हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 64 – राजनीति… भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  आलेख  “राजनीति…“।)   

☆ आलेख # 64 – राजनीति  – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

राजनीति का ये तीसरा दौर, अधिनायकवादी सोच याने, तानाशाही जिसका परिष्कृत नाम “तंत्र को लोक और प्रजा से दूर करना है” के नाम हो जाता है. अगर राजनीति के दूसरे दौर को हम सिद्धांतों से जुड़े “वाद” याने पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद के अनुसार परिभाषित करें तो ये तीसरा दौर तंत्र और यंत्र से प्रभावित और प्रदूषित होता है. ये यंत्र अर्थात षडयंत्रों, और तंत्र याने खुद सब कुछ पाने के नाम पर तकनीक  दुरुपयोग का दौर है जो अक्सर इसलिए काम में आता है कि सत्ताभिलाषी और सत्तापरस्त अपने अपने प्रतिद्वंद्वियों की मिट्टीपलीद कर सके और उनको वो बना दे जो वे होते नहीं हैं. ये भी राजनीति की एक विधा है जो मेकअप, मेकओवर, इमेज बिल्डिंग और नेगेटिव इमेजिंग के आधार पर अपने आका की बुलंद इमारत खड़ी करती है. ये रावणों का वह दौर होता है जब सामान्य से दस गुनी बुद्धि और दसों दिशा के बराबर विज़न होने की क्षमता होने के बावजूद, व्यक्ति आत्मकेंद्रित होने की पराकाष्ठा प्राप्त करता है. इस तीसरे दौर में जब त्याग, सामाजिक सरोकार और बहुजन हिताय जैसे गुण सिर्फ शब्द बन जाते हैं तो व्यक्तित्व से आकर्षण, विश्वसनीयता और प्रबल आत्मविश्वास गायब हो जाते हैं. निस्वार्थ जनसेवा के नायक कब कुर्सीपरस्त खलनायक बन जाते हैं, पता नहीं चलता. जनता जो अब उनके वोट बैंक बन जाते हैं, हमेशा सपनों का झूला झुलाकर भ्रमित किये जाते हैं.

राजनीति का ये तीसरा दौर बहुत घातक होता है जब विकल्पहीनता के कारण सत्ताभिलाषी वंशवाद, तुष्टिकरण, सांप्रदायिकता और विभाजनकारी सोच प्रश्रय पाते हैं, फलते फूलते हैं. ये अपने अपने वोटबैंक को “मीरा की भक्ति से परे पर फिर भी मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई” के भाव में उलझा कर रखते हैं. सवाल हर बार यही होता है कि एक सौ तीस प्लस करोड़ के जम्बो जनसंख्या के इस देश में क्या 13000+ लोग ऐसे नहीं आ सकते जो राजनीति को गरिमामय बना सकें. हमें अवतारों की जरूरत न पहले कभी थी, न है और न ही आगे रहेगी, हम तो ऐसे लोग खोजते हैं. जो हमारे सपनों को नहीं बल्कि हमारी हकीकतों को ऐड्रेस कर सकें.

हम याने हम भारत के लोग, अपने में से ही हमेशा ऐसा विश्वस्त नेतृत्व चाहते हैं जो हमें निश्चिंत नहीं बल्कि हमेशा जागरूक करे. हमें रॉबिनहुड नहीं चाहिए, हमें धर्मात्मा या महात्मा नहीं चाहिए. शायद ये हममें से बहुत लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता हो. राजनीति के इस विश्लेषणात्मक समीक्षा के दौरान मैं अपने उन अश्रुमय पलों को कैसे भूल सकता हूँ जो वर्ष 2011 में सेल्युलर जेल, (पोर्टब्लेयर) के भ्रमण के दौरान आये. न जाने कैसे लोग थे वे, जो अपने वतन की आज़ादी के सपनों पर, अपने जीवन को कुर्बान कर बैठे. क्या वो प्रेक्टिकल नहीं थे, बेशक वो देशभक्त थे पर इस देशभक्ति की जो कीमत उन्होंने अदा की, हमारे आज के कितने राजनेता उस आज़ादी के बाद, जिसका सपना उन क्रांतिकारियों ने देखा था, कर पाये.वक्त के साथ बहुत कुछ बदलता है पर उच्च मापदंडों का बदलना कभी भी सही नहीं होता.

