मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #150 ☆ विखारी आग… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 150 ?

☆ विखारी आग…

प्राक्तनाने जाळली ही बाग आता

कोणता काढेल साबण डाग आता

 

वारुळाचे पूर्ण होता काम सारे

फस्त करती मुंगळ्यांना नाग आता

 

घर्षणाने पेटलेले रान आहे

विझत नाही ही विखारी आग आता

 

भावकीच्या भांडणाचा लाभ त्यांना

तू शहाण्या सारखा रे वाग आता

 

भिस्त ज्यावर ठेवली होती इथे मी

तोच गेला मारुनी मज टांग आता

 

पबमध्ये मी रात्र सारी जागतो रे

कोंबड्या तू दे दुपारी बांग आता

 

वार हा पाठीत केला आज त्यांनी

काढतो मी लेखणीतुन राग आता

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 100 – गीत – घरनी से घर लगता है… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – घरनी से घर लगता है…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 100 – गीत – घरनी से घर लगता है✍

घरनी से घर लगता है

वरना रैन बसेरा है।

 

पहली किरन उगे सूरज की

जग जाती है घरवाली।

हो जाता है स्नान ध्यान सब

सज जाती पूजा की थाली।

ऐसा सुखद सबेरा है।

 

करके झाड़ बुहारी सारी

करती लांघी चोटी है।

दाल उबलती बटलोई में

बनती जाती रोटी है।

चौका आंगन फेरा है ।

 

दफ्तर की भी जल्दी होती

सुई सरकती जाती है।

सबके खाने की चिंता में

कहां ठीक से खाती है।

लगता रहता टेरा।

 

राह देखता तुलसी चौरा

इंतजार में सँझवाती।

लौटा करती साँझ ढले वह

संग साथ सब्जी लाती।

सूर्यमुखी सँझबेरा  है ।

 

घरनी से घर लगता है

वरना रैन बसेरा है।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 102 – “इसी भूख का सार -…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “इसी भूख का सार -…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 102 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इसी भूख का सार – ”|| ☆

इसी भूखके चलते चीलें

नील गगन के बीच

उडती रहतीं नील गगन में

अपनी आँखें मीच

 

इसी भूखके चलते बच्चा

माँ के स्तन से

चिपक चूसता भूखी आँतों

के भूखे तन से

 

इसी भूख की बिडम्बना

हैं नंगे भूखे लोग

इसी भूख के अंतर

में रोटी मिलना संयोग

 

इसी भूख के लिये लोग

करते हैं तैयारी

इसके ही कारण धरती

पर होती ऐयारी

 

इसी भूख की बाँह पकड़

होते अपराध यहाँ

इसी भूख पर

आधारित जीने की साध यहाँ

 

इसी भूख के किस्से

अखवारों में पढ़ते हैं

इसी भूख के सपने

कविताओं में गढ़ते हैं

 

इसी भूख की खातिर

कुनबे का किंचित जीवन

सदा प्रेम से भरा रहा

करता है सब तन मन

 

इसी भूख के तल में बैठी

रहती मानवता

इसी भूखके चलते

किस्से मिलते बिना पता

 

इसी भूखकी चौखट

पर है इंतजार बैठा

इसी भूख के लिये

पिता से पुत्र रहा ऐंठा

 

इसी भूख के अंतस में

मिलते हैं जयकारे

इसी भूख को सभी

लगाते आये हैं नारे

 

इसी भूख के लिये

सभी जन भागम भाग करें

इसी भूख से बाजारों की

सुलगी आग वरें

 

इसी भूख के लिये जमे हैं

लोग प्रशीतन में

इसी भूख को लोग

लगाये आस कमीशन में

 

इसी भूखके लिये

व्यस्त हैं सारे चौराहे

इसी भूखके लिये दौड़ते

दिन भर चरवाहे

 

इसी भूख के पंजीयन

पर मिला हमें जीवन

इसी भूख के लिये

परिश्रम करता है जन-जन

 

इस भूख पर आधारित

हैं वालीवुड फिल्मे

इसी भूख के चलते मर्यादा

कायम दिल में

 

इसी भूख का सार –

तत्व वर्णित है वेदों में

इसी भूख की खोज

छिपी है नभ के छेदों में

 

इसी भूखका केन्द्र, कराता

पंडित से प्रवचन

इसी भूख से जुड़े हुये हैं

अध्ययन -अध्यापन

 

