मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 40 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 40 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

६९.

माझ्या धमन्यांमधून जो जीवनस्त्रोत वाहतो आहे

तोच अहोरात्र या विश्वातून वाहात असून

तालबद्ध नृत्य करतो आहे.

 

धरतीच्या मातीतून तो जीवनस्त्रोत

आनंद निर्भरतेनं अगणित तृणपात्यातून आणि आनंदानं नाचणाऱ्या फुलांच्या लहरीतून उमटतो .

 

जनन- मरणाच्या, सागराच्या भरती ओहोटीतून

तोच हेलकावे खात असतो.

 

जीवन – विश्वाच्या स्पर्शामुळं

माझी गात्रं दिव्य झाली.

 

या क्षणी युगांत जीवन स्पंदन

माझ्या अभियानातून नर्तन करत आहे.

 

७०.

या आनंदाच्या, तालाच्या भीषण भोवऱ्यात

फेकलं जाणं,नाहीसं होणं तुला अशक्य आहे का?

 

साऱ्याच गोष्टी धावतात, थांबत नाहीत.

मागे वळून पाहात नाहीत,

कोणाचीच सत्ता त्यांना रोखू शकत नाही,

त्या धावतच असतात.

 

त्या वेगवान व अस्थिर संगीताबरोबरच

ऋतू नाचत येतात, जातात.

निरंतर वाहणाऱ्या झऱ्यातून रंग, ध्वनी आणि

सुगंध यांचा आनंद पसरतो आणि नाहिसा होतो.

 

७१.

मी माझा अहंकार पुरवावा, तो मिरवावा,

तुझ्या तेजावर रंगीबेरंगी छाया फेकाव्यात-

ही सारी तुझीच माया.

 

तू स्वतःच्या अस्तित्वावर बंधनं घालतोस आणि

अगणित स्वरात स्वतःला विभागात राहतोस.

हे तुझं स्वतःचं अलगपण शरीररूपानं माझ्यात आलंय.

 

सर्वत्र आकाशात हे गान भरून राहिलंय.

त्यात किती रंगाचे आसू- हसू आशा नि धोके!

लाटा उठतात आणि विरतात.

स्वप्नं उमटतात आणि शिरतात.

माझा पराजय हा तुझाच पराजय आहे.

 

दिवस रात्रीच्या कुंचलानं अगणित चित्रं काढून

तू हा पडदा रंगवून सोडलास.

या पडद्यामागे तुझं आसन चितारलं आहेस,

त्यात निष्फळ, सरळ रेषा न वापरता

अद्भुतरम्य गोलाकार वळणांचा वापर केलास.

तुझा आणि माझा हा खेळ

सर्व आभाळात चालला आहे.

तुझ्या – माझ्या गीतानं सारं वातावरण

दुमदुमत आहे.

तुझ्या – माझ्या पाठशिवणीच्या या खेळात

लपंडावात किती युगं गेली?

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #171 ☆ व्यंग्य ☆ मुश्किल में मास्साब ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘मुश्किल में मास्साब’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 171 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मुश्किल में मास्साब

भोपाल की खबर है कि एक स्कूल में शिक्षिका ने बारहवीं की छात्रा को थप्पड़ मार दिया और लड़की के घरवालों ने शिक्षिका के खिलाफ जुवेनाइल जस्टिस कानून के तहत शिकायत दर्ज़ करा दी। शिकायत का आधार यह कि थप्पड़ की मार से छात्रा की श्रवण-शक्ति प्रभावित हुई है। खबर के अनुसार जब शिक्षिका छात्राओं की डायरी चेक कर रही थीं तब लड़की च्यूइंग गम चबाती पायी गयी।

वह ज़माना गुज़र गया जब छात्र पिटाई को गुरु का प्रसाद मानते थे। चालीस पचास साल पहले पिटाई को लेकर शिक्षक के विरुद्ध शिकायत का भाव किसी अभिभावक के मन में नहीं आता था। अभिभावक यह मान कर चलता था कि शिक्षक हमेशा छात्र का हित सोचकर ही काम करेगा। छात्र भी हर सज़ा को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया करता था। तब अंग्रेजी की कहावत ‘spare the rod, spoil the child’ पर भरोसा किया जाता था। अंग्रेजी के शब्दकोश में एक शब्द ‘whipping boy’ आता है जो उन लड़कों के लिए प्रयोग किया जाता था जो राजपुत्रों के साथ इसलिए स्कूल भेजे जाते थे कि राजपुत्रों के द्वारा कोई गलती किये जाने पर उनकी जगह इन लड़कों को पीटा जा सके। कारण यह कि राजपुत्रों को पढ़ाने वाले मास्टर जी उन पर हाथ नहीं उठा सकते थे।

