मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 153 ☆ पसारे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 153 ?

☆ पसारे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(वृत्त- भुजंगप्रयात)

कसे सांग हे सावरावे पसारे

किती काळ मी वागवावे पसारे

 

कशा स्वच्छ होतील सांदीफटीही

कळेना कसे घालवावे पसारे

 

इथे अंगवळणी पडावे कसे हे

जुने जाणते हाकलावे पसारे?

 

दिवाळीत जातात माळ्यावरी अन

पुन्हा वाटते साठवावे पसारे

 

असे वेंधळेपण सदासर्वदाही

कुणी का असे लांबवावे पसारे

 

मनाला मुभा मुक्त संचारण्याची

कुठेही कुणी पांघरावे पसारे

 

कुणा शल्य सांगू जिवीच्या जिवाचे

प्रभा वाटते आवरावे पसारे

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 54 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ मनोज साहित्य # 54 – मनोज के दोहे….  

1 नेकी

नेकी खड़ी उदास है, लालच का बाजार ।

मूरत मानवता बनी, दिखती है लाचार ।।

2 परिधान

बैठ गया यजमान जब, पहन नए परिधान।

देख रहा ईश्वर उसे, मन में है अभिमान।।

3 अनाथ

देखो किसी अनाथ को, उसका दे दो साथ।

अगर सहारा मिल गया, होगा नहीं अनाथ।।

4 सौजन्य

मित्र सभी सौजन्य से, मिलते हैं हर बार।

दुश्मन खड़ा निहारता, मन में पाले खार।।

5 सरपंच

गाँवों के सरपंच ने, दिया सभी को ज्ञान।

फसलों की रक्षा करें, प्राण यही भगवान।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

24-9-2022

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – जश्ने आज़ादी – भाग -6 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – जश्ने आज़ादी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज पंद्रह अगस्त तो है, नहीं आप कहेेंगे तो स्वतंत्रता दिवस के मानने की बात क्यों हो रही हैं?

चार जुलाई को  अमेरिका  भी स्वतंत्र हुआ था, इसलिए विगत कुछ दिनों से यहां उल्लास और आनंद का माहौल बना हुआ है।

हमारे देश के झंडे को हम तिरंगा कह कर भी संबोधित करते हैं, उसी प्रकार से अमेरिका के झंडे में भी तीन रंग लाल, नीला और सफेद रंग होते हैं।हमारे देश के साथ इनकी एक और समानता है,इनके देश पर भी ब्रिटिश कॉलोनी का साम्राज्य था।हमारा देश इस वर्ष स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है,लेकिन इनकी आज़ादी तो करीब अढ़ाई सौ वर्ष पुरानी हैं। 

चार जुलाई को तो पूरे देश में अवकाश रहता है,इसके अलावा कुछ संस्थानों ने एक जुलाई को भी अवकाश घोषित किया हुआ था, दो और तीन जुलाई क्रमशः शनि और रविवार के अवकाश थे।कुल मिलाकर यहां की भाषा में ” long weekend” है। प्रतिवर्ष इस मौके पर तीन से चार दिन का अवकाश हो ही जाता हैं। क्रिसमस/ नव वर्ष  अवकाश के बाद स्वतंत्रता दिवस के समय ही ऐसे मौके आते हैं। हमारे देश में तो विभिन्न संप्रदायों/ संस्कृतियों के नाम से अनेक त्यौहार मनाए जाते है, जो विरले देश में ही होते होंगें।                       

बाजारवाद यहां भी मौके को भुनाने से नहीं चूकता,मन लुभावन छूट, दो खरीदने के साथ एक मुफ्त इत्यादि से बिक्री को बढ़ावा दिया जाता हैं।लंबे अवकाश का भरपूर मज़ा लेने के लिए यहां के लोग दूर दराज क्षेत्रों में भ्रमण या परिवार / मित्रों को मिलने के लिए उपयोग करते हैं।हवाई यात्रा,होटल इत्यादि में भी अग्रिम बुकिंग हो जाती है।मौसम भी खुशनुमा होता है,जिसका पूर्ण रूप से आनंद लेकर यहां के निवासी अपने आप को रिचार्ज कर लेते हैं।     यहां पर भी कुछ स्थानों पर पटाखे/ आतिशबाजी के सार्वजनिक आयोजन किए जाते हैं।निजी तौर से पठाखे चलाने पर प्रतिबंधित हैं, लेकिन अपनी पिस्टल/ बंदूक से आप जब चाहे लोगों को भून सकते हैं।किसी विशेष दिन/ आयोजन की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 140 – महाकाली का रंँग ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक स्त्री विमर्श पर आधारित भावपूर्ण लघुकथा “महाकाली का रंँग ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 140 ☆