इसी भूख में बैठा

हर जुगाड़ का उद्घाटन

इसी भूख से पृथक

नहीं होता है तीर्थाटन

 

इसी भूख को लेकर जन्मे

लोग नये सपने

इसी भूख को बैठ गया

मैं कागज पर लिखने

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

06-08-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 149 ☆ “मन की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता – “मन की बात”)  

☆ कविता # 149 ☆ “मन की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पहाड़ काले पत्थरों का ढेर,

              और निर्दयी खूसट नहीं होता,

सतही तौर पर वह,

                इतना सहज नहीं होता,

धरती के दुख से,

           वह भीतर भीतर पिघलता रहता है,

उसकी असंख्य आंखों से,

        तरल नीर बहकर समुद्र से मिलता है,

उसकी अंतरात्मा को,

            समझ पाना उतना ही मुश्किल है,

जितना संवेदनशील होकर,

                अपने मन को पहाड़ बना लेना,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 93 ☆ # सावन का महीना है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सावन का महीना है…  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 93 ☆

☆ # सावन का महीना है… # ☆ 

सावन का महीना है

अब तो तुम आ जाओ

 

तपती हुई देह में

बूंदे आग लगाती हैं

बह रहा है लावा भीतर

अंदर ही अंदर झुलसाती हैं

अपने शीतल जल से तुम

लावे को राख बना जाओ

सावन का महीना है

अब तो तुम आ जाओ

 

काले काले मेघ

गगन पे कैसे छाये हैं  

प्यासी धरती की

प्यास बुझाने आये हैं

रिमझिम रिमझिम बूंदें बन

तुम मेरी प्यास बुझा जाओ

सावन का महीना है

अब तो तुम आ जाओ

 

सावन में तुम आओगे

मुझे इंतज़ार तुम्हारा है

भीगेंगे अपने तन मन

मुझे एतबार तुम्हारा है

देखो बीत रहा सावन

आकर गले लगा जाओ

सावन का महीना  है

अब तो तुम आ जाओ /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 92 ☆ निसर्ग-राजा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 92 ? 

☆ निसर्ग-राजा ☆

(काव्यप्रकार:- “अंत-ओळ” काव्य…)

 

श्रावण धारा मुक्त बरसता

“निसर्ग-राजा” गहिवरे

हर्ष त्याच्या मनांत दाटता

अंग -प्रत्यांग मोहरे  …०१

 

अंग -प्रत्यांग मोहरे

गवतावर दिसती तुडतुडे

गाई वासरे मुक्त चरतांना

शब्द माझे होती तोकडे…०२

 

शब्द माझे होती तोकडे

नदी ओहोळ एकवटती

नदी ओहोळ एकवटतांना

स्वर्ग प्रगट, भूमीवरती  …०३

 

स्वर्ग प्रगट, भूमीवरती

बळीराजा आनंदून जाई

शेतात घाम गाळतांना

त्याचा घामाला सुगंध येई…०४

 

त्याच्या घामाला सुगंध येई

शेत शिवार खुलून गेले

टपोर कणसे जोमात येता

छान कपाशी बोंड खुले…०५

 

छान कपाशी बोंड खुले

शुभ्र सोने बाहेर येई

सोने शुभ्र बाहेर येता

कास्तकार मोहून जाई…०६

 

कास्तकार मोहून जाई

“राज” ला मग विषय सापडे

ऐसा हरित विषय सापडता

कागदास जाणवती, ओरखडे…०७

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग-२९ परिव्राजक –७.मीरत / मेरठ ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग-२९ परिव्राजक –७.मीरत / मेरठ ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

 हिमालयातील भ्रमंती, खाण्यापिण्याची आबाळ, कठोर साधना यामुळे स्वामीजींची प्रकृती खालावली. ते अतिशय कृश दिसत होते. तसं अल्मोरा सोडल्यापासूनच अधून मधून त्यांना ताप येत होता. पुरेशी विश्रांती मिळत नव्हती. नीट उपचार मिळाले नव्हते. मिरतचे डॉक्टर त्रैलोक्यनाथ घोष यांच्या उपचाराने आणि पंधरा दिवसांच्या विश्रांतीने स्वामीजींना बरे वाटू लागले. इतर गुरुबंधु पण इथे एकत्र आले. आणि सर्वजण शेठजींची बाग इथे राहायला गेले. शेठजींनी सर्व संन्याशांची आपल्या घरी निवासाची व्यवस्था केली होती. सगळे हाताने स्वयंपाक करीत. बाकी वेळ अध्यात्म चिंतनात जाई.

