हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 147 ☆ मुक्तक – ।। बाद जाने के भी सबको बहुत याद आओ तुम ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 147 ☆

☆ मुक्तक – ।। बाद जाने के भी सबको बहुत याद आओ तुम ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

बदन को नहीं किरदार को महकाओ तुम।

हमेशा प्रेम का दीपक     ही जलाओ तुम।।

दुआ लो और दुआ दो यही काम हो तुम्हारा।

छूटे रिश्तों को जरा फिर गले लगाओ तुम।।

=2=

जो वादा किया उसको जरा निभाओ तुम।

मत किसी की राह में   कांटे  बिछायो तुम।।

दर्द में हर किसी के  हमदर्द बनो तुम जरूर।

अंधेरों में किसीको रोशनी भी दिखाओ तुम।।

=3=

तुम्हारे बिगड़े बोल न कभी   दुर्व्यवहार बने।

कभी किसीके दुख का नहींआप आधार बने।।

बनना है तो बने डूबते को तिनके का सहारा।

सिखाओ बच्चों को कैसे भविष्य कर्णधार बने।।

=4=

हो सके जितना प्रेम के ही  गीत सुनाओ तुम।

भूलकर भी मत नफरत की दीवार उठाओ तुम।।

करनी का फल कुफल मिलता इसी जीवन में।

बाद जाने के भी  सबको बहुत याद आओ तुम।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #213 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – माँ, मुझको शाला जाने दो… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – माँ, मुझको शाला जाने दो…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 213 ☆

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – माँ, मुझको शाला जाने दो…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

माँ मुझको शाला जाने दो।

पढ़-लिखकर कुछ बन जाने दो ॥

*

घंटी मुझको बुला रही है।

याद साथियों की आ रही है

*

मुझे वहाँ अच्छा लगता है।

मन में एक सपना जगता हैं ॥

*

पढ़ते-लिखते गाते गाना।

खेल-खेल मिल खाते खाना

*

दीदी मुझे प्यार करती है।

सबकी देखभाल करती है ॥

*

नई कहानी कह रोजाना।

सिखलाती हैं चित्र बनाना ॥

*

फूल भरी सुन्दर फुलवारी ।

आँखों को लगती है प्यारी

*

सजा साफ सुथरा आहाता ।

सदा मेरे मन को है भाता ॥

*

तस्वीरों से सजी दिवालें ।

कहती सब संसार सजा लें

*

सारा वातावरण सुहाना ।

वहाँ ज्ञान का भरा खजाना

*

मैं पढ़-लिख होशियार बनूँगा ।

अनुभव ले सरदार बनूँगा ।

*

भारत माँ को सुखी बनाने ॥

घर-घर तक खुशियाँ पहुँचाने ॥

*

मेहनत सोच विचार करूँगा।

जग में सबसे प्यार करूँगा ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 232 ☆ व्यवहार का केंद्रीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना व्यवहार का केंद्रीकरण। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 232 ☆ व्यवहार का केंद्रीकरण

समय के साथ व्यवहार का बदलना कोई नयी बात नहीं है। परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है, तभी तो दिन रात होते हैं, पतझड़ से हरियाली, फिर अपने चरम उत्कर्ष पर बहारों का मौसम ये सब हमें सिखाते हैं समय के साथ बदलना सीखो, भागना और भगाना सीखो, सुधरना और सुधारना सीखो।

ये सारे ही शब्द अगर हम क्रोध के वशीभूत होकर सुनेंगे तो इनका अर्थ कुछ और ही होगा किंतु सकारात्मक विचारधारा से युक्त परिवेश में कोई इसे सुने तो उसे इसमें सुखद संदेश दिखाई देगा।

जैसे भागना का अर्थ केवल जिम्मेदारी से मुख मोड़ कर चले जाना नहीं होता अपितु समय के साथ तेज चलना, दौड़ना, भागना और औरों को भी भगाना।

सबको प्रेरित करें कि अभी समय है सुधरने का, जब जागो तभी सवेरा, इस मुहावरे को स्वीकार कर अपनी क्षमता अनुसार एक जगह केंद्रित हो कार्य करें तभी सफलता मिलेगी।

