मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 25 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 25 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

३५.

जिथं मन मुक्त असेल, माथा उन्मत्त असेल,

ज्ञान मुक्त असेल,

 

घरांच्या क्षुद्र भिंतींनी जगाचे तुकडे झाले नसतील,

सत्याच्या गाभाऱ्यातून शब्दांचा उच्चार होईल,

 

अथक परिश्रमांचे हात

 पूर्णत्वाप्रत उंचावले जातील,

 

मृत सवयींच्या वालुकामय वाळवंटात

बुध्दीचा स्वच्छ झरा आटून गेला नसेल,

 

सतत विस्तार पावणाऱ्या विचार

आणि कृती करण्याकडेच

तुझ्या कृपेने मनाची धाव असेल,

 

हे माझ्या स्वामी, त्या स्वतंत्रतेच्या स्वर्गात

माझा देश जागृत होऊ दे.

 

३६.

माझ्या ऱ्हदयातील दारिऱ्द्य्याच्या

मुळावर घाव घाल

 

सुख आणि दुःख आनंदानं सोसायची

शक्ती मला दे.

माझं प्रेम सेवेत फलद्रूप करण्याची शक्ती दे.

 

गरिबापासून फटकून न वागण्याची अगर

धनदांडग्या मस्तवालासमोर शरण न जाण्याची

शक्ती मला दे.

 

दैनंदिन क्षुद्रतेला ओलांडून उंच जाण्याची

शक्ती मला दे आणि

प्रेमभावनेनं तुझ्या मर्जीप्रमाणं तुला शरण

जाण्याची शक्ती मला दे.

इतकीच माझी प्रार्थना आहे!

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #155 ☆ व्यंग्य – उनकी अध्यक्षता में ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘उनकी अध्यक्षता में’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 155 ☆

☆ व्यंग्य – उनकी अध्यक्षता में

मैं उस संस्था में नया-नया ही दाखिल हुआ था, इसलिए उसके सदस्यों, विशेषकर उसके दिग्गजों को, बहुत कम जानता था। सभाएँ भी बहुत कम हुई थीं।

एक दिन एक सभा बुलायी गयी। सचिव को तो मैं नहीं जानता था, लेकिन अध्यक्ष महोदय से वाकिफ था। वे खासे संपन्न आदमी हैं और नगर की पंद्रह बीस संस्थाओं के अध्यक्ष हैं। सचिव महोदय ने घोषणा की कि सरकार सामाजिक कार्यक्रमों के लिए काफी पैसा दे रही है, इसलिए संस्था को कोई सामाजिक कार्यक्रम करना चाहिए। प्रस्ताव आये। अंत में निश्चय हुआ कि नगर के कुछ मुहल्लों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किया जाए और उसके आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाएँ। सर्वेक्षण-समिति के लिए अध्यक्ष की खोज होने लगी। तभी मुझसे थोड़ी दूर बैठे उन खादीधारी बुज़ुर्ग ने अपने मुँह से दाँत-खोदनी निकाली और लापरवाही से सचिव की ओर अपना हाथ बढ़ा कर कहा, ‘मेरा नाम लिख लीजिए।’

सभा में तालियाँ गूँज उठीं। सचिव के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। वे बोले, ‘बंशी भाई ने एक बार फिर हमारी समस्या हल कर दी। बंशी भाई को तो ऐसे कार्यक्रमों का स्थायी अध्यक्ष बना देना चाहिए।’

नाम सुनकर मुझे याद आ गया। यह बंशी भाई थे। राजनैतिक उठापटक और गोटी बैठाने में अक्सर उनका नाम सुनने में आता था। वे नगर के पुराने खिलाड़ी थे। सचिव की बात सुनकर वे फिर निर्विकार भाव से दाँत खोदने में व्यस्त हो गये थे।

सचिव उनसे बोले, ‘बंशी भाई, आप खुद ही अपनी टीम चुन लीजिए।’

