हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 217 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 217 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

तुम्हारी सीमाएँ – मर्यादा?

ऋषिवर,

तुम भूल गये

साध्य और साधन की

पवित्रता ।

भूल गये

श्वेत केतु का संकल्प

उसकी व्यवस्था ।

सत्य मान बैठे

ऋषि का वरदान

अक्षत कौमार्य का विधान!

आवश्यक नहीं थी

गुरु दक्षिणा,

झेल लेते

गुरु का क्रोध,

उनका शाप ।

क्षमा करना

आपके द्वारा किये

कृत्य को

आज की भाषा में

‘दलाली’ कहते हैं

जिसका ध्येय

नारी की अस्मिता की मान रक्षा नहीं

मात्र धन होता है।

धिक्कार है तुम्हें।

उत्तर दे सको तो देना

अनुत्तरित है

मेरा प्रश्न !

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 217 – “उसकी कहीं मंसा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत उसकी कहीं मंसा...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 217 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “उसकी कहीं मंसा...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

पानबाई

जलती अखण्ड

जोत तुम में

ढूँडो न अब

दिया सलाई

पान बाई

 

वह जो वासी

है घट-घट का

पता रही पूछ

भला पनघट का

 

धरी नही रह

जाये चतुराई

पानबाई

 

ढूंड रही है

यहाँ हर काया

तेरी ही तेरी

तो है माया

 

फिर क्या पर्वत

और क्या खाई

पानबाई

 

है तो यह

उसकी कहीं मंसा

उड़ गया किधर

को है वह हंसा

 

छोड़ छाड़ कर

अपनी ठकुराई

पानबाई

 

* पानबाई = प्राणवायु, मंसा= मंशा, जोत = ज्योति

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

01-12-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्लके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल

☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ ☆

☆ जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

विविध विषयों का ज्ञान, धीर – गंभीर व्यक्तित्व और ओजस्वी वाणी, ज्ञान पिपासुओं को निःस्वार्थ मार्गदर्शन और अपने अनुभव देते रहना, पं. दीनानाथ शुक्ल के इन गुणों ने उन्हें जीवन काल में ही विशिष्ट बना दिया था। शुक्ल जी का जन्म 1 जुलाई 1932 को छतरपुर जिले में हुआ। कम आयु में ही वे शासकीय शिक्षक नियुक्त हो गए। दीनानाथ जी ज्ञान पिपासु थे। शिक्षक बनने के बाद उनकी ज्ञान पिपासा और बढ़ गई। उन्होंने रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से राजनीति शास्त्र में एम. ए. किया। एम.एड. की परीक्षा में शुक्ल जी को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। एक श्रेष्ठ शिक्षक के साथ ही अच्छे कवि, साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति सुदूर क्षेत्रों तक व्याप्त थी।

हिंदी और अंग्रेजी के विद्वान पं. दीनानाथ शुक्ल ने यद्यपि हिंदी में भी लिखा है तथापि साहित्य सृजन के लिए उन्होंने अपने जन्म स्थान छतरपुर की बोली – बानी “बुंदेली” को चुना। उनकी पांडित्य पूर्ण, हास – परिहास से युक्त, जागरण की प्रेरणा देती बुंदेली रचनाओं का साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान है।

“ईपै अधिक न सोचौ” पं. दीनानाथ शुक्ल का बुंदेली में रचा व्यंग्य कविताओं का संग्रह है। लोक रस – युक्त इन कविताओं में जीवन के विविध रंग हैं, किंतु मूल भाव जीवन को सुमार्ग पर अग्रसर करने – कराने का है।

“नओ उजेरो” कविता में वे कहते हैं –

कका दाउ जू संझले मंझले दद्दा, बब्बा नन्ना,

हलके बड़े मौसिया नन्ने जीजा फूफा मम्मा।

नाते भये अलोप सबई अब, लै लै नाम पुकारत,

अंकल डैडी ब्रदर कान के, पर्दा चीरें डारत।

सब हो गओ का सपनो,

गांव बदल गओ अपनों।

भाव अभिव्यक्ति के लिए शुक्ल जी के पास बुंदेली के इतने सटीक शब्द थे कि वे श्रोता – पाठक के समक्ष तत्काल उनका अर्थ प्रगट करते थे। उनकी बुंदेली भाषा – शैली अत्यंत सहज सरल थी।