***

नेह की डोरी सजोते, साथ जीवन भर चले।

सत्य की अनुपम कहानी, सुन सुनाकर ही पले।।

चेतनामय हो मधुरता, जोड़कर सबको रखे।

 राम सीताराम सीता, नित्य रसना यह चखे।।

***

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना साहब का हंटर और बाबू की बेबसी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

जब मिस्टर हरगोबिंद लाल (उर्फ हरि बाबू) को सरकारी दफ्तर में नया अफसर बना कर भेजा गया, तो उनके मन में बड़े-बड़े अरमान थे। उन्होंने बचपन से ही सरकारी सिस्टम के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। यह कि सरकारी दफ्तरों में लोग आलसी होते हैं, यह कि कर्मचारियों को सिर्फ वेतन से मतलब होता है और यह कि अफसरों को सख्ती करनी चाहिए। उन्होंने दफ्तर का कार्यभार सँभालते ही मैकेनिक की तरह मशीन को देखना शुरू किया।

मशीन में बड़े-बड़े मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी थे, जो किसी और तर्ज़ पर काम कर रहे थे—अर्थात् अपने फायदे की। कर्मचारी इस मशीन के छोटे-छोटे पुर्जे थे, जिन्हें हरगोबिंद लाल सुधारने का ठान चुके थे। उनका सोचना था कि जब ये छोटे पुर्जे ठीक हो जाएंगे, तो पूरी मशीन सुचारू रूप से चलेगी। लेकिन उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि मशीन में सबसे बड़ी समस्या वे बड़े-बड़े मंत्री और अधिकारी खुद थे।

हरि बाबू के ऑफिस में अधिकतर कर्मचारी बुजुर्ग हो चुके थे। सरकार ने सालों से नई भर्ती नहीं की थी, और पुराने कर्मचारियों की रिटायरमेंट उम्र बढ़ा-बढ़ा कर काम चलाया जा रहा था। ये सभी अपनी कुर्सियों से ऐसे चिपके हुए थे, मानो यह उनकी पुश्तैनी जागीर हो। जब भी कोई सरकारी कार्यक्रम होता, तो मंच के सामने सफेद बाल, नकली दाँत और मोटे चश्मे पहने हुए कर्मचारियों की अच्छी-खासी प्रदर्शनी लग जाती।

हरगोबिंद लाल ने पहला आदेश जारी किया—”काम का समय सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक रहेगा। कोई देर से नहीं आएगा, और कोई बिना काम किए नहीं जाएगा।”

कर्मचारियों ने उनकी ओर देखा और मुस्कुराए। उन्होंने अफसरों के बदलने की आदत डाल ली थी। कोई अफसर नया-नया आता, गर्मी दिखाता और कुछ ही महीनों में ठंडा पड़ जाता।

हरि बाबू ने जब कर्मचारियों से बातचीत शुरू की, तो उन्हें अलग ही जवाब मिले।

“सर, जब हमने नौकरी जॉइन की थी, तब से यही सुन रहे हैं कि फला योजना बहुत जरूरी है, अला योजना बहुत महत्वपूर्ण है। जब कोई नई फाइल आती है, तो कहा जाता है कि इसे तुरंत निपटाना है। साहब, हमारी हड्डियाँ अब थक चुकी हैं। पहले भी बहुत दौड़ चुके हैं, अब और नहीं दौड़ा जाता।”

हरि बाबू ने गुस्से में कहा, “यह सब बहानेबाजी नहीं चलेगी। इन्क्रीमेंट, डी.ए., प्रमोशन चाहिए, तो काम भी पूरा करना होगा। छुट्टी के दिन भी आना होगा। देर रात तक रुकना होगा। और अगर किसी ने लापरवाही की, तो इज्जत से रिटायर नहीं होने दूँगा।”