बंशी भाई धीरे-धीरे कुर्सी से उठ खड़े हुए। उपस्थित सदस्यों पर नज़र डालकर उन्होंने तीन नाम बोले, फिर पता नहीं कैसे उनकी नज़र मेरे चेहरे पर अटक गयी। मेरी तरफ उँगली उठा कर बोले, ‘चौथा नाम इनका लिख लीजिए।’ बंशी भाई ज़रूर आदमी के ग़ज़ब के पारखी थे क्योंकि जो चार आदमी उन्होंने चुने थे वे चारों ही सीधे-साधे, अनुभवहीन, और व्यवहारिक ज्ञान में कोरे थे।

सभा समाप्त होने पर बंशी भाई ने हमें रोक लिया, बोले, ‘शाम को अगर घर पर पधार सकें तो हम काम की रूपरेखा बना लेंगे।’

जब शाम को हम उनके बंगले पर पहुँचे तब वे लॉन में आराम कुर्सी पर पूरे आराम की मुद्रा में पसरे थे। उन्होंने हमें प्रेम से चाय पिलायी और हमारे बीच काम का वितरण कर दिया। काम करने का तरीका भी बतला दिया। फिर बोले, ‘जल्दी काम निपटा दीजिए। मुझे आप लोगों की योग्यता पर पूरा भरोसा है।’

हम चारों बोदे तो थे ही, प्राणपण से काम में जुट गये। मेरे साथ जो चोपड़ा और स्वर्णकार नाम के साथी थे वे तो इस मिशन के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो गये। बार-बार गद्गद होकर कहते थे, ‘बहुत मीनिंगफुल काम है। इसके बहुत उपयोगी नतीजे निकलेंगे।’

वे बार-बार निर्देशन के लिए बंशी भाई के पास दौड़ते थे, लेकिन बंशी भाई ने पहले दिन के बाद कभी उन्हें दो मिनट से ज्यादा समय नहीं दिया। हर बार कह देते, ‘अरे यार, तुम लोग समझदार हो, बेफिक्री से जो ठीक समझो करो।’ एकाध मिनट बात करके वे ‘अच्छा तो फिर’ कह कर बेलिहाज उठ जाते।

चोपड़ा और स्वर्णकार भूत की तरह सवेरे से शाम तक लगे रहते। एक दिन वे निष्कर्ष निकालने के लिए एक फार्मूला ले आये थे। उसे लेकर वे फिर उत्साह में बंशी भाई के पास दौड़े गये। बंशी भाई उस दिन बड़ी रुखाई से पेश आये। बोले, ‘आप लोग समझते हैं कि मुझे एक यही काम है। मेरे जिम्मे पचासों काम हैं। आप जो ठीक समझें कीजिए। मुझे परेशान मत कीजिए।’

मर-खप कर हमने अपनी ही समझ से वह काम पूरा किया। रिपोर्ट की छपाई की अवस्था में पहुँचे तो हम फिर बंशी भाई की सेवा में पहुँचे। वे बाहर कार पर चढ़ते हुए मिले। लगता था उन्हें हम से एलर्जी हो गयी थी। माथा सिकोड़कर बोले, ‘अरे यार, तुम्हारी रिपोर्ट को पढ़ने वाला कौन है? अलमारियों में धूल खाएगी और रद्दी की टोकरी में फेंकी जाएगी। सचिव से मिलकर छपवा लो।’

रिपोर्ट छप-छपाकर तैयार हो गयी। उस पर बड़े अक्षरों में बंशी भाई का नाम छपा और छोटे अक्षरों में हम चारों का। रिपोर्ट की दो प्रतियाँ हम उन्हें दिखाने गये। अब की उन्होंने दिलचस्पी से रिपोर्ट देखी, लेकिन कवर देखते ही उनकी मुखमुद्रा बिगड़ गयी। बोले, ‘आपने मेरे नाम के नीचे भूतपूर्व विधायक और भूतपूर्व महापौर नहीं छपवाया। आपको मालूम नहीं था तो किसी से पूछ लेते। कवर फिर से छपवाइए।’ उन्होंने रिपोर्ट हमारी तरफ फेंक दी।

