हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #149 – ग़ज़ल-35 – “नीति नहीं होती है यहाँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नीति नहीं होती है यहाँ …”)

? ग़ज़ल # 35 – “नीति नहीं होती है यहाँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

साँप तुम सभ्य नही हुए नगर भी कहाँ बनाया,

तुम ड़सना कहाँ सीखे तुमने ज़हर कहाँ बनाया।

 

सभ्य हम हुए और स्मार्ट नगर भी यहाँ बसाया,

लालच ईर्ष्या द्वेष विष हमने है यहाँ बनाया।

 

मैं मेरा अहंकार घमंड़ी बीन बजाती यहाँ काया। 

वो मिट गया जिसने मिलन बसेरा यहाँ बनाया। 

 

जब बनता नहीं काम अच्छी बातों से हमारा,

हमने एक नया तरीक़ा राजनीति यहाँ बनाया। 

 

नीति नहीं होती है यहाँ कभी राजनीति में कोई,

खुद की छवि चमका दूसरे को पशु यहाँ बनाया।

 

काम मद क्रोध लोभ मोह को सहज अपनाया,

प्रेम दया स्नेह करुणा से अंतर यहाँ बनाया।

 

जब चले निभाने लोकतंत्री धर्म सत्ता प्राप्ति के,

जाति   बाहूबल  प्रशासन  पैसा यहाँ बनाया।

 

जब बनता नहीं किसी कुटिलता से काम हमारा,

जीतने चुनाव मंदिर मस्जिद मुद्दा यहाँ बनाया।

 

मारते जिस रावण को और जलाते हर दशहरा,

रावण नीति लक्ष्मण को सिखा के जहाँ बनाया।

 

दस इनके बीस उनके धूर्तता से तोड़ तुड़ाकर,

सत्ता गलियारे में हमने मुख्यमंत्री यहाँ बनाया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 91 ☆ ’’खो उसको नैन आज फिर…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “खो उसको नैन आज फिर …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 91 ☆ ’’खो उसको नैन आज फिर…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मुस्कानों में दुख-दर्द को बहलाये हुये हैं

चोटों पै चोट दिल पै कई खाये हुये हैं।

 

है याद मैं जब से चला खपता ही रहा हूँ

पर फर्ज को कर याद बढ़े आये हुये हैं।

 

करता रहा आये दिनों मुश्किल का सामना

किससे कहें कि किस तरह सताये हुये हैं।

 

जिसने जो कहा सुन लिया पर जो सही किया

इससे ही उलझनों से निकल आये हुये हैं।

 

हित करके सबके साथ ही कुछ भी न पा सका

चुप सारा बोझ अपना खुद उठाये हुये हैं।

 

औरों से तो कम अपनों से ही ज्यादा मिला है

जो बेवजह ही अपना मुंह फुलाये हुये है।

 

मन पूछता है बार-बार गल्ती कहाँ है ?

चुप रहने की पर हम तो कसम खाये हुये हैं।

 

लगता है अकेले में कही बैठ के रोयें

पर तमगा समझदारी का लटकाये हुये हैं।

 

दुनियाँ ने किसी को कभी पूछा ही कहाँ है ?

संसार में सब स्वार्थ में भरमाये हुये हैं।

 

लगता है मुझे यहाँ पै कुछ हर एक दुखी हैं

यह सोच अपने मन को हम समझाये हुये हैं।

 

अवसाद के काँटों से दुखी मन को बचाने

आशा के मकड़जालों में उलझाये हुये हैं।

 

पर जिसका हर कदम पै सहारा रहा सदा

खो उसको नैन आज फिर भर आये हुये हैं।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 99 – क्रोध पर नियंत्रण… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #99 🌻 क्रोध पर नियंत्रण… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है, जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिलता। प्यास से उसका गला सूखा जा रहा था तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।

वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग बहुत समय लगने पर वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को मुँह के पास ऊचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टेटे की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।

राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है। ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है।

काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर गया और राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिराके वापस सामने बैठ गया।

अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं इसे नही छोड़ूंगा। अब ये जब वापस आएगा तो इसे खत्म कर दूंगा।

