साहित्यप्रेमींचा तसेच साहित्यिकांचा आवडता, नव्हे काहीसा जिव्हाळ्याचा साहित्यप्रकार म्हणजे कथा.
छोट्यामोठ्या,वेगवेगळ्या विषयावरच्या कथा वाचकांनाही आवडतात.
अशाच कथांचा समावेश असलेला कथासंग्रह म्हणुन स्वप्नांचे पंख या कथासंग्रहाचा उल्लेख करता येईल..
लेखिका आहेत कोथरुड,पुणे येथील शुभदा भास्कर कुलकर्णी.
त्यांचा भावफुले हा काव्यसंग्रह २०१९ मध्ये प्रकाशित झाला. त्यानंतर हा कथासंग्रह.
या कथासंग्रहात लेखिकेने नुसतीच स्वप्ने दाखवली नाहीत तर त्यांची परिपूर्ती होण्यासाठी –उत्तुंग आकाशातून भरारी घेण्यासाठी त्यांना पंखांचे बळ दिले. हे स्वप्नांचे पंख या नावावरुन दिसुन येते.
निळ्या प्रसन्न रंगातली मुखपृष्ठ आकर्षक आणि शिर्षकाला साजेसे आहे.
नाव, आशय-विषय, प्रसंग, व्यक्ती, स्थळ, काळ, भाषा या सर्वांची सहजसुंदर, मोहक गुंफण असेल तर कथा मनोवेधक होऊन वाचनाचा आनंद मिळतोच पण त्यातुन जीवनोपयोगी बोधपर संदेश मिळत असेल तर दर्जा अधिक उंचावतो.
या संग्रहातील शुभदाताईंच्या कथा या कसोटीवर पुरेपुर उतरल्या आहेत हे आवर्जुन नमुद करावेसे वाटते ..अनेक कथा बक्षीसपात्र ठरल्या आहेत हाच त्याचा पुरावा म्हणता येईल.तरीही पुष्ट्यर्थ काही दाखले निश्चितच देता येतील.
“स्वप्नांचे पंख”ही पहिलीच शिर्षक कथा आहे.,”एक कळी– फुलतांना”,सुवर्णमध्य”,सुखदुःख”,
“सोनेरी वळण”,”फुललेले चांदणे”
“स्मृतीगंध””,”ऊषःकाल”
अशी ही कथांची नांवे नुसतीच आकर्षक नाहीत तर कथेचा आशय -विषय प्रतित करणारी—जणु काही कथांचे आरसेच आहेत.
कथांचे प्रसंगही तसे साधेसुधे, अगदी आपल्या रोजच्या आयुष्यातले.
जसे—तारुण्यसुलभ प्रेम, लग्न, मुलांचे शिक्षण, पुढील शिक्षणासाठी परदेशगमन, प्रवास, मुलींची छेड, मृत्यु, ई. पण शुभदाताईंनी कथेतुन ते वेगवेगळ्याप्रकारे मांडले आहेत.
त्यातुन त्यांची चिकित्सक दृष्टी दिसते.
शांता, ईंदिरा, रमा, मुक्ता, माया, चारु, दीपा, राजश्री, मीता, श्रीराम, श्रीकांत, महेश, अनंत, आनंद, सुमित, अमित अशी नवीजुनी नावे असलेल्या वेगवेगळ्या कथेतील अनेक नव्हे सर्वच व्यक्तिरेखा आपल्याभोवती वावरणाऱ्या आहेत.असेच वाचतांना वाटते.
नव्हे आपणही त्यातलेच आहोत असेही वाटते.”स्वप्नांचे पंखमधील” –आई–मानसीचा मनातील धास्ती आपणही अनुभवलेली जाणवते. तर “गोफ–आयुष्याचा” मधील “मुलांकडे जावे की इथेच रहावे” हा निर्णय घेतांना गोंधळलेल्या आईच्या जागी कितीतरी जणी स्वतःलाच पहातील.”
“रंगबावरी” सारखी प्रेमकथा मनाला स्पर्श करुन जाते.
काही कथातुन आलेल्या, मामंजी, सासुबाई, माई, दी, आत्या अशा संबोधनांमुळे आपुलकीचे नाते निर्माण होते.