छात्र-जीवन में पिटाई के नाना रूपों के दर्शन हुए। कुछ शिक्षक पीटने में आनन्द का अनुभव करते थे तो कुछ के चेहरे पर ऐसा कष्ट का भाव आता था जैसे सज़ा छात्र को नहीं, उन्हीं को मिल रही हो। हाई स्कूल में संस्कृत विषय वैकल्पिक था,जो कुछ ऊँची क्लास में लिया जा सकता था।  जब तक छात्र संस्कृत विषय नहीं ले लेता था तब तक हमारे संस्कृत के मास्टर साहब उस पर बड़ा प्यार बरसाते थे, लेकिन विषय ले लेने के बाद गलती होने पर तबियत से धुनाई करते थे। तब पिटाई छिपाकर नहीं होती थी। छात्र के द्वारा कोई गंभीर अपराध होने पर हेडमास्टर साहब प्रार्थना के बाद सबके सामने उसका अभिनंदन कर देते थे, ताकि अन्य छात्र सबक ले लें।

मेरे बचपन में ज़्यादातर लोगों के पास साइकिल भी नहीं होती थी। ज़्यादातर पैदल चलना ही होता था। कस्बा छोटा था, इसलिए छात्र कहीं भी अपने गुरु जी से टकरा जाता था। हमारे एक शिक्षक पांडे जी थे, जिनके बारे में मशहूर था कि सड़क पर मिल जाने पर वे वहीं छात्र से कठिन शब्दों के स्पेलिंग पूछने लगते थे। असंतुष्ट रहने पर तत्काल छात्र के कान भी ऐंठ दिये जाते थे। पांडे जी की कान ऐंठने की एक तकनीक मशहूर थी। कई बार वे कान में कंकर रखकर उसे मरोड़ते थे ताकि छात्र को आगे गलती करने की हिम्मत न हो। एक और अति वृद्ध मास्टर साहब थे जो क्रोधित होने पर छात्रों के साथ असंसदीय भाषा का प्रयोग करने लगते थे। उनके कुछ प्रिय जुमलों में एक ‘पाख़ाने का लोटा’ था। एक और था, लेकिन वह लिखने लायक नहीं है।

तब अभिभावकों को शिक्षकों पर भरोसा था। संतान को उनके भरोसे छोड़कर वे निश्चिंत रहते थे। शिक्षकों के दर्शन करने की ज़रूरत कम ही महसूस होती थी। अब सब कुछ व्यवसायिक हो गया है।  कई परिवारों में छात्रों को सिखाया जाता है कि पढ़ाना शिक्षक की ड्यूटी है, जिसके लिए उसे वेतन मिलता है। इसलिए उसे ज़्यादा तरजीह देने की ज़रूरत नहीं है। अभिभावक जो खर्च करता है उसका हिसाब माँगने का उसे अधिकार है। एक विज्ञापन में छात्रा को अपनी शिक्षिका से ‘गुड मॉर्निंग, टीचर’ कहते हुए देखा। यानी शिक्षिका को उसके पेशे के नाम से बुलाया जाता है, उसे ‘मैडम’ या ‘दीदी’ कहना ज़रूरी नहीं है। इस संबोधन से छात्र और शिक्षक के बीच फैली दूरी को समझा जा सकता है।

अब ऑनलाइन क्लासेज़,कोचिंग क्लासेज़ और विद्वानों के द्वारा लिखित हर विषय की कुंजियों की कृपा से स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों की आवाजाही घट रही है। परिणामतः छात्र और शिक्षक एक दूसरे के लिए अजनबी हो रहे हैं।

शिक्षक बदनीयत से या अकारण मारपीट करे तो शिकायत करना वाजिब है, फिर भी आदमी के जीवन में ज्ञान की अहमियत को देखते हुए शिक्षक और छात्र के बीच भरोसे का रिश्ता ज़रूरी है। स्कूलों में जिस तरह छोटे बच्चों को  टेबिल्स और वर्णाक्षर सिखा दिये जाते हैं, वह घर में संभव नहीं है।

मेरे प्रायमरी स्कूल में जब बीच में ‘ब्रेक’ होता था तब छात्र आँगन में बैठे शिक्षकों के चरण छूने को उमड़ते थे। स्कूल छोड़ने के बाद पता चला कि मेरे हेडमास्टर साहब हमारी वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से नीची जाति में आते थे, लेकिन किसी अभिभावक ने इस पर विचार नहीं किया। वे अब नहीं हैं, लेकिनआज भी उनको याद करके मन श्रद्धा से भर जाता है। अब स्कूलों में मध्याह्न भोजन के वितरण में जातिवाद के प्रवेश की बातें पढ़कर मन विषाद से भारी हो जाता है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 119 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 119 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 119) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 119 ?