निरनिराळ्या दिशांना भ्रमण करत असलेले, स्वामीजी, ब्रम्हानंद, सारदानंद, तुरीयानंद, अखंडानंद, अद्वैतानंद, आणि कृपानंद असे सर्व गुरुबंधु वराहनगर मठ सोडल्यानंतर खूप दिवसांनी एकत्र आले होते. त्यामुळे मिरतचे हे वास्तव्य सर्वांनाच आनंद देणारे होते. भजन, ध्यानधारणा, शास्त्रांचे पठन याबरोबर संस्कृत आणि इंग्रजी मधल्या श्रेष्ठ साहित्य कृतींचे वाचन असा त्यांचा कार्यक्रम असे. मेघदूत, शाकुंतल, कुमारसंभव, मृच्छकटिक यांचे वाचन सर्वांनी मिळून केले.

मिरतमध्ये एक ग्रंथालय होतं. तिथून स्वामीजींनी अखंडानंदांना सर जॉन लुबाक यांचे ग्रंथ आणायला सांगितले. त्यानुसार अखंडानंद त्या ग्रंथलयातून रोज एक ग्रंथ घेऊन जात. स्वामीजी तो पूर्ण वाचून काढत आणि लगेच दुसर्‍या दिवशी परत ग्रंथालयात घेऊन जात. तो देऊन लगेच दूसरा ग्रंथ आणायला सांगत. असा रोजचा क्रम पाहून ग्रंथपालाला एक दिवस शंका आली. फक्त वाचनाचा देखावा करण्यासाठी ग्रंथ घेऊन जातात आणि लगेच परत आणून देतात अशी शंका त्यांनी अखंडानंदांकडे बोलून दाखविली, ती स्वामीजीनांही कळली. स्वामीजी त्या ग्रंथपालाला जाऊन भेटले आणि म्हणाले, “मी जे ग्रंथ आता वाचले आहेत त्या बद्दल काहीही आणि कोणताही प्रश्न मला विचारा. आणि काय, त्यांना विचारलेल्या प्रश्नांची अचूक उत्तरं स्वामीजींनी लगेच दिली. ग्रंथपाल हे बघून आश्चर्य चकित झाला. आणि अखंडानंद सुद्धा. त्यांनी विचारले तुम्ही इतकं वेगात कसं काय वाचू शकता? स्वामीजी म्हणाले, मी एकेक असा शब्द वाचत नाही. तर, संपूर्ण वाक्य एकदम वाचतो. कधी कधी याच पद्धतीने मी परिच्छेदामागून परिच्छेद वाचतो. एका दृष्टीत तो समजून घेऊ शकतो.”

इथे आपल्या लक्षात येत की, वाचण्यासाठी नुसता वेग नाही तर मन एकाग्र करण्याचे असाधारण सामर्थ्य स्वामीजींकडे होतं. त्यामुळेच ते असं करू शकत होते. म्हणजेच कोणतीही गोष्ट करतांना मनाची एकाग्रता होणं अत्यंत आवश्यक असतं.

इथे मिरतला म्हणजे आजचे मेरठला उद्यानगृहात झालेली राहायची आणि दोन वेळच्या भोजनाची व्यवस्था, गुरु बंधूंचा सहवास, ध्यानधारणा आणि अध्यात्म संवाद, उत्तमोत्तम ग्रंथांचा आस्वाद व काव्यशास्त्रविनोद यांचा लाभ. एव्हढं सगळं असताना चिंता कसली? असे त्यांचे दोन महीने अतिशय आनंदात आणि दीर्घकाळ स्मरणात राहणारे गेले.

स्वामी तुरीयानंदांनी या आठवणी सांगताना म्हटले आहे, “मिरतच्या वास्तव्यात स्वामीजींनी आम्हाला, साधी चप्पल दुरुस्त करण्यापासून ते चंडीपाठ म्हणण्यापर्यंतचे सारे शिक्षण दिले. एकीकडे वेदान्त व उपनिषदे किंवा संस्कृतमधली नाटके यांचं वाचन चाले, तर दुसरीकडे जेवणातील पदार्थ कसे तयार करायचे त्याचे धडे ते आम्हाला देत.” एके दिवशी त्यांनी स्वत: पुलाव तयार केला होता. इतका स्वादिष्ट झाला होता. आम्हीच तो सारा संपऊ लागलो. तर स्वामीजी म्हणाले, “मी खूप खाल्लेलं आहे. तुम्ही खाण्यात मला समाधान आहे. सगळा पुलाव खाऊन टाका.” तुरीयानंदांनी ही आठवण मिरतला जाऊन आल्यावर पंचवीस वर्षानी काढली आहे. म्हणजे खरच मनावर कोरली गेलेली आठवण आहे.

