हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #149 ☆ कहानी – जेबकतरे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कहानी  ‘जेबकतरे ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 149 ☆

☆ कहानी – जेबकतरे 

उस दिन मुझे जबलपुर से सतना तक ट्रेन से सफर करना था। ट्रेन में रिज़र्वेशन की सुविधा नहीं थी। बस, टिकट खरीद लो और जहाँ जगह मिले, बैठ जाओ। प्लेटफॉर्म पर लहराती हुई भीड़ को देखकर मुझे लगा आज का सफर बहुत मुश्किल होगा।

ट्रेन आयी और चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की शुरू हो गयी। मुझे डिब्बे में प्रवेश करना बहुत कठिन लग रहा था, लेकिन तभी एक परिचित डिब्बे के अंदर दिख गये और उनकी मदद से डिब्बे में प्रवेश मिल गया।

जल्दी ही खिड़की के सामने प्लेटफॉर्म पर एक नाटक हुआ। कुछ लोग दस बारह साल के दो छोकरों को कहीं से पकड़ कर लाये और उनके साथ मारपीट करने लगे। उन लोगों का कहना था कि छोकरे जेबकतरे हैं। मारपीट के साथ वे उनसे कुछ पूछताछ भी कर रहे थे। इतने में ही कहीं से दो आदमी प्रकट हुए। उन्होंने दोनों छोकरों को उन लोगों के हाथों से छुड़ाकर उन्हें एक एक लात लगायी। छोकरे छूटते ही एक दिशा में भाग गये। उनके पीछे वे दोनों आदमी भी चले गये और छोकरों को पकड़ने वाले देखते रह गये। इसके बाद डिब्बे के भीतर और बाहर टिप्पणियाँ हुईं कि दोनों आदमी छोकरों से मिले हुए थे और उन्होंने जानबूझकर उन्हें भगाया था।

ट्रेन चलने के बाद डिब्बे में जेबकतरों के किस्से शुरू हो गये। एक साहब ने बताया कि अब जेबकतरे पकड़े जाने पर ब्लेड से पकड़ने वाले का हाथ भी चीर देते हैं और भाग जाते हैं। एक सज्जन ने लखनऊ का किस्सा सुनाया कि वहाँ के जेबकतरों की प्रसिद्धि सुनकर कैसे एक साहब अपनी जेब में नकली सोने के सिक्कों को लेकर घूमते रहे और शाम को डींग मारने लगे, और कैसे वहाँ के जेबकतरे ने उन्हें बताया कि उनकी जेब से नकली सिक्के निकालकर और परख कर वापस उनकी जेब में रख दिये गये थे।

फिर तो किस्से में किस्से जुड़ते गये और ‘जेबकतरा-पुराण’ बनता गया। लोगों ने मुग़ल बादशाहों के ज़माने से लेकर वर्तमान जेबकतरों तक का यशोगान किया। हम सब तन्मय होकर सुनते रहे और रोमांचित होते रहे।

एकाएक डिब्बे के दरवाजे़ की तरफ शोर हुआ और सब का ध्यान उस तरफ बँट गया। पता चला कोई जेबकतरा जेब काटने की कोशिश करता पकड़ा गया है। खड़े हुए लोगों की जु़बान पर चढ़कर बातें हम तक आने लगीं। पता लगा कि उसने किसी की जेब में हाथ डाला था कि पकड़ में आ गया।

बड़ी देर तक गर्मा-गर्मी की आवाज़ें  आती रहीं। तेज़ बातों के साथ आघातों की आवाजे़ं में भी आ रही थीं, जिन से ज़ाहिर होता था कि जेबकतरे की पूजा घूँसों से की जा रही है।

जब बहुत देर हो गयी तो मेरी उत्सुकता जागी। किसी तरह लोगों के बीच से जगह बनाता मैं उस हिस्से में पहुँचा जहाँ लोगों की एक मोटी गाँठ इकट्ठी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने लोगों के बीच से झाँका। उस गाँठ के बीच में एक साँवला युवक था, कमीज़ पतलून पहने। उसके सिर के बाल बहुत सस्ते ढँग से सँवारे हुए थे और वह सामान्य परिवार का दिखता था। क्या वह जेबकतरे सा लगता था? हाँ, वह शत-प्रतिशत जेबकतरा लगता था क्योंकि यदि किसी महात्मा  को भी एक बार जेबकतरे का लेबिल लगाकर आपके सामने खड़ा कर दें तो वे हर तरफ से जेबकतरे लगने लगेंगे।

