(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है स्व राजुरकर राज जी पर आपका आलेख ।)
(२७ सप्टेंबर १९६१ – १५ फेब्रुवारी २०२३)
आलेख ☆ स्मृति शेष राजुरकर राज : एक ज़िद्दी स्वप्न दृष्टा ☆ श्री सुरेश पटवा
हमारा वीर सिपाही इस बात को जानता था कि स्वप्न देखना आसान है लेकिन उसे सच की ज़मीन पर उतरना अत्यंत दुष्कर काम होता है। नामचीन साहित्यकारों की पांडुलिपियाँ, दैनिक उपयोग की चीजें, आवाजों के नमूने और न जाने क्या-क्या समेटने के जुनून ने घर में चीजों का ढेर लगाना शुरू कर दिया, और घर भी क्या डेढ़ कमरे का मकान जिसमें बैठक, शयन कक्ष, रसोई, गुसलख़ाना सब कुछ शामिल। चीजों का ढेर लगता जा रहा था। पति-पत्नी दोनों नौकरीशुदा। घर-गृहस्थी सम्भालना मुश्किल होता है तो इन बाहरी चीजों का ढेर लगाना झुँझलाहट और तकरार को जन्म देता था।
राजुरकर जानते थे कि स्वप्न वह नहीं जो सोते हुए नींद में देखे जाते हैं, बल्कि स्वप्न वह होता है जो आपकी नींद ही उड़ा दे। वे रात-रात भर जाग कर बहुमूल्य चीजों को व्यवस्थित करते। उन्हें इस तरह देखते जैसे कोई माँ अपने सोते बच्चे के मासूम चेहरे को निहार कर गर्व से भर जाती है।
उसके लिए संघर्ष का एक लम्बा रास्ता तय करना था। गृहस्थी और नौकरी की परेशानियाँ के बीच रास्ता आसान नहीं था। इसमें कदम-कदम पर कठिनाइयाँ उनका स्वागत करतीं। वास्तव में रास्ता तनावभरा होता। वो जानते थे कि जो इन रास्तों पर चलते हैं, उनकी राह में मुश्किलें आती ही हैं, पर उन्हें आसान रास्ता कतई पसंद नहीं था। वे सदैव नए रास्तों की तलाश में होते। यह जानते हुए भी कि यह नया रास्ता तनाव भरा होगा, फिर भी वे चल पड़ते अपना रास्ता स्वयं बनाते हुए एक तयशुदा मंजिल की ओर….। राजुरकर राज उन्हीं विरले लोगों में से हैं, जिन्हें अपना रास्ता स्वयं तलाशने और बनाने की ज़िद होती है, उन्हें उसी में आनंद आता था।
इस मुश्किल राह पर उनका साथ देने आये अशोक निर्मल। जिनकी अध्यक्षता में एक अनौपचारिक समिति गठित हुई। उन्हें दुष्यंत कुमार जी की पत्नी श्रीमति राजेश्वरी त्यागी जी का सहयोग मिलने लगा। दुष्यंत जी से जुड़ी चीजें क़रीने से रखी जाने लगीं। उन्होंने उस डेढ़ कमरे के मकान में “दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय” नाम का पौधा रोप दिया। दोनों उस पौधे को देखते, उसकी नाज़ुक पत्तियों की सहलाते, उसे धूप और पानी देते और बारिश में अति पानी और गर्मी के दिनों में धूल से बचाते। जब चीजों को सहेजने हेतु कमरा छोटा पड़ने लगा तो बड़ा मकान लेने की बात पर विचार हुआ। उन्होंने सितम्बर 1999 में नेहरू नगर स्थित उद्धवदास मेहता परिसर में एक मकान ले लिया। घर के सामान के साथ संग्रहालय भी नये आवास में घर के सदस्य की भाँति छोटे ट्रक पर लद कर पहुँच गया। नये आवास में घर के बाक़ी सदस्य अपनी-अपनी चीजों को व्यवस्थित करके बैठ गए। संग्रहालय की चीजों का ढेर राजुरकर राज का मुँह चिढ़ाता रहा। उन्होंने रात-रात भर जागकर चीजों को क़रीने से ज़माना शुरू किया। जगह की क़िल्लत ने झिकझिक और तकरार को जन्म दिया। लेकिन स्वप्न दृष्टा अडिग था। अपनी बनाई राह पर चलता रहा।
समिति का पंजीयन कराया। कार्यकारिणी गठित की। यह सब आसान नहीं होता। समिति का विधान बनाना, नियमित बैठक करना, सरकारी महकमे को प्रतिवेदन भेजना, आवश्यक धन की व्यवस्था करना और समिति में उपजते अंतर्विरोधों को सुलझाना, विघ्नसंतोषियों की चालों को काटना, ग़लत आलोचनाओं और निंदा को अनदेखा करना। राजुरकर की ज़िद अशोक निर्मल का साथ मिलने से इन सबका सामना करते हुए तय मंज़िल की तरफ़ बढ़ती रही।
यह एक छोटा-सा पौधा था, जिसे सपनों ने रोपा और जिसे अपनों का सम्बल मिला, वह आज सघन बटवृक्ष बन गया है। ढेर सारी उपलब्धियों के बीच राजुरकर भले ही अपने स्वास्थ्य को लेकर धीमे कदमों से चलते रहे, पर सच तो यह है कि उनके कदम सधे हुए थे। अपनी मिलनसारिता के चलते दोस्तों के साथ गति बनी रही। इस दौरान कई आपदाएँ भी आई, सभी का बहादुरी से सामना किया।