 पं. दीनानाथ शुक्ल की भाषा की सहज ग्राह्यता देखिए –

यंत्री के मंत्री झल्लाने – इत्तो माल न खाओ,

सड़क बनी ती इतै कहां गइ, नक्शा मोय दिखाओ।

नक्शा मोय दिखाओ, पूरी कीके पेट समानी,

भ्रष्टाचार तकैया पूंछत, कैसें भइ नुकसानी।

हांत जोर कें यंत्री बोलो – डामल तौ मैं खा गओ,

गिट्टी मुरम बोल्डर प्रभु के, साले पेट समा गओ।

और इसे पढ़ें –

दंगा मैं पथरा सन्नाबै, दूरइ, सें जो लरका –

“गोला तवा फेंक” में भेजौ, पता लगा कें घर का।

चिरइ-चिरोंटा गिरदौना जो, तक गुलेल सें मारत –

चुन लो उन्हें “निशान लगाबे”, बाजी बे नइं हारत।

पं. दीनानाथ शुक्ल ने हमेशा कभी स्वयं के माध्यम से तो कभी अपने आसपास रहने वाले लोगों के माध्यम से अपनी बात कही है –

तानें हमें न मारौ, अपनो अपनो रूप निहारौ।

दई बनाओ तुमें ऊजरौ, हमें बना दऔ कारौ

ईमें का है दोष हमारौ, ताने हमें न‌‌‌ मारौ। ।

शुक्ल जी अपनी जो भी रचनाएं लोगों को स्वतः सुनते थे, उनके प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के कारण वे रचनाएं श्रोताओं के मन में अमित छाप छोड़ती थीं। पं. दीनानाथ जी ने सदा रचनाकारों को बुंदेली में लिखने प्रेरित किया और उन्हें मार्गदर्शन दिया। अनेक लोकभाषाई कवि सम्मेलनों में बुंदेली का प्रतिनिधित्व करके प्रशंसा अर्जित करने वाले पं. दीनानाथ शुक्ल जी को समय समय पर अनेक संस्थाओं – संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया। अपने सहज – सरल उद्देश्यपूर्ण बुंदेली गीतों के कारण वे साहित्य जगत में सदा याद किए जाएंगे।

“दीनानाथ” अकल ताकत के, “ठेंगन” की बलिहारी –

जीने सीखो मंत्र, ओई सें, झुक रइ दुनिया सारी।

“दीनानाथ”कहते हैं, अक्ल की ताकत के ठेंगे की बलिहारी ! जिसने यह मंत्र सीखा उसके सामने सारी दुनिया झुक रही है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 201 ☆ # “महापरिनिर्वाण के अवसर पर…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता महापरिनिर्वाण के अवसर पर…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆

☆ # “महापरिनिर्वाण के अवसर पर…” # ☆

(6 दिसंबर महापरिनिर्वाण दिवस पर विशेष)

तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आंख भर भर आईं हैं

हर शख्स रूदन कर रहा

आँखें डबडबाई हैं

 

जीवन पथ पर चलने की

तुमने राह दिखाई है

संघर्षों में लड़ने की

तुमने चाह जगाई है

सदियों से अंधेरे में थे

तुमने ज्योत जलाई है

हर शोषित, वंचित के मन में

तुमने आस बंधाई है

शिक्षा हथियार है

यह बात तुमने सिखाई है

छीन लो हक अपने

यह बात समझाई है

तुम ही हो भगवान हमारे

यही एकमात्र सच्चाई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं

 

आजकल तूफानों में

बहुत जोर है

आंधियों और हवाओं में

बहुत शोर है

चारों तरफ छाई हुई

घटाएं घनघोर हैं

चमकती बिजलीयां

चहुं और है

बदलने तुम्हारे संविधान को

दुष्ट ताकतें

लगा रही जोर जोर हैं

जो भी टकराया है हमसे

उसने मुंह की खाई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं

 

अब यह सैलाब बहा देगा

ऊंची ऊंची चट्टानों को

कोई भी ना रोक सकेगा

दृढ़ संकल्प दीवानों को

सर पर कफ़न बांधकर

मरने निकले परवानों को

देख कुर्बानी के इस जज्बे को

दुनिया भी थर्राई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं

 

तुम्हारे अनुयायी अब

जागृत और सचेत हैं  

माना हमारे बीच में

कुछ थोड़े से मतभेद हैं

विचारों की जंग है

अरमानों के खेत हैं  

टीले हैं जज्बातों के

ज़मीं हुई रेत है

जिस्म है अलग अलग पर

सबका लक्ष्य समवेत है

यही समाज के उन्नति और

बदलाव के संकेत हैं

हमने संकल्पों के दीपक में

उम्मीद की बातीं जलाई है

आज तुम्हारे महापरिनिर्वाण पर

आँखें भर भर आईं हैं /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हे शब्द अंतरीचे # 197 ☆ अभंग… प्रेम, शांति, और सुख का गान ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 197 ? 

