मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 19 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 19 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

२६.

       तो आला, माझ्या शेजारी बसला,

       पण मला जाग आली नाही.

 

       मी अभागी मला कसली

       शापमय निद्रा लागली.

 

      शांत रात्री तो आला.

     त्याच्या हाती वीणा होती.

     त्या वीणेच्या संगीताने,

     माझी स्वप्नं नादमय झाली.

 

    अरेरे! माझ्या रात्री अशा वाया का गेल्या?

 

      त्याचे श्वास माझ्या निद्रेला स्पर्श करतात,

     पण मला त्याचे दर्शन होत नाही.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – चंद्रभागा – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – ना निगराणी,नाही पाणी –  ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

अष्टमीचा चंद्र नभी

शोभा आणीतसे नभा

तशी तु ग चंद्रभागा

पंढरीची जणू गंगा—-

तुझ्या पावन स्नानाने

वारकरी   प्रफुल्लित

विठ्ठल विठ्ठल म्हणत

जाती  विठू मंदिरात—-

 माऊलीच्या पायी डोई

 होई सार्थक  जन्माचे

 वाळवंटी  फडकती

 झेंडे वारकरी स्वमानाचे—–

 चंद्रभागा होई तृप्त

 वारकऱ्यांच्या भेटीने

 तिचे अंगण भरले

 विठू भक्तांच्या दाटीने—–

  

दाटीतून घुमतसे 

  साऱ्या संतांचाही घोष

  विठु ,ज्ञाना, तुका नामा

  तिला दिसे आसपास

  त्याच्या नाम दर्शनाने

  होय तीज समाधान

  मैलोनमैल वहायाचे

  क्षणी विसरते श्रम—–

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #148 ☆ व्यंग्य – साहब की किरकिट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब की किरकिट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 148 ☆

☆ व्यंग्य – साहब की किरकिट

विमल नया नया दफ्तर में भर्ती हुआ है। जोश है, कुछ करने की कुलबुलाहट होती है। अभी उसकी ज़िंदगी का ‘दफ्तरीकरण’ होना शुरू नहीं हुआ है।

दफ्तर में नये साल की पार्टी थी। तभी विमल ने बड़े साहब के सामने प्रस्ताव रख दिया, ‘सर, क्यों न इतवार को दफ्तर के लोगों का एक क्रिकेट मैच हो जाए।’

बड़े साहब को भी कुछ अच्छा लगा। उन्होंने मंजूरी दे दी। विमल ने दौड़-भाग करके क्रिकेट का सामान इकट्ठा कर लिया। दफ्तर के बड़े बाबू अग्रवाल जी ने सुना तो माथा ठोंका, बोले, ‘इन नये नये लौंडों के आने से यही तो गड़बड़ होती है।अब दफ्तर वाले ‘किरकिट’ खेलेंगे। एक इतवार मिलता था घर की सब्जी भाजी लाने के लिए, वह भी गया। खेलो किरकिट।’

गुजराती क्लब के मैदान में इंतज़ाम हुआ। दर्शकों के लिए कुर्सियाँ लगायी गयीं। साहबों की मेम साहबें उन पर आकर विराजीं। लंच का इंतज़ाम किया गया।

दो टीमें बनीं। एक के कप्तान बड़े साहब, दूसरी के छोटे साहब। खेल शुरू हुआ। जैसे बल्लेबाज़, ऐसे ही गेंदबाज़। जो कभी पहले खेलते भी रहे थे उनकी उँगलियाँ अब कलम पकड़ने की ही अभ्यस्त रह गयी थीं। गेंदबाज़ों की गेंद विकेटों से कई फुट दूर से निकल जाती। बल्ला बढ़ाने पर भी गेंद छूने को न मिलती। कभी टप्पा खाकर ऐसे उछलती कि खेलने वाले को अपना चश्मा सँभालना मुश्किल हो जाता। सबको खेल से ज़्यादा अपने हाथ-पाँव बचाने की फिक्र थी। मनोरंजन के पीछे हाथ-पाँव टूटें और दफ्तर से छुट्टी लेना पड़े तो हो गया खेल। चश्मा टूट जाए तो एक हज़ार रुपये की दच्च पड़े।

बड़े साहब खेलने आये तो सब ने तालियाँ बजायीं। छोटी अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब के पास तारीफ करने के लिए सिमट आयीं।

छोटे साहब ने गेंद सँभाली। बहुत सँभल कर गेंद फेंकना शुरू किया, कि न साहब को लगे, न विकेटों को। बड़े साहब हर बार हवा में बल्ला घुमा देते। कभी बल्ला गेंद में लग जाता तो सब फील्डर तालियाँ बजाते, कहते, ‘वाह साहब, क्या बढ़िया शॉट लगाया है।’ अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब से कहतीं, ‘कितना अच्छा खेल रहे हैं। जरूर नई उमर में खूब खेलते रहे होंगे।’ तारीफ करने की होड़ लगी थी। सबने कम से कम एक वाक्य बोला। चुप रहें तो घर लौटने पर पति की लताड़ सुननी पड़े।

