(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित गीत…रंग जा हरि के रंग…)
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “हिलमिल रहो …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 86 ☆ गजल – हिलमिल रहो … ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #94 उपकार किस पर करें? ☆ श्री आशीष कुमार☆
🔷 जंगल में शेर शेरनी शिकार के लिये दूर तक गये अपने बच्चों को अकेला छोडकर। देर तक नही लौटे तो बच्चे भूख से छटपटाने लगे उसी समय एक बकरी आई उसे दया आई और उन बच्चों को दूध पिलाया फिर बच्चे मस्ती करने लगे तभी शेर शेरनी आये बकरी को देख लाल पीले होकर हमला करता उससे पहले बच्चों ने कहा इसने हमें दूध पिलाकर बड़ा उपकार किया है नही तो हम मर जाते।
🔶 अब शेर खुश हुआ और कृतज्ञता के भाव से बोला हम तुम्हारा उपकार कभी नही भूलेंगे जाओ आजादी के साथ जंगल मे घूमो फिरो मौज करो। अब बकरी जंगल में निर्भयता के साथ रहने लगी यहाँ तक कि शेर के पीठ पर बैठकर भी कभी कभी पेडो के पत्ते खाती थी।
🔷 यह दृश्य चील ने देखा तो हैरानी से बकरी को पूछा तब उसे पता चला कि उपकार का कितना महत्व है। चील ने यह सोचकर कि एक प्रयोग मैं भी करता हूँ चूहों के छोटे छोटे बच्चे दलदल मे फंसे थे निकलने का प्रयास करते पर कोशिश बेकार।
🔶 चील ने उनको पकड पकड कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया बच्चे भीगे थे सर्दी से कांप रहे थे तब चील ने अपने पंखों में छुपाया, बच्चों को बेहद राहत मिली काफी समय बाद चील उडकर जाने लगी तो हैरान हो उठी चूहों के बच्चों ने उसके पंख कुतर डाले थे। चील ने यह घटना बकरी को सुनाई तुमने भी उपकार किया और मैंने भी फिर यह फल अलग क्यों?
🔷 बकरी हंसी फिर गंभीरता से कहा
🔶 उपकार भी शेर जैसो पर किया जाए चूहों पर नही। चूहों (कायर) हमेशा उपकार को स्मरण नही रखेंगे वो तो भूलना बहादुरी समझते है और शेर(बहादुर )उपकार कभी नही भूलेंगे।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ट्यूशन व तलाक़ . यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 137 ☆
☆ ट्यूशन व तलाक़ ☆
‘जो औरतें शादी के बाद मायके से ट्यूशन लेती हैं; वे औरतें तलाक़ की डिग्री ज़रूर हासिल कर लेती हैं,’ यह कथन कोटिशः सत्य है। आजकल माता-पिता, भाई-बांधवों व अन्य परिजनों के पास उनकी पल-पल की रिपोर्ट दर्ज होती है और वे ससुराल में रहते हुए भी मायके वालों के आदेशों की अनुपालना करती हैं। खाना बनाने से लेकर घर-परिवार की छोटी से छोटी बातों की ख़बर उनकी माता व परिजनों को होती है। आजकल विदाई के समय उसे यह सीख दी जाती है कि उसे वहाँ किसी से दब कर रहने की आवश्यकता नहीं है; सदा सिर उठाकर जीना। हम सब तुम्हारे साथ हैं और उन्हें दिन में तारे दिखला देंगे। वैसे भी वर के परिवारजनों को सीखचों के पीछे धकेलने में समय ही कितना लगता है। उन पर दहेज व घरेलू हिंसा का इल्ज़ाम लगाकर आसानी से निशाना साधा जा सकता है। सो! दूर-दूर के संबंधियों की प्रतिष्ठा भी अकारण दाँव पर लग जाती है और रिश्ते उनके लिए गले की फाँस बन जाते हैं।
इतना ही नहीं, अक्सर वे माता-पिता की इच्छानुसार सारी धन-दौलत व आभूषण एकत्र कर अक्सर अगले दिन ही नये शिकार की तलाश में वहाँ से रुख़्सत हो जाती हैं। जब से महिलाओं के पक्ष में नये कानून बने हैं, वे उनका दुरुपयोग कर प्रतिशोध ले रही हैं। शायद वे वर्षों से सहन कर रही गुलामी व ज़ुल्मों-सितम का प्रतिकार है। पुरुष सत्तात्मक परंपरा के प्रचलन के कारण वे सदियों से ज़ुल्मों-सितम सहन करती आ रही हैं। अब तो वे मी टू की आड़ में अपनी कुंठाओं की रिपोर्ट दर्ज करा रही हैं।