अभंग… प्रेम, शांति, और सुख का गान ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

हिंदी रचना ( हे शब्द अंतरीचे.)

निरामय हो जीवन मेरा,

न हो कोई दु:ख का डेरा।

मन के कोने उजियारे हों,

सत्य-प्रेम के तारे हों।

*

चंचल मन भी शांत रहे,

हर दुख से अछूता रहे।

तन-मन में ऐसा प्रकाश हो,

जैसे सूरज का आभास हो।

*

न बैर हो, न कोई राग,

हर दिशा में केवल सुहाग।

नफरत का हर रंग मिटे,

प्यार में सब ही सिमटे।

*

निरामय हो काया सारी,

न हो कोई चिंता भारी।

प्रेम, शांति, और सुख का गान,

हो जीवन का सच्चा मान।

*

साथ निभाएं, साथ बढ़ें,

प्रेम का संदेश लाएं,

दिल में हो इंसानियत,

भेदभाव सब मिटाएं।

*

कविराज की यही पुकार

दुःख दूर हो हे महाराज

अर्ज मेरी स्वीकार करो

मेरे जीवन को तेरा ही साज।

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्रतोपासना – २. अन्नाचा सन्मान ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

व्रतोपासना – २. अन्नाचा सन्मान ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

आपण बऱ्याच गोष्टी नकळत करत असतो. त्यात काही चुकीच्या गोष्टी पण आपल्या हातून नकळत घडतात. त्याच जर हेतुपुरस्सर बदलल्या तर ती सवय होऊन जाते. आणि भावी पिढी साठी ते संस्कार बनून जातात. यातील काही आवश्यक गोष्टी विविध कारणांनी मागे पडत चालल्या आहेत. यातील एक गोष्ट म्हणजे अन्नाचा सन्मान

आपल्याही नकळत आपण बरेचदा अन्नाचा अपमान करत असतो. कदाचित ते लक्षात पण येत नाही. इथे मला एक गोष्ट आठवते. एक खूप मोठे कुटुंब असते. घरातील सगळे काम करणारे असतात. रात्री ते एकत्र जेवत असतात. एक दिवस घरात फक्त तांदूळ असतात. त्या घरातील मोठी सून त्या तांदुळाची खिचडी करायला ठेवते. तितक्यात तिची सासू येते. तिला वाटते सून मीठ घालायचे विसरली म्हणून ती त्यात मीठ घालते. असेच घरातील तिन्ही सुनांना वाटून प्रत्येक जण स्वतंत्र पणे मीठ घालून जाते. त्याच वेळी लक्ष्मी व अवदसा या घरात असतात. आणि या घरात कोणी राहायचे या वरून त्यांच्यात वाद होतो. आणि असे ठरते, या कुटुंबातील एकाही व्यक्तीने अन्नाला नावे ठेवली नाही तर त्या घरात लक्ष्मी निवास करेल. आणि कोणी नावे ठेवली तर अवदसा त्या घरात राहील. त्या दोघी घरात एका बाजूला बसून निरीक्षण करत असतात. घरातील सर्व पुरुष मंडळी प्रथम जेवायला बसतात. सासरे पहिला घास घेतात त्याच वेळी भात खारट झाल्याचे लक्षात येते. पण घरातील स्त्रियांचे कष्ट लक्षात घेऊन ते काहीही न बोलता गुपचूप जेवतात. ते बघून त्यांची मुलेही गुपचूप जेवतात. त्यामुळे छोटी मुले, स्त्रिया कोणीही काहीही न बोलता जेवतात. थोडक्यात अन्नाला कोणीही नावे ठेवत नाहीत. म्हणजेच अन्नाचा सन्मान ठेवतात. आणि लक्ष्मी कायमची त्या घरात निवास करते.

अन्नाचा सन्मान हे खूप मोठे व महत्वाचे व्रत आहे. त्या सन्मान करण्यात शेतकरी त्यांचे कष्ट, घरातील स्त्रिया त्यांची कामे या सगळ्यांचा सन्मान असतो. परंतू हल्ली वाया जाणारे अन्न पाहिले की मनाला त्रास होतो. एकीकडे आपण अन्न हे पूर्णब्रह्म म्हणतो. त्यावर आपला देह पोसला जातो. जेवणाला उदर कर्म न मानता यज्ञ कर्म मानतो. मग अन्न टाकून देताना ही भावना का विसरतो? असा प्रश्न पडतो. एखाद्या कार्यात बघितले तर अन्नाची नासाडी दिसते. आणि त्याच रस्त्याच्या दुसऱ्या बाजूला अन्नासाठी व्याकूळ झालेले लोक दिसतात. आणि अन्न वाया जाणार नाही, या साठी पण कायदे करण्याची आवश्यकता आहे का? असा प्रश्न पडतो.

