हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 28 ☆ मुक्तक ।।जनचेतना जीवन की पहली पुकार हो जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका बाल साहित्य में एक भावप्रवण मुक्तक ।।जनचेतना जीवन की पहली पुकार हो जाये।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 28 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।जनचेतना जीवन की पहली पुकार हो जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

मानवता की जीत दानवता  की  हार  हो  जाये।

प्रेम  से   दूर   अपनी   हर  तकरार   हो  जाये।।

महोब्बत    हर    जंग   पर    होती    भारी    है।

यह दुनिया बस इतनी सी समझदार हो जाये।।

[12]

संवेदना बस हर किसी का सरोकार हो जाये।

हर   कोई   प्रेम   का  खरीददार   हो   जाये।।

नफ़रतों  का   मिट   जाये   हर   गर्दो  गुबार।

धरती पर ही स्वर्ग सा यह संसार  हो  जाये।।

[3]

काम हर  किसी  का  परोपकार  हो   जाये।

हर  मदद  को  आदमी  दिलदार हो जाये।।

जुड़ जाये  हर दिल से हर दिल का ही तार।

तूफान खुद  नाव  की  पतवार  हो  जाये।।

[4]

अहम   हर  जिंदगी   में  बस   बेजार  हो  जाये।

धार    भी    हर  गुस्से   की   बेकार   हो  जाये।।

खुशी  खुशी  बाँटे  आदमी  हर  इक खुशी को।

गले से गले लगने को आदमी बेकरार हो जाये।।

[5]

हर   जीवन   से   दूर   हर   विवाद    हो    जाये।

बात घृणा की जीवन में कोई अपवाद हो जाये।।

राष्ट्र   की   स्वाधीनता   हो  प्रथम  ध्येय  हमारा।

देश   हमारा  यूँ   खुशहाल   आबाद  हो   जाये।।

[6]

वतन  की  आन  ही हमारा  किरदार   हो   जाये।

दुश्मन के लिए  जैसे हर बाजू ललकार हो जाये।।

राष्ट्र    की    गरिमा   और   सुरक्षा  हो  सर्वोपरि।

बस इस जनचेतना  का  सबमें संचार हो  जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 93 ☆ ’’कल्पना का संसार…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “कल्पना का संसार…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 93 ☆ “कल्पना का संसार…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मनुज मन को हमेशा कल्पना से प्यार होता है

बसा उसके नयन में एक सरस संसार होता है।

 

जिसे वह खुद बनाता है, जिसे वह खुद सजाता है

कि जिसका वास्तविकता से अलग आकार होता है।

 

जहाँ हरयालियाँ होती, जहाँ फुलवारियां होती

जहाँ  रंगीनियों से नित नया अभिसार होता है।

 

जहाँ कलियाँ  उमगतीं है जहाँ पर फूल खिलते हैं

बहारों से जहाँ मौसम सदा गुलजार होता है।

 

जहाँ पर पालतू बिल्ली सी खुशियां लोटती पग पै

जहाँ पर रेशमी किरणों का वन्दनवार होता है।

 

अनोखी होती है दुनियां सभी की कल्पनाओं की

जहाँ संसार पै मन का मधुर अधिकार होता है।

 

जहाँ सब होते भी सच में कहीं कुछ भी नहीं होता

मगर सपनों में बस सुख का सुखद संचार होता है।      

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 102 – मन के पार जाना ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #102 🌻 मन के पार जाना 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन सन्त नो माइंड कहते हैं।

एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा भीतर छिपी पड़ी है। वही है आत्मा। और जब तक उसे न जाना तब तक उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।

जनक के जीवन में एक उल्लेख है।

जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ— बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। भगवान बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। भगवान महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़ कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।

एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, नृत्य देखता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा।

गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो भी गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञानवश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं।

जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, नृत्य हो रहा था। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं?

यह क्या हो रहा है यहां? यह राग—रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन—दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।

सम्राट जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गए। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक—एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे।

बड़ा विशाल महल था। दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे। वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं, और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाए तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।

लेकिन अब महाराजा जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता—डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता।

वह तो इसे ही देख रहा है कि दीया न बुझ जाए। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगा कर जब आया तब निश्चित हुआ। दीया रख कर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाए, लौट कर घर को आए। यह तो जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम सन्यासी आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।

सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं।

सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गए हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं। बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है—शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाए। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।

उसने कहा, क्यों फंसा रहे हैं मुझको झंझट में? दिन भर का थका—मादा जंगल से चल कर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।

रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबडाए कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?