महिलाओं को समानता का अधिकार लम्बे समय के संघर्ष के पश्चात् प्राप्त हुआ है। इसलिए अब वे आधी ज़मीन ही नहीं; आधा आसमान भी चाहती हैं; जिस पर पुरुष वर्ग लम्बे समय से काबिज़ था। इसलिए वे ग़लत राहों पर चल निकली हैं। चोरी-डकैती, अपहरण आदि उनके शौक हो गए हैं तथा पैसा ऐंठने के लिए वे पुरुषों पर निशाना साधती हैं तथा उन पर अकारण दोषारोपण करना व उनके लिए सामान्य प्रचलन हो गया है। महफ़िल में शराब के पैग लगाना, सिगरेट के क़श लगाना, रेव पार्टियों में सहर्ष प्रतिभागिता करना उनके जीवन का हिस्सा बन गया है। आजकल अक्सर महिलाएं अपने माता- पिता के हाथों की कठपुतली बन इन हादसों को अंजाम दे रही हैं तथा दूसरों का घर फूंक कर तमाशा देखना उनके जीवन का शौक हो गया है।
‘गुरु बिन गति नांहि’ ऐसी महिलाओं के गुरू अक्सर उनके माता-पिता होते हैं, जो उनकी सभी शंकाओं का समाधान कर उन्हें सतत् विनाश के पद पर अग्रसर होने की सीख देकर उनका पथ प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार ऐसी महिलाएं जो अपने मायके की ट्यूशन लेती हैं, उन्हें तलाक़ की डिग्री अवश्य प्राप्त हो जाती है। मुझे एक ऐसी घटना का स्मरण हो रहा है, जिसमें विवाहिता ने चंद घंटे पश्चात् ही तलाक़ ले लिया। विवाह के पश्चात् प्रथम रात्रि को वह पति को छोड़कर चली गई। उसका अपराध केवल यही था कि उसने पत्नी से यह कह दिया कि ‘तुम्हारे बहुत फोन आते हैं। थोड़ी देर आराम कर लो।’ इतना सुनते ही वह अपना आपा खो बैठी और उसे खरी-खोटी सुनाते हुए भोर होने पूर्व ही पति के घर को छोड़कर चली गई।
अक्सर महिलाएं तो यह निश्चय करके ससुराल में कदम रखती हैं कि उन्हें उस घर से पैसा व ज़ेवर आदि बटोर कर वापस लौटना है और वे इसे अंजाम देकर रुख़्सत हो जाती हैं। वैसे भी आजकल तो हर तीसरी लड़की तलाक़शुदा है। फलत: सिंगल पैरंट का प्रचलन भी बेतहाशा बढ़ रहा है और लड़के ऐसी ज़ालिम महिलाओं के हाथों से तिरस्कृत हो रहे हैं। इतना ही नहीं, वे निर्दोष अपने अभागे माता-पिता सहित कारागार में अपनी ज़िदगी के दिन गिन रहे हैं और उस ज़ुल्म की सज़ा भोग रहे हैं।
पहले माता पिता बचपन से बेटियों को यह शिक्षा देते थे कि ‘पति का घर ही उसका घर होगा और उस घर की चारदीवारी से उसकी अर्थी निकलनी चाहिए। उसे अकेले मायके में आने की स्वतंत्रता नहीं है।’ सो! तलाक़ की नौबत आती ही नहीं थी। वास्तव में तलाक़ की अवधारणा तो विदेशी है। मैरिज के पश्चात् डाइवोरस व निक़ाह के पश्चात् तलाक़ होता है। हमारे यहां तो विवाह के समय एक-दूसरे के लिए सात जन्म तक जीने- मरने की कसमें खाई जाती हैं। परंतु हमें तो पाश्चात्य की जूठन में आनंद आता है। इसलिए हमने ‘हेलो हाय’ ‘मॉम डैड’ व ‘जींस कल्चर’ को सहर्ष अपनाया है। वृद्धाश्रम पद्धति भी उनकी देन है। हमारे यहां तो पूरा विश्व एक परिवार है और ‘अतिथि देवो भव’ का बोलबाला है।
आइए! हम बच्चों को संस्कारित करें उन्हें जीवन मूल्यों का अर्थ समझाएं व ‘सत्यमेव जयते’ का पाठ पढ़ाएं। अपने घर को मंदिर समझ सहर्ष उसमें रहने का संदेश दें, ताकि कोरोना जैसी आपदाओं के आगमन पर उन्हें घर में रहना मुहाल हो। लॉकडाउन जैसी स्थिति में वे न विचलित हों और न ही डिप्रेशन कि शिकार हों। हम भारतीय संस्कृति का गुणगान करें और बच्चों को सुसंस्कारित करें, ताकि उनकी सोच सकारात्मक हो। वे घर-परिवार की महत्ता को समझें तथा बुजुर्गों का सम्मान करें तथा उनके सान्निध्य में शांति व सुक़ून से रहें। वे अधिकतम समय मोबाइल के साथ में न बिताएं तथा घर-आंगन में दीवारें न पनपने दें। महिलाएं ससुराल को अपना परिवार अर्थात् मायका समझें, ताकि तलाक़ की नौबत ही न आए। वे एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव से रहें, ताकि सोलोगैमी अर्थात् सैल्फ मैरिज की आवश्यकता ही न पड़े।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “बुन्देली पूर्णिका… ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)