कथांची पार्श्वभुमी वेगवेगळ्या काळातील आहे. लाल आलवणाचा पदराचा बोळा तोंडात कोंबून हुंदका देणारी आत्या “स्मृतीगंध” मध्ये आपल्या डोळ्यातुन पाणी आणते. तर “सुवर्णमध्य”मधे लग्नाला ठामपणे नकार देणारी, नामांकित सॉफ्टवेअर कंपनीतली मीता सुखावून जाते. काही कथातुन शुभदाताईंनी. आजीआजोबा.
आईबाबा, नातवंडे अशा तीन पिढ्यांची, केलेली गुंफण मनाला भावते. पण त्याचबरोबर झालेले बदल ही योग्य प्रकारे टिपले आहेत. “घराचे जुने चिरे एक एक करुन ढासळले पण नव्याने नविन उभे राहिले.” अशा शब्दात केलेले बदलांचे समर्थन मनाला पटते. शुभदाताईंचा समृध्द अनुभवही यातुन दिसतो.
शहरातील कथा नेमक्या पध्दतीने सांगणारी शुभदाताईंची लेखणी गावाकडचे —तिथल्या स्थळांचे वर्णन करतांना जास्त खुलते. शिंगणापूर, बेलापूर अशी गावे. तिथली हिरवीगार शेती, तिथले पाण्याचे तळे, थंडगार पाण्याचा पाट, घुंगरांची गाडी, एस.टी. स्टँड, गणपती, शंभु-महादेवाची देवळे, चौसोपी वाडा, दिंडी दरवाजा, दगडी चौथरा, दारावरची पितळी फुले आणि इतके बारीकसारीक वर्णन वाचतांना ती स्थळे, दृश्य डोळ्यापुढे उभे रहातात. शुभदाताईंचे सुक्ष्म निरीक्षण आणि समर्पक शब्दांतून केलेले वर्णन —दाद देण्यासारखेच आहे.
कथांची एकंदरित बैठक घरगुती असल्यामुळे साध्या सोप्या बोली भाषेचा वापर संयुक्तिक आहे. तरीही अनेक ठिकाणी शब्दसामर्थ्य दाखवणारी वाक्येही आहेत.
“आयुष्याचे एक एक पदर सांभाळता ,सांभाळता हा एक धागा हातातुन निसटला”.
मध्यमवर्गीयांच्या जीवनात नित्य येणाऱ्या काही अडचणी, समस्या —कथांचा केंद्रबिंदू असल्याने काही कथा नकळत का होईना थोडाफार संदेश देतात. “संपलं, —संपलं म्हणायच नाही”.
“आपल्या जगण्याचे निर्णय आपण इतरांमार्फत का घ्यायचे?”.
एक खास वैशिष्ठ्य म्हणुन सांगता येईल —
“सकारात्मकता हा सर्वच कथांचा स्थायीभाव आहे. मतभेद, विचारात फरक आहेत, जरुर आहेत. पण वैमनस्य, विरोधामुळे टोकाच्या भुमिका नाहीत, सामंजस्य, आणि परिस्थिती स्विकारुन पुढे आयुष्य जगणे हा महत्वाचा संदेश मिळतो.. आणि तोच सद्यपरिस्थितीत ऊपयुक्त आहे.
कौटुंबिक, सामाजिक, –सर्वच ठिकाणी अनुभवाला येणारी अस्थिरता, असमाधान, यामुळे नैराश्य आणि नकारात्मक भावना. अशावेळी सकारात्मक कथा निश्चितच भावतात. मनाला आनंदित करतात. जगण्याचा दृष्टीकोन बदलतात. म्हणुनच वाचकांच्या पसंतीस उतरेल.