इस प्रकार वह राजा अपने हाथ में चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है। काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता है तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारता है और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।

तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो पीछा छूंट गया लेकिन ऐसे बून्द -बून्द से कब वापस दोना भरूँगा और कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए जहाँ से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा देखता है तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।

क्योकि उस डाली पर एक भयंकर अजगर सोया हुआ था और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।

राजा के मन में पश्चाताप का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु! मैने यह क्या कर दिया? जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया।

काश मैने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता। अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती। हे भगवान मैने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया? हाय ये मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पाश्चाताप से प्रेरित हो वह राजा दुखी हो उठता है।

इसीलिये कहते हैं कि..

  • क्षमा औऱ दया धारण करने वाला सच्चा वीर होता है।
  • क्रोध में व्यक्ति दुसरो के साथ साथ अपने खुद का ही बहुत नुकसान कर देता है।
  • क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पश्चाताप से होता है। इसलिए हमेशा क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 112 – स्वार्थ वळंबा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 112 – स्वार्थ वळंबा ☆

आज मानवी मनाला स्वार्थ वळंबा लागला।

कसा नात्या नात्यातील तिढा वाढत चालला।।धृ।।

 

एका उदरी जन्मूनी घास घासातला खाई।

ठेच एकास लागता दुजा घायाळकी होई।

हक्कासाठी दावा आज कोर्टात चालला ।।१।।

 

मित्र-मैत्रिणी समान, नाते दुजे न जगती ।

वासुदेव सुदाम्याची जणू येतसे प्रचिती

विष कानाने हो पिता वार पाठीवरी केला ।।२।।

 

माय पित्याने हो यांचे कोड कौतुक पुरविले।

सारे विसरूनी जाती बालपणाचे चोचले।

बाप वृद्धाश्रमी जाई बाळ मोहात गुंतला ।।३।।

 

फळ सत्तेचे चाखले मोल पैशाला हो आले ।

कसे सद्गुणी हे बाळआज मद्य धुंद झाले ।

हाती सत्ता पैसा येता जीव विधाता बनला।।४।।

 

सोडी सोडी रे तू मना चार दिवसाची ही धुंदी।

येशील भूईवर जेव्हा हुके जगण्याची संधी।

तोडी मोहपाश सारे जागवूनी विवेकाला।।५।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “आणि शेवटी तात्पर्य” – भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆“आणि शेवटी तात्पर्य” – भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर ☆ 

पुस्तकाचे नाव   आणि शेवटी तात्पर्य(लघुकथा संग्रह)

मूळ लेखिका     हंसा दीप

अनुवाद            उज्ज्वला केळकर

प्रकाशक           मिलिंद राजाज्ञा

पृष्ठे                  १८४

किंमत              रु. ३३०/-

नुकताच,  सौ उज्ज्वला केळकर यांचा, “आणि शेवटी तात्पर्य ..”हा अनुवादित कथासंग्रह वाचनात आला.

यात एकूण १७ कथा आहेत आणि त्यांच्या, मूळ हिंदी लेखिका, कॅनडास्थित डॉक्टर हंसा दीप या आहेत.

डॉक्टर हंसा दीप या मूळच्या भारतातल्याच. त्या आदिवासी बहुल परिसरात जन्मल्या, वाढल्या, शिक्षित झाल्या.  त्यांनी शोषण, भूक, गरिबीने त्रस्त झालेल्या आदिवासींचे, तसेच परंपरांशी झुंजत, विवशतांशी लढणाऱ्या मध्यमवर्गीयांचे जीवन जवळून अनुभवले. त्यातूनच या कथा जन्माला आल्या.सृजन व संघर्षाचा अनुभव देणाऱ्या, या सुंदर कथांचं,  नेहमीप्रमाणेच उज्ज्वला ताईंनी केलेले अनुवाद लेखन, तितकंच प्रभावी आणि परिणामकारक आहे, हे या कथा वाचताना जाणवतं.