पुण्यातील एका कार्यालयात मी असा अनुभव घेतला आहे. ताटात कोणी अन्न ठेवून ताट ठेवायला गेले की तेथे उभी आलेली व्यक्ती ते ताट ठेवू देत नाही. ताट रिकामे करून आणा म्हणून ती व्यक्ती सांगते. सावकाश संपवा अशी विनंती केली जाते. सुरुवातीला लोकांना हे आवडले नाही. पण त्या कार्यालयाचा तो नियमच आहे. एकदा समजल्यावर लोक मर्यादेत वाढून घेऊ लागले. एका डायनिंग हॉल मध्ये पण अशी पाटी लावली आहे. ताटातील अन्न संपवल्यास २० रुपये सवलत मिळेल. असे सगळीकडे व्हावे असे वाटते. त्याही पेक्षा आपण ठरवले तर अन्नाचा योग्य सन्मान करु शकतो. आणि आपले बघून पुढची पिढी हेच संस्कार स्वीकारणार आहे.

अन्नाचा सन्मान तर पूर्वी पासूनच आहे. पण पुन्हा त्याला नव्याने उजाळा देण्याची वेळ आली आहे. तर अन्नाचा सन्मान हे व्रत आचरणात आणण्यास कोणाची हरकत नसावी.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 267 ☆ कथा – एक नेक काम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय कथा – ‘एक नेक काम‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 267 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ एक नेक काम

बाहर चले गये या बाहर रह रहे बच्चों का घर आना बहुत सुख देने वाला होता है, और उनका जाना बहुत दुखदायक। मीनू इस बार जब ससुराल से आयी तो मां बाप को हमेशा की तरह बहुत खुशी हुई। दोनों छोटी बहनों को भी। खासतौर से इसलिए कि उसके साथ बुलबुल भी था। बुलबुल अब दो साल का हो गया था। पिछली बार जब मीनू आयी थी तब  वह इधर-उधर घिसट ही पाता था। अब  वह सयाना हो गया था,खूब बातूनी। उसकी तोतली ज़बान दिन भर चलती थी। ढेर सारी जिज्ञासा और ढेर सारे सवाल। नाना नानी और दोनों मौसियो के लिए जीता-जागता खिलौना। मीनू के पास न अब वह रहता था, न सोता था।

नानी उसे अपने पास लिटा कर खूब सारी कहानियां सुनातीं— राजाओं, राजकुमारियों की, परियों और राक्षसों की। बच्चे वैसे भी अद्भुत श्रोता होते हैं। हर बात उनके लिए सच होती है, हर किस्सा विश्वसनीय। परी, राक्षस, सब उनकी कल्पना में जिन्दा हो जाते हैं। उनके साथ उठते, बैठते, बतयाते हैं। बुलबुल भी नानी की कहानियां सुनते-सुनते कभी किलक कर ताली बजाने लगता,  कभी भयभीत होकर कबूतर की तरह उनकी गोद में दुबक जाता। सारे वक्त उसकी आंखें उत्सुकता से फैली रहतीं और पुतलियां नानी के चेहरे के चारों तरफ घूमती रहतीं। फिर एकाएक नानी पातीं कि वह किसी क्षण नींद में डूब गया है। उसके गुलाबी ओंठ नींद में खुल जाते और उसकी सांसों की मीठी महक नानी के चेहरे को छूने लगती।

मां के घर आकर मीनू आलसी हो जाती है। मां कोई काम नहीं करने देती। कहती हैं, अपने घर में बहुत काम करती होगी। यहां थोड़ा आराम कर ले। मां और बहनें सारा काम करती हैं और मीनू आराम फरमाती है। लेटी लेटी कोई किताब पलटती है या सोती है। यहां आकर जैसे वह एक बार फिर बच्ची हो जाती है। मां उसके लिए सोच सोच कर नये पकवान बनाती है और मना मना कर उसे खिलाती है।

मीनू ऊबती है तो परिचितों के घर बैठने के लिए चली जाती है। उसकी हमउम्र सहेलियों में से ज़्यादातर शादी के बाद ससुराल चली गयीं। जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई वे समय काटने के लिए किसी डिग्री या ट्रेनिंग के चक्कर में फंसी हैं। ऐसी सहेलियों को मीनू से ईर्ष्या होती है क्योंकि मध्यम वर्ग की लड़की की सही वक्त पर शादी हो जाना सौभाग्य की बात है।

