हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 176 ☆ पुस्तक का महत्व स्थाई है…  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – पुस्तक का महत्व स्थाई है…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 176 ☆  

? आलेख – पुस्तक का महत्व स्थाई है… ?

पिछले लंबे अरसे  (1992) से, जो किताब पढ़ता हूँ, उस पर लिखता हूँ . म प्र साहित्य अकादमी के पाठक मंच, मंडला तथा जबलपुर का संचालन करता रहा, फिर बनमाली सृजनपीठ के जबलपुर केंद्र की पाठक पीठ चलाई, बहुचर्चित पुस्तकें खरीद कर पढ़ी, या जिन रचनाकारों ने समीक्षा के आग्रह से किताबें भेजी उनके कंटेंट पर भी “पुस्तक चर्चा” लिखता रहा हूँ। पारंपरिक आलोचना के स्थान पर पुस्तक के कंटेंट की चर्चा करने की मेरी शैली की कुछ पाठकों, लेखकों, तथा चंद प्रकाशकों ने भी बहुत प्रशंसा की।

ई-अभिव्यक्ति व साहित्य संगम संस्थान स्वस्फूर्त आगे बढ़कर मेरी इस पुस्तक चर्चा को स्तंभ के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। जब तब जिन अखबारों पत्रिकाओं में भेज पाया उन्हें अनेक ने प्रकाशित भी किया । मेकलदूत अखबार ने तो इसे धारावाहिक स्तंभ ही बना लिया था।

पुस्तक चर्चा  कई लेखकों से आत्मीयता से जुड़ने का माध्यम बना।

एक उल्लेखनीय बात यह कि मैं प्रकाशक को भी उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक पर यह आलेख भेजता हूँ, किन्तु,आश्चर्यकारी है कि मात्र दस से बीस फीसदी प्रकाशक ही रिस्पांस करते हैं, शेष मात्र प्रिंटर की भूमिका में लगे, जिन्होंने शायद किताब छापी, लेखक को उसका ऑर्डर पकड़ाया, जो बेच सके वह बेचा और फुरसत पाई। पर सब कुछ निराशाजनक ही नहीं है कुछ गिने चुने प्रकाशक ऐसे भी हैं जो मुझे नियमित रूप से उनके द्वारा प्रकाशित किताबें समीक्षार्थ भेजने लगे।

पर ऐसे भी प्रकाशक जुड़े जिन्होंने स्वस्फूर्त आग्रह किया और कुछ पुस्तक चर्चाओं का संग्रह ही प्रकाशित कर दिया। मेरी किताब “बातें किताबों की” आई। अस्तु, पुस्तक अपने स्वरूप बदल रही है प्रिंट से ई बुक, आडियो बुक बन रही है, इन दिनों लाइब्रेरियां सूनी पड़ी रहती हैं, पर तय है कि पुस्तक का महत्व स्थाई है। इस उहापोह के दौर में भी पुस्तक का महत्व स्थाई है…

अतः पुस्तकें समीक्षा हेतु आमंत्रित है…

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -6 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 6 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

एक पुरानी कहावत है” भूखे भजन ना होई गोपाला” हम जब यात्रा कर रहे हों तो कुछ अधिक ही भूख लगती हैं। अंतरराष्ट्रीय हवाई यात्रा में भोजन का मूल्य भी यात्रा टिकट में शामिल रहता हैं, परंतु जब भोजन परोसा जाता है, तो मुफ्त वाली फीलिंग आना स्वाभाविक ही हैं। यात्रा के पहले पड़ाव में दुबई पहुंच गए।

विमान से बाहर आने के पश्चात जब बस के द्वारा दूसरे प्लेटफार्म के लिए बाहर ले जा रहें थे, तो साथ में चल रही एक वृद्ध महिला जो पंजाब प्रांत से पहली बार विदेश जा रही थी, नाराज़ होकर बोली मैने हवाई जहाज की टिकट खरीदी है, बस में नहीं जाऊंगी। बड़ी मुश्किल से उनको बस में बैठाया। बस से उतरने के पश्चात लिफ्ट से पांच मंजिल पातललोक में जाकर मेट्रो ट्रेन से अगली विमान यात्रा के प्लेटफार्म पर विमान आने का फिर से इंतजार करने लगे। हाथ में बंधे हुए पग मापक यंत्र करीब डेढ़ किलोमीटर पैदल चलने की सूचना दे रहा था।