यातली पहिलीच, शीर्षक कथा ..”आणि शेवटी तात्पर्य ..”वाचताना, एक सहज वास्तव मनाला स्पर्शून जातं.  परदेशातले एक मंदिर आणि तिथे ध्यान धारणेसाठी जमलेली परदेशस्थित, भारतीय तरुण, वृद्ध, मध्यमवर्गीय माणसे. त्यांचे आपापसातले संवाद, चर्चा, आणि एकंदरच, वरवरचं  भासणारं वातावरण. या भोवती मंदिरातल्या पंडितांचही जोडलेलं, पोटासाठीचं भक्तिविश्व. केवळ एक व्यवसाय. आणि या सर्वांचे, शेवटी तात्पर्य काय तर मंदिरात येणारे भाविक आणि पंडित यांचा उथळपणा.

‘आपण काही क्षण तरी नतमस्तक झालो’, इतकेच श्रद्धेचे मापदंड.आणि त्यांच्या भावना एनकॅश करणारे पंडीत.  याचे सहज प्रतिबिंब, या कथेत उमटले आहे.

पोपटी पान पिवळं पान… या कथेत एका वृद्ध असहाय झालेल्या, एकेकाळच्या प्रख्यात डॉक्टरांची, एकाकी मानसिकता, त्याला बेबी सिटिंग च्या निमित्ताने सापडलेल्या, काही महिन्यांंच्या बाळासोबत झालेल्या दोस्तीमुळे, कशी बदलते, याचं अत्यंत भावस्पर्शी, अद्भुत वर्णन वाचायला मिळतं.

प्रतिबिंब…. ही कथा तर अत्यंत ह्रदयस्पर्शी आहे. नातीच्या आणि आजीच्या नात्याची ही कथा अतिशय भावपूर्ण, सहज बोलता बोलता लिहिली आहे.

जी आजी, नातीला लहानपणी  प्रॉब्लेम आजी वाटायची, तीच आजी, नात स्वतः मोठी झाल्यावर तिच्या अस्तित्वात कशी सामावून जाते, या प्रवासाची ही एक सुंदर कहाणी.

रुबाब… ही कथा लहान मुलांच्या विश्वाची असली तरी, माणसाच्या जीवनात पॉवर ही कशी काम करते, आणि त्यातूनच लाचखोरीची वृत्ती कशी बळावते, याचीच सूचना देणारी, काहीशी रूपकात्मक कथा वाटते.

मला नाही मोठं व्हायचंय… या कथेतील शेवटची काही वाक्यं मनाला बिलागतात.  कथेतल्या परीचे बालमन का दुखतं, त्याचं कारण हे शब्द देतात.

“मोठ्या लोकांना कळतच नाही की, जे तिने बघितले आहे,तिला आवडले आहे तेच काम ती करू शकेल ना? तिला पसंत असलेलं प्रत्येक काम ही मोठी माणसं रिजेक्ट का करत आहेत? तिच्या ‘मी कोण होणार’ या कल्पनेला का डावलतात?”

मग तिने मोठे होण्याचा विचारच मनातून काढून टाकला. वरवर ही बालकथा वाटत असली तरी, ती रूपकात्मक आहे, माणसाच्या जीवनाला एक महत्वाचा संदेश देणारी आहे.

छोटुली…  या कथेतल्या बालकलाकारावर, पालकांच्या प्रसिद्धी, पैसा, एका ग्लॅमरच्या मोहापायी होणारा आघात अनुभवताना, मन अक्षरशः कळवळते.

तिचं सामर्थ्य… ही कथा एका शिक्षण संस्थेत असलेल्या, द्वेषाच्या स्पर्धेवर प्रकाश टाकते.मिस हैली,एक प्राध्यापिका, तिच्यावरचे आरोप ती कशी परतवून लावते,आणि स्वत:चे निर्दोषत्व सिद्ध करते याची ही ऊत्सुकता वाढवणारी  कथा ,खूपच परिणामकारक आहे.

प्रोफेसर …ही कथा फारशी परिणामकारक नसली तरीही प्रोफेसर, विद्यार्थी, शिक्षणाबद्दलची अनास्था, राजकारण आणि या पार्श्वभूमीवर अधिकार आणि कर्तव्य याची, उपरोधिक, उपहासात्मक केलेली उलगड, ही चांगल्या प्रकारे  झाली आहे.