वैसे तो ये इस श्रंखला का समापन भाग है पर कहानी का और अपेक्षाओं का अंत नहीं.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 34 – भाग 3 – ट्युलिप्सचे ताटवे – श्रीनगरचे ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 34 – भाग 3 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ट्युलिप्सचे ताटवे – श्रीनगरचे ✈️

अमरनाथला जाणाऱ्या यात्रेकरूंसाठी पहलगाम इथे खूप मोठी छावणी उभारलेली आहे. यात्रेकरूंची वाहने इथपर्यंत येतात व मुक्काम करून छोट्या गाड्यांनी चंदनवाडीपर्यंत जातात. तिथून पुढे अतिशय खडतर, एकेरी वाटेने श्रावण पौर्णिमेच्या यात्रेसाठी लक्षावधी भाविक सश्रद्ध अंतकरणाने पदयात्रा करतात. हिमालयाच्या गूढरम्य पर्वतरांगांमध्ये उत्पत्ती, स्थिती आणि लय या आदिशक्तींची अनेक श्रध्दास्थाने आपल्या प्रज्ञावंत पूर्वजांनी फार दूरदृष्टीने उभारलेली आहेत.(चार धाम यात्रा, अमरनाथ, हेमकुंड वगैरे ). हे अनाघ्रात सौंदर्य, ही निसर्गाची अद्भुत शक्ती सर्वसामान्य जनांनी पहावी आणि यातच लपलेले देवत्व अनुभवावे असा त्यांचा उद्देश असेल का? श्रद्धायुक्त पण निर्भय अंतःकरणाने, मिलिटरीच्या मदतीने, अनेक उदार दात्यांच्या भोजन- निवासाचा लाभ घेऊन वर्षानुवर्षे ही वाट भाविक चालत असतात.

सकाळी उठल्यावर पहलगामच्या हॉटेलच्या काचेच्या खिडकीतून बर्फाच्छादित हिमशिखरांचे दर्शन झाले. नुकत्याच उगवलेल्या सूर्यकिरणांनी ती शिखरे सोन्यासारखी चमचमत होती. पहलगाम येथील अरु व्हॅली, बेताब व्हॅली, चंदनवाडी, बैसरन म्हणजे चिरंजीवी सौंदर्याचा निस्तब्ध, शांत, देखणा आविष्कार! बर्फाच्छादित पर्वतरांगांमधील सुरू, पाईन, देवदार, फर, चिनार असे सूचीपर्ण, प्रचंड घेरांचे वृक्ष गारठवणाऱ्या थंडीत, बर्फात आपला हिरवा पर्णपिसारा सांभाळून तपस्वी ऋषींप्रमाणे शेकडो वर्षे ताठ उभी आहेत. दाट जंगले,  कोसळणारे, थंडगार पांढरे शुभ्र धबधबे आणि उतारावर येऊन थबकलेले बर्फाचे प्रवाह. या देवभूमीतले  सौंदर्य हे केवळ मनाने अनुभवण्याचे आनंदनिधान आहे.

पहलगामला एका छोट्या बागेत ममलेश्वराचे (शंकराचे) छोटे देवालय आहे. परिसर बर्फाच्छादित शिखरांनी वेढलेला होता. शंकराची पिंडी नवीन केली असावी. त्यापुढील नंदी हा दोन तोंडे असलेला होता. आम्ही साधारण १९८० च्या सुमारास काश्मीरला प्रथम आलो होतो. त्या वेळेचे काश्मीर आणि आजचे काश्मीर यात जमीन- अस्मानाचा फरक जाणवला. सर्वत्र शांतता होती पण ही शांतता निवांत नव्हती. खूप काही हरवल्याचं, गमावल्याचं  दुःख अबोलपणे व्यक्त करणारी, अविश्वास दर्शविणारी ,  संगिनींच्या धाकातली, अबोलपणे काही सांगू बघणारी ही कोंदटलेली उदास  शांतता होती.