 🔥लघु कथा – महाकाली का रंँग 🔥

कॉलेज कैंपस में गरबे का आयोजन था। नव दुर्गा का रुप बनाने के लिए कॉलेज गर्ल का चुनाव होना आरंभ हुआ। सभी की निगाह महाकाली के रोल के लिए वसुधा की ओर उठ चली।

वसुधा का रंग सामान्य लड़कियों के रंग से थोड़ा ज्यादा गहरा लगभग काले रंग का थी । रंग को लेकर सदा उसे ताने सुनने पड़ते थे। यहां तक कि घर परिवार के लोग भी कहने लगे थे… कि तुम तो इतनी काली हो तुमसे शादी कौन करेगा?

वसुधा का मन हुआ इस रोल के लिए वह मना कर दे, परंतु अपनी भावना को साथ लिए वह तैयार हो गई। परफॉर्मेंस स्टेज पर हो रहा था। दैत्य को मारने के सीन के साथ ही साथ वसुधा ने दैत्य के सिर को हाथ में लेकर अपना डायलॉग बोलना आरंभ किया…. आप सब जान ले काले गोरे रंग का भेद उसकी अपनी उपज नहीं होती। बच्चों का कोई कसूर नहीं होता। देखिए ब्लड का रंग एक ही होता है। कहते-कहते वह भाव विभोर हो नृत्य करने लगी।

उसके इस भयानक रुप को देख सभी आश्चर्य में थें कि कुछ न करने वाली लड़की अचानक इतना तेज डान्स करने लगी हैं।

तभी कालेज का खूबसूरत छात्र पुष्पों की माला लिए स्टेज पर आया। महाकाली के गले में पहना उसके चरणों पर लेट गया।

तालियों की गड़गड़ाहट से कैंपस गूंज उठा। सीने पर पांव रखते ही वसुधा की जिव्हा बाहर निकल आई…. अरे यह तो वही निखिल है!!! जिसे वह मन ही मन बहुत प्रेम करती है।

माँ काली का रुप प्रेम वशीभूत बिजली की तरह चमकने लगी वसुधा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #159 ☆ वळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 159 ?

☆ वळ… ☆

शब्दांच्या फटक्याने

भावनेच्या पाठीवर उमटलेले वळ

तू कोर्टात कसे सिद्ध करणार ?

त्यांनं तुला दिलेल्या वेदना

हे कोर्ट मान्य करू शकत नाही

डोळ्यावर पट्टी बांधलेल्या न्यायदेवतेला

लागतात कागदी पुरावे,

काळजावरच्या जखमा

कोर्ट कधीच ग्राह्य धरत नाही

आणि काळजावरील

शब्दांचे वार टिपणारा कॕमेरा

अजून तरी अस्तित्वात आलेला नाही

मग कसा सादर करणार पुरावा

आणि कशी होणार त्याला शिक्षा

केस मागं घे म्हणणाऱ्यांना शरण जाणं

किंवा

पुराव्याअभावी

होणारी हार स्विकारणं

या शिवाय दुसरा पर्याय नाही

जर त्याला तुला शिक्षाच द्यायची असेल

तर स्वतःला सक्षम करून

त्याच्याशी कुठेही दोन हात करण्याची ताकद

तुला निर्माण करावी लागेल…

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 109 – सुमित्र के दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके सुमित्र के दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 109 – सुमित्र के दोहे  ✍

*

ब्रह्म तुम ही हो नियंता, तुम ही हो मन-मारीच ।

धनुष-मुरलिका साँस की, तुम्हीं रहे हो खींच।।

*

शंकर, तुलसी, सूर में, करते शब्द निनाद ।

मीरा के नुपुरों में, करते हो संवाद ।।

*

ओ! लीलामय सुदर्शन, गोकुल मुक्ति धाम ।

मेरे मन में आ बसो, ओ! मीरा के श्याम।।

*

मीरा गिरधर प्रिया का, भक्त करें गुणगान।

 मीरा की समता नहीं, अद्वितीय प्रतिमान।।

*

मीरा का सुमिरन करूँ, ध्याऊँ श्याम सुजान ।

वर्णन क्षमता दीजिए, वाणी का वरदान।।

*

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 111 – “सुनकर साक्ष्य – दलीलें……” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –सुनकर साक्ष्य – दलीलें।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 111 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “सुनकर साक्ष्य – दलीलें” || ☆