श्रीमती वर्मा बोलीं, ‘जब अभी इतना अच्छा खेलते हैं तो नई उमर में तो चैंपियन रहे होंगे।’

बड़ी मेम साहब खुश होकर बोलीं, ‘मेरे को नईं मालूम।’

एक गेंद पर बड़े साहब ने बल्ला घुमाया। संयोग से बल्ला गेंद में लग गया और गेंद चौधरी बाबू की तरफ भागी। चौधरी बाबू ने रोकने का अभिनय करते हुए उसे एक लात लगायी और गेंद चार रन की बाउंड्री की तरफ दौड़ी। बाउंड्री पार करने से पहले ही अंपायर बने बख्शी बाबू ने बाउंड्री का इशारा दे दिया। खूब जोरों की तालियाँ बजीं।।

चौधरी बाबू प्रमुदित होकर बोले, ‘कमाल का शॉट लगाया साहब।’ बख्शी बाबू भी चौका देखकर बहुत खुश थे।

बड़े बाबू ‘किरकिट विरकिट’ भूलकर लंच के इंतज़ाम में लगे थे। भीतर से उन्हें बड़ा संताप था कि दफ्तर के लौंडों ने उनका इतवार खराब कर दिया था। जब साहब के किसी शॉट पर तालियाँ बजतीं तो वे भी घूम कर ताली बजाकर ‘वाह’ बोलते और फिर वापस अपने काम में लग जाते।

बड़े साहब आधे घंटे से जमे थे। उनका आउट होना मुश्किल था क्योंकि कोई उन्हें आउट करना ही नहीं चाहता था।

तभी छोटे साहब ने एक तरफ से गेंद फेंकने का काम विमल को दिया।

विमल बड़े साहब के अभी तक आउट न होने पर कसमसा रहा था। नौकरी की ड्यूटी के अनेक पहलू अभी तक उसकी समझ में नहीं आये थे।

छोटे साहब ने उसे गेंद देते हुए कहा, ‘ठीक से फेंकना।’

विमल बड़े साहब को आउट करके अपना कौशल दिखाना चाहता था। अफसर- पत्नियों पर प्रभाव डालने की भी कुछ ललक थी। उसने धीमी लेकिन सीधी गेंद फेंकी।

पहली गेंद तो विकेटों के ऊपर से निकल गयी, दूसरी ने सब गिल्लियाँ बिखेर दीं। लेकिन अंपायर बख्शी बाबू ने गिल्लियाँ उड़ते ही हाथ उठाकर कहा, ‘नो बॉल।’

विमल कुछ नहीं बोला। अगली गेंद में फिर गिल्लियाँ साफ। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ विमल बोला, ‘पहले ही कहना चाहिए था।’ बख्शी बाबू बोले, ‘पहले ही कहा था।’

अगली गेंद फिर गिल्लियाँ ले गयी। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ लेकिन बड़े साहब को कुछ शर्म लगी। बल्ला ले कर चल दिये, बोले, ‘नहीं भई, हम आउट हो गये।’

सबको लगा कि खेल का मज़ा ही ख़त्म हो गया। जब बड़े साहब ही मैदान से हट गये तो खेल का मज़ा ही क्या रहा? साहब गये तो जैसे खेल की जान निकाल ले गये।

बड़े बाबू काम छोड़कर दौड़े दौड़े विमल के बाद आये, बोले, ‘तुम अजीब बेवकूफ हो। साहब को आउट करके धर दिया। टेढ़ी-मेढ़ी गेंदें नहीं फेंक सकते थे?’

विमल बोला, ‘मैं तो ‘रूल्स’ के हिसाब से ही खेल रहा था।’

बड़े बाबू बोले, ‘बेटा, ‘किरकिट’ के रूल्स तो बहुत जानते हो, अब कुछ नौकरी के रूल्स भी समझ लो, नहीं तो कभी तुम्हारी गिल्लियाँ ऐसी साफ होंगीं कि दुबारा जमाना मुश्किल हो जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 146 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 146 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 3 ?

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है। वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है।

प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है।

‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत’..

हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियां अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये, पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर।

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएं और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवायें निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

-आनंद का असीम सागर है वारी..

-समर्पण की अथाह चाह है वारी…

-वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..

-जन्म से मरण तक की वारी…

-मरण से जन्म तक की वारी..

-जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी…

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।  विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें। ….(इति)

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 100 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 100 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 100) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 100 ?