असा सुंदर कथासंग्रह वाचकांच्या हाती दिल्याबद्दल —-लेखिकेचे मनःपुर्वक अभिनंदन—
एकुण १८ कथा असलेल्या या कथासंग्रहाची पृष्ठसंख्या १९२ असुन किंमत २९०रु.आहे.अरिहंत पब्लिकेशन,*पुणे * यांनी हे पुस्तक जानेवारी २०२२ मध्ये प्रकाशित केले.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 161 ☆
☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना ☆
‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि दूसरे लोग आकर आपको मदद देंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रहोगे’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह कथन स्वयं पर विश्वास करने की सीख देता है। यदि आप दूसरों से उम्मीद रखोगे, तो दु:खी होगे, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। इसलिए विपत्ति के समय अपना सहारा ख़ुद बनें, क्योंकि यदि आप आत्मविश्वास खो बैठेंगे, तो निराशा रूपी अंधकूप में विलीन हो जाएंगे और अपनी मंज़िल तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। ज़िंदगी तमाम दुश्वारियों से भरी हुई है, परंतु फिर भी इंसान ज़िंदगी और मौत में से ज़िंदगी को ही चुनता है। दु:ख में भी सुख के आगमन की उम्मीद कायम रहती है, जैसे घने काले बादलों में बिजली की कौंध मानव को सुक़ून प्रदान करती है और उसे अंधेरी सुरंग से बाहर निकालने की सामर्थ्य रखती है।
मुझे स्मरण हो रही है ओ• हेनरी• की एक लघुकथा ‘दी लास्ट लीफ़’ जो पाठ्यक्रम में भी शामिल है। इसे मानव को मृत्यु के मुख से बचाने की प्रेरक कथा कह सकते हैं। भयंकर सर्दी में एक लड़की निमोनिया की चपेट में आ गई। इस लाइलाज बीमारी में दवा ने भी असर करना बंद कर दिया। लड़की अपनी खिड़की से बाहर झांकती रहती थी और उसके मन में यह विश्वास घर कर गया कि जब तक पेड़ पर एक भी पत्ता रहेगा; उसे कुछ नहीं होगा। परंतु जिस दिन आखिरी पत्ता झड़ जाएगा; वह नहीं बचेगी। परंतु आंधी, वर्षा, तूफ़ान आने पर भी आखिरी पत्ता सही-सलामत रहा…ना गिरा; ना ही मुरझाया। बाद में पता चला एक पत्ते को किसी पेंटर ने, दीवार पर रंगों व कूची से रंग दिया था। इससे सिद्ध होता है कि उम्मीद असंभव को भी संभव बनाने की शक्ति रखती है। सो! व्यक्ति की सफलता-असफलता उसके नज़रिए पर निर्भर करती है। नज़रिया हमारे व्यक्तित्व का अहं हिस्सा होता है। हम किसी वस्तु व घटना को किस अंदाज़ से देखते हैं; उसके प्रति हमारी सोच कैसी है–पर निर्भर करती है। हमारी असफलता, नकारात्मक सोच निराशा व दु:ख का सबब बनती है। सकारात्मक सोच हमारे जीवन को उल्लास व आनंद से आप्लावित करती है और हम उस स्थिति में भयंकर आपदाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं। सो! जीवन हमें सहज व सरल लगने लगता है।
‘पहले अपने मन को जीतो, फिर तुम असलियत में जीत जाओगे।’ महात्मा बुद्ध का यह संदेश आत्मविश्वास व आत्म-नियंत्रण रखने की सीख देता है, क्योंकि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ सो! हर आपदा का साहसपूर्वक सामना करें और मन पर अंकुश रखें। यदि आप मन से पराजय स्वीकार कर लेंगे, तो दुनिया की कोई शक्ति आपको आश्रय नहीं प्रदान कर सकती। आवश्यकता है इस तथ्य को स्वीकारने की…’हमारा कल आज से बेहतर होगा’–यह हमें जीने की प्रेरणा देता है। हम विकट से विकट परिस्थिति का सामना कर सकते हैं। परंतु यदि हम नाउम्मीद हो जाते हैं, तो