ख़ास बात यह थी कि युवक की नाक से ख़ून बह रहा था और उसकी कमीज़ पर ख़ून के दाग ही दाग थे। वह बार-बार अपनी हथेली से अपनी नाक पोंछता था, जिस कारण उसकी हथेली भी लाल हो गयी थी।

सहसा युवक ने अपने सामने खड़े लोगों की तरफ हाथ बढ़ाये और चीखा, ‘मेरे पैसे लौटा दो। वे चोरी के नहीं, मेरे खुद के पैसे थे।’

जवाब में वहाँ खड़े एक आदमी ने एक घूँसा उसकी नाक पर मारा और वह आँख मींच कर चुप हो गया। उसने अपनी कमीज़ उतार कर नाक पर लगा ली।  

लेकिन आधे मिनट की चुप्पी के बाद ही वह हाथ उठाकर पागलों की तरह फिर चीखा, ‘अरे मेरे पैसे दे दो रे। मैंने चोरी नहीं की। वे मेरे पैसे थे। मेरे पैसे लौटा दो।’

फिर एक घूँसा उसकी नाक पर पड़ा और वह फिर शांत हो गया।

कुछ क्षण रुकने के बाद वह एक आदमी का कॉलर पकड़कर आँखें फाड़े बिलकुल विक्षिप्त की तरह चिल्लाने लगा, ‘मेरे पैसे दे दे नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा। मैं तुझे खा जाऊँगा।’

सब तरफ से घूँसों की बारिश शुरू हो गयी और युवक अपना चेहरा बाँहों में छिपा कर पीछे दीवार से टिक गया।

स्थिति मेरे बर्दाश्त से बाहर थी, अतः मैं अपनी सीट की तरफ वापस लौटा। तभी मैंने सुना कोई कह रहा था, ‘साले की घड़ी भी चोरी की होगी। उतार लो।’

इसके थोड़ी देर बाद ही उस तरफ इकट्ठी भीड़ छँटनी शुरु हो गयी और लोग हमारी तरफ को आने लगे। मैंने देखा उधर से आये दो आदमियों ने अपनी मुट्ठी में दबे नोट गिने और अपनी जेब में रख लिये। उन्हीं में से एक के हाथ में वह घड़ी थी जो थोड़ी देर पहले उस युवक की कलाई पर थी। वह आसपास बैठे लोगों को वह घड़ी दिखा रहा था।

गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। युवक से चीज़ें छीनने वाले मेरी खिड़की पर इकट्ठे होकर सावधानी से झाँकने लगे।  

उनमें से एक झाँकता हुआ बोला, ‘उतर गया।’

दूसरा पीछे से बोला, ‘देखो कहाँ जाता है। स्टेशन मास्टर के दफ्तर में जाता है क्या?’

पहला झाँकता हुआ बोला, ‘नहीं दिख रहा है। लगता है किसी दूसरे डिब्बे में चला गया।’

यह सुनकर उन सब ने लंबी साँस छोड़ी। एक बोला, ‘उसकी क्या हिम्मत है शिकायत करने की।’

इसके बाद उन सब ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘साला, जेबकतरा कहीं का।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 101 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 101 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 101) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 101 ?

? वो हूँ मैं… ?

गुज़ार दिये होंगे तुमने,

कई दिन, महीने और साल

काट ना सकोगे

जो एक रात, वो हूँ मैं…,

की होगी गुफ्तगू तुमने

कई दफा कई लोगों से,

दिल पर जो लगेगी

जो एक बात, वो हूँ मैं…,

भीड़ में जब तन्हा,

खुद को पाओगे तुम,

अपनेपन का एहसास कराये,

जो साथ, वो हूँ मैं…,

बिताये होंगे तुमने तमाम

हसीन पल सबके साथ,

भुला नहीं पाओगे,

जो एक याद, वो हूँ मैं…,

☆☆☆☆☆

? That is Me Only…! ?