कवर दूसरा छपा। फिर जल्दी ही रिपोर्ट भेंट करने के लिए राज्य के एक मंत्री को आमंत्रित किया गया। बंशी भाई को मंत्री जी की बगल में स्थान मिला। मंत्री महोदय और अन्य वक्ताओं ने ऐसी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के प्रस्तुतीकरण के लिए बंशी भाई की ज़बरदस्त प्रशंसा की। मंत्री जी ने कहा, ‘इस उम्र में बंशी भाई की निष्ठा, कार्यक्षमता और उत्साह देखकर मुझ जैसे कम उम्र लोगों को लज्जा का अनुभव होता है।’

बंशी भाई का मुख प्रसन्नता से लाल था और उनका सिर विनम्रता से झुका हुआ था। अंत में बंशी भाई का भाषण हुआ। उन्होंने कहा, ‘मेरा जीवन समाज के लिए है। समाज का मुझ पर ऋण है और उस ऋण को उतारने के लिए मैं आखरी साँस तक पीछे नहीं हटूँगा।’

उनके भाषण के बाद भयंकर तालियाँ पिटीं और हम चारों कार्यकर्ता मंच के पीछे इंतज़ाम में जुटे अवाक होकर देखते रहे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 106 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 106 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 106) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 106 ?

☆☆☆☆☆

देख कर उसको

तेरा यूँ पलट जाना

नफ़रत बता रही है कि

मोहब्बत ग़ज़ब की थी …!

Turning your back

just after seeing him…

Hate is revealing as to

how intense was the love!

☆☆☆☆☆ 

भला कब है चिरागों के मुक़द्दर

में  सुक़ुन -ए- सफ़र…

उनका  काम  तो  है  बस

रोशन करना, फिर जल जाना…

When has the happiness of journey

ever been destined for the lamps

Their job is just to illumine others,

and then eventually get burnt out…!

☆☆☆☆☆ 

क़द्र  वो  है  जो

मौजूदगी में हो,

बाद में होने वाले को

तो पछतावा कहते हैं…!

Reverence is what is shown

in the physical presence,

The one that is accorded

later on is called remorse…!

☆☆☆☆☆

कोई तो सुलह करा दे

जिंदगी की उलझनों से…

बड़ी तलब लगी है,

आज मुस्कुराने की…!

Will someone help reconcile

with the complexities of life

As there is a massive

urge of smiling today…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 152 ☆ सादी पोशाक के सैनिक – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना कल गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी माला जप अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं यह आप पर निर्भर करता है)

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 152 ☆ सादी पोशाक के सैनिक 🇮🇳 – 2  ?

इस शृंखला में आज हम एक और अनन्य सैनिक की चर्चा करेंगे। स्वाभाविक है कि यह सैनिक भी सेना की वर्दी वाला नहीं होगा। लेकिन सादी पोशाक में आने से पहले यह पुलिस की वर्दी में अवश्य रहे। विशेष बात यह कि वर्दी में रहे या सादी पोशाक में, इनके भीतर का सैनिक सदैव सक्रिय रहा।

चर्चा करेंगे सेवानिवृत्त सहायक पुलिस उपनिरीक्षक राजेंद्र धोंडू भोसले की। भोसले मुंबई के डी एन. नगर थाना में 2008 से 2015 तक नियुक्त थे। वहीं से वे रिटायर भी हुए। डी.एन. नगर थाना में उनके सेवाकाल में 166 लड़कियों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई थी‌। कर्त्तव्यपरायणता का चरम देखिए कि उन्होंने अपनी टीम के साथ इसमें से 165 लड़कियों को ढूँढ़ निकाला।