पाचवी भिंत… ही कथा समता सुमन या निवृत्त होणार्‍या,शाळेत प्राचार्य असलेल्या व्यक्तीच्या राजकारण प्रवेशाची आहे. काही धक्के बसल्यानंतर, राजकारण की पुन्हा शांत जीवन, या द्वद्वांत सापडलेल्या मनाची ही कथा खूपच प्रभावी आहे. आणि शेवटी समताने स्वीकारलेले आव्हान, आणि तिचे खंबीर मन, या कथेत अतिशय सुंदररित्या चितारले आहे.

रुपेरी केसात गुंतले ऊन… ही कथा तशी वाचताना हलकीफुलकी वाटली तरी, त्यात मनाच्या गाभाऱ्यातलं एक गंभीर खोल सत्य जाणवतं. आठवणीत रमलेल्या चार वृद्ध बहिणींच्या गप्पा, या कथेत वाचायला मिळतात.

“आतलं दुःख आजच काढून टाकायचं. हसून ,घ्यायचं.”

कुंडीतील सुकलेली फुले, पुन्हा नव्याने ताजी होत होती …..ही काही वाक्यं अंतराचा ठाव घेतात.

बांधाच्या खांद्यावर नदी.. .या कथेत भावनिक आंदोलनात सापडलेली स्त्री, अखेर त्यातून स्वतःच कशी सावरते, याचे एक सकारात्मक भावचित्र रेखाटलं आहे.

मधमाशी…ही कथा उल्लेखनीय आहे. अतिशय तरल भावनेला, बसलेला धक्का,यात अनुभवायला मिळतो.

तिचं हसू …..ही कथा जाणीवा नेणीवांच्या पलीकडची आहे.  या कथेत एका अकल्पित प्रेमाची ओळख होते. चूक की बरोबर या सीमारेषांच्या पलीकडे गेलेली, ही कथा मनाला घट्ट धरून ठेवते.

समर्पण…. या कथेत कोरोनाचा तो एक भयाण असा विनाशकारी काळ ,एका वेगळ्याच मानवतेचं ही दर्शन देतो. एक वृद्ध रुग्ण, स्वतःचा जीव वाचवण्यापेक्षा, एका तरुण रुग्णाच्या,  संपूर्ण भविष्याचा विचार करून मृत्यूला सामोरे जाण्यास तयार होते.

“त्याला या वेंटिलेटरची माझ्यापेक्षा जास्त गरज आहे. मी माझं आयुष्य जगले आहे. त्याचं जगणं महत्त्वाचं आहे.” असं डॉक्टरांना सांगून ती तिच्या जीवनाचे समर्पणच करते. अतिशय सुंदर कथा!

माझ्या घरच्या आघाडीवर….. ही कथा तशी हलकीफुलकी असली तरी परिवाराच्या सौंदर्याची मेख सांगणारी आहे. स्त्री सवलीकरणाच्या आंदोलनापासून, सुरुवात होणाऱ्या या कथेत, अंदोलनातला रुक्षपणा पटवून देणारी, काही वाक्यं मनाला फारच पटतात.

सविता, नेहा, एलिसिया, आणि यापूर्वी पाहिलेली आजी, आई, यांचा रुबाब सुयशच्या विचारांना नवी दिशा देतात. हे चेहरे त्याला आपले वाटतात. त्यांच्या धमकी भरलेल्या आवाजातही,प्रेम स्त्रवस्त असतं. ते संबंध परिवाराचा अर्थ शिकवतात. हे त्याला जाणवतं.थोडक्यात,या कथेत स्त्रियांच्या अनोख्या शक्तीत घेरलेलाच एक नायक आपल्याला भेटतो.

भाजी मंडई ….या कथेत एक विश्वस्तरीय समारंभात, देश विदेशी साहित्यिकांनी, स्वतःच्या सन्मानासाठी उठवलेला अभूतपूर्व गोंधळ अनुभवायला मिळतो. त्यातून प्रसिद्धीसाठी हापापलेल्यांचे मनोदर्शन अत्यंत वास्तविकपणे उभे रहाते.