श्रीनगर भाग ३ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 64 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 64 – मनोज के दोहे 

1 चाँदनी

रात चाँदनी में मिले, प्रेमी युगल चकोर।

प्रणय गीत में मग्न हो, नाच उठा मन मोर।।

2 स्वप्न

स्वप्न देखता रह गया, लोकतंत्र का भोर।

वर्ष गुजरते ही गए,मचा हुआ बस शोर।।

3 परीक्षा

घड़ी परीक्षा की यही, दुख में जो दे साथ।

अवरोधों को दूर कर, थामें प्रिय का हाथ।।

4 विलगाव

घाटी के विलगाव में, कुछ नेतागण लिप्त।

उनके कारण देश यह, भोग रहा अभिशप्त ।।

5 मिलन

प्रणय मिलन की है घड़ी, गुजरी तम की रात।

मिटी दूरियाँ हैं सभी, नेह प्रेम की बात।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 187 ☆ आलेख – गूगल मैप को हमारे मोबाइल ही बताते हैं ट्रैफिक रश की जानकारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख  – गूगल मैप को हमारे मोबाइल ही बताते हैं ट्रैफिक रश की जानकारी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 187 ☆  

? आलेख – गूगल मैप को हमारे मोबाइल ही बताते हैं ट्रैफिक रश की जानकारी ?

यदि भगवान राम के समय मोबाइल होते तो शायद सीता माता का हरण ही नहीं होता। आज गूगल मैप हम आप की ऐसी जरूरत बन चुका है जिसके साथ हम अनजान पते पर भी आत्म विश्वास और सहजता से पहुंच जाते हैं। पर क्या आपको पता है कि आखिर गूगल को लाइव ट्रैफिक की इतनी सटीक जानकारी मिलती कैसे है?

 दुनियां भर में क्या सड़को पर ट्रैफिक की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए कोई गूगल डिवाइस लगाई गई है, पर ऐसा नहीं है। किंतु हर वक्त आपको गूगल मैप लाइव ट्रैफिक की सटीक जानकारी से अपडेट कराता है। अब आप सोच सकते है कि ऐसा सैटेलाइट की मदद से किया जाता है। लेकिन यह भी सही नही है। सच तो यह है की हमांरे मोबाइल ही गूगल सर्च इंजन को यह जानकारी देते हैं, जिसे समुचित तरीके से एनालाइज और स्टोर करके गूगल मैप हम को विश्व के मानचित्र पर हर गली हर स्थान की ट्रैफिक स्तिथि बताता है। आपके एंड्राइड और iOS यूजर की लोकेशन को गूगल लगातार ट्रैस करता रहता है। Google को रोड के जिस हिस्से में ज्यादा मोबाइल फोन की लोकेशन मिलती है, उस जगह को Google ट्रैफिक जाम के तौर पर मार्क कर देता है और उस खास जगह को रेड कलर के साथ मार्क कर देता है, जिससे लोगों को लाइव ट्रैफिक की जानकारी मिलती है। मतलब यदि फेक ट्रैफिक रश दिखाना हो तो एक ट्रक में ढेर से मोबाइल रखकर गूगल सर्च इंजिन को हम धोखा दे सकते हैं। लाइव मोबाइल्स के अतिरिक्त  कई अन्स सोर्स से भी गूगल लाइव ट्रैफिक की जानकारी हासिल करता है। इसमें गूगल मैप कम्यूनिटी भी है।मतलब सामूहिक ज्ञान  का सर्वजन हिताय आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उपयोग है गूगल मैप, जो समय की आवश्यकता बन चुका है। आने वाले समय में  त्रिआयामी चित्र गूगल मैप को और भी सकारात्मकता देंगे यह तय है।

 © विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 16 – लकड़ी उपयोग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “  परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 156– लकड़ी उपयोग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कुछ दशक पूर्व रेल यात्रा के द्वितीय श्रेणी में यात्रा करते हुए मानव जीवन में लकड़ी के उपयोग के बारे में जन्म से अंतिम यात्रा तक की महत्ता पर आधारित “रेल गायक” से इस बाबत गीत सुना था। हमारे देश में तो अब लकड़ी के स्थान पर अन्य वैकल्पिक व्यवस्था हो चुकी है। हो सकता है, आने वाले समय में  लकड़ी को बैंक लॉकर में भी सुरक्षित ही रखा जा सकता हैं।

अमेरिका में लकड़ी का सर्वाधिक उपयोग किया जाता हैं। घर के आंगन, बगीचे आदि में लकड़ी का फर्नीचर बारह माह गर्मी, वर्षा और बर्फबारी को सह लेता हैं। घरों की सीमांकन दीवार भी लकड़ी की ही बनती हैं। सार्वजनिक स्थानों पर भी फर्नीचर पूर्णतः लकड़ी निर्मित होता है।

विगत दिन एक श्वान को बिजली के खंबे के पास देखा तो ध्यान देने पर पता चला कि बिजली का बीस फुट से लंबा खंबा भी लकड़ी का ही हैं। एक दम सीधे और सपाट पेड़ों का प्रयोग किया जाता हैं। निजी घर में भी दीवारें, सीढियां, छत सब कुछ लकड़ी से निर्मित हैं।

भोजन बनाते समय विद्युत या गैस का ही उपयोग होता हैं। प्रकृति के संसाधन का उचित प्रबंधन से ही यहां लकड़ी की बहुतायत हैं। साठ के दशक में  जबलपुर शहर के घरों में लकड़ी के उपयोग से “जाफरी नुमा” डिजाइन का उपयोग किया जाता था, यहां उसके दीदार साधारण सी बात हैं। हमारे देश में भी संसाधनों की कमी नहीं थी, परंतु जनसंख्या नियंत्रण में असफल होने के कारण हम बहुत कुछ गवां बैठे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 147 – मिलती हर दुआ… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता “मिलती हर दुआ नसीब नहीं होती”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 147 ☆

🌺कविता 🥳 मिलती हर दुआ… 🥳

 🌹

जिन्दगी जीना आसान नहीं होता,

बिना संघर्ष के कोई महान नहीं होता।

 🌹

चुगली के बिना कोई बात नहीं होती,

  बिना बात के चुगली खास नहीं होती।

🌹

बाग का हर पुष्प गुलाब नहीं होता,

और हर गुलाब लाजवाब नहीं होता।

 🌹

मिलती हर दुआ नसीब नहीं होती,

वर्ना इतनी दुआ फकीर नहीं होती।

🌹

हर चेहरा कुछ न कुछ खास होता है,

चेहरे के पीछे चेहरा छिपा होता है।

🌹

सूखे फूल किताबों में मिला करते,

अब किताबें माँग कर पढता कौन हैं।

🌹

सच्चे प्रीत की मिसाल बना करती हैं,

लिव इन रिलेशन सिर्फ सौदे होती हैं।

🌹

कहते हैं प्रेम उधार की कैची है,

आज प्रेम बाँटना कौन चाहता है।

🌹

काँटा चुभने पर बनतीं प्रेम कहानी है,

आज पगडंडियों पर चलता कौन हैं।

🌹

कभी दादा की छड़ी बन पोता चलता है,

अब परिवार में क्या दादा कोई बनता है।

🌹

ठहाके छोड़ आए कच्चे मकानों में हम,

रिवाज इन पक्के छतों में मुस्कुराने का है।

🌹

लिख लिख कर कर दस्तखत बनाएं हम,

कमबख्त जमाना बदल के अंगूठे पे आ गया।

🌹

हौसले को देखे गुगल से मिले ज्ञान,

नौ साल का बच्चा समझे अपने को जवान।

🌹

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #170 ☆ हळदीचे अंग… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 170 ?