चरम के भी परम की अनन्य गाथा यहाँ से ही आरम्भ होती है‌। 22 जनवरी 2013 को उनके थाना में सात वर्षीय एक बच्ची की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ कराई गई थी। केवल यही एक मामला रह गया था जिसे भरसक प्रयास के बाद भी वे सुलझा नहीं पाए‌। राजेंद्र भोसले 2015 में सेवानिवृत्त हुए। एक बच्ची को न तलाश पाना, उन्हें सालता रहा। उन्होंने बच्ची की एक फोटो अपने पास रख ली। सेवानिवृत्ति के बाद वर्दी के बजाय वे साथी पोशाक धारण करने लगे पर उनके भीतर का पुलिस अधिकारी, अंदर का सैनिक अपने मिशन में जुटा रहा। वे निरंतर बच्ची को तलाशते रहे।

हुआ यूँ था कि बच्ची का अपहरण एक नि:संतान दंपति ने कर लिया था‌। बाद में अपनी संतान हो जाने पर वे बच्ची से न केवल घर के सारे काम कराने लगे, अपितु अन्य घरों में भी बेबी सिटिंग जैसे कामों के लिए भेजने लगे। कुछ समय पहले अपहरणकर्ता दंपति शहर के उसी इलाके में आकर रहने लगे जहाँ से नौ वर्ष पहले बच्ची का अपहरण किया गया था‌‌।

बच्ची के साथ काम करने वाली एक समवयस्क लड़की ने उसकी कहानी जानकर इंटरनेट सर्च किया। उसे अब तक तलाश रहे स्वयंसेवकों के नम्बर तलाशे। अंतत: समाजसेवियों और पुलिस की सहायता से सेवानिवृत्त सहायक पुलिस उपनिरीक्षक राजेंद्र धोंडू भोसले की मुहिम रंग लाई‌। बच्ची से बातचीत कर उसका वीडियो उसकी माँ को दिखाया गया। पुष्टि हो जाने के बाद पुलिस ने कार्यवाही करते हुए अपराधियों को हिरासत में ले लिया‌। नौ वर्ष बाद 4 अगस्त 2022 को बच्ची अपने असली घर लौट आई‌।

राजेंद्र धोंडू भोसले की यह कर्तव्यपरायणता कल्पनातीत है, असाधारण है इस महा मानव को सैल्युट और  चरणवंदन।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 106 ☆ नवगीत – एक-दूसरे को… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – एक-दूसरे को…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 105 ☆ 