दुबई विमानतल पर कार्यरत अधिकतर कर्मचारी हमारे देश के ही थे। हमें भ्रम होने लगा कि कहीं अपने देश के किसी विमानतल पर ही तो नहीं हैं, ना? घर से रोज़ी रोटी कमाने के लिए हमारे देश के नागरिक लगभग पूरी दुनिया में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। क्या करें, पापी पेट का जो सवाल हैं। इसके साथ ही साथ देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जित करने का प्रमुख स्रोत भी ये प्रवासी ही हैं।

दुबई के विमानतल का नज़ारा हमारे दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस के बाज़ार को भी मात देता हैं। एक देश से दूसरे देश जाने के लिए इस विमानतल का उपयोग विमान बदलने के लिए भी किया जाता हैं। हमारे देश में इटारसी स्टेशन पर भी इसी प्रकार से बहुत सारी ट्रेन क्रॉस होती हैं, ऐसे ही पुराने दिनों की याद आ गई। हमने अपने जीवन की अधिकतर यात्राएं रेल से ही तो करी हैं। गंतव्य स्थान जाने वाला विमान प्लेटफार्म पर आ गया है, अगले भाग में मिलते हैं।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 135 – कविता ☆ कान्हा ने जन्म लिया… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  भगवान् श्रीकृष्ण जी पर आधारित भक्ति रचना “कान्हा ने जन्म लिया…”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 135 ☆

☆ कविता  🌿 कान्हा ने जन्म लिया… 🙏

मथुरा में जन्म लियो, गोकुल पधारे,

भोली मुस्कान लिए, नैना कजरारे ।

 

पालने में कान्हा, झूल रहे प्यारे,

माता ले बलैया, नंद के दूलारे।

 

पांवों में पायलियां, मोर मुकुट धारे,

ग्वाल बाल मगन होके, देख रहे सारे।

 

बजे आज बधैया, सजे चाँद तारे,

ढोल ताश बजने लगे, नंद के दुआरे।

 

दूध दही बाँट रहे, मथुरा में सारे,

कान्हा ने जन्म लिया, भाग को सहारे।

 

पुष्प लता खिल उठे, वन उपवन सारे,

चंदन सी महक उठी, मथुरा गली न्यारे।

 

कोयल भी कूक उठीं, नाच उठा मोर,

धूप दीप जलने लगी, मंदिर में भोर।

 

गली-गली फैल गई, बात बढ़ी जोर,

नंद के आंनद भयों, आया नंद किशोर।

 

सखियां भी झूम उठी, गाने लगी सोहरे,

माँ यशोदा बाँट रही, कनक थार मोहरें।

 

अनुपम इनकी लीला, पूतना को तारे,

अत्याचार भर उठा, कंस मामा मारे।

 

गोपियों की मटकी फोड़े, गोकुल पधारे,

राधा संग रास रचें, सखियां बीच सारे।

 

प्रेम भाव बांटते, गोवर्धन धारे,

कालिया के कोप से, यमुना सुधारें।

 

सुदामा सखा भेंट किए, अँसुअन जल ढारे,

तीन लोक सौंप दिये, सखा के दूआरे।

 

मीरा की भक्ति देख, कान्हा जी हारे,

मूरत में बोल उठी, प्राणनाथ प्यारे।

 

ग्वाल बाल संग लेकर, बने माखनचोर,

छलिया सब कहने लगे, नैनों के तारे।

 

गीता का ज्ञान दिये, बने रण छोर,

द्वारकाधीश बन बैठे, लगाये पंख मोर।

 

प्रभु मेरे तार लेना, जीवन की डोर,

राधे राधे नाम जपु, कृष्ण संग भोर।

 

जन्मों के पाप कटे, आनंद छाये चहुँ छोर,

तरस  रही नैना, अब निहारो मेरी ओर।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #152 ☆ काजळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 152 ?