हमारा मनोबल टूट जाता है और हम अवसाद की स्थिति में आ जाते हैं, जिससे उबरना अत्यंत कठिन होता है। उदाहरणत: पानी में वही डूबता है, जिसे तैरना नहीं आता। ऐसा इंसान जो सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है, वह उन्मुक्त जीवन नहीं जी सकता। उसकी ज़िंदगी ऊन के गोलों के उलझे धागों में सिमट कर रह जाती है। परंतु व्यक्ति अपनी सोच को बदल कर, अपने जीवन को आलोकित-ऊर्जस्वित कर सकता है तथा विषम परिस्थितियों में भी सुक़ून से रह सकता है।
उम्मीद, कोशिश व प्रार्थना हमारी सोच अर्थात् नज़रिए को बदल सकते हैं। सबसे पहले हमारे मन में आशा अथवा उम्मीद जाग्रत होनी चाहिए। इसके उपरांत हमें प्रयास करना चाहिए और अंत में कार्य-सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उम्मीद सकारात्मकता का परिणाम होती है, जो हमारे अंतर्मन में यह भाव जाग्रत करती है कि ‘तुम कर सकते हो।’ तुम में साहस,शक्ति व सामर्थ्य है। इससे आत्मविश्वास दृढ़ होता है और हम पूरे जोशो-ख़रोश से जुट जाते हैं, अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर। यदि हमारी कोशिश में कमी रह जाएगी, तो हम बीच अधर लटक जाएंगे। इसलिए बीच राह से लौटने का मन भी कभी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि असफलता ही हमें सफलता की राह दिखाती है। यदि हम अपने हृदय में ख़ुद से जीतने की इच्छा-शक्ति रखेंगे, तो ही हमें अपनी मंज़िल अर्थात् निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। अटल बिहारी बाजपेयी जी की ये पंक्तियां ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता/ टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता’ जीवन में निराशा को अपना साथी कभी नहीं बनाने का सार्थक संदेश देती हैं। हमें दु:ख से घबराना नहीं है, बल्कि उससे सीख लेकर आगे बढ़ना है। जीवन में सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती है। इसलिए हमें दत्तात्रेय की भांति उदार होना चाहिए। उन्होंने अपने जीवन में चौबीस गुरु धारण किए और छोटे से छोटे जीव से भी शिक्षा ग्रहण की। इसलिए प्रभु की रज़ा में सदैव खुश रहना चाहिए अर्थात् जो हमें परमात्मा से मिला है; उसमें संतोष रखना कारग़र है। अपने भाग्य को कोसें नहीं, बल्कि अधिक धन व मान-सम्मान पाने के लिए सत्कर्म करें। परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। यदि वह दु:ख देता है, तो उससे उबारता भी वही है। सो! हर परिस्थिति में सुख का अनुभव करें। यदि आप घायल हो गए हैं या दुर्घटना में आपका वाहन का टूट गया, तो भी आप परेशान ना हों, बल्कि प्रभु के शुक्रगुज़ार हों कि उसने आपकी रक्षा की है। इस दुर्घटना में आपके प्राण भी तो जा सकते थे; आप अपाहिज भी हो सकते थे, परंतु आप सलामत हैं। कष्ट आता है और आकर चला जाता है। सो! प्रभु आप पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।
हमें विषम परिस्थितियों में अपना आपा नहीं खोना चाहिए, बल्कि शांत मन से चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि दो-तिहाई समस्याओं का समाधान स्वयं ही निकल आता है। वैसे समस्याएं हमारे मन की उपज होती हैं। मनोवैज्ञानिक भी हर आपदा में हमें अपनी सोच बदलने की सलाह देते हैं, क्योंकि जब तक हमारी सोच सकारात्मक नहीं होगी; समस्याएं बनी रहेंगी। सो! हमें समस्याओं का कारण समझना होगा और आशान्वित होना होगा कि यह समय सदा रहने वाला नहीं। समय हमें दर्द व पीड़ा के साथ जीना सिखाता है और समय के साथ सब घाव भर जाते हैं। इसलिए कहा जाता है,’टाइम इज़ ए ग्रेट हीलर।’ सो दु:खों से घबराना कैसा? जो आया है, अवश्य ही जाएगा।