अशा विविध विषयांवर हाताळलेल्या या सर्वच कथा मनोरंजना बरोबरच एक प्रकारचं ब्रेन वॉशिंगही करतात. आयुष्यात घडणाऱ्या बिन महत्वाच्या, साध्या, घटनातूनही आशय पूर्ण संदेश देण्याची, लेखिकेची क्षमता, कौतुकास्पद आहे.

आणि शेवटी तात्पर्य काय?.. तर एक अनोखे उत्कृष्ट कथा वाचनाचे समाधान!! उज्ज्वला ताईंची भाषांतर माध्यमांवर असलेली जबरदस्त पकड, याची पुनश्च जाणीव. त्यांचे अनुवादित लेखन, इतकं प्रभावी आहे की कुठेही मूळ कथा वाचनाचा, वाचकाचा आनंद, हिरावला जाऊच शकत नाही.  त्यासाठी आपल्याच संस्कृतीत रुजणाऱ्या कथांची, त्यांची निवड ही उत्तम आणि पूर्ण असते.

वास्तविक या कथा परदेशी वातावरणात घडलेल्या आहेत. पण तरीही त्या तिथल्या भारतीयांच्या आहेत. आपल्या संस्कृतीशी जुळणाऱ्या आहेत. म्हणून त्या वाचकाशी कनेक्ट होतात.

विचारांना समृद्ध करणाऱ्या या कथासंग्रहाबद्दल मूळ हिंदी लेखिका डॉक्टर. हंसा दीप (टोरांटो कॅनडा) आणि अनुवादिका सौ उज्ज्वला केळकर या दोघींचेही आभार आणि मनापासून अभिनंदन!!

धन्यवाद!!

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #142 ☆ दर्द की इंतहा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द की इंतहा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 142 ☆

☆ दर्द की इंतहा

‘दर्द को भी आधार कार्ड से जोड़ दो/ जिन्हें मिल गया है दोबारा ना मिले’ बहुत मार्मिक उद्गार, क्योंकि दर्द हमसफ़र है; सच्चा जीवन-साथी है; जिसका आदि-अंत नहीं। ‘दु:ख तो अपना साथी है’ गीत की ये पंक्तियां मानव में आस्था व विश्वास जगाती हैं; मन को ऊर्जस्वित व संचेतन करती है। वैसे तो रात्रि के पश्चात् भोर,अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा व दु:ख के पश्चात् सुख का आना निश्चित है; अवश्यंभावी है। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं और एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है।

समय निरंतर अबाध गति से चलता रहता है; कभी रुकता नहीं। सो! जो आया है अवश्य जाएगा। इसलिए ऐ मानव! तू किसी के आने की ख़ुशी व जाने का मलाल मत कर। ‘कर्म-गति अति न्यारी/ यह टारे नहीं टरी।’ इसके मर्म को आज तक कोई नहीं जान पाया। परंतु यह तो निश्चित् है कि ‘जैसा कर्म करता,वैसा ही फल पाता इंसान’ के माध्यम से मानव को सदैव सत्कर्म करने की सीख दी गयी है। 

अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित् है। परंतु भविष्य सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। वर्तमान ही शाश्वत् सत्य है,शिव है और सुंदर है। मानव को सदैव वर्तमान के महत्व को स्वीकारते हुए हर पल को ख़ुशी से जीना चाहिए। चारवॉक दर्शन में भी ‘खाओ-पीओ,मौज उड़ाओ’ का संदेश निहित है। आज की युवा पीढ़ी भी इसका अनुसरण कर रही है। शायद! इसलिए ‘वे यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास रखते हैं और ‘लिव इन’ व ‘मी टू’ की अवधारणा के पक्षधर हैं। वे पुरातन जीवन मूल्यों को नकार चुके हैं,क्योंकि उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी है। वे अहंनिष्ठ क्षणवादी सदैव हर पल को जीते हैं। संबंध-सरोकारों का उनके जीवन में कोई मूल्य नहीं तथा रिश्तों की अहमियत को भी वे नकारने लगे हैं,जिसका प्रतिफलन पति-पत्नी में बढ़ते अजनबीपन के एहसास के परिणाम-स्वरूप तलाक़ों की बेतहाशा बढ़ती संख्या को देखकर लगाया जा सकता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं,जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा उनके आत्मज भुगत रहे हैं। वे मोबाइल व मीडिया में आकण्ठ डूबे रहते हैं और नशे की लत के शिकार हो रहे हैं जिसका विकराल रूप मूल्यों के विघटन व सामाजिक विसंगतियों के रूप में हमारे समक्ष है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं,रिश्तों की अहमियत रही नहीं और अपहरण,फ़िरौती,दुष्कर्म व हत्या के हादसों में निरंतर इज़ाफा हो रहा है। चहुंओर संशय व अविश्वास का वातावरण व्याप्त है,जिसके कारण इंसान पल भर के लिए भी सुक़ून की साँस नहीं ले पाता। 