बुजुर्ग कर्मचारियों ने एक-दूसरे को देखा और ठंडी आह भरी।

तभी पुराने बाबू रामदयाल ने कहा, “हुजूर, मेरी हालत देखिए। उम्रदराज हो चुका हूँ। खाल पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखें कमजोर हो चुकी हैं, खुर घिस चुके हैं। बहुत दिन हुए खरैरा नहीं हुआ है। पहले वाले अफसर ने कहा था कि फलाँ मंजिल तक पहुँचना जरूरी है। मैंने जान लगा दी और किसी तरह हाँफते-हाँफते पहुँच भी गया। लेकिन वहाँ पहुँचते ही नया मिशन दे दिया गया। यह सिलसिला चलता ही जा रहा है। अब और नहीं दौड़ा जाता, हुजूर।”

हरि बाबू ने हँसते हुए कहा, “तुम लोगों की आदतें बिगड़ चुकी हैं। अब यह आलसीपन नहीं चलेगा।”

कर्मचारियों ने सिर हिलाया और बेमन से काम में जुट गए।

लेकिन जल्दी ही हरि बाबू को अहसास हुआ कि सरकारी दफ्तर का सिस्टम सच में एक अजीबोगरीब मशीन है। एक दिन उन्होंने एक फाइल तेजी से आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन बाबू मोहनलाल ने बड़ी मासूमियत से कहा, “साहब, यह काम कल हो जाएगा।”

“कल क्यों? आज क्यों नहीं?”

“क्योंकि आज तक कभी कोई फाइल एक ही दिन में आगे नहीं बढ़ी, साहब। ऐसा पहली बार होगा, इसलिए सिस्टम को समय चाहिए।”

हरि बाबू ने माथा पीट लिया।

धीरे-धीरे उन्हें समझ आने लगा कि यह सिस्टम अपने आप में एक अलग ही जीव है। यहाँ लोग दिनभर काम करने का दिखावा करते थे, लेकिन असली काम तब होता था जब कोई मिठाई का डिब्बा लेकर आता था। जब तक जेब गरम नहीं होती, तब तक कोई काम आगे नहीं बढ़ता।

हरि बाबू ने रिश्वतखोरी खत्म करने का संकल्प लिया। लेकिन जल्दी ही उन्हें एहसास हुआ कि यह कार्य लगभग असंभव है। उन्होंने एक बाबू को पकड़कर डाँटा, “तुम फाइल आगे बढ़ाने के लिए पैसे क्यों लेते हो?”

बाबू ने सहजता से जवाब दिया, “साहब, आप अफसर हैं, आपको तनख्वाह के अलावा गाड़ी, बंगला, टी.ए.-डी.ए. सब मिलता है। लेकिन हमें क्या मिलता है? सिर्फ सैलरी, और वो भी इतनी कम कि गुजारा मुश्किल है। इसलिए हमें अपनी ‘इन्क्रीमेंट’ खुद बनानी पड़ती है।”

हरि बाबू के पास कोई जवाब नहीं था।

फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने कर्मचारियों पर सख्ती बरती। इसका असर यह हुआ कि कुछ कर्मचारी डर के मारे काम में लग गए, लेकिन कुछ ने बीमार पड़ने का बहाना बना लिया।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। हरि बाबू ने बहुत कुछ सुधारने की कोशिश की, लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, उनकी ऊर्जा भी कम होने लगी।

एक दिन वे सुबह-सुबह ऑफिस पहुँचे, तो देखा कि पुराना चपरासी शिवराम कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था।

“शिवराम, तुम अभी तक सेवानिवृत्त नहीं हुए?”

“नहीं, साहब। सरकार हमारी उम्र बढ़ाती जा रही है। अब सुना है कि रिटायरमेंट की उम्र और बढ़ेगी।”

हरि बाबू ने अपना माथा पीट लिया।

उन्होंने आखिरकार समझ लिया कि यह नौकरी नहीं, बल्कि एक जाल है, जिसमें घुसने के बाद आदमी पूरी उम्र फँसा रहता है। यह नौकरी एक ऐसी ठगनी है, जो आदमी की जवानी खा जाती है, उसके बुढ़ापे को भी चैन से जीने नहीं देती।

हरि बाबू ने ठंडी आह भरी और सोचा, “कबीर दास जी सच ही कह गए हैं—

नौकरी महा ठगनी हम जानी,

करें नौकरी, वही पछतानी।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 334 ☆ कविता – “कम हैं वे लोग…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 334 ☆