उसने कहा, कहा की बातें कर रहे हैं! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाए तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाए.. .उठ—उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाए। कच्चे धागे में लटकी है।

गरीब आदमी हूं कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना। सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गए हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।

उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला…। सम्राट जनक ने कहा तुम्हें राजाओं—महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जाएगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे?

किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा— भोजन ठीक—ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बच कर निकल जाएं, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।

सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाए, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा यह बुझने ही वाला है।

रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।

रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाए। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किस भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग—रंग में न: बैठता हूं राग—रंग में; उलझता नहीं हूं।

अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है।

मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।

यह जो सम्राट जनक ने कहा: महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानस:। मन के पार हो जाना।

जैसे ही मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं। भीतर एक मन थोड़े ही है,जैसा सभी सोचते हैं। भगवान महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण— क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं।

आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक भगवान महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।

गुरजिएफ कहा करते थे, मनुष्य भीड़ है, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न हैं, तब एक चित्त था। फिर जरा सी बात में खिन्न हो गए और दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गए। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गए; फिर दूसरा चित्त हो गया।

चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक भीतर जो साक्षी है; उस एक को जान कर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।

‘सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?’ वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है।

संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में भटक जाएंगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाएंगे।

इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है। जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप—तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा;न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।

साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 114 – अंधश्रद्धा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 114 – अंधश्रद्धा ☆

भुलू नका चलाखीला

दांभिकांचा फास न्यारा ।

जादू  टोणा नसे खरा

भावनांचा खेळ सारा।

 

होई नवसाने मूल

उठवली कोणी भूल

द्यावे सोडून अज्ञान

घ्यावी विज्ञान चाहूल ।

 

खाणे कोंबडी बकरी

धर्म नसे माणसांचा।

स्वार्थासाठी नका देऊ

बळी असा निष्पापांचा।

 

देऊनिया नरबळी

कसा पावे वनमाळी ।

वैरभाव साधण्यास

सैतानाची येई हाळी।

 

उगवल्या दिवसाला

कर्तृत्वाने सिद्ध करू।

शुभाशुभ नसे काही

मत्रं नवा मनी स्मरू।

 

परंपरा जुन्या सार्‍या

विज्ञानाची जोड देऊ।

चित्ती डोळस श्रद्धेने

भविष्याचा वेध घेऊ। 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #144 ☆ क्रोध बनाम पश्चाताप ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख क्रोध बनाम पश्चाताप। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 144 ☆

☆ क्रोध बनाम पश्चाताप

‘क्रोध मूर्खता से प्रारंभ होता है और पश्चाताप पर समाप्त होता है’ पाइथागोरस का यह कथन कोटिश: सत्य है कि मूर्ख व्यक्ति ही क्रोधित होता है,क्योंकि वह इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि इसकी सबसे अधिक हानि क्रोधी को ही उठानी पड़ती है। क्रोध के समय मानव का विवेक नष्ट हो जाता है और वह आत्म-नियंत्रण में नहीं रहता। वह तुरंत प्रतिक्रिया दे देता है; जो आग में घी का काम करती है। इसलिए वह मूर्ख कहलाता है,क्योंकि अपने अहित के बारे में वह सोचता ही नहीं। अक्सर क्रोध की स्थिति में वह प्रतिपक्षी के प्राण लेने पर भी उतारू हो जाता है। वह वाणी पर भी आत्म-नियंत्रण खो देता है। उस स्थिति में वह ऊल-ज़लूल सोचता ही नहीं; दूषित भावों को बढ़ा-चढ़ा कर अकारण उगल देता है। एक अंतराल के पश्चात् उसे अपनी ग़लती का एहसास होता है और वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगता है, जिसका कोई लाभ नहीं होता,क्योंकि समय व अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् व्यक्ति हाथ मलता रह जाता है, जैसा कि ‘फिर पछताय होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।’

गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होना चाहिए,जो बरस कर समाप्त हो जाए और प्रेम हवा की तरह ख़ामोश होना चाहिए और सदैव आसपास रहना चाहिए–यह सोच अत्यंत सार्थक है। दूसरे शब्दों में क्रोध दूध के उबाल जैसा होना चाहिए और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिएं। जिस प्रकार बादल उमड़-घुमड़ कर आते हैं और बरस कर शांत हो जाते हैं; तप्त धरा को शीतलता प्रदान करते हैं,जिसके उपरांत मन-आँगन प्रफुल्लित हो जाता है। जैसे बारिश सब कुछ बहाकर ले जाती है और धरा हरी-भरी हो जाती है। उसी प्रकार हृदय में पल्लवित मलिनता व मनोमालिन्य भी तुरंत समाप्त हो जाने चाहिए। पति-पत्नी में विचार-वैषम्य  बारिश की तरह होने चाहिए और मानव को अपने मन की बात कहने के पश्चात् शांत हो जाना चाहिए; मनो-मालिन्य को घर में आशियां नहीं बनाने देना चाहिए, क्योंकि वह स्थिति अत्यंत घातक होती है,जिसका भयावह परिणाम बढ़ते तलाक़ों के रूप में हमारे समक्ष हैं। बच्चे व परिवारजन सब इस एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। दूसरी ओर प्रेम मलय वायु की झोंकों की भांति होना चाहिए, जो ख़ामोशी के रूप में सदैव आपके अंग-संग रहे। स्नेह, प्रेम व सौहार्द का बसेरा मौन में ही संभव है। सो! इसके लिए सहनशीलता अपेक्षित है,जो मौन की प्राथमिक शर्त है। प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता; त्याग व समर्पण चाहता है,जो विनम्रता के भाव के रूप में जीवन में पदार्पण करता है। सो! जहां प्रेम है; वहां देवता निवास करते हैं; लक्ष्मी का वास रहता है तथा पारस्परिक वैमनस्य भाव का स्थान नहीं होता।

‘मरहम होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है/ ऐसे लोगों की वाणी में माधुर्य होता है और उनकी वाणी ज़ख्मों पर मरहम की भांति कार्य करती है।’ उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव समाप्त हो जाते हैं। उनमें ऐसी आकर्षण शक्ति होती है कि मन उनके आसपास रहने और सत्वचन सुनने को तत्पर रहता है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपने शब्दों द्वारा दूसरों की पीड़ा हर सकता है। ‘वीणा के तार ढीले मत छोड़ो/ ढीला छोड़ने व  अधिक खींचने से उसका स्वर मधुर व सुरीला नहीं 

निकलता।’ इतना ही नहीं, यदि  वीणा के तारों को अधिक कसा जाए; वे टूट जाएंगे’ के माध्यम से सदैव मीठे वचन बोलने की सीख दी गई है। मीठी बातों से सर्वत्र सुख प्राप्त होता है। सो! कठोर वचनों का त्याग करना वशीकरण मंत्र है–तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है। 

मनुष्य जब अपनी ग़लतियों का वकील और दूसरों की ग़लतियों का जज बन जाता है, फैसले नहीं फ़ासले बढ़ जाते हैं। सो! मानव को अपनी ग़लती को स्वीकारने में संकोच  कर लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिए,क्योंकि व्यर्थ वाद-विवाद से दिलों में दरारें पनप जाती हैं–जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। ‘ऐ मन! सीख ले तू/ ख़ुद से बात करने का हुनर/ खत्म हो जाएंगे/ सारे दु:ख द्वंद्व/ नहीं रहेगा तू अकेला जहान में/ साथ देंगे तेरे अपने ही दुश्मन/ तू सबका प्रिय बन जाएगा।’ स्वरचित पंक्तियां स्वयं से बात करने की सीख देती हैं। मौन नवनिधि है और सबसे कारग़र दवा है, जिससे रिश्ते पनपते हैं। ‘अपनी ऊंचाई पर कभी घमंड न करना ऐ दोस्त!/ सुना है बादलों को भी पानी ज़मीन से उठाना पड़ता है।’ दूसरी और कोई तुम्हारे लिए दरवाजा बंद कर ले,तो उसे एहसास दिला देना कि कुंडी दोनों ओर होती है। इससे तात्पर्य है कि मानव को रिश्तों को बनाए रखने व स्थायित्व प्रदान करने हेतु झुकने व समझौता करने में तनिक भी संकोच नहीं  चाहिए। परंतु अपने आत्म-सम्मान व  अस्तित्व को बनाए रखना उसकी प्राथमिक व आवश्यक शर्त है।