Countless days, months

and the years,

You might have spent,

But the dreadful night

That you couldn’t pass

I am that sleepless night only…

Many a time, on

myriad occasions,

You may have conversed

with umpteen people

But that hurtful comment

you’ll always remember

That remark is me only…

When you find yourself

lonely in the crowd,

Surely you’ll find me

as someone

who makes you feel

loved again thoroughly,

That comforting companion is me only…

You may have spent

umpteen pleasurable

moments with many people

But the one, that can

never be erased

I’m that lasting memory only…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 147 ☆ प्रकृति कितना देती है- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 147 ☆ प्रकृति कितना देती है-  ?

लगभग पंद्रह दिन पहले हमारे शहर में पानी कटौती की घोषणा की गई थी। चार बांधों की कुल क्षमता उनत्तीस टीएमसी है। जुलाई के आरंभ तक केवल अढ़ाई टीएमसी पानी ही शेष बचा था। शहर आतुरता से मानसून की बाट जोह रहा था। कटौती आरम्भ हुई। बमुश्किल दो या तीन बार ही कटौती अमल में लाई जा सकी। इस बीच वर्षा ने शहर में मानो अपना डेरा ही डाल लिया। सूखा शहर आकंठ डूब गया पानी की अमृत बूँदों में। पिछले बारह दिनों में बारह टीएमसी पानी बांधों में जमा हो चुका। मूसलाधार वर्षा ने बांधों का चालीस प्रतिशत कोटा बारह दिनों में ही पूरा कर दिया। यह तब है जब मनुष्य पिछले कुछ दशकों से  हरियाली पर निरंतर धावा बोल रहा है। खेती की ज़मीन बिल्डरों के हवाले कर रहा है, पेड़ काट रहा है,  काँक्रीट के जंगल बना रहा है। डामर और सीमेंट की चौड़ी सड़कों, प्लास्टिक वेस्ट, ई-कचरा, कार्बन उत्सर्जन से प्रकृति की श्वासनली बंद करने का प्रयास कर रहा है।

पानी की निकासी और धरती में समाने के प्राकृतिक मार्ग अनेक स्थानों पर हमने बंद कर दिये हैं। हम प्रकृति को प्यासा मार रहे हैं और प्रकृति हमारे लिए जगह-जगह बारहमासी प्याऊ लगाने में जुटी है।

प्रकृति चराचर की माँ है। माँ सदैव दाता ही रहती है। सुमित्रानंदन पंत जी की सुप्रसिद्ध कविता ‘यह धरती कितना देती है’ स्मरण हो आती है। इस लम्बी कविता की कुछ चुनिंदा पंक्तियाँ देखिए-

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे

सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे….

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बंध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला…!

मैंने कौतूहलवश आँगन के कोने की

गीली तह को यों ही उंगली से सहलाकर

बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे….!

देखा आँगन के कोने में कई नवागत

छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं…!

अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ

हरे भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे

बेलें फैल गई बल खा, आँगन में लहरा..!

यह धरती कितना देती है…! धरती माता

कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को…!

सोचता हूँ प्रकृति कितना देती है। अपनी स्वार्थलोलुपता में प्रकृति के मूल पर चोट कर मनुष्य, मौसमी असंतुलन का शिकार हो रहा है। सनद रहे, इस असंतुलन से संतुलन की ओर लौटने के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 101 ☆ सॉनेट ~ आस्था ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट ~ आस्था)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 101 ☆ 

☆ सॉनेट ~ आस्था ☆

आस्था क्षणभंगुर चोटिल हो

पल-पल में कुछ भी सुन-पढ़कर

दुश्मन की आसान राह है

हमें लड़ाए नित कुछ कहकर

 

मैं-तुम चतुर हद्द से ज्यादा

शीश छिपाते शुतुरमुर्ग सम

बंद नयन जब आए तूफां

भले निकल जाए चुप रह दम

 

रक्तबीज का रक्त पी लिया

जिसने वह क्या शाकाहारी?

