हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 44 – प्रो. सरन घई – “मातृभूमि से दूर पर, है हिंदी से प्यार” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में  हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री मनोज जी द्वारा 30  जुलाई 2022 को कनाडा में आयोजित एक लघु द्वि-राष्ट्रीय कवि गोष्ठी में  विश्व हिन्दी संस्थान (कनाडा) के अध्यक्ष एवं लोकप्रिय साहित्यिक ई-पत्रिका “प्रयास” के सम्पादक प्रो. सरन घई जी को प्रदत्त प्रशस्ति पत्र में उल्लेखित कविता।

श्री सरन घई जी को उनकी हिंदी के प्रति अगाध प्रेम, निष्ठा और लगन को देखते हुए श्री मनोज कुमार शुक्ल, संस्थापक,मंथन संस्था, जबलपुर (मध्य प्रदेश) भारत की ओर से यह प्रशस्ति पत्र  भेंट किया गया। लगभग 50 पुस्तकों के रचयिता प्रो.सरन घई, कनाडा के काफी लोकप्रिय हिन्दी साहित्यकार हैं।

श्री सरन घई जी के निवास स्थान पर भारत से पधारे समाचार पत्र जनसत्ता के पूर्व सम्पादक श्री शंभूनाथ शुक्ला जी के मुख्य आतिथ्य एवं मनोजकुमार शुक्ल “मनोज” जबलपुर, श्री दिनेश रघुवंशी, श्रीमती सरोजिनी जौहर, के विशिष्ट आतिथ्य एवं कनाडा के योगाचार्य, लोकप्रिय कवि श्री संदीप त्यागी जी के कुशल संचालन में कनाडा के चुनिंदा कवियों का एक मिनि द्वि-राष्ट्रीय कवि गोष्ठी का आयोजन सम्पन्न हुआ। कनाडा के मुख्य कवि श्री भगवत शरण श्रीवास्तव, श्री डॉ विनोद भल्ला, श्री पाराशर गौड़, श्री युक्ता लाल, श्री श्याम सिंह, श्रीमती साधना जोशी, श्रीमती मीना चोपड़ा, श्री भूपेंद्र विरदी, डॉक्टर संतोष वैद, श्री रविंद्र लाल, श्री गौरव, श्री उत्कर्ष तिवारी, श्री राम भल्ला, कीर्ति शुक्ला एवं सरोज शुक्ला आदि कवियों ने अपनी एक से बढ़कर एक रचनाएं प्रस्तुत की इसके पश्चात कार्यक्रम में भारत से पधारे हुए कवियों का प्रो. सरन घई जी ने अंग वस्त्र, संस्था-स्मृति चिन्ह एवं अभिनंदन पत्र देकर सम्मानित किया। सभी ने आदरणीय डॉ सरन घई जी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।)

✍ मनोज साहित्य # 44 – प्रो. सरन घई – “मातृभूमि से दूर पर, है हिंदी से प्यार” ☆

(प्रशस्ति पत्र – आदरणीय प्रो. सरन घई जी, विश्व हिन्दी संस्थान, कनाडा – ३० जुलाई  2022 )

“विश्व हिन्दी संस्थान”, अनुपम इसकी शान।

परचम है लहरा रहा, भारत का सम्मान।।

धन्य हुए हम आज हैं, मिला सुखद संजोग।

फिर अवसर है आ गया, कवि सम्मेलन योग।।

सात बरस के बाद का, लम्बा था वैराग्य।

पाया है सानिध्य अब , मुझे मिला सौभाग्य।।

मातृभूमि से दूर पर, है हिंदी से प्यार।

सरन घई की नाव है, खेते हैं पतवार।।

केनेडा की धरा में, अद्भुत बड़ा “प्रयास”।

हिन्दी दिल में है बसी, सुखद हुआ अहसास ।।

देश प्रेम की यह छटा, राष्ट्र भक्ति उद्गार ।

दिल में दीपक है जला, फैल रहा उजियार ।।

भारत की सरकार ने, हिन्दी का सम्मान।

राष्ट्रवाद की गूँज से, बनी जगत पहचान।।

आओ मिल वंदन करें, हिंदी का हम आज।

विश्व पटल पर छा गयी, भारत को है नाज।।

(श्री मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज ” जी की फेसबुक वाल से साभार )

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्थापक, “मंथन” संस्था, जबलपुर म. प्र. (भारत)

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 173 ☆ कोई न हारे जिंदगी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – कोई न हारे जिंदगी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 173 ☆  

? आलेख – कोई न हारे जिंदगी ?