कितना बलिदान, कितना श्रम, कितना धन, कितनी पीड़ा व कितना समर्पण, इन सबसे गुजरकर राजुरकर ने अपना तन मन धन अर्पित कर अपने भीतर संजोये स्वप्न को ग्लेशियर के पिघलने की गति से साकार किया। अपने दो कमरे के आवास का एक कमरा “संग्रहालय“ बना दिया था। बाक़ी पूरा परिवार एक कमरे में गुज़ारा करता था।
राजुरकर राज के इस कार्य में प्रमुख रूप से सहयोग करने वालों में कुछ नाम का उल्लेख वो हमेशा करते थे, अशोक निर्मल, बाबूराव गुजरे, घनश्याम मैथिल, आर एस तिवारी, श्रीमती करुणा राजुरकर। बाद में पुत्रवत संजय राय आ जुड़े। जिनके सहयोग के बिना ये दुष्कर कार्य संभव नहीं हो सकता था।
कई साथी इस सफर में शामिल हुए, तो कई बिछुड़ भी गए। मिलने और बिछुड़ने के इस क्रम में भाई राजुरकर का स्वास्थ्य भी उनका साथ छोड़ने लगा था। अपनों का प्यार और कुछ कर गुज़रने मी ज़िद उन्हें वापस अपने कर्मपथ पर ले आता था। दुर्लभ, अनोखी और अनमोल धरोहर के बीच राजुरकर भी अनमोल होते चले गए। उनके ख़्वाब को पंख तो लग गये लेकिन मुश्किलें कम नहीं थीं। 1997 से यह सफर शुरू हुआ, 2023 तक न जाने कितने पड़ाव तय किए। सबका लेखा जोखा नहीं किया जा सकता।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित – “माँ दरशन की अभिलाषा ले हम द्वार तुम्हारे आये हैं…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 197 ☆ माँ दरशन की अभिलाषा ले हम द्वार तुम्हारे आये हैं… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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माँ दरशन की अभिलाषा ले हम द्वार तुम्हारे आये हैं
एक झलक ज्योती की पाने सपने ये नैन सजाये हैं
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पूजा की रीति विधानों का माता है हमको ज्ञान नही
पाने को तुम्हारी कृपादृष्टि के सिवा दूसरा ध्यान नहीं
फल चंदन माला धूप दीप से पूजन थाल सजाये हैं
दरबार तुम्हारे आये हैं, मां द्वार तुम्हारे आये हैं
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की स्त्री जीवन पर आधारित एक भावप्रवण कविता वजूद औरत का…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 252 ☆
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “पूजा का फल… “ की समीक्षा।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 16
मीराबाई से वार्तालाप — लेखिका- सुश्री रीटा शहाणी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मीराबाई से वार्तालाप
विधा- लघु उपन्यास
लेखिका- रीटा शहाणी
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
नींद उड़ानेवाली स्वप्नयात्रा☆ श्री संजय भारद्वाज
‘मीराबाई से वार्तालाप’, लेखिका रीटा शहाणी का अपने प्रतिबिंब से संवाद है। शीशमहल में दिखते जिस प्रतिबिंब की बात उन्होंने की है, वह शीशमहल लेखिका के भीतर भी कहीं न कहीं बसा है। अंतर इतना है कि कथा का शीशमहल जीव को प्राण देने के लिए विवश कर देता है जबकि लेखिका के भीतर का शीशमहल नित नए प्रतिबिंबों एवं नए प्रश्नों को जन्म देता है। अपने आप से संघर्ष को उकसाता है, चिंतन को विस्तार देता है। ये सार्थक संघर्ष है।
वस्तुतः इस वार्तालाप को स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का संवाद भी कहा जा सकता है। नायिका का एक रूप वो है जो वह है, दूसरा वो जो वह होना चाहती हैं। यह स्वप्नयात्रा हो सकती है पर नींद मेें तय की जानेवाली नहीं, बल्कि ऐसी स्वप्नयात्रा जो लेखिका को सोने नहीं देती।