☆ काजळ…

किती दिवस मी शोधत होतो सापडलो मी आज मला

किती चुकांचा डोंगर माथी समजत होतो तरी भला

 

नश्वर देहालाही माया मोहाने या गुरफटले

मुक्कामाची वेळ संपली पुन्हा जाउ या घरी चला

 

भ्रष्टाचाराच्या खड्ड्याने बळी घेतला असा तुझा

आज निघाला ज्या रस्त्याने तो तर आहे धुक्यातला

 

ओठ टेकले स्पर्श जाहला बर्फाच्या ह्या गोळ्याला

कुठेच नव्हती आग तरीही बर्फ कसा हा पाघळला

 

कलेकलेने रूप बदलले शृंगाराचा साज नवा

पुनवेची ही रात्र घेउनी चंद्र नव्याने अवतरला

 

ओढ लागली मला घराची अंगणात मी अवतरले

नव्हे गालिच्या माझ्यासाठी जीवच त्याने अंथरला

 

जळल्यानंतर भाग्य उजळले त्यातुन झाला काजळ तो

आणि सखीच्या नेत्री आहे मुक्तपणे तो वावरला

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 102 – याद के संदर्भ में दोहे… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके याद के संदर्भ में दोहे…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 102 – याद के संदर्भ में दोहे✍

याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।

अपना तो यह हाल है, यादें बने लिबास।।

 

 फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।

 वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।।

 

 यादों की कंदील ने ,इतना दिया उजास।

 भूलों के भूगोल ने, बांच लिया इतिहास ।।

 

बादल आकर ले गए ,उजली उजली धूप ।

अंधियारे में कौंधते, यादों वाले स्तूप।।

 

 सांसो की सरगम बजे, किया किसी ने याद।

 शब्दों का है मौन व्रत, कौन करे संवाद ।।

 

यादों के आकाश में,फूले खूब बबूल ।

सांसों की सर फूंद भी, अधर रही है झूल ।।

 

सांसों का संकीर्तन, मिलन क्षणों की याद।

मन – ही – मन से कर रहा, एकाकी संवाद।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 104 – “वो कि जिनको उदास रहने की ही आदत है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “वो कि जिनको उदास रहने की ही आदत है…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 104 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “वो कि जिनको उदास रहने की ही आदत है”|| ☆

 कुछ परेशानियाँ लेकर

उधार आया हूँ

साथ में मोल, दिक्कतें

दो चार  लाया हूँ

 

मुश्किलों का मुझे

बाजार में मिला ठेका

कई कठिनाइयों ने

वादा किया आने का

 

कुछेक काँटों के गुजरा

हूँ मोड़ से बेशक

कई छालों का गुमशुदा

विचार लाया हूँ

 

यहा सहूलियत से

मिलती हैं समस्यायें

आपको चाहिये तो

कृपा कर यहाँ आयें

 

लिखा था झूठ फर्म

के नियोन बोर्डों पर

उन्हीं से माँग कर

घटिया प्रचार लाया हूँ

 

रहे परिवार यहाँ कई

हजार रोगों के

कोई कहता ये तजुर्वे

है कई लोगों के

 

वो कि जिनको उदास

रहने की ही आदत है

उन्हें मायूसियाँ ही

खुशगवार लाया हूँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-08-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 151 ☆ “झाड़ू पुराण” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “झाड़ू पुराण”)  

☆ व्यंग्य # 151 ☆ “झाड़ू पुराण” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

इन दिनों झाड़ू वालों के दिन खराब चल रहे हैं। रह रहकर एजेंसियां और मीडिया झाड़ू वालों पर मेहरबान हैं। हर थोड़ी देर बाद कभी शिक्षा कभी स्वास्थ्य तो कभी शराब को लेकर दंगल पे दंगल देखने मिल रहे हैं। लोग बताते हैं कि स्वच्छता अभियान की सफलता में झाड़ू वालों ने और झाड़ू ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जब झाड़ू की बात चलती है तो पता नहीं क्यों लोग पंजाब और दिल्ली को याद करने लगते हैं।

गंगू प्रतिदिन सुबह उठकर झाड़ू की पूजा करता है, गंगू ने बताया कि पौराणिक शास्त्रों में कहा गया है कि जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है वहां धन हानि होती है, शेयर बाजार धड़ाम से गिर जाता है, रूपया के गिरने की आदत बन जाती है, मंहगाई आसमान छूने लगती है, क्योंकि झाड़ू में धन की देवी महालक्ष्मी का वास माना गया है।