निकल गई विधवा की,

अपनी माँ जैसी धरती

पड़ी हुई थी यों बरसों

से बेशक वह परती

 

जमी हुई थीं कई दबंगों

की उस पर आँखें

और कतरने को आतुर

थे दुखिया की पाँखे

 

जो अपनी उधेड़बुन में

जर्जर कर के काया

सूख रही थी, करती वह

तो आखिर क्या करती

 

पटवारी भी तुरत  कोर्ट

में हलफ उठायेगा

तब सच झूठी शहादतों

में बदला जायेगा

 

धीरे  गीता अलमारी

में रख   दीजायेगी

इतना दुख अपनी छाती में

कैसे क्या धरती

 

हाकिम थका थका सुनता है

बेमन जिरह जहाँ

जो सच्चाई और झूठ का

निर्णय करे वहाँ

 

सुनकर साक्ष्य – दलीलें

विधवा वंचित ही होगी

न्याय तराजू खडी हाशिये

पर घूरा करती

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

08-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 101 ☆ # इस सावन में, तुम क्यों नहीं आये ?… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “#इस सावन में, तुम क्यों नहीं आये ?…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 101 ☆

☆ # इस सावन में, तुम क्यों नहीं आये ?… # ☆ 

( सावन में बिछड़े प्रेमी युगल की प्रणय गाथा है)

यह सावन भी बीत गया

बादल बरस कर रीत गया          

आंखों में आंसू भर आये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

कली- कली यह पूछ रही है

एक पहेली बूझ रही है

जो तितली बन लहराती थी

इस बगिया में छा जाती थी

कितने लुभावने रंग थे उसके

कितने दिलकश ढंग थे उसके

वो बगिया की रानी थी

हर शै उसकी दीवानी थी

सब पर निराशा है छाई

वो सावन में क्यों नहीं आई

हम किस किस को समझाये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

यूं ही सावन में मिली थी तुम

शुभ्र वस्त्र में ढली थी तुम

मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रही थी

मेरे दिल की धड़कन बढ़ रही थी

हाथों में था पूजा का थाल

उड़ रहे थे मखमली बाल

नाज़ुक उंगलियों से जब घंटी बजाई

मंदिर में मदहोशी सी छाई

तुमने जोड़े शिव जी को जब हाथ

मैंने मांगा था बस तुम्हारा साथ

हमने मिलकर थे फूल चढ़ाये

फिर इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

फिर दिन-रात एक हो गए

हम एक दूजे में खो गए

मंद मंद बहे पुरवाई

जैसे पिया मिलन की रुत आई

केवड़े के बन में हो नागिन भटकी

मदमस्त हो तुम मुझसे लिपटी

टूट गये फिर सारे बंधन

मिट्टी बन गई जैसे चन्दन

सागर में कितनी लहरें उठीं

वो साहिल से टकराकर टूटी

हमने धरती पर ही था स्वर्ग बसाये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

जब आंख खुली और तंद्रा टूटी

सारी दुनिया हमसे थी रूठी

अपने हो गये थे सब पराए

दिल की बात किसे बताए

आंख में आंसू थे हर पल

भोग रहे थे दुनिया का छल

हम दोनों के बीच उठ गई दीवारें

रूढ़िवादी लोगों ने खींची तलवारें

इस जुदाई को हम दोनों ने सहा था

सावन में मिलूंगी तुमने कहा था

फिर तुमने क्यों ना वादे निभाये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ? /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 101 ☆ हे विश्वची माझे घर… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 101 ? 