असे अनेक आणखी सुद्धा अनुभव स्वामीजींनी याही वास्तव्यात घेतले. अनेक प्रकारचे लोक भेटले. आता तब्येत पण सुधारली असल्याने पुन्हा त्यांची परिव्राजकतेची प्रेरणा उफाळून आली, पण हिमालयात आता एकट्याने जाऊ शकणार नव्हते. मग दुसरीकडे जावे असं मनात आलं. पण प्रबळ इच्छा होती ते एकट्याने फिरण्याचीच. कारण श्रीरामकृष्ण यांनी दिलेल्या आदेशाचं पालन करून पुढची कार्याची दिशा ठरवण्याचं भान सतत त्यांना होतं. त्यांनी सर्व गुरुबंधूंना जाहीर सांगितलं की, आता यानंतर मी एकटाच फिरणार आहे कोणीही माझ्याबरोबर येण्याचा प्रयत्न करू नये. अखंडानंदांना याचं सर्वात वाईट वाटलं. तुमच्याशिवाय मी राहू शकत नाही असं त्यांनी म्हणताच स्वामीजींनी समजूत घातली, “गुरुबंधूंचं सान्निध्य हा देखील आध्यात्मिक प्रगतिमध्ये एक अडसर ठरू शकतं. तोही एक मायेचा पाश आहे. तुमच्या बाबतीत तो अधिक बलवान होऊ शकतो.”

आता स्वामीजी दिल्लीला आले. भारताच्या प्राचीन काळापासूनचा इतिहास त्यांच्या डोळ्यासमोर उभा राहिला. दिल्लीहून ते राजस्थान कडे निघाले. आता खर्‍या अर्थाने ते एकटेच भ्रमणास निघाले. दिल्लीच्या मोगल सत्तेशी झुंज देणारं राजस्थान. प्रत्येक प्रांतातला अनुभव वेगळा, माणसं वेगळी, वातावरण वेगळं. संस्थानाच्या राजधानीत अलवार मध्ये स्वामीजी येऊन दाखल झाले.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 23 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 23 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

३१.

  “हे बंदिवाना, सांग, तुला कोणी बंदिस्त केलं?”

   बंदिवान म्हणतो, ” माझ्या धन्यानं!”

   “धन आणि सत्ता मिळवून मी

   सर्वश्रेष्ठ होईन, असं मला वाटलं.

   राजाला द्यायचे पैसे मी

   माझ्या तिजोरीत साठवले.

   माझ्या धन्यासाठी

   असलेल्या बिछान्यावर मी पहुडलो.

   जाग आल्यावर मला समजलं…

   मी माझ्याच धनमहालात बंदिवान झालो.”

 

   “हे बंदिवाना, ही अभेद्य साखळी कोणी केली?”

  

   ” मीच ही साखळी अतिदक्षतापूर्वक घडवली.

     वाटलं होतं. . .

     माझ्या अपराजित सत्येनं हे जग

     गुलाम करता येईल

     आणि मी निर्वेध सत्ता उपभोगीन.

     प्रचंड अग्नी आणि निर्दय आघात

     रात्रंदिवस करून ही साखळी मी बनवली.

     काम संपलं.

     कड्या पूर्ण व अभेद्य झाल्या तेव्हा समजलं. .

     मीच त्यात पूर्णपणे अडकलो.”

 

   ३२.

   माझ्यावर माया करणारे

   मला सुरक्षित राखण्यासाठी जखडून ठेवतात.

 

   पण तुझ्या प्रेमाची त‌ऱ्हाच ‌न्यारी

   ते त्यांच्या स्नेहाहून अधिक महान आहे

    कारण तू मला स्वतंत्र ठेवतोस.