☆ हळदीचे अंग…  ☆

एक कळी उमलली

तिचे गुलाबी हे गाल

ओलसर पुंकेसर

रक्तरंजित ते लाल

 

फूल तोडले हे कुणी

कसे सुटले माहेर

काय होईल फुलाचे

डहाळीस लागे घोर

 

आहे गुलाबी पिवळा

आज बागेचा ह्या रंग

हाती रंग हा मेंदीचा

सारे हळदीचे अंग

 

वसंताच्या मोसमात

पहा फुलाचे सोहळे

दिसे फुलाला फुलात

रूप नवीन कोवळे

 

नव्या कोवळ्या कळीला

वेल छान जोजावते

नामकरण करून

तिला जाई ती म्हणते

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कल्याणमस्तु… ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ कल्याणमस्तु… ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

‘आपले कल्याण देवच करीत असतो’ हा मनातला भाव ‘इदं न मम’ या भावनेतून उमटत असेल तर ते योग्यच आहे.पण आपल्या आयुष्यात खूप कांही चांगलं घडतं, आपल्याला यश मिळतं, आपल्या अपेक्षा पूर्ण होतात तेव्हा सर्वसाधारणपणे ‘माझ्या कष्टांचं फळ मला मिळालं, मी केलेल्या प्रयत्नांना यश आलं’ हाच विचार उघडपणे व्यक्त केला नाही तरी ठळकपणे मनात असतोच. अडचणीच्या, संकटाच्या वेळी मात्र हिम्मत न हारता ती परिस्थिती स्विकारून प्रयत्नांची पराकाष्ठा करण्याची जिद्द महत्त्वाची असते.पण अशावेळी हतबल होणारे, देवानेच आपल्या मदतीला धावून यावे, अडचणींचा परिहार करावा यासाठी देव देव करणारेच अनेकजण असतात. आपल्या हातून एखादी चूक घडली तर देवानेच मला दुर्बुद्धी दिली अशी सोयीस्कर समजूत करून घेऊन त्याचा दोष स्वतः स्विकारण्याची बऱ्याच जणांची तयारी नसते. अशी माणसे यशाचं, उत्कर्षाचं श्रेय देवाला देऊन ही त्याचीच कृपा असं वरवर म्हणतही असतील कदाचित पण त्या त्यावेळी मनातला त्यांचा अहं मात्र  अधिकाधिक टोकदारच होत जात असतो.

माणसाच्या प्रवृत्तीचं हे विश्लेषण अर्थातच ‘कल्याण’ या शब्दाबद्दल विचार करत असतानाच नकळत घडलेलं. त्याला कारणही तसंच आहे.

‘कुणाचं कल्याण करणारे आपण कोण? परमेश्वरच खऱ्या अर्थाने कल्याण करीत असतो’ हे गृहित, कल्याण या शब्दाचे असंख्य कंगोरे सर्वांचे क्षेमकुशल ध्वनित करणारे आहेत हे आपण समजून घेतले तर ‘ कल्याण करणारे आपण कोण? ते परमेश्वरच करीत असतो’ हे गृहित मनोमन तपासून पहायला आपण नक्कीच प्रवृत्त होऊ.हे व्हायला हवे.अन्यथा ‘कल्याण हे ईश्वरानेच करायचे असते’ हाच ग्रह मनात दृढ होत जाईल.

‘कल्याण ‘या शब्दात लपलेले या शब्दाचे विविध छटांचे अर्थ आपल्यालाही आपल्या गतायुष्यातले अनेक क्षण पुन्हा तपासून पहायला नक्कीच प्रवृत्त करतील.