गाहे बगाहे  युवा छात्र छात्राओ की आत्म हत्या के मामले प्रकाश में आते हैं. ये घटनायें प्रत्येक शहरी के लिये चिंता की बात हैं. वे क्या कारण बन जाते हैं जब अपने परिवार से दूर, पढ़ने के उद्देश्य से शहर आये बच्चे अपना मूल उद्देश्य, परिवार और समाज का प्यार भूलकर मृत्यु को चुन लेते हैं? कभी कोई किसान जिंदगी की दौड़ में लड़खड़ा कर लटक जाता है, तो कभी प्यार में ठुकराये पति पत्नी, प्रेमी प्रेमिका किसी झील में छलांग लगा देते हैं. मौत को जिंदगी से बेहतर मान बैठने की गलती दूसरे दिन के अखबार को अवसाद से भर देती है.

समाज और शहर की जिम्मेदारी इतनी तो बनती है कि हम एक ऐसा खुशनुमा माहौल रच सकें जहाँ सभी सकारतमकता से जीने को प्रेरित हों. जीवन के प्रति ऐसे पलायन वादी दृष्टिकोण रखने लगे लोगों के संगी साथियों के रूप में हममें से कोई न कोई कालेज, होस्टल, घर या कार्य स्थल पर अवश्य उनके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष हमेशा होता है, जो दुर्घटना के उपरांत साक्ष्य बन कर पोलिस को जानकारी देता है. किंतु उसकी उदासीनता आत्ममुग्धता, पड़ोसी का मन नहीं पढ़ पाती. हम यंत्रवत कैमरे भर नहीं हैं. हम सबकी, प्रत्येक शहरी की व्यक्तिगत जबाबदेही है कि अपने परिवेश में  किंचित सूक्ष्म नजर रखें कि किसी को हमसे किसी तरह की मदद, किसी आत्मीय भाव, कुछ समय तो नहीं चाहिये?

प्रगति के लिये, अपने आप में खोये हुये, नम्बरों और घड़ी की सुई के साथ दौड़ लगाते हम कहीं ऐसे प्रगतिशील शहरी तो नहीं बन रहे कि  हमारे आस पास कोई मृत्यु को जिंदगी से बेहतर मान रहा है और हम इससे बेखबर भाग रहे हैं. नये घर, नये वाहन, नई नौकरी के इर्द गिर्द यह यंत्रवत दौड़ ही शहर की अच्छी सिटिजनशिप के लिये पर्याप्त नही है. हमारा शहर वह सामाजिक समूह बने जहाँ सामूहिक जागृत चेतना हो, सामूहिक उत्सवी माहौल हो, सामूहिक प्रगति हो. कोई जिंदगी से हताश न हो. इसके लिये किसी संस्था, किसी सरकारी कार्यक्रम की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी महज हममें से हरेक के थोड़े से चैतन्य व्यवहार की आवश्यकता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग -3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पुरानी आदतें जीवन के साथ ही जाती हैं। बचपन में पिताजी रेल यात्रा के प्रस्थान समय से कम से कम दो घंटे पूर्व स्टेशन पर पहुंच जाते थे। हमारा एक समय का भोजन तो प्लेटफार्म पर ही हुआ करता था। अपने जीवन के अंतिम दौर में हमने भी विमानतल पर दो घंटे पूर्व पहुंच कर घर से लाए हुए भोजन का आनंद लिया।

विमान प्रस्थान के चार घंटे पूर्व प्रवेश करने के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। रात्रि के बारह बजे का समय, लाइन में खड़े युवा बहुत परेशान हो रहे थे। हमारे जैसे लोगों को कोई परेशानी नहीं थी, क्योंकि साठ के दशक में राशन की लाइन में घंटो खड़े रहकर पीएल 480 वाला लाल गेहूं घर के लिए लाना पड़ता था।