विद्वानों के अनुसार झाड़ू पर पैर लगने से महालक्ष्मी का अनादर होता है। झाड़ू घर का कचरा बाहर करती है और कचरे को दरिद्रता का प्रतीक माना जाता है। जिस घर में पूरी साफ-सफाई रहती है वहां धन, संपत्ति और सुख-शांति रहती है, पर इधर कुछ दिनों से कुछ लोग हाथ धोकर, झाड़ू और झाड़ू वालों के पीछे पड़े हैं। परेशान होकर एक झाड़ूराम एक ज्योतिषी की शरण में गए और अपनी समस्या बताई। ज्योतिषी ने हाथ देखकर बताया कि आपकी असली समस्या 2024 है, कुछ लोग आपकी झाड़ू से डर गये हैं और आपके पीछे पड़ गए हैं, इसलिए कुछ उपाय हैं जिनसे थोड़ी राहत मिल सकती है। पहली बात तो यह है कि आप झाड़ू के प्रदर्शन में संयम बरतें, जब घर में झाड़ू का इस्तेमाल न हो, तब उसे नजरों के सामने से हटाकर रखना चाहिए। शाम के समय सूर्यास्त के बाद झाड़ू नहीं लगाना चाहिए इससे आप लोगों में परेशानी आती है।

झाड़ू को कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए, इससे आपसी कलह होती है, और आप के लोग सब जानकारी लीक कर देते हैं। आपके अच्छे दिन कभी भी खत्म न हो, इसके लिए हमें चाहिए कि हम गलती से भी कभी झाड़ू को पैर नहीं लगाएं या लात ना लगने दें, अगर ऐसा होता है तो घर से कुर्सी चोरी हो जाती है। ज्यादा पुरानी झाड़ू और झाड़ू वालों को घर में न रखें। किसी एकांत जगह में छुपा दें या कि तत्काल सेवा में लगा दें।

झाड़ू की कभी भी घर से बाहर, या विदेश में प्रशंसा कराने से अशुभ होता है। कहा जाता है कि ऐसा करने से झाडू वालों के अनिष्ट योग बन जाते हैं, झाड़ू को हमेशा छिपाकर रखना चाहिए। ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहां से झाड़ू हमें, घर या बाहर के किसी भी सदस्यों को दिखाई नहीं दे।

— वो तो ठीक है पर पंडित जी रात रात भर सपने में बार बार झाड़ू दिखाई दे रही है इसका क्या मतलब है?

ज्योतिषी- सपने मे झाड़ू देखने का मतलब है नुकसान और नुकसान, अपयश, आरोप प्रत्यारोप, कुर्सी चोरी होने का योग…..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 94 ☆ # आओ तिरंगा फहरायें… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# आओ तिरंगा फहरायें…  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 94 ☆

☆ # आओ तिरंगा फहरायें… # ☆ 

चलो हम आगे बढ़ते हैं

नया इतिहास मिलके गढ़ते हैं

 

जो बीत गया वो पुराना था

गुजरा हुआ जमाना था

स्याह स्याह रातें थी

होंठों पर आजादी का तराना था

 

खुली आंखों में एक आस थी

दिल में कुछ पानें की प्यास थी

ज़ुल्म और अत्याचार सहकर भी

गुलामी से हर निगाह उदास थी

 

कुछ दीवानों ने सर पे बांधा था कफ़न

आजाद करके रहेंगे अपना वतन

त्याग कर सबकुछ अपना

आजाद करने का लिया था प्रण

 

आजादी हमें यूं ही नहीं मिलीं थीं

उनके खून से रंगी हर गली थी

हंसते हंसते चढ़ गये थे फांसी पर

आजादी हमें भीख में नहीं मिली थी

 

पर अब अफसोस –

हम छोटे छोटे समूहों में बंट गए हैं

धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर छंट गये है

भूलकर उन वीरों की कुर्बानी

एक दूसरे से अपने स्वार्थ में कट गये है

 

आओ, मिलकर तिरंगा फहरायें

अपने देश को मजबूत बनाऐ

भूलकर आपस की कटुता

भारत देश उन्नत बनाऐ  /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588\

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 94 ☆ ओढ… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 94  ? 