जीवन में आधा दु:ख ग़लत लोगों से उम्मीद रखने से होता है और बाकी का आधा दु:ख सच्चे लोगों पर संदेह अर्थात्  शंका करने से आता है। इसलिए सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए। वह इंसान कभी हार नहीं सकता, जो बर्दाश्त करना जानता है। सो! मानव तो सहना चाहिए, कहना नहीं,क्योंकि ‘सहने’ से समाधान निकलता है और ‘कहने’ से राई का पर्वत बन जाता है। रिश्तों का निबाह करने के लिए मानव को सहन करना आना चाहिए; कहना नहीं। प्लेटो के मतानुसार ‘मानव व्यवहार तीन मुख्य स्रोतों से निर्मित होता है– इच्छा,भाव व ज्ञान और ऐसे व्यक्ति को सदैव संभाल कर रखना चाहिए,जिसने आपको यह तीन चीज़ें भेंट की हों–साथ, समय व समर्पण।’ ऐसे लोग सदैव मानव के सुख-दु:ख के साथी होते हैं।

कोई कितना भी बोले व स्वयं को शांत रखें; आपको अकारण प्रभावित नहीं कर सकता,क्योंकि धूप कितनी भी तेज़ हो; समुद्र को सुखा नहीं सकती। मन को शांत रखना जीवन को सफल बनाने का अनमोल खज़ाना है। वाशिंगटन के मतानुसार ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना– बदनामी का सबसे सबसे अच्छा जवाब है।’ वैसे बोलना भी एक सज़ा है। सो! इंसान को यथायोग्य,यथास्थान उचित बात कहनी चाहिए। यदि सच्ची बात मर्यादा में रहकर मधुर भाषा में कही जाए,तो सम्मान दिलाती है,वरना कलह का कारक बन जाती है। ग़लत बात बोलने से चुप रहना उचित व श्रेयस्कर है। वाणी से निकला हर एक कठोर शब्द घाव करके महाभारत करा सकता है। यदि वाणी की मर्यादा को ध्यान में रखकर बात कही जाए,तो बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ रोकी जा सकती हैं। इसलिए कबीर जी कहते हैं कि ‘मीठी वाणी बोलना/ काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला/ होता वही सुजान।’

‘चुपचाप कहते रहो तो सब अच्छा है। अगर बोल पड़े तो आपसे बुरा कोई नहीं’ के माध्यम से मानव को मौन रहकर सहन करने का संदेश दिया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि संसार में वही व्यक्ति सफल है,जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए होते हैं। परंतु सहनशीलता तभी तक अच्छी होती है; जब तक उसे आत्म-सम्मान से समझौता नहीं करना पड़ता। हर वस्तु की अधिकता हानिकारक होती है और उसका खामियाज़ा मानव को अवश्य भुगतना पड़ता है। सो! जीवन में समन्वय की राह पर चलते हुए सांमजस्यता प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #143 ☆ भावना के दोहे…मेहंदी  ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …मेहंदी ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 143 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …मेहंदी ☆

रंग उभर कर आ गया, लगी मेंहदी हाथ।

इसकी चमक बता रही, है पिया का साथ।।

 

रंग लाल उसका हुआ, करे पिया जो याद।

कब आओगे सामने, यही करे फरियाद।।

 

सावन में गोरी करे,  मेंहदी का श्रृंगार।

मेंहदी रची हाथ में, यही पिया का प्यार।।

 

सावन में आए सभी, तीज और त्योहार।

मेंहदी रची हाथ में, यही सजन का प्यार।।

 

संग सहेली बैठकर, भरे हाथ में रंग।

याद पिया को कर रही, रहने आओ संग।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #132 ☆ तुलसी के दोहे अमर… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती पर रचित दोहे “तुलसी के दोहे अमर…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 132 ☆

☆ तुलसी के दोहे अमर… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

(गोस्वामी तुलसीदास जी की जयन्ती पर सादर समर्पित)

रामचरित मानस रची, देकर नव संस्कार

राह दिखा कर धरम की, किया बड़ा उपकार

 

बनें चरित्रवान सभी, चलें धरम की राह

देकर शिक्षा नीति की, मन में भरा उछाह

 

घर घर तक पहुँचा दिया, राम कथा का सार

सहज सरल अवधी लिखी, करके नव विस्तार

 

तुलसी के दोहे अमर, करते जो उजियार

काम, क्रोध, मद लोभ पर, तेज कलम की धार

 

रोम रोम मेँ रम गए, जिनके प्रभु श्री राम

तुलसी बाबा आपको, सादर करें प्रणाम

 

रामचरित मानस मिली, मिला सम्यक ज्ञान

सबके हिय “संतोष” है, कर रामायण गान

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

 

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #136 ☆ आठवण श्रावणाची…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 136 – विजय साहित्य ?