☆☆☆☆☆

तड़प जाते हैं मेरे अंदाज़

से मेरे दुश्मन भी, क्योंकि

एक मुद्दत से मैंने ना तो

मोहब्बत बदली और न ही दोस्त…!

Owing to my style, even my

enemies too get distressed

Since ages, neither I’ve changed

my love nor my friends…!

☆☆☆☆☆

जिंदगी किसी के लिए

कभी नहीं रुकती…

बस जीने की वजह 

 बदल जाती है    

Never does the life

stop for anyone…

Just the motive to live

needs to be adjusted…

☆☆☆☆☆

सोचो तो ज़रा, कैसी तौहीन है ये

तुम्हारी नशीली आंखों  की ,

कि  तुम्हारे  चाहने  वाले  भी

शराब  पिया  करते  हैं..!!

What an insult is this

of your intoxicating eyes,

that your diehard admirers

dare consume liquor..!!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 100 ☆ सॉनेट ~ दाग ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट ~ दाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 100 ☆ 

☆ सॉनेट ~ दाग ☆

पाक-साफ मतदान करेंगे

सोच गए मतदान केंद्र हम

सियासती आरोप सुनेंगे

सच्चाई का निकलेगा दम

 

कहाँ सोच पाए थे अँगुली

जो उठती अब तक औरों पर

रही हमेशा सबसे कहती

लौट कहेगी वही सिसककर

 

दागदार होकर लौटी मैं

कैसे उठूँ कहो औरों पर

दाग छुड़ाते जो विज्ञापन

छुड़ा न पाए दाग जतनकर

 

दागदार चुन दागदार को

शानदार कह दागदार को

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८-७-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #132 ☆ जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा! ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 132 ☆

☆ ‌आलेख – जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा! ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, एकदम जर्जर बूढ़ा, तब तू क्या थोड़ा मेरे पास रहेगा? मुझ पर थोड़ा धीरज तो रखेगा न? मान ले, तेरे महँगे काँच के बर्तन मेरे हाथ से अचानक गिर जाए या फिर मैं सब्ज़ी की कटोरी उलट दूँ टेबल पर, मैं तब बहुत अच्छे से नहीं देख सकूँगा न! मुझे तू चिल्लाकर डाँटना मत प्लीज़! बूढ़े लोग सब समय ख़ुद को उपेक्षित महसूस करते रहते हैं, तुझे नहीं पता?

एक दिन मुझे कान से सुनाई देना बंद हो जाएगा, एक बार में मुझे समझ में नहीं आएगा कि तू क्या कह रहा है, लेकिन इसलिए तू मुझे बहरा मत कहना! ज़रूरत पड़े तो कष्ट उठाकर एक बार फिर से वह बात कह देना या फिर लिख ही देना काग़ज़ पर। मुझे माफ़ कर देना, मैं तो कुदरत के नियम से बुढ़ा गया हूँ, मैं क्या करूँ बता?

और जब मेरे घुटने काँपने लगेंगे, दोनों पैर इस शरीर का वज़न उठाने से इनकार कर देंगे, तू थोड़ा-सा धीरज रखकर मुझे उठ खड़ा होने में मदद नहीं करेगा, बोल? जिस तरह तूने मेरे पैरों के पंजों पर खड़ा होकर पहली बार चलना सीखा था, उसी तरह?

कभी-कभी टूटे रेकॉर्ड प्लेयर की तरह मैं बकबक करता रहूँगा, तू थोड़ा कष्ट करके सुनना। मेरी खिल्ली मत उड़ाना प्लीज़। मेरी बकबक से बेचैन मत हो जाना। तुझे याद है, बचपन में तू एक गुब्बारे के लिए मेरे कान के पास कितनी देर तक भुनभुन करता रहता था, जब तक मैं तुझे वह ख़रीद न देता था, याद आ रहा है तुझे?

हो सके तो मेरे शरीर की गंध को भी माफ़ कर देना। मेरी देह में बुढ़ापे की गंध पैदा हो रही है। तब नहाने के लिए मुझसे ज़बर्दस्ती मत करना। मेरा शरीर उस समय बहुत कमज़ोर हो जाएगा, ज़रा-सा पानी लगते ही ठंड लग जाएगी। मुझे देखकर नाक मत सिकोड़ना प्लीज़! तुझे याद है, मैं तेरे पीछे दौड़ता रहता था क्योंकि तू नहाना नहीं चाहता था? तू विश्वास कर, बुड्ढों को ऐसा ही होता है। हो सकता है एक दिन तुझे यह समझ में आए, हो सकता है, एक दिन!