☆ नवगीत – एक-दूसरे को… ☆

एक दूसरे को छलते हम

बिना उगे ही

नित ढलते हम।

तुम मुझको ‘माया’ कहते हो,

मेरी ही ‘छाया’ गहते हो।

अवसर पाकर नहीं चूकते-

सहलाते, ‘काया’ तहते हो।

‘साया’ नहीं ‘शक्ति’ भूले तुम

मुझे न मालूम

सृष्टि बीज तुम।

चिर परिचित लेकिन अनजाने

एक-दूसरे से

लड़ते हम।

मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,

किंतु न अंतर्मन अनुगामी।

तुम प्रयास कर खुद से हारे-

संग न ‘शक्ति’ रही परिणामी।

साथ न तुमसे मिला अगर तो

हुई नाक में

मेरी भी दम।

हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर

एक-दूसरे को

खलते हम।

मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,

हँसना भूले करते पैं-पैं।

नहीं सुहाता संग-साथ भी-

अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।

अपने सपने चूर हो रहे

दिल दुखते हैं

नयन हुए नम।

फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें

एक-दूसरे बिन

ढलते हम।

तुम मुझको ‘माया’ कहते हो,

मेरी ही ‘छाया’ गहते हो।

अवसर पाकर नहीं चूकते-

सहलाते, ‘काया’ तहते हो।

‘साया’ नहीं ‘शक्ति’ भूले तुम

मुझे न मालूम

सृष्टि बीज तुम।

चिर परिचित लेकिन अनजाने

एक-दूसरे से

लड़ते हम।

जब तक ‘देवी’ तुमने माना

तुम्हें ‘देवता’ मैंने जाना।

जब तुम ‘दासी’ कह इतराए

तुम्हें ‘दास’ मैंने पहचाना।

बाँट सकें जब-जब आपस में

थोड़ी खुशियाँ,

थोड़े से गम

तब-तब एक-दूजे के पूरक

धूप-छाँव संग-

संग सहते हम।

‘मैं-तुम’ जब ‘तुम-मैं’ हो जाते ,

‘हम’ होकर नवगीत गुञ्जाते ।

आपद-विपदा हँस सह जाते-

‘हम’ हो मरकर भी जी जाते।

स्वर्ग उतरता तब धरती पर

जब मैं-तुम

होते हैं हमदम।

दो से एक, अनेक हुए हैं

एक-दूसरे में

खो-पा हम।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१०-६-२०१६

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 30 ☆ मुक्तक ।।प्रेम की नज़र है, तो फिर मुस्कराती हुईआबाद जिन्दगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।प्रेम की नज़र है, तो फिर मुस्कराती हुईआबाद जिन्दगी।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 30 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। प्रेम की नज़र है, तो फिर मुस्कराती हुईआबाद जिन्दगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

जियो  तो खुशियों  की   मीठी सौगात है      जिन्दगी।

भूलना भी सीखोअच्छी यादों  की बारात है जिन्दगी।।

ढूंढो  हर  पल में   खुशियों   के   लम्हें       ही    तुम।

प्रेम    नज़र से देखो मुस्काती हर बात है जिन्दगी।।

[2]

जिन्दगी और कुछ नहीं   बस जज्बात  है  जिन्दगी।

तुम्हारे अपनी   मेहनत    की करामात है जिन्दगी।।

भाईचारा मीठी जुबान हमेशा रखना     जीवन   में।

जान लो बस एक दूजे     की खिदमात है जिन्दगी।।

[3]

रोशन   चमकती   हुई     इक आफताब  है   जिन्दगी।

नफरत की रमक आ जाये तो बर्बाद      है  जिन्दगी।।

सफ़ल जीवन तुम्हारे   अच्छी  सोच विचार  का ही है।

अगर सकारात्मक  तो    फिर आबाद  है   जिन्दगी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी – आत्मानंद साहित्य #137 ☆ ट्रांसजेंडर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 137 ☆

☆ ‌ कथा-कहानी ☆ ‌ट्रांसजेंडर  ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(उन्हें हमेशा हेय दृष्टि से देखा जाता है। समाज ने उन्हें कभी भी सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा। उन्हे छक्का, हिजड़ा, नपुंसक आदि न जाने कितने नामों से संबोधित किया जाता है, जब कि वे भी आम इंसान ही हैं।  उनकी भी दुख सुख पीड़ा की अनुभूति साधारण इंसान की तरह ही होती है। वे भी प्रेम के भूखे हैं। अगर कोई शारीरिक विकृति है तो उसमें उनका क्या दोष?  यदि आज भी उन्हें संरक्षण मिले तो वह हमारे समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं। वे पढ़ लिख सकते हैं, डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर समाज का भला कर सकते हैं। बस जरूरत दृष्टिकोण बदलने की है। – सूबेदार पाण्डेय

अभी अभी मैं ट्रेन से सफर पूरा कर वाराणसी स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतर कर ओवरब्रिज से बाहर नीचे उतरने वाला ही था कि सहसा पीठ पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर हौले से दबा दिया। मैंने ज्यों ही पीछे पलट कर देखा तो किसी अज्ञात नवयौवना जैसी दिखने वाली दुबली पतली कोमल छरहरी काया वाली लड़की दिखी, जो मुझे देख कर हसरत भरी निगाहों से मुस्कुरा उठी, उसने रहस्यमयी अंदाज में फुसफुसाते हुए ही कहा था, ओए… मेरे साथ चल न! … उसके इन शब्दों को सुनते ही मेरे भीतर का बैठा पत्रकार सजग हो उठा। और मुझे लगा कि रिपोर्टिंग करने के लिए कोई नया विषय मिलेगा, मेरे भीतर बैठा पत्रकार नये विषय की रिपोर्टिंग करने का लोभ संवरण  नहीं कर पाया।