दूसरी ओर अमीर-गरीब की खाई सुरसा के मुख की भांति बढ़ती जा रही है और हमारा देश इंडिया व भारत दो रूपों में विभाजित परिलक्षित हो रहा है। एक ओर मज़दूर,किसान व मध्यमवर्गीय लोग,जो दिन-भर परिश्रम करने के पश्चात् दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते और आकाश की खुली छत के नीचे अपना जीवन बसर करने को विवश हैं। दूसरी ओर बाल श्रमिक शोषण व बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना रूप हमारे समक्ष है। एक घंटे में पांच बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं; बहुत भयावह व चिंतनीय स्थिति है। दूसरी ओर धनी लोग और अधिक धनी होते जा रहे हैं,जिनके पास असंख्य सुख-सुविधाएं हैं और वे निष्ठुर, संवेदनहीन, आत्मकेंद्रित व निपट स्वार्थी हैं। शायद! इसी कारण गरीब लोग दर्द को आधार-कार्ड से जोड़ने की ग़ुहार लगाते हैं,ताकि छल-कपट से लोग पुन: वे सुविधाएं प्राप्त न कर सके। उनके ज़हन में यह भाव दस्तक देता है कि यदि ऐसा हो जायेगा तो उन्हें जीवन में पुन: अभाव व असहनीय दर्द सहन नहीं करना पड़ेगा,क्योंकि वे अपने हिस्से का दर्द झेल चुके हैं। परंतु इस संसार में यह नियम लागू नहीं होता। भाग्य का लिखा निश्चित् होता है,अटूट होता है,कभी बदलता नहीं। सो! उन्हें इस तथ्य को सहर्ष क़ुबूल कर लेना चाहिए कि कृत-कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक मानव के साथ-साथ चलता है और उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए सुंदर भविष्य की प्राप्ति हेतू सदैव अच्छे कर्म करें ताकि भविष्य उज्ज्वल व मंगलमय हो सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

14 जुलाई 2022.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #141 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 141 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

पीड़ा मेरी समझ लो, धरती करे पुकार।

आकुल व्याकुल हो रही, डाल रहे क्यों भार।।

 

धरती कबसे कह रही, सुन लो मेरी बात।

हरियाली छीनों नहीं, छिन जायेगी रात।।

 

आँसू बहने लगे है, सहते सहते भार।

अब मैं तुमसे क्या कहूँ, लगी मानने हार।। 

 

समझ गए हैं आज हम, तेरी पीड़ा आज।

दूर करें हम गंदगी, तभी धरा पर राज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #130 ☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी  “एक बुन्देली पूर्णिका। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 130 ☆

☆ एक बुन्देली पूर्णिका ☆ श्री संतोष नेमा ☆

अब साँचो सो प्यार कितै है

माँ  को  प्रेम  दुलार  कितै है

 

पलना  घर  में  पलते  बच्चा

बचपन को  संस्कार  कितै है

 

धरम  पै  करते  चोट  अधर्मी

इनको    बंटाधार    कितै   है

 

गुडिमुड़ी   से   हो   रये   सबरे

इनमें  अब  फुफकार  कितै है

 

दुख   में   देखो   परे    अकेले

पहलऊं  सो व्यबहार  कितै  है

 

फाँसी  लगा  किसान  मरत  हैं

अब  हितुआ सरकार  कितै  है

 

हरई  काम   में   पूछत   तुम्हरो

“संतोष” अब  आधार  कितै  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #134 ☆ पंढरी माहेर…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 134 – विजय साहित्य ?