🌼अनायास🌺

उसने कहा

कॉफी पियोगे

मैंने कहा नहीं

मुझे चाय पसंद है

उसने चाय और कॉफी मिलाकर बनाई

अब उसके लिये वो कॉफी थी और मेरे लिये चाय.

 

उसने कहा

चाय पीते वक्त

आवाज़ बहुत करते हो तुम

मैंने कहा हाँ आदत है

फिर उसने कहा

ये आदत कभी मत छोड़ना

चाहे मै भी कहूँ.

 

उसने कहा

रुमाल क्यों नहीं रखते तुम

मैंने कहा

आदत नहीं है

उसने कहा

हर वक्त मेरे पास

कॉटन का दुपट्टा नहीं होता है

आदत बदल लो अपनी.

 

उसने कहा

मुझसे कभी मत मिलना

आज के बाद

मैंने कहा

ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी

वो गुस्से में भी हंस पड़ी

और बोली

मेरी मर्जी की परवाह करने वाले से तो

बार बार मिलना ही पड़ेगा…

❤️

🌼 Spontaneity 🌺

She said

have coffee

I said:

No, I like tea

She made tea and coffee mixed

Now, it was coffee for her and tea for me.

 

She said:

While drinking tea,

you make a lot of noise

I said: Yes, I do, it’s my habit

Then she said:

Never give up this habit

Even if I say…

 

She said:

Why don’t you keep a handkerchief

I said:

I’m not used to of…

She said:

I don’t always carry

a cotton scarf with me

Change your habit…

 

She said:

Never meet me after today

I said:

Ok, as you wish…

She burst into laughter even in anger

and said:

I’ll have to meet again and again with someone who cares so much about my wishes…!

❤️

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 167 ☆ बिखराव… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं । यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है। ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 167 ☆ बिखराव… ☆?

आगे दुकान, पीछे मकान वाली शैली की एक फुटकर दुकान से सामान खरीद रहा हूँ। दुकानदार सामूहिक परिवार में रहते हैं। पीछे उनके मकान से कुछ आवाज़ें आ रही हैं। कोई युवा परिचित या रिश्तेदार परिवार आया हुआ है। आगे के घटनाक्रम से स्पष्ट हुआ कि आगंतुक एकल परिवार है।

आगंतुक परिवार की किसी बच्ची का प्रश्न कानों में पिघले सीसे की तरह पड़ा, ‘दादी मीन्स?’ इस परिवार की बच्ची बता रही है कि दादी मीन्स मेरे पप्पा की मॉम। मेरे पप्पा की मॉम मेरी दादी है।… ‘शी इज वेरी नाइस।’

कानों में अविराम गूँजता रहा प्रश्न ‘दादी मीन्स?’ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में कुटुम्ब कितना सिमट गया है! बच्चों के सबसे निकट का दादी- नानी जैसा रिश्ता समझाना पड़ रहा है।

सामूहिक परिवार व्यवस्था के ढहने के कारणों में ‘पर्सनल स्पेस’ की चाहत के साथ-साथ ‘एक्चुअल स्पेस’ का कम होता जाना भी है। ‘वन या टू बीएचके फ्लैट, पति-पत्नी, बड़े होते बच्चे, ऐसे में अपने ही माँ-बाप अप्रासंगिक दिखने लगें तो क्या किया जाए? यूँ देखें तो जगह छोटी-बड़ी नहीं होती, भावना संकीर्ण या उदार होती है। मेरे वयोवृद्ध ससुर जी बताया करते हैं कि अपने गाँव जाते समय दिल्ली होकर जाना पड़ता था। दिल्ली में जो रिश्तेदार थे, रात को उनके घर पर रुकते। घर के नाम पर कमरा भर था पर कमरे में भरा-पूरा घर था। सारे सदस्य रात को उसी कमरे में सोते तो करवट लेने की गुंज़ाइश भी नहीं रहती तथापि आपसी बातचीत और ठहाकों से असीम आनंद उसी कमरे में हिलोरे लेता।