मेरा उद्देश्य तो खोजी पत्रकारिता था, मुझे भीतर का सारा राज जानना था इस लिए उसे टालने के उद्देश्य से मैंने कहा कि चल चाय पीकर चलते हैं। और मैं उसके साथ चाय के स्टॉल पर जा बैठा और उससे इधर उधर की बातें करने लगा था। उसने बताया कि सौ रूपए होटल वाला लेता है और पचास रुपए पुलिस वाला। मैंने फुसफुसाते हुए ही उससे पूछा फिर तो तुम्हारा खर्च कैसे पूरा पड़ता होगा? ना जाने उसे कौन सा अपनापन मिला, उसकी आंखें छलछला आई थी। मैंने जब उसके बारे में जानकारी चाही तो वह उसने कहा बाबू जी यह चाय की दुकान है चलिए कहीं और चलते हैं। उसके पीछे-पीछे अपनी नई कहानी की तलाश लेकर बगल वाले हनुमान मंदिर पर जा बैठे।

फिर बातों का सिलसिला चला तो ना तो उसे अपने समय का ज्ञान रहा और ना तो मुझे ही। हम उसकी दुख दर्द पीड़ा की कहानी में उलझ कर रह गए। बातों ही बातों में मैंने उसका हाथ प्यार से पकड़ लिया था, प्यार और अपनेपन ने उसे खोल कर रख दिया।

फिर उसने अपनी जो कहनी बताई उसने मेरी अंतरात्मा को झिंझोड़ कर रख दिया और मैं आकंठ डूब गया। उसकी व्यथा कथा में, और वह अपने बीते दिनों को याद करते हुए स्मृतियों में खोती हुइ बोल पड़ी थी।

बाबूजी मेरा जन्म पटना बिहार में संभ्रांत परिवार में हुआ था मेरे जन्म के समय मेरे माता-पिता के खुशियों का कोई ठिकाना नहीं था।

मैं अपने मां बाप की छत्रछाया में सुख चैन से अच्छी भली पल रही थी लेकिन मैं जैसे जैसे बढ़ती गई मेरे भीतर अजीब से बदलाव आते गये । मेरी आवाज़ में अलग भारीपन सुनाई देने लगा, शारिरिक संरचना भी बदलने लगी थी और फिर एक दिन एक डाक्टर ने मेरी मां को बताया कि मैं छक्का (ट्रांसजेंडर) हूँ। उस दिन मेरे मां बाप मेरे तथा अपने दुर्भाग्य पर फूट फूट कर रोए थे। और फिर एक दिन हमारे गांव आई थी छक्को की टोली और हमें उठा ले गई अपने साथ। गाना, नाचना सिखाया था और अपने समाज में शामिल कर लिया था। शुरुआती दौर में हमें ए सब कुछ अच्छा नहीं लगता था लेकिन बाद में उसे अपनी नियति का लेख समझ कर स्वीकार कर लिया और लोगों के घर बधाइयां गाने जाने लगी थी। हमारे समूह में गुरु हुआ करते थे जिन्हें हम अपना माता पिता संरक्षक सभी कुछ समझते थे।

हमारा अपना क्षेत्र बंटा होता था। हमारे और गुरु के बीच पिता और पुत्री का रिश्ता होता था। हमने उसे बीच में  टोंका था कि जब जिंदगी अच्छी भली चल ही रही थी खाने कमाने के लिए मिल ही रहा था तो फिर इस घृणित पेशे में कैसे आ गई।