 

   त्यांचे स्मरण सतत रहावे

   म्हणून तू मला एकट्याला सोडत नाहीस पण,

   दिवसामागून दिवस गेले तरी तू दिसत नाहीस

 

   माझ्या प्रार्थनेतून मी तुला हाक घातली नाही

   अगर ऱ्हदयात तुला राहू दिले नाही

   तरी तुला माझ्याबद्दल प्रेम वाटतच राहते.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #152 ☆ व्यंग्य – किशनलाल की मौत ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘किशनलाल की मौत’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 152 ☆

☆ व्यंग्य – किशनलाल की मौत

किशनलाल एकदम मर गया, बिलकुल मर गया। इन छोटे लोगों के साथ यही तो मुश्किल है कि ये जीते तो एक एक कदम दूसरों की परमीशन से हैं, लेकिन मरते हैं तो बिना किसी से पूछे मर जाते हैं।

तो हुआ यह कि किशनलाल सड़क पार कर रहा था और उसकी दाहिनी तरफ से ट्रक आ रहा था। ट्रक वाले  ने सोचा कि किशनलाल सड़क पार कर जाएगा। उसने स्पीड कम नहीं की। लेकिन किशनलाल किसी सोच में खोया था। एकाएक ही ट्रक को देखकर वह हड़बड़ाकर बीच सड़क में रुक गया और ट्रक रुकते रुकते उसे गिराकर उसके ऊपर से गुज़र गया।

हंगामा मच गया और लोग किशनलाल को पास ही एक डॉक्टर के यहाँ ले गये। होश-हवास में किशनलाल उस मँहगे डॉक्टर के दरवाज़े पर नहीं चढ़ पाता, लेकिन उस दिन उसके लिए उस दवाखाने के दोनों दरवाज़े खुल गये। थोड़ी देर में उसकी बीवी भी रोती पीटती आ गयी। उसे भी लोगों ने वीआईपी की तरह लिया और पकड़कर बेंच पर बैठा दिया, जहाँ बैठी वह पागलों की तरह हर किसी से किशनलाल का हाल पूछती रही। लोग उसे धीरज बँधाते रहे, यद्यपि जानते सब थे कि किशनलाल बचेगा नहीं।
भीड़ इतनी बढ़ गयी थी कि सड़क पर ट्रैफिक रुक रुक जाता था। इतने में ही खादी के कुर्ते-पाजामे में स्थानीय विधायक जी वहाँ पहुँच गये। विधायक जी के साथ दो तीन आदमी अटैच्ड थे, जैसा कि ज़रूरी है। विधायक जी ने गेट से घुसते हुए लोगों के चेहरे पर नज़र डाली कि उनके प्रवेश का लोगों पर क्या असर होता है। असर तो होना ही था। सात आठ लोग तुरन्त भीड़ से टूट कर उनकी तरफ लपके।

‘अरे, विधायक जी आये हैं।’

‘वाह साहब, आपने तो कमाल कर दिया।’

‘क्यों न हो। यही तो बात है। सुना और दौड़े आये।’

परम गद्गद होकर उन्होंने हाथ जोड़े, ‘अरे भाई, यह तो हमारा कर्तव्य है। आपकी सेवा के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ।’

‘वाह, जैसे गज ने पुकारा और भगवान दौड़े चले आये सुदरसन चक्र लिये।’

‘कमाल कर दिया साहब।’

एक सज्जन लपक कर एक कुर्सी उठा लाये और उसे रखकर अपने गमछे से झाड़ दिया।

‘पधारिए साहब।’

‘अरे भाई, बैठने थोड़इ आये हैं। यह बताइए एक्सीडेंट कैसे हुआ।’

‘साहब, हम बताते हैं। किशनलाल घर से कुछ सौदा लेने को निकला। सौदा लेकर लौट रहा था कि……’

‘तुम्हें कुछ पता नहीं है। हम बताते हैं साहब।’

‘हमें कैसे पता नहीं?’

‘तुम थे वहाँ जब एक्सीडेंट हुआ था?’     

‘तुम थे?’  

‘हाँ, थे। हम वहीं चौराहे पर खड़े थे।’ 

‘अच्छा तो तुम ही बता लो।’   

‘साहब, किशनलाल सड़क पार कर रहा था। लगता है कुछ सोच रहा था। सोचते सोचते ट्रक को देखकर बीच में एकाएक रुक गया। ट्रक वाला रोक नहीं पाया।’    

‘राम राम! चलिए, ज़रा उसकी पत्नी से मिल लें।’    

‘आइए, आइए।’                     

दो लोगों ने भीड़ में से रास्ता निकाला। विधायक जी ने किशनलाल की बेहाल पत्नी के पास जाकर हाथ जोड़े। उसने अपने दुःख के कारण कोई ध्यान नहीं दिया।विधायक जी के साथ नत्थी एक साहब औरत से बोले, ‘विधायक जी आये हैं।’