कालांतर में समय ने करवट ली। पैसों की गुंज़ाइश बनी पर मन संकीर्ण हुए। संकीर्णता ने दादा-दादी के लिए घर के बाहर ‘नो एंट्री’ का बोर्ड टांक दिया। दादी-नानी की कहानियों का स्थान वीडियो गेम्स ने ले लिया। हाथ में बंदूक लिए शत्रु को शूट करने के ‘गेम’, कारों के टकराने के गेम, किसी नीति,.नियम के बिना सबसे आगे निकलने की मनोवृत्ति सिखाते गेम। दादी- नानी की लोककथाओं में परिवार था, प्रकृति थी, वन्यजीव थे, पंछी थे, सबका मानवीकरण था। बच्चा तुरंत उनके साथ जुड़ जाता। प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा ने कहा था, “बचपन में मैं जब पढ़ता था ‘एक शेर था’, सबकुछ छोड़कर मैं शेर के पीछे चल देता।”

शेर के बहाने जंगल की सैर करने के बजाय हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल रिश्ते खाता है। बुआ, मौसी, के विस्थापन से शुरू हुआ संकट दादी-नानी को भी निगलने लगा है।

मनुष्य के भविष्य को अतीत से जोड़ने का सेतु हैं दादी, नानी। अतीत अर्थात अपनी जड़। ‘हरा वही रहा जो जड़ से जुड़ा रहा।’ जड़ से कटे समाज के सामने ‘दादी मीन्स’ जैसे प्रश्न आना स्वाभाविक हैं।

अपनी कविता स्मरण आ रही है,

मेरा विस्तार तुम नहीं देख पाए,

अब बिखराव भी हाथ नहीं लगेगा,

मैं बिखरा ज़रूर हूँ, सिमटा अब भी नहीं…!

प्रयास किया जाए कि बिखरे हुए को समय रहते फिर से जोड़ लिया जाए। रक्त संबंध, संजीवनी की प्रतीक्षा में हैं। बजरंग बली को नमन कर क्या हम संजीवनी उपलब्ध कराने का बीड़ा उठा सकेंगे?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 119 ☆ “सॉनेट ~ नर्मदा” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित “सॉनेट ~ नर्मदा”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 119 ☆ 

☆ सॉनेट ~ नर्मदा ☆

नर्मदा सलिला सनातन,

करोड़ों वर्षों पुरानी,

हर लहर कहती कहानी।

रहो बनकर पतित पावन।।

 

शिशु सदृश यह खूब मचले,

बालिका चंचल-चपल है,

किशोरी रूपा नवल है।

युवा दौड़े कूद फिसले।।

 

सलिल अमृत पिलाती है,

शिवांगी मोहे जगत को।

भीति भव की मिटाती है।।

 

स्वाभिमानी अब्याहा है,

जगज्जननी सुमाता है।

शीश सुर-नर नवाता है।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१४-१२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #151 ☆ कविता – आज ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 151 ☆

☆ ‌कविता – आज ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

जो बीत गया वो भूतकाल था,

जो‌ बचा हुआ वह आज है।

उसका संबंध है भविष्य काल से,

यही तो गहरा‌ राज है।

आज की मेहनत पर टिका हुआ,

सफल भविष्य  का साज है।

कर्मवीर मानव  अपने कर्मों पे

करता नाज है।

आज की मेहनत का परिणाम ‌

सदैव भविष्य में मिलता है।

अकर्मण्य पछताता है,

उसका दुखी मिजाज है।

भूतकाल ना लौट के आए,

खाली स्मृतियों में दिखता है।

जिसने मेहनत किया आज,

वह नई उंचाई छूता है।

वह चढ़ा बुलंदी की छाती पर,

उसे आज दुआएं  देता है।

इस समय के रूप तीन है भाई,

 कल आज और कल।

  बीते समय को आज भुला कर,

आगे आगे  तू अब  चल।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

14.12.2022, 10.04 

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – मोत्याचे  सौंदर्य – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – मोत्याचे  सौंदर्य ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

  अंगावर काटे निसर्ग  देण

  हात तरी लावणार कोण ?

  मलाच माझे सौंदर्य  आवडे

  दुजे जवळ करतील कोण ?