और बनारस को ही अपने धंधे के लिए क्यों चुना। उसे लगा कि मैं उसे बहका रहा हूं। मैंने उसे भरोसा दिलाया कि घबराओ मत, आज हम तुम्हें पांच सौ रुपया देंगे। उसे सहसा मेरी बात का ऐतबार नहीं हुआ। लेकिन जब मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा तो वह अपनेपन की अनुभूति पा कर फूट फूट कर रो पड़ी थी। और एक बार फिर अपनी राम कहानी बताती चली गई थी। वह भावुक हो कर बोल पड़ी थी बाबू जी आप कहां से आए हैं कहां जाना है मुझे कुछ भी नहीं पता, फिर भी मैंने आप में अपनेपन की अनुभूति की है इस लिए झूठ नहीं बोलूंगी। हमारे समाज में अपनें गुरु के बूढ़े असहाय होने पर हम उन्हें घर से बाहर नहीं निकालते हैं हमारे उपर ही उनके पालन पोषण का भार है, मुझे दमें की बीमारी है मैं समूह के साथ नांच गा नहीं सकती, लेकिन फिर भी हम अपने कसम से बंधे हुए हैं हममें से हरेक एक एक महीने अपने गुरु का खर्च देखता है। अब मैं नाचने योग्य रही नहीं। घर तथा परिवार तथा समाज का रास्ता मेरे लिए बंद है पढ़ी लिखी हूं नहीं, कोई आय का  साधन है नहीं । और गुरु जी के देख रेख का भार मेरे ऊपर आने वाला है फिर इस परिस्थिति में मैं खुद क्या खाऊंगी और उन्हें क्या  खिलाऊंगी। बाबूजी ए पापी पेट का सवाल है, इसके लिए चाहे तन बेचना पड़े चाहे खून बेचना पड़े जान रहे या जाए लेकिन गुरु को दिया वचन कैसे तोड़ सकती हूं?

यह काशी मोक्ष नगरी है सुना है यहां बाबा विश्वनाथ जी और मां अन्नपूर्णा की कृपा से भूखा कोई नहीं सोता, मैं तो महाश्मशान को यह इच्छा लेकर अपना नृत्य और गीत सुनाने आई थी कि इसी बहाने बाबा की कृपा हो जाय और मोक्ष  मिल जाए इसी विश्वास और भरोसे पर यहां वहां भटकती फिर रही हूं।  और काशी की होकर रह गई हूँ।

शायद कहीं भोलेनाथ मिल जाए। इतना कहते-कहते वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी। और उसकी कर्म निष्ठा देखकर मैं भी रो पड़ा था, मेरा सिर झुकता चला गया था। मैंने खुद को संयत करते हुए उसे भरोसा दिलाया था कि तुम्हें तथा तुम्हारे समाज के लिए अवश्य कुछ करूंगा। और यह कहते हुए उसकी तरफ मैंने एक हजार रूपए उसकी तरफ बढ़ाया था, जिसे वह लेने से इंकार कर रही थी कि बाबू जी आप मेरे लिए ग्राहक नहीं हो। मैं मन ही मन सोच रहा था कि पुरुषार्थविहीन नपुंसक वे नहीं, पौरुष रहते हुए हमारा समाज नपुंसक है जो र चार औलादों के रहते भी मां बाप को नहीं पाल सकते जब कि एक वो है जो तन और ख़ून बेचकर भी अपनी कसम निभाने पर आमादा हैं जिनका अपने गुरु से खून का रिश्ता न सही फिर भी इंसानियत का रिश्ता तो है ही और एक हमारा समाज है जो अपने जन्मदाता को वृद्धाश्रम में रखता है। हर शहर में वृद्धाश्रम मिलेंगे जब कि ट्रांसजेंडर का कोई वृद्धाश्रम नहीं मिलेगा। इस तरह वह तो चली गई और मैं अपने रास्ते चला गया लेकिन छोड़ गई एक प्रश्नचिन्हो की शृंखला????

क्या हमारे समाज के प्रति लोगों का नज़रिया बदलेगा ?

क्या हमें पढ़ लिखकर कुछ बनकर देश सेवा का अधिकार नहीं?

अगर घर में अन्य दिव्यांग जन रह  सकते हैं तो फिर हम क्यो नही?

आखिर समाज हमें कब स्वीकार करेगा?

हम अछूत क्यों ?