☆ पंढरी माहेर… ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

मुराळी होऊन

घेतसे विसावा

माये तुझ्या नेत्री

विठ्ठल दिसावा. . . . !

 

पंढरीची वारी

ऊन्हात पोळते

गालावरी माये

आसू ओघळते.. . . !

 

विठ्ठलाची वीट

उंबरा घराचा

ओलांडून येई

पाहुणा दारचा.

 

पंढरीची वारी

भेटते विठूला

आठवांची सर

आलीया भेटीला. . . . !

 

विठू दर्शनाची

घरा दारा आस

परी सोडवेना

प्रपंचाची कास.

 

पंढरीची वारी

हरीनाम घेई

माय लेकराला

दोन घास देई. . . . !

 

पंढरीची वारी

रिंगण घालते

माय शेतामधी

माया कालवते.. . . !

 

पंढरीची वारी

माऊलींच्या दारा

माय पदराचा

लेकराला वारा. . . . !

 

म्हणोनीया देवा

पंढरी माहेर

आसवांचे मोती

करती आहेर.

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! ☆ सासूचा हॅपी बर्थडे ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? चं म त ग ! 😅

🤣 सासूचा हॅपी बर्थडे ! 😂💃श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

“अगं काय हे सुनबाई ? निदान आज तरी माझ्या चहात साखर घालायलाचीस ! आज काय आहे विसरलीस वाटतं ?”

“माझी अजून तुमच्या सारखी साठी थोडीच झाल्ये विसरायला ?”

“नाही नां, मग ?”

“आई, आज तुमचा एक्सष्टावा  वाढदिवस आहे, हे माझ्या चांगलं लक्षात आहे आणि म्हणून तर रोजच्या अर्ध्या कप चहा ऐवजी तुम्हांला आज चांगला पाऊण कप चहा दिला आहे ! अर्ध्या कप चहावर पाव फ्री ! एंजॉय युअर बर्थ डे !”

“अगं पण सुनबाई मला तर पाव कुठेच दिसत नाही या चहा बरोबर !”

“आई, मला असं म्हणायचंय की रोजच्या अर्धा कप चहावर पाव कप चहा फ्री !”

“पण त्या पाव कप एक्सट्रा चहा ऐवजी, थोडी साखर घातली असतीस आज चहात, तर तुझे हात काय मोडणार होते का गं ?”

“अजिबात नाही आई, पण डायबेटीसमुळे मी तुम्हांला रोज इन्शुलीनच इंजेकशन देते, हे विसरलात वाटतं तुम्ही ?”

“मी बरी विसरेन ! माझ्या सासूबाई होत्या, तेंव्हा मला येता जाता टोचून टोचून बोलायच्या आणि आज माझी सून मला तोंडाने नाही पण इंजेकशनच्या सुईने रोज टोचत्ये ! काय माझं मेलीच नशीब ! मला कोणाला टोचून बोलायचं भाग्यच मिळाल नाही या जन्मात !”

“पण तुम्ही मला अधून मधून जे तीरकस बोलता, ते आणखी काय वेगळं असतं का हॊ आई ?”

“ते जाऊदे, मला सांग निदान आज तरी माझ्या चहात थोडीशी एक दोन चमचे साखर का नाही घातलीस ?

तेवढ्याने का होईना, पण माझ्या आजच्या स्पेशल डेची सुरवात गोड झाली असती !”

” ए sss क  दो sss न चमचे साखर  मी तुमच्या कपात घालायची आणि विलासचा ओरडा खायचा ?”

“अगं त्याला कसं कळेल तू माझ्या  चहात साखर घातल्येस ते ? ती तर विरघळून जाणार नां कपात !”