मन में एक भय अवश्य रहता है, कि कहीं टिकट, पासपोर्ट इत्यादि में कोई कमी ना निकल जाय। ऊपर वाले की कृपा से सब कुछ दो घंटे में हो गया था। विमानतल में भी प्रस्थान के कई प्लेटफार्म होते हैं। उन तक पहुंचने के लिए काफ़ी दूर जाना पड़ता हैं। रास्ते में कस्टम फ्री मदिरा, सिगरेट और अन्य सैंकड़ों दुकानें जिनमें सभी सामान खुला पड़ा हुआ था। कोई शटर, ताले नहीं दिख रहे थे। शायद इसी को रामराज्य कहते हैं। चूँकि दुकानें चौबीसों घंटे खुली रहती हैं, इसलिए चोरी इत्यादि की संभावना कम होती है। वैसे आजकल तो सीसी टीवी कैमरे ही चोरों के लिए सिरदर्द बने हुए हैं। बाजार में इतनी चकाचौंध कि आँखें फट रही थी। अपने प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार करने लगे, तभी एक तिपैया वाहन हवाई जहाज के आकार में मदिरा की बिक्री में लगा हुआ था। घूम घूम कर प्लेटफार्म पर बैठे हुए यात्रियों के आकर्षण का केंद्र बन चुका था। हमारा प्लेन भी प्लेटफार्म पर लग गया और हम प्रवेश की लाइन में लग गए। अगले भाग के लिए इंतजार करें। हमने भी तो विगत छः घंटे इंतजार में ही व्यतीत किए हैं।

क्रमशः… 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 133 – कविता ☆ हर हर महादेव ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक विषय पर आधारित महादेव को समर्पित रचना “हर हर महादेव”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 133 ☆

☆ कविता  🌿 हर हर महादेव 🙏

घर घर पूजे सावन में, शिव भोले भंडारी।

आदि अनंत के देव हैं, इनकी महिमा न्यारी।

 

भांग धतूरा बिल्व पत्र, इनको लगती हैं प्यारी।

दूध दही मधु निर्मल जल से, अभिषेक हुआ भारी।

 

धूप कपूर करें आरती, बम बम कहे दूनिया सारी।

नंदीगण की करें सवारी, गौरा मैया लागे प्यारी ।

 

जटाजूट में गंग विराजे, गोद गणपति मूषकधारी।

देव देवालय पूजे जाते, पार्थिव रुप धरे त्रिपुरारी।

 

शिव शंकर अवघर दानी, त्रिभुवन के अधिकारी।

प्रलय कर्ता कहलाते शंभु, महाकाल त्रिनेत्र धारी ।

 

सावन का है रुप निराला, शंकर हैं डमरु धारी।

रिमझिम बादल बरस रहे, जन जन के हितकारी।

 

भक्त लेकर चले कांवरिया, शिव शंकर के धाम ।

मन में श्रद्धा लेकर पहुंचे, सफल हुए सब काम।

 

भोले शंकर अविनाशी, कैलाश पति के वासी।

जनम जनम से करु तपस्या, शीलू तुम्हारी दासी।

 

🌿 हर हर महादेव 🌿

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #149 ☆ शापीत मी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 149 ?

☆ शापीत मी…

तुझी मी घेउनी स्वप्ने उशाशी झोपतो आहे

मिटाव्या पापण्या म्हणुनी किती कुरवाळतो आहे

 

पहा तो चंद्रही गेला कधीचा झोपण्यासाठी

असा शापीत मी येथे कशाला जागतो आहे

 

तिने हृदयावरी माझ्या असे गारूड केलेले

इथे तर श्वासही माझा तिच्यावर भाळतो आहे

 

स्वतःचे नित्य जगणेही तिच्या केले हवाली अन्

स्वतःच्या भोवती आता स्वतःला शोधतो आहे

 

गराडा घातला आहे मला ह्या प्रेमवेड्यांनी

नका नादास लागू रे म्हणूनी सांगतो आहे

 

विषाची घेतली आहे परीक्षा आज स्वेच्छेने

विषासाठीच देहाला अता मी सोडतो आहे

 

शरीराने जरी नसलो तरी आत्मा इथे आहे

तुला सोडून जाण्याला मला तो रोखतो आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 1 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 1 ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

मला आज लिहायचं आहे

” डोळ्यातले पाणी ” या विषयावर.  आश्चर्य वाटलं ना! रडणं म्हणजे नकारात्मक वृत्तीचं आणि भावनांचं प्रकटीकरण.  धैर्य, पराक्रम,  सकारात्मक विचार,  सहिष्णुता,  हास्य या सर्वापुढे

‘ रडणं ‘ ही एक हलक्या किंवा खालच्या दर्जाची वृत्ती,  असा सर्वसाधारण समज.  रडणे या क्रियेशी संबंधित जेवढे काही वाक्प्रचार आहेत,  ते त्या क्रियेची अनावश्यकता आणि दुर्लक्षितता व्यक्त करतात .

” हिची रड काही संपत नाही” , ” जरा काही झालं की लागला मुळूमुळू रडायला “, ” अरे, पुरूषासारखा पुरूष तू, आणि रडतोस?” अशी अनेक वाक्ये आहेत.  त्यामुळे रडणं हे मनाचा कमकुवतपणा दर्शवितं  अशी पूर्वीपासून समजूत रूढ झाली आहे.