☆ आठवण श्रावणाची…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

आठवण श्रावणाची 

व्रत वैकल्याचा नारा

सामावल्या अंतर्यामी,

हळवेल्या स्मृती धारा…!

 

आठवण श्रावणाची 

आली माहेरवाशीण

जपलेल्या गंधमाळा,

रेशमाची घट्ट वीण…!

 

आठवण श्रावणाची 

मोहरले तनमन.

बरसल्या जलधारा,

वेचताना  क्षण क्षण…!

 

आठवण श्रावणाची

सजे मंगळा गवर

सय नाजूक साजूक

फुल पत्री शब्द सर…!

 

आठवण श्रावणाची

गौर श्रावणाची सजे

जिवतीचे शुक्रवार

औक्षणात मन भिजे…!

 

आठवण श्रावणाची

जणू कवितेचे पान

सणवार   ओली  शाई ,

 देई जीवनाचे  दान…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ स्वार्थ आणि परमार्थ ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? चं म त ग ! 😅

🤣 स्वार्थ आणि परमार्थ ! 😂 💃श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

“आई, हे घ्या गरमा गरम कांदा पोहे !”

“दिसतायत तरी बरे, पण चव कशी असेल कुणास ठाऊक !”

“आता ते खाल्ल्यावरच कळेल नां ?”

“ते बरीक खरं हॊ सुनबाई, पण हे गं काय ?”

“काय आई ?”

“तू आज दुपारी जेवणार नाहीस वाटतं ?”

“जेवणार तर ! आता घरातली सगळी कामं मी एकटीने एकहाती करायची म्हणजे अंगात ताकद नको का माझ्या ?”

“झालं तुझं पालूपद पुन्हा सुरु !”

“यात कसलं आलंय पालूपद ? मी घरातली सगळी कामं एकटीने करत्ये हे खरं की नाही ?”

“खरं आहे !”

“मग झालं तर !”

“अगं हॊ, पण नंतर तू लगेच, ‘आपण आता कामाला बाई ठेवूया का? हेच विचारणार नां ?”

“अ sss य्या ! तुम्हीं खरंच मनकवड्या आहात अगदी आई !”

“उगाच मला हरभऱ्याच्या झाडावर चढवू नकोस !”

“ते मला या जन्मी तरी शक्य होईल असं वाटत नाही बाई !”

“म्हणजे ?”

“अहो आई, आता तुम्हांला त्या हरभऱ्याच्या झाडावर चढवायच म्हणजे, तुमचं नव्वद किलोच्या आसपास असलेलं वजन मला आधी उचलता तरी यायला हवं नां ?”

“कर्म माझं !”

“नाही आई, मी तुमच्या वजना बद्दल बोलत्ये नां ? म्हणून तुम्ही ‘वजन माझं’ असं म्हणा, ‘कर्म माझं’ असं नका म्हणू बाई !”

“कळली तुझी अक्कल ! कुठल्या शाळेत होतीस गं शिकायला लहानपणी ?”

“अतिचिकित्सक विद्यालय, ठोंबे बुद्रुक, बोंबे वाडी, जिल्हा रत्नागिरी.”

“तरीच सगळी बोंबा बोंब आहे !”

“मला नाही कळलं तुम्हाला काय बोलायचं आहे ते ?”

“ते मरू दे गं ! मला आधी सांग मगाशी मी तुला विचारलं, तू आज दुपारी जेवणार आहेस का नाहीस, त्याच उत्तर दे मला आधी !”

“बघा म्हणजे कमलाच झाली तुमची !”

“आता यात कसली आल्ये माझी कमाल सुनबाई ?”

“अहो त्या प्रश्नाला मी मगाशीच उत्तर नाही का दिलं, हॊ जेवणार आहे म्हणून. पण असं का विचारताय तुम्ही आई ?”

“अगं म्हणजे असं बघ, मला नाष्ट्याला ताटलीत फक्त कांदापोहे दिलेस आणि स्वतः ताटात कांदा पोह्या बरोबर चार पोळ्या, भाजी, आमटी, वाटीभर भात आणि स्वीट डिश म्हणून दोन बेसन लाडू घेवून आल्येस नां, म्हणून म्हटलं दुपारी जेवणार आहेस का नाही म्हणून !”

“अहो आई त्याच काय आहे नां, माझं डाएट चालू झालं आहे नां आजपासून. त्यामुळे मला वजन कमी करण्यासाठी आता रोज सकाळी, सकाळी असा हेवी ब्रेकफास्ट करणं अगदी अनिवार्य आहे बघा !”