☆ ओढ… ☆

पावसाची ओढ

शेतकऱ्यांना

मताची ओढ

पुढाऱ्यांना

भक्तीची ओढ

भाविकांना

प्रियेची ओढ

प्रियेसीला

अशी ओढ

माणसाला

ओढतच नेते

कुणाला ओढ

प्राप्त होते,तर

कुणाला ओढ

धुळीस मिळवते…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३१ परिव्राजक ९. मूर्तीपूजा ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३१ परिव्राजक ९. मूर्तीपूजा ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

अलवरला राजेसाहेबांचे दिवाण मेजर रामचंद्र यांना स्वामीजींबद्दल कळलं होतं. त्यांनीही स्वामीजींना आपल्या घरी बोलावलं. अलवर संस्थानचे राजे महाराज मंगलसिंग होते. त्यांच्यावर पाश्चात्य संस्कृती आणि तिथले रीतिरिवाज यांचा प्रभाव होता. त्यामुळे दिवाण साहेबांना वाटलं की स्वामीजींची भेट घडवून आणली तर राजेसाहेबांचा दृष्टीकोण थोडा तरी बदलेल. म्हणून त्यांनी महाराजांना चिठ्ठी पाठवली की, उत्तम इंग्रजी जाणणारा एक मोठा साधू इथे आला आहे. तसे दुसर्‍याच दिवशी राजे साहेब दिवाणांच्या घरी स्वामीजींना भेटायला आले. त्यांनी स्वामीजींना पहिलाच प्रश्न विचारला की, “आपण एव्हढे विद्वान आहात, मनात आणले तर महिन्याकाठी कितीतरी पैसा सहज मिळवू शकाल. मग आपण असे भिक्षा मागत का फिरता?”स्वामीजींना हा प्रश्न नवीन नव्हता. हाच प्रश्न रामकृष्ण संघाचं काम सुरू केलं तेंव्हा भिक्षा मागायला गेले असताना अपमान करण्यासाठी विचारला गेला होता. पण आज प्रश्न विचारणारी व्यक्ती  श्रेष्ठत्वाचा अहं असणारी, हातात सत्ता असणारी व्यक्ती होती.

महाराजांच्या प्रश्नाचे उत्तर न देता स्वामीजींनी त्यांना उलट प्रश्न विचारला की, “महाराज आपण सदैव पाश्चात्य व्यक्तींच्या सहवासात वावरता. शिकारीला वगैरे जाण्यात वेळ दवडता. प्रजेविषयीच्या आपल्या कर्तव्याकडे दुर्लक्ष करता. हे आपण का करता सांगा बरं?” उपस्थित लोक जवळ जवळ भ्यायलेच.  राजेसाहेबांना असा थेट प्रश्न ? पण राजेसाहेब शांत होते. त्यांनी विचार केला आणि म्हणाले, “का ते मला नेमकं सांगता येणार नाही. पण मला आवडतं म्हणून मी सारं करतो”. स्वामीजी यावर म्हणाले, “याच कारणामुळे मी पण अशी भिक्षावृत्ती स्वीकारून संचार करीत असतो”.

राजेसाहेब हसले. त्यांनी पुढचा प्रश्न विचारला. “स्वामीजी माझा मूर्तिपूजेवर विश्वास नाही. तर माझं काय होईल?” मी धातूची, दगडाची किंवा लाकडाची अशा मूर्तीची पुजा करू शकत नाही. तर मला मरणोत्तर वाईट गती प्राप्त होईल का? या प्रश्नावरून त्यांना पाश्चात्य दृष्टीकोनाचा आणि आधुनिकतेचा अहंकार होता हे स्वामीजींच्या लक्षात आलं होतं. स्वामीजी म्हणाले, “हे पहा, धार्मिक दृष्ट्या ज्याची ज्या मार्गावर श्रद्धा असेल त्याने त्या मार्गाने जावं”.

दिवाण साहेबांच्या घरात राजेसाहेबांचे चित्र भिंतीवर लावलेले होते ते चित्र स्वामीजींनी खाली काढण्यास सांगितलं. सगळे बघत होते की आता स्वामीजी पुढे काय करतात? त्यांना काही केल्या अंदाज येईना. स्वामीजींनी हे चित्र दिवाणसाहेबांच्या समोर धरलं आणि विचारलं, “हे काय आहे?” दिवाण साहेब म्हणाले, “हे महाराजांचे छायाचित्र आहे”. स्वामीजी म्हणाले, “थुंका याच्यावर”. हे ऐकताच, सगळे खूप घाबरले. इतर लोकांकडे वळून स्वामीजी म्हणाले, “तुमच्यापैकी कोणीही यावर थुंका. त्यात काय एव्हढं? तो एक कागद तर आहे”. मग दिवाणसाहेबांना पुन्हा म्हणाले, “थुंका यावर. थुंका यावर”. दिवाणसाहेब न राहवून म्हणाले, “स्वामीजी हे भलतंच काय सांगताय? हे महाराजांचं चित्र आहे. तुम्ही सांगता ते आम्हाला करणं कसं काय शक्य आहे?”           