?  कविता – कम हैं वे लोग…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

आधे लोग परेशान हैं

दुनियां में

अपनी

मानसिक स्थितियो से

डिप्रेशन,

ऑटिज्म,

मूड डिसआर्डर, नर्वसनेस,

एंकजाइटी, सिजोफ्रेनिया,

सोशल एंक्जायाटी

वगैरह वगैरह से।

 

और ढेर सारे लोगों को

पता ही नहीं

कि उनकी मनोदशा ठीक नहीं है।

वे उनकी बातों में परिवेश की बुराई कर

अपनी डींगे हांककर

खुद की मानसिक चिकित्सा

कर लेते हैं चुपचाप ।

 

काश बन सके

वो दुनियां

जहां सब

सुकून से सो पायें सितारों की छांव में और

भोर के सूरज से जी भर

मन की बातें कर सकें

हवा के झोंको का, क्यारी के फूलों से

अन्तर्संवाद सुन समझ

लिख सकें

दो शब्द बेझिझक

प्यार के ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 239 ☆ गीत – रक्षा अपने देश की हम सबको करना है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। अब तक लगभग तेरह दर्जन से अधिक मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 239 ☆ 

☆ गीत – रक्षा अपने देश की हम सबको करना है…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

देश के गौरव में सौरभ हमें भरना है।

देश के लिए हमें लड़ते- लड़ते मरना है

शहीदों की स्मृतियों में दीपक जलाइए।।

भाईचारा आप हिंदुस्तान में बढ़ाइए।।

 

छोड़िए कुरीतियां सत्य पंथ अपनाइए।

बीज नफरतों के नहीं मन में उगाइए।

जाति भेद मेंटिए, प्रेम को बढ़ाइए।

राष्ट्र के विकास में योग करवाइए।।

भाईचारा आप हिंदुस्तान में बढ़ाइए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माणूसपण… ☆ श्री सुजित कदम  ☆

श्री सुजित कदम

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माणूसपण… ☆ 

☆ 

परवा ह्या झाडाखाली बसलो

तेव्हा खूप छान वाटलं

आज त्याचे हाल पाहून

टचकन डोळ्यात पाणी दाटलं..!

 

म्हटलं विचारावं झाडाला

नक्की झालं तरी काय?

कोणत्या नराधमाने

त्याचे तोडले हात पाय

 

मी म्हटलं… ऐकना रे झाडा

तुझ्याशी थोडं बोलायचंय

तुझ्या मनातलं आज मला

सारं काही ऐकायचंय..!

 

सुरवातीला झाड …

काही एक बोललं नाही;

आणि नंतर कितीतरी वेळ

त्याचं रडणं काही थांबलं नाही..!

 

मी म्हटलं झाडा असं

रडू नको थांब

काय झालं एकदा

मला तरी सांग

 

काय सांगू मित्रा तुला

झालं काल काय ..?

कुणीतरी येऊन माझे

तोडू लागलं पाय..!

 

पायाबरोबर जेव्हा माझे

हात सुध्दा तोडू लागले

तेव्हा मात्र माझ्या मनातले

माणूसपण पुसू लागले..!

 

मी जोर जोरात

ओरडत होतो

पण ऐकलं नाही कुणी

आणि तेव्हा कळलं देवानं

आपल्याला दिली नाही वाणी.

 

काय चूक झाली माझी

मला सुद्धा कळलं नाही

इतकी वर्षे सावली दिली

ती कुणालाच कशी दिसली नाही..?

 

कुणीतरी म्हटलं तितक्यात

उद्या येऊन झाडाचे बारीक तुकडे करा..!

बारीक बारीक तुकडे नंतर

गाडीमध्ये भरा…!

 

अरे सावली देणारे हातांचे

असं कुणी तुकडे तुकडे करतं का..?

तूच सांग मित्रा माणसांचं

हे वागणं तुला तरी पटतं का..?

 

माझे हाल झाले त्याचं..

मला काहीच वाटत नाही

पण..आज परतून येणा-या पाखरांना

त्याचं घर मात्र दिसणार नाही

 

मित्रा…

झाडांमध्ये ही जीव असतो

हे माणसांना आता कळायला हवं

आणि आमचा आवाज ऐकू येईल

इतकं माणूसपण तरी टिकायला हवं..!