हमारी सोच अथवा नज़रिया हमारे जीवन व सफलता पर प्रभाव डालता है। सो! किसी व्यक्ति के प्रति धारणा बनाने से पूर्व भिन्न दृष्टिकोण से सोचें और निर्णय करें। कलाम जी भी यही कहते हैं कि ‘दोस्त के बारे में आप जितना जानते हैं, उससे अधिक सुनकर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि वह दिलों में दरार उत्पन्न कर देता है और उसके प्रति आपका विश्वास डगमगाने लगता है।’ सो! हर परिस्थिति में खुश रहिए और सुख की तलाश कीजिए। मुसीबतों के सिर पर पांव रखकर चलिए; वे आपके रास्ते से स्वत: हट जाएंगी। संसार में दूसरों को बदलने की अपेक्षा उनके प्रति अपनी सोच बदल लीजिए। राह के काँटों को हटाना सुगम नहीं है, परंतु चप्पल पहनना अत्यंत सुगम व कारग़र है।
सफलता और सकारात्मकता एक सिक्के के दो पहलू हैं। आप अपनी सोच व नज़रिया कभी भी नकारात्मक न होने दें। जीवन में शाश्वत सत्य को स्वीकार करें। मानव सदैव स्वस्थ नहीं रह सकता। उम्र के साथ-साथ उसे वृद्ध भी होना है। सो! रोग तो आते-जाते रहेंगे। वे सब तुम्हारे साथ सदा नहीं रहेंगे और न ही तुम्हें सदैव ज़िंदा रहना है। समस्याएं भी सदा रहने वाली नहीं हैं। उनकी पहचान कीजिए और अपनी सोच को बदलिए। उनका विविध आयामों से अवलोकन कीजिए और तीसरे विकल्प की ओर ध्यान दीजिए। सदैव चिंतन-मनन व मंथन करें। सच्चे दोस्तों के अंग-संग रहें; वे आपको सही राह दिखाएंगे। ओशो भी जीवन को उत्सव बनाने की सीख देते हैं। सो! मानव को सदैव आशावादी व प्रभु का शुक्रगुज़ार होना चाहिए तथा प्रभु में आस्था व विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि वह हम से अधिक हमारे हितों के बारे में जानता है। समय बदलता रहता है; निराश मत हों। सकारात्मक सोच रखें तथा उम्मीद का दामन थामे रखें। आत्मविश्वास व दृढ़संकल्प से आप अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाएंगे। एमर्सन के इस कथन का उल्लेख करते हुए मैं अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी ‘अच्छे विचारों पर यदि आचरण न किया जाए, तो वे अच्छे सपनों से अधिक कुछ भी नहीं हैं। मन एक चुंबक की भांति है। यदि आप आशीर्वाद के बारे में सोचेंगे; तो आशीर्वाद खिंचा चला आएगा। यदि तक़लीफ़ों के बारे में सोचेंगे, तो तकलीफ़ें खिंची चली आएंगी। सो! हमेशा अच्छे विचार रखें; सकारात्मक व आशावादी बनें।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 160 – साहित्य निकुंज ☆
☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – 1 ☆
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है “संतोष के दोहे ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १० (इंद्र सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १० ( इंद्र सूक्त )
ऋषी – मधुछंदस् वैश्वामित्र : देवता – इंद्र
मधुछन्दस वैश्वामित्र ऋषींनी पहिल्या मंडळातील दहाव्या सूक्तात इंद्र देवतेला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त इंद्रसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. याच्या गीतरूप भावानुवादाच्या नंतर दिलेल्या लिंकवर क्लिक केले म्हणजे हे गीत ऐकायलाही मिळेल आणि त्याचा व्हिडीओ देखील पाहता येईल.
