक्तक।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 147 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक… 

शहीदों ने जो फरमाया वतन के काम आया है।

लहू का तेरे कतरा तो यही पैगाम लाया है।

किए है प्राण निछावर देश की खातिर हमने तो।

हर घर में तिरंगा आज तो फिर से लहराया है।।

🇮🇳

वतन के काम आया है लहू का तेरे कतरा  तो

शहीदों की शहादत में लिखा है नाम  तेरा   तो

तुम्हें शत शत नमन मेरे वतन के हो चमन तो तुम

तेरा सम्मान करते है करे  एलान तेरा तो।।।।

🇮🇳

वतन की याद आती है हमारा मन नहीं लगता।

हरा भरा है ये जीवन हमें सावन नहीं लगता।

वतन के वास्ते तुमने किया अपने को ही अर्पण।

तुम्हारे बिन ये जीवन तो हमें उपवन नहीं लगता।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

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