 थंडी पडली काकडलो मी

  अंगोपांगी थरथरलो मी

  धुक्याने शाल दिली मज

  पांघरली मी  प्रेमभरानी

  दिनकर येता पुर्वदिशेला

 पट धुक्याचा  विरून गेला

 जाता जाता आठव म्हणूनी

 थेंब  दवाचे मज देता झाला

 त्याच दवांच्या थेंबाना मी

 कंटकावरीवरी हळू तोलले

 सुर्यकिरण  त्यावरी  पडता

 मोत्याचे  सौंदर्य  लाभले

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #168 – 54 – “तेरी ख़ुश्बू मुझ पर…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “तेरी ख़ुश्बू मुझ पर …”)

? ग़ज़ल # 54 – “तेरी ख़ुश्बू मुझ पर …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

चश्मे पुरनम मुसक़ाती रही रात भर,

तेरी  याद  मुझे  आती रही रात भर।

कोई आहट सी भी आती रुकरुक कर,

नागिन  जुल्फ  लहराती रही रात भर।

सारी रात चिढ़ाता चाँद भी  फलक  पर,

शबनम मुझको झुलसाती रही रात भर।

सुलग गया तन मन आ बैठा हैं अनंग

तेरी ख़ुश्बू मुझ पर छाती रही रात भर,

आतिश से बिछड़न होता है एक जंजाल,

ख़लिश पुरानी मुझे सताती रही रात भर।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 45 ☆ मुक्तक ।।यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 45 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

ज्ञान बुद्धि विनम्रता तेरे  आभूषण हैं।

सत्यवादिता प्रभुआस्था तेरे भूषण हैं।।

मत रागद्वेष कुभावना    वरण करना।

ईर्ष्या और घृणा कुमति और दूषण हैं।।

[2]

आत्मविश्वास से खुलती सफल राह है।

सबकुछ संभव यदि जीतने की चाह है।।

व्यवहार कुशलता बनती उन्नति साधक।

बाधक बनती हमारी नफरत   डाह है।।

[3]

मत  पालो  क्रोध  प्रतिशोध  बन  जाता  है।

मनुष्य स्वयं  जलता औरों  को  जलाता  है।।

प्रतिशोध   का  अंत  पश्चाताप  से  है  होता।

कभी व्यक्ति प्रायश्चित भी नहीं कर पाता है।।

[4]

विचार   आदतों   से   चरित्र  निर्माण  होता  है।

इसीसे तुम्हारा व्यक्तित्व चित्र निर्माण होता है।।

तभी बनती तुम्हारी  लोगों  के  दिल  में  जगह।

गलत राह पर केवल दुष्चरित्र निर्माण होता है।।

[5]

बस छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए  भी   कम है।

नफरत   बन   जाती   यूं   लोहे   की  जंग   है।।

बदला लेने में बर्बाद  नहीं  करें  इस  वक्त को।

तेरा सही रास्ता ही लायेगा सफलता का रंग है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 110 ☆ ग़ज़ल – “आँसू  कभी  न  टपके…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “आँसू  कभी  न  टपके…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #110 ☆  ग़ज़ल  – “आँसू  कभी  न  टपके…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जो  भी  मिली  सफलता  मेहनत  से मैंने पायी

दिन रात खुद से जूझा किस्मत से   की लड़ाई।

 

जीवन   की   राह   चलते   ऐसे   भी   मोड़   आये

जहां एक तरफ कुआं था औ’ उस तरफ थी खाई।

 

काटों   भरी   सड़क  थी, सब ओर था अंधेरा

नजरों में सिर्फ दिखता सुनसान औ’ तनहाई।

 

सब  सहते, बढ़ते  जाना  आदत  सी  हो  गई  अब

किसी से न कोई शिकायत, खुद की न कोई बड़ाई।

 

लड़ते मुसीबतों से बढ़ना ही जिन्दगी है

चाहे   पहाड़  टूटे, चाहे  हो  बाढ़  आई।

 

आँसू  कभी  न  टपके, न  ही  ढोल गये बजाये

फिर भी सफर है लम्बा, मंजिल अभी न आई ।

 

दुनिया की देख चालें, मुझको अजब सा लगता

बेबात   की   बातों   में   दी   जाती  जब  बधाई।

 

सुख में ’विदग्ध’ मिलते सौ साथ चलने वाले

मुश्किल दिनों में लेकिन, कब कौन किसका भाई ?

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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