क्या सच ही पानी, खूं अपना

जो पीता नहिं मांसाहारी

 

आस्था-अंधभक्त की जय-जय

रंग बदलो, हो गिरगिट निर्भय

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८-७-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #133 ☆ गुरु पूर्णिमा विशेष – गुरु का हमारे जीवन में महत्व ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 132 ☆

☆ ‌ गुरु पूर्णिमा विशेष – गुरु का हमारे जीवन में महत्व ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।

जौ बिरंचि संकर सम होई ।

(रा०च०मा०)

गुरु गोविन्द दोनों खड़े,काके लागूं पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय ।।

(महात्मा कबीर)

आइए सर्व प्रथम गुरु शब्द की समीक्षा करें। यह जानें कि हमारे जीवन में गुरु की आवश्यकता क्यों?

गुरु शब्द का आविर्भाव गु+रू =गुरु दो अक्षरों के संयोग से निर्मित हुआ है। गु का मतलब अंधकार तथा रू का मतलब  है प्रकाश अर्थात जो शक्ति हमारे हृदय के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश भर दे वही गुरु है, जो ज्ञान नौका बन कर शिक्षा रूपी पतवार से भव निधि से पार करा दे वही गुरु है।

तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा-

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥

(रा०च०मा०)

कई जन्मों के पुण्य फल एवम् शुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप सदगुरु का आश्रय प्राप्त होता है तथा सदगुरु शिष्य की पात्रता को परखते हुए अपने चरणों में स्थान देकर आश्रय प्रदान करता है, और अभयदान दे भवसागर से पार उतार कर जीवन के सारे कष्ट हर लेता है। इष्ट प्राप्ति कराते हुए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। सत्पात्र शिष्य को ही गुरु श्री दीक्षा प्रदान करते हैं, और वह शिष्य ही‌ गुरु दीक्षा का सम्मान करते हुए उनके बताए मार्ग का अनुसरण कर दिनों-दिन आत्मिक उन्नति करते हुए अपने गुरु का सम्मान बढ़ाता है। इसका अनुभव उन सभी भक्तों, शिष्यों तथा जिज्ञासु जनों को हुआ होगा, जो गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति तथा जिज्ञासु भाव लेकर गए होंगे। गुरु संशय का नाश करते हैं। भ्रम का निवारण करते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में उक्त तथ्यों को अपने दोहे के माध्यम से पारिभाषित किया है।

भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥

तथा इसी तथ्य को पारिभाषित करते हुए महाकवि सुंदर दास जी लिखते है कि-

परमात्मा जीव को माया मोह में फंसा कर आवागमन के चक्कर में डाल देता है, लेकिन उस मोह माया के चक्रव्यूह से मुक्ति तो गुरु ही प्रदान करता है। उसका एक  समसामयिक उदाहरण प्रस्तुत है ध्यान दें-

गोविंद के किए जीव जात है रसातल कौं
गुरु उपदेशे सु तो छुटें जमफ्रद तें।
गोविंद के किए जीव बस परे कर्मनि कै
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तै।।
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में,
सुंदर कहत गुरु काढें दुखद्वंद्व तै।
औरउ कहांलौ कछु मुख तै कहै बताइ,
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तै।

(सुन्दर दास जी)

श्री गुरु के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए कूटनितिज्ञ चाणक्य जी भी कहते हैं – जो लोग समझते हैं कि गुरु के निकट रहने से उनकी अच्छी सेवा होती है यह बात कतई   ठीक नहीं । गुरु की न तो निकटता ठीक है न तो दूरी उनके अति निकटता हानिकारक है तो दूरी फलहीन। ऐसे में गुरु सेवा मध्यम भाव से करना चाहिए। अर्थात्—

अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदा:।
सेव्यन्ता मध्यभागेन वह्निगुर्रु: स्त्रिय:।।

अज्ञान तिमिर तो गुरु कृपा से ही दूर होना संभव है, क्यो कि गुरु अपने वाणी के प्रभाव से शिष्य के भीतर श्रद्धा भक्ति तथा प्रबल कर्मानुराग पैदा कर देता है। तभी तो श्री राम एवम् श्री कृष्ण को भी गुरु के आश्रित होकर शिक्षा ग्रहण करना पड़ा था। आइए उस गुरु को अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर गुरु नाम का जाप करें।

गुरु देव जी त्वं पाहिमाम्।

शरणागतम् शरणागतम्।।

ॐ श्री बंगाली बाबा समर्पणस्तु

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – संत सावतामाळी – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? –संत सावतामाळी  ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