बुलबुल के आने से मीनू के पिता भी खूब खुश हैं। वे कहीं भी जाने के लिए तैयार होते हैं कि बुलबुल कहता है, ‘नानाजी, कहां जा रहे हो? हम भी चलेंगे।’ वह सब जगह नाना की उंगली पकड़े घूमता है, चाहे वह बाज़ार हो या उनके मित्रों का घर।

गरज़ यह कि मीनू की उपस्थिति से घर में बड़ा सुकून है। उसकी बात कोई नहीं टालता, न मां-बाप, न बहनें।जब मर्जी आती है, वह मां को, पिता को, बहनों को झिड़क देती है और सब उसकी बात को शान्ति से सुन लेते हैं और मान लेते हैं। मां को आराम है क्योंकि पिता और बहनों पर वह खूब अनुशासन रखती है।

मीनू के आने से घर की महरी भी खुश है। वजह यह है कि जाते वक्त कुछ मिल जाने की आशा है— रुपये और शायद पुरानी साड़ी और ब्लाउज़। इसीलिए वह मीनू की अतिरिक्त सेवा करती है। काम खत्म होने पर अक्सर उसके हाथ- पांव दबाने बैठ जाती है।

महरी के साथ उसकी तेरह चौदह साल की बेटी आती है। नाम आश्चर्यजनक है— सुकर्ती। यह ‘सुकृति’ शब्द बिगड़कर कैसे निम्न वर्ग तक पहुंच गया, यह अनुसंधान का विषय है। वैसे हर सन्तान माता-पिता की नज़र में ‘सुकृति’ ही होती है। सुकर्ती किसी घर से कृपा-स्वरूप मिली गन्दी फ्राक पहने, रबर की चप्पलें फटफटाती, सूखा झोंटा खुजाती, मां के साथ घूमती रहती है। मां बर्तन मांजती है तो वह धो देती है। लेकिन उसे झाड़ू पोंछा लगाने की अनुमति नहीं मिलती क्योंकि उसकी सफाई के बाद भी घर में बहुत सी गन्दगी छूट जाती है।

बुलबुल सुकर्ती से भी बहुत हिल गया है। उसकी गोद में चढ़ा घूमता है। कई बार उसके साथ उसके घर भी हो आया है।

सुकर्ती को देखकर कई बार मीनू के मन में आया है कि उसे अपने साथ ले जाए। बुलबुल को खिलाने के लिए कोई चाहिए। एक  ननद है जो अपनी पढ़ाई में लगी रहती है। सास ससुर ज़्यादा बूढ़े हैं। उनसे  वह ठीक से संभलता नहीं। मीनू ने इसके बारे में मां से बात की और फिर दोनों ने ही महरी से। महरी बात को टाल देती है। बेटी के सूखे बालों पर प्यार से हाथ फेरकर कहती है, ‘बाई, अब इसी की वजह से घर में कुछ अच्छा लगता है। दोनों लड़के ‘न्यारे’ हो गये। यह भी चली जाएगी तो घर में मन कैसे लगेगा? जो रूखा सूखा मिलता है सो ठीक है। आंखों के सामने तो है। बड़ी हो जाएगी तो हाथ पीले कर देंगे।’

लेकिन मीनू और उसकी मां इतनी आसानी से हारने वाले नहीं। मां, मीनू और दोनों बहनें हमेशा महरी को एक ही धुन सुनाती रहती हैं, ‘सुकर्ती को भेज दो। आराम से रहेगी। अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी। भले घर में रहकर शऊर सीख जाएगी। यहां देखो कैसे घूमती है। वहां जाएगी तो शकल बदल जाएगी। तुम देखोगी तो पहचान भी नहीं पाओगी। और फिर मीनू तो साल- डेढ़- साल में आती ही रहती है। उसके साथ सुकर्ती  भी आएगी।’

महरी एक कान से सुनती है, दूसरे से निकाल देती है। अकेले में सुकर्ती के सामने भी प्रलोभन लटकाये जाते हैं, ‘वहां अच्छा खाना, अच्छे कपड़े मिलेंगे। वहां कार भी है। खूब घूमने को मिलेगा। काम क्या है? बस, बुलबुल को खिलाना और थोड़ी ऊपरी उठा-धराई।’

सुनते सुनते सुकर्ती अपनी वर्तमान ज़िन्दगी और उस काल्पनिक ज़िन्दगी के बीच तुलना करने लगती है। उसे अपनी वर्तमान ज़िन्दगी में खोट नज़र आने लगते हैं। सामने कल्पना की इंद्रधनुषी दुनिया विस्तार लेती है जिसमें सब कुछ सुन्दर, चमकदार है, वर्तमान अभाव और अपमान नहीं है।