खरंतर ‘ रडणं ‘ किती नैसर्गिक आहे.  ” हसणं ” या प्रकारात स्मितहास्य,  हास्याचा गडगडाट, गालातल्या गालात हसणे, खुक् कन हसणे, खुद्कन हसणे, असे विविध पोटप्रकार आहेत. तसंच, रडणं किंवा डोळ्यातलं पाणी  यालाही अनेक नावे आहेत. अश्रू पाझरणे, आसवं गाळणे, टिपं गाळणे, गंगाजमुना,  डोळे वहाणे,  डोळे डबडबणे,  इत्यादि….

माणसाच्या मनाचा आरसा म्हणजे त्याचे डोळे. डोळे जितके पारदर्शी,  तितकंच डोळ्यातलं पाणी ही पारदर्शी असतं. डोळ्यातले पाणी म्हणजे मनातल्या भावनांचं न लपवता येणारं अदृश्य रूप. मग त्या भावना दुःखाच्या असोत वा आनंदाच्या,  कौतुकाच्या असोत वा कृतार्थतेच्या,  यशाच्या असोत वा अपयशाच्या,  प्रेमाच्या असोत किंवा संतापाच्या, उपकाराच्या असोत वा लाचारीच्या, भूतकाळाशी निगडीत असोत किंवा वर्तमानाशी, विरहाच्या असोत वा पुनर्मीलनाच्या.  मनातल्या या सगळ्या भावनांच्या कल्लोळाचं सदृश्य रूप म्हणजे डोळ्यातले पाणी.  कधी कधी भावनांच्या दाटून आलेल्या उमाळ्यापुढे व्यक्त होताना शब्द कमी पडतात, ते काम अश्रू करतात.

(क्रमशः… प्रत्येक मंगळवारी)

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 99 – गीत – याद तुम्हारी… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – याद तुम्हारी…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 99 – गीत – याद तुम्हारी✍

आती-जाती याद तुम्हारी

जैसे कोई राजकुमारी।

 

याद ,याद को नयन तुम्हारे जिन्हें प्यार छलकता है

होठों में रहता है जो कुछ उसको भी दे तरसता है

भाव भंगिमा ऐसी लगती

जैसे कोई राजकुमारी।

 

कोमल नरम अंगुलियां जैसे रेशम ,चंदन डूबा हो

बिखरे बिखरे केश कि जैसे मनसिब का मंसूबा हो।

गंधवती है देह तुम्हारी

जैसे कोई फूल कुमारी।

 

बंद बंद आंखों से देखा लगा कि कोई अपना है

खुली खुली आँखों से देखा लगा के दिन का सपना है।

यों आती है याद तुम्हारी

जैसे कोई किरन कुँवारी।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 101 – “…वे खत आज मिले…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “…वे खत आज मिले…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 101 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “वे खत आज मिले”|| ☆

खोंसे गये कभी छप्पर में

वे खत आज मिले

जिनमें धन की विनती के

निर्मित थे कई किले

 

मेरी फीस और कपड़ो की

जिदें भरी जिनमें

जूते फटे नही अच्छे लगते

पहनूँ दिन में

 

भरे हुये थे सारे खत

मेरी फरमाइश से

याफिर अमें भरे हुये थे

शिकवे और गिले

 

मगर पिता का मेरे प्रति

कुछ आग्रह था ऐसा

बिना किसी शंका-संशय

के भिजवाते पैसा

 

जीवन भर वे खटते आये

पथ पर अडिग रहे

फर्ज निभाते आये  अपना

प्रण से नहीं हिले

 

और पढाई कर के यों  तो

कमा रहा खासा

पर कर पाया ना पूरी

मैं बापू की आसा

 

जीवन भर जिसकी

एवज में मिले उन्हें छाले

अब भी उनके सभी

अंग दिखते है छिले- छिले

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

19-07-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 92 ☆ # मै बलिवेदी पर नहीं चढ़ूँगी… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मै बलिवेदी पर नहीं चढ़ूँगी…  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 92 ☆

☆ # मै बलिवेदी पर नहीं चढ़ूँगी… # ☆ 

आँखों से बहती हुई

अश्रुओं की धार है

आँचल है तार तार

ज़ख्म बेशुमार हैं

 

बचपन से आज तक

तंज ही तो पाये हैं

जिन्हें अपना समझा

वे ही तो रूलाये हैं

 

यौवन देखकर मेरा

आसमां भी हिल गया

इस बहार में मोहक फूल

मुझ पर ही खिल गया

 