मराठी भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री
गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽ॑र्चन्त्य॒र्कम॒र्किणः॑ ।
ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद्वं॒शमि॑व येमिरे ॥ १ ॥
☆
गायत्रीतुन भक्त उपासक तुझेच यश गाती
अर्कस्तोत्र रचुनी ही अर्कअर्चनेस अर्पिती
पंडित वर्णित तुझीच महती तुझेच गुण गाती
केतनयष्टी सम ते तुजला उच्च स्थानी वसविती ||१||
☆
यत्सानोः॒ सानु॒मारु॑ह॒द्भूर्यस्प॑ष्ट॒ कर्त्व॑म् ।
तदिन्द्रो॒ अर्थं॑ चेतति यू॒थेन॑ वृ॒ष्णिरे॑जति ॥ २ ॥
☆
भक्त भटकला नगानगांच्या शिखरांवरुनीया
अगाध कर्तृत्वा इंद्राच्या अवलोकन करण्या
भक्ती जाणुनि वर्षाधिपती प्रसन्न अति झाला
सवे घेउनीया लवाजमा साक्ष सिद्ध झाला ||२||
☆
यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा ।
अथा॑ न इन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं चर ॥ ३ ॥
☆
घन आयाळी वर्षादायक अश्व तुझे बहु गुणी
धष्टपुष्ट देहाने त्यांच्या रज्जू जात ताठुनी
जोडूनिया बलशाली हयांना रथास आता झणी
प्रार्थनेस अमुच्या ऐकावे सन्निध रे येउनी ||३||
☆
एहि॒ स्तोमा॑ँ अ॒भि स्व॑रा॒भि गृ॑णी॒ह्या रु॑व ।
ब्रह्म॑ च नो वसो॒ सचेन्द्र॑ य॒ज्ञं च॑ वर्धय ॥ ४ ॥
☆
अमुचि आर्जवे सवे प्रार्थना ऐका धनेश इंद्रा
प्रसन्न होऊनी प्रशंसून त्या त्यासि म्हणा भद्रा
अमुची अर्चना स्वीकारा व्हा सिद्ध साक्ष व्हायला
यज्ञा अमुच्या यशप्राप्तीचे आशीर्वच द्यायला ||४||
☆
उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस्यं॒ वर्ध॑नं पुरुनि॒ष्षिधे॑ ।
श॒क्रो यथा॑ सु॒तेषु॑ णो रा॒रण॑त्स॒ख्येषु॑ च ॥ ५ ॥
☆
ऐका याज्ञिक ऋत्वीजांनो इंद्रस्तोत्र गावे
सर्वश्रेष्ठ ते सर्वांगीण अन् परिपूर्ण ही असावे
सखेसोयरे पुत्रपौत्र हे असिम सुखा पावावे
देवेंद्राच्या कृपादृष्टीने धन्य कृतार्थ व्हावे ||५||
☆ सात सुरांची साथ नव्यांची… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆
… तू जो मेरे सुर मे सुर मिलाके, संग गाले, तो जिंदगी हो जाए सफल… सा रे ग म प ध..नी सा… ये म्हणा कि गं तुम्ही पण माझ्या बरोबर.सात सुरांची साथ नव्याची ऑडिशनला आपल्याला उदया जायचयं! आहेना लक्षात? आपल्या सातही जणींची फायनला निवड पक्की होणारच.केशरबाई तू काळी दोन मधे सुरु करशील.पिवळाक्का तुम्ही काळी चार घ्या बरं. उदयाचा विठूचा गजर टिपेला न्या. तुम्ही दोघी करडू दिदी यमनचा षड्ज द्रुतलयीत लावाल. मी आणि ग्रे ताई मालकंस नि भैरवी ने मंद्र सप्तकात सांगता करू.
…परिक्षक कोणी असले तरी आपण घाबरायचं नाही. घाबरायचं त्यांनी आपल्याला. एक सुरात म्याँव म्याँव करून त्यांना सळो कि पळो करु.पायात घुटमळत राहू.तोंड पुसत पुसत त्यांना आपली निवड करायला भाग पाडू.नाहीतर अंगावर फिस्कारुन येउ म्हणावं हि धमकी देऊ.आमच्या शिवाय स्पर्धा होणे नाही!आम्ही नसलो तर स्पर्धा उधळून लावू. इतकंच नाही तर विजेते आमच्यातलेच असतील.बाहेरचा कुणी दिसलाच तर स्पर्धेत फिक्सिंग झाले असण्याचा संशयाचा धुरळा मेडियात उडवू देउ अशी तंबीच त्यांना देउ या; आणि आपले सगळेच नंबर आले तर स्पर्धा खेळी मेळीत निकोप वातावरणात झाली,उदयाच्या नव्या गायकांना प्रोत्साहन प्रेरणा अश्या स्पर्धेतून मिळते,म्हणून अश्या स्पर्धा सतत होणं गरजेचे आहे असं मेडियाला मुलाखत देताना तोंड फुगवून सांगूया.यातूनच जे आयोजक, ठेकेदार यांचे उखळ कायम पांढरे होत जाईल. टीआरपी वाढला कि स्पर्धेचे एपिसोड वाढतील.चॅनेल वाल्यांची चांदी आणि नव्या गायकांची एक्सपोजरची नांदी होईल.तेव्हा उदया