कल्याण म्हणजे क्षेम. कल्याण म्हणजे मंगल, कुशल शुभ. कल्याण म्हणजे भद्र, श्रेय, सुख आणि स्वास्थ्यही. आनंद, सौख्य, मांगल्य, बरं, भलं म्हणजेही कल्याणच. सुदैव, भाग्य, हित, लाभ, ऐश्वर्य,या शब्दांतून ध्वनित होणारं बरंच कांही ‘कल्याण’ या एकाच शब्दात सामावलेलं आहे. उत्कर्ष, भाग्योदय, अभ्युदय, भरभराट, प्रगती या सगळ्यांनाही ‘कल्याण’च अभिप्रेत आहे!

या वरील सर्व शब्द आणि अर्थ यांच्यामधे जे लपलेलं आहे ते ते आयुष्यातल्या अनेक टप्प्यांवर वेळोवेळी आपल्याला मिळालेलं आहेच. कांही क्वचित कधी निसटलेलंही. जे मिळालं ते माणसाला वाटतं आपणच मिळवलंय. पण ते मिळायला, मिळवून द्यायला, ते मिळवण्यासाठी आपल्याला प्रवृत्त करायला आपल्या आयुष्यात त्या त्यावेळी डोकावून गेलेले कुणी ना कुणी निमित्त झालेले असतातच. बऱ्याचदा हे आपल्या लक्षांत तरी येत नाही किंवा अनेकजण त्याकडे सोयीस्कर दुर्लक्ष तरी करतात. खरंतर त्या त्या वेळी निमित्त झालेल्या कुणाला विसरुन न जाता त्याच्याबद्दलची कृतज्ञता आपण जाणिवपूर्वक मनोमन जपायला हवी. ‘अहं’चा वरचष्मा असेल तर ती जपली जात नाहीच.आणि जे ही कृतज्ञता जपत असतात ते त्यांच्या संपर्कात आलेल्यांना त्यांची त्यांची अडचण दूर करायला अंत:प्रेरणेनेच प्रवृत्तही होतात. ही नेमक्या गरजेच्या वेळी आपल्या संपर्कात येऊन आपल्याला मदत करून जाणारी माणसं परमेश्वराची कृपाच म्हणता येईल.

‘त्यांच्या रूपाने परमेश्वरच मदतीला धावून आला ‘असा भाव जेव्हा कृतार्थतेने एखाद्याच्या मनात निर्माण होतो त्याचा हाच तर अर्थ असतो.

एखाद्या मनोमन कोसळलेल्या माणसाला आपण नकळत सावरणं, आपल्या कृतीने, आपुलकीने एखाद्याच्या दुखऱ्या मनावर हळूवार फुंकर घालणं हे त्या त्या व्यक्तिसाठी किती मोलाचं  असतं हे मला माझ्या आयुष्यातले सुखदुःखाचे प्रसंग आठवताना अनेकदा तीव्रतेनं जाणवतं.

खुशालीची, आपुलकीची पत्रं येणं,पाठवणं कालबाह्य झालेलं आहे. पण ती जेव्हा त्या त्या काळातली गरज होती तेव्हा ती गरज निर्माण झालेली होती  परस्परांबद्दल मनात जपलेलं प्रेम आणि आपुलकी यामुळेच. तिकडे सगळं ‘क्षेमकुशल’ असावं ही मनातली सद्भावना इतरांचं ‘कल्याण’ चिंतणारीच असायची.

आदरभावाने नतमस्तक होऊन नमस्कार करणाऱ्यांसाठी मनातून उमटणारा ‘कल्याणमस्तु’ हा आशिर्वाद आंतरिक सदभावना घेऊनच उमटत असल्याने खऱ्या अर्थाने फलद्रूप होण्याइतका कल्याणकारी निश्चितच असायचा.

काळानुसार होणाऱ्या सार्वत्रिक बदलांच्या रेट्यात होणाऱ्या पडझडीमुळे हा सद्भाव त्याची आंतरिक शक्ती हरवत चाललाय असं वाटायला लावणारं सर्वदूर पसरु लागलेलं निबरपण  माणसाच्या मनातल्या हितकारक भावनाही निबर करत चाललाय आणि तोच ‘जनकल्याणाला’

सुध्दा मारक ठरत चाललाय हे आपल्या लक्षातही न येणं हाच सार्वत्रिक कल्याणातला मुख्य अडसर आहे.तो दूर होईल तेव्हाच ‘कल्याणमस्तु’ हा आशिर्वाद सशक्तपणे उमटेल आणि खऱ्या अर्थाने सफलही होईल!