चारों तरफ महक है

भ्रमरों में चहक है

और मैं डरी-डरी

सीने में दहक है

 

राह में दुश्वारियां हैं

घूरती आँखों में चिंगारियां हैं

भेड़िये हैं ताक पर

मेरी भी कमजोरीयां है

 

मैंने यह मान लिया है

मन ही मन ठान लिया है

डर के जीना क्या जीना

लड़ के जीना जान लिया है

 

अब मैं गुमनाम नहीं जलूंगी

छल से बचकर सदा चलूंगी

चाहे कुछ भी कर ले ज़माना

मैं बलिवेदी पर नहीं चढ़ूँगी

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ मन का तन पर प्रभाव ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मन का तन पर प्रभाव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ – यह पुरानी कहावत है। आशय है कि यदि मन प्रसन्न है तो गंगा का सुख घर में ही है। स्नान और शांति की खोज में गंगा जी तक किसी तीर्थस्थल तक जाने की आवश्यकता नहीं होती। जीवन में सभी का व्यक्तिगत अनुभव है कि मन जब खुश रहता है तो सारा वातावरण सुहाना दिखता है और मन की खिन्नता में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। खाना, पीना, गाना, बोलना, बताना सभी के प्रति विरक्ति हो जाती है और एक उदासी घेर लेती है। मानव शरीर तो आत्मा का आवरण या वाहन मात्र है। प्रमुख तो वह चेतन आत्मा है जो व्यक्ति को संचालित करती है। सोचती-विचारती है, संकल्प करती है और फिर शरीर को काम के लिये प्रेरित करती है तथा इच्छानुसार कार्य संपादित कराती व फल प्राप्ति कराती है। मन की खुशी से ही तन की खुशी है, तन मन का अनुगमनकर्ता है। मानसिक भावनाओं का शारीरिक क्रियाकलापों पर गहरा असर होता है। यदि किसी ने वार्तालाप के प्रसंग में अपशब्द कहे तो मन उससे दुखी हो जाता है। परिणाम स्वरूप शरीर शिथिल होता है, किसी कार्य को करने से रुचि हट जाती है। व्यक्ति कहता है कि कुछ करने का मूड नहीं है। जीवन में हर क्षेत्र में हमेशा मन का तन से यही गहरा संबंध है, इसलिये एक की अस्वस्थता दूसरे को प्रभावित करती है। यदि शरीर को आकस्मिक चोट लग जाती है या बुखार हो जाता है तो मन की आकुलता बढ़ जाती है। किसी मानसिक कार्य को संपादित करने में मन नहीं लगता। व्यक्ति के दैनिक व्यवहार भी प्रभावित होते हैं।

मन का तन पर और तन का मन पर भारी प्रभाव पड़ता है। बड़े-बड़े कार्य यह तन, मन की खुशी के लिये प्रसन्नतापूर्वक उत्साह और उमंग से संपन्न कर डालता है और विपरीत परिस्थिति में कुछ भी करने में रुचि नहीं रखता। इसलिये कहा है ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ यदि मन किसी संकल्प को पूरा करने को तैयार हैं तो आत्मविश्वास बढ़ा रहता है और कठिनाइयों पर सरलता से विजय पा ली जाती है, परन्तु यदि मन का संकल्प कमजोर है, विचारों में ढीलापन है तो हर युद्ध में जीत मुश्किल है। हार का कारण मन के संकल्प की कमजोरी ही होती है। यदि मन सबल और स्वस्थ है तो कार्य संपादन में साधनों की कमी खटकती नहीं और यदि मन अस्वस्थ है तो सारे साधनों के रहते भी सफलता हाथ से फिसल जाती है। मनोभावों की छाया तन पर स्पष्ट दिखाई देती है। रंगमंच पर अभिनेता के मन में जो भाव प्रधान रूप से उत्पन्न होते हैं उसके चेहरे और हाव भावों में अभिनय के रूप में स्पष्ट झलकते हैं और दर्शक उनकी प्रशंसा करते हैं। अत: मन का तन पर भारी प्रभाव पड़ता है। अब तो भेषज विज्ञान भी यह मानने लगा है कि शरीर की रुग्णता को दूर करने में मन की आशावादिता और प्रसन्नता का बड़ा हाथ होता है। मन से स्वस्थ मरीज को डॉक्टरों द्वारा दी गई दवायें उसे जल्दी स्वस्थ कर देती हैं जबकि अन्यों को अधिक समय लगता है पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्ति में। मन और तन का पारस्परिक गहरा नाता है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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