“… सारे के सारे गा मा के लेकर गाते चले….” कोरस हम साथ साथ मे म्हणू या… “
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 128 ☆
☆ साध्य और साधन☆
एक – एक कदम चलते रहने से कई कदम जुड़ने लगते हैं। स्वाभाविक है कि जब अच्छे उद्देश्य को लेकर कोई यात्रा हो तो परिणाम सुखद होंगे।कहते हैं कि केवल किताबी ज्ञान से कुछ नहीं होगा जब तक धरातल पर उतरकर उसे जीवन की प्रयोगशाला में सिद्ध न किया जाए। सनातन धर्म में यही खूबी है कि सब कुछ वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसा जा चुका है, ये बात अलग है कि पश्चिमी विज्ञान उसे आज मान्यता दे रहा है। हमारे यहाँ तो नदियों की पंचकोशी परिक्रमा का भी अनुष्ठान होता है। नर्मदा नदी की तो सम्पूर्ण परिक्रमा की जाती है। हरियाली से भरा परिवेश, जन – जीवन- जंगल- जमीन से जुड़कर जनमानस एक दूसरे का सहयोग करना सीख जाता है। नर्मदा किनारे बसे गाँवो के लोग अन्न क्षेत्र का निर्माण करते हैं। सामान्य परिवार भी किसी परिक्रमा वासी को भूखा नहीं रहने देते। आज के समय में जब लोग पाई- पाई का हिसाब रखते हैं तब भी कुछ स्थान ऐसे हैं जो खुले दिल से सम्मान करना और कराना जानते हैं।
यही तो यात्रियों और यात्राओं की खूबी है कि वो हर परिस्थिति, जलवायु में जीना जानते हैं। जो आनन्द पैदल चलने में है वो वाहन की सवारी में नहीं, लोग जब आपसे मिलने आते हों तो विशिष्टता का अहसास होता है और यही जीने की वजह बन जाता है। ऐसे में लक्ष्य को साधना सरल लगने लगता है। हाथों में हाथ लेकर चलते हुए मन ये कहने लगता है अब मंजिल दूर नहीं।
सब कुछ सहजता से मिल सकता है बस नियत सच्ची होनी चाहिए। बिना योग्य हुए यदि मंजिल तक पहुँच भी गए तो भी वहाँ टिक नहीं सकते हैं। जब तक मनुष्य का सर्वांगीण विकास नहीं होगा तब तक पाना- खोना चलता रहेगा। सबको साथ लेने की कला बहुत जरूरी होती है,जब तक मानव मन की समझ नहीं होगी तब तक साध्य असाध्य रोग की तरह पीछा करता रहेगा।
खैर चलते हुए लोग, उड़ते हुए पंछी, तैरती हुई मछली, हरा- भरा जंगल, कल- कल करती नदियाँ अच्छी लगतीं हैं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 181 ☆
व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर
मेकओवर का बड़ा महत्व होता है। सोकर उठते ही मुंह धोकर कंघी कर लीजिए कपड़े ठीक कीजीए, डियो स्प्रे कर लीजिए फ्रेश महसूस होने लगता है। महिलाओं के लिए फ्रेशनेस का मेकओवर थोडी लंबी प्रक्रिया होती है, लिपस्टिक, पाउडर, परफ्यूम आवश्यक तत्व हैं। ब्यूटी पार्लर में लड़की का मेकओवर कर उसे दुल्हन बना दिया जाता है। एक से एक भी बिलकुल बदली बदली सी लगने लगती हैं। दुल्हन के स्वागत समारोह के बाद बारी आती है ससुराल में बहू के मेकओवर की। सास, ननदे उसे गृहणी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। शनैः शनैः गृहणी से पूरी तरह पत्नी में मेकओवर होते ही, पत्नी पति पर भारी पड़ने लगती है।
हर मेकओवर की एक फीस होती है। ब्यूटी पार्लर वह फीस रुपयों में लेता है। पर कहीं त्याग, समर्पण, अपनेपन, रिश्ते की किश्तों में फीस अदा होती है।