औरत ने फिर भी कोई ध्यान नहीं दिया।

दूसरे साहब बड़बाये, ‘एकदम जाहिल है। विधायक जी नमस्ते कर रहे हैं, इसे होश ही नहीं है।’

विधायक जी ऊँचे स्वर में बोलने लगे। लोगों ने अपने कान बढ़ाये। ‘धीरज रखिए। होनी के आगे किसी का वश नहीं है। मेरे योग्य जो सेवा हो बताइए। मैं हमेशा तैयार हूँ।’

विधायक जी ने सबके चेहरों की ओर देखा। सब संतोष से मुस्कुराए। विधायक जी फिर एक बार नमस्कार करके चल दिये।

रास्ते में बोले, ‘क्या किया जाए? कुछ समझ में नहीं आता।’

‘हम बताते हैं साहब। इस सड़क पर ट्रक निकलना बन्द करवा दीजिए। नहीं तो कम से कम गाड़ी-ब्रेकर तो बनवा ही दीजिए।’

‘स्पीड-ब्रेकर बोलो जी।’

‘हाँ हाँ, वही।’                              

‘ठीक है’, विधायक जी बोले।

‘अरे साहब, इस मुहल्ले की एक समस्या थोड़े ही है। आप थोड़ी फुरसत से टाइम दीजिए। घर पर कब मिलते हैं?’

‘सेवा के लिए हमेशा हाजिर हूँ। वैसे सवेरे आठ से दस तक बैठता हूँ।’

‘किसी दिन आऊँगा, साहब। एक तो इस मुहल्ले में पानी की इतनी तवालत है कि क्या बताएँ। प्रेशर इतना कम रहता है कि बूँद बूँद टपकता है। दूसरे, आपसे अपने किरायेदार की बात करनी थी। उसके आजकल बहुत पर निकल रहे हैं। थोड़ा छाँटने पड़ेंगे।’

‘आप आइए। फुरसत से बात करेंगे।’

‘ज़रूर। मेहरबानी आपकी।’

इतने में पता चला कि किशनलाल मर गया। उसकी बीवी की चीखें ऊँची हो गयीं।

विधायक जी बोले, ‘बुरा हुआ। अब क्या होगा?’

‘शायद पोस्टमार्टम होगा।’

‘तो अब हम चलते हैं। मेरे योग्य कोई काम हो तो बताइएगा।’

‘कैसे जाएंगे साहब?’

‘ऑटो से निकल जाऊँगा।’

‘अरे वाह साहब, हमारा स्कूटर किस दिन के लिए है?’

‘देख लो, तुम्हारा स्कूटर ठीक न हो तो हम चले जाते हैं।’

‘अरे वाह! अपना स्कूटर एकदम फिट है। आइए साहब।’

‘नमस्ते साहब।’

विधायक जी ने दोनों हाथ जोड़कर पूरी भीड़ की तरफ घुमाये, जो उनकी तरफ देख रहे थे उनकी तरफ, और जो नहीं देख रहे थे उनकी तरफ भी।

इसके बाद स्कूटर पर बैठकर विधायक जी विदा हो गये। जब तक वे दिखायी देते रहे, आठ दस जोड़ी हाथ उनकी तरफ जुड़े रहे और आठ दस जोड़ी ओठ मुस्कान में खुले रहे। फिर हाथ नीचे गिर गये और ओठ सिकुड़ गये।

बहुत देर हो चुकी थी। लोग अपने अपने घरों को चल दिये। किशनलाल तो मर ही चुका था, अब वहाँ रुकना बेकार था।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 104 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 104 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 104) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 104 ?

☆☆☆☆☆

कभी-कभी लोग दौलत कमाने के

लिए रिश्तों तक को खर्च कर देते हैं

तरक्की की राह में बढ़ने के लिए

उसूलों को भी कुर्बान कर देते हैं

Sometimes people even spend

relationships to earn money

Just to grow over ambitiously,

they even sacrifice principles

  ☆☆☆☆☆

वो झूठ बोल रहा था

इस कदर सलीके से…

मैं एतबार ना करता

तो करता भी क्या…!

 

He was lying in such a

skillful manner that…

What else could’ve I done

than believing him…!

☆☆☆☆☆ 

अनदेखे अनछुए धागों से

यूँ  बाँध  गया  कोई,

वो साथ भी नहीं, और

हम  आज़ाद  भी  नहीं…

Someone tied me with the

unseen threads such that,

He is not even with me,

But still I’m not free…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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