© श्री सुजित कदम

मो.7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #267 – कविता – ☆ राह बता देना बस मुझको… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता राह बता देना बस मुझको…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #267 ☆

☆ राह बता देना बस मुझको… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

पथ में बार-बार गिर कर भी,

फिर-फिर मैं उठना सीखूँगा

राह बता देना बस मुझको,

मैं अपनी मंजिल पा लूँगा

*

कभी विषाद अकेलेपन का,

कभी भीड़ में खोने का डर

मौसम बासन्ती भी होंगे

कहीं मिलेंगे सूखे पतझड़

आसपास के दृश्यों को,

आत्मस्थ भाव दे उन्हें लिखूँगा।

*

नैननक्स नखरैली गलियाँ

स्वच्छ सपाट खुली सड़कें भी

मलय समीर चैन दे तो

दुर्गम पथ पर ये दिल धड़के भी,

नहीं रुकेंगे कदम सहज ही

चक्रव्यूह निश्चित भेदूँगा।

*

है संघर्ष नाम जीवन का

कभी हार तो कभी जीत है

समतामूलक सोच मानवीय,

करुणा सेवा प्रेम प्रीत है

ये ही खेवनहार इन्हीं के संग

लक्ष्य की ओर बढ़ूँगा।

*

सजग भाव से बस चलते ही रहना

इसका मुझे भान है

जो भी है प्राप्तव्य दर्श करने का

मन में यही ध्यान है

संशय भय से हो अलिप्त तब

शब्द-शुन्य हो गले मिलूँगा।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 91 ☆ शीतल हवाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “शीतल हवाएँ”।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 91 ☆ शीतल हवाएँ ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

माघ भीनी खुशबुओं से

भर गया है

चल रहीं शीतल हवाएँ।

 

भीगती है ओस में

बैठी हुई चिड़िया

पंख अपने निचोती है

बाड़ में कचनार का

आँचल उलझता सा

गिरा अधरों से मोती है

खिलखिलाती धूप आँगन

हँस रहा है

ले रहा सूरज बलाएँ।

 

फूल के मकरंद पर

छाया घना कुहरा

तितलियों के रंग परचम

सिहरते रूप फसलों के

पंछी चहकते हैं

आँख लेकर स्वप्न हरदम

फूल-पत्ते बाग मौसम

खिल गया है

झील में कलियाँ नहाएँ।

 

जंगलों में गंध के

पैग़ाम ले चलती हवा

राहों में स्वर लहरियाँ

जा रहीं स्कूल बस्ते

टाँग काँधों पर समय

गाँवों घर की बेटियाँ

पाँव से पगडंडियों का

मन मिला है

खेत ख़ुश हो गीत गाएँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 95 ☆ रात दुख की अगर मुझे दी है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “रात दुख की अगर मुझे दी है“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 95 ☆

✍ रात दुख की अगर मुझे दी है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

पर दिए है उड़ान भी देना

मुझको शीरी ज़ुबान भी देना

 *

औरतें मर्द के बराबर जब

उड़ने को आसमान भी देना

 *

हों न सैयाद जालकार कोई

ऐसा मुझको जहान भी देना

 *

सात जन्मों का जिससे वादा है

जानने कुछ निशान भी देना

 *

हादसे की न दें खबर थाने

लोग डरते बयान भी देना

 *

रात दुख की अगर मुझे दी है

सुख भरी तू विहान भी देना

 *

हर कदम पर है ज़ीस्त में ख़तरे

हर कदम पर वितान भी देना

 *

ख़्वाहिशें बेशुमार जब दी है

भेदने को कमान भी देना

 *

मुझको तूने अगर अना दी है

ज़हन में स्वाभिमान भी देना

 *

अहलिया लिख नसीब में दी  तो

साथ रहने मकान भी देना

 *

नेक वंदा अगर मैं हूँ तेरा

मुझको कोई अयान भी देना

 *

हिन्द सा जब  दिया “अरुण” को चमन

नेक तू बागवान भी देना

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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