भारतीय समाज में अध्यात्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। हमारे आध्यात्मिक चिंतन में अचेतन के चित्र और अवचेतन की धारणा भीतर तक बसी है। ये चित्र और धारणाएँ शाश्वत हैं। लेखिका की मीरा, ललिता गोपी से मीरा तक की यात्रा तो करती ही है, यात्रा के उत्कर्ष में लेखिका तक भी पहुँचती है। सूक्ष्म और स्थूल का मिलन कथा की प्राणवायु है। अवचेतन के सनातन का वर्तमान से एकाकार हो जाता है। यह एकाकार, इहलोक की तमाम चौखटों की परिधि से अधिक विस्तृत है।
अपनी यात्रा को लेखिका संवाद की शैली के साथ-साथ चिंतन-मनन एवं विश्लेषण से जोड़कर रखती हैं। कहीं पात्रों के वार्तालाप से और अधिकांश स्थानों पर सपाटबयानी से वे अपने चिंतन को पाठकों के आगे ज्यों का त्यों रखती हैं।
स्वाभाविक है कि पूरी यात्रा में लेखिका, पथिक की भूमिका में हैं। पथिक होने के खतरों से वे भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए लिखती हैं, ‘ यह जानना भी आवश्यक है कि उस रास्ते की मंज़िल कौनसी होगी, अंतिम पड़ाव क्या होगा। उसे पता है कि अपना एक पग उठाने से धरती का एक अंश छोड़ना पड़ता है। पैर उठाने से धरती तो छूट जाएगी और पुन: नई धरती पर पाँव धरना पड़ेगा। कुछ प्राप्त होगा, कुछ खोना पड़ेगा।’
यात्रा में पड़ने वाले संभावित अंधेरों से चिंतित होने के बजाय वे इसे सुअवसर के रूप में लेती हैं। कहती हैं, ‘यदि देखा जाए तो हर वस्तु का जन्म अंधेरे में ही होता है, प्रात: के उजाले में नहीं। बीज अंकुरित होते हैं धरती की कोख की अंधेरी दरारों में।’
जो कुछ भौतिक रूप से पाया, वह स्थायी नहीं हो सकता, इसका भान भी है। ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं, ‘किसी प्रकार का भी आनंद अधिक काल तक नहीं टिकता। अत: वह सही अर्थ में आनंद है ही नहीं। वह तो केवल मृग- कस्तूरी का खेल है जिसकी प्रतिध्वनि हमें अन्य वस्तुओं में सुनाई पड़ती है।’
वे कृष्ण की अनुयायी हैं। अतः सिद्धांतों से परे वे कर्म में विश्वास करती हैं। जीवन को ‘लीला’-सा विस्तार देना चाहती हैं। फलतः शब्द बोलते हैं, ‘कृष्ण ने अपने को सिद्धांतों के बंधनों से मुक्त रखा है । उसने कोई रेखा नहीं खींची है। परिणामस्वरूप उसके जीवन को लीला कहा जाता है।’
लेखिका अपनी यात्रा में दीवानगी के आलम की शुरुआत ढूँढ़ती हैं। इस शुरुआत का दर्शन और तार्किक विश्लेषण देखिए, ‘पर्दा हमने खुद डाला है, अत: हमें ही हटाना है। वह पट बाह्य नेत्रों पर नहीं है । वह है हमारी आन्तरिक चक्षुओं पर। हम उसको हटाने की शक्ति रखते हैं। एक बार घूँघट हट गया तो दीवानगी का आलम आरंभ होता है।’
दीवानगी के चरम का सागर लेखिका ने अपनी गागर में समेटने का प्रयास किया है। उनकी गागर भी मीरा की गागर की भाँति तरह-तरह के भाव एवं भावनाओं से लबालब है। ‘तारी’, ‘बैत’, ‘सुर्त चढ़ना’ जैसे सिंधी शब्दों का प्रयोग हिंदी पाठकों को नया आनंदमयी विस्तार देता है। सिंधी आंचलिकता गागर के जल को सौंधी महक व मिठास देती है।
लेखिका परम आनंद की अनुभूति के साथ यात्रा के उत्कर्ष तक पहुँचना चाहती हैं। इसलिए टहनी के दृष्टांत की भाँति स्वयं को सागर को समर्पित कर देती हैं, ‘टहनी आनंदित थी, प्रफुल्लित थी। उसे कोई भी चिंता न थी क्योंकि उसने खुद को लहरों के हवाले कर दिया था।’
इस आनंदमयी यात्रा का पथिक होने के लिए समर्पण या दीवानगी पाठकों से भी अपेक्षित है-
अक्ल के मदरसे से उठ, इश्क के मयकदे में आ।
जामे पयामें बेखुदी हम नेे पिया, जो हो सो हो।
निराकार प्रेम के इस साकार शब्दविश्व में पाठक अनोखी अनुभूति से गुजरेगा, इसका विश्वास है। लेखिका को बधाई।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कविता – प्रेम पंथ…।
रचना संसार # 24 – कविता – प्रेम पंथ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – नवरात्रि।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है कविता – समय…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)