रात को जब थककर महरी सोने के लिए लेटती है तो उसके सिर पर हाथ फेरकर कहती है, ‘तू कहीं मत जाना बेटा। हम जैसे भी हैं अच्छे हैं। चली जाएगी तो देखने को तरस जाएंगे। जो मिलता है, उसी में हमें संतोष है।’

लेकिन सुकर्ती की आंखों में वह चमकदार दुनिया कौंधती है। वह कोई जवाब नहीं देती।

मीनू महीने भर रहने की सोच कर आयी थी, लेकिन एक दिन उसके पतिदेव आ धमके। बहुत से पति पत्नी-विछोह नहीं सह पाते। दो दिन बाद ही तबीयत बिगड़ने लगती है। यह नहीं कि हर स्थिति में पत्नी के प्रति बहुत प्रेम ही हो, बस पत्नी एक आदत बन जाती है, ज़िन्दगी के ढर्रे का एक ज़रूरी हिस्सा, जिसकी अनुपस्थिति में ढर्रा गड़बड़ाने लगता है। अक्सर पत्नी की अनुपस्थिति कुछ ऐसी लगती है जैसे घर की कोई बहुत उपयोगी ऑटोमेटिक मशीन बिगड़ गयी हो। घर में उसकी उपस्थिति ज़रूरी होती है, लेकिन उसके प्रति कोई स्नेह या समझदारी का भाव नहीं होता।

तो दामाद साहब मीनू को ले जाने के लिए पधार गये। भारतीय समाज में दामादों का पधारना एक घटना होती है। घर में एक ज़लज़ला उठता है। प्रेम और ख़िदमत के भाव गड्डमड्ड हो जाते हैं।

यहां भी यही हुआ। सास और दोनों सालियां दामाद साहब की सेवा में लग गये। क्या खिलायें? कहां घुमायें? दामाद से संबंध में केवल स्नेह का ही भाव नहीं होता, अन्यथा साले को अपनी बहन के घर में भी वैसा ही सम्मान मिलता। इसकी पृष्ठभूमि में वरपक्ष की श्रेष्ठता और कन्यापक्ष की घटिया स्थिति होती है। दामाद की खातिर के लिए और उसे अच्छी विदाई देने के लिए सास-ससुर कोनों में फुसफुसाते हैं, कर्ज लेते हैं और दामाद साहब सब जानते हुए भी टांग पर टांग  धरे शेषशायी मुद्रा में पड़े विदाई के सुखद  क्षण की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

दामाद के आने से मीनू की मां खुश भी हुई और दुखी भी। बेटी के चले जाने की सोच कर दिल भारी हो गया। विवाह के बाद बेटी पर कैसे अधिकार खत्म हो जाता है। उधर से हुक्म आता है और उसका तुरन्त पालन करना पड़ता है। मां अब अक्सर चिन्तित रहती थीं। काम करते-करते रुक कर सोच में डूब जाती थीं। मीनू के साथ-साथ बुलबुल के चले जाने की बात उन्हें और ज़्यादा व्याकुल करती थी।

मां वैसे भी बहुत संवेदनशील थीं। बेटियों की जुदाई उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। मीनू की शादी में विदा के वक्त ऐसी हड़बड़ायीं कि सीढ़ी से उतरने में लुढक गयीं। घुटने और हाथ में खासी चोट आयी । उसी स्थिति में मीनू को उनसे विदा लेनी पड़ी थी। अब मीनू के जाने में तीन-चार दिन थे, लेकिन वे अकेली होने पर अपने आंसू पोंछती रहती थीं। पति और दोनों छोटी बेटियों पर चिड़चिड़ाती रहतीं। 

दामाद साहब के आने के बाद से महरी पर सुकर्ती को भेजने के लिए दबाव बढ़ने लगा था। अब महरी के लिए बात को टालना मुश्किल हो रहा था। अन्ततः बात सुकर्ती के बाप तक पहुंच गयी। एक दिन सवेरे वह मीनू  के घर आया। सांवला, तगड़ा, सलीके से बात करने वाला आदमी था।

हाथ जोड़कर मीनू से बोला, ‘आप ले जाओ बाई सुकर्ती को।  हमने सुना तो हमें बड़ी खुशी हुई। लड़की की जिन्दगी सुधर जाएगी। बल्कि वहीं कोई लड़का देख कर उसकी शादी करवा देना। उसकी मां की बात पर ध्यान मत देना। वह मूरख है। सुकर्ती आपके साथ जरूर जाएगी।’