“हे कुणी सांगितलं तुला ?”

“माझ्या डाएटीशन देखणे मॅडमनी !”

“अगं पण त्यांच नांव तर दिवेकर मॅडम नां ?”

“नाही हॊ, त्या वेगळ्या आणि त्यांची फी कुठे आपल्याला परवडायला ! त्या वेगळ्या आणि ह्या वेगळ्या !”

“सुनबाई तुला एक सुचवू का ?”

“बोला नां आई !”

“तुझ्या त्या देखणे मॅडमकडे तुझ्या बरोबर माझं पण नांव नोंदव नां गं !”

“कशाला आई ?”

“अगं मगाशी बोलता बोलता तूच नाही का म्हणालीस, माझं वजन नव्वद किलो आहे म्हणून ?”

“हॊ, म्हणजे मी तसं अंदाजे म्हणाले खरं, पण तुम्ही वजन काट्यावर चढलात तर एखादं वेळेस ते एकोणनव्वद सुद्धा भरेल ! काही सांगता येतं नाही.”

“आता माझी खात्रीच पटली बघ सुनबाई !”

“कसली खात्री आई ?”

“तुझ्या त्या अति चिकित्सक शाळेचं नांव चांगलंच रोशन करत्येस तू याची !”

“मग, होतीच आमची शाळा तशी फेमस त्या वेळेस !”

” क ss ळ ss लं ! आता तुझ्या बरोबर माझं पण नांव त्या देखणेबाईकडे रजिस्टर कर. मला पण माझं वजन कमी करायच आहे, तुझ्या सारखा असा हेवी ब्रेकफास्ट करून !”

“कशाला आई ?”

“अगं मला पण वाटत नां की आपलं वजन कमी करावं म्हणून, म्हणजे तुला, मला हरभऱ्याच्या झाडावर चढवताना उगाच त्रास नको व्हायला !”

“जाऊ दे आई, तुम्ही आता गरमा गरम कांदे पोहे खा आणि मला सांगा कसे झालेत ते !”

“एका अटीवर कांदे पोहे खाईन सुनबाई.”

“कोणत्या अटीवर आई ?”

“तुझं हे डाएट बीएटच खुळं डोक्यातून काढून टाक !”

“मग माझं वजन कमी कसं होणार  आई ?”

“माझ्याकडे त्यावर एक उपाय आहे सुनबाई !”

“कोणता उपाय आई ?”

“आज विलास ऑफिस मधून आला की त्याला म्हणावं पन्नास किलो बासमती तांदुळाची ऑर्डर दे वाण्याला !”

“पन्नास किलो बासमती तांदूळ ? अहो पण आई ह्या एवढ्या तांदुळाच करायच काय ?”

“तुला आणि मला वजन कमी करायच आहे नां ?”

“अहो हॊ आई, पण त्याचा आणि पन्नास किलो बासमती तांदुळाचा संबंध काय ?”

“सांगते आणि तुझ्या बाबुला सांग तांदुळाची ऑर्डर देवून झाली, की ते माळ्यावर टाकलेलं जुनं दगडी जात सुद्धा खाली काढून ठेवं म्हणाव !”

“कशाला आई ?”

“अगं आता थोडयाच दिवसात बाप्पा येणार, घरोघरी मोदकांचे बेत आखलेले असणार, हॊ की नाही ?”

“बरोबर !”

“तर आपण दोघींनी काय करायच, त्या सगळ्या बासमतीच्या तांदुळाची मोदकाची मस्तपैकी पिठी करायची आणि….”

“विकायची, हॊ नां ?”

“अजिबात नाही !”

“मग काय करायच काय त्या एवढ्या सगळ्या तांदूळ पिठाचं ?”

“अगं आपल्या सोसायटीच्या पंचवीस घरात प्रत्येकी अर्धा अर्धा किलो घरोघरी गणपतीत बनणाऱ्या  मोदकांच्यासाठी घरगुती पीठ आपल्या जात्यावर फुकट दळून द्यायचं ! काय कशी वाटली माझी आयडिया ?”

“कमाल केलीत तुम्ही आई ! मानलं तुम्हांला !”

© प्रमोद वामन वर्तक

०५-०८-२०२२

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 97 ☆ पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़ ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 97 ☆

☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं।अब ई कइसी मशीन है?‘ – उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू–पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं ?  खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन  पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा – दीदी हँसते हुए बोली।

पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी  एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात-दिन दौड़त रह जात हैं।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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