एक राजनैतिक पार्टी से दूसरी में पदार्पण करते नेता जी गले का अंगोछा बदल कर नए राजनैतिक दल का मेक ओवर करते हैं। यहां गरज का सिद्धांत लागू होता है, यदि मेकओवर की जरूरत आने वाले की होती है तो उसे फीस अदा करनी होती है, और अगर ज्यादा आवश्यकता बुलाने वाले की है तो इसके लिए उन्हें मंत्री पद से लेकर अन्य कई तरह से फीस अदा की जाती है। नया मेकओवर होते ही नेता जी के सिद्धांत, व्यापक जन हित में एकदम से बदल जाते हैं। विपक्ष नेता जी के पुराने भाषण सुनाता रह जाता है पर नेता जी वह सब अनसुना कर विकास के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।
स्कूल कालेज कोरे मन के बच्चों का मेकओवर कर, उन्हें सुशिक्षित इंसान बनाने के लिए होते हैं। किंतु हुआ यह कि वे उन्हें बेरोजगार बना कर छोड़ देते, इसलिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन किए जा रहे हैं , अब केवल डिग्री नौकरी के मेकओवर के लिए अपर्याप्त है। स्किल, योग्यता और गुणवत्ता से मेकओवर नौकरी के लिए जरूरी हो चुके हैं। अब स्टार्ट अप के मेकओवर से एंजल इन्वेस्टर आप के आइडिये के लिए करोड़ों इन्वेस्ट करने को तैयार हैं।
पिछले दिनों हमारा अमेरिका आना हुआ, टैक्सी से उतरते तक हम जैसे थे, थे। पर एयरपोर्ट में प्रवेश करते हुए अपनी ट्राली धकेलते हम जैसे ही बिजनेस क्लास के गेट की तरफ बढ़े, हमारा मेकओवर अपने आप कुछ प्रभावी हो गया लगा। क्योंकि हमसे टिकिट और पासपोर्ट मांगता वर्दी धारी गेट इंस्पेक्टर एकदम से अंग्रेजी में और बड़े अदब से बात करने लगा।
बोर्डिंग पास इश्यू करते हुए भी हमे थोड़ी अधिक तवज्जो मिली, हमारा चेक इन लगेज तक कुछ अधिक साफस्टीकेटेड तरीके से लगेज बेल्ट पर रखा गया। लाउंज में आराम से खाते पीते एन समय पर हैंड लगेज में एक छोटा सा लैपटाप बैग लेकर जैसे ही हम हवाई जहाज में अपनी फ्लैट बेड सीट की ओर बढ़े सुंदर सी एयर होस्टेस ने अतिरिक्त पोलाइट होकर हमारे कर कमलों से वह हल्का सा बैग भी लेकर ऊपर डेक में रख दिया, हमे दिखा कि इकानामी क्लास में बड़ा सा सूटकेस भी एक पैसेंजर स्वयं ऊपर रखने की कोशिश कर रहा था। बिजनेस क्लास में मेकओवर का ये कमाल देख हमें रुपयों की ताकत समझ आ रही थी।
जब अठारह घंटे के आराम दायक सफर के बाद जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर हम बाहर निकले, तब तक बिजनेस क्लास का यह मेकओवर मिट चुका था, क्योंकि ट्राली लेने के लिए भी हमें अपने एस बी आई कार्ड से छै डालर अदा करने पड़े, रुपए के डालर में मेकओवर की फीस कटी हर डालर पर कोई 9 रुपए मात्र। हमारे मैथ्स में दक्ष दिमाग ने तुरंत भारतीय रुपयों में हिसाब लगाया लगभग पांच सौ रुपए मात्र ट्राली के उपयोग के लिए। हमें अपने प्यारे हिंदोस्तान के एयर पोर्ट याद आ गए कहीं से भी कोई भी ट्राली उठाओ कहीं भी बेतरतीब छोड़ दो एकदम फ्री। एकबार तो सोचा कितना गरीब देश है ये अमरीका भला कोई ट्राली के उपयोग करने के भी रुपए लेता है ? वह भी इतने सारे, पर जल्दी ही हमने टायलेट जाकर इन विचारों का परित्याग किया और अपने तन मन का क्विक मेकओवर कर लिया। जैकेट पहन सिटी बजाते रेस्ट रूम से निकलते हुए हम अमेरिकन मूड में आ गए। तीखी ठंडी हवा ने हमारे चेहरे को छुआ, मन तक मौसम का खुशनुमा मिजाज दस्तक देने लगा। एयरपोर्ट के बाहर बेटा हमे लेने खड़ा था, हम हाथ हिलाते उसकी तरफ बढ़ गए।