घर में सब खुश हो गये। किला फतह हो गया। लेकिन उस दिन से महरी बहुत उदास रहने लगी। आती तो बहुत धीरे-धीरे बात करती। सुकर्ती से पहले से ज़्यादा प्यार से बात करती। पहले से ज़्यादा उसका खयाल करती।

अन्ततः वह दिन आ गया जब मीनू को प्रस्थान करना था। मां का कलेजा फटने लगा। सब सामान तैयार हो गया। घर के सब सदस्य बुलबुल को बारी-बारी से गोद में लेकर प्यार करने लगे। सुकर्ती अपनी पोटली लेकर आ गयी थी। साथ मां-बाप थे। महरी का जी दुख से भरा था। आंखों में आंसू भरे, आंचल को मुंह में ठूंसे वह चुपचाप खड़ी थी। लेकिन सुकर्ती एक लुभावनी दुनिया की आशा में खुश थी।

मीनू विदा हो गयी। पिता और सुकर्ती का बाप उन्हें छोड़ने स्टेशन गये। मेहमान अपने पीछे सन्नाटा, शून्य और दुख छोड़ गये। घर के पुराने सन्तुलन को मीनू और बुलबुल के आगमन ने तोड़ा था और अब घर उसी पुराने सन्तुलन पर लौटने की पीड़ादायक प्रक्रिया से गुज़र रहा था।

मीनू के जाते ही मां आंखों को साड़ी से ढक कर पलंग पर ढह गयीं और दोनों बेटियां कुर्सियों पर चुप-चुप बैठ गयीं।

महरी एक कोने में बांहों पर सिर रखे बैठी थी। थोड़ी देर में उसके मुंह से रुलाई का हल्का सवार निकलने लगा, जैसे कि पीड़ा को दबाये रखना कठिन हो गया हो।

उसकी आवाज़ सुनकर मीनू की मां चौंक कर पलंग पर बैठ गयीं। दोनों बहने भी चौंकीं।

मां उठकर उसके पास आयीं और उसके नज़दीक उकड़ूं बैठ गयीं। उनके चेहरे पर आश्चर्य का भाव था। बैठकर बोलीं, ‘अरे, तुम रो रही हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि सुकर्ती आराम से रहेगी। रोने की क्या बात है?’

जवाब में महरी का स्वर और ऊंचा हो गया। मीनू की मां की समझ में नहीं आ रहा था कि महरी खुश होने के बजाय रो क्यों रही थी। दोनों बहनें भी यह समझ नहीं पा रही थीं कि  सुकर्ती के इतनी अच्छी जगह जाने पर महरी को खुशी क्यों नहीं हो रही थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 267 – सहजता… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 267 सहजता… ?

सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय।

जिन सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय।।

कबीरदास जी लिखते हैं कि सहज-सहज सब कहते हैं, परन्तु सहजता को समझते या पहचानते नहीं। जिन्होंने सहजरूप से विषय-वासनाओं का परित्याग कर दिया है, कामनाओं से मुक्त हो गये हैं, वे ही सहज हैं।

व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो जीवन सरल है पर सिक्के का दूसरा पहलू है कि सरल होना, सबसे कठिन है। सरलता पर कुटिलता के अतिक्रमण ने मनुष्य की कुलीनता को ही ढक दिया है। मनुष्य कुल का होना बुद्धि के वरदान से सम्पन्न होना है पर मनुष्य अपने बनाये कृत्रिम मानकों की रक्षा में जीवन भर मुखौटे लगाकर जीता है, चेहरे पर चेहरे चढ़ाकर जीता है।

केंचुली उतारते साँप को देखा,

कौन अधिक विषधर,

चेहरे चढ़ाते इंसान को देखा…!

मंच या परदे पर कलाकार मुखौटा लगाने को विवश है। वह भूमिका समाप्त होते ही मुखौटा निकाल देता है पर निजी जीवन में प्रतिदिन, निरंतर, अविराम मुखौटा लगाता है आदमी। अधिकांश मामलों में मुखौटा लगाये-लगाये ही उसकी मृत्यु भी हो जाती है, अर्थात  जीवन के विराम लेने तक लगा रहता है मुखौटा अविराम।