☆ हे विश्वची माझे घर… ☆

हे विश्वची माझे घर

सुबुद्धी ऐसी यावी 

मनाची बांधिलकी जपावी.. १

 

हे विश्वची माझे घर

औदार्य दाखवावे 

शुद्ध कर्म आचरावे.. २

 

हे विश्वची माझे घर

जातपात नष्ट व्हावी 

नदी सागरा जैसी मिळावी.. ३

 

हे विश्वची माझे घर

थोरांचा विचार आचरावा 

मनाचा व्यास वाढवावा.. ४

 

हे विश्वची माझे घर

गुण्यगोविंदाने रहावे 

प्रेम द्यावे, प्रेम घ्यावे.. ५

 

हे विश्वची माझे घर

नारे देणे खूप झाले 

आपले परके का झाले.. ६

 

हे विश्वची माझे घर

वसा घ्या संतांचा 

त्यांच्या शुद्ध विचारांचा.. ७

 

हे विश्वची माझे घर

सोहळा साजरा करावा 

दिस एक, मोकळा श्वास घ्यावा.. ८

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३८ परिव्राजक १६. बेळगांव ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३८ परिव्राजक १६. बेळगांव ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजी १६ ते २७ऑक्टोबर १८९२ मध्ये बेळगांवमुक्कामी आले. महाराष्ट् म्हणजे तेव्हाचा मुंबई प्रांत ! तेव्हा बेळगांव मुंबई प्रांतात होते. कोल्हापूरहून भाटे यांचे नावाने गोळवलकर यांनी परिचय पत्र दिलं होतंच.  श्री. सदाशिवराव भाटे वकिलांकडे स्वामीजींचं अत्यंत अगत्यपूर्वक स्वागत झालं. त्यांना पाहताक्षणीच हा नेहमीप्रमाणे एक सामान्य संन्यासी आहे अशी समजूत इथेही झाली असली तरी त्यांचं काहीतरी वेगळेपण आहे हे ही त्यांना जाणवत होतंच. भाटे कुटुंबीय आणि बेळगावातले इतर लोक यांना कधी वाटलं नव्हतं की काही दिवसांनी ही व्यक्ती जगप्रसिद्ध होईल. बेळगावचे हे श्री भाटे वकिल यांचे घर म्हणजे विदुषी रोहिणी ताई भाटे यांच्या वडिलांचे घर होय.

मराठी येत नसल्यामुळे भाटे कुटुंबीय स्वामीजींशी इंग्रजीतच संवाद साधत. त्यांच्या काही सवयी भाटेंना वेगळ्याच वाटल्या म्हणजे खटकल्या. पहिल्याच दिवशी स्वामीजींनी जेवणानंतर मुखशुद्धी म्हणून विडा मागितला. त्याबरोबर थोडी तंबाखू असेल तरी चालेल म्हणाले. संन्याशाची पानसुपारी खाण्याची सवय पाहून भाटेंकडील मंडळी अचंबित झाली. आणखी एक प्रश्न भाटे यांना सतावत होता तो म्हणजे, स्वामीजी शाकाहारी आहेत मांसाहारी? शेवटी न राहवून त्यांनी स्वामीजींना विचारलंच की आपण संन्यासी असून मुखशुद्धी कशी काय चालते? स्वामीजी मोकळेपणाने म्हणाले, “मी कलकत्ता विद्यापीठाचा पदवीधर आहे. माझे गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस यांच्यामुळे माझे जीवन जरी संपूर्ण बदलले असले तरी, त्याधीचे माझे आयुष्य मजेत राहणार्‍या चारचौघा तरुणांप्रमाणेच गेले आहे. संन्यास घेतल्यावर इतर सर्व गोष्टी सोडल्या असल्या तरी या एक दोन सवयी राहिल्या आहेत. पण त्या फारशा गंभीर स्वरुपाच्या नाहीत. म्हणून राहू दिल्या आहेत. पण आपोआपच सुटतील”. आणि शाकाहारीचं उत्तर पण भाटेंना मिळालं. “ आम्ही परमहंस वर्गातील संन्यासी. जे समोर येईल त्याचा स्वीकार करायचा. काहीही मिळालं नाही तर उपाशी राहायचं”.

खरच असं व्रत पाळणं ही कठीण गोष्ट होती. मनाचा निश्चय इथे दिसतो. स्वामीजी सलग पाच दिवस अन्नावाचून उपाशी राहण्याच्या प्रसंगातून गेले होते. भुकेमुळे एकदा चक्कर येऊन पडलेही होते. तर कधी राजेरजवाडे यांच्या उत्तम व्यवस्थेत सुद्धा राहिले होते. पण त्यांना कशाचाही मोह झाला नव्हता हे अनेक प्रसंगातून आपल्याला दिसलं आहे. जातीपातीच्या निर्बंधाबद्दल ही शंका विचारली तेंव्हा, आपण मुसलमानांच्या घरीही राहिलो आहोत आणि त्यांच्याकडे जेवलोही आहोत असे सांगितल्यावर, हे संन्यासी एका वेगळ्या कोटीतले आहेत हे समजायला वेळ लागला नाही.