माळ्याचा सावता

भक्त  विठ्ठलाचा

विठू नाम घेता

मळा फुले त्याचा—–

कांद्यामुळ्यामधे

दिसे त्या विठाई

पाटातले पाणी

हरी गुण गाई—–

माळ्याच्या फुलांना

वास अबिराचा

विठूच्या कपाळी

टिळा चंदनाचा—–

भिजवी मळ्याला

भक्तिरस वाणी

सावताच्या मुखी

पांडुरंग गाणी—–

सावत्याला भेटे

सखा पांडुरंग

गळामिठी देई

तया येऊन श्रीरंग—-

जीव गुंते त्याचा

विठ्ठलाचे पायी

केवढी तयाला

लाभली पुण्याई—–

रखुमाईवरा

भुलला सावता

पांडुरंग त्याचा

झाला माता पिता—–

मातेचे रुधिर

बालकाशरीरी

तसा सावत्याच्या

शरीरी श्रीहरी——

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। जिन्दगी मुझे खुद वापिस बुलाने लगी है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।जिन्दगी मुझे खुद वापिस बुलाने लगी है)

☆ मुक्तक – ।। जिन्दगी मुझे खुद वापिस बुलाने लगी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

हक़ीक़त मुझे आईना, दिखाने लगी   है।

कौन दोस्त दुश्मन, यह बताने लगी  है।।

सुन रहा जबसे दिल, की आवाज़  अपनी।

हर तस्वीर साफ़ अब, नज़र आने लगी है।।

[2]

जिंदगी धुन कोई नई सी, गुनगुनाने लगी है।।

गर्द साफ जहन से, जिंदगी मुस्कारानें लगी है।

बस आस्तीन छिपे दोस्तों को, जरा  पहचाना।

तबियत अब खुद ही, सुधर जाने लगी    है।।

[3]

आज मुश्किल खुद ही, रास्ता बताने लगी है।

जिन्दगीआजआसान सी, नज़र आने लगी है।।

जरा मैंने दिल सेअपने, नफरत को  निकाला।

हवा खुद मेरे चिरागों को, जलाने लगी   है।।

[4]

उम्मीद रोशन नई, जिन्दगी में चमकाने लगी है।

सही गलत समझ खूब, मुझको आने लगी है।।

बहुत दूर नहीं गया मैं, किसी गलत  राहों पर।

अब जिन्दगी मुझे वापिस, बुलाने    लगी है ।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 90 ☆ ’’विश्व में भगवान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “विश्व में भगवान…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 90 ☆ ’’विश्व में भगवान…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

एक तो जागृत प्रकृति है, दूसरा इन्सान है

बुद्धि और विवेक का जिसको मिला वरदान है।

निरन्तर चिन्तन मनन से कर्म से विज्ञान से

नव सृजन के प्रति सजग नित मनुज ही गतिवान है।

भूमि-जल-आकाश में जो भी जहाँ कुछ दिख रहा

वह सभी या तो प्रकृति या मनुज का निर्माण है।

प्रकृति पर भी पा विजय इन्सान आगे बढ़ गया

और आगे कर रहा नित नये अनुसंधान है।

चल रहा उसकी प्रगति का बिन रूकावट सिलसिला

अपरिमित ब्रम्हाण्ड में उड़ रहा उसका यान है।

खोज जारी है रहस्यों की तथा भगवान की

अमित भौतिक आध्यात्मिक विजय का अभियान है।

आदमी से बड़ा कोई नहीं दिखता विश्व में

वास्तव में आदमी ही इस जगत का प्राण है।

प्रकृति औ’ परमात्मा ही हैं नियंता विश्व के

साथ ही पर मुझे लगता तीसरा इन्सान है।

चेतना परिव्याप्र है जो मानवी मस्तिष्क में

शायद यह ही चेतना इस विश्व में भगवान है।          

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 98 – सरप्राइज़ टेस्ट… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #98 🌻 सरप्राइज़ टेस्ट… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक दिन एक प्रोफ़ेसर अपनी क्लास में आते ही बोला, “चलिए, surprise test के लिए तैयार हो जाइये। सभी स्टूडेंट्स घबरा गए… कुछ किताबों के पन्ने पलटने लगे तो कुछ सर के दिए नोट्स जल्दी-जल्दी पढने लगे। “ये सब कुछ काम नहीं आएगा….”, प्रोफेसर मुस्कुराते हुए बोले, “मैं Question paper आप सबके सामने रख रहा हूँ, जब सारे पेपर बट जाएं तभी आप उसे पलट कर देखिएगा” पेपर बाँट दिए गए।