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! – विरजण ! – ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

 😂 चं म त ग ! 🙊 विरजण ! 🤠 ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

“गुडमॉर्निंग पंत !”

“नमस्कार, नमस्कार ! बोल आज काय काम काढलस ?”

“थोडं दही हव होत विरजण लावायला.”

“ती वाटी खाली ठेव आणि बस बघु आधी खुर्चीवर.”

“पण पंत विरजण… “

“त्याची कसली काळजी करतोस?  मी सांगतो हिला तुला विरजण द्यायला, पण त्याच्या आधी माझ एक काम आहे तुझ्याकडे.”

“बोला ना बोला पंत, तुम्ही माझ्यासाठी एवढं… “

“जास्त मस्काबाजी नकोय, मला गेल्यावेळेस जसा डोंबिवलीच्या करव्यासाठी ट्रेनचा आवाज टेप करून दिला होतास ना…. “

“त्याच आवाजाची आणखी टेप हव्ये का तुम्हाला, देन डोन्ट वरी, संध्याकाळी ….”

“उगाच गुडघ्याला बाशिंग लावलेल्या नवऱ्या सारखा उधळू नकोस, मी काय सांगतोय ते नीट ऐक.”

“सॉरी पंत, बोला.”

“अरे करव्याला त्या ट्रेनच्या आवाजाच्या टेपचा चांगलाच उपयोग झाला आणि त्याच्या झोपेचा पण प्रश्न सुटला, पण…. “

“पण काय पंत ?”

“अरे नुसता आवाज ऐकून त्याला झोप येईना. मला फोन करून सांगितलन तस.”

“मग ?”

“म्हणाला ‘या आवाजा बरोबर ट्रेन मधे बसल्याचा फिल यायला हवा, तरच झोप येईल’ आता बोल !”

“मग तुम्ही त्यांचा तो प्रॉब्लेम कसा काय सॉल्व केलात ?”

“अरे त्याला सांगितलं, झोपेच्या वेळेस तू नुसती ट्रेनच्या आवाजाची टेप चालू नको करुस, तुझ्याकडच्या रॉकिंग चेअर मध्ये बस आणि मग टेप चालू कर आणि मला सांग, तुला झोप येते की नाही.”

“मग आली का झोप कर्वे काकांना तुमच्या उपायाने?”

“अरे न येवून सांगते कोणाला, दहा मिनिटात त्याची गाडी खंडाळ्याचा घाट चढायला लागली !”

“पंत, पण कर्वे काका घरी रॉकिंग चेअर मधे बसून ट्रेनच्या आवाजाची टेप ऐकत होते ना, मग एकदम त्यांची गाडी खंडाळ्याचा घाट कशी काय चढायला लागली ?”

“मी गेल्या वेळेसच म्हटले होत तुला, तुमच्या आजकालच्या पिढीचा आणि मातृभाषेचा काडीचाही……. “

“पंत तुम्हीच तर म्हणालात ना की कर्वे काकांची गाडी…. “

“अरे म्हणजे तो गाढ झोपून घोरायला लागला, आता कळलं?”

“मग त्यांची गाडी खंडाळ्याचा घाट… “

“अरे आमच्या पिढीचे ते मराठी आहे, तुला नाही कळायचं.”

“असं होय, पण आता तुमचं नवीन काम काय ते सांगा आणि मला विरजण देवून मोकळ करा !”

“हां, अरे करव्याचा झोपेचा प्रॉब्लेम मी सॉल्व केल्याची बातमी अंधेरीला राहणाऱ्या जोशाला, कशी कुणास ठाऊक, पण कळली.”

“बरं !”