“ते जरी खरं असलं, तरी माझ्या मनांत ते कसं राहील आई ? आपल्या बायकांची जीभ पोटात कमी आणि ओठात जास्त ठेवते, हे, मी का तुम्हांला सांगायला हवं ?”

“म्हणजे तुला काय म्हणायचं आहे सुनबाई ? माझ्या पोटात काही रहात नाही म्हणून ?”

“मी तुमच्या पोटात असं कुठे म्हटलं ? एकंदरीत बायकांच्या बाबतीत एक जनरल स्टेटमेंट केलं इतकंच !”

“पुरे झालं तुझं पोटात आणि ओठात ! मला सांग आज माझ्या वाढदिवसाच्या निमित्ताने काय सरप्राईज देणार आहात तुम्ही सगळे ?”

“बघा, स्वतःच म्हणता सरप्राईज आणि वर विचारता पण कसलं सरप्राईज म्हणून ?”

“अगं सांग गपचूप तू मला ते सरप्राईज. ते मिळाल्यावर मी चकित झाल्याचा अभिनय नक्की करीन, तू अजिबात काळजी करू नकोस !”

“बघा हं, नाहीतर मला तोंडघाशी पाडालं.”

“तू काळजीच करू नकोस सुनबाई, कसा मस्त अभिनय करते बघ संध्याकाळी ! हां आता सांग काय सरप्राईज आहे ते !”

“आजच्या तुमच्या एकसष्टीच्या निमित्त, या वर्षीच्या तुमच्या बर्थडे केकवर ६१ मेणबत्या लावायचं आम्ही ठरवलंय आणि तो केक दरवर्षी सारखा शुगरलेस नसणार ! काय, कसं वाटलं आमचं सरप्राईज ?”

“चुलीत घाला त्या सरप्राईजला !”

“म्हणजे काय आई, आवडलं नाही का  सरप्राईज ?”

“अगं त्यातली एकच गोष्ट बरी आहे म्हणायची !”

“कोणती ?”

“या वेळचा केक शुगरलेस नसणार आहे, ती !”

“मग झालं तर !”

“अगं हॊ, पण त्या केकवरच्या ६१ मेणबत्या फुकर मारून विझवता विझवता माझा म्हातारीचा जीव जाईल त्याच काय ?”

“अहो आई तुम्हीं अजिबात काळजी करू नका त्याची, आम्ही सगळे तुम्हांला मदत करू नां त्या मेणबत्या विझवायला !”

“नकोच ती भानगड सुनबाई ! त्या पेक्षा तुम्हीं या वर्षी माझी तुला करा !”

“हां ही आयडिया पण छान आहे, मी सुचवते विलासला तसं. पण कशानं करायची तुला तुमची ?”

“अगं सोप्प आहे, ६१ किलो वजनाची मिठाई सगळ्या सोसायटीत वाटून टाका, म्हणजे झालं !”

“अहो पण आई, तुला म्हणजे वजन काट्याच्या एका पारड्यात तुम्हीं बसणार आणि दुसऱ्या पारड्यात तुमच्या वजना इतकी मिठाई तोलायची बरोबर नां ?”

“हॊ बरोबर !”

“पण मग ते कसं जमणार आई ?”

“का, न जमायला काय झालं?”

“अहो आई तुमचं वजन आहे ८५ किलोच्या आसपास आणि मिठाई तोलायची ६१ किलो ! हे गणित काही जुळत नाही ! शिवाय एवढा मोठा वजन काटा आपल्याला फक्त लाकडाच्या वाखारीतच मिळेल आणि अशी लाकडाची वखार आता मुंबईत शोधायची म्हणजे…… “

“सुनबाई कळली बरं तुझी अक्कल आणि तुझं गणित पक्क आहे ते !”

“आहेच मुळी! मग आई आता कसं करायच म्हणता तुमच्या वाढदिवसाचं ?”

“काही नाही, माझ्या बाबुला म्हणजे तुझ्या नवऱ्याला फोन कर आणि सांग  या वेळचा केक पण शुगरलेसच आण हॊ आणि त्यावर एकही मेणबत्ती नको म्हणावं !”

© प्रमोद वामन वर्तक

२२-०७-२०२२

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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