“ठीक है ! अब आप पेपर देख सकते हैं, प्रोफेसर ने निर्देश दिया। अगले ही क्षण सभी Question paper को निहार रहे थे, पर ये क्या? इसमें तो कोई प्रश्न ही नहीं था! था तो सिर्फ वाइट पेपर पर एक ब्लैक स्पॉट! ये क्या सर? इसमें तो कोई question ही नहीं है, एक छात्र खड़ा होकर बोला।

प्रोफ़ेसर बोले, “जो कुछ भी है आपके सामने है। आपको बस इसी को एक्सप्लेन करना है… और इस काम के लिए आपके पास सिर्फ 10 मिनट हैं…चलिए शुरू हो जाइए…”

स्टूडेंट्स के पास कोई चारा नहीं था…वे अपने-अपने answer लिखने लगे।

समय ख़त्म हुआ, प्रोफेसर ने answer sheets collect की और बारी-बारी से उन्हें पढने लगे। लगभग सभी ने ब्लैक स्पॉट को अपनी-अपनी तरह से समझाने की कोशिश की थी, लेकिन किसी ने भी उस स्पॉट के चारों ओर मौजूद white space के बारे में बात नहीं की थी।

प्रोफ़ेसर गंभीर होते हुए बोले, “इस टेस्ट का आपके academics से कोई लेना-देना नहीं है और ना ही मैं इसके कोई मार्क्स देने वाला हूँ…. इस टेस्ट के पीछे मेरा एक ही मकसद है। मैं आपको जीवन की एक अद्भुत सच्चाई बताना चाहता हूँ…

देखिये… इस पूरे पेपर का 99% हिस्सा सफ़ेद है… लेकिन आप में से किसी ने भी इसके बारे में नहीं लिखा और अपना 100% answer सिर्फ उस एक चीज को explain करने में लगा दिया जो मात्र 1% है… और यही बात हमारे life में भी देखने को मिलती है…

समस्याएं हमारे जीवन का एक छोटा सा हिस्सा होती हैं, लेकिन हम अपना पूरा ध्यान इन्ही पर लगा देते हैं… कोई दिन रात अपने looks को लेकर परेशान रहता है तो कोई अपने करियर को लेकर चिंता में डूबा रहता है, तो कोई और बस पैसों का रोना रोता रहता है।

क्यों नहीं हम अपनी blessings को count करके खुश होते हैं… क्यों नहीं हम पेट भर खाने के लिए भगवान को थैंक्स कहते हैं… क्यों नहीं हम अपनी प्यारी सी फैमिली के लिए शुक्रगुजार होते हैं…. क्यों नहीं हम लाइफ की उन 99% चीजों की तरफ ध्यान देते हैं जो सचमुच हमारे जीवन को अच्छा बनाती हैं।

तो चलिए आज से हम life की problems को ज़रुरत से ज्यादा seriously लेना छोडें और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को ENJOY करना सीखें ….

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 111 – हरवली पाखरं ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 111 –हरवली पाखरं ☆

अशी हरवली पाखरं

मन हळवे अतं री।

किती समजावू रे मना

आभासाची गत न्यारी।

 

सदा प्रेमामृत मुखी

देई मायेने रे घास।

नको पिलांच्या रे माथी

तुझ्या आकांक्षाची आस ।

 

घाली मायेची पाखरं

जशी दुधात साखर।

घेण्या आकाशी भरारी

खोल घरट्याची द्वार द्वारं।  

 

जगी अथांग झुंजण्या

देई कणखर आधार।

छाया तुझीच सानुली

कशी फिरेल माघार।

 

आचरणी सदा तुझ्या

संस्काराचे मिळे धडे।

मनामध्ये आभासी या

नको संशयाचे रडे।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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