“ते तर खरच. पण यात प्रत्यक्ष महाराज नाहीत ना. त्यांचं शरीर, अस्थि, मांस, अवयव यातलं काहीही नाही या कागदात. महाराज बोलतात,फिरतात, हिंडतात. तसं काहीच हा कागद करू शकत नाही. पण तरीही तुम्ही त्यावर थुंकण्यास नकार देता. हे तुमचं बरोबर आहे. कारण ते तुमचे महाराज आहेत. त्यावर थुंकणे हा त्यांचा अपमान आहे. असे तुमच्या मनात येते”. महाराजांबद्दल आदरभावनेचा स्वामीजींनी उल्लेख केल्यामुळे उपस्थित लोक जरा मनातून शांत झाले.

मग स्वामीजी महाराजांकडे बघून म्हणाले, “हे पहा महाराज, हा कागद म्हणजे तुम्ही नाहीत. पण दुसर्‍या दृष्टीने पाहिलं तर, त्यात तुम्ही आहात. त्यावर थुंका म्हटलं तर तुमचे विश्वासू सेवक तसं करायला तयार नाहीत. कारण ही तुमची प्रतिकृती पाहिली की, त्यांना तुमची आठवण होते. त्यामुळे ते ज्या आदरभावाने तुमच्याकडे बघतात, त्याच आदरभावनेनं ते या चित्राकडे बघतात. वेगवेगळ्या देवतांच्या धातूच्या, पाषाणाच्या बनवलेल्या मूर्तींची पुजा जे लोक करतात, त्यांची पण हीच दृष्टी असते. ते लोक धातूची किंवा दगडाची पुजा करत नाहीत. ती मूर्ती बघितली की त्यांना परमेश्वराची आठवण होते आणि त्या परमेश्वराची ते पुजा करतात.

मी इतक्या ठिकाणी फिरताना बघितलं की अनेकजण मूर्तिपूजा करताना बघितलंय, पण कोणीही, हे दगडा, मी तुझी पूजा करतो. हे पाषाणा, माझ्यावर दया कर. असं म्हणत नव्हता. त्यांची पुजा किंवा प्रार्थना असते ती त्या मूर्तीच्या रुपानं असलेल्या प्रतिकाच्या मागे उभ्या असलेल्या परमेश्वराची. महाराज आपण लक्षात घ्या, की, प्रत्येक जण प्रार्थना करत असतो ती अखेर त्या विश्वचालक सर्वशक्तिमान प्रभूची. अर्थात हे सारं माझं मत झालं. तुमचं जे काही मत असेल ते तुमचं. त्याबद्दल मी काय बोलू?”

राजे मंगलसिंह अवाक झाले. त्यांनी दोन्ही हात जोडून म्हटले, मूर्तिपूजेकडे कोणत्या दृष्टीने पाहायला हवं याबद्दलचं असं स्पष्टीकरण आजवर मी कधी ऐकलं नव्हतं. आपण माझे डोळे उघडलेत. आपल्या देशावर राज्य गाजवलेलं इंग्लंड, परकीय राज्यकर्ते, त्यांची संस्कृती, त्यांचा ख्रिस्त धर्म याचा त्यावेळच्या सुशिक्षित वर्गावर काय परिणाम होत होता हे स्वामीजींनी कलकत्त्याला असताना अनुभवलं होतं. पण संस्थानिक असलेल्या व्यक्तीवर झालेला परिणाम त्यांना राजे मंगलसिंह यांच्या रूपात पाहायला मिळाला होता.अशा वेगवेगळ्या प्रसंगातून स्वामी विवेकानंदांना अनेक प्रकारची लोकं कळत जात होती. त्यांचा दृष्टिकोन समजत होता. कुठे काय परिस्थिति आहे हे समजत होते. समाज रचनेचा अभ्यास होत होता.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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