आज लॉकडाउनच्या  काळात दारूची दुकाने उघडली तर परमोच्च आनंद झाला लोकांना. जणू उपाशी होते ते. १०ला उघडणार्‍या दुकानांसमोर सकाळी सातपासूनच उभे होते लोक ! दुकानांसमोर दारू घ्यायला रांगाच रांगा लागल्या होत्या. यात स्त्रिया सुद्धा मागे नव्हत्या. खांद्याला खांदा देऊन लढत होत्या !  हे दृश्य पाहिल्यावर स्वामी विवेकानंदांच्या शिकवणुकीची किती आवश्यकता आहे हे जाणवून मन खिन्न होते. 

एकदा भाटेंचा मुलगा संस्कृत भाषेचा अभ्यास करताना पाणीनीच्या अष्टाध्यायीतील सूत्र म्हणत होता. त्यातल्या चुका स्वामीजींनी दुरुस्त करून सांगितल्या तेव्हा या अवघड विषयाचे ज्ञान असणे ही सामान्य गोष्ट नाही असे भाटे यांना वाटले. एक दिवस काही परिचित व्यक्तींना एकत्र करून त्यांनी स्वामीजींबरोबर संभाषण घडवून आणले. त्यात एक इंजिनियर होते. ‘धर्म हे केवळ थोतांड आहे, शेकडो वर्षांच्या रूढी चालीरीती यांच्या बळावर समाजमनावर त्याचे प्रभूत्त्व टिकून राहिले आहे किंबहुना लोक केवळ एक सवय म्हणून धार्मिक आचार पाळत असतात’, असं त्यांचं मत होतं. पण स्वामीजींनी बोलणे सुरू केल्यावर त्यांना ह्या युक्तिवादाला तोंड देणं अवघड जाऊ लागलं. आणि अखेर शिष्टाचाराच्या मर्यादेचा  भंग झाल्यावर भाटेंनी त्यांना (म्हणजे एंजिनियर साहेबांना) थांबवलं. पण स्वामीजींनी अतिशय शांतपणे परामर्श घेतला. ते प्रक्षुब्ध झाले नाहीत. कोणाच्याही वेड्यावाकड्या बोलण्याने सुद्धा स्वामीजी अविचल राहिले होते. याचा उपस्थित सर्वांवर परिणाम झाला.या चर्चेचा समारोप करताना स्वामीजी म्हणाले, “ हिंदुधर्म मृत्युपंथाला लागलेला नाही हे आपल्या देशातील लोकांना समजावून सांगण्याची वेळ आली आहे. एव्हढच नाही तर, सार्‍या जगाला आपल्या धर्मातील अमोल विचारांचा परिचय करून देण्याची आवश्यकता आहे. वेदान्त विचाराकडे एक संप्रदाय म्हणून पहिले जाते हे बरोबर नाही. सार्‍या विश्वाला प्रेरणा देण्याचे सामर्थ्य त्या विचारात आहे हे समजून घेण्याची आवश्यकता आहे”. स्वामीजींची ही संभाषणे आणि विचार ऐकून बेळगावचा सर्व सुशिक्षित वर्ग भारावून गेला होता.                                                         

बेळगावातील मुक्कामात रोज सभा होऊ लागल्या. शहरात स्वामीजींच्या नावाची चर्चा होऊ लागली. वेगवेगळ्या विषयांवर सभांमध्ये वादविवाद व चर्चा झडत असत. स्वामीजी न चिडता शांतपणे प्रश्नांची उत्तरे देत. कोपरखळ्या मारत विनोद करत स्वामीजी समाचार घेत असत.

या बेळगावच्या आठवणी वकील सदाशिवराव भाटे यांचे पुत्र गणेश भाटे यांनी लिहून ठेवल्या आहेत. स्वामीजी त्यांच्याकडे आले तेंव्हा ते (गणेश)  बारा-तेरा वर्षांचे होते. स्वामीजीच्या वास्तव्याने पावन झालेली त्यांची ही वास्तू भाटे यांनी रामकृष्ण मिशनला दान केली आहे. स्वामी विवेकानंदांनी या मुक्कामात वापरलेल्या काठी, पलंग, आरसा या वस्तू ते राहिले त्या खोलीत आठवण म्हणून जपून  ठेवल्या आहेत, त्या आपल्याला आजही  पाहायला मिळतात.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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