“अरे त्याचा मला लगेच फोन, मला पण हल्ली रात्री झोप येत नाही, मला पण टेप पाठवून दे !”

“ओके, मी आजच संध्याकाळी ट्रेनच्या आवाजाची टेप… “

“अरे असा घायकुतीला येऊ नकोस, त्याला ट्रेनच्या आवाजाची टेप नकोय, विमानाच्या….. “

“आवाजाची टेप हवी आहे ?”

“बरोबर !”

“पण पंत विमानाच्या आवाजाची टेप कशाला हवी आहे जोशी काकांना ?”

“अरे त्याची अंधेरीची सोसायटी एअरपोर्टच्या फनेल झोन मधे आहे आणि…. “

“फनेल झोन म्हणजे काय पंत ?”

“अरे फनेल झोन म्हणजे, जिथे सगळ्या सोसायटया एअरपोर्ट जवळ असल्यामुळे कमी मजल्याच्या असतात आणि त्यांना दिवस रात्र विमानाच्या आवाजाचा प्रचंड त्रास होतो आणि…….”

“सध्या विमान वाहतूक बंद असल्यामुळे त्यांच्या आवाजा शिवाय जोशी काकांना पण रात्रीच्या झोपेचा प्रॉब्लेम झाला आहे, बरोबर ? “

“बरोबर !”

“ओके, नो प्रॉब्लेम, संध्याकाळीच तुम्हाला विमानाच्या आवाजाची टेप आणून देतो, मग तर झालं ! आता मला या वाटीत जरा विरजण द्यायला सांगा बघु काकूंना.”

“अरे हो, हो, विरजण कुठे पळून चाललंय.  आधी माझ्या एका प्रश्नाचे उत्तर दिलेस तर लगेच तुला विरजण देतो, बोल विचारू प्रश्न ?”

“हो, विचाराना पंत.”

“मग मला असं सांग, या जगात कोणी कोणाला प्रथम विरजण दिले असेल ?”

“अरे बापरे, खरच कठीण प्रश्न आहे हा आणि मला काही याच उत्तर येईलसे वाटत नाही.”

“मग तुला विरजण…… “

“थांबा पंत, आता मी तुम्हाला एक प्रश्न विचारतो आणि त्याच उत्तर तुम्ही बरोबर दिलेत तर मला विरजण नको, ओके ?”

“मला माहित आहे तू मला तुझ्या बालबुद्धीने काय प्रश्न विचारणार आहेस ते.”

“काय सांगता काय पंत, मग सांगा बघू मी कोणता प्रश्न विचारणार आहे ते.”

“तोच सनातन प्रश्न, कोंबडी आधी की….. “

“चूक, शंभर टक्के चूक !”

“नाही, मग कोणता प्रश्न विचारणार आहेस ?”

“आधी मला प्रॉमिस करा, की तुम्हाला माझ्या प्रश्नाचे उत्तर आले नाही, तर विरजण द्याल म्हणून !”

“प्रॉमिस, बोल काय आहे तुझा प्रश्न.”

“मला असं सांगा पंत, ज्याने पहिले घड्याळ बनवले, त्याने कुठल्या घड्याळात बघून त्याची वेळ लावली असेल ?”

“अं… अं…. अग ऐकलंस का, याला जरा वाटीत विरजण दे पाहू.”

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१०-०१-२०२२

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 120 – गीत – शब्द नहीं हैं शेष… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – शब्द नहीं हैं शेष।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 120 – गीत – शब्द नहीं हैं शेष…  ✍

कहने को नहीं विशेष

शब्द नहीं हैं शेष।

 

तोड़ दिये शंका के ताले

प्रश्नों को उत्तर दे डाले

सींचा हृदय प्रदेश।

 

जो वश में था सो कर डाला

शुभ शब्दों की सौंपी माला

बदल गया परिवेश ।

 

आखिर कब तक सहन करूँ मैं

इच्छाओं का हवन करूँ मैं

कब तक सहूँ कलेश।

 

कहने को नहीं विशेष

शब्द नहीं हैं शेष।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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