आज मुझे उसके व्यक्तित्व के आगे सारे समाज का व्यक्तित्व बौना नजर आ रहा था  जो मुझे बार-बार सोचने पर विवश कर रहा था कि अभी और ना जाने कितनी जिंदगियां है जिन्हें हमारे समाज के सहारे की जरूरत है।

 © सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – अमृत महोत्सव स्वातंत्र्याचा– ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – 🇮🇳 अमृत महोत्सव स्वातंत्र्याचा 🇮🇳 –  ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

अमृत महोत्सव सोहळा स्वातंत्र्याचा

राष्ट्रध्वजाचे जाहले आरोहण

आदराने गाऊ राष्ट्रगीताचे गायन

स्मरुनी वीरांनी अर्पियले स्वःप्राण..

आकाशात लहरतो तिरंगा

देशाचा असे गर्व अन शान

देशधर्म निभावूनी चालू सारे

व्यर्थ न व्हावे त्यांचे बलिदान..

घेरले कितीदा देशास आपुल्या

अघोर आपदा,बेबंध संकटांनी

लावियले प्राण पणास वीरांनी

बाजी शर्थ अन हिम्मत दावूनी..

पंच्याहत्तर वर्षांचा काळ लोटला

स्वातंत्र्य मिळूनी भारताला

उगा जात धर्म भेद लोढण्याने

नका गमवू हो स्वारस्याला..

उत्साहात उत्सवाप्रती साजरा

असे देशाचा हा मंगलदिन

आठवूनी देशभक्तांचे समर्पण

तिरंग्यास करूया सादर वंदन..!

चित्र साभार – सुश्री उषा जनार्दन ढगे 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

ठाणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #153 – ग़ज़ल-39 – “तुम लफ़्ज़ सम्भाल के बोलो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “तुम लफ़्ज़ सम्भाल के बोलो…”)

? ग़ज़ल # 39 – “तुम लफ़्ज़ सम्भाल के बोलो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

दिल से उतरते देर नहीं लगती,

हालात बदलते देर नहीं लगती।

 

तुम लफ़्ज़ सम्भाल के बोलो,

 बात फिसलते देर नहीं लगती।

 

अरमानों पर बंदिश लगाओ,

 ख़ंजर उतरते देर नहीं लगती।

 

भरो चाहो जितनी ऊँची उड़ान,

ख़्वाब टूटते  देर नहीं लगती।

 

हौंसला बुलंद  रखो “आतिश”

जान निकलते देर नहीं लगती।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 95 ☆ ’’शरणागतम् …!” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “शरणागतम् …!”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 96 ☆ शरणागतम् …!” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हे दीन बन्धु दयानिधे आनन्दप्रद तव कीर्तनम्   

हमें दीजिये प्रभु शरण तव शरणागतम् शरणागतम् ||

 

हो विश्व आधार तुम, हर भक्त के संसार तुम

हितकर कृपा जगदीश तव, शरणागतम् शरणागतम् ॥

 

मन है बँधा सब ओर से भ्रम की अपावन डोर से

हम मुक्ति हित, देवेश, तव शरणागतम् शरणागतम् ॥

 

जलनिधि सी अस्थिर साधना, धरती सी उर्वर वासना

तुम प्रभु असीमाकाश, तव शरणागतम् शरणागतम्

 

 हर दिन नई छोटी बड़ी कोई समस्या है खड़ी

विपदा विनाशक नाथ तव शरणागतम् शरणागतम्  ॥

 

मन में न कोई अभिमान हो, इतना हमें प्रभु ध्यान दो

हे विश्वनाथ महान् तव शरणागतम् शरणागतम् ॥

 

माया का फैला जाल है हर पंथ में जंजाल है

सत्पथ का दो निर्देश तव शरणागतम् शरणागतम् ॥

 

तुम गुणों के आगार हो, करुणा के पारावार हो

जग नियंता विश्वेश तव शरणागतम् शरणागतम् ॥

 

रख तव चरण पै दो सुमन, प्रभु वन्दना में लीन मन

सर्वज्ञ त्वाम् नमाम्यहम् शरणागतम् शरणागतम् ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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