सहज होना, सरल होना, सत्य के साथ होना। यूँ भी ‘सहज’ का शाब्दिक अर्थ देखें तो ‘सह’ याने साथ में और ‘ज’ याने जन्मा। सृष्टि का होना, उसमें उसके एक घटक मनुष्य का होना, परम सत्य है। सत्य के जगत में लुकाव-छिपाव हो ही नहीं सकता। पक्षी और प्राणी जगत इस सत्य के साथ जीवन व्यतीत करता है। अपवाद केवल मनुष्य है। मनुष्य जो दिखता है, अधिकांश मामलों में वह होता नहीं। बेहतर होने के बजाय बेहतर दिखने, बेहतर प्रदर्शित होने की लिप्सा, उसे सत्य से असत्य, सरल से कठिन, सहज से जटिल की ओर ले जाती है। ओढ़ी हुई यह जटिलता मनुष्य के जीवन-आनंद को नष्ट करती है। धारा को रोक दिया तो प्रवाह का नाश अवश्यंभावी है।

‘पाखंड’ शीर्षक की अपनी कविता स्मरण आ रही है,

मुखौटों की/ भीड़ से घिरा हूँ,

किसी चेहरे तक/ पहुँचूँगा या नहीं

….प्रश्न बन खड़ा हूँ,

मित्रता के मुखौटे में/ शत्रुता छिपाए,

नेह के आवरण में/ विद्वेष से झल्लाए,

शब्दों के अमृत में/ गरल की मात्रा दबाए,

आत्मीयता के छद्म में/ ईर्ष्या से बौखलाए,

मनुष्य मुखौटे क्यों जड़ता है,

भीतर-बाहर अंतर क्यों रखता है?

मुखौटे रचने-जड़ने में/ जितना समय बिताता है

जीने के उतने ही पल / आदमी व्यर्थ गंवाता है,

श्वासोच्छवास में कलुष ने

अस्तित्व को कसैला कर रखा है,

गंगाजल-सा जीवन जियो मित्रो,

पाखंड में क्या रखा है..?

जीवन को गंगाजल-सा रखो ताकि धारा बनी रहे, प्रवाह बना रहे, जीने का आनंद धाराप्रवाह रहे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 214 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of social media # 214 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 214) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 213 ?

☆☆☆☆☆

बिना रिश्ते के जो अजनबी

अपने हो जाते हैं…. 

कभी-कभी खून के रिश्तों से

भी बड़े हो जाते हैं …

☆☆

Relationships with strangers

Become such treasured ones

That sometimes they become

Precious than the blood relations

☆☆☆☆☆

मुसाफिर कल भी था

मुसाफिर आज भी हूँ;

कल अपनों की तलाश में था

आज अपनी तलाश में हूँ…

☆☆ 

Upheavals and storms inside

Endless rounds of tourists outside

How coast manages co-ordination

Of  so many diverse contradictions

☆☆☆☆☆

हम तो नरम पत्तों की…

शाख़ हुआ करते थे…!

छीले इतने गए कि…

खंज़र  हो गए…!!

☆☆

Used to be lush tender branch 

Laden with soft green leaves…

Got chiseled off so much

That  turned into a dagger…!

☆☆☆☆☆

कौन बहीखाता रखे…

किसको कितना दिया

और किसने कितना बचाया

ख़ुदा ने आसान हिसाब बनाया

सबको खाली हाथ भेजा

और खाली हाथ ही बुलाया…

☆☆ 

Who to keep a book of account

How much did someone give

And how much did one save

God simplified the calculations

Sent everyone empty handed

And called back empty handed …

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 213 ☆ श्रृंगार गीत : हरसिंगार मुस्काए ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक श्रृंगार गीत : हरसिंगार मुस्काए)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 213 ☆

☆ श्रृंगार गीत : हरसिंगार मुस्काए ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

खिलखिलायीं पल भर तुम

हरसिंगार मुस्काए

.

अँखियों के पारिजात

उठें-गिरें पलक-पात

हरिचंदन देह धवल

मंदारी मन प्रभात

शुक्लांगी नयनों में

शेफाली शरमाए

.

परिजाता मन भाता

अनकहनी कह जाता

महुआ मन महक रहा

टेसू तन झुलसाता

फागुन में सावन की

हो प्रतीति भरमाए

.

कर-कुदाल-कदम माथ

पनघट खलिहान साथ,

सजनी-सिन्दूर सजा-

चढ़ सिउली सजन-माथ?

हिलमिल चाँदनी-धूप

धूप-छाँव बन गाए

हरसिंगार पर्यायवाची: हरिश्रृंगार, पारिजात, शेफाली, श्वेतकेसरी, हरिचन्दन, शुक्लांगी, मंदारी, परिजाता, पविझमल्ली, सिउली, night jasmine, coral jasmine, jasminum nitidum, nycanthes arboritristis, nyclan.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१७-२-२०१७

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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