तेरे पास अगर समय रहे, हम लोग साथ में गप्पें लड़ाएँगे, ठीक है? भले ही कुछेक पल के लिए क्यों न हो। मैं तो दिन भर अकेला ही रहता हूँ, अकेले-अकेले मेरा समय नहीं कटता। मुझे पता है, तू अपने कामों में बहुत व्यस्त रहेगा, मेरी बुढ़ा गई बातें तुझे सुनने में अच्छी न भी लगें तो भी थोड़ा मेरे पास रहना। तुझे याद है, मैं कितनी ही बार तेरी छोटे गुड्डे की बातें सुना करता था, सुनता ही जाता था और तू बोलता ही रहता था, बोलता ही रहता था। मैं भी तुझे कितनी ही कहानियाँ सुनाया करता था, तुझे याद है?

एक दिन आएगा जब बिस्तर पर पड़ा रहूँगा, तब तू मेरी थोड़ी देखभाल करेगा? मुझे माफ़ कर देना यदि ग़लती से मैं बिस्तर गीला कर दूँ, अगर चादर गंदी कर दूँ, मेरे अंतिम समय में मुझे छोड़कर दूर मत रहना, प्लीज़!

जब समय हो जाएगा, मेरा हाथ तू अपनी मुट्ठी में भर लेना। मुझे थोड़ी हिम्मत देना ताकि मैं निर्भय होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकूँ। चिंता मत करना, जब मुझे मेरे सृष्टा दिखाई दे जाएँगे, उनके कानों में फुसफुसाकर कहूँगा कि वे तेरा कल्याण करें। तुझे हर अमंगल से बचायें। कारण कि तू मुझसे प्यार करता था, मेरे बुढ़ापे के समय तूने मेरी देखभाल की थी।

मैं तुझसे बहुत-बहुत प्यार करता हूँ रे, तू ख़ूब अच्छे-से रहना। इसके अलावा और क्या कह सकता हूँ, क्या दे सकता हूँ भला।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – निसर्ग… –   ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – निसर्ग… –  ? ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

डोळे उघडून बघा जरा

निसर्ग काय सांगतो आहे

लहान मोठ्या गोष्टीतून

खूप काही शिकवतो आहे.

हात पाय खुशाल तोडा

सोलून  काढा कणाही

मूळ,माती यांचे नाते

विसरू नका जराही.

मारणा-याने मारत जावे

झेलणा-याने झेलत जावे

तोडणा-याने तोडत जावे

फुलणा-याने फुलत जावे.

चित्र साभार – सुहास रघुनाथ पंडित

© सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #148 – ग़ज़ल-34 – “कैसा नफ़रती निज़ाम बनाया …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “कैसा नफ़रती निज़ाम बनाया …”)

? ग़ज़ल # 34 – “कैसा नफ़रती निज़ाम बनाया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी दबे पाँव आती है मिलन की आस लिए,

हर आदमी तन्हा होता है मिलन की आस लिए।

 

यार लोगों से मिला-जुला करो तर्कों के झुरमुट में,

तन्हाई में जीते हैं हम सब मिलन की आस लिए।

 

हर शख़्स नाउम्मीदी में गुमसुम खोया है ऐ दोस्त,

निकल जा खुली सड़क पर उम्मीद की आस लिए।

 

लोग बाज़ारों में समेटें माल-ओ-असबाब-ए-फ़ैशन,

दिल खोल निकला करो आवारगी की आस लिए।

 

कैसा नफ़रती निज़ाम बनाया सियासतदाँ लोगों ने,

‘आतिश’ तरसता नज़र-ए-मुहब्बत की आस लिए

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – ।। सफलता के लिए बन कर, फूल काँटों में खिलना पड़ता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।सफलता के लिए बन कर, फूल काँटों में खिलना पड़ता है)

☆ मुक्तक – ।। सफलता के लिए बन कर, फूल काँटों में खिलना पड़ता है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

सोचते जैसा कि वैसा   ही

हम बन     जाते           हैं।

अच्छे भाव   अच्छे    कर्म

से    हम   तर   जाते     हैं।।

[2]

सोच बदलो   नज़र  बदलो

नज़ारा   बदल   जाता    है।

तोलता घृणा तराजू से    तो

खुद ही   छल    जाता    है।।

[3]

रास्ते के  पत्थर     रुकावट

या सीढ़ी  बन  सकते      हैं।

दूर हो जाती हर  बाधा   गर

मन में कुछ ठन  सकते    है।।

[4]

सफलता का लिबास मिलता

नहीं कि     सिलना  पड़ता है।

बन कर के फूल बीच   कांटों

में    खिलना    पड़ता       है।।

[5]

हमारे विचार ही फिर    हमारे

शब्द   जाकर   बनते         हैं।

अच्छे शब्द अच्छे कर्मों      से

फिर सितारों    से   खिलते  हैं।।

[6]

हमारे कर्म ही   हम   सब  का

भाग्य           लिखते          हैं।

दुनिया से जाने पर भी     सब